Friday, 9 April 2021

व्यक्तित्व - कवि और साहित्यकार राजकमल चौधरी

आज ( 13 दिसम्बर ) मैथिली और हिन्दी के ऐसे कवि-कथाकार की जयंती है, जिनकी मृत्यु के 53 साल बाद भी साहित्य की दुनिया उसे किसी खाँचे में फिट नहीं कर पायी। कभी उन्हें हिन्दी का मंटो कहा गया तो कभी गिंसबर्ग का भारतीय अवतार। कभी उन्हें भूखी पीढ़ी और अकविता की परम्परा से जोड़ने की कोशिश हुई, तो कभी अराजकतावादी और लुम्पेन कह कर खारिज किया गया।  कभी उन्हें औरतखोर कहा गया तो कभी गांजा, भांग और शराब के नशे में डूबा रहने वाला व्यक्ति। इसके बावजूद वे कुछ ऐसा अहमक रचनाकार थे कि हर खाँचे को तोड़कर बाहर निकल आते थे।

इस 2020 के बिसबिसाते साल में भी उन पर एक स्मृति आलेख लिखा गया, जिसमें उन्हें एक गैरजिम्मेदार व्यक्ति साबित करने की कोशिश की गयी और फिर एक उनके एक प्रशंसक कवि ने उनके साहित्य और जीवन पर चमत्कृत कर देने वाली टिप्पणी लिखी। महज 38 साल की उम्र में दुनिया को छोड़ जाने वाले इस रचनाकार में न जाने ऐसा क्या था कि वे आज भी साहित्य की दुनिया की देहरी पर एक सवाल की तरह खड़ा नजर आते हैं। लोग न उस सवाल का जवाब ढूंढ पाते हैं, न आगे बढ़ पाते हैं। 

हालांकि मुझे यह जानकर हमेशा हैरत होती है कि जिस व्यक्ति को दुनिया औरतखोर और शराब, गांजा के नशे में डूबा हुआ अराजक और लुम्पेन व्यक्ति कहती है, उन्होंने कैसे महज 38 साल की उम्र में इतना साहित्य रच डाला। अगर इस रचयिता के साहित्य की थाह लेनी है तो राजकमल प्रकाशन से छ्पी आठ खंडों वाली इसकी रचनावली को उलटिये-पलटिए। पन्नों की गिनती कर लीजिये। और यह भी ध्यान रखिये कि इस व्यक्ति ने अपनी पूरी जिन्दगी में कभी एक शब्द फालतू नहीं लिखा।

राजकमल ने अपनी रचनाओं में हमेशा शब्दों की कंजूसी की है। छोटे, तीखे और सीधे मर्म को छेद देने वाले वाक्य ही उनकी रचनाओं की पहचान हैं। इसके बावजूद उनकी रचनावली 8 खंडों में पूरी होती है और रचनावली के सम्पादक देवशंकर नवीन जी को इन रचनाओं को सहेजने समेटने में 37 साल का वक़्त लगता है। इसके बाद भी कोई रचनाकार कैसे नशेड़ी, औरतखोर और अराजक हो सकता है। जिन्होने जीवन में एक किताब भी लिखी है, उन्हें मालूम होगा कि रचना करना कितना जिम्मेदार और अनुशासन का काम है। 

हां, यह सच है कि राजकमल ने अपने जीवन को कभी किसी सीमा में नहीं बांधा, अच्छा-बुरा, नैतिक-अनैतिक ये दायरे उसके लिए नहीं थे। उन्होने खुद को हर तरह के अनुभव के लिए मुक्त रखा था और वे खुद अपने बारे में तरह तरह के अफवाहों, झूठे किस्सों को बढ़ावा देने रहे। वे दुनिया के हर उस समूह के आसपास भटकते रहे जिसे दुनिया बुरा कहती है। और उनकी रचनाओं में वे लोग इसी वजह से सबसे अधिक विश्वसनीय स्वरूप में नजर आते हैं। 

वे अपनी रचनाओं के जरिये समाज के उनलोगों के साथ खड़े नजर आते हैं, जिन्हें दुनिया ने कलन्कित मानकर ठुकरा दिया। वे समाज की उन सच्चाईयों से पर्दा हटाने हैं, जिन्हें लोकलाज की वजह से संभ्रांत तबका छुपाने की कोशिश करता है। वे खुद कहते हैं कि मैं अपनी रचनाओं में पाप के घड़े को फोड़ देता हूं और उस घड़े में छिपी बदबू हर तरफ फैल जाती है। इस बदबू को झेल पाना सबके लिए आसान नहीं है, इसलिये लोग मुझे भी झेल नहीं पाते। 

वे बड़े लेखकों द्वारा खुद को खारिज किये जाने की कोशिश को बहुत सहज मानते रहे हैं। वे कहते थे, अगर आज मैं सफल हो गया तो वे तमाम लोग असफल हो जायेंगे, जिनकी रचनायें पाठ्यक्रम में शामिल होती हैं। इसलिये वे अपनी मशहूर कविता मुक्तिप्रसंग के आखिर में लिखते हैं-

" आदमी को 
तोड़ती नहीं हैं लोकतांत्रिक पद्धतियाँ 
केवल पेट के बल
उसे झुका देती हैं 
धीरे-धीरे अपाहिज
धीरे-धीरे नपुंसक बना देने के लिए
उसे शिष्ट राजभक्त देशभक्त देशप्रेमी 
नागरिक बना लेती हैं।

आदमी को इस लोकतंत्री संसार से 
अलग हो जाना चाहिए 
चले जाना चाहिए कस्साबों गांजाखोर साधुओं 
भिखमंगों अफीमची रंडियों की काली दुनिया में 
मसानों में 
अधजली लाशें नोचकर खाना श्रेयस्कर है 
जीवित पड़ोसियों को खा जाने से।

हम लोगों को अब शामिल नहीं रहना है,
इस धरती से आदमी को 
हमेशा के लिए 
खत्म कर देने की साजिश में।" 

यह सिर्फ उनकी कविता नहीं, उनका चुना हुआ जीवन भी है। हालांकि इस चयन के साथ-साथ उनका एक चयन वह भी है जो इस पोस्ट के साथ लगी तस्वीर में नजर आ रहा है। एक लेखक अपनी पत्नी, दो बेटियां और एक बेटे के साथ। फैमिली फ़ोटोग्राफ़। 

तस्वीर- नीलू भैया Neelmadhav Chaudhary की वाल से साधिकार ली गयी है। जो इस तस्वीर में सबसे छोटे शिशु के रूप में नजर आ रहे हैं।
( 13/12/2020 )

पुष्य मित्र
( Pushya Mitra )

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