Friday 30 April 2021

केएफ रुस्तम जी आईपी - बीएसएफ के संस्थापक

लीडर वो होते हैं, जो लीडर पैदा करते है.. और पॉलिटिकल लीडरशिप की पहचान इससे होती है कि उसके इर्द गिर्द राजनीति और ब्यूरोक्रेसी में कितने नए लीडर्स नर्चर किये गए। गांधी नेहरू का दौर ऐसा सुनहरा दौर था, जिसने भारत को हर विंग में दूरदर्शी लोगो को पहचाना, गढ़ा और बढ़ाया गया। के एफ रुस्तमजी उनमें से एक थे। 
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रायपुर- नागपुर रेलवे लाइन पर एक छोटा से स्टेशन है, कामटी। इस गांव में खुसरो फरामुर्ज़ रुस्तमजी का जन्म हुआ। मुस्लिम से लगते नाम की वजह से खारिज न करें, वे पारसी थे। नागपुर और मुंबई में पले बढ़े, और फिर नागपुर के एक कॉलेज में प्रोफेसर हुए। वहीं से सलेक्शन अंग्रेजी पुलिस में हो गया। यह कोई 1938 के आसपास का दौर था। 

यह इलाका सीपी और बरार कहलाता था, राजधानी थी नागपुर। असिस्टेंड एसपी के रूप में नागपुर में उन्हें पुलिस सेवा मेडल मिला। 1948 में हैदराबाद एक्शन के दौरान वे अकोला के एसपी रहे और हैदराबाद एक्शन में भूमिका का निभाई। 1952 आते आते उन्हें एक खास जगह पोस्टिंग मिली। 

रुस्तमजी को प्रधानमंत्री जवाहरलाल की पर्सनल सेक्युरिटी का इंचार्ज बनाया गया। इस दौर के अपने अनुभव उन्होंने अपनी डायरी में लिखे है, जो किताब की शक्ल में ढाले गए।( आई वाज शैडो ऑफ नेहरू) बहरहाल पांच साल बाद उन्होंने आगे बढ़ने का निर्णय किया। न चाहते हुए नेहरू ने उन्हें रिलीव किया। सपत्नीक डिनर पर बुलाया, अपनी हस्ताक्षरित तस्वीर दी। 

सीपी एन्ड बरार अब मध्यप्रदेश हो चुका था। रुस्तमजी यहां आईजी हुए। अब उस दौर का आईजी आज का डीजीपी होता था। स्टेट का टॉप कॉप.. पुराने पुलिसवाले यह दौर याद करते है, और चंबल के डाकू भी। इस दौर पर रुस्तमजी की डायरियों पर आधारित एक और किताब है। ( द ब्रिटिश, बैंडिट एंड बार्डर मैन) 
यह 1965 था और भोपाल से निकलकर रुस्तमजी वापस दिल्ली में थे। चीन युध्द का अनुभव हो चुका था। शास्त्रीजी एक नई फोर्स के लिए सोच रहे तो, ऐसा अर्द्धसैनिक बल जो सीमाओं की सुरक्षा करे। रुस्तमजी को बीएसएफ बनाने की कमान दी गयी। कुछ फौजी यूनिट्स, कुछ स्टेट आर्म्ड पुलिस को मिलाकर यह बल बना। रुस्तमजी की कमांड में यह बल एक सशक्त और सजग सीमा प्रहरी बन गया। इसकी परीक्षा की घड़ी भी जल्द आयी। 

यह 1971 था। इंदिरा ने पाकिस्तान को सबक सिखाने का पूरा इरादा कर लिया था। मगर जनरल मानेकशॉ ने वक्त मांग लिया। उन्हें 6 माह चाहिए थे। इस वक्त में पाकिस्तान के हुक से बच निकलने का खतरा था। वक्त का इस्तेमाल किया रुस्तमजी ने .. 

बांग्लादेश की मुक्तिबाहिनी को ट्रेनिंग, हथियार और पाकिस्तानी एडमिनिस्ट्रेशन पर धावे के लिए सारी रणनीति बनाकर देने के बाद रुस्तमजी ने सुनिश्चित किया कि पाकिस्तान को दम लेने की फुर्सत न मिले। छह माह बाद मानेकशॉ ने बाकी का काम तमाम कर दिया। 
रिटायरमेंट के बाद रुस्तमजी को पुलिस आयोग का सदस्य बनाया गया। जेलों की दुर्व्यवयवस्था को रुस्तमजी ने बेदर्दी से सामने निकालकर दिखाया। वह दौर सरकार की आलोचना करने वालो को उठवा लेने या उसके ऑफिस में आधी रात को छापे मारने का न था। रुस्तमजी की रिपोर्ट पर कार्यवाही हुई, हजारों बन्दी जमानत पर छोड़ दिये गए। जेलों के लिए नई गाइडलाइन बनी। 

यह कोई पुलिस या फौजी सेवा न थी। यह राष्ट्र के लिए एक चाक चौबंद नागरिक की सेवा थी। भारत मे सिविलियन सेवा के दूसरा सर्वोच्च नागरिक सम्मान "पद्मविभूषण" से रुस्तमजी को नवाजा गया। 
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आजादी की बेला थी। अमरावती में पदस्थ एसपी रुस्तमजी को आदेश हुआ कि 5 प्रिंसली स्टेटस के मर्जर से बनने वाले के नए जिले की कमान संभाले। एक कार में सवार हो मियां बीवी नए जिले की कमान संभालने निकल पड़े। 

सारंगढ रियासत के पैलेस में आकर रुके । 31 दिसम्बर 1947 को स्टेट गेस्ट बुक में उनके हस्ताक्षर और एंट्री मिलती है। अपनी डायरी में रुस्तमजी इस दिन के विषय में लिखते है- "मैं एक ऐसे जिले का एसपी बनने जा रहा हूँ, जो अब तक अस्तित्व में नही आया। और मैं ऐसे राजा के साथ बैठा हूँ, जिसका राज्य कल खत्म हो जाएगा" 

1 जनवरी 1948 को सारंगढ, रायगढ़, धरमजयगढ़, सक्ति और जशपुर की रियासतों को मिलाकर एक जिला बना, जो मेरा रायगढ़ है। रुस्तमजी इसके फाउंडर सुपरिटेंडेंट ऑफ पुलिस थे। (सक्ति अब दूसरे ज़िले का हिस्सा है) 
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कमाऊ जिलों में और प्लम पोस्टिंग के लिए मरते, रीढें चटकाते युवा आईएएस/ आईपीएस के लिए पदमविभूषण के एफ रुस्तमजी का कद इतना ऊंचा है, कि उनकी ओर देखने के लिए सर ऊंचा करने से दर्द हो सकता है। 

इसलिए कि उनका कद बेहद छोटा है। छोटे कद की पोलिटीकल लीडरशिप, अफसर भी छोटे कद के ही चाहती है। 

मनीष सिंह
( Manish Singh )

यात्रा वृतांत - गंगोत्री यात्रा के पड़ाव (8)

नचिकेता ताल के बाबा जी की बातें रोचक थीं। वे मनुष्यों से दूर थे, लेकिन उनमें ह्यूमर ग़ज़ब का था। मैंने पूछा, बाबा जी यहाँ हिंसक जानवर भी आते होंगे? बोले, किंतु दो-पायों से कम हिंसक। क्योंकि वे हिंसा अपनी मौज-मस्ती के लिए नहीं अपनी क्षुधा की शांति के लिए करते हैं। अब जिसका जो भोजन है, वह तो करेगा ही। बाबा जी ने कहा ये जिन्हें आप हिंसक पशु कहते हैं, वे दरअसल देवी-देवता हैं। और जब उनकी इच्छा होती है, वे आप जैसे लोगों को दर्शन देते हैं। उन्होंने बताया, कि आज तक किसी पशु ने उनको नुक़सान नहीं पहुँचाया। 

अब शाम के पाँच बज रहे थे। हमारा यहाँ से निकलना ज़रूरी था, क्योंकि हम बाबा जी की तरह वीतरागी नहीं हो पाए थे। बाबा जी को कुछ राशि भेंट करनी चाही तो वे बोले अंदर रख दो, जिसे ज़रूरत होगी ले जाएगा। हम लोग अंदर पाँच-पाँच सौ के दो नोट रख आए। हम निकले पहले तो विकट चढ़ाई और उसके बाद निरंतर उतराई। पंडित जी का बेटा इसी इलाक़े का था, इसलिए उसे वे रास्ते भी पता थे, जिन पर घसियारिनें चलती हैं। अर्थात् सीधी पगडंडी। मगर इन पर फिसलने का ख़तरा भी था। यूँ मैं स्पोर्ट्स शू पहनता हूँ, लेकिन उस दिन पंडित जी की ससुराल जाने के चक्कर में लेदर शू पहने थे। साथ में गरम कुर्ता व पायजामा था, ऊपर से जैकेट। यह ड्रेस असुविधाजनक थी। जूते फिसल रहे थे। अंत में दीपांशु मुझे हाथ पकड़ कर ले गया। यह दूरी लौटने में हमने आधा घंटे में पार कर ली। 

चौरंगी खाल गेट पर मैगी पॉइंट्स खुले थे। हमने मैगी खाई और चाय पी। तब तक अंधेरा हो गया था। कुछ ही दूर चले होंगे कि देखा, छह फुट लम्बा और तीन फुट ऊँचा एक चितकबरा पशु सड़क को भाग कर पार कर रहा है। हम रुक गए। यह तेंदुआ था। यह बिल्ली प्रजाति का एक पशु है और बहुत फुर्तीला होता है। यूँ तेंदुआ कुत्तों या अन्य पालतू पशुओं का ही शिकार करता है, किंतु यदि यह आदमख़ोर हो जाए तो मनुष्यों को भी हलाल कर देता है। यह पशु सीधे गर्दन पर हमला करता है और एक ही झटके में गर्दन तोड़ देता है। यह अक्सर चुपके से घात लगा कर हमला करता है। सड़क पार कर रहा तेंदुआ बिजली की सी फुर्ती से ढलान वाले जंगलों में गुम हो गया। 

कुछ ही देर में हम मानपुर पहुँच गए। आज रात मानपुर में ही गुज़ारने का लक्ष्य था। नौटियाल जी का भरा-पूरा परिवार है। उनके दो बेटों में से एक हैदराबाद में अध्यापक है। ख़ाली समय में पुरोहिताई भी कर लेता है। उसकी पत्नी भी अध्यापक है। दूसरा पहले दिल्ली के आदर्श नगर में एक मंदिर का पुजारी था। पर अब गाँव आ गया है, क्योंकि उसके पिता अब 78 पार कर चुके हैं। यूँ भी दिल्ली में मंदिरों पर क़ब्ज़ा स्थानीय कमेटी का होता है। वे पुजारी को न के बराबर वेतन देते हैं और कहते हैं अगर कोई दर्शनार्थी आपको कुछ भेंट करे वह आपका लेकिन जो कुछ मंदिर की मूर्तियों पर चढ़ाया जाएगा अथवा दान पेटी में डाला जाएगा, वह कमेटी का होगा। वे बताते हैं, कि ये कमेटी वाले इतनी नीच मानसिकता के होते हैं कि यदि किसी दिन पुजारी को दक्षिणा अधिक मिलने लगे तो वे पुजारी से पैसा माँगने लगते हैं। उन्होंने गर्भ गृह में सीसीटीवी कैमरे लगवा रखे हैं। इसलिए उनका मन ऊब गया और वे छोड़ कर गाँव आ गए। उनकी बेटी ने बी. फ़ार्मा किया हुआ है और दामाद ने भी। बेटा होटल मैनेजमेंट का कोर्स करने के बाद तीन महीने पहले तक मालदीव के एक होटल में काम कर रहा था। लेकिन पर्यटन उद्योग ठप होने से वह अब गाँव आ गया है। उसकी पत्नी ने बीडीएस कर रखा है और उसका उत्तरकाशी में क्लीनिक है। 

पंडित दयानंद नौटियाल का परिवार अब गाँव में है, इसलिए मकान भी पहले की तुलना में खूब भव्य बन गया है। तीन नाली से अधिक के इस मकान में तीन तो हिस्से हैं। तथा सामने विशाल मैदान या आँगन है। चारों तरफ़ ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और नीचे बहती इंद्रवती नदी। इस आँगन में सूर्य की चमक और धूप खूब रहती है, लेकिन जाड़े में बर्फ़ भी पाँच इंच मोती परत वाली पड़ती है। दिल्ली में पुजारी रह चुके इनके बेटे ने बताया कि उसने गोमुख से रामेश्वरम तक की पदयात्रा की हुई है तो मेरी उनमें दिलचस्पी बढ़ी। उन्होंने पूरा वर्णन यूँ किया। एक बार वर्ष 2004 में उनके मन में तरंग उठी, कि गोमुख से गंगा जल लूँ और जाकर रामेश्वरम स्थित शिवलिंग का अभिषेक करूँ। वह भी पद-यात्रा करते हुए। यह अत्यंत कष्टसाध्य काम था। पर ठान ही लिया तो चल दिए। उन्होंने कर्मनाशा से बचने के लिए पहले हरिद्वार फिर सोनभद्र गया होते हुए ओड़िसा का रूट पकड़ा। पुरी, भुवनेश्वर, विशाखापटनम होते हुए वे रामेश्वरम पहुँचे। पूरी यात्रा उन्होंने नंगे पाँव की और गंगा जल से भरे कलश को कहीं भी नीचे ज़मीन पर नहीं रखा। सिर्फ़ मंदिरों में ही रात्रि गुज़ारते और इस तरह तीन महीने 21 दिन बाद वे रामेश्वरम पहुँच गए। 

मैंने अनुमान लगाया कि जिस रूट से ये गए, उस रूट से यह दूरी कम से कम 5000 किमी की होगी। ये कितनी स्पीड से चले। मैंने बहुत पहले जब मेरी उम्र कुल 27 साल की थी तब कानपुर ज़िले के बेहमई नर संहार कांड को कवर किया था। तब एक दिन में क़रीब 45 किमी चला था। राजपुर से बेहमई और फिर वहाँ से सिकंदरा तक पैदल चला था। यह दूरी 40-45 किमी की रही होगी। इसके अगले रोज़ मेरी टांगें जवाब दे गईं। लेकिन इन्होंने कैसे यह दूरी तय की होगी? किंतु किसी की आस्था का मज़ाक़ उड़ाना मेरे स्वभाव में नहीं है, इसलिए मैंने यह मान लिया। पर उनके बिहार और ओडीसा के संस्मरण रोचक थे। मैंने रात के खाने में पहाड़ी भोजन के लिए कहा था। इसलिए मेरी रुचि का खाना बना। भट की दाल, मड़ुआ के आटे की रोटी, चटनी, सब्ज़ियाँ और पहाड़ का ख़ुशबूदार चावल। रात को सोने गए तो मुझे वह बैठका दिया गया, जिसमें अटैच्ड बाथरूम था। लेकिन यहाँ अकेले पड़े रहने से अच्छा था कि ऊपर की मंज़िल में बने हाल में जाकर सोना, जहाँ पाँच चारपाई बिछी थीं। मैंने कहा कि रात को एक बार लघुशंका के लिए आना पड़ेगा, तो नीचे आ जाऊँगा लेकिन सब के साथ सोने व बतियाने की बात ही अलग है।

सुबह पाँच बजे उठा और बाथरूम जाने लगा तो देखा कि बुजुर्ग नौटियाल जी 78 की उम्र के बावजूद स्नान कर चुके हैं और एक लोटा जल लेकर छत पर तुलसी के पौधों में पानी ढारने जा रहे हैं। मैंने भी तभी नहाने का मन बनाया और छह बजे तक स्नान कर चुका था। कुछ देर टहला। आठ बजे तक सूरज निकल आया और धूप बाहर के आँगन में आ गई। नाश्ते में पकौड़ियाँ, गज़क और चाय आई। इस मकान के नीचे नौटियाल जी का किन्नू का बाग था। कुछ किन्नू और नींबू तोड़ लाए। 
(जारी)

शंभूनाथ शुक्ल
( Shambhunath Shukla )

गंगोत्री यात्रा के पड़ाव (7)
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पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 16.

“बंगाली बहुत ही सांस्कृतिक और मधुर वाणी बोलने वाले लोग हैं। वह उन मधुमक्खियों की तरह हैं जो दुनिया को शहद की मिठास देते हैं। लेकिन उनके इस शांत छत्ते को अगर छेड़ा जाए, तो बिना अपनी जान की परवाह किए एक साथ दुश्मन पर टूट पड़ते हैं।”
- मेजर जनरल हकीम अहमद कुरैशी, पाकिस्तान सेना

पाकिस्तान का इतिहास लिखते हुए समस्या यह भी है कि जब सब्जी बैगन की बन रही हो, तो उसमें आलू डॉमिनेट न कर जाए, अन्यथा वह आलू-बैगन की सब्जी कहलाएगी। मुझे भारत या अन्य देशों को केंद्र से बाहर रखना होगा। उनकी भूमिका उतनी ही होगी जितनी भारत के इतिहास में अन्य देशों की होती है।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस की नातिन शर्मिला बोस ने 1971 के युद्ध पर एक विवादित लेकिन तथ्यपरक किताब लिखी है, जिसमें उन्होंने शेख मुजीब और याह्या ख़ान को पूर्वी पाकिस्तान के नरसंहार में लगभग बराबर का भागी बनाया है। वहीं श्रीनाथ राघवन ने अपनी किताब में इसे एक वैश्विक (ग्लोबल) घटना और शीत-युद्ध का हिस्सा बताया है। 

सनद रहे कि दोनों में भारत की भूमिका इंदिरा गांधी के ‘माँ दुर्गा’ प्रोपोगैंडा से भिन्न है, जो अधिकांश भारतीय स्कूली किताबों से लेकर भारतीय इतिहास किताबों में पढ़ते रहे हैं। भारत एक सूत्रधार तो है ही, पर इसका मुख्य कारक भारत की आंतरिक सुरक्षा थी, शक्ति-प्रदर्शन कर पाकिस्तान को हराना या जमीन हड़पना नहीं। हालाँकि, आंतरिक सुरक्षा की समस्या पूरी तरह हल नहीं हुई (बल्कि बढ़ ही गयी), इंदिरा गांधी को ज़रूर स्थायी गद्दी मिल गयी। इस नोट के साथ पाकिस्तान पर लौटता हूँ।

शेख मुजीब को जब याह्या ख़ान ने पाकिस्तान आकर बातचीत करने कहा, तो उन्होंने जवाब दिया, “अगर मुझसे बात करनी है तो ढाका आइए”

भुट्टो और याह्या ख़ान ढाका आए। वहाँ शेख मुजीब और भुट्टो एक-दूसरे से मुँह फेर कर तिरछे बैठ गए। 

याह्या ख़ान ने कुछ डाँट कर कहा, “आप तो नयी-नयी निकाह वाले मियाँ-बीवी जैसे बैठ गए हैं। दोनों बात कर मामला सुलझाएँ। मैं तख्त से हट कर ज़म्हूरियत बहाल करना चाहता हूँ।”

शेख मुजीब ने कहा, “हमें अपनी आज़ादी चाहिए। मुझे पाकिस्तान के वजीर-ए-आज़म बनने का कोई शौक नहीं।”

उसके बाद उन्होंने ढाका में वह भाषण दिया, जिसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने गांधीवादी आंदोलन कहा। हालांकि वह भाषण और उसके बाद की घटनाएँ कहीं से गांधीवादी नहीं थी। 

शेख़ मुजीब बुलंद आवाज में कहते हैं, “प्रत्येक घरे घरे दुर्गा गोरे तोलो। तोमादार जेइ आछे, ताइ दियेर शत्रुर मुकाबला कोरते होबे।”

(हर घर में दुर्गा हो, और तुम्हारे पास जो हो, उसी से शत्रु का मुकाबला करो)

शत्रु यानी उनका देश? पाकिस्तान का झंडा और जिन्ना के पुतले सामूहिक रूप से जलाए गए। वहाँ का नारा था, ‘बीर बंगाली अस्त्र धरो, बांग्लादेश स्वाधीन करो’।

हज़ारों लोग लाठियाँ लेकर सड़क पर निकल चुके थे, और तोड़-फोड़ कर रहे थे। पाकिस्तान की सरकारी व्यवस्था ठप्प पड़ गयी, और उन पर शेख मुजीब के लोगों का क़ब्ज़ा हो गया। एक वाकया है कि चित्तगोंग से ढाका की तरफ ट्रेन तब तक नहीं चली, जब तक शेख मुजीब की तरफ से चलाने को नहीं कहा गया।

इस बंगाली राष्ट्रवाद में सबसे बुरा हाल उन बिहार- उत्तर प्रदेश से आए मुसलमानों का था, जो विभाजन के वक्त अपना घर-बार छोड़ कर पाकिस्तान आ गए थे। अब यह पाकिस्तान रहा ही नहीं, और वे सभी गद्दार कहे जाने लगे। जबकि पारिभाषिक रूप से देश के ख़िलाफ़ विद्रोह तो बंगाल के लोग कर रहे थे।

पाकिस्तान के पास ताक़त नहीं थी कि वह कुछ कर सके। उसकी अपनी सेना में विद्रोह हो चुका था, और जिया-उर-रहमान के नेतृत्व में बंगाली फ़ौजियों ने अपनी सेना बना ली थी।

उस वक्त जब अमरीकी दूतावास पर बम फेंका गया तो हेनरी किसिंगर को रिचर्ड निक्सन ने पूछा, “वहाँ कोई शासन नहीं बचा क्या?” (Can anybody run the god-damn place?)

किसिंगर ने कहा, “इन बंगालियों का इतिहास ही है कि इन पर शासन करना कठिन है” (Bengalis have been difficult to run through out history)

निक्सन ने कहा, “भारतीय भी नहीं कर पा रहे” (Indians can’t govern them either)

अमरीका के ग्रीन सिग्नल पर दमन करने बलूचिस्तान के कसाई (Butcher of Baluch) कहे जाने वाले टिक्का ख़ान को ढाका भेजा गया। उसके बाद जो हुआ, वह अकल्पनीय था। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
( Praveen Jha )

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 15.
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Thursday 29 April 2021

आज, 30 अप्रैल के ही दिन, 1945 में, हिटलर ने आत्महत्या की थी / विजय शंकर सिंह

30 अप्रैल यानी आज ही के दिन एडोल्फ हिटलर ने आत्महत्या की थी। दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जब हिटलर को लगने लगा कि अब वह यह  बड़ी जंग किसी भी तरह से, जीत नहीं पायेगा तो उसने अपनी पत्नी इवा ब्राउन के साथ खुद को बर्लिन में मौजूद एक खुफिया बंकर के एक कमरे में बंद कर लिया। यह बंकर करीब 50 फीट नीचे जमीन में बना हुआ था। अपनी क्रूरता, ज़िद और अहंकार से दुनियाभर में डर का माहौल पैदा करने वाला हिटलर हार के भय से इतनी बुरी तरह से टूट गया था कि उसने खुद को खत्म करने का फैसला कर लिया। सोवियत सेनाओं के पकड़ में आने से पहले ही उसने पकड़े जाने के डर से खुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली। हिटलर मरने के बाद भी दुश्मनों के हाथ नहीं लगना चाहता था इसीलिए उसने अपने एक करीबी अधिकारी से एक वादा लिया, कि मरने के बाद उसकी और पत्नी एवा की लाश को पेट्रोल छिड़ककर जला दिया जाए। और ऐसा ही हुआ भी। 

हिटलर आधुनिक इतिहास का एक विलक्षण चरित्र है। अतिराष्ट्रवाद या अंधराष्ट्रवाद से पीड़ित , एक जाति या धर्म के प्रति भयंकर पूर्वाग्रह और आपराधिक मानसिकता से ग्रस्त, रक्त की शुद्धता के प्रति उन्माद भरे विचारों से लैस, इस व्यक्ति ने अपने पागलपन ने बीसवीं सदी के ही नहीं बल्कि मानव इतिहास के सबसे त्रासद और हिंसक युद्ध की पीठिका रखी थी। अपने देश को यूरोप में सबसे सम्मानित स्थान और एक मज़बूत राष्ट्र के रूप में स्थापित करने की इसकी अभिलाषा ने अंततः इसके देश को खंड खंड कर दिया। बेहद मज़बूत इरादों का खुद को दिखाने वाले इस दंभी व्यक्ति ने अंततः आत्महत्या कर ली, और अपने पीछे छोड़ गया, एक भग्न और विखंडित देश, और अपने विचारों का खोखला पाखण्ड। 1919 में प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हुआ था। 1939 में दूसरा शुरू हुआ। प्रथम में भी जर्मनी बुरी तरह हारा था, दूसरे में तो उसे मित्र देशों ने बाँट ही लिया था। लेकिन 1919 से 1939 के बीच के बीस सालों में हिटलर ने अंधराष्ट्रवाद और रक्त की शुद्धता का जो मायाजाल फैलाया, उस से पूरा जर्मनी चौंधिया गया और उस चौंधियाहट ने पूरे जर्मनी के युवा वर्ग को अँधा कर दिया। प्रकाश का यह सन्निपात युवाओं को और कुछ देखने ही नहीं देता था। केवल एक ही भावना ठाठे मार रही थी कि, पहले विश्व युद्ध का बदला लिया जाय। हिटलर एक अद्भुत और अत्यंत प्रभावशाली वक्ता था। उसके भाषण लोगों को हिस्टिरिकल बना देते थे। दुनिया उसके वाणी का लोहा मानती थी। लोग बताते हैं , बनारस के इक्के वाले भी जब इक्कों की दौड़ होती थी तो घोड़े को पुचकार कर ललकारते थे, चल बेटा, हिटलर की चाल। यह राजनेता का गुण और देश को दिशा देने वाली मानसिकता का लक्षण नहीं था, यह उन्माद और केवल एक ऐसा उन्माद जो विनाश की ओर ही ले जाता है।

वह खुद को आर्य कहता था। आर्यों की एक शाखा का, ईरान और यूरोप की और जाना प्रमाणित है। ईरानी इस्लामी क्रान्ति जो 1979 में अयातुल्लाह खोमैनी के नेतृत्व में हुयी थी, जिसमे ईरान के शाह रजा पहलवी को अपदस्थ कर दिया गया था , में शाह ईरान की एक पदवी आर्यमिहिर भी थी, और उसका राज चिह्न सूर्य था। शाह को इस क्रान्ति के बाद अमेरिका में शरण लेनी पडी। दूसरी शाखा यूरोप की और गयी। हिटलर खुद को इसी शाखा का मानता था और रक्त की शुद्धता का भाव उसे बहुत था। उसने भी एक राजनैतिक दल, नेशनल सोशलिस्ट जर्मन वर्कर्स पार्टी (  का गठन कि 1920 - 1945 ) का गठन किया। यह दल बाद में नाज़ी पार्टी कहलाई और हिटलर की विचार धारा नाजीवादी विचार धारा कहलाई। नाज़ी शब्द जर्मन भाषा के नेशनल सोशलिस्म का सक्षिप्त रूप है। यह दल और विचारधारा रक्त की शुद्धता और सेमेटिक विरोधी था।  बाद में हिटलर नाज़ी पार्टी का सर्वेसर्वा बन गया। यहूदियों से, जो सेमेटिक थे , उसकी जानी दुश्मनी थी. आधुनिक युग में किसी एक धर्म के सामूहिक हत्या और पलायन का इतना बीभत्स इतिहास शायद ही मिलेगा। उसकी आत्म कथा , मीन काम्फ़, मेरा संघर्ष एक अत्यंत चर्चित और लोकप्रिय पुस्तक है। पेंटर से ले कर जर्मनी का राज प्रमुख बनने की उसकी कहानी रोचक तो है ही, साथ ही , उसके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को भी दर्शाती है। 

पर हर व्यक्ति का सव कुछ कभी नहीं दिखता है। कुछ न कुछ गोपन रहता ही है और कुछ वह कभी नहीं किसी से कहना चाहता है। पर साथ के लोग , उसके बारे में कुछ न कुछ , सायास या अनायास जान ही जाते हैं। आज ऐसे ही उसके जीवन और व्यक्तित्व के अनदेखे और अनजाने पक्ष की और मैं आप को ले जा रहा हूँ। 1940 में उसकी आत्मकथा मीन काम्फ़ की समीक्षा जॉर्ज ऑरवेल ने की थी। यह , वह प्रसिद्ध लेखक जॉर्ज ओरवेल नहीं हैं ,बल्कि एक अन्य अल्पख्यात समीक्षक हैं। उन्होंने समीक्षा के दौरान हिटलर के व्यक्तित्व में नकारात्मक अंशो के विकास पर बहुत बारीकी से अध्ययन किया। ऑरवेल एक मनोवैज्ञानिक भी थे। उनकी मनोविज्ञान में दिलचस्पी ने हिटलर के व्यक्तित्व के नकारात्मक भाव को समझने में बहुत मदद की। उन्होंने इसे बुराई का जीवंत प्रतीक या मानवीय प्रतीक कहा। 1930 में ही हिटलर का  उत्थान शुरू हो गया था, और उसके व्यक्तित्व के नकारात्मक पक्ष को जर्मनी झेलने भी लगा था। 9 साल बाद ही जो द्वीतीय महासमर हुआ, उसमें शुरुआती तीन साल तक तो जर्मनी अजेय ही दिखा, पर अंततः जैसे सारी बुराइयों का अंत होता है, इसका भी हुआ. 

जॉर्ज ऑरवेल लिखता है
" हिटलर, अपने प्रतिद्वंद्वियों के विरुद्ध , कभी सफल नहीं हो पाता, अगर उसने अपने व्यक्तित्व को और आकर्षक नहीं बनाया होता तो।  वह अपनी क्षवि और अपने भाषणों के प्रति बहुत सजग रहता था। उसके आत्मकथा से यह बात अक्सर प्रमाणित होती है। उसके भाषणों को जब आप बार बार सुनेंगे तो यह स्वतः प्रमाणित हो जाएगा। मैं इसे जोर देकर कहना चाहूँगा कि, हिटलर को मैं कभी नापसंद नहीं कर सका, जब तक कि वह सत्ता में नहीं आ गया। पर मैंने खुद को छला गया महसूस किया जब वह सत्ता में आया तो। मैं सोचता था कि अगर मैं उसके क़रीब किसी प्रकार पहुँच जाता तो उसकी हत्या कर देता। पर इसलिए नहीं कि  उस से मेरी कोई व्यक्तिगत शत्रुता थी। पर हैरानी यह है कि वह इन बुराइयों के बाद भी मुझे कभी कभी अपील भी करता था, जब मैं विभिन्न मुद्राओं में , उसके फ़ोटो देखता था तो। उसकी पुस्तक के हर्स्ट और ब्लैकेट संस्करण में जो शुरुआती दौर के फ़ोटो छपे हैं उन्हें देखने के लिए ज़रूर मैं आप को सुझाव दूंगा, जिसमें वह भूरी शर्ट पहने दीखता है। वह खुद को इन चित्रों में कभी सलीब पर टंगे ईसा की तरह  , कभी शहीद की मुद्रा में तो कभी , खुद को पीड़ित रूप से दिखने की कोशिश करता है। वह खुद को प्रोमेथियस ( ग्रीक देवता जो मनुष्य जाति के लिए अनेक कष्ट सहता है,( ग्रीक माइथोलॉजी में इसकी बहुत चर्चा की गयी है ) की तरह जो एक शिला से जंजीरों से बंधा हुआ, दुनिया भर की सारी विषमताओं से अकेले हीं लड़ता हुआ दीख रहा है. दिखाना चाहता था। " 
ऑरवेल आगे लिखता है, 
" हिटलर की क्षवि या अपील मूलतः प्रतीकात्मक थी ". 

आज के अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनावों से इसकी तुलना करें तो पाएंगे कि रूज़वेल्ट से लेकर, निक्सन, और अब हाल के अमेरिकी राष्ट्रपति रहे डोनाल्ड ट्रंप तक , सभी प्रत्याशियों ने अपनी क्षवि जो जनता के सामने प्रस्तुत की जानी है पर विशेष ध्यान दिया। यह नाटकीयता, हिटलर का प्रभाव है या नहीं यह कहना मुश्किल है , पर ऐसी नाटकीयता का इस्तेमाल हिटलर ने ही पहली बार किया था।  मंच सज्जा और वक्तृता शैली में नाटकीयता का समावेश बढ़ता गया है और भाषणों की गुणवत्ता उपेक्षित होती गयी है। राजनीति का प्रचार पक्ष अब एक इवेंट मैनेजमेंट की तरह हो गया है।  भाषणों में चाक्षुष भाव और अभिनय कला का इतना समावेश हो गया है, नेता जो कहना चाहता है, वह या तो गौड़ हो गया है या गौड़ कर दिया गया है। हिटलर ने ऐसी ही उन्माद भरी भाषण शैली का प्रयोग कर जर्मनी के युवाओं को दीवाना बना दिया था। लोग उन्माद में आ कर अपने शर्ट के बटन फाड़ देते थे और चीखते चिल्लाने लगते थे। यह अंदर से निकलती हुयी लोकप्रियता और सम्मान का भाव नहीं था, बल्कि एक मनो रोग जैसा था. इसी लिए जब हिटलर  ने आत्म हत्या की तो जर्मनी में उस लोकप्रियता का जिस के लहर में चढ़ कर वह शिखर पर पहुंचा था, शतांश भी नहीं दिखा। अपने मित्र मुसोलिनी को छोड़ कर, वह शायद अकेला राष्ट्र प्रमुख होगा, जिसके मृत्यु पर प्रसन्नता मनाई गयी होगी। 

लेकिन हिटलर को यह नाटकीयता पसंद थी। वह प्रेजेन्टेशन में विश्वास करता था। अपनी आत्म कथा , मीन काम्फ़ की भूमिका में वह लिखता है,
" मैं जानता हूँ, जनता का दिल लिखित अंश के बजाय बोले गए शब्दों से अधिक जीता जा सकता है. इसी लिए इस धरती पर हुआ हर महान आंदोलन का विकास उसके भाषण कर्ताओं का ऋणी है न कि, महान लेखकों का. "
अंग्रेज़ी में यह उद्धरण इस प्रकार है,
“I know that men are won over less by the written than by the spoken word, that every great movement on this earth owes its growth to orators and not to great writers.” 

इस प्रकार हिटलर ने भाषण कला, ओरेटरी की ताक़त समझा और उसमें और धार देने के लिए उसने अभिनय और नाट्य कला का भरपूर उपयोग किया। वह घंटो इसका रिहर्सल करता था। उसका अधिकृत फोटोग्राफर, हेनरिख हॉफमैन, अपने संस्मरण में लिखता है कि 
" हिटलर अपने पूर्वाभ्यास की ढेर सारी तस्वीरें खिंचवाता था. और विभिन्न कोणों से उसे फ़ोटो उतारने के लिए कहता भी था। भाषण की गुणवत्ता पर कम बल्कि हिटलर का ध्यान भाषण की नाटकीयता और परिधान बोध पर अधिक रहता था।"
हॉफमैन ने कुल 20 लाख फ़ोटो उतारे थे। हिटलर उन फ़ोटो को बार बार देखता था और बाद में उन्हें वह नष्ट करा दिया करता था।" 
हॉफमैन ने उसी दुर्लभ एलबम में से कुछ फ़ोटो बचा लिए थे, जिसमें से कुछ को मैं इस ब्लॉग के साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ। हॉफमैन आगे कहता है, 
" हिटलर विभिन्न तरह से हाँथ उठाने , गिराने, और स्वरों के आरोह अवरोह से भीड़ पर जादुई असर डाल देता था।"

यह वह समय था जब फोटोग्राफी कला अधिक विकसित भी नहीं थी। फिल्मों के लिए भी वह तकनीकी रूप से कम विकसित काल था। आज जब कि हर व्यक्ति के पास फ़ोटो खींचने और उसे तुरंत ही सोशल मीडिया के माध्यम से दुनिया भर में फैला देने का विकल्प उपलब्ध है तो राजनीतिक दलों के जलसे , एक इवेंट बन जाएँ तो आश्चर्य की कोई बात नहीं है। अब तो प्रचार कंपनियां प्रचार, मंच सज्जा, भीड़ एकत्र करने और सभा के प्रचार प्रसार के साथ साथ , सारी जिम्मेदारी खुद ही ले ले रहीं है. अब यह लोकतंत्र का एक सर्कस या कोई ग्रैंड तमाशा ही बन कर रह गया है.

( विजय शंकर सिंह )

कहानी: अंदर की बात / असग़र वजाहत

सुरेश चंद ने मामलों को दो हिस्सों में बांट रखा था । वह मानता था कि दो ही प्रकार के मामले होते हैं । एक अंदरूनी मामला होता है। अंदर की बात होती है और एक बाहरी मामला होता है। घर के अंदर जो होता है वह अंदर की बात है। अंदरूनी मामला है। उसे बाहर नहीं  ले जाना चाहिए  और उसमें  बाहर के किसी आदमी को बोलने का कोई हक नहीं है।

सुरेश चंद रोज अपनी पत्नी को पीटता था और मानता था कि इस अंदर की बात का  किसी को पता नहीं है।  लेकिन  यह सच नहीं था । अंदर की बात  सब जानते थे।

अगर कभी कभार, भूले - भटके कोई पूछ  ही लेता था कि पत्नी को क्यों मारते हो तो वह कहता था -  यह अंदर की बात है, मेरा अंदरूनी मामला है। और बहुमत मेरे पक्ष में है।'

इसमें कोई शक नहीं कि उसे  बहुमत प्राप्त था।  घर में तीन ही लोग थे । सुरेश चंद्र, उसकी पत्नी और उसका नौकर। नौकर बड़ा समझदार और मालिक का वफादार था । 

रोज़ पिटने से तंग आकर एक दिन पत्नी ने प्रेशर कुकर उठाकर सुरेश की खोपड़ी में दे मारा।
सुरेश की खोपड़ी फूट  गई। वह चिल्लाने लगा।  शोर मच गया । शोर रोज़ ही मचता  था पर सुरेश की पत्नी शोर मचाती थी और कोई पड़ोसी न आता था। लेकिन आज सुरेश ने शोर मचाया तो पड़ोसी आ गए ।

वे उसे  अस्पताल ले जाने लगे। पर सुरेश ने कहा - मैं अस्पताल नहीं जाना चाहता । यह मेरे घर के अंदर का मामला है। घर के अंदर  की बात  बाहर नहीं निकलना चाहिए।'

पड़ोसी चुप हो गए।  लेकिन  क्योंकि खून बहुत बह गया था  और वह बेहोश होने वाला था  इसलिए न चाहते हुए भी  वह  अस्पताल जाने को तैयार हो गया।

अंदर की बात अस्पताल  ले जाना पड़ी, फिर अंदर की बात थाने ले जाना पड़ी, फिर अदालत ले जाना पड़ी, फिर घर की बात मीडिया के सामने पहुंच गयी।
 
लेकिन सुरेश यह मानता रहा कि घर की बात घर ही में है। अगर बाहर गई भी है तो लौट कर घर के अंदर आ गई है।
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पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 15.


              [चित्र: मुक्तिवाहिनी का चिह्न]

क्या विविधता वाकई देशों को तोड़ती है? अगर यूरोप पर नज़र डालें तो यह आदर्श उदाहरण है। यहाँ की सीमा-रेखाएँ भाषा और संस्कृति के आधार पर है। जहाँ तनिक भी विविधता आयी, जैसे युगोस्लाविया, तो वहाँ युद्ध और विभाजन हो गया। क्षेत्रीय अस्मिता के चरम के उदाहरणों में यह उदारवादी महादेश है। अन्यथा स्कैंडिनैविया के पाँच टुकड़ों का कोई अर्थ ही नहीं। हर देश अपनी भाषा के आधार पर बँट गया है।

भारत इकलौता देश है, जहाँ इतनी विविध भाषाएँ और संस्कृतियाँ जैसे-तैसे जमी हुई हैं। किंतु ऐतिहासिक रूप से ही यह भिन्न-भिन्न राज्यों में बँटा ही हुआ है। भिन्न राजा, भिन्न प्रशासन, और उनके आपस में युद्ध या समझौते। ब्रिटिश भारत से पहले यही कमो-बेश स्थिति थी। पाकिस्तान का भारत से अलग होना भी एक धार्मिक विविधता से उपजाए गए अलगाववादी द्वंद्व का ही परिणाम था। इसी तरह ऐसे संगठन हैं, जो कश्मीर, पंजाब, असम, नागालैंड, अरुणाचल, मेघालय, या तमिल राज्य (देश) बसाना चाहते हैं। असम में तो एक तीस हज़ार की जनसंख्या वाले समुदाय भी अपना देश माँग रहे हैं। अगर हम बांग्लादेश के बंगालियत को समर्थन देते हैं, तो उन असमियों की भी माँग ठीक ही लगेगी। 

देश को जोड़ कर रखना आसान नहीं होता। दोनों ही ताकतें मौजूद होती हैं। शेख मुजीब बंगालियत के नाम पर अलग देश रचना चाहते थे। जबकि इसी बंगाल के नेता विभाजन के वक्त पाकिस्तान का झंडा बुलंद किए थे और ‘डायरेक्ट ऐक्शन डे’ पर कलकत्ता में दंगे हो रहे थे। आप बंगाल के दो टुकड़े कर बंगालियत की रट कैसे लगा सकते हैं? 

पूर्वी पाकिस्तान को सँभालने की अयूब ख़ान ने यथासंभव कोशिशें की। एक संवैधानिक भाषा के रूप में बंगाली पहले से मौजूद थी, और वहाँ कोई आपत्ति थी ही नहीं। तृतीय पंचवर्षीय योजना में एक बड़ा हिस्सा ढाका को दिया गया। पूर्वी पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था वृद्धि दर में चार प्रतिशत का इज़ाफ़ा हुआ था, जो ठीक-ठाक बढ़त थी। 1965 के युद्ध की हानि भी पश्चिम को ही मुख्यत: हुई। इन सबके बावजूद अगर पहले ही दिन से ‘बंगाली अस्मिता’ के नाम पर कॉकस बनाया जाए, अलगाववादी आंदोलन किए जाएँ, भेद-भाव के मुद्दों को आग दी जाए, और देश के शत्रु यानी ‘भारत’ से गुप्त समर्थन बटोरे जाएँ, तो इसे क्या कहा जाना चाहिए? 

ऊर्दू भाषी पाकिस्तान ने बंगालियों को अगर अपना नहीं समझा, तो क्या बंगालियों ने उनको अपना समझा? अपने ही देश में बिहार से आए ऊर्दू भाषियों के साथ उनका क्या रवैया रहा? बंगालियत का क्या अर्थ था? इसमें भारतीय बंगाल की बंगालियत जुड़ी हुई थी, या नहीं? क्या भविष्य में वे एक कश्मीर की तरह एक बंगाल की मांग रख सकते हैं? ये सभी काउंटर-क्वेश्चन हैं जिसकी चर्चा कम होती है। मगर ‘डेविल्स एडवोकेट’ रूप में मैं ये प्रश्न रखूँगा ही। 

1968 छात्र आंदोलनों का वर्ष था। हिप्पियों और क्रांतियों का। पूरी दुनिया के बीस देशों में छात्र आंदोलन हुए। हर किसी को आज़ादी चाहिए थी। देश की नहीं, अपनी आज़ादी। ढाका विश्वविद्यालय में नियमित मंच पर कोई बंगाली छात्र खड़े होकर अपनी अस्मिता की याद दिलाता, शोषण की कहानी कहता, और सभी हुंकार भरते। अवामी लीग का केंद्र यह विश्वविद्यालय था, जिसके कैम्पस में सात हज़ार विद्यार्थी थे, कैम्पस से बाहर लगभग पच्चीस हज़ार। युवा जोश और राजनीति का कॉकटेल, और सामने खड़े मिलिट्री रूल के फौजी। यह तो आदर्श द्वंद्व था, जो उन्होंने चे गुवैरा के गुरिल्ला आंदोलन में पढ़ रखा था। उन्हें बस वही दोहराना था।

एक बांग्लादेश इतिहासकार लिखते हैं, “वह समय ऐसा था कि हर विद्यार्थी मार्क्स, लेनिन और माओ की किताबें पढ़ता था। उन पर क्रांति का भूत सवार था।”

क्रांति के लिए दुनिया में ज़मीन और कारणों की कमी नहीं। बंगाल तो खैर क्रांति का केंद्र ही है। जब ढाका में मार्क्स और लेनिन पढ़े जा रहे थे, तो कलकत्ता में भी वही पढ़े जा रहे थे। मुक्ति के वाहकों की बन रही थी मुक्तिवाहिनी।
(क्रमश:)

प्रवीण झा
( Praveen Jha )

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 14.
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यात्रा वृतांत - गंगोत्री यात्रा के पड़ाव (7)

नौटियाल साहब ने अपने दामाद के जजमानों का बेहतरीन स्वागत किया। चाय के साथ मड़वे के आटे की कचौरियाँ। अद्भुत स्वाद था। साथ में हरी चटनी और मीठा अलग से। हमने उन्हें बताया कि चौरंगी खाल होते हुए नाचिकेता ताल जाना है, तो बोले अवश्य जाएँ। लेकिन जल्दी ही घूम कर आ जाएँ। एक बज रहा है। रात न होने पाए वहाँ भालू बहुत हैं। मानपुर से आधा घंटे का रास्ता है। सड़क बहुत अच्छी थी। चौरंगी खाल 2350 मीटर पर वन विभाग का जंगल है। चौरंगी खाल के गेट से चार किमी की चढ़ाई है, तब नाचिकेता ताल मिलता है। वन विभाग यात्रियों से एंट्री फ़ीस लेता है, किंतु यदि अंदर किसी यात्री को भालू मार दे तो कोई गारंटी नहीं मिलती। हम अपनी जोखिम पर चल दिए। हमारे पास दो लाइसेंसी वॉकी-टाकी थे। और हम छह पैदल यात्री। मित्र सुभाष बंसल, उनका बेटा एडवोकेट राहुल बंसल, उनका भानजा पीयूष गुप्ता, पंडित जितेंद्र सैमवाल और उनका 15 वर्ष का पुत्र दीपांशु तथा मैं। एक वॉकी-टाकी दीपांशु ने लिया। वह सबसे कम उम्र का था। दूसरा मैंने, क्योंकि मैं सबसे बड़ी उम्र का। इस वॉकी-टाकी की रेंज डेढ़ किमी की थी। यात्रा शुरू हुई। पीयूष और दीपांशु की जोड़ी थी। दूसरी पंडित जी और सुभाष बंसल की। सबसे पीछे मैं और एडवोकेट राहुल बंसल चल रहे थे क्योंकि उसे मेरा हाथ कई जगह पकड़ना पड़ता था। पहली टीम तो सरपट निकल गई, दूसरी टीम भी काफ़ी आगे थी। हमरी टीम पीछे थी। एकाएक बीच वाली टीम की आवाज़ आई भालू! हम ठिठक गए और सिहर भी गए। पर वह एक पत्थर फ़ेक कर भाग निकला। 

यह जंगल एकदम सन्नाटे वाला और जन-विहीन था। न कोई गाँव न कोई व्यक्ति आता-जाता दिखा। एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ घूमते हुए हम एक ऊँचाई पर पहुँचे। यह स्थल कोई 3300 मीटर ऊँचा था। सामने बर्फ़ से लदे पर्वत शिखर दिख रहे थे। कुछ देर हम वह रुके। चूँकि चलते समय हमने ढेर सारी चॉकलेट्स, टॉफ़ियाँ और खट्टे-मीठे स्वाद वाले कंपट ख़रीद रखे थे और हर टीम में बाँट दी थीं। पानी की एक-एक बॉटल भी। इस ऊँचाई वाले स्थल पर पानी पिया और कंपट खाए। तब तक पहली टीम की वॉकी-टाकी पर आवाज़ आई- पहुँच गए। अब तेज़ ढलान थी पर वे हमें दिख नहीं रहे थे। दस मिनट बाद वे दिखने शुरू हुए। तब तक दूसरी टीम भी पहुँच गई। यह क़रीब 200 मीटर लंबा और सौ मीटर चौड़ा तालाब था। जिसके तटबंध पक्के थे। तालाब किनारे एक झोपड़ी थी, जिसमें एक साधु-बाबा रहते हैं। काले-भुजंग साधु बाबा चार डिग्री टेम्प्रेचर में भी सिर्फ़ एक फटा-पुराना कम्बल ओढ़े थे। बदन पर कोई वस्त्र नहीं। एक कथरी बिछा कर तालाब के किनारे बैठे थे। पहुँचते ही बोले- छोड़ आए कि ऐसे ही आए। हमने कहा- छोड़ना तो चाहते हैं, पर छूटती कहाँ है! बोले, यह तो आप लोगों को देख कर ही लगता है। बाबा जी खूब बातूनी थे और बिलकुल वैसे ही दिख रहे थे, जैसा कि मैंने उन्हें 2013 में देखा था। वे नाचिकेता ताल छोड़ कर कहीं नहीं जाते। कुछ घसियारिनें वहाँ घास काट रही थीं, वही बाबा जी को कुछ चावल वग़ैरह दे जाती हैं। अचानक बोले- सरकार को किसानों की माँगें मान लेनी चाहिए। क्योंकि ये किसान ही सबका पेट भरते हैं। फिर बोले, लेकिन ये मोदी किसी की सुनता कहाँ हैं। 

मैंने पूछा, बाबा जी देश-दुनिया का हाल-चाल कैसे पता रखते हो? बोले- साल भर तक जब लॉक डाउन था तब ये घसियारिनें और जंगल के बाहर के गाँव वासी मेरे पास आ जाते थे। अन्न-जल लाते और दुनियाँ की ख़बरें भी। आप लोग तो सुधि लेने से रहे। बाबा जी ने काली चाय बनाई और स्टील की गिलसियाँ निकाल कर उनमें वह चाय उड़ेल कर हमें पिलाई और बोले- यह जंगल है और मंगल भी यहीं है। अब क्या पूछते। हम लोग मान पुर से दो-ढाई किलो आटा ले गए थे उसे माँड़ कर गोलियाँ बनायीं और नाचिकेता ताल की मछलियों को खिलाईं। खूब फ़ोटो खींची गईं। 

नाचिकेता की कथा वेदों में हैं। तैत्तरीय ब्राह्मण और कठोपनिषद व महाभारत में भी। ये एक वैदिक ऋषि बाजश्रवा के पुत्र थे। बाजश्रवा ने विश्वजीत यज्ञ किया। प्रतिज्ञा की कि इस यज्ञ में मैं अपनी सारी संपत्ति दान कर दूंगा। कई दिनों तक यज्ञ चलता रहा। यज्ञ की समाप्ति पर महर्षि ने अपनी सारी गायें यज्ञ करने वालों को दक्षिणा में दे दी। दान देकर महर्षि बहुत संतुष्ट हुए। बालक नचिकेता के मन में गायों को दान में देना अच्छा नहीं लगा क्योंकि वे गायें बूढी और दुर्बल थीं। ऐसी गायों को दान में देने से कोई लाभ नहीं होगा। उसने सोचा पिताजी जरुर भूल कर रहे है। पुत्र होने के नाते मुझे इस भूल के बारे में बताना चाहिए। न देने योग्य गौ के दान से दाता का उल्टे अमंगल होता है, इस विचार से नचिकेता पिता के पास गया और बोला, ”पिताजी आपने जीर्ण, वृद्ध और दुर्बल गायों को दान में दिया है उनकी अवस्था ऐसी नहीं थी कि ये दूसरे को दी जाएँ। 

महर्षि बोले, ”मैंने प्रतिज्ञा की थी कि, मैं अपनी साड़ी सम्पत्ति दान कर दूंगा, गायें भी तो मेरी सम्पत्ति थी। अगर मैं दान न करता तो मेरा यज्ञ अधूरा रह जाता।
नचिकेता ने कहा, मेरे विचार से दान में वही वास्तु देनी चाहिए जो उपयोगी हो तथा दूसरो के काम आ सके फिर मैं तो आपका पुत्र हूँ बताइए आप मुझे किसे देंगे?

ऋषि ने कोई उत्तर नहीं दिया। नचिकेता ने पुन: वही प्रश्न किया, पर वे टाल गये।
'पिताजी! मुझे किसे दे रहे हैं? 
तीसरी बार पूछ्ने पर पिता को क्रोध आ गया। चिढ़कर उन्होंने कहा- 'तुम्हें देता हूँ मृत्यु को। 

नचिकेता विचलित नहीं हुए। परिणाम के लिए, वे पहले से ही प्रस्तुत थे। उन्होंने हाथ जोड़कर पिता से कहा - 
'पिताजी! शरीर नश्वर है, पर सदाचरण सर्वोपरि है। आप अपने वचन की रक्षा के लिए यम सदन जाने की मुझे आज्ञा दें।'
ॠषि सहम गये, पर पुत्र की सत्यपरायणता देखकर उसे यमपुरी जाने की आज्ञा उन्होंने दे दी।नचिकेता यम पुरी के लिए प्रस्थान कर गए। जब नचिकेता यमपुरी पहुँचे, उस समय यमराज कहीं गए हुए थे। नचिकेता दरवाज़े पर ही बैठ गए। यम की पत्नी ने उन्हें घर के अंदर आने को कहा किंतु स्वामी विहीन घर में पदार्पण उन्हें उचित नहीं लगा। तीन दिन बीत गए। नचिकेता ने न कुछ खाया न पिया। अब यम की पत्नी परेशान हो उठीं। कहीं इस ब्राह्मण बालक की मृत्यु हो गई तो लोक निंदा का पाप पड़ेगा। उन्होंने यमराज के पास दूत भेज कर बुलवाया। यमराज घर आए तो ऋषि पुत्र का हठ देख कर काँप उठे। तेजस्वी ॠषिकुमार उनकी अनुपस्थिति में उनके द्वार बिना अन्न-जल ग्रहण किए तीन रात बिता चुके थे। यम जलपूरित स्वर्ण-कलश अपने ही हाथों में लिए दौड़े।

उन्होंने नचिकेता को सम्मानपूर्वक पाद्यार्घ्य देकर अत्यन्त विनय से कहा -'आदरणीय ब्राह्मणकुमार! पूज्य अतिथि होकर भी आपने मेरे द्वार पर तीन रात्रियाँ उपवास में बिता दीं, यह मेरा अपराध है। आप प्रत्येक रात्रि के लिये एक-एक वर मुझसे माँग लें।

'मृत्यो! मेरे पिता मेरे प्रति शान्त-संकल्प, प्रसन्नचित्त और क्रोधरहित हो जाएँ और जब मैं आपके यहाँ से लौटकर घर जाऊँ, तब वे मुझे पहचानकर प्रेमपूर्वक बातचीत करें।' पितृभक्त बालक ने प्रथम वर माँगा।
'तथास्तु' यमराज ने कहा।

'मृत्यो! स्वर्ग के साधनभूत अग्नि को आप भलीभाँति जानते हैं। उसे ही जानकर लोग स्वर्ग में अमृतत्त्व-देवत्व को प्राप्त होते हैं, मैं उसे जानना चाहता हूँ। यही मेरी द्वितीय वर-याचना है।'
'यह अग्नि अनन्त स्वर्ग-लोक की प्राप्ति का साधन है। ' 
यमराज नचिकेता को अल्पायु, तीक्ष्ण बुद्धि तथा वास्तविक जिज्ञासु के रूप में पाकर प्रसन्न थे। उन्होंने कहा- 
'यही विराट रूप से जगत की प्रतिष्ठा का मूल कारण है। इसे आप विद्वानों की बुद्धिरूप गुहा में स्थित समझिये।'
उस अग्नि के लिए जैसी जितनी ईंटें चाहिए, वे जिस प्रकार रखी जानी चाहिए तथा यज्ञस्थली निर्माण के लिए आवश्यक सामग्रियाँ और अग्निचयन करने की विधि बतलाते हुए अत्यन्त सन्तुष्ट होकर यम ने द्वितिय वर के रूप में कहा- 'मैने जिस अग्नि की बात आपसे कहीं, वह आपके ही नाम से प्रसिद्ध होगी और आप इस विचित्र रत्नों वाली माला को भी ग्रहण कीजिए।'

'हे नचिकेता, अब तीसरा वर माँगिये।' अग्नि को स्वर्ग का साधन अच्छी प्रकार बतलाकर यम ने कहा। 
'आप मृत्यु के देवता हैं।' 
श्रद्धा-समन्वित नचिकेता ने कहा- 
'आत्मा का प्रत्यक्ष या अनुमान से निर्णय नहीं हो पाता। अत: मैं आपसे वहीं आत्मतत्त्व जानना चाहता हूँ । कृपापूर्वक बतला दीजिए।'
यम झिझके। आत्म-विद्या साधारण विद्या नहीं। उन्होंने नचिकेता को उस ज्ञान की दुरूहता बतलायी, पर उनको वे अपने निश्चय से नहीं डिगा सके। 
यम ने भुवन मोहन अस्त्र का प्रयोग किया- सुर-दुर्लभ सुन्दरियाँ और दीर्घकाल स्थायिनी भोग-सामग्रियों का प्रलोभन दिया, पर ॠषिकुमार अपने तत्त्व-सम्बंधी गूढ़ वर से विचलित नहीं हो सके।

'आप बड़े भाग्यवान हैं।' 
यम ने नचिकेता के वैराग्य की प्रशंसा की और वित्तमयी संसार गति की निन्दा करते हुए बतलाया कि 
' विवेक वैराग्य सम्पन्न पुरुष ही ब्रह्मज्ञान प्राप्ति के अधिकारी हैं। श्रेय-प्रेय और विद्या-अविद्या के विपरीत स्वरूप का यम ने पूरा वर्णन करते हुए कहा- 'आप श्रेय चाहते हैं तथा विद्या के अधिकारी हैं।'
'हे भगवन! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो सब प्रकार के व्यावहारिक विषयों से अतीत जिस परब्रह्म को आप देखते हैं मुझे अवश्य बतलाने की कृपा कीजिये।'
'आत्मा चेतन है। वह न जन्मता है, न मरता है। न यह किसी से उत्पन्न हुआ है और न कोई दूसरा ही इससे उत्पन्न हुआ है।' 
नचिकेता की जिज्ञासा देखकर यम अत्यंन्त प्रसन्न हो गए थे। 

उन्होंने आत्मा के स्वरूप को विस्तारपूर्वक समझाया-
'वह अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है, सनातन है, शरीर के नाश होने पर भी बना रहता है। वह सूक्ष्म-से-सूक्ष्म और महान से भी महान है। वह समस्त अनित्य शरीर में रहते हुए भी शरीर रहित है, समस्त अस्थिर पदार्थों में व्याप्त होते हुए भी सदा स्थिर है। वह कण-कण में व्याप्त है। सारा सृष्टि क्रम उसी के आदेश पर चलता है। अग्नि उसी के भय से चलता है, सूर्य उसी के भय से तपता है, इन्द्र, वायु और पाँचवाँ मृत्यु उसी के भय से दौड़ते हैं। जो पुरुष काल के गाल में जाने के पूर्व उसे जान लेते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं। शोकादि क्लेशों को पार कर परमानन्द को प्राप्त कर लेते हैं।'

यम ने कहा,
'वह न तो वेद के प्रवचन से प्राप्त होता है, न विशाल बुद्धि से मिलता है और न केवल जन्मभर शास्त्रों के श्रवण से ही मिलता है। वह उन्हीं को प्राप्त होता है, जिनकी वासनाएँ शान्त हो चुकी हैं, कामनाएँ मिट चुकी हैं और जिनके पवित्र अन्त:करण को मलिनता की छाया भी स्पर्श नहीं कर पाती जो उसे पाने के लिए अत्यन्त व्याकुल हो जाते हैं। 

यह मान्यता है, कि यह वही नाचिकेता ताल की।
(जारी)

शंभूनाथ शुक्ल
( Shambhunath Shukla )

गंगोत्री यात्रा के पड़ाव (6)
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Wednesday 28 April 2021

फ़िल्म आलाप

बहुत कम फिल्में, बहुत कम किताबें ऐसी होती हैं जो हमें मानवीय रिश्तों के सौंदर्य और गरिमा का अहसास करा पाती हैं। कुछ ऐसा जो मनुष्य होने की गरिमा से भरा हुआ हो। एक ऐसी कहानी जिसके ख़त्म होने पर हम खुद को थोड़ा बेहतर मनुष्य होने की तरफ पा सकें। रूसी लेखक तुर्गेनेव मुझे ऐसे रचनाकार और ह्रषिकेश मुखर्जी ऐसे ही निर्देशक लगते हैं। इन दोनों ने ही उदात्त सेल्फ डिस्ट्रक्टिव पात्रों की रचना की है। 

आम तौर पर हम सिनेमा और साहित्य में ऐसी प्रवृति किसी निजी दुःख, जो अक्सर असफल प्रेम होता है - की वजह से देखते आए हैं। देवदास एक ऐसा ही पात्र है। यहां तक कि समाज से रूमानी विद्रोह करने वाला 'प्यासा' फिल्म का नायक भी बुनियादी रूप से प्रेम में असफल एक इंसान है। ह्रषिकेश मुखर्जी के नायक अलग हैं, उनके भीतर खुद को तबाह करने की जिद है मगर एक स्वाभिमान भी है। यह उन्हें बाहर से तो जर्जर कर देता है मगर भीतर उस स्वाभिमान की लौ निष्कंप जलती रहती है। बल्कि समय के थपेड़ों के बीच उसका तेज और बढ़ता जाता है। 'आशीर्वाद' के अशोक कुमार, 'सत्यकाम' के धर्मेंद्र और 'आलाप' के अमिताभ बच्चन ऐसे ही नायक हैं। 

हमने अमिताभ का मुखर क्रोध बहुत सारी फिल्मों में देखा है मगर उनका बुझा हुआ गुस्सा- जो राख के भीतर दबा रह जाता है, अगर देखना हो तो 'आलाप' फिल्म देखनी चाहिए। इसके सिवा यह रिश्तों के सौंदर्य की फिल्म भी है। शास्त्रीय संगीत का विद्यार्थी आलोक प्रसाद (अमिताभ बच्चन) का पुराने समय की मशहूर गायिका सरजूबाई बनारसवाली (छाया देवी) से कोई रिश्ता नहीं होता। वे सिर्फ अपने संगीत प्रेम की वजह से उनके दरवाजे तक पहुँच जाते हैं और जब उनको यह पता लगता है कि उनके सख़्तमिजाज़ और अनुशासनप्रिय पिता (ओम प्रकाश) ने उन्हें बेघर कर दिया है तो विरोधस्वरूप वे उनके घर से निकलकर उसी शहर में तांगा चलाने लगते हैं। 

कहानी आगे बढ़ती जाती है। शहर में गाड़ियों और बसों के आने से अब कोई तांगे की सवारी पसंद नहीं करता। अमिताभ की आजीविका दिन प्रतिदिन घटती जा रही है। इस बीच सरजूबाई बनारस अपना ठिकाना खोजने चली जाती हैं। अपने दोस्त (असरानी) की बहन (रेखा) से आलोक को प्रेम हो जाता है और दोनों की शादी भी हो जाती है। दोनों का एक बेटा होता है मगर उनकी आर्थिक स्थिति बिगड़ती जाती है। अमिताभ तपेदिक का शिकार हो जाते हैं। फिल्म के इस हिस्से में सत्तर के दशक की तमाम सीमाओं के बावजूद अमिताभ का शानदार अभिनय देखने को मिलता है। 

ह्रषिकेश मुखर्जी ने इस फिल्म में कई सुंदर दृश्य रचे हैं। जैसे कि एक रात अमिताभ अपने ही पिता को तांगे से घर तक छोड़ते हैं। दोनों के ही भीतर अपना-अपना अहं है मगर वे भीतर-बाहर से टूट भी चुके हैं। इस बात को फिल्म कुछ ही संवादों के जरिए बड़ी खूबसूरती से बयान कर देती है। फिल्म में राही मासूम रज़ा ने कई जगह बहुत अच्छे संवाद लिखे हैं। ओम प्रकाश का संवाद "आदमी जिनके साथ जीना चाहता है, उनके बग़ैर भी जी सकता है..." या अमिताभ कहते हैं, "प्यार का मजा साथ मरने में नहीं, साथ जीने में है...", "अम्मा मुझसे यह लोरी सुनना चाहती थीं, मगर सुनने से पहले ही सो गईं..." या फिर जब संजीव कुमार ओम प्रकाश से कहते हैं "तुम बहुत ही बदनसीब आदमी त्रिलोकी प्रसाद, तुम्हें पता ही नहीं तुमने क्या खो दिया..." फिल्म के खत्म होने के बाद भी ये याद रह जाते हैं। 

इन सब बातों से बढ़कर यह फिल्म रिश्तों की खूबसूरती को सामने लाती है। पिता और बेटे के बीच अहंकार और करुणा से भरा रिश्ता तो पूरी फिल्म की बुनियाद है मगर इसके अलावा फिल्म में स्त्रियां अपने मोहक और न भूलाए जाने वाले किरदारों में मौजूद हैं। सरजूबाई का राजा बहादुर (संजीव कुमार) से अबोला रिश्ता जो सिर्फ प्रेम की परिधि में नहीं आता, सरजूबाई की सेवा करने के लिए अपना घर-बार छोड़कर उनके साथ बस जाने वाले महाराज दीनानाथ (मनमोहन कृष्ण) अमिताभ की भाभी (बंगाली अभिनेत्री लिली चक्रवर्ती) जो एक साथ हंसी-ठिठोली करने वाली दोस्त और देखभाल करने वाली मां- दोनों के रिश्तों को जीती है या फिर सुलक्षणा (फरीदा जलाल) जिसका अमिताभ से रिश्ता होने वाला होता है मगर वह बाद में उनकी आजीवन एक अच्छी दोस्त बन जाती है। 

यह फिल्म सामान्य तरीके से नहीं देखी जा सकेगी, तब शायद हम उसकी सुंदरता को पकड़ भी नहीं पाएंगे। हमें याद रखना होगा कि यह बिजनेस के लिहाज से अपने समय की बहुत बड़ी फ्लॉप थी। सन् 1977 में अमिताभ की जैसी 'एंग्री यंग मैन' की छवि बन चुकी थी उसके बिल्कुल विपरीत थी फिल्म। कहते हैं लोगों ने ह्रषिकेश मुखर्जी को सुझाव भी दिया कि अमिताभ से भजन न गवाए जाएं और उनके एक-दो फाइट सीन भी फिल्म में रखे जाएं मगर ह्रषि दा ने इनकार कर दिया। फिल्म में घटनाएं बहुत कम हैं जिसकी वजह से इसकी गति धीमी लगती है। बीच के हिस्से में फिल्म ठहरी हुई सी लगती है। पिता और बेटे के बीच तनाव है मगर द्वंद्व नहीं है। इसकी सुंदरता दरअसल एक गहरे नैतिक बोध में है, जिसे हम नायक के भीतर सतत देखते हैं। वह इस नैतिक बोध को किसी बोझ की तरह नहीं ढोता। यह जीवन का सहज स्वीकार किया जाने वाला पक्ष है। फिल्म एक बार भी इसे जस्टीफाइ नहीं करती है कि सरजूबाई के लिए अमिताभ ने इतना बड़ा फैसला क्यों ले लिया। आत्मा के भीतर यही नैतिक बोध जीवन को सौंदर्य देता है। इसे फिल्म के अंतिम दृश्य से भी समझा जा सकता है। 

फिल्म का अंतिम दृश्य मार्मिक है, जब पिता बने ओम प्रकाश सारा अहंकार छोड़कर काशी में बिस्तर पर पड़े बीमार अमिताभ से मिलते जाते हैं। ठीक उसी समय रेखा और अमिताभ का बेटा भजन गाना आरंभ करते हैं, "माता सरस्वती शारदा..."। यह दृश्य अद्भुत है। शय्या पर पड़े अमिताभ, साधारण से कपड़ों में उनकी पत्नी और बेटे के पास जैसे यही एक संपत्ति है- कला और ज्ञान की देवी सरस्वती का साथ। उनसे निःस्वार्थ प्रेम करने वाले कुछ दोस्तों का साथ- यही उनकी सारी कमजोरी और गरीबी के बीच कुल जमापूंजी और ताकत है। 

फिल्म के अंतिम हिस्से में ही हरिवंश राय बच्चन की एक कविता को जयदेव ने बहुत सुंदर ढंग से संगीतबद्ध किया है, जिसे सुनना सुखद है - 

कोई गाता मैं सो जाता 
संसृति के विस्तृत सागर पर
सपनों की नौका के अंदर
सुख-दुख की लहरों पर उठ-गिर बहता जाता मैं सो जाता
कोई गाता मैं सो जाता।

दिनेश श्रीनेत
( Dinesh Srinet )
#vss

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 14.

युद्ध से नुकसान भले जनता को हुआ, फ़ायदा भी किसी न किसी को तो हुआ ही। पाकिस्तान की नज़र से देखें तो तीन चीजें हुई। 

पहला यह कि अयूब ख़ान का मिलिट्री शासन इस युद्ध की असफलताओं के बाद हिल गया। इसका अर्थ था, लोकतंत्र की वापसी। दूसरा यह कि पूर्वी पाकिस्तान ने अपने अलग होने का मन बना लिया। उन्हें लग गया कि पश्चिमी पाकिस्तान में अधिक दम नहीं। तीसरा यह कि पाकिस्तान ने अमरीका से मुँह मोड़ कर चीन और सोवियत की ओर झुकना शुरू कर दिया।

विडंबना यह थी कि ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने ताशकंद समझौते का ठीकरा अयूब ख़ान पर डाल दिया। युद्ध की योजना उनकी ही थी, और अब वह अयूब ख़ान को जिम्मेदार ठहरा रहे थे। जैसा पहले लिखा है, भुट्टो राजनीति के खिलाड़ी थे, जबकि अयूब ख़ान इस खेल में कमजोर थे। 

यह वर्णित है कि भुट्टो की माँ एक गुजराती हिन्दू थी, जिन्हें जूनागढ़ रियासत में उनके पिता शाहनवाज़ भुट्टो से प्रेम हो गया था। उसके बाद वह कैलिफ़ोर्निया और ऑक्सफ़ोर्ड में पढ़ कर आए, और मात्र तीस वर्ष की उम्र में केंद्रीय मंत्री बन गए। फिर विदेश मंत्री बने, युद्ध की योजना बनायी, उसके बाद अयूब ख़ान को नीचा दिखा कर इस्तीफ़ा दे दिया। अपनी पाकिस्तान पीपल्स पार्टी (PPP) बना ली।

अयूब ख़ान ने शुरू में बलप्रयोग करना चाहा। उन्होंने भुट्टो को हिरासत में भी लिया। वहीं पूर्वी पाकिस्तान में शेख मुजीबुर्र रहमान आज़ादी का आंदोलन छेड़ चुके थे, तो उन्हें भी गिरफ़्तार कर लिया गया। मगर अब जनता इस बल-प्रयोग के विरोध में खड़ी हो रही थी, तो इन्हें छोड़ना पड़ा। एक मशहूर अफ़वाह घूम रही थी कि मात्र बाइस परिवारों के पास पूरे पाकिस्तान का धन जमा है। यह बात वैसे काफ़ी हद तक सही थी। देश का धन कुछ पूंजीपतियों की जेब में ही था। भुट्टो ने लगभग उसी तरीके से अपने नारे बनाए, जैसा भारत की नयी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बना रही थी। 

‘गरीबी हटाओ’, ‘रोटी कपड़ा और मकान’, ‘राष्ट्रीयकरण करो’, ‘चलो नया पाकिस्तान बनाएँ’। 

आखिर 1969 में अयूब ख़ान ने अपनी गद्दी त्याग कर जनरल याह्या ख़ान को पकड़ायी, और देश के मंचों से सदा के लिए गुम हो गए। याह्या ख़ान भी ठहरे फौजी। उन्हें क्या राजनीति आएगी? उन्होंने मार्शल लॉ लगा दिया, और 1970 में आम चुनाव की घोषणा कर दी। पाकिस्तान का पहला राष्ट्रीय आम चुनाव होने जा रहा था, जिसमें भुट्टो की जीत तय थी। इस जीत में एक बड़ा काँटा था।

समस्या यह थी कि जब मतदाता-सूची बनी तो लगभग तीन करोड़ मतदाता पूर्वी पाकिस्तान में थे, और ढाई करोड़ पश्चिमी पाकिस्तान में। इसका अर्थ यह था कि प्रधानमंत्री पूरब से ही चुना जाएगा। वहाँ अवामी लीग का रुतबा था, भुट्टो का नहीं। अवामी लीग का मुद्दा अलगाववादी था। वह बंगाल की स्वायत्तता चाहते थे। उनके अनुसार मात्र रक्षा और विदेश विभाग इस्लामाबाद देखेगा, बाकी ढाका खुद सँभाल लेगी। 

जब जनवरी, 1971 में चुनाव हुए तो शेख मुजीबुर्र रहमान की अवामी लीग ने 300 में 160 सीट जीत लिए। भुट्टो के हिस्से मात्र 81 सीटें आयी। अगर शेख मुजीब को प्रधानमंत्री बनने दे दिया जाता, तो पाकिस्तान के दो टुकड़े नहीं हुए होते। मगर बंगाल को स्वायत्तता संभवत: मिल जाती। 

भुट्टो नहीं माने। उनका कहना था कि अवामी लीग पाकिस्तान को तोड़ना चाहती है। उन्होंने चुनाव रैलियों में कहा था कि वह हज़ार वर्षों तक हिंदुस्तान से लड़ते रहेंगे। लेकिन अब लड़ाई वह हिंदुस्तान से नहीं, अपने देशवासियों से ही लड़ने वाले थे। भुट्टो की अनुशंसा पर याह्या ख़ान ने बंगालियों का दमन शुरू कर दिया। 

अपने जेल डायरी में गांधी को जादूगर कहने वाले शेख मुजीब ने जनता का आह्वान किया। 7 मार्च को उन्होंने ढाका में हज़ारों की भीड़ को कहा, “ढाका से चित्तगोंग तक की सड़के हम बंगालियों के खून से सन रही है। अब असहयोग संग्राम होगा स्वाधीनता के लिए। जय बांग्ला!”
(क्रमश:)

प्रवीण झा 
( Praveen Jha )

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 13.
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#vss

यात्रा वृतांत - गंगोत्री यात्रा के पड़ाव (6)



                ( मानपुर की शाम )

हम वापस लौटे, क्योंकि ठंड बढ़ती जा रही है। सड़क पर से बर्फ़ अब पिघल चुकी थी। इसलिए एडवोकेट साहब ने गाड़ी की स्पीड अब थोड़ी अधिक रखी। गंगनानी के आगे एक समतल घाटी में नदी किनारे जंगल के बीच एक छोटा-सा ढाबा था। जिसमें चाय पी गई और एक-एक प्लेट मैगी खाई गई। अगर आप किसी भी पर्वतीय क्षेत्र में जाएँ तो मैगी अवश्य खाएँ। वहाँ जगह-जगह मैगी पॉइंट मिल जाते हैं। काली मिर्च और लौंग डाल कर इन लोगों ने स्वीडिश मैगी को एक नया स्वाद दिया है। एक स्कूटी पर सवार तीन नौयुवा आए। इनमें दो लड़के व एक लड़की थी। उन्होंने भी चाय व मैगी का स्वाद लिया। मैंने पूछा, कहाँ से आ रहे हैं? तो बताया कि वे उत्तरकाशी से हर्षिल पिकनिक पर गए थे। यानी डेढ़ सौ किमी का पहाड़ी सफ़र स्कूटी से? मैं अचरज में पड़ गया वह भी बर्फीली सड़क पर तीन जनें। पंडित जी ने बताया कि ये पहाड़ी बच्चे हैं इनके लिए यह कोई नई बात नहीं।

हाँ, एक बात बताना मैं भूल ही गया कि हर्षिल गढ़वाल में गंगोत्री मार्ग पर सबसे मनोरम स्थल है। आख़िर इसे यूँ ही नहीं मिनी स्वीटज़रलैंड कहा जाता। भागीरथी के दाएँ तट पर फैली बर्फ़ की चादर हर आने-जाने वाले का मन मोह लेती है। किंतु हिंदुस्तानी यहाँ पिकनिक के बहाने गंद भी बहुत फैलाते हैं। इस सफ़ेद चादर पर फैले खाने-पीने के पैकेट्स और पानी की बोतलें माहौल को प्रदूषित करती हैं। हालाँकि हर्षिल में प्लास्टिक के थैलों पर रोक है, पर कौन मानता है।

चाय पीने के बाद हम निकल पड़े। अब रात घिर आई थी। इसलिए हम लोग तेज़ी से लौट पड़े। पॉयलेट बाबा का मंदिर, मनेरी डैम होते हुए हम साढ़े सात बजे तक नैताला स्थित अपने गेस्ट हाउस में वापस आ गए। ठाकुर जी ने गरम पानी पिलाया और फिर चाय बनी। तब तक पंडित जी अलाव सुलगा दिया। आज रात के भोजन में मड़ुआ की रोटी और भट की दाल थी। रात को हल्दी पड़ा दूध। साथ में पातंजलि के कुछ आयुर्वेदिक उत्पाद लिए। चूँकि हम लोग काफ़ी थके हुए थे, अतः कुछ देर बाद सोने चले गए।

अगली सुबह तय हुआ कि हम लोग चौरंगी खाल जाएँ और वहाँ स्थित वन के अंदर चार किमी चढ़ कर नाचिकेता ताल भी देखने जाएँ। यह उत्तरकाशी की परली साइड में है। उत्तरकाशी से 12 किमी दूर पंडित जी की ससुराल मानपुर में नौटियालों के यहाँ है। उनके श्वसुर दयानंद नौटियाल बहुत ही मिलनसार और उत्साही बुजुर्ग हैं। प्रधानाचार्य के पद से अवकाशमुक्त हुए उन्हें 18 वर्ष बीत चुके हैं। गाँव सड़क से लगा हुआ है। वहाँ खूब बर्फ़ गिरती है और दिन को धूप। हम लोग पहले भी उनके यहाँ एक रात गुज़ार चुके थे। पर्वतीय अंचल के किसी घर में रात बिताने का अनुभव तो मज़ेदार है, किंतु मुझे याद आया कि उनके घर में दो दिक्कतें हैं। एक तो बाथरूम बेडरूम से अटैच्ड नहीं है, बल्कि बहुत दूर है और अँधेरे में जाना बहुत मुश्किल है। दूसरे कमोड टॉयलेट नहीं है। तीसरे बेडरूम से अगर रात को पेशाब करने गए तो अक्सर तेंदुए की गुर्राहट सुनाई पड़ती है। मगर पंडित जी ने कहा, कि महराज 2013 से अब काफ़ी कुछ बदल चुका है। अब एक कमरे में बाथरूम अटैच्ड है और कमोड भी है। रात भर बिजली की रोशनी रहती है। मैं भी राज़ी हो गया।

                 ( पहाड़ी आतिथ्य )

नैताला से हम नाश्ता करने के बाद कोई साढ़े दस बजे निकले। उत्तरकाशी से थोड़ा पहले पातंजलि समूह का गो मूत्र प्लांट है, वहीं पर बने लोहे के पुल से भागीरथी पार की और उस तरफ़ की सड़क पर गाड़ी दौड़ने लगी। आधा घंटे में हम मानपुर पहुँच गए। नौटियाल साहब बहुत खुश हुए। उन तक खबर पहुँच चुकी थी, इसलिए सड़क तक लेने आए। पहाड़ में मकान सीढ़ियों की तरह होते हैं। यहाँ भी जातिवाद और श्रेष्ठतावाद चलता है। जैसे ऊपर की साइड में मकान दलितों के फिर थोड़ा कम दलितों के और सबसे नीचे ब्राह्मणों और ठाकुरों के होंगे।

अब इसके साथ एक पाकिस्तान का भी क़िस्सा सुन लीजिए। जो हमारे मित्र और ओरछा के पूर्व महाराजा मधुकर शाह ने सुनाया था। मालूम हो कि ओरछा 1550 से 1950 तक एक ख़ुद मुख़्तार रियासत रही है। इसे बुंदेला क्षत्रिय वीर सिंह ने स्थापित किया। वीरसिंह बादशाह अकबर के बेटे शहज़ादा सलीम का दोस्त था, इस नाते अकबर का विरोधी भी। जब शहज़ादा सलीम ने बादशाह जहांगीर नाम धारण किया तो बुंदेलखंड को काफ़ी रियायतें दीं। बुंदेला बहुत बहादुर होते हैं। इसी परिवार के अमर सिंह ने बादशाह शाहजहाँ को धता बताई थी। बादशाह औरंगज़ेब के अत्याचारों के विरुद्ध छत्रसाल ने निरंतर संघर्ष किया था। मधुकर शाह इस वंश के आख़िरी शासक थे। किंतु 1947 में उन्होंने अपनी रियासत का भारत संघ में विलय कर लिया। संयोग से मधुकर शाह अभी जीवित हैं और दिल्ली के चाणक्यपुरी इलाक़े में रहते हैं। उनको खड़ी बोली हिंदी बोलने में दिक़्क़त होती हैं। वे या तो बुंदेली में बतियाते हैं अथवा अंग्रेज़ी में। 

उनका सुनाया क़िस्सा लिख रहा हूँ-
“भोपाल की बेगम के नाती नादरी की शादी 1981 सन् मां पाकिस्तान के लाहौर मां भई ती। बराती के तौर पर नादरी साहब हमउं का लै गए। पूरे लाहौर मां सोर मच गयो कि ईं शादी मां चार हिंदू भी आए हैं, उनमें से एक राजा है। अगवानी मां लाहौर के कमांडर इन चीफ राजा महमूद अली जनजुआ भी आए हते। आते ही उनने हमसे पूछी कि आप हिंदू हो? हमाए हां कहने पर उनने कही कौन कौम? यह सुनते ही हम भौंचक्का हुइ गए कि हाय राम ईं यो का पूछत हैं? खैर हम उनते कही कि कौम का हमें तो पता नहीं जनरल साहब पै हमाए पुरखा बताउत ते कि हम बुंदेला राजपूत हैं। यह सुनते जनरल साहब ने खुसी मां हमें अपने गले से लगाय लओ औ बोले कि हमऊं राजपूत हैं। अब कुछ हमऊं खुले पूछी कि जनरल साहब आपके नाम के आगे यो जनजुआ काहे लगा है। जनरल साहब खूब जोर से हंसे बोले कि भई जनजुआ यानी कि जनेऊ। हम बड़े ठाकुर हते। मुसलमान हुई गए तो का भा? अपनी जाति तो बनी ही रहिए। उसके बाद जनजुआ साहब ने हमाई बड़ी खातिरदारी करी। हमें बिठाय के खिलावौ!” इसके बाद महाराजा साहब ने पाकिस्तान के श्रेष्ठतावाद की पोल खोली।जनरल साहब बताने लगे कि देखिए, यहाँ जो पहाड़ पर नीचे की बस्ती आप डेख रहे हैं, वहाँ हम लोग बसते हैं और ऊपर गूजर लोग। अर्थात् हर जगह पहाड़ों पर ऊँची कही जाने वाली जातियाँ नीचे की तरफ़ बसती हैं, ताकि वे खेतों को देख सकें और पानी की सहूलियत हो। महाराजा ने सहज भाव से अपनी यात्रा का वृत्तांत। सुनाया लेकिन मैं सोचने लगा कि पाकिस्तान और भारत में कोई फर्क नहीं है। दोनों जगह जातियां बराबर हैं। एक ही तरह की बोली-बानी और एक ही तरह के लोग। राजा साहब ने उसके बाद जो बातें बताईं उन्हें मैं नहीं लिख रहा हूं क्योंकि उससे कुछ जाति परस्तों और मजहब परस्तों को आपत्ति हो सकती है।

   ( महाराजा मधुकर शाह के साथ (फर की टोपी लगाए महाराजा )

इसी तरह मान पुर में थे। नौटियाल नीचे और दलित ऊपर। किंतु सरकारी योजनाओं के तहत सड़कें निकलीं तो ये नीची कही जाने वाली जातियाँ अनायास अमीर हो गईं। सड़क किनारे बाज़ार लगे, होटल बने। पंजाबी व्यापारियों ने दलितों को पैसा दिया और ज़मीन ले ली।
(बाक़ी का कल)

शंभूनाथ शुक्ल 
( Shambhunath Shukla )

गंगोत्री यात्रा के पड़ाव (5)
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अगरतला के कलेक्टर का अवांछित व्यवहार / विजय शंकर सिंह

कल से त्रिपुरा के अगरतला जिले के कलेक्टर शैलेश यादव का एक वीडियो वायरल है और वह वायरल वीडियो हमारे प्रशासनिक सिस्टम में व्याप्त अहंकार, जिद, बदतमीजी और जहां तक मैं देखता हूँ, वहां तक का मैं ही सम्राट हूँ, के वायरस से संक्रमित सिस्टम का ही एक उदाहरण है। वह वीडियो मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ। वीडियो एक विवाह समारोह का है। वर है बधू है, विवाह की वेदी है, मेहमान हैं, और विवाह संस्कार सम्पन्न कराने वाले पुरोहित भी हैं। विवाह की प्रक्रिया चल रही है। लोग इस आफत में भी जैसे तैसे यह मांगलिक कार्य सम्पन्न करा ही रहे हैं।

अचानक फिल्मी अंदाज में कलेक्टर साहब का मैरेज हाल में आगमन होता है और वे धमकाते हैं और कहते हैं सबको लॉक अप में ले चलो। जब उन्हें अनुमति पत्र दिखाया जाता है तो, वे उसे फाड देते हैं और सबसे कहते हैं कि बंद करो यह सब और बाहर निकलो। फिर वे मेहमानों को पीटते हैं, वर को उसके मुकुट सहित खींचते हैं, पीटते हैं, और उनके इस बदतमीजी से बेचारे पंडित जी भी नही बचते हैं और वे भी पिट जाते हैं।जब कलेक्टर का हांथ उठ गया तो सिपाही तो धुनने ही लगेंगे।  और कहाँ तो यह शादी हो रही थी, पर अब सब को हवालात में बंद होने की नौबत आ गयी। 

यहीं यह सवाल उठता है कि क्या एक कलेक्टर का ऐसा व्यवहार कानून की दृष्टि से उचित है ? सरकार ने खुद ही अपने कलेक्टर के ऐसे बदतमीजी भरे व्यवहार पर सख्त ऐतराज किया है और कलेक्टर को निलंबित भी किया है। कलेक्टर ने उत्पीड़ित परिवार से क्षमा याचना भी की है। पर कलेक्टर का यह कृत्य न तो उनके पद के अनुरूप था और न ही कानून के अनुसार उचित। 

कलेक्टर को धारा 144 सीआरपीसी में या, अन्य निरोधात्मक प्राविधानों में, निषेधाज्ञा जारी करने का अधिकार है और कोविड प्रोटोकॉल के अंतर्गत, यहां भी कलेक्टर ने कोई न कोई निषेधाज्ञा जारी की होगी। हो सकता है विवाह की अनुमति रात 8 बजे तक की ही दी गयी हो। पर विवाह एक समारोह होता है, मांगलिक कार्य होता है और विवाह का एक तय मुहूर्त होता है। हो सकता है कुछ देर हो गयी हो और निषेधाज्ञा का उल्लंघन हो भी गया हो। अमूमन विवाह समारोहों में विलंब हो ही जाता है। 

पर उस उल्लंघन पर इस प्रकार की प्रतिक्रिया अशोभनीय और अवांछित है। वे यह कह सकते थे कि, आप सुबह तक यहीं रहें और बाहर न निकलें और अपना कार्य पूरा करें। निश्चित ही कलेक्टर के इस मृदु व्यवहार पर, उन्हें सहयोग ही मिलता क्योंकि यह कोई राजनीतिक भीड़ नहीं थी, और न कोई धरना प्रदर्शन। बल्कि यह एक विवाह समारोह था। इसमे लोगो का खर्चा होता है, और कोई भी व्यक्ति जिसने अपने बेटे, भाई, बहन या बेटी का विवाह किया है वह इस नुकसान का दर्द आसानी से समझ सकता है। 

वैसे भी एक कलेक्टर या मैजिस्ट्रेट को इस प्रकार की डंडेबाजी नही करनी चाहिए। कानून व्यवस्था के बड़े मामलों में ऐसी हरकतें थोड़ी बहुत चल भी जाती हैं, पर ऐसे निजी समारोह में यह सब बिल्कुल ही नहीं किया जाना चाहिए। अगर विवाह समारोह वाले चाहे तो अपने नुकसान की भरपाई के लिये अदालत मे दावा भी ठोंक सकते है, और यदि ऐसा दावा वे ठोकते भी हैं तो यह कलेक्टर साहब के लिये एक निजी मुकदमा होगा। 

ऐसी ही एक घटना, मेरे सहकर्मी एक मैजिस्ट्रेट एसीएम से कानपुर में हो गयी थी, जिसे लेकर लखनऊ तक बवाल मचा और फिर वह भी माफी के बाद ही शांत हुआ। पर वह मामला विवाह समारोह का नहीं था। हुआ यह कि, 1988 में कानपुर में रावतपुर तिराहे पर राज्य कर्मचारियों का एक धरना चल रहा था। उसी में उद्य्योग निदेशालय और रोडवेज कर्मचारियों के एक असरदार कर्मचारी नेता भी भाग लेने जा रहे थे। मैं तिराहे पर ही था और मेडिकल कॉलेज चौराहे पर भी उक्त नेता की एक एसीएम साहब से किसी बात को लेकर भिडन्त हो गयी। वही इंस्पेक्टर स्वरूपनगर भी थे। बात बहुत गंभीर नही थी पर अचानक उक्त एसीएम साहब ने अपने हांथ में लिये डंडे से उक्त कर्मचारी नेता को पीट दिया। थोड़ी देर बाद जो धरना रावतपुर तिराहे पर हो रहा था वह मेडिकल कॉलेज गोल चौराहे पर आ गया। इंस्पेक्टर स्वरूप नगर ने किसी तरह से उक्त एसीएम साहब को वहां से हटाया। 

देखते देखते धरना का मुद्दा ही बदल गया और बात एसीएम के तबादले और जांच की होने लगी। उस समय वरिष्ठ आईएएस अफसर, देवी दयाल साहब उद्य्योग निदेशक थे औऱ उनके हस्तक्षेप से धरना फिलहाल टल गया। दूसरे दिन उन्होंने डीएम, एसएसपी से कहा कि सीओ, एसीएम और इंस्पेक्टर को उनके आवास पर भेजा जाए। हम लोग देवी दयाल सर के आवास पर जो पत्थर कॉलेज, चंद्रशेखर आज़ाद कृषि विश्वविद्यालय के कैम्पस मे था वहां पहुंचे। 

देवी दयाल ने पहला ही सवाल यह दागा  कि, "आप तो मैजिस्ट्रेट हैं आप को यह मारपीट करने का अधिकार किसने दे दिया।" फिर मेरी तरफ इशारा कर के कहा कि "बल प्रयोग करने का और कितना बल प्रयोग करना है इसे तय करने का अधिकार तो इनका है। अब अगर वे नेता मुकदमा दर्ज कराते हैं या और कोई तमाशा करते हैं तो इसका खामियाजा कौन भुगतेगा। आप को तो इस तरह के मारपीट या पुलिस ज्यादती की जांच करनी चाहिए तो आप वहां, जहां इंस्पेक्टर खड़ा है, और वह आप को रोक भी  रहा है, और आप मारपीट पर उतारू हैं।" फिर उन्होंने कहा कि " आप दोनो जाइये उक्त कर्मचारी नेताओ से मिलिए औऱ इसे हल कीजिए।"  फिर हम लोग नेताओ के पास गए और फिर यह मामला सुलझा। दोनो ही तरफ से अफसोस व्यक्त किया गया।

ऐसी बहुत सी घटनाये कानून व्यवस्था के दौरान हो जाती हैं। पर ऐसे समय पर भी धैर्य और विवेक ही काम आता है। दरअसल जब सख्त प्रशासन की बात होती है तो उसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि एक असंवेदनशील और बदतमीज प्रशासन हो। सख्ती का अर्थ और अभिप्राय, कानून की सख्ती है न कि डंडे की सख्ती। यह सख्ती भी कानून व्यवस्था की विभिन्न परिस्थितियों को देख कर की जाती है। जैसे यदि साम्प्रदायिक दंगे भड़क गए हैं तो वहाँ अतिशय बल प्रयोग भी करना पड़ सकता है, और किया भी जाता है, पर ऐसे विवाह समारोह से जुड़े निषेधाज्ञा उल्लंघन के समय दंगे रोकने के नुस्खा से काम नही चलाया जा सकता है। जनता भी कभी कभी मरकहवा अफसर पसन्द करती है पर जब खुद पर पड़ती है तो ऐसे ही अफसरों के खिलाफ वह खड़ी भी हो जाती है। 

यह गुस्सा, यह तेवर, यह अंदाज, इनका स्वभाव नही है सख्त दिखने का एक नाटक है। ऐसी सख्ती ऐसे ही निजी समारोहों में दिखती होगी इनकी। पर जब किसी चुनावी रैली में, जहां आयोग के आचार संहिता की धज्जियां बड़े नेताओं द्वारा उड़ाई जा रही होंगी तो ऐसे अंदाज़ वाले अफसर, सारी जिम्मेदारी अपने कनिष्ठ अफसरों पर छोड़ कर, कहीं सरक जाते हैं, और तब न उनके यह अंदाज़ दिखते हैं, न तेवर न रुआब। वे राजनीतिक बैर कम ही लेते हैं। 

( विजय शंकर सिंह )


Tuesday 27 April 2021

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 13.

इतिहास के अध्येताओं/विद्यार्थियों की स्थिति अंपायर की होनी चाहिए। वे जब मैदान में होते हैं तो अपने देश के खिलाड़ी के छक्का लगाने पर उत्साहित नहीं दिखते, और न ही आउट होने पर दुखी नज़र आते हैं। 

हालांकि जब खेल भारत-पाकिस्तान के मध्य हो, तो दोनों तरफ के अंपायर भी कहाँ बच पाते हैं? बिशन सिंह बेदी अपनी टीम ही पाकिस्तान से वापस लेकर आ गए थे कि पाकिस्तानी अंपायर बेईमानी कर रहे हैं। उसी तरह भारतीय अंपायर दारा धोतीवाला हमेशा भारत के पक्ष में खड़े नज़र आते।

1965 का युद्ध तीन हफ्ते से कुछ अधिक चला। मगर चला क्यों? किसे क्या मिला? ध्येय क्या था? अगर सेनाएँ एक-दूसरे की सीमा में कुछ किलोमीटर घुस ही गयीं, तो क्या जमीन मिल गयी? पाकिस्तान को क्या कश्मीर मिल गया? भारत को क्या हाजी पीर मिल गया? अगर यह शक्ति-प्रदर्शन भी था तो किसके लिए था? यह दोनों देशों के मध्य लड़ा गया सबसे भीषण युद्ध था, जो अपनी लक्ष्य से भटका हुआ था। इससे पहले के युद्ध में कश्मीर का बँटवारा हुआ, और बाद के युद्ध में बांग्लादेश का निर्माण हुआ, मगर जिस युद्ध की तुलना विश्व-युद्ध से की गयी वह उसी की तरह निरर्थक था। उससे मात्र विनाश हुआ, हासिल लगभग कुछ नहीं। 

असल-उत्तर/खेमकरण के मोर्चे पर टैंक युद्ध की तरह ही फिलौरा में टैंक युद्ध हुआ। वहाँ भारतीय सेंचुरियन टैंकों का मुकाबला पाकिस्तानी पैटन टैंकों से हुआ। अपने शौर्य के कारण आर्देशिर बुरजोरजी तारापुर को परमवीर चक्र मिला। यह भारतीय सेना की विविधता थी जहाँ एक पारसी  मूल और एक मुसलमान को शौर्य के श्रेष्ठतम सम्मान मिले। इतना ही नहीं, डोगराइ के युद्ध में शौर्य के लिए कर्नल डेसमंड हेड को महावीर चक्र मिला जो आइरिश मूल के एंग्लो-इंडियन थे।

नितिन गोखले ने बिंदुवार सिद्ध किया है कि भारत युद्ध कैसे जीता। उन्होंने लिखा है कि सीज़फायर के बाद कुल जमीन भारत को अधिक मिली। कच्छ के मामले में यह बात सही है, मगर वह युद्ध तो पहले ही निपटाया जा चुका था। अन्य स्थानों पर युद्ध के बाद दोनों ही सेनाएँ बहुधा अपनी-अपनी सीमा पर लौट गयी। 

टैंकों की हानि पाकिस्तान की अधिक हुई। पैटन टैंक पाकिस्तान के पास आ तो गयी थी, मगर प्रशिक्षण नहीं मिला था। इनमें कई दलदल में फँस गयी जिन पर बाद में भारत का कब्जा हुआ। भारत ने एक पैटन नगर ही बसा दिया, जहाँ कब्जा किए पैटन टैंक रखे गए। पाकिस्तान ने भी कब्जा किए भारतीय टैंकों को प्रदर्शित किया। 

कश्मीर के अख़नूर में भारतीय सेना को ख़ासी हानि हुई, और सीज़फायर के बाद ही पाकिस्तानी अतिक्रमण खत्म हुआ। पाकिस्तानी सेना के वापस लौटने के बदले भारत को हाजी पीर जैसा मजबूत किला छोड़ना पड़ा। वह ऐसा नासूर बना जो अब तक भारत झेल रहा है। 

वायुसेना को हुई हानियों पर दोनों ही देश भिन्न आंकड़े देते हैं। पाकिस्तान के अनुसार उन्होंने भारत के सौ से अधिक विमान उड़ाए, जबकि भारत के अनुसार पाकिस्तान के सत्तर से अधिक विमान उड़ाए गए। रक्षा मंत्री यशवंतराव चव्हाण के संसद में दिए बयान के अनुसार भारत द्वारा युद्ध छेड़ने का कारण ही पाकिस्तानी वायुसेना द्वारा आक्रमण था। इसमें कोई शक नहीं कि वायु सेना हानियाँ दोनों ही तरफ़ हुई।

ऑपरेशन जिब्राल्टर असफल होने के बावजूद भारत के इंटेलिजेंस की कमजोरी की तरह देखा गया। पच्चीस-तीस हज़ार पाकिस्तानी आखिर कैसे कश्मीर में घुस गए कि उनके घुसने के बाद ही खबर हुई। वहीं पाकिस्तान में इसे एक बड़ी ग़लती की तरह देखा गया कि कैसे छह-छह महीने के कैम्प में तैयार कश्मीरियों को भारतीय सेना के हाथों मरने के लिए छोड़ दिया गया। क्या ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो उन मौतों की ज़िम्मेदारी लेंगे?

यह युद्ध भुट्टो का मास्टर-प्लान तो था ही, मगर यह खेल उससे कहीं बड़ा था। संयुक्त राष्ट्र संघ के सेक्रेट्री जनरल पाकिस्तान और भारत में घूम रहे होते हैं, सीमा पर युद्ध चल रहा होता है। युद्ध के दौरान पाकिस्तान चीन की मदद लेता है, और चीन सिक्किम में लड़ाई की धमकी देता है। अमरीका और इंग्लैंड अचानक घोषणा करते हैं कि हम हथियारों की आपूर्ति बंद कर रहे हैं, युद्ध रोक दिया जाए। यानी अब तक हथियार वही भेज रहे थे। इन सबसे परे सोवियत दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्षों को ताशकंद बुलाता है, और ऐसे काग़ज पर दस्तख़त कराता है, जो उन दोनों के लिए हृदयाघाती होता है। 

अमरीकी गृह मंत्रालय की वेबसाइट पर इस युद्ध का परिचय कुछ यूँ लिखा है, “इस युद्ध से दोनों देशों की समस्या तो नहीं सुलझी किंतु अमरीका और सोवियत को एशिया में महाशक्ति बनने में मदद मिली।”
(क्रमश:)

प्रवीण झा 
( Praveen Jha )

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 13. 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/12_26.html
#vss

यूपीए UPA सरकार के कार्यकाल में एक ही AIIMS का निर्माण हुआ ? यह दावा ग़लत है.

आल्टनयूज़ की वेबसाइट पर मिले, पूजा चौधरी के लेख के अनुसार, सोशल मीडिया पर कई भाजपा नेता और समर्थक दावा कर रहे हैं कि पिछले प्रधानमंत्रियों की तुलना में प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल के दौरान सबसे ज़्यादा एम्स (AIIMS) का निर्माण हुआ है।

इसके साथ एक इंफ़ोग्राफ़िक भी शेयर किया जा रहा है जिसमें दिखाया गया है कि 
● प्रधानमंत्री मोदी के कार्यकाल के 7 सालों में 15 एम्स अस्पताल बनाए गए हैं जबकि पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के कार्यकाल के दौरान सिर्फ़ 1 एम्स ही बना था।

● बिहार सरकार में सड़क निर्माण मंत्री नन्द किशोर यादव ने ये दावा ट्वीट किया. (ट्वीट का आर्काइव लिंक)


● राजनीतिक टिप्पणीकार अभिनव प्रकाश ने भी दावा किया कि प्रधानमंत्री मोदी ने 14 एम्स बनाने की घोषणा की थी जिसमें से 11 एम्स शुरू भी हो चुके हैं. इस ट्वीट को 8 हज़ार लाइक्स और 3,400 रीट्वीट मिले हैं. (आर्काइव लिंक)

● भाजपा समर्थक अरुण पुदुर (आर्काइव लिंक) और ट्विटर हैन्डल ‘@Sootradhar’ (आर्काइव लिंक) ने भी ये दावा ट्वीट किया है. अरुण पुदुर ने ये लिस्ट शेयर करते हुए लिखा, 
“प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपने 10 साल के कार्यकाल के दौरान सिर्फ़ 1 एम्स शुरू किया और वो भी इटालियन माता के चुनाव क्षेत्र में। ”.

● अभिषेक द्विवेदी (@Rezang_La), ‘@SaffronTommy’ और ‘@beingGavy’ के ट्वीट्स को आर्टिकल लिखे जाने तक सैकड़ों बार लाइक और रीट्वीट किया गया है. ट्विटर हैन्डल ‘@SaffronTommy’ ने लिखा, “मोदी सरकार ने देश में 14 एम्स बनाए जबकि मनमोहन सिंह ने सिर्फ़ 1 ही एम्स का निर्माण किया था.”

● फ़ेसबुक पर ये दावा वायरल है। प्रो-मोदी फ़ेसबुक पेज ‘Marketing Motivation’ द्वारा पोस्ट की गई इस लिस्ट को आर्टिकल लिखे जाने तक 1 हज़ार लाइक्स मिले हैं.


फ़ैक्ट-चेक
● भारत में पहला एम्स अस्पताल साल 1956 में देश के पहले स्वास्थ्य मंत्री अमृत कौर के नेतृत्व में बना था. उसके बाद से 6 और एम्स बने हैं.

● साल 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना (PMSSY) लॉन्च की थी. इसका उद्देश्य था, “सस्ती और विश्वसनीय स्वास्थ्य सेवाओं की उपलब्धि में होनेवाली गड़बड़ी को ठीक करना और देश में मेडिकल पढ़ाई की गुणवत्ता बढ़ाना.”

● 2003 के स्वतंत्रता दिवस के भाषण में तत्कालीन प्रधानमंत्री ने PMSSY के तहत पिछड़े राज्यों में अगले 3 सालों के अंदर दिल्ली के एम्स जैसे आधुनिक सुविधाओं वाले 6 नए अस्पताल बनाने की घोषणा की थी. लेकीन वाजपेयी सरकार 9 महीनों के कार्यकाल में ही सत्ता से हट गई थी.

● इसके बाद, UPA शासन के दौरान 6 एम्स अस्पताल बनाए गए थे. द न्यू इंडियन एक्सप्रेस की 2011 की रिपोर्ट के मुताबिक, 
“NDA सरकार चुनावी वादों वाले मोड में ही रही और अक्टूबर 2003 से मार्च 2004 के बीच बिना ज़मीन की पुख्ता कागज़ी कार्रवाई के महज़ आधारशिला रखने का काम करती रही.”
आगे रिपोर्ट में बताया गया,
“UPA के सत्ता में आते ही केन्द्रीय कैबिनेट ने मार्च 2006 में इन्हें मंज़ूरी दी थी.” 
रिपोर्ट में लिखा है,
“इसके 6 साल बाद सरकार को क्लियरेंस और DPRs मिलने के बाद 2009 में इनका काम शुरू हुआ था. जून 2010 में कॉन्ट्रैक्टर चुनकर उन्हें काम सौंपा गया था.”

● PMSSY के पहले चरण में 6 नए एम्स भोपाल, भुवनेश्वर, जोधपुर, पटना, रायपुर और ऋषिकेश में बनाए गए थे. PMSSY की वेबसाइट के मुताबिक, इन अस्पतालों में रेग्युलर MBBS कोर्स 2012 और रेग्युलर नर्सिंग कोर्स 2013 में शुरू हुए थे.

यहां ध्यान दें कि
● एम्स का डेवलपमेंट UPA और NDA, दोनों सरकारों के कार्यकाल के दौरान अलग-अलग चरणों में हुआ था. 

● भोपाल के एम्स में मेडिकल कॉलेज और आउट पेशेंट डिपार्ट्मेंट (OPD) सर्विसेज़ 2013 में शुरू हुई थीं जबकि इन पेशेंट डिपार्ट्मेंट (IPD) और प्राइवेट वॉर्ड्स 2014 और 2017 में शुरू हुए थे. 2019 की CAG रिपोर्ट में बताया गया था कि इन नए एम्स अस्पतालों के विकास का काम अभी भी बाकी है और ये दिल्ली के एम्स के जैसे पूरी तरह कार्यरत नहीं हुए हैं.

● अटल बिहारी वाजपेयी सरकार को वायरल लिस्ट में जिन 6 एम्स का श्रेय दिया गया है, उनका काम तो कांग्रेस सरकार के दौरान हुआ था.

देश में एम्स अस्पतालों की स्थिति की बात करें तो स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के राज्य मंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने पिछले साल कहा था, 
“PMSSY के तहत 22 एम्स की घोषणा हुई है. इसमें से 6 एम्स भोपाल, भुवनेश्वर, जोधपुर, पटना, रायपुर और ऋषिकेश में चालू हो चुके हैं. बाकी के 16 एम्स का काम अभी चल रहा है.”

इन 16 एम्स में से 
● रायबरेली में बनने वाली एम्स को PMSSY के दूसरे चरण के तहत मनमोहन सिंह सरकार में मंज़ूरी मिली थी. द इंडियन एक्सप्रेस के मुताबिक, 
“केन्द्रीय सरकार से 1 दशक पहले मिली मंज़ूरी के बाद राय बरेली में अगस्त 2018 में आउट पेशेंट डिपार्ट्मेंट (OPD) सर्विसेज़ शुरू हुई थी.”

बाकी के 15 एम्स की घोषणा प्रधानमंत्री मोदी ने की है. इनमें से कुछ एम्स में आउट पेशेंट डिपार्ट्मेंट (OPD) सर्विसेज़ और मेडिकल कॉलेज की सुविधा शुरू हो चुकी है.

कुल मिलाकर, वायरल लिस्ट के ज़रिए सोशल मीडिया पर भ्रामक दावा किया जा रहा है. 
● अभी तक 7 एम्स पूरी तरह से चालू हो चुके हैं. इसमें दिल्ली का एम्स भी शामिल है.
● बाकी के 6 एम्स भाजपा सरकार के कार्यकाल में अनाउन्स हुए थे लेकिन इनके निर्माण का काम कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में हुआ था. 
● रायबरेली एम्स भी कांग्रेस सरकार के दौरान ही बनाया गया था लेकिन इसमें OPD सर्विस भाजपा के शासन के वक़्त शुरू हुई थी. 
● भाजपा के शासन में 15 एम्स की घोषणा हुई है लेकिन या तो अभी ये बन रहे हैं, या फ़िर इनमें कुछ ही सेवाओं की शुरुआत हुई है।

साभार altnews और प्रतीक सिन्हा जी 
( विजय शंकर सिंह )

अवतार सिंह पाश की कविता - मैं किसी सफेदपोश कुर्सी का बेटा नहीं

मैं किसी सफ़ेदपोश कुर्सी का बेटा नहीं
बल्कि इस अभागे देश की भावी को गढ़ते
धूल में लथपथ हज़ारों चेहरों में से एक हूं।

मेरे माथे पर बहती पसीने की धारों से
मेरे देश की कोई भी नदी बेहद छोटी है।
किसी भी धर्म का कोई ग्रंथ
मेरे जख्मी होठों की चुप से अधिक पवित्र नहीं है।

तू जिस झंडे को एड़ियां जोड़कर देता है सलामी
हम लुटे हुओं के दर्द का इतिहास
उसके तीन रंगों से ज्यादा गाढ़ा है
और हमारी रूह का हर एक जख़्म
उसके बीच वाले चक्र से बहुत बड़ा है।

मेरे दोस्त, मैं मसला पड़ा भी
तेरे कीलों वाले बूटों तले
माउंट एवरेस्ट से बहुत ऊंचा हूं
मेरे बारे में ग़लत बताया तेरे कायर अफसरों ने
कि मैं इस राज्य का सबसे खतरनाक महादुश्मन हूं

अभी तो मैंने दुश्मनी की शुरुआत भी नहीं की
अभी तो हार जाता हूं मैं
घर की मुश्किलों के आगे
अभी मैं कर्म के गड्ढे
कलम से आट लेता हूं
अभी मैं कर्मियों और किसानों के बीच
छटपटाती कड़ी हूं

अभी तो मेरा दाहिना हाथ तू भी
मुझसे बेगाना फिरता है।
अभी मैंने उस्तरे नाइयों के
खंज़रों में बदलने हैं
अभी राजों की करंडियों पर
मैंने लिखनी है वार चंडी की।

( अवतार सिंह "पाश" )

यात्रा वृतांत - गंगोत्री यात्रा के पड़ाव (5)

पूजा के बाद दान-दक्षिणा अर्पित कर हमने पर्वत शिखरों की फ़ोटो क्लिक कीं और वापस लौट पड़े। पुनः हर्षिल आ गए। हर्षिल खूब जूसी सेबों और राजमा के लिए प्रसिद्ध है। पहाड़ों और पंजाब-हरियाणा में राजमा ख़ूब पसंद किया जाता है। किंतु कश्मीर यात्रा में जैसे चावल व राजमा मैंने जम्मू के कश्मीर हाउस और श्रीनगर में खाये थे, वैसा कहीं नहीं मिला।यहाँ तक कि जम्मू-श्रीनगर हाई-वे के ढाबों में शाकाहारी लोगों के लिए राजमा-चावल ही खाने को मिलता है। वहाँ छोले-चावल खाने का चलन कम है। सेबों के सीजन में एक बार सितम्बर के तीसरे हफ़्ते में मैं हर्षिल गया था, वहाँ मुझे एक दूकान में ढेर सारे डिब्बे रखे थे, जिसमें हिमाचल सेब लिखा हुआ था। मगर उन डिब्बों में भरे जा रहे थे हर्षिल के सेब। मैंने दूकानदार से पूछा कि यह फ़र्ज़ीवाड़ा क्यों? उसने बताया कि हर्षिल जैसा मीठा और जूसी सेब पूरे भारत में कहीं नहीं होता और लोगों के बीच हर्षिल के सेब की कोई पहचान नहीं है, इसलिए यह फ़र्जीवाड़ा करना पड़ता है। अब चूँकि इस समय सेब का सीजन ख़त्म है इसलिए सेब के भंडार ख़ाली पड़ा था। 

यहाँ सेबों के पेड़ उगाने का श्रम विल्सन ने किया था, वही यहाँ सेब के बीज अमेरिका से लाया था। राजमा मुझे नहीं पसंद इसलिए हम फिर भागीरथी का पुल पार कर आर्मी बेस कैम्प में आ गए। 
हमारे दोस्त सुभाष बंसल को 20-20 लीटर के दो कैन गंगा जल लेना था। वे बहुत धार्मिक आदमी हैं और अपने ठाकुर जी को वे रोज़ाना ऐसे जाड़े में भी, शीतल गंगा जल से नहलाते हैं। पंडित जी ने कहा कि हर्षिल के आगे धराली में गंगा जी से सटा हुआ एक मंदिर है, वहाँ से जल भरते हैं। धराली हर्षिल से एक किमी आगे गंगोत्री जाने वाली सड़क पर है। वहाँ बर्फ़ से सने मकान थे। एक बड़ा-सा होटल था- प्रकृति। यह बैंड बड़ा था। वहीं हमने गाड़ी रोकी। पंडित जी और एडवोकेट राहुल बंसल ढलान वाली बर्फ़ पर चलते हुए भागीरथी तक गए और जल ले आए। यहाँ धूप थी मगर कपकपी भी। तब तक ऊपर गंगोत्री की तरफ़ से आती हुई एक इनोवा टैक्सी दिखी। मैंने उसे रोका और ड्राइवर से पूछा आगे रास्ता कैसा है? उसने बताया कि भैरोघाटी के आगे बहुत बर्फ़ है। धराली से आठ किमी दूर लंका तक इसी तरफ़ के पहाड़ पर चलना था। जहां एकदम सफ़ेद चादर पहाड़ों पर बिछी थी। लंका पर भागीरथी के उस पार जाने के लिए पुल था। यहाँ पर भागीरथी ऊँचे-ऊँचे चट्टानों के पर्वत के नीचे तलहटी में अत्यंत संकरे स्थान से गुजरती हैं। न कोई शोर न हलचल। किंतु किनारे से नीचे झांकने पर सैकड़ों फ़िट दूर एक धारा झिलमिलाती है। यहाँ से दूसरी साइड वाले पहाड़ पर जाना पड़ता है, जहां खूब धूप थी। बिना सहारे वाले इस पुल को पार करना जोखिम लगता है। कहते हैं विल्सन ने इसे रस्सों से बनवाया था। तब किसी की हिम्मत नहीं पड़ती पुल पार करने की। पर विल्सन अपने घोड़े पर सवार होकर इस पुल से उस तरफ़ चला जाता था। पुल खूब इधर-उधर होता था। अब तो ख़ैर यह पुल लोहे का बना है। सीमा सड़क संगठन ने इसे खूब चौड़ा भी कर दिया है। लेकिन लोक में प्रथा प्रचलित है, कि रात को एक अंग्रेज इस पुल पर घोड़ा दौड़ाता हुआ निकलता है। कहते हैं, वह विल्सन की आत्मा है। उस तरफ़ के पहाड़ नंगे हैं। विल्सन ने सारे पेड़ कटवा दिए थे। इधर पहाड़ मिट्टी और पत्थर के हैं। यह मिट्टी अक्सर झरा करती है। 

सड़क पहले ढलान पर जाती है, फिर चढ़ाई की ओर। आठ किमी पर भैरों घाटी है। यह एक बैंड है। यहाँ फ़ॉरेस्ट का रेस्ट हाउस है और एक पर्यटक आवास गृह भी। स्नो-बीयर देखने वाले यहाँ आते हैं। काफ़ी ऊँचाई पर है। चारों तरफ़ जंगल है। इसके चार किमी आगे केलोंग की तरफ़ एक सड़क चढ़ती है और यह हाई वे सीधे गंगोत्री जाता है। 
इस समय गंगोत्री में सन्नाटा होता है। एक पुजारी ज़रूर वहाँ रहता है, लेकिन मंदिर के पट बंद रहते हैं। यहाँ हमारे मित्र सुभाष बंसल का भी एक शिवमंदिर है, जो उन्होंने गंगोत्री मंदिर समिति को समर्पित कर दिया है। उन्होंने यहाँ चार कमरे भी बनवा रखे हैं। उनमें बाथरूम भी है और किचेन भी। यह आवास मंदिर समिति के पास है और इसमें रुकने वाले से कोई चार्ज नहीं लिया जाता। गंगोत्री मंदिर के उस तरफ़ कई आश्रम और धर्मशालाएँ हैं। स्वामी सुंदरानंद का आश्रम है, जिनकी पिछले महीने हृदय गति रुकने से 90 की अवस्था में मृत्यु हो गई। इस दाक्षिणात्य स्वामी की प्रतिष्ठा विश्व प्रसिद्ध फ़ोटोग्राफ़र के तौर पर थी। गंगोत्री से गोमुख जाने के रास्ते पर भोजवासा-चीड़वासा में भी उनका आश्रम है। जहां की गर्मागर्म खिचड़ी का स्वाद यात्रियों को याद होगा। वे गोमुख, तपोवन, केदार ताल, ब्रह्म ताल और नील कमल सरोवर तक ज़ाया करते थे। जहां पहुँचना बहुत कष्टकारी है। एक गुजराती बाबा की विशाल धर्मशाला है, एक मारवाड़ियों की भी। अग्रवाल समाज भी यात्रियों के निवास की व्यवस्था करता है। इसके अलावा गढ़वाल मंडल विकास निगम का एक होटल है। कुछ पंजाबियों के अन्य छोटे-मोटे होटल हैं। जिनके कमरे छह बाई आठ के ही हैं। और सीजन में खूब ठगते हैं। टिकुली, चंदन, माला और नारियल व प्रसाद बेचने वालों की दूक़ानें हैं। कुछ ढाबे हैं। यहाँ पर गंगोत्री रिज़र्ब पार्क है। इसके अंदर वन विभाग का रेस्ट हाउस है, वह भी मिल जाता है। एक पुलिस चौकी है। 

गंगोत्री की सीध में चालने पर दो किमी तक गंगा किनारे कुछ बाबाओं के आश्रम हैं। ये साधक हैं और पब्लिक से नहीं मिलते। एक पागल बाबा का आश्रम है, जिसमें जाने पर उस बाबा ने मुझे पत्थरों से मारा था। आगे भागीरथी पहाड़ों के बीच अदृश्य हो जाती है। 
(बाक़ी का कल)

शंभूनाथ शुक्ल 
( Shambhunath Shukla )

गंगोत्री यात्रा के पड़ाव (4)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/4_26.html
#vss

Monday 26 April 2021

बशीर बद्र की नज़्म.- वही ताज है, वही तख्त है

वही ताज है वही तख़्त है वही ज़हर है वही जाम है
ये वही ख़ुदा की ज़मीन है ये वही बुतों का निज़ाम है
 
बड़े शौक़ से मिरा घर जला कोई आँच तुझ पे न आएगी
ये ज़बाँ किसी ने ख़रीद ली ये क़लम किसी का ग़ुलाम है
 
यहाँ एक बच्चे के ख़ून से जो लिखा हुआ है उसे पढ़ें
तेरा कीर्तन अभी पाप है अभी मेरा सज्दा हराम है
 
मैं ये मानता हूँ मिरे दिए तिरी आँधियों ने बुझा दिए
मगर एक जुगनू हवाओं में अभी रौशनी का इमाम है
 
मिरे फ़िक्र-ओ-फ़न तिरी अंजुमन न उरूज था न ज़वाल है
मिरे लब पे तेरा ही नाम था मिरे लब पे तेरा ही नाम है

( बशीर बद्र )

यात्रा वृत्तांत - गंगोत्री यात्रा के पड़ाव (4) सरकार और पंडितों में खींचतान

हमें पहले मुक़बा जाना था इसलिए हमने हर्षिल के आर्मी बेस कैम्प पर स्थित लोहे के पुल से भागीरथी पार की और बाज़ार से गुजरते हुए मुक़बा को ज़ा रहे रास्ते पर गाड़ी चढ़ा दी। यह मार्ग अभी कच्चा है और सकरा भी। बीच-बीच में खच्चर भी ख़ूब मिलते रहे। चार किमी का यह रास्ता पूरा करने में हमें पंद्रह मिनट लगे। कुछ देर बाद हम मुक़बा गाँव के बाहर लगे प्रवेश द्वार पर पहुँच गए। गाड़ी वहीं लगा दी। कुछ ऊपर गंगोत्री मंदिर था, जो जाड़े में बर्फ़वारी के कारण इस गाँव में ले आया जाता है। गंगा माता का कलेवर पूरी धज़ के साथ डोली में लाया जाता है। बैंड बाजे और पुजारियों के साथ एक डोली में। क़रीब सौ सीढ़ियाँ चढ़ कर हम मंदिर के समक्ष पहुँचे। गर्भ-गृह तक पहुँचने के लिए 50 सीढ़ियाँ और चढ़नी थीं। हालाँकि हमारे पुरोहित पंडित जितेंद्र सैमवाल साथ थे किंतु पूरे गाँव में शोर हो गया कि जित्तू पंडित के जजमान गंगा पूजन के लिए आए हैं। पुजारी भाग कर आए और दोपहर डेढ़ बजे ही पट खोल दिए। इस वर्ष कोरोना के कारण पूरे सीजन एक भी श्रद्धालु नहीं आया। और जो आने को तत्पर थे उनको उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने पंडितों के प्रति अपनी चिढ़ के कारण नहीं आने दिया। तीर्थ यात्रा का सीजन ही इन पंडितों के लिए रोज़ी-रोटी है। पर चार धामों के लिए देवस्थान ट्रस्ट बनाने का मोदी सरकार का फ़ैसला इन पंडितों की रोज़ी छीन रहा है। इसलिए पंडित मोदी सरकार से चिढ़े हुए हैं। उनका कहना है और शायद सत्य भी हो, कि राज्य की भाजपा सरकार की गिद्ध दृष्टि गंगा माता के ज़ेवरों पर लगी है। ये ज़ेवर ढाई सौ साल पहले जयपुर की महारानी ने भेंट किए थे।

पंडितों का कहना है, कि उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बार-बार कोशिश कर रहा है कि मंदिर का ख़ज़ाना सरकार को मिल जाए। ताकि वह इसे बेच कर अपना पेट भर सके। हमारे जीते-जी यह सम्भव नहीं है। हमने इस ख़ज़ाने का इस्तेमाल कभी नहीं किया। यह गंगा माई की धरोहर है। हम सिर्फ़ इसकी रखवाली करते हैं। उधर सरकार गंगोत्री को पिकनिक स्पॉट बनाने की फ़िराक़ में है। गंगोत्री मंदिर पुरोहित समाज के प्रमुख सुरेश जी का कहना है, कि हमारा संविधान धर्म निरपेक्ष है, फिर किस हैसियत से मुख्यमंत्री एक धर्मविशेष का अगुआ बनना चाहता है? गंगोत्री और यमुनोत्री का पुरोहित समाज सरकार के इस फ़ैसले के विरोध में सुप्रीम कोर्ट गया है। सुरेश जी की इस बात में दम है, कि एक धर्म निरपेक्ष सरकार को किसी भी धर्म, उनके मंदिर या उपासना स्थल में ख़ुद नहीं दख़ल करना चाहिए, जब तक कि ख़ुद उस धर्म के लोग आपत्ति न जताएँ। यदि आपत्ति है तो उस धर्म के लोग अपनी एक चुनी हुई संस्था बनाएँ। जैसी कि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी है या अन्य धर्मों में है। तीर्थ पुरोहितों के पास ख़ुद की अपनी प्रबंधक समिति है। जब हम गंगा मंदिर पहुँचे तो पाया कि पुजारियों के चेहरे खिल गए। मुख्य पुजारी ने पट खोले और पूजा शुरू हुई।गंगा लहरी का समवेत गान शुरू हुआ-
“देवि सुरेश्वरि भगवति गंगे, त्रिभुवन तारिणि तरल तरंगे।
शंकर मौलि विहारिणि विमले, मम मति रास्ताम तव पद कमले।।”

यह मुक़बा भारत का आख़िरी गांव है। यहाँ भारत-तिब्बत सीमा पुलिस की चौकी भी कुछ दूर है। और पहाड़ पार करते ही उस तरफ़ तिब्बत (अब चीन) की सीमा है।वर्ष 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध के पहले तिब्बत के सौदागर यहाँ आते थे, वे नमक ख़रीदने आते और बदले में ऊनी वस्त्र देते। तिब्बती सिक्के भी कुछ लोगों के पास अभी तक हैं। कुछ पुराने लोग तिब्बती बोल, लिख व पढ़ लेते हैं। तिब्बत के लोग अपने शानदार घोड़ों पर सवार होकर आते। वे खूब बलशाली होते थे। पिछली मर्तबा यानी 2013 की 31 दिसंबर को मैं मुक़बा गांव में एक पुरोहित की हट में रुका था। लकड़ी से बनी यह छोटी-सी हट अंदर से ख़ूब गर्म थी। यह ज़मीन से आठ फ़ीट ऊपर लकड़ी के पायों पर टिकी थी। हट तक जाने के लिए लकड़ी की सात-आठ सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती थीं। इन सीढ़ियों के दोनों तरफ़ कोई रेलिंग नहीं थी। न ही सीढ़ियों के पीछे कोई सहारा था। ज़रा सा भी चूके तो नीचे गिरने का ख़तरा। किंतु पंडितों का तो अभ्यास था, इसलिए वे खट-खट चढ़-उतर जाते थे। एक दिक़्क़त और थी, कि इसमें बाथ रूम अटैच्ड नहीं था। रात को ढाई बजे मुझे पेशाब के लिए उठना पड़ा तो हट से उतर कर पहले तो सड़क पर आया फिर कुछ नीचे जाने पर टॉयलेट बनी थी। उस समय बर्फीला तूफ़ान चल रहा था और श्वेत, निर्मल तथा शीतल बर्फ़ रुई के फाहे की तरह शरीर पर गिर रही थी। आसपास अंधेरा और तमाम आदमकद चीजें किसी भुतहे इलाक़े का आभास करा रही थीं। एक पशु, जो एकदम सफ़ेद था, मुझे चलायमान दिखा तो मेरे होश उड़ गए। मुझे लगा, कि यह ज़रूर स्नो-बियर होगा और मैं भाग कर हट में आया और पेशाब दाबे लौट कर बिस्तर में दुबक गया। फिर थोड़ी देर बाद हट के दरवाज़े से निकल कर कोने में ही ख़ाली हुआ। सुबह सब कुछ साफ़ था। नीला आसमान और खिली हुई धूप। तब एक दूसरे पुरोहित के आवास पर मेरी हाजत की व्यवस्था की गई, क्योंकि मुझे इंडियन स्टाइल के टॉयलेट्स में जाने की आदत नहीं है। वहाँ पानी गरम करने की व्यवस्था थी और खूब बड़ा बाथ रूम।

इसके बाद अगली 31 दिसम्बर को जब मैं मुक़बा गया, नए साल पर गंगा पूजन के लिए तब मैं हर्षिल के आर्मी गेस्ट हाउस में रुका। वहाँ पर हर सुइट में एक बड़ा-सा बैठका और डाइनिंग रूम था। दो-दो हीटर भी लगे थे और बेड रूम भी विशाल था। वहाँ भी दो हीटर लगे थे ऑयल वाले। गेस्ट हाउस के सामने भागीरथी का परवाह था। शांत, सुंदर और सम ध्वनि वाला प्रवाह। टीवी भी लगा था। रात में भोजन मेस से आता रहा। जवान बार-बार गरम रोटी या सब्ज़ी-दाल लाने काफ़ी दूर जाते, यह मुझे बहुत ख़राब लगता। यहाँ द्रव्य भी उपलब्ध था। मात्र सौ रुपए में ब्लैक लेबल का एक पेग जो दिल्ली में चार या पाँच सौ का होगा। शाकाहारी खाओ या मांसाहारी भोजन का चार्ज सिर्फ़ सौ रुपए थे। नाश्ते का 50 रुपए। द्रव्य के साथ पीनट फ़्री थे। मैंने ब्लैक लेबल के दो पेग मंगाये। तभी टीवी ऑन किया और डिस्कवरी टीवी में बीयर ग्रिल बता रहा था, कि यदि आप बर्फीले और जंगली क्षेत्र में हैं तो मद्य-पान न करें। अन्यथा पेशाब के जम जाने का ख़तरा रहता है। मैंने वे दोनों पेग फ़ेक दिए।

सुबह उठ कर बाथ रूम में नहाने गया तो पाया कि शैम्पू, मॉसचुराइज़र और सुवासित तेल की शीशियाँ पैक रखी हैं। एक पीयर्स साबुन भी। इन सबका चार्ज लिया जाता है। नया और साफ़ तौलिया भी। मैंने बालों में शैम्पू लगाया और पानी के लिए टोंटी खोली तो एकदम बर्फ़ जैसा पानी। दरअसल मैंने गीज़र ऑन ही नहीं किया था। उधर शैम्पू आँखों में रिस रहा था, इसलिए तौलिया लपेट भागा और भागीरथी में डुबकी लगा कर आ गया। इसके बाद वहाँ के कमांडिंग ऑफ़िसर ले क अभिषेक अपनी जिप्सी में मुझे मुक़बा ले गए और हम दोनों ने गंगा मंदिर में अभिषेक किया।

शंभूनाथ शुक्ल
(Shambhunath Shukla)

गंगोत्री यात्रा के पड़ाव (3)
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