हमें पहले मुक़बा जाना था इसलिए हमने हर्षिल के आर्मी बेस कैम्प पर स्थित लोहे के पुल से भागीरथी पार की और बाज़ार से गुजरते हुए मुक़बा को ज़ा रहे रास्ते पर गाड़ी चढ़ा दी। यह मार्ग अभी कच्चा है और सकरा भी। बीच-बीच में खच्चर भी ख़ूब मिलते रहे। चार किमी का यह रास्ता पूरा करने में हमें पंद्रह मिनट लगे। कुछ देर बाद हम मुक़बा गाँव के बाहर लगे प्रवेश द्वार पर पहुँच गए। गाड़ी वहीं लगा दी। कुछ ऊपर गंगोत्री मंदिर था, जो जाड़े में बर्फ़वारी के कारण इस गाँव में ले आया जाता है। गंगा माता का कलेवर पूरी धज़ के साथ डोली में लाया जाता है। बैंड बाजे और पुजारियों के साथ एक डोली में। क़रीब सौ सीढ़ियाँ चढ़ कर हम मंदिर के समक्ष पहुँचे। गर्भ-गृह तक पहुँचने के लिए 50 सीढ़ियाँ और चढ़नी थीं। हालाँकि हमारे पुरोहित पंडित जितेंद्र सैमवाल साथ थे किंतु पूरे गाँव में शोर हो गया कि जित्तू पंडित के जजमान गंगा पूजन के लिए आए हैं। पुजारी भाग कर आए और दोपहर डेढ़ बजे ही पट खोल दिए। इस वर्ष कोरोना के कारण पूरे सीजन एक भी श्रद्धालु नहीं आया। और जो आने को तत्पर थे उनको उत्तराखंड के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत ने पंडितों के प्रति अपनी चिढ़ के कारण नहीं आने दिया। तीर्थ यात्रा का सीजन ही इन पंडितों के लिए रोज़ी-रोटी है। पर चार धामों के लिए देवस्थान ट्रस्ट बनाने का मोदी सरकार का फ़ैसला इन पंडितों की रोज़ी छीन रहा है। इसलिए पंडित मोदी सरकार से चिढ़े हुए हैं। उनका कहना है और शायद सत्य भी हो, कि राज्य की भाजपा सरकार की गिद्ध दृष्टि गंगा माता के ज़ेवरों पर लगी है। ये ज़ेवर ढाई सौ साल पहले जयपुर की महारानी ने भेंट किए थे।
पंडितों का कहना है, कि उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बार-बार कोशिश कर रहा है कि मंदिर का ख़ज़ाना सरकार को मिल जाए। ताकि वह इसे बेच कर अपना पेट भर सके। हमारे जीते-जी यह सम्भव नहीं है। हमने इस ख़ज़ाने का इस्तेमाल कभी नहीं किया। यह गंगा माई की धरोहर है। हम सिर्फ़ इसकी रखवाली करते हैं। उधर सरकार गंगोत्री को पिकनिक स्पॉट बनाने की फ़िराक़ में है। गंगोत्री मंदिर पुरोहित समाज के प्रमुख सुरेश जी का कहना है, कि हमारा संविधान धर्म निरपेक्ष है, फिर किस हैसियत से मुख्यमंत्री एक धर्मविशेष का अगुआ बनना चाहता है? गंगोत्री और यमुनोत्री का पुरोहित समाज सरकार के इस फ़ैसले के विरोध में सुप्रीम कोर्ट गया है। सुरेश जी की इस बात में दम है, कि एक धर्म निरपेक्ष सरकार को किसी भी धर्म, उनके मंदिर या उपासना स्थल में ख़ुद नहीं दख़ल करना चाहिए, जब तक कि ख़ुद उस धर्म के लोग आपत्ति न जताएँ। यदि आपत्ति है तो उस धर्म के लोग अपनी एक चुनी हुई संस्था बनाएँ। जैसी कि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी है या अन्य धर्मों में है। तीर्थ पुरोहितों के पास ख़ुद की अपनी प्रबंधक समिति है। जब हम गंगा मंदिर पहुँचे तो पाया कि पुजारियों के चेहरे खिल गए। मुख्य पुजारी ने पट खोले और पूजा शुरू हुई।गंगा लहरी का समवेत गान शुरू हुआ-
“देवि सुरेश्वरि भगवति गंगे, त्रिभुवन तारिणि तरल तरंगे।
शंकर मौलि विहारिणि विमले, मम मति रास्ताम तव पद कमले।।”
यह मुक़बा भारत का आख़िरी गांव है। यहाँ भारत-तिब्बत सीमा पुलिस की चौकी भी कुछ दूर है। और पहाड़ पार करते ही उस तरफ़ तिब्बत (अब चीन) की सीमा है।वर्ष 1962 में हुए भारत-चीन युद्ध के पहले तिब्बत के सौदागर यहाँ आते थे, वे नमक ख़रीदने आते और बदले में ऊनी वस्त्र देते। तिब्बती सिक्के भी कुछ लोगों के पास अभी तक हैं। कुछ पुराने लोग तिब्बती बोल, लिख व पढ़ लेते हैं। तिब्बत के लोग अपने शानदार घोड़ों पर सवार होकर आते। वे खूब बलशाली होते थे। पिछली मर्तबा यानी 2013 की 31 दिसंबर को मैं मुक़बा गांव में एक पुरोहित की हट में रुका था। लकड़ी से बनी यह छोटी-सी हट अंदर से ख़ूब गर्म थी। यह ज़मीन से आठ फ़ीट ऊपर लकड़ी के पायों पर टिकी थी। हट तक जाने के लिए लकड़ी की सात-आठ सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती थीं। इन सीढ़ियों के दोनों तरफ़ कोई रेलिंग नहीं थी। न ही सीढ़ियों के पीछे कोई सहारा था। ज़रा सा भी चूके तो नीचे गिरने का ख़तरा। किंतु पंडितों का तो अभ्यास था, इसलिए वे खट-खट चढ़-उतर जाते थे। एक दिक़्क़त और थी, कि इसमें बाथ रूम अटैच्ड नहीं था। रात को ढाई बजे मुझे पेशाब के लिए उठना पड़ा तो हट से उतर कर पहले तो सड़क पर आया फिर कुछ नीचे जाने पर टॉयलेट बनी थी। उस समय बर्फीला तूफ़ान चल रहा था और श्वेत, निर्मल तथा शीतल बर्फ़ रुई के फाहे की तरह शरीर पर गिर रही थी। आसपास अंधेरा और तमाम आदमकद चीजें किसी भुतहे इलाक़े का आभास करा रही थीं। एक पशु, जो एकदम सफ़ेद था, मुझे चलायमान दिखा तो मेरे होश उड़ गए। मुझे लगा, कि यह ज़रूर स्नो-बियर होगा और मैं भाग कर हट में आया और पेशाब दाबे लौट कर बिस्तर में दुबक गया। फिर थोड़ी देर बाद हट के दरवाज़े से निकल कर कोने में ही ख़ाली हुआ। सुबह सब कुछ साफ़ था। नीला आसमान और खिली हुई धूप। तब एक दूसरे पुरोहित के आवास पर मेरी हाजत की व्यवस्था की गई, क्योंकि मुझे इंडियन स्टाइल के टॉयलेट्स में जाने की आदत नहीं है। वहाँ पानी गरम करने की व्यवस्था थी और खूब बड़ा बाथ रूम।
इसके बाद अगली 31 दिसम्बर को जब मैं मुक़बा गया, नए साल पर गंगा पूजन के लिए तब मैं हर्षिल के आर्मी गेस्ट हाउस में रुका। वहाँ पर हर सुइट में एक बड़ा-सा बैठका और डाइनिंग रूम था। दो-दो हीटर भी लगे थे और बेड रूम भी विशाल था। वहाँ भी दो हीटर लगे थे ऑयल वाले। गेस्ट हाउस के सामने भागीरथी का परवाह था। शांत, सुंदर और सम ध्वनि वाला प्रवाह। टीवी भी लगा था। रात में भोजन मेस से आता रहा। जवान बार-बार गरम रोटी या सब्ज़ी-दाल लाने काफ़ी दूर जाते, यह मुझे बहुत ख़राब लगता। यहाँ द्रव्य भी उपलब्ध था। मात्र सौ रुपए में ब्लैक लेबल का एक पेग जो दिल्ली में चार या पाँच सौ का होगा। शाकाहारी खाओ या मांसाहारी भोजन का चार्ज सिर्फ़ सौ रुपए थे। नाश्ते का 50 रुपए। द्रव्य के साथ पीनट फ़्री थे। मैंने ब्लैक लेबल के दो पेग मंगाये। तभी टीवी ऑन किया और डिस्कवरी टीवी में बीयर ग्रिल बता रहा था, कि यदि आप बर्फीले और जंगली क्षेत्र में हैं तो मद्य-पान न करें। अन्यथा पेशाब के जम जाने का ख़तरा रहता है। मैंने वे दोनों पेग फ़ेक दिए।
सुबह उठ कर बाथ रूम में नहाने गया तो पाया कि शैम्पू, मॉसचुराइज़र और सुवासित तेल की शीशियाँ पैक रखी हैं। एक पीयर्स साबुन भी। इन सबका चार्ज लिया जाता है। नया और साफ़ तौलिया भी। मैंने बालों में शैम्पू लगाया और पानी के लिए टोंटी खोली तो एकदम बर्फ़ जैसा पानी। दरअसल मैंने गीज़र ऑन ही नहीं किया था। उधर शैम्पू आँखों में रिस रहा था, इसलिए तौलिया लपेट भागा और भागीरथी में डुबकी लगा कर आ गया। इसके बाद वहाँ के कमांडिंग ऑफ़िसर ले क अभिषेक अपनी जिप्सी में मुझे मुक़बा ले गए और हम दोनों ने गंगा मंदिर में अभिषेक किया।
शंभूनाथ शुक्ल
(Shambhunath Shukla)
गंगोत्री यात्रा के पड़ाव (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/3_25.html
#vss
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