(तस्वीर में सुल्ताना पुलिस के कब्जे में. फोटो संभवतः हल्द्वानी जेल का है.)
उत्तर भारत के लोक-संसार में सुल्ताना डाकू की कहानी के मिथक में तब्दील होने को लेकर फिलिप मेसन की किताब 'द मैन हू रूल्ड इण्डिया' में लिखा है कि कैसर के युद्ध के थोड़े ही समय बाद यूनाइटेड प्रोविंसेज में बिहार और पंजाब तक सुल्ताना का नाम फैल चुका था. उसका इस कदर खौफ था कि अगर किसी दूर-दराज के पुलिस थाने के आगे से वह गुजरता भी था तो सिपाही उसे अपने हथियार सौंप दिया करते थे. वह जिन गांवों में डकैती डालता था वहां के हर पुरुष को मार डालता था ताकि उसके खिलाफ कोई गवाही देने वाला न बचे. लोग उससे डरते थे और नफ़रत करते थे. अंततः उसे फ्रेडी यंग नाम के एक पुलिस अफसर ने पकड़ा. उसके जीवन को लेकर पर 'सुल्ताना डाकू' नाम का एक नाटक बना जिसे उत्तरी भारत में लगने वाले मेलों में खेला जाता था और जिसे देखने को लोगों की भीड़ जुट जाया करती थी. शुरू में इस नाटक में फ्रेडी यंग को बदला लेने वाले नायक के रूप में दिखाया जाता था और जब वह सुल्ताना को पकड़ कर लाता था, दर्शक खुशी में तालियाँ बजाने लगते थे.
लेकिन जैसे-जैसे नाटक खेला जाता रहा, असल सुल्ताना की स्मृति धुंधली पड़ती गयी और समय बीतने के साथ ये भूमिकाएं बदलती चली गईं. जब तक कि नाटक में सुल्ताना रॉबिनहुड सरीखा नायक न बन गया जो अंग्रेजों को लूटता था और गरीबों का दोस्त था. वहीं फ्रेडी यंग को एक मसखरे अंग्रेज विलेन की दिखाया जाने लगा जो हर समय व्हिस्की माँगता रहता था.
इसके ठीक उलट जिम कॉर्बेट ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘माई इंडिया’ के अध्याय ‘सुल्ताना: इण्डियाज़ रोबिन हुड’ में सुल्ताना के चरित्र का आकलन करते हुए एक जगह लिखा है: “एक डाकू के तौर पर अपने पूरे करियर में सुल्ताना ने किसी निर्धन आदमी से एक कौड़ी भी नहीं लूटी. सभी गरीबों के लिए उसके दिल में एक विशेष जगह थी. जब जब उससे चंदा माँगा गया उसने कभी इनकार नहीं किया, और छोटे दुकानदारों से उसने जब भी कुछ खरीदा उसने उस सामान का हमेशा दो गुना दाम चुकाया.”
जिन दिनों सुल्ताना का सिक्का चलता था, उन दिनों उसके कार्यक्षेत्र में तैनात एक भारतीय अफसर गोविन्द राम काला ने अपसे संस्मरण ‘मेमोयर्स ऑफ़ द राज’ में लिखा – “एक रात डाकू सुल्ताना भांतू ने हमें बहुत डराया. शहर में अफवाह फैल गयी थी कि सुल्ताना का गिरोह शाम को हमला करने वाला है. पुलिस चौकी का हेड कांस्टेबल मेरे पास आया कि मैं सुरक्षा पार्टी का बंदोबस्त करूं. हमने आसपास के गांवों से बीस-तीस बंदूकों की व्यवस्था की और रात भर पहरा दिया. सुल्ताना कभी भी सरकारी कर्मचारियों को परेशान नहीं करता था न ही सरकारी खजाने को हाथ लगाता था, वरना वह चाहता तो तराई भाबर के सभी सरकारी खजाने लूट सकता था क्योंकि उनकी पहरेदारी बहुत दयनीय तरीके से होती थी. उस रात डाकू नहीं आये!”
इस तरह के अनेक संस्करणों और जन में प्रचलित किस्सों में सुल्ताना के अलग-अलग संस्करण पढ़ने-सुनने को मिलते हैं. यह जानना बहुत दिलचस्पी का विषय है कि असल सुल्ताना डाकू कौन और कैसा था.
सुल्ताना डाकू का सम्बन्ध उत्तर प्रदेश के बिजनौर-मुरादाबाद इलाके में रहने वाले घुमन्तू और बंजारे भांतू समुदाय से था. भांतू अपने आपको मेवाड़ के राजा महाराणा प्रताप का वंशज मानते हैं. वे मानते हैं कि मुगल सम्राट अकबर के हाथों हुई राजा महाराणा प्रताप की पराजय के बाद भांतू समुदाय के लोग भागकर देश के अलग-अलग हिस्सों में चले गए. अंग्रेज सरकार ने भांतू समुदाय को अपराधी जाति घोषित किया हुआ था और वह उनकी गतिविधियों पर लगातार नज़र बनाए रखती थी.
सुल्ताना का जन्म मुरादाबाद जिले के हरथला गाँव में हुआ बताया जाता है अलबत्ता अन्य स्थानों पर उसका जन्मस्थान बिलारी और बिजनौर भी बताया गया है. सुल्ताना की माँ कांठ की रहनेवाली थी. अंग्रेजों ने कांठ के भांतू समुदाय को नवादा में साल्वेशन आर्मी के कैम्प में पुनर्वासित कर दिया था और सुल्ताना का बचपन वहीं बीता. अंग्रेज सरकार का मानना था कि कैम्प में रहने से इस समुदाय के बच्चे भले नागरिक बन सकेंगे.
सुल्ताना अपने जीवनकाल में ही एक मिथक बन गया था. उसके बारे में यह जनधारणा थी कि वह केवल अमीरों को लूटता था और लूटे हुए माल को गरीबों में बाँट देता था. यह एक तरह से सामाजिक न्याय करने का उसका तरीका था. जनधारणा इस तथ्य को लेकर भी निश्चित है कि उसने कभी किसी की हत्या नहीं की. यह अलग बात है कि उसे एक गाँव के प्रधान की हत्या करने के आरोप में फांसी दे दी गयी. बेहद साहसी और दबंग सुल्ताना ने अपने अपराधों के चलते उत्तर प्रदेश से लेकर पंजाब और मध्यप्रदेश में अपना आतंक फैलाया. सुल्ताना का मुख्य कार्यक्षेत्र उत्तर प्रदेश के पूर्व में गोंडा से लेकर पश्चिम में सहारनपुर तक पसरा हुआ था. पुलिस उसे खोजती रहती थी लेकिन वह अपनी चालाकी से हर बार बच जाता था. कहते हैं कि वह डकैती डालने से पहले लूटे जाने वाले परिवार को बाकायदा चिठ्ठी भेजकर अपने आने की सूचना दिया करता था.
अपने अंतिम वर्षों में वह अपने कार्यक्षेत्र को मुख्यतः कुमाऊँ के तराई-भाबर से लेकर नजीबाबाद तक सीमित कर चुका था. जिम कॉर्बेट के सुल्ताना-संस्मरणों में बार-बार कुमाऊँ के कालाढूंगी, रामनगर और काशीपुर का ज़िक्र आता है. बताया जाता है कि सुल्ताना ने नजीबाबाद में एक वीरान पड़े किले को अपना गुप्त ठिकाना बना लिया था. चार सौ वर्ष पहले नवाब नजीबुद्दौला के द्वारा बनाए गए इस किले के अवशेष आज भी देखे जा सकते हैं और यह एक दिलचस्प तथ्य है कि आज उसे नजीबुद्दौला का नहीं बल्कि सुल्ताना का किला कहा जाता है. हालांकि सुल्ताना खुद को महाराणा प्रताप का वंशज मानता था उसका डीलडौल उसके इस दावे को खारिज करता था. वह छोटे कद का सांवली रंगत वाला एक मामूली आदमी था जिसके ढंग की दाढ़ी-मूंछें भी नहीं थीं.
तीन सौ सदस्यों के सुल्ताना के गिरोह के सामने पुलिस भी भयभीत रहती थी. चूंकि सुल्ताना अपने इलाके के ग़रीबों के बीच एक मसीहा माना जाता था, चप्पे-चप्पे में लोग उसके जासूस बन जाने को तैयार रहते थे. अनेक ब्रिटिश अफसर उसे दबोचने के काम में लगाए गए लेकिन कोई भी सफल न हो सका. अंततः टेहरी रियासत के राजा के अनुरोध पर ब्रिटिश सरकार ने सुल्ताना को पकड़ने के लिए एक कुशल और दुस्साहसी अफसर फ्रेडी यंग को बुलाया. आगे जाकर फ्रेडी यंग का नाम इतिहास में सुल्ताना के साथ अमिट रूप से दर्ज हो गया क्योंकि लम्बे संघर्ष के बाद फ्रेडी ने न केवल सुल्ताना को धर दबोचा, उसने सुल्ताना की मौत के बाद उसके बेटे और उसकी पत्नी की जैसी सहायता की वह अपने आप में एक मिसाल है.
तीन सौ सिपाहियों और पचास घुड़सवारों की फ़ौज लेकर फ्रेडी यंग ने गोरखपुर से लेकर हरिद्वार के बीच ताबड़तोड़ चौदह बार छापेमारी की और अंततः 14 दिसंबर 1923 को सुल्ताना को नजीबाबाद जिले के जंगलों से गिरफ्तार कर हल्द्वानी की जेल में बंद कर दिया. सुल्ताना के साथ उसके साथी पीताम्बर, नरसिंह, बलदेव और भूरे भी पकड़े गए थे. इस पूरे मिशन में कॉर्बेट ने भी यंग की मदद की थी.
नैनीताल की अदालत में सुल्ताना पर मुकदमा चलाया गया और इस मुकदमे को ‘नैनीताल गन केस’ कहा गया. उसे फांसी की सजा सुनाई गयी. हल्द्वानी की जेल में 8 जून 1924 को जब सुल्ताना को फांसी पर लटकाया गया उसे अपने जीवन के तीस साल पूरे करने बाकी थे.
2009 में पेंग्विन इण्डिया से छपी किताब ‘कन्फेशन ऑफ़ सुल्ताना डाकू’ की शुरुआत में लेखक सुजीत सराफ ने उसे फांसी दिए जाने से ठीक पिछली रात का ज़िक्र किया है. सुल्ताना को एक अँगरेज़ अफसर लेफ्टिनेंट कर्नल सैमुअल पीयर्स के सम्मुख स्वीकारोक्ति करता हुआ दिखाया गया है. सुल्ताना बताता है कि चूंकि उसका ताल्लुक एक गरीब परिवार से था, उसकी माँ और उसके दादा ने उसे नजीबाबाद के किले में भेज दिया जहां मुक्ति फ़ौज यानी साल्वेशन आर्मी का कैम्प चलता था. इस कैम्प में सुल्ताना और अन्य भांतुओं को धर्मांतरण कर ईसाई बनाने के अनेक प्रयास किये गए लेकिन वह वहां से भाग निकला. यहीं से उसके आपराधिक जीवन का आरम्भ हुआ. अपराध में निपुण सुल्ताना अपने मुंह में चाकू भी छिपा सकता था और समय आने पर उसे इस्तेमाल भी कर सकता था.
इस बात के प्रमाण हैं कि फ्रेडी यंग ने सुल्ताना की पत्नी और उसके बेटे को भोपाल के नज़दीक पुनर्वासित किया. बाद में उसने उसके बेटे को अपना नाम दिया और उसे पढ़ने के लिए इंग्लैण्ड भेजा. कहते हैं फ्रेडी यंग ने ऐसा करने का सुल्ताना से वादा भी किया था. जहाँ तक सुल्ताना डाकू के व्यक्तिगत जीवन का प्रश्न है उसके साथ जोड़ कर देखी जाने वाली स्त्रियों में फूल कुंवर और डकैत पुतलीबाई के नाम सामने आते हैं लेकिन प्रामाणिक रूप से कुछ भी साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं. यह उचित भी है कि ऐसे आकर्षक और विरोधाभासी जीवन के स्वामी का इतिहास फंतासियों, कल्पनाओं और मिथकों के आवरणों में ढंका हुआ रहे.
1956 में मोहन शर्मा ने जयराज और शीला रमानी को लेकर आर. डी. फिल्म्स के बैनर तले ‘सुल्ताना डाकू’ फिल्म का निर्माण किया. उसके बाद 1972 में निर्देशक मुहम्मद हुसैन ने भी फिल्म ‘सुल्ताना डाकू बनाई जिसमें मुख्य किरदार दारासिंह ने निभाया था. अजीत और हेलेन ने फिल्म में दूसरे किरदार निभाये थे. सुल्ताना के जीवन पर हाथरस के रहने वाले नथाराम शर्मा गौड़ ने ‘सुल्ताना डाकू उर्फ़ गरीबों का प्यारा’ नाम से किताब लिखी. लखनऊ जिले के रहने वाले लेखक अकील पेंटर ने ‘शेर-ए-बिजनौर: सुल्ताना डाकू’ शीर्षक किताब लिखी जिस पर आधारित नाटकों पर अनेक नौटंकियां खेली जाती रहीं और उत्तर प्रदेश और बिहार के गाँवों-शहरों में दशकों तक इनका डंका बजता रहा.
सुल्ताना की मौत के बाद उसे याद करते हुए जिम कॉर्बेट ने ‘माई इंडिया’ के अध्याय ‘सुल्ताना: इण्डियाज़ रोबिन हुड’ में यह भी लिखा है – “मैं चाह सकता था कि न्याय की यह मांग न हो कि उसे बेड़ियाँ पहनाए हुए सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया जाए और उन लोगों के मखौल का पात्र बनाया जाए जो उसके जीते जी उसके नाम से थर्राते थे. मैं यह भी चाह सकता था कि सिर्फ इस बिनाह पर उसे थोड़ी कम कठोर सज़ा दी जाती कि उस पर पैदा होते ही अपराधी का ठप्पा लग गया था और उसे पूरा मौका नहीं दिया गया और यह कि जब उसके हाथ में ताकत थी उसने गरीबों को कभी नहीं सताया और यह कि जब बरगद के एक पेड़ के पास मेरी उससे मुलाक़ात हुई उसने मेरी और मेरे साथियों की जान बख्श दी थी. और आखिर में इस बात के लिए कि जब वह फ्रेडी से मुलाक़ात करने गया तो उसके हाथों में चाकू या रिवॉल्वर नहीं बल्कि एक तरबूज था.”
अशोक पांडेय
( Ashok pandey )
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