श्रीमंत पेशवा बाजीराव प्रथम और उनकी दूसरी पत्नी अखंड सोभायवती मस्तानी बाई साहेब के पांचवी पीढी के वंशज थे बुंदेलखंड की बांदा रियासत के आख़री नवाब श्रीमंत अली बहादुर सानी(द्वितीय), जो 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के नायक थे। अफसोस कि ये इतिहास आज गिने चुने लोग ही जानते हैं। आज से कुछ तीस-पैंतीस साल पहले तक स्कूल और कॉलेज की इतिहास की किताबों में तो नवाब बांदा का ज़िक्र आता था, लेकिन अब तो सिरे से ही नाम हटा दिया गया है।
ये एक विडंबना ही है कि हमारे इतिहास का 80 फीसद हिस्सा लिखा नहीं गया है, बल्कि लिखवाया गया है। जो लोग उस वक़्त सत्ता पर, गादियों पर क़ाबिज़ हुआ करते थे, उन्होंने इतिहास को अपने हिसाब से लिखवाया। बावजूद इस सब के, जिस तरह मुश्क(कस्तूरी) की ख़ुशबू को क़ैद नहीं किया जा सकता, उसी तरह सच भी उस फ़र्ज़ी झूठ की नज़रों से बच कर खुद को लिखता रहता है। एक तरफ जहां ज़्यादातर इतिहासकार चाटुकारिता के क़लम से ग़लत इतिहास गढ़ते रहे, वहीं दूसरी तरफ सच भी समानांतर रूप से खुद को "कुछ" लेकिन ईमानदार इतिहास के लिखने वालों से लिखवाता रहा। ऐसा ही एक सच इतिहास में मिटाने की तमामतरर कोशिशों के बाद भी दर्ज हुआ। 13 जून 1857, भारत के इतिहास में ये बहुत बड़ा दिन था, जिसके पन्ने पहले अंग्रेजों ने और फिर "कहने को आज़ाद" मुल्क के बेताज रजवाड़ों(नेताओं) ने एक सोची समझी साज़िश के तहत इतिहास की किताब से निकाल कर फेंक दिए।
जी हां ये सच है कि इसी दिन बांदा (बुंदेलखंड) की धरती से क्रांतिकारियों और आज़ादी के मतवाले सैनिकों ने अंग्रेजों को खदेड़ दिया था, श्रीमंत नवाब अली बहादुर सानी(द्वितीय) के नेतृत्व में और नारा दिया "ख़ल्क़ खुदा का, मुल्क बादशाह का और हुक्म नवाब अली बहादुर का" ये उस वक़्त का सबसे मशहूर क्रांतिकारी स्लोगन था, जो बांदा से लेकर झांसी, कालपी, जालौन, महोबा, फैज़ाबाद, लखनऊ, मेरठ, ग्वालियर और दिल्ली तक मशहूर हुआ। आइये जानते हैं आज़ादी के उस मतवाले के बारे में।
नवाब अली बहादुर की पैदाइश सन 1834 ई. में बांदा में ही हुई थी, वे अपने पिता नवाब श्रीमंत ज़ुल्फ़िक़ार के एक ही पुत्र थे। 1850 में उनके पिता के देहांत के बाद बांदा के नवाब बने। उस वक़्त भी बांदा 1803 में नवाब शमशेर बहादुर द्वितीय के तीसरे आंग्ल-मराठा युद्ध में हार के परिणाम स्वरूप अंग्रेजों की देख-रेख में ही एक स्वतंत्र राज्य था। नवाब अली बहादुर सानी को ये बात हमेशा खटकती रहती थी। अंग्रेज़ों ने बांदा को उस प्रोविन्स का हेडक्वार्टर भी बना रखा था। नवाब साहब को ये बर्दाश्त नहीं होता था कि उनकी मातृभूमि पर विदेशियों का क़ब्ज़ा रहे। हालांकि अंग्रेज़ उन्हें परेशान नहीं करते थे, लेकिन वे अंग्रेज़ों को परेशान करते रहते थे। उन्होंने 1855 में बांदा स्थित यूरोपियन क्लब में हंगामा भी किया, जहां ब्रिटिशर्स बिलियर्ड्स खेलने आते थे और उनके एवं विदेशियों के अलावा किसी के भी आने पर पाबंदी थी। नवाब साहब ने इस क्लब के बाहर लगा बोर्ड भी निकाल दिया था, जिस पर लिखा हुआ था कि "Dogs and Indians are not allowed"। नवाब साहब की इस हरकत से अंग्रेजों ने नाराज़ हो कर उनकी रियासत की 16 गन सेल्यूट को घटा कर 11 गन सेल्यूट कर दिया था। नवाब श्रीमंत अली बहादुर सानी ने बांदा में आठ साल हुकूमत की, लेकिन वे बस सही मौके की तलाश कर रहे थे। और वो मौक़ा उन्हें मिला 13 जून 1857 को। इसी दिन उन्होंने अंग्रेजों को बांदा से तलवार के ज़ोर पर बाहर निकाल दिया था और सत्ता पूरी तरह से अपने हाथों में ले ली थी। अंग्रेजों से सत्ता हथियाते वक्त नवाब अली बहादुर सानी की उम्र जून 1857 में मात्र 22 साल की थी।
थोड़ा सा पीछे चलें तो मई 1857 में मेरठ में हुए सैनिक विद्रोह से उस वक़्त अंग्रेज़ बुरी तरह से बौखलाए हुए थे और डरे हुए भी। और दिल्ली से 83 बरस के बहादुर शाह ज़फर ने भी आज़ादी का बिगुल फूंक दिया था। इसी के मद्देनज़र अंग्रेजों ने पहले से अपने अधीन सभी छोटे-बड़े राज्यों और रियासतों के राजाओं-नवाबों को गद्दी से भी हटा कर पूरी तरह सत्ता अपने हाथों में ले ली थी। एक तरफ जहां क्रांतिकारी अंग्रेजों को ढूंढ ढूंढ कर मार रहे थे, तो दूसरी तरफ पूरे मुल्क में इस लड़ाई का फायदा उठा कर कुछ लोग लूटपाट में लगे हुए थे। चौतरफा मची मारकाट और लूटपाट को रोकने के लिए नवाब साहब(बांदा) ने एलान किया कि अब किसी का कत्ल, लूटपाट या रहज़नी हरगिज न की जाए। जो ऐसा करेगा उसकी चल-अचल संपत्ति जब्त करके आग के हवाले कर दी जाएगी। और ये वही नवाब थे, जिन्होंने सत्ता संभालते ही अपनी रियासत में गाय, बैल की हत्या पर भी पाबंदी लगा दी थी। कुछ समय के लिए बांदा में शांति स्थापित हुई लेकिन ये तूफान के आने के पहले की खामोशी थी। दरअसल नवाब साहब इंतज़ार में थे और उन्हें जून 1857 में वो मौक़ा मिल गया जिसके इंतज़ार में वे पिछले 8 सालों से झटपटा रहे थे।
उस वक़्त बांदा के नवाब अली बहादुर को दो तरफा आदेश और स्वीकृति मिली, जिसमें बहादुर शाह का संदेशा भी था और तत्कालीन पेशवा नाना साहेब का आग्रह भी। नवाब अली बहादुर मराठा साम्राज्य के सबसे पराक्रमी पेशवा वाजीराव व मस्तानी की पांचवी पीढ़ी की संतान थे(यानी श्रीमंत बाजीराव का असल खून, कोई दत्तक नहीं)। इसी नाते वे नाना साहेब( पेशवा बाजीराव 2 के दत्तक पुत्र) की ना सिर्फ इज़्ज़त करते थे बल्कि उन्हें काका साहेब बुलाते थे। लेकिन इस सब से ज़्यादा बड़ा काम किया एक चिट्ठी ने, जिसे एक डाकिया (दुलारे लाल) झांसी से लेकर आया था। ये कोई मामूली चिट्ठी नहीं थी, इसमें शब्दों के साथ एक बहुत ही पवित्र रिश्ता भी बंधा हुआ था। जी हां लिफाफे में ख़त के साथ एक राखी भी थी, जिसे देख कर नवाब साहब का हाथ सीधे अपनी तलवार पर गया...उस राखी के बंधन की रक्षा के लिए...और ये चिट्ठी थी, झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की।
इतिहास बताता है कि जब अंग्रेज सेना ने झांसी के किले को घेर लिया था और रानी के पास बचाव का कोई रास्ता नहीं था। तब रानी ने ये चिट्ठी नवाब बांदा को लिखी थी। इतिहासकार राधाकृष्ण बुंदेली लिखते हैं कि रानी ने शुद्घ बुंदेली भाषा में अपने डाकिए लाला दुलारेलाल के हाथ चैत्र सुदी संवत्सर 1914 (जून, सन् 1857) को बांदा के नवाब अली बहादुर को राखी के साथ जो चिट्ठी भेजी थी। उस चिट्ठी में लिखा था कि- "हमारी राय है कै विदेसियों का सासन भारत पर न भओ चाहिजे और हमको अपुन कौ बड़ौ भरोसौ है और हम फौज की तैयारी कर रहे हैं शो अंगरेजन से लड़वौ बहुत जरूरी है पाती समाचार देवै में आवे" । बुंदेली ने ये भी लिखा कि यह पत्र कलम और स्याही से लिखा प्रतीत होता है, इसमें न तो कोई विराम है और न ही शब्दों में जगह छूटी है।
बहरहाल, पत्र और राखी मिलते ही नवाब अली बहादुर अपनी दस हजार सैनिकों की फौज लेकर बहन की रक्षा हेतु झांसी कूच कर गए थे, मगर नवाब के पहुंचने से पूर्व रानी किले से कूद कर कालपी की ओर निकल गईं थीं। नवाब और फिरंगी सेना में भीषण संग्राम हुआ था, भारी तादाद में अंग्रेजी सैनिक मारे गए थे।" उधर बांदा में भी फिरंगियों ने बांदा के 3000 सैनिकों को शहीद कर दिया था। जिनकी लाशें पेड़ों पर लटका दी गई थीं। कालपी में नवाब साहब, तात्या टोपे और रानी झांसी की सेनाएं एक हुईं। इतिहास में दर्ज है कि नवाब अली बहादुर की दस हज़ार की सेना ने इस जंग के क्रांतिकारी सैनिकों में जान फूंक दी थी। ये सभी लोग मिल कर ग्वालियर पहुंचे, जहां से जयाजी राव सिंधिया भाग निकला था और आगरा में अंग्रेज़ों की पनाह में चला गया था। तात्या टोपे भी उसके पीछे-पीछे निकल गए और धौलपुर में अंग्रेजों और धौलपुर नरेश की सेना से तात्या टोपे का जबरदस्त संघर्ष हुआ। इधर रानी झाँसी और नवाब बांदा अली बहादुर ने ग्वालियर के सैनिकों को अपने साथ मिला लिया और ग्वालियर के किले पर क़ब्ज़ा कर लिया। रानी को किले पर बैठा कर नवाब साहब अपनी फ़ौज लेकर तात्या टोपे की दिशा में निकल गए, लेकिन उन्हें ख़बर नहीं थी, कि धौलपुर में तात्या को उलझा कर रखना अंग्रेजों के एक चाल थी।
इसी चाल के तहत ग्वालियर में अंग्रेज़ों की एक दूसरी और कहीं बड़ी टुकड़ी ने रानी झांसी पर आक्रमण कर दिया, जहां वे बहुत बहादुरी से लड़ीं और वीर गति को प्राप्त हुईं। उधर धौलपुर में तात्या को नाना साहब का बुलावा आ गया था जो अवध से अंग्रेजों को पीटते हुए, फिर बिठूर आ गए थे और बिठूर के किले पर क़ब्ज़ा कर लिया था। तात्या बिठूर निकल गए और नवाब साहब ग्वालियर पहुंचे, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की शहादत से उन्हें बहुत धक्का लगा था।
नवाब श्रीमंत अली बहादुर के आगे के सफर के बारे में अगले लेख में बात करेंगे, लेकिन एक बात यहां ये बताना जरूरी हो जाता है कि उस वक़्त के कुछ इतिहासकारों ने लिखा था कि रानी लक्ष्मी बाई की चिता को अग्नि उनके राखी भाई नवाब श्रीमंत अली बहादुर ने ही साधू के भेस में दी थी और उनके वंशज भी ये बातें अपनी पीढ़ियों से सुनते आ रहे हैं। इस बात का ओथेन्टिक प्रूफ खोज निकालने की कोशिशें जारी हैं। मिलते ही साझा करेंगे।
नूह आलम
( Nooh Alam )
श्रीमंत बाजीराव पेशवा का वंश - 3.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/4_9.html
#vss
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