Sunday 30 July 2023

डेढ़ महीने का सेवा विस्तार ईडी प्रमुख के लिए महत्वपूर्ण, सुप्रीम कोर्ट की साख पर सवाल / विजय शंकर सिंह

प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक संजय कुमार मिश्र के सेवा विस्तार को अवैध घोषित करने के बाद फिर 15 सितंबर 2023 तक नौकरी में बने रहने की अनुमति देने के प्रकरण पर The Hindu का संपादकीय पढ़ने लायक है। अखबार के अनुसार “ईडी प्रमुख को पद पर बने रहने की अनुमति देकर सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही अधिकार को कमजोर कर दिया है।” लेकिन हम इस लेख में सुप्रीम कोर्ट के बजाय, इस सेवा विस्तार से ईडी की साख पर क्या असर पड़ेगा और कैसी चुनौती का सामना उसे करना पड़ेगा की चर्चा करेंगे।

द हिंदू लिखता है, “यदि सर्वोच्च न्यायालय को सरकार की इच्छाओं को अत्यधिक टालने के रूप में देखा जाता है तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है। केंद्र के अनुरोध पर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के प्रमुख संजय कुमार मिश्र को 15 सितंबर तक पद पर बने रहने की अनुमति देने वाला आदेश अनावश्यक रूप से उदार है।”

यदि सेवा विस्तार के प्रकरण को देखें तो 11 जुलाई को ही सर्वोच्च न्यायालय ने संजय कुमार मिश्र को 2021 और 2022 में दिए गए विस्तार को अवैध घोषित कर दिया था। साथ ही सुचारु परिवर्तन सुनिश्चित करने के लिए उन्हें 31 जुलाई तक जारी रखने की अनुमति भी दे दी थी। फिर भी बिना यह बताए कि उनके उत्तराधिकारी के चयन की प्रक्रिया शुरू हो गई है, न्यायालय ने उन्हें 15 सितंबर तक पद पर बने रहने की अनुमति देने के लिए एक अपरिभाषित “व्यापक राष्ट्रीय हित” का आधार लिया है। यह व्यापक राष्ट्रीय हित काले धन पर नियंत्रण के लिए गठित अंतरराष्ट्रीय संगठन, FATF की समीक्षा बैठक है। जिसमें ईडी की भूमिका भी रहती है। निश्चित रूप से शीर्ष अदालत ने इस महत्वपूर्ण समीक्षा बैठक के कारण ही सरकार का अनुनय-विनय स्वीकार कर लिया होगा। 

सरकार की प्रार्थना के अनुसार, सरकार की नजर में संजय मिश्र की सेवाओं की अपरिहार्यता का प्रत्यक्ष कारण यह है कि वह वित्तीय कार्रवाई कार्य बल (एफएटीएफ) के समक्ष देश की समीक्षा के दौरान मनी लॉन्ड्रिंग और आतंकवाद की फंडिंग का मुकाबला करने के लिए अपने सिस्टम और उसके योगदान का प्रस्तुतिकरण करने तथा इस विषय में देश के प्रयासों को दिखाने वाली टीम का नेतृत्व कर रहे हैं। यह बहु-पक्षीय निकाय एक पारस्परिक मूल्यांकन प्रणाली को अपनाता है और भारत की चल रही समीक्षा जून 2024 तक चलेगी। सरकार ने उनकी सेवाओं को 15 अक्टूबर तक बढ़ाने की मांग की थी, शायद इसलिए क्योंकि तब तक देश की एजेंसियां ​​और संस्थाएं एफएटीएफ प्रतिनिधिमंडल के दौरे के लिए तैयार हो सकें। 

लेकिन अदालत ने एसके मिश्र की नौकरी, 14/15 सितंबर तक के लिए ही बहाल की है। और यह भी कहा है कि इस मामले में अब कोई अन्य प्रार्थना आगे नहीं सुनी जाएगी। संजय कुमार मिश्र अब तक के सबसे विवादित ईडी प्रमुख रहे हैं। 

कुछ कारण देखिए:

1.इनके काल में राजनीतिक दलों के खिलाफ पड़े छापों और जांचों में 95 प्रतिशत छापे या जांच, गैर एनडीए/बीजेपी दलों से जुड़े नेताओं से संबंधित रही हैं। 

2. गैर एनडीए/बीजेपी दलों के उन नेताओं की जांच, ठंडे बस्ते में चली गई जिन्होंने अपनी पार्टी छोड़ कर बीजेपी का दामन थाम लिया। 

3.जहां-जहां विपक्षी सरकार गिराने के लिए बीजेपी ने ऑपरेशन लोटस किया, वहां-वहां ईडी के छापे और जांच गैर एनडीए/बीजेपी नेताओं के यहां पड़े। और इससे गैर एनडीए/बीजेपी नेताओं में दहशत फैली और जब उन्होंने बीजेपी सरकार के आगे घुटने टेक  बीजेपी या एनडीए के रूप में सत्ता की ओर चले गए तो उनकी जांच बंद कर दी गई। या उन्हें बस इसलिए जिंदा रखा गया है ताकि उनकी लगाम सत्तारूढ़ बीजेपी के हाथ में रहे।

इस तरह देश में एक ऐसा माहौल बन गया कि प्रवर्तन निदेशालय, जिसका गठन काले धन को नियंत्रित करने के लिए बनाए गए कानून पीएमएलए को दृढ़ता से लागू करने के लिए किया गया है, वह ऑपरेशन लोटस के लिए शिकार का जुगाड़ करने का एक संस्थान बन कर रह गया है। जब भी बीजेपी-एनडीए की बात होती है ईडी, सीबीआई और आयकर का नाम बीजेपी-एनडीए के सहयोगी के रूप में एक तंजिया लहजे में भी होने लगता है।

अगर कानून और कानूनी शक्ति तथा अधिकार की बात करें तो देश की सभी जांच एजेंसियों में प्रवर्तन निदेशालय की शक्ति और अधिकार सबसे अधिक हैं। किसी को गिरफ्तार करने उसे लंबे समय तक जमानत से वंचित रखवाने और तलाशी, जब्ती के बेहिसाब अधिकार है। इन अधिकारों के औचित्य पर भी सवाल उठे हैं और अब भी उठ रहे हैं। गिरफ्तारी के बाद रिमांड पर लिए जाने के अधिकार जो सीआरपीसी (दंड प्रक्रिया संहिता) के अंतर्गत एक पुलिस अधिकारी का अधिकार है, को अदालत में चुनौती भी दी गई है और अभी सुप्रीम कोर्ट में बहस चल भी रही है। इस मामले पर अलग से लेख लिखा जायेगा। 

ईडी को काला धन नियंत्रण कानून पीएमएलए के संदर्भ में व्यापक अधिकार हैं और उसे इस व्यापक हो रहे अपराध को नियंत्रित करने के लिए व्यापक शक्तियां और अधिकार होने भी चाहिए। इस पर शायद ही किसी को आपत्ति हो। पर यह जांच एजेंसी का दायित्व और न्यायबोध है कि वह उन अधिकार और शक्तियों का दुरुपयोग न होने दे। यह दुर्भाग्यपूर्ण धारणा बन गई है कि प्रवर्तन निदेशालय के प्रमुख संजय कुमार मिश्र ने अपने कार्यकाल में ईडी को मिली इन वैधानिक शक्तियों का सत्तारूढ़ दल के हित में खुल कर दुरुपयोग किया है। यह बात प्रमाणित है या नहीं, यह अलग बात है। लेकिन यह धारणा बनती जा रही है और इस धारणा के कारण ऊपर मैने रेखांकित भी कर दिए हैं कि यह जांच एजेंसी बीजेपी के ‘चुनी हुई सरकार अस्थिर करो’ अभियान ऑपरेशन लोटस के एक सक्रिय लेकिन गोपन विस्तार के रूप में रूपांतरित हो चुकी है।

जांच एजेंसी के प्रमुख होने के नाते यह संजय कुमार मिश्र का कर्तव्य था और अब भी है कि वह जांच एजेंसी की किसी भी कार्यप्रणाली को एजेंसी के प्रति जनता में बन रही ऐसी धारणाओं का आधार नहीं बनने देते। और ईडी बिना किसी बाहरी दबाव या हस्तक्षेप के एक प्रोफेशनल जांच एजेंसी के रूप में अपने गठन के उद्देश्य और दायित्व के प्रति सजग और सतर्क रह कर काम करती रहती। लेकिन ऐसा नहीं हो सका। मैं उनकी प्रोफेशनल काबिलियत पर कोई सवाल नहीं उठा रहा हूं और न ही कोई संशय व्यक्त कर रहा हूं।लेकिन जिस तरह से एक सधी जुगलबंदी के साथ विपक्ष के नेताओं के खिलाफ ईडी की जांच की कार्यवाही और उनमें से कुछ का टूट कर बीजेपी की तरफ ध्रुवीकृत हो जाने का घटनाक्रम रहा है उससे ईडी की साख पर बेहद बुरा प्रभाव पड़ा है।

हाल ही में जब केंद्र सरकार के लगभग दयनीय दलीलों के बाद सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें 15 सितंबर तक का सेवा विस्तार दिया है तो इस सेवा विस्तार को भी FATF के कारण नहीं बल्कि ऑपरेशन लोटस के अभी कुछ बचे हुए उद्देश्यों को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा मांगा गया बताया जा रहा है। यह साख का संकट है। डेढ़ महीने के इस सेवा विस्तार के दौरान ईडी प्रमुख एसके मिश्र की गतिविधियों पर सबकी नजर रहेगी और उनके लिए भी यह एक उचित अवसर है कि वह अपने प्रति देश में बन चुकी विपरीत धारणा को कुछ हद तक दुरुस्त करने की कोशिश करें, जिससे एजेंसी की साख कुछ तो पटरी पर आए। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 


Friday 28 July 2023

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (17) पाकिस्तान में जोश को जो कुछ भी मिला, हांथ नहीं आया...यहां तक कि, शराब भी छिन गई / विजय शंकर सिंह

भारत से जब जवाहरलाल नेहरू से मिल कर, जोश मलीहाबादी, प्रसन्न मन से, वापस कराची यानी पाकिस्तान पहुंचते हैं, तो उनके भारत में दिए इंटरव्यू को लेकर, पाकिस्तान में अच्छा खासा बवाल भी मच चुका होता है। जो कुछ भी उन्हे जमीन, मकान, दुकान आदि पाकिस्तान सरकार ने दिए थे, उनके आवंटन रद्द कर दिए गए और इस बेरुखी से आजिज आकर, जोश ने, सारे लाभ, पाकिस्तान सरकार को, वापस कर दिए। वह समय, जोश के लिए मुसीबत भरे थे। वे न तो, घर के रहे न घाट के। इसका असर उनके मानसिक स्वास्थ्य और शरीर पर भी पड़ा। कहां, भारत में, उनके करीबी दोस्त जवाहरलाल नेहरू, देश के प्रधानमंत्री थे, सरकार में उनकी पकड़ थी, मलीहाबाद में, पुश्तैनी जमीनें थीं, लखनऊ में अपनी कोठी थी, और कहां वे पाकिस्तान में एक मित्र के दिए हजार रुपए महीने पर जीवन गुजार रहे थे। दुखद स्थिति थी, उनकी। 

यह सब उन्हीं के शब्दों में पढ़े...
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मेरे पाकिस्तानी बनते ही एक क्रयामत का शोर बरपा हो गया। पूरे पाकिस्तान में और शहर कराची में तो इस कदर वलवला उठा, गोया क़यामत का सूर फूंक दिया गया है। तमाम छोटे-बड़े उर्दू अंग्रेजी अखबारों के लश्कर ताल ठोंककर मैदान में आ गए तमाम अदीब, शायर और कार्टूनसाज़ों ने अपनी- अपनी कलमा की तलवारें म्यान से निकालकर मेरे खिलाफ लेख
कविता और कार्टूनों की भरमार कर दी। 

हर तरफ मंडियों का-सा एक शोर बुलंद हो गया कि, दोहाई सरकार की मुगले-आज़म यानी अबूतालिब नकवी ने जोश को आधा पाकिस्तान काटकर दे दिया। मुख्तलिफ टोलियों में बंटे हुए लोग, मेरे खिलाफ इकट्ठे हो गए। वहाबियों, बरेलियों  देवबंदियों कादियानियों, सुन्नियों और शियाओं ने अपनी चौदह सौ बरस की नफरतों को यकसर भुला दिया। तबर्रा और मदह सहाबा के दरमियान सुलह की नींव पड़ गई और मेरे खिलाफ एकजुट होकर ऐलाने जंग फ़रमा दिया, 
मैं चमन में क्या गया गोया दबिस्ता खिल गया।

मेरा पाकिस्तान आना ऐसा मालूम हुआ, गोया कोई जबरदस्त डाकू कारू के खजाने पर टूट पड़ा है या कामदेव अछूतियों के महल में कूद पड़े हैं और तमाम कंवारी कन्याएँ हाय अल्लाह, हाय अल्लाह' के नारे लगा-लगाकर भाग रही हैं। यह तमाम शोर, ये तमाम हंगामे, ये तमाम धमाके और ये सारी दुहाइयाँ जब हुकूमत के कान तक पहुंची तो गृह मंत्रालय ने नकवी साहब से जवाब तलब कर लिया। जिस वक्त मैंने यह बात देखी कि मुझे बाग और सिनेमा की ज़मीन देकर नकवी साहब एक बड़ी मुसीबत में घिर गए हैं तो मैंने चुपके से बाग़ और सिनेमा के प्लाट वापस कर दिए।

उस जमाने में चौधरी मुहम्मद अली साहब प्रधानमंत्री थे। नकवी साहब की उनसे खटपट हो गई। नकवी ने सिकंदर मिर्ज़ा के बलबूते पर प्रधानमंत्री से टक्कर ली थी। सिकन्दर मिर्ज़ा ने उनकी मदद से मुँह मोड़ लिया और उनकी कमिश्नरी खत्म कर दी गई। उनके पतन ने मेरी कमर तोड़ दी में इधर का रहा, न उधर का।

मैने सोचा, 'हिन्दुस्तान पलट जाऊं,' लेकिन गैरत ने इजाज़त नहीं दी। मैंने दिल से पूछा कि खाँ साहब, अब क्या होगा? दिल ने कहा- हिम्मत न हार। 

लोगों ने राय दी कि मैं हुकूमत से आयात निर्यात का लाइसेंस लेकर व्यापार शुरू कर दूँ। मुझ बुधु की समझ में यह बात नहीं आई कि मैं व्यवसाय के लायक नहीं। मैंने दौड़ना शुरू कर दिया। इस दौड़-धूप में जिन्दगी दूभर हो गई। रोज सुबह को घर से निकलता, दोपहर को पलटता, थोड़ी देर आराम करके फिर बाहर निकल जाता और शाम को वापस आता था।

मेरा आलम उस गांववाले के अलम (पताका) का-सा हो गया था, जो मुहर्रम के जमाने में उठाया जाता, ढोल-ताशों की तड़बड़ तड़बड, झय्यम झय्यम की गूंज में हर मकान के चबूतरे पर रखा जाता और इसी तरह दिनभर चक्कर काट-काटकर फिर उसी तरवड़-तरबड़ और झय्यम झय्यम के साथ मकान में लाकर रख दिया जाता है। इस दौड़-धूप में ख़ुदा के फजलों करम से कुछ हाथ तो आया नहीं, अलबत्ता डायरेक्टरों, सेक्रेटरियों और वजीरों के ऐसे दो-दो कौड़ी के नखरे, ऐसे ओछे उस्से और इस कदर बेहूदा लोग देखे कि आदमी का बकार नजरों से गिर गया। यह फ़ैसला करना पड़ा कि इस क्रोम में किसी साहब कलम की कोई गंजाइश नहीं है और हर अदीब और शायर को चाहिए कि वह खुदकुशी फरमा ले। यह सच है कि बाज़ औकात हिन्दू हुक्काम भी नखरे दिखाते हैं; लेकिन अल्लाह हो अकबर, यह मुसलमान जब हैड कांस्टेबल हो जाता है तो हामान व फिरजन बन जाता है और हुकूमत की गद्दी पर बैठकर खिदमतगारों और फेरीवालों के लड़के भी अपने को क्रेसर व दारा समझने लगते हैं। अल्लाह बौनों के दर पर लंका वालों को न ले जाए। अब मेरी मुसलसल नाकामियों की सूची देखिये। 

1. जहांगीर रोड का सिनेमा प्लॉट और बाग़ लगाने की ज़मीन खुद मैंने वापस कर दी।
2. एक सोसाइटी का सिनेमा- प्लांट नीलामी में मेरे नाम टूटा, कीमत अदा न कर सका इसलिए निकल गया।
3. काश्तकारी के लिए हाशिमी साहब डेप्युटी कमिश्नर कराची ने पचास एकड़ जमीन दी, अल्ताफ़ गौहर साहब ने उसे जब्त कर लिया।
4. साइकिल-रिक्शाओं के परमिट मिले, भाव गिर गया- परमिट हवा में उड़ गए।
5. कोल्ड स्टोरेज की इजाजत मिल गई। रुपया लगानेवालों को बरगला दिया गया।
6. वाजिद अली शाह कंट्रोल रेट पर बसें देने पर आमादा थे रूपया लगाने वाले को रोक दिया गया। 
7. बीड़ी के पत्तों का लाइसेंस मिल रहा था। लाइसेंस देनेवाले के नखरे बरदाश्त न कर सका। उसे बुरा-भला कहकर घर आ बदल गया।
8. सिनेमा के साज-सामान का दूसरे दिन परमिट मिल रहा था, वजीर को हटा दिया गया। 9. टेक्सटाइल का इजाज़तनामा मिलने वाला था वजीर हटा दिया गया। 
10. प्रेस लगाने का इजाजतनामा लिखकर तैयार हो गया- दस्तखत करने से पहले बजीर को निकाल दिया गया। 
11. मछली की तिजारत का परमिट लिख दिया था सेक्रेटरी को हटा दिया गया ।
12. पेट्रोल पम्प की कोशिश की, असफल रहा। 13. एक मकान अलाट हुआ था, आज तक कब्जा न मिल सका।
14. ग्राम विकास विभाग में नौकरी की दरख्वास्त दी, मंजूर नहीं हुई।
15. अपनी किताबें छपवानी चाहीं, कोई प्रकाशक तैयार नहीं हुआ।
16. फिरीयर हॉल के एक कोने में रेस्तरों खुलवाने का पक्का वादा किया गया-अफसर का तबादला हो गया। 
17. सिंधी अदबी बोर्ड में एक इल्मी काम किया, उजरत नहीं मिली।
18. पुनर्वास विभाग के एक अफसर ने एक मकान की जमीन अलॉट कर दी मगर चलते वक्त यह खड़े नहीं हुए। अलॉटमेंट का पुर्जा फाड़कर उनके सामने फेंक दिया।
19. पंजाब के मुख्यमंत्री क़ज़लबाश साहब एक कारखाने का परमिट दे रहे थे कि उसी रोज फौजी इंकलाब आ गया और उनके मंत्रिमंडल ने दम तोड़ दिया- अलगरज- जिस जगह हमने बनाया घर सड़क में आ गया।

इस मुसलसल नाकामियों से में चकरा गया। मायूसी और इफलास गहरा होता चला गया। नकवी साहब जो एक हजार रुपया बतौर कर्ज देते थे, वह इस कदर कम था कि मेरा घर चला नहीं सकता था इसलिए अपने एक दोस्त के जरिए से जेवर बैच बेचकर काम चलाने लगा।

मैने सोचा कि यह काग़ज़ की नाव कब तक चलेगी। बीबी ने कहा कि सारे खर्च आधे कर दो। उसकी लपेट में आकर शराब छोड़ दी। शराब छोड़ने के बाद मेरा हाल उस बच्चे का सा आलम हो गया, जिसका दूध छुड़ा दिया जाता है। शराब की फड़कन से निजात पाने के लिए शाम ही से खाना खा लिया करता था। लेकिन बेचनी में कमी नहीं आती थी। जी बहलाने को किताब उठा लेता था कि शराब की ललक बहल जाए। किताब की सतरें नागिनों की मानिंद रंगने लगती थीं और हफों के दायरे में बिच्छू डंक उठाए नज़र आते थे।

गडमडाकर बिस्तर पर लेट जाता और करवट पर करवदें बदलता था; लेकिन नींद किसी तरह भी नहीं आती थी और तमाम जिस्म में खुजली होने लगती थी। घंटों खुरखुर खुजाया करता था और छिपकली की कटी हुई दुम की मानिंद रात-रात भर तड़पता रहता था। सुबह जब खत बनाने के वास्ते आईने के सामने बैठता तो अपना बेख्याबी का रोंदा हुआ ततैये का सा मुँह देखा नहीं जाता था। अपनी शक्ल देखकर ऐसा मालूम होता था कि कोई चौबड़ किस्म के गरीब शाह दिल्ली की जामा मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठे दाँत निकाल-निकाल कर भीख माँग रहे हैं।

अगर किसी दिन कुत्ते की-सी झपकी आ भी जाती थी तो इतने बुरे बुरे और टूटे-टूटे ख्वाब देखता था कि बार-बार भक़ से आँख खुल जाया करती और घड़ी की टिक-टिक दिल पर घन चलाने लगती थी। न जाने कितने सनसनाते सीले, सपाट, सूखे, रुखे, फीके, डकारते, इसते, फुंकारते भयानक और भभोड़ते ख्वाब देख डाले उस जमाने में।
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इस तरह मुसीबत में उनके दिन बीतते रहे। पर उन्हे चैन नहीं था। आगे भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं हो पाई। कुछ सुधार, उनकी आर्थिक स्थिति में तो आया, पर जो सामाजिक प्रतिष्ठा और सरकार से जुड़े असरदार संबंध उनके भारत में थे, वे ताल्लुकात, उन्होंने पाकिस्तान के हुक्मरान से नहीं बना पाए। जोश मलीहाबादी का रुझान और संबंध, इंडियन नेशनल कांग्रेस के बड़े नेताओ और स्वाधीनता आंदोलन के सेनानियो से था, न कि, मुहम्मद अली जिन्ना और उनकी मुस्लिम लीग से। उत्तर प्रदेश, बिहार से पाकिस्तान में जाने वाले अधिकतर मुसलमान, मुस्लिम लीग से जुड़े थे या उनसे सहानुभूति रखते थे। जबकि जोश तो, कांग्रेसी मिजाज के थे और कांग्रेस के साथ शुरू से ही थे। 
(क्रमशः) 

विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh 

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (16) पाकिस्तान की ओर प्रस्थान / विजय शंकर सिंह '.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/07/16.html

Thursday 27 July 2023

FATF समीक्षा के कारण, सुप्रीम कोर्ट ने ईडी प्रमुख को "15/16 सितंबर 2023 की आधी रात तक नौकरी पर बने रहने की अनुमति दी / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को "व्यापक जनहित" में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के निदेशक एसके मिश्रा का कार्यकाल 15 सितंबर तक बढ़ा दिया है। इसी मामले में, सुप्रीम कोर्ट के, 11 जुलाई के फैसले के अनुसार एसके मिश्र का कार्यकाल 31 जुलाई को समाप्त होना था। इस अधिकारी को दिए गए पिछले एक्सटेंशन को अदालत ने ही अवैध ठहराया था। जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस विक्रम नाथ और जस्टिस संजय करोल की पीठ ने मिश्र का कार्यकाल 15 अक्टूबर, 2023 तक बढ़ाने की केंद्र की याचिका को आंशिक रूप से स्वीकार कर लिया। पीठ ने हालांकि कहा कि उन्हें आगे कोई विस्तार की अनुमति नहीं दी जाएगी और न ही कोई आवेदन सुना जायेगा। 

पीठ ने आदेश दिया, "हम जोड़ते हैं कि विस्तार देने के लिए किसी और आवेदन पर विचार नहीं किया जाएगा। हम यह भी निर्देश देते हैं कि प्रतिवादी 15/16 सितंबर 2023 की आधी रात से ईडी के निदेशक नहीं रहेंगे।"  
केंद्र ने वैश्विक सहकर्मी समीक्षा निकाय, फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) द्वारा भारत के मनी-लॉन्ड्रिंग विरोधी तंत्र की समीक्षा में निवर्तमान ईडी निदेशक की भागीदारी का हवाला दिया था। तब "क्या केवल एक ही व्यक्ति सक्षम है?" 
सुनवाई के दौरान बेंच ने पूछा था।

सुनवाई शुरू होने पर न्यायमूर्ति गवई ने भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता से पूछा, "मिस्टर सॉलिसिटर, क्या हम यह तस्वीर नहीं दे रहे हैं कि आपका पूरा विभाग अक्षम व्यक्तियों से भरा है और केवल एक ही व्यक्ति सक्षम है? क्या यह पूरे विभाग को हतोत्साहित करना नहीं है कि, यदि एक व्यक्ति नहीं है तो, यह काम भी नहीं कर सकता है?"

एसजी ने सहमति व्यक्त की कि "कोई भी व्यक्ति "अनिवार्य" नहीं है।"  
लेकिन यह भी कहा कि एफएटीएफ सहकर्मी समीक्षा पिछले पांच वर्षों से चल रही है और इसमें लगातार प्रश्न होंगे जिनका उत्तर दिया जाना है।" 
एसजी ने कहा, "ऐसा नहीं है कि कोई भी अपरिहार्य है। लेकिन निरंतरता से देश को मदद मिलेगी। एफएटीएफ समीक्षा देश की क्रेडिट रेटिंग निर्धारित करेगी और क्रेडिट रेटिंग यह निर्धारित करेगी कि देश को विश्व बैंक आदि से कितनी वित्तीय मदद मिल सकती है।"  
उन्होंने बताया कि "एफएटीएफ कमेटी तीन नवंबर से साइट विजिट पर आ रही है।"

न्यायमूर्ति गवई ने बताया कि "इस तथ्य पर विचार करते हुए फैसले ने उनके विस्तार को अवैध ठहराने के बावजूद उन्हें 31 जुलाई तक पद पर बने रहने की अनुमति दी थी।"
न्यायमूर्ति गवई ने कहा, "हम कह सकते थे कि वह आगे एक भी दिन पद पर नहीं रह सकते, लेकिन हमने फिर भी उन्हें अनुमति दी।"
अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल एसवी राजू ने कहा कि "विस्तार न करने से नकारात्मक छवि बन सकती है और कहा कि ऐसे अन्य देश भी हैं जो यह सुनिश्चित करने की कोशिश कर रहे हैं कि भारत "ग्रे सूची" में आ जाए।"
एसजी ने कहा कि वर्तमान एफएटीएफ समीक्षा के अनुसार, भारत "अनुपालक सूची" में है।

विस्तार पर सवाल उठाने वाले याचिकाकर्ताओं में से एक की ओर से पेश वरिष्ठ वकील डॉ. अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा, "मुझे यह देखकर दुख होता है कि मेरे विद्वान मित्र इस हद तक कहते हैं कि देश में सब कुछ एक ही आदमी के कंधे पर निर्भर है।"
सिंघवी ने पूछा, "यदि एफएटीएफ की समीक्षा ही इसका कारण है, तो अक्टूबर 2023 तक ही विस्तार क्यों मांगा गया है, जबकि प्रक्रिया 2024 तक चलती है।  उन्होंने कहा कि एफएटीएफ के सवालों का जवाब सचिव, भारत सरकार द्वारा दिया जाता है, न कि जांच एजेंसी के प्रमुख द्वारा और समीक्षा 40 मापदंडों पर आधारित है, न कि अकेले ईडी के प्रदर्शन पर।"
सिंघवी ने आग्रह किया, "इससे बहुत गलत संदेश जाता है। यह 140 अरब लोगों का देश है और हम एक अधिकारी पर निर्भर हैं? यह निंदनीय है।"

एक अन्य याचिकाकर्ता की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता अनूप जॉर्ज चौधरी ने कहा कि "राजस्व सचिव एफएटीएफ समीक्षा के लिए मुख्य व्यक्ति हैं और उस पद पर रहने वाले अधिकारी पिछले तीन वर्षों में बदल गए हैं। वित्तीय खुफिया इकाई (एफआईयू) इस प्रक्रिया में प्रवर्तन निदेशालय से अधिक महत्वपूर्ण कार्यालय है। ईडी अन्य सभी एजेंसियों जैसे एफआईयू, सीबीआई आदि से नीचे आती है।"
चौधरी ने कहा, "संदिग्ध वित्तीय लेनदेन से संबंधित जानकारी प्राप्त करने, विश्लेषण करने और संसाधित करने और मनी लॉन्ड्रिंग से संबंधित प्रयासों के लिए एफआईयू को केंद्रीय राष्ट्रीय एजेंसी के रूप में नामित किया गया है। इस न्यायालय को गलत तस्वीर दिखाई जा रही है। यदि राजस्व सचिवों को तीन बार बदला जा सकता है और यदि एफआईयू निदेशक को अपने मूल कैडर पर वापस पर भेजा जा सकता है, तो ईडी प्रमुख  को भी बदला जा सकता है। एक कार्यवाहक निदेशक नियुक्त भी किया जा सकता है।"

वरिष्ठ वकील अनूप जार्ज चौधरी ने कहा, "अगर एक अवैध व्यक्ति को सेवा में बनाए रखने की अनुमति दी जाती है तो हम, इससे क्या संदेश दे रहे हैं? हम अंतरराष्ट्रीय समुदाय को संकेत दे रहे हैं कि हमारे पास श्री मिश्र के अलावा कोई भी व्यक्ति नहीं है जिसके एक्सटेंशन को अवैध ठहराया गया है?"

वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि "केंद्र के आवेदनों में ये बातें पिछली सुनवाई में भी कही गई थीं।"
उन्होंने कहा, "अगर यह व्यक्ति इतना महत्वपूर्ण है, तो सरकार उसे एफएटीएफ समीक्षा के लिए वहां जाने वाले किसी भी व्यक्ति के लिए विशेष सलाहकार के रूप में नियुक्त कर सकती है। जब प्रक्रिया 2024 तक चलती है तो वे अक्टूबर तक विस्तार क्यों मांग रहे हैं?"  
उन्होंने केंद्र के आवेदन को "अदालत की प्रक्रिया का घोर दुरुपयोग" बताया और कहा कि इस तरह के आवेदन की अनुमति देना "निर्धारित कानून को कमजोर कर देगा"।

प्रत्युत्तर में, एसजी ने कहा कि "याचिकाकर्ताओं की कुछ दलीलें "यह सुनिश्चित करने के लिए दी गई हैं कि देश का नाम खराब हो" और इस बात पर प्रकाश डाला कि सभी याचिकाकर्ता राजनीतिक दलों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।"  
एसजी ने कहा, "यह मेरा मामला नहीं है कि एक व्यक्ति अपरिहार्य है। मेरा मामला अंतरराष्ट्रीय निकाय के समक्ष प्रभावी प्रस्तुति के लिए निरंतरता का है।"  
उन्होंने इस बात पर प्रकाश डाला कि "सुप्रीम कोर्ट ने पिछले विस्तारों को तकनीकी आधार पर अवैध माना था, न कि किसी चरित्र दोष या अक्षमता के आधार पर।"

केंद्र सरकार ईडी प्रमुख संजय कुमार मिश्रा के कार्यकाल को बढ़ाने के अपने फैसले पर लंबे समय तक राजनीतिक विवाद में उलझी रही है, जिन्हें पहली बार नवंबर 2018 में नियुक्त किया गया था। नियुक्ति आदेश के अनुसार, वह 60 वर्ष की आयु तक पहुंचने पर दो साल बाद सेवानिवृत्त होने वाले थे।  हालाँकि, नवंबर 2020 में सरकार ने आदेश को पूर्वव्यापी रूप से संशोधित करते हुए उनका कार्यकाल दो साल से बढ़ाकर तीन साल कर दिया।  कॉमन कॉज़ बनाम भारत संघ मामले में इस पूर्वव्यापी संशोधन की वैधता और मिश्रा के कार्यकाल को एक अतिरिक्त वर्ष के विस्तार की जांच करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया गया था।  न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा कि विस्तार केवल 'दुर्लभ और असाधारण मामलों' में थोड़े समय के लिए दिया जा सकता है।  मिश्रा के कार्यकाल को बढ़ाने के कदम की पुष्टि करते हुए, शीर्ष अदालत ने आगाह किया कि निदेशालय के प्रमुख को कोई और विस्तार नहीं दिया जाएगा।

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Wednesday 26 July 2023

पूरी सरकार के लिए अपरिहार्य एक अफसर और FATF / विजय शंकर सिंह

पुलिस हो या कोई भी जांच एजेंसी, इन सबमें कुछ न कुछ महत्वपूर्ण मामले हमेशा जांच, अग्रिम जांच या अदालतों के समक्ष लंबित रहेंगे ही। एक मामला निपटता है तो दूसरा केस सामने आ जाता है। अदालत से एक का फैसला होता है तो, उस केस की अपील, जो उच्चतर अदालतों में हो जाती है, आ जाती है। 

इसलिए, महत्वपूर्ण मामलों की जांच में अपरिहार्यता है, के आधार पर,  किसी भी जांच एजेंसी के विभागीय प्रमुख को सेवा विस्तार नहीं दिया जा सकता है। ऐसे तो फिर, कोई रिटायर होगा ही नही। अतः, इस तरह के विस्तार के लिए, यह तर्क कभी भी उचित आधार नहीं हो सकता है।  

अब आती है FATF की बात। कोविड महामारी के कारण भारत का FATF मूल्यांकन 2023 तक के लिए स्थगित कर दिया गया था।  नवंबर 2023 के लिए साइट पर दौरे की योजना बनाई गई थी, इसलिए यह सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष भारत सरकार इस आधार पर सेवा विस्तार के लिए तर्क दे सकती है।  

लेकिन, यही यह सवाल उठता है क्या, विभाग के अन्य वरिष्ठ अधिकारी स्पेशल डायरेक्टर या अन्य, इस समीक्षा के लिए, सक्षम नहीं हैं? इस तरह के अनावश्यक और एक विवादित अफसर के लिए सेवा विस्तार की जिद पर अड़ी सरकार का यह दृष्टिकोण, हजार संशय पैदा करता है। 

अखबारों के अनुसार, सरकार ने FATF की चल रही समीक्षा का हवाला देते हुए, केवल इसी कारण, 15 अक्टूबर तक के लिए ED प्रमुख, एसके मिश्र का सेवा विस्तार मांगा है। सुप्रीम कोर्ट को चाहिए कि, सेवा विस्तार केवल FATF के लिए ही हो। ED का नियमित पर्यवेक्षण, उनके बाद के वरिष्ठतम अफसर करें।

संजय मिश्र, ईडी प्रमुख का सेवा विस्तार नवंबर 2022 से ही अवैध है। यह कहना है सुप्रीम कोर्ट का। महज 15 दिन पहले के इस फैसले के खिलाफ सरकार फिर से सुप्रीम कोर्ट आ गई कि, हुजूर, ईडी प्रमुख को नौकरी में रहने दें। यदि संजय मिश्र इतने ही अपरिहार्य हैं तो, उनको मंत्री बना दे, सरकार।

फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स, FATF  ~ 

प्रवर्तन निदेशालय की वेबसाइट के अनुसार, FATF, फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स का गठन जुलाई 1989 में पेरिस में हुए जी 7 समिट में किया गया था जिसका मुख्य उद्देश्य मनी लांड्रिंग से निपटने हेतु उपाय करना था । इसलिए इसे ग्लोबल फाइनेंशियल वॉचडॉग भी कहते हैं । यह संस्था, काले धन के आर्थिकी में प्रवेश को प्रतिबंधित करने के लिए गठित की गई है। भारत भी इसका एक सदस्य है। 

फिलहाल FATF का मुख्यालय पेरिस में, स्थित है और इसमें अब तक कुल 39 सदस्य देश हैं। सऊदी अरब 39 वें सदस्य के रूप में, पहला खाड़ी देश है जिसे पिछले वर्ष इस संगठन का सदस्य बनाया गया था। इसमें, ग्रे और ब्लैक लिस्ट नाम से दो सूचियां होती है, जिनमे इन प्राविधानों के उल्लंघन के मूल्यांकन के आधार पर, देशों को वर्गीकृत किया जाता है। 

ग्रे लिस्ट ~

एफ़एटीएफ़ की 'इन्क्रीज़्ड मॉनिटरिंग लिस्ट' को ही ग्रे लिस्ट कहा जाता है।
एफ़एटीएफ़ द्वारा ग्रे लिस्ट में उन देशों को शामिल किया जाता है जो कि अपने देश के फाइनेंसियल सिस्टम को टेरर फंडिंग और मनी लॉन्ड्रिंग की गतिविधियों को बढ़ावा देने के लिए उपयोग होने देते हैं। इन्हें ग्रे लिस्ट में शामिल कर यह संकेत दिया जाता है कि इन गतिविधियों को ना रोकने पर वे ब्लैक लिस्ट हो सकते हैं।

जब कोई देश ग्रे लिस्ट में शामिल कर लिया जाता है तो उसे निम्न समस्याओं का सामना करना पड़ता है:
० अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों (विश्व बैंक, आईएमएफ , एशियाई विकास बैंक इत्यादि) और देशों के आर्थिक प्रतिबंधों का सामना करना पड़ता है।
० अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों और देशों से ऋण प्राप्त करने में समस्या आती है। इसके अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में कमी आती है और अर्थव्यवस्था कमजोर होती है।
० पूर्णरूप से अंतर्राष्ट्रीय बहिष्कार का सामना करना पड़ सकता है।

ब्लैक लिस्ट ~

जो देश आतंकी फंडिंग और मनी लॉन्ड्रिंग गतिविधियों का पूर्ण और प्रत्यक्ष रूप से समर्थन करते हैं उन्हें ब्लैक लिस्ट में सूचीबद्ध किया जाता है; अर्थात इन देशों में मौजूद फाइनेंसियल सिस्टम की मदद से आतंकी गतिविधियों के लिए फंडिंग और मनी लॉन्ड्रिंग को बढ़ावा मिलता है। 

इसी FATF का आधार लेकर सरकार सुप्रीम कोर्ट गई है और अब यह देखना है कि, सरकार के लिए अपरिहार्य बन चुके, प्रवर्तन निदेशालय के निदेशक, संजय कुमार मिश्र के पुनः सेवा विस्तार की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट क्या निर्णय सुनाती है। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 


संसद में मणिपुर पर चर्चा में गतिरोध और नियम 267 बनाम 176 / विजय शंकर सिंह

राज्यसभा में आम आदमी पार्टी के नेता,  संजय सिंह को राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने 24 जुलाई को मानसून सत्र के शेष भाग के लिए निलंबित कर दिया था। विपक्षी दलों के विरोध के कारण सदन की कार्यवाही शुरू होने के कुछ ही मिनटों के भीतर स्थगित कर दी गई। जब सदन दोपहर 12 बजे दोबारा शुरू हुआ, तो सभापति ने मणिपुर पर विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे और अन्य की दलीलों को नजरअंदाज करते हुए प्रश्नकाल को रोकने की कोशिश की। उत्तेजित विपक्षी सदस्य अपनी कुर्सियों पर खड़े हो गए और धीरे-धीरे "नरेंद्र मोदी-जवाब दो" (प्रधानमंत्री को जवाब देना चाहिए) के नारे लगाते हुए वेल की ओर बढ़े।दोपहर 12:10 बजे  आप के सदन नेता संजय सिंह मणिपुर मुद्दे पर, चर्चा करने के बारे में, सभापति से पूछने के लिए आसन की ओर बढ़े।

इस पर सदन के नेता पीयूष गोयल ने उनके निलंबन की मांग करते हुए एक प्रस्ताव पेश कर दिया, जिसे शोर-शराबे के बीच, ध्वनि मत से पारित कर दिया गया। सदन को दोपहर के भोजन के लिए स्थगित कर दिया गया। सदन स्थगित होने के बाद भी संजय सिंह अपनी कुर्सी पर बैठे रहे। इंडिया सभी पार्टियों के नेता श्री धनखड़ से मिलने गए और उन्होंने श्री सिंह के निलंबन को "जुर्म की तुलना में अनुपातहीन सज़ा" बताया। संजय सिंह को, मानसून सत्र की शेष सभी 14 तारीखों के लिए निलंबित कर दिया गया है।  समस्या के समाधान के लिए अध्यक्ष श्री धनखड़ ने दोपहर एक बजे सदन के नेताओं की बैठक बुलाई।  लेकिन बैठक गतिरोध तोड़ने में विफल रही। 
 
सांसद, संजय सिंह, पूरी रात संसद परिसर में आसामान के नीचे गांधी प्रतिमा के पास बैठे रहे। संसद में मणिपुर पर पीएम को सदन में आकर अपना वक्तव्य देने की मांग के लिए सदन के वेल में आ जाना कौन सा अपराध है सभापति जी? पियूष गोयल ने कुछ कहा और बिना विवेक का इस्तेमाल किए उसे मान लिया गया। एक बात तो तय है कि, संजय सिंह को जो सजा सदन में दी गई है वह उनके द्वारा किए गए अपराध की तुलना में अधिक है। 

क्या यह सजा, पिछले सत्र में, जब अडानी मोदी रिश्तों पर, प्रधान मंत्री से वक्तव्य की माग करते हुए संजय सिंह ने, "मोदी अडानी भाई भाई, दोनों ने मिल खाई मलाई" का नारा लगाया था और तब अडानी से अपनी नजदीकियों के चलते, पीएम विपक्ष के सीधे निशाने पर थे। यह नारा पिछले सत्र में संजय सिंह तथा अन्य सांसदो द्वारा खूब लगा और लगाया जाता रहा। कहीं आज राज्यसभा से सत्र तक के निष्कासन का कारण, यह नारा तो नहीं है? आखिर राहुल गांधी भी तो मोदी अडानी रिश्तों पर सवाल उठाने की ही तो सजा भोग रहे हैं। 

सदन में मणिपुर के हालात पर चर्चा के फॉर्मेट पर अब एक नई बहस छिड़ गई है। विपक्ष चाहता है, बहस राज्यसभा की न्यामावली के, रूल 267 के तहत चर्चा हो, और सरकार, मणिपुर पर चर्चा, रूल 176 के तहत कराने के लिए तैयार है। मणिपुर की स्थिति पर चर्चा के फॉर्मेट को लेकर फिलहाल, सरकार और विपक्ष के बीच रस्साकशी जारी है। इस दौरान रूल 176 और रूल 267 का अक्सर उल्लेख हो रहा है। एक तरफ सरकार जहां छोटी अवधि की चर्चा के लिए जिद पर अड़ी हुई थी। वहीं, विपक्ष ने जोर देकर कहा कि, प्रधानमंत्री नियम 267 के तहत सभी मुद्दों को निलंबित कर चर्चा के बाद स्वत: संज्ञान लें और मणिपुर पर सरकार का पक्ष रखें। 

मंगलवार को आम आदमी पार्टी के राघव चड्ढा ने अपने लिखित अनुरोध में कहा कि सरकार की विफलता के कारण मणिपुर राज्य में कानून और व्यवस्था के टूटने पर चर्चा के लिए 21 जुलाई 2023 के लिए वह नियम 267 के तहत नोटिस देते हैं। राज्यसभा में सूचीबद्ध अन्य सभी कार्यकलापों के निलंबन के लिए, इस नियम में यह नोटिस दी जाती है। आखिर क्‍या है नियम 267, जिसकी मांग विपक्ष, मण‍िपुर मुद्दे पर चर्चा के लगातार कर रहा है? दूसरी तरफ रूल 176 में क्‍या है, जिसके अंतर्गत, सरकार छोटी अवधि की चर्चा के लिए तैयार है?  इन दोनों नियमों को समझते हैं।

रूल 267 क्या है?

रूल 267, के अंतर्गत,  राज्यसभा का के सदस्य को, सभापति की मंजूरी से, सदन के पूर्व-निर्धारित एजेंडे को, स्थगित करने का प्रस्ताव रखने की विशेष शक्ति देता है। दरअसल, संसद में एक सदस्य के पास मुद्दों को उठाने और सरकार से जवाब मांगने के कई तरीके, संसदीय नियमावली में दिए गए हैं। प्रश्‍नकाल के दौरान, सांसद किसी भी मुद्दे पर, संबंधित प्रश्न पूछ सकते हैं। इसके तहत संबंधित मंत्री को मौखिक या लिखित उत्तर देना होता है। कोई भी सांसद, शून्यकाल के दौरान अपने मन मुताबिक मुद्दे को उठा सकता है। प्रति संसदीय कार्यदिवस के दिन, 15 सांसदों को शून्यकाल में, अपनी पसंद के मुद्दे उठाने की अनुमति होती है। कोई सांसद इसे विशेष उल्लेख के दौरान भी उठा सकता है। अध्यक्ष प्रतिदिन 7,  विशेष उल्लेखों की अनुमति दे सकते हैं। सांसद राष्ट्रपति के भाषण पर बहस जैसी अन्य चर्चाओं के दौरान इस मुद्दे को सरकार के ध्यान में लाने का प्रयास कर सकते हैं। नियम 267 के तहत कोई भी चर्चा संसद में इसलिए बहुत महत्व रखती है क्योंकि, राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे पर चर्चा के लिए अन्य सभी कामों को रोक दिया जाता है।

अगर किसी मुद्दे को नियम 267 के तहत स्वीकार किया जाता है तो, यह दर्शाता है कि, यह आज का, सबसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय मुद्दा है। राज्यसभा नियम पुस्तिका में कहा गया है, "कोई भी सदस्य सभापति की सहमति से यह प्रस्ताव रख सकता है। वह यह प्रस्‍ताव ला सकता है कि, उस दिन की परिषद के समक्ष सूचीबद्ध एजेंडे को निलंबित किया जाए।" अगर प्रस्ताव पारित हो जाता है तो, विचाराधीन नियम को कुछ समय के लिए निलंबित कर दिया जाता है। विपक्ष मणिपुर को लेकर इसी कारण रूल 267 के तहत चर्चा की मांग कर रहा है।

नियम 176 क्‍या है?

ध्‍यान देने वाली बात है कि केंद्र ने सोमवार को कहा था कि वह राज्यसभा में मणिपुर मुद्दे पर चर्चा करने को तैयार है। सदन के नेता पीयूष गोयल ने भी कहा था कि, सरकार को इसमें कोई आपत्ति नहीं है। राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ ने फिर कहा था कि, "विभिन्‍न सदस्यों की ओर से नियम 176 के तहत मणिपुर के मुद्दों पर अल्पकालिक चर्चा की मांग की गई है। सदस्य मणिपुर के मुद्दों पर चर्चा में शामिल होने के इच्छुक हैं। इन चर्चाओं के तीन चरण होते हैं। एक, सदन का प्रत्येक सदस्य अल्पकालिक चर्चा के लिए नोटिस देने का हकदार होता है। उन नोटिसों पर उन्‍होंने विचार किया है। लेकिन, नियम के तहत उन्‍हें सदन के नेता से तारीख और समय की सलाह लेनी होगी।"

सवाल यह है कि नियम 176 क्या है? नियम 176 किसी विशेष मुद्दे पर अल्पकालिक चर्चा की अनुमति देता है, जो ढाई घंटे से ज्‍यादा नहीं हो सकती। इसके अनुसार, अत्यावश्यक सार्वजनिक महत्व के मामले पर चर्चा शुरू करने का इच्छुक कोई भी सदस्य इस बारे में लिखित नोटिस दे सकता है। शर्त यह है कि नोटिस के साथ, अत्यावशकता (अर्जेंसी) का कारण बताया जाए। नोटिस पर कम से कम, दो अन्य सदस्यों के हस्ताक्षर होने चाहिए जो इसका समर्थन करते हों।

विपक्ष शिकायत कर रहा है कि, नियम 267 के तहत उसके किसी भी नोटिस पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। उदाहरण के लिए उसने दावा किया है कि सभापति धनखड़ ने संसद के पिछले शीतकालीन सत्र के दौरान आठ ऐसे नोटिसों को खारिज कर दिया था जब वे वास्तविक नियंत्रण रेखा पर चीन की बढ़ती उपस्थिति पर चर्चा चाहते थे। टीएमसी के डेरेक ओ'ब्रायन ने पहले कहा था कि 2016 में नोटबंदी के बाद नियम 267 के तहत किसी भी नोटिस की अनुमति नहीं दी गई है। यह पुराने ट्रेंड से अलग है जब ऐसे नोटिस स्वीकार किए गए थे।

यह गतिरोध अभी भी बना हुआ है। प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी न तो सदन में आ रहे है और न ही चर्चा में शामिल होने की बात कर रहे हैं। गृह मंत्री और रक्षा मंत्री जरूर सदन में आकर अपनी बात कह चुके है, पर वे भी नियम 267 के अंतर्गत लंबी और विस्तृत चर्चा के बारे में कोई भी आश्वासन देने से कतरा रहे है। मणिपुर एक राष्ट्रीय महत्व का मसला बन चुका है। यूरोपीय यूनियन, ब्रिटिश संसद और यूएस कांग्रेस में इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर चर्चा हो रही है, दुनियाभर के प्रतिष्ठित अखबार, मणिपुर पर ख़बरें छाप रहे है, और संपादकीय लिख रहे हैं, लेकिन सरकार विपक्षी गठबंधन इंडियन नेशनल डेमोक्रेटिक इंक्लूसिव अलायंस INDIA के भाष्य में व्यस्त है। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Tuesday 25 July 2023

ईडी निदेशक एसके मिश्र इस सरकार के लिए इतने जरूरी क्यों हैं / विजय शंकर ने

केंद्र ने प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) के प्रमुख एसके मिश्रा के कार्यकाल के विस्तार की मांग करते हुए भारत के सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया है, जो सोमवार, 31 जुलाई को समाप्त होने वाला है।

11 जुलाई को, जस्टिस बीआर गवई, विक्रम नाथ और संजय करोल की तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने एसके मिश्र को दिए गए सेवा विस्तार को अवैध माना था, क्योंकि वह सेवा विस्तार, कॉमन कॉज मामले में सुप्रीम कोर्ट के 2021 के फैसले में दिए गए आदेश का उल्लंघन था, जिसमें, सेवा विस्तार पर, विशेष रूप से रोक लगा दी गई थी। हालाँकि, न्यायालय ने अंतरराष्ट्रीय निकाय FATF एफएटीएफ की सहकर्मी समीक्षा और सत्ता के सुचारू हस्तांतरण के संबंध में केंद्र सरकार द्वारा व्यक्त की गई चिंताओं को ध्यान में रखते हुए उन्हें, 31 जुलाई, 2023 तक अपने पद पर बने रहने की अनुमति दे दी थी।

लीगल वेबसाइट, लाइव लॉ के अनुसार, केंद्र की ओर से सॉलिसिटर-जनरल तुषार मेहता ने, आज 26 जुलाई को, न्यायमूर्ति गवई की अध्यक्षता वाली पीठ से अपने फैसले के संबंध में दायर एक आवेदन पर शुक्रवार से पहले सुनवाई करने का आग्रह किया। उन्होंने कहा है, “मैं एक मिसलेनियस एप्लिकेशन प्रस्तुत कर रहा हूं।  हम कुछ प्रार्थना कर रहे हैं जिसके लिए आपको शुक्रवार से पहले... इस पक्ष पर सुनने के लिए योर लॉर्डशिप सहमत होने की कृपा करें।"

पीठ ने आवेदन को गुरुवार (कल यानी 27 जुलाई को, अपराह्न साढ़े तीन बजे, सुनने के लिए, सूचीबद्ध करने की सहमति दी है। 

केंद्र सरकार ईडी प्रमुख संजय कुमार मिश्रा के कार्यकाल को बढ़ाने के अपने फैसले पर लंबे समय तक राजनीतिक विवाद में उलझी रही, जिन्हें पहली बार नवंबर 2018 में नियुक्त किया गया था। नियुक्ति आदेश के अनुसार, वह 60 वर्ष की आयु तक पहुंचने पर दो साल बाद सेवानिवृत्त होने वाले थे।  साल।  हालाँकि, नवंबर 2020 में सरकार ने आदेश को पूर्वव्यापी रूप से संशोधित करते हुए उनका कार्यकाल दो साल से बढ़ाकर तीन साल कर दिया।  कॉमन कॉज बनाम भारत संघ मामले में इस पूर्वव्यापी संशोधन की वैधता और मिश्रा के कार्यकाल को एक अतिरिक्त वर्ष के विस्तार की जांच करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया गया था।  न्यायमूर्ति एल. नागेश्वर राव की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने कहा कि विस्तार केवल 'दुर्लभ और असाधारण मामलों' में थोड़े समय के लिए दिया जा सकता है।  मिश्रा के कार्यकाल को बढ़ाने के कदम की पुष्टि करते हुए, शीर्ष अदालत ने आगाह किया कि निदेशालय के प्रमुख को कोई और विस्तार नहीं दिया जाएगा।

नवंबर 2021 में, मिश्रा के सेवानिवृत्त होने से तीन दिन पहले, भारत के राष्ट्रपति द्वारा दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम, 1946 और केंद्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम, 2003 में संशोधन करते हुए दो अध्यादेश प्रख्यापित किए गए थे।  दिसंबर में संसद द्वारा.  इन संशोधनों के बल पर, अब सीबीआई और ईडी दोनों निदेशकों का कार्यकाल प्रारंभिक नियुक्ति से पांच साल पूरा होने तक एक बार में एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है।  पिछले साल नवंबर में, मिश्रा को एक और साल का विस्तार दिया गया था, जिसे अब शीर्ष अदालत में चुनौती दी गई थी।  केंद्रीय सतर्कता अधिनियम और दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम में 2021 के संशोधन भी चुनौती में थे, जिन्होंने केंद्र को प्रवर्तन निदेशालय और केंद्रीय जांच ब्यूरो के निदेशकों की शर्तों को एक बार में एक वर्ष तक बढ़ाने की अनुमति दी थी।

इस साल अप्रैल में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने ईडी प्रमुख एसके मिश्रा को दिए गए कार्यकाल विस्तार को अमान्य कर दिया, यहां तक ​​​​कि 2021 के संशोधनों की वैधता को भी बरकरार रखा।

यह फैसला केंद्र सरकार द्वारा प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) प्रमुख एसके मिश्रा को दिए गए तीसरे विस्तार के साथ-साथ सीवीसी अधिनियम, डीएसपीई अधिनियम और मौलिक नियमों में 2021 के संशोधन को चुनौती देने वाली याचिकाओं के एक समूह में दिया गया था।  याचिकाकर्ताओं में कांग्रेस नेता जया ठाकुर, रणदीप सिंह सुरजेवाला, तृणमूल कांग्रेस सांसद महुआ मोइत्रा और पार्टी प्रवक्ता साकेत गोखले शामिल हैं।

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Monday 24 July 2023

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (16) पाकिस्तान की ओर प्रस्थान / विजय शंकर सिंह

                 
                   चित्र: कराची 1955

जवाहरलाल नेहरू की कृपा से जोश मलीहाबादी को, दिल्ली में आजकल अखबार में नौकरी लग गई। उनकी जिंदगी फिर पटरी पर आ गई। देश को बंटे कुछ साल गुजर चुके थे। पर भारत पाकिस्तान के नागरिकों की आमदरफ्त जारी थी। बंटवारा ताजा था। स्मृतियां और जख्म भी ताजे थे। उर्दू भाषा, पाकिस्तान की राष्ट्रीय भाषा बन चुकी थी। हालांकि, वह पाकिस्तान के किसी भी प्रांत की बोली जाने वाली भाषा नहीं थे। मुस्लिम लीग से जुड़े, वे लोग, जो उत्तर प्रदेश और बिहार के बाशिंदे थे, उनमें से कुछ लोग जरूर भारत से हिजरत कर पाकिस्तान चले गए। ऐसे लोग, बहुसंख्या में कराची में बसे। कराची तब पाकिस्तान की राजधानी थी। जब जनरल अयूब खान पाकिस्तान के सदर बने तो, उन्होंने इस्लामाबाद के नाम से नई राजधानी बनाया। 

भारत और पाकिस्तान के बीच मुशायरों का आयोजन होता था। जोश साहब को भी, पाकिस्तान से, दावतनामे मिलते रहते थे। वे कराची आते जाते थे। इसी बीच साल 1955 में जब वे एक मुशायरे में भाग लेने के लिए वे कराची गए थे तो, पाकिस्तान के कुछ शायरों ने जोश को, पाकिस्तान की नागरिकता लेने का अनुरोध किया। उनके मन में हिंदी और हिंदू विरोधी मानसिकता की बात भी डाली। जोश, शुरू में तो नहीं राजी हुए, लेकिन बाद में जब उन पर बहुत दबाव पड़ा तो वह मान गए। पर एक संशय उनके मन में बना रहा। पाकिस्तान जाने या न जाने के पीछे, उनके मन में जो द्वंद्व रहा, वह आप इस अंश में पढ़ेंगे। 

अब आप उन्ही के शब्दों में पढ़े...
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यह एक शब की तड़प है सहर तो होने दो 
बहिश्त सर पे लिए रोज़गार गुजरेगा। 
फ़िज़ा के दिल में पुरअफ़्शा है आरजू-ए-गुबार 
ज़रूर इधर से कोई शहसवार गुजरेगा।

1955 में जब एक मुशायरे के सिलसिले में में तीसरी बार पाकिस्तान गया तो हरचंद उससे पहले भी मेरे पुराने दोस्त सैयद अबूतालिब नकवी चीफ कमिश्नर कराची मुझे पाकिस्तान आ जाने की दावत दे चुके थे, लेकिन इस मर्तबा तो वह पंजे झाड़कर मेरे पीछे पड़ गए।

में पाकिस्तान आने पर बिलकुल तैयार नहीं था; लेकिन साफ इनकार नहीं किया कि नकवी का दिल न टूट जाए। और यह कहकर टाल दिया कि मैं इस मसअले पर गौर करूंगा।

इसी बीच में उन्होंने अपने घर पर मजलिस की। शहर के बड़े-बड़े लोगों के साथ सिकन्दर मिर्ज़ा को भी बुलाया और सबको मेरा मुसद्दस हुस्न-ओ-इकलाब' सुनवाया। उन तमाम लोगों में जिनमें सिकंदर मिर्जा भी शामिल थे, मुझसे आग्रह किया कि मैं पाकिस्तान का बाशिंदा बन जाऊं। उनकी दावत पर हरचंद मैंने अपने दिल में तो यह कहा कि ख़ुदा की क़सम में ऐसा हरगिज़ नहीं करूंगा। लेकिन जबान से यह कहा कि में भी यही सोच रहा हूं। अब नक़वी का यह तकियाकलाम हो गया कि जोश साहब, आखिर आप कब तक सोचेंगे?

इसी बीच में वह एक रोज़ मैट्रापोल आ गए और मुझसे कहा कि सारे काम छोड़कर आज आपके पास इसलिए आया है कि आपसे पाकिस्तान आने का इकरार लेकर दम लूँ।

मैंने कहा, "नकवी साहब, आपको मालूम है कि मुझे आपसे किस क़दर मुहब्बत है। अगर आप मेरी जान तक मांगे तो हाजिर कर दूँ। लेकिन..." नकवी साहब ने कहा कि देखिए 'लेकिन' के बाद इनकार न कर दीजिएगा। मैं चुप हो गया। वह अपना सोफा छोड़कर मेरे सोफे पर आकर बैठ गए और कहने लगे, फरमाइए आप पाकिस्तान कब आ रहे हैं।" अब जी कहा और आँखें नीची करके मैंने कहा, "नकवी साहब, जब तक पंडित जवाहरलाल नेहरू जिन्दा है, मैं पाकिस्तान क्योंकर आ सकता हूँ?"

उन्होंने मेरे कंधे पर हाथ रखकर पूछा, 'और नेहरू के बाद क्या होगा, यह भी कभी सोचा है? मैंने कहा, "ख़ुदा न करे मैं उनके बाद जिन्दा रहूँ। उन्होंने कहा कि शायर की यह बड़ी बदबख्ती है कि, वह जिन्दगी के संजीदा मसलों को भी जजबात के तराजू में तोला करता है। मैं आपसे पूछता हूँ कि अगर नेहरू साहब आपकी जिन्दगी में सिधार गए तो फिर हिन्दुस्तान में आपको चाहनेवाला कौन रह जाएगा? आपकी यह नौकरी, आपकी यह आज़ादी और इज्जत क्या उनके बाद ख़त्म नहीं हो जाएगी? थोड़ी देर के वास्ते यह भी फर्ज कर लीजिए कि नेहरू के बाद भी हिन्दुस्तान आपको सर आँखों पर बिठाए रहेगा लेकिन यह भी तो सोचिए कि आपके बाद वहाँ आपके बच्चों का क्या हश्र होगा? देखिए जोश साहब, आपके बाद हिन्दुस्तान में आपके बच्चे दर दर मारे फिरेंगे और एक आदमी भी उनके सर पर हाथ नहीं रखेगा। यहां तक तो में आर्थिक पहलू पर बात कर रहा था। अब जरा तहजीबी पहलू पर भी निगाह डालिए, यह उससे भी ज्यादा जानलेवा साबित होगा। जोश साहब, आपके बच्चे उर्दू भूल जाएँगे। हिन्दी उनका ओढ़ना-बिछौना होगी। ये आपके कलाम का तरजुमा हिन्दी में पढ़ेंगे और तहजीबी, रवायती और सक्राती (सांस्कृतिक) एतबार से आपकी पूरी नस्ल में इस कदर जबरदस्त तब्दीली आ जाएगी कि आपसे उसका किसी किस्म का भी तअल्लुक बाकी नहीं रह जाएगा... अगर आप यहाँ न आ गए तो क्या उसके यह मानी नहीं होंगे कि आप अपनी वक्ती आजादी और इज्जत की कुबांनगाह पर अपने पूरे खानदान की भेंट चढ़ा देने पर तुले हुए हैं।"

उनकी इस लम्बी, जज्बाती और मंतिकी (तर्कपूर्ण) तक़रीर में मेरा दिल हिला दिया और मेरी आँख खोल दी, और में सोचने लगा कि मेरे बाद मेरे ये नाज़ों के पाले बच्चे और मेरी यह शाहाना मिज़ाज रखने वाली बीवी क्या करेगी। नकवी साहब से मैंने कहा, "आपने मुझे झंझोड़कर जगा दिया। बेशक मेरी आल-औलाद हिन्दुस्तान में पनप नहीं सकेगी। नकवी साहब, मुझे चौबीस घंटे और दे दीजिए कि मैं इस मसले पर एक बार और ग़ौर कर लूं। कल इसी वक्त आपकी ख़िदमत में हाज़िर होकर अपना आखिरी फ़ैसला सुना दूंगा।'

नकवी के चले जाने के बाद मैंने नासिर अहमद खाँ से कहा कि तुमने सुन ली नकवी साहब की सारी तक़रीर, अब क्या कहते हो? नासिर ने कहा कि मुझे उनके एक-एक हर्फ से इत्तफ़ाक़ है। अगर आप यहाँ न आए तो जिन्दगी-भर के लिए पछताएंगे। यह कहते ही नासिर मेरे करीब आकर बैठ गए और बड़े जोश के साथ अंगुली हिलाते हुए कहने लगे, "खा- साहब, आप कई पुश्तों से मलीहाबाद पर हुकूमत करते चले आ रहे हैं। आपकी रिजाया आपके सामने थर्राती और झुक-झुककर सलाम करती है। कल उसी दो कौड़ी रिआया के बच्चे आपके बच्चों पर हुकूमत करेंगे, उन्हें धोतिया बंधवाएंगे और उनके सरो पर चोटिया रखाएंगे। अल्लाह करे ये दिन देखने से पहले हम पर जाएं।"

सुबह उठकर मैने इस मसले पर दोबारा गौर किया। नहा-धोकर नकवी साहब के पास गया और उनसे कह दिया कि अब मैं हिजरत पर तैयार हो गया है। नकवी की बाछें खिल गई, दौड़कर मुझे गले लगा लिया और उसी वक्त डिपुटी कमिश्नर को तलब करके हुक्म दिया कि जहाँगीर रोड पर जो एक बहुत बड़ा प्लाट खाली है, उसे जोश साहब के नाम अलाट कर दीजिए। उस पर उनका सिनेमा हॉल और मकान तैयार किया जाएगा। और फला मुकाम पर पचास एकड़ जमीन भी जोश साहब को अलाट कर दीजिए, यहाँ उनका बाग लगवाया जाएगा।

जब उनके हुक्म की तामील हो गई तो दोनों जमीनों पर मुझे कब्जा दे दिया गया और मेरे चौकीदार झोपड़ियाँ डालकर यहाँ रहने लगे।

नकवी साहब ने कहा, "आप दिल्ली जाकर इमर्जेंसी सर्टिफिकेट पर अपने बाल-बच्चों को यहां ले आइए। आपके आते ही सिनेमा की तामीर का काम शुरू करा दूंगा।" साथ ही उन्होंने अपने सेकेटरी रब्बानी साहब को बुलाकर मेरे लिए मकान की तलाश के लिए कहा। उन्होंने सिंध मुस्लिम हाउसिंग सोसाइटी में एक अच्छी-सी कोठी मेरे हवाले कर दी और मैं दिल्ली परवाज़ कर गया।

दिल्ली पहुँचा तो मालूम हुआ, पंडित जी बाहर गए हुए हैं, दो-तीन दिन में आएंगे। सीधा मौलाना के पास गया। मौलाना किसी अखबार में यह पढ़ चुके थे कि, हिन्दुस्तान के एक शायर पर पाकिस्तान डोरे डाल रहा है। उन्होंने छूटते ही मुझसे कहा, "शायद आप ही यह शायर हैं, जिस पर पाकिस्तान डोरे डाल रहा है?" मैने कहा, "जी हा मौलाना, मैं वही शायर हूँ। मैंने अपनी सारी कहानी बयान कर दी, नक्वी साहब की तकरीर के एक-एक लफ़्ज़ को दोहरा दिया और फिर उनसे पूछा, अब आपकी क्या राय है, मौलाना ?"

उन्होंने चन्द सवाल करके जब मामले के हर पहलू को समझ लिया तब कहा, "आपका हिजरत कर जाना हरवन्द हमारे वास्ते शर्मिंदगी और दुख का कारण होगा, लेकिन जहां तक आपके बच्चों के मुस्तकबिल का सवाल है, मेरी राय है कि, आप हिजरत कर जाएँ। नकवी ने यह सच कहा है कि नेहरू के बाद यहाँ आपको कोई पूछने वाला नहीं रहेगा। आप तो आप ख़ुद मुझे कोई नहीं पूछेगा । में हर मामले की तार्किक तौर पर देखने का आदी हूँ। लेकिन जवाहरलाल शदीद जज़बाती आदमी हैं, यह आपको हिजरत पर किसी तरह आमादा नहीं होंगे।'

तीसरे दिन यह सुनकर कि पंडित जी आ रहे हैं, मैं पालम के हवाई अड्डे पर पहुँच गया। वह उतरे तो मैंने उनसे कहा कि मुझे आपसे एक जरूरी बात कहनी है और आज ही उन्होंने कहा, "तो फिर अभी मेरे साथ चलिए। जब उनके घर आकर मैंने अपना कुल माजरा बयान कर दिया और यह भी बता दिया कि मौलाना आजाद की इस बारे में क्या राय है तो चेहरे पर तीव्र पीड़ा के चिह्न प्रकट हुए और कहा, "जोश साहब, आपने मुझे बड़ी मुश्किल में डाल दिया है। अगर हिन्दू की संकीर्ण देशभक्ति यह स्थिति पैदा न कर देती तो आपके दिल में वतन छोड़ने का कभी ख़याल ही पैदा न होता, लेकिन यह मामला बहुत नाजुक है। मुझे सोचने के लिए दो दिन का वक्त दीजिए। में खुद भी गौर करूंगा और मौलाना से भी राय लूँगा।"

दो दिन के बाद जब में उनके पास पहुँचा तो मैंने उनके दिल मोह लेने वाले चेहरे पर वह ताजगी देखी जो किसी जेहनी गिरह के सुलझा लेने के बाद पैदा हुआ करती है। उन्होंने बड़े उल्लास के साथ निगाह ऊपर उठाई, एक मृदु मुस्कान होठों पर मचलने लगी और उन्होंने कहा, "जोश साहब, आपके मामले का ऐसा अच्छा हल निकाल लिया है कि जिसे आप भी पसंद करेंगे।क्यों साहब, यही बात है न, कि अपने बच्चों का आर्थिक और सांस्कृतिक भविष्य संवारने के लिए पाकिस्तान जाना चाहते हैं?" मैंने कहा, "जी हाँ, इसके सिवा और कोई बात नहीं है। उन्होंने कहा, "तो फिर आप ऐसा करें कि अपने बच्चों को पाकिस्तानी बना दें, लेकिन आप यहीं रहें और हर साल पूरे चार महीने पाकिस्तान में रहकर आप उर्दू की खिदमत कर आया करें। भारत सरकार आपको हर साल पूरी तनख्वाह के साथ चार महीने की छुट्टी दे दिया करेगी।।

पंडित जी की इस युक्ति पर में उछल पड़ा। मैंने कहा, "यह युक्ति मुझे दिल से मंजूर है। इस तरह साँप भी मर जाएगा और लाठी भी नहीं टूटेगी। पंडित जी मेरी मंजूरी से बेहद खुश होकर मेरे गले लग गए।

दूसरे ही दिन अखबारवालों ने मुझे घेर लिया। मैंने वह तमाम मामला, जो मेरे और पंडित जी के दरमियान हुआ था, बयान कर दिया और तीसरे ही रोज मेरा इन्टरव्यू हिन्दुस्तान के तमाम अंग्रेजी और उर्दू अखबारों में छप गया।
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जोश जब खुशी खुशी लौट कर पाकिस्तान जाते हैं तो, उन्हे जो वहां जमीन, प्लॉट और कोठी मिली थी, उसे भी उन्हे छोड़ना पड़ता है। जो सपने नकवी साहब से उन्हे वहां दिखाए थे, वे सपने टूट गए और जोश को फिर से वहां खुद को स्थापित करने में जो कुछ भी झेलना पड़ा, पर आप आगे पढ़ेंगे। 
(क्रमशः)

विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh 

'जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (15) कुछ साल मायानगरी, बंबई और पूना में / विजय शंकर सिंह '.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/07/15.html

Saturday 22 July 2023

विभाजनकारी राजनीति का विरोध राजनीतिक स्तर पर ही हो सकता है / विजय शंकर सिंह

कुछ मित्र कह रहे हैं कि, मणिपुर की घटना शर्मनाक है और ऐसी तथा इस तरह की घटनाओ पर राजनीति नहीं की जानी चाहिए। इस घटना पर, कोई एजेंडा या नैरेटिव नहीं गढ़ा जाना चाहिए। लेकिन वे मित्र यह भूल जाते हैं,  मणिपुर जैसी वीभत्स घटनाएं, एक कुत्सित और विभाजनकारी राजनीति की ही देन हैं। देश में या दुनिया भर में ऐसी विभाजनकारी विचारधारा और राजनीति समाज को बांटने, जनता को प्रताड़ित करने और उनकी हत्यायें कर, नस्ली नरसंहार की भूमिका गढ़ती रही है। अपने ही देश में, अभी सौ साल भी नहीं पूरे हुए, चाहे वह, भारत विभाजन के समय मुस्लिम लीग, हिंदू महासभा और आरएसएस की द्विराष्ट्रवाद से प्रेरित राजनीति हो, या पश्चिमी देशों में, रंग के आधार पर रंगभेदी राजनीति या, अपने ही समाज में, गहरे तक पैठी दलित आदिवासी विरोधी मानसिकता, जैसे उदाहरण, हर रोज आपको मिल जाएंगे। मणिपुर का भी यही पैटर्न है। यह राजनीति के ही विविध आयाम हैं। 

विभाजनकारी विचारधारा पर आधारित, ऐसी राजनीति के परिष्कार के लिए, व्यापक जनहित में जवाबी राजनीतिक नैरेटिव गढ़े जाने चाहिए। वैचारिक और सैद्धांतिक आधार पर, ऐसी राजनीति अक्सर, शुचिता, संस्कृति, अतीतजीविता और गर्व के मायाजाल रचती है, पर उनका उद्देश्य न तो संस्कृति का उत्थान रहता है और न ही समाज को कोई सार्थक दिशा देना, बल्कि इनका उद्देश्य, जनहित और लोककल्याण से जुड़ी सोच और लोगों के खिलाफ लामबंद होकर एक ऐसी सत्ता की स्थापना में उत्प्रेरक का काम करना रहता है, जो जनविरोधी अर्थतंत्र और स्तरों पर आधारित वर्णवादी समाज की स्थापना के उद्देश्य से की जाने वाली राजनीति है। 

याद रखिए, ऐसी कुटिल राजनीतिक सत्ता का उद्देश्य ही है, लोककल्याण, समतामूलक समाज और समानतापूर्ण समृद्धि की बात करने वाले लोगों और सोच के खिलाफ खड़ा होना, उन्हे हतोत्साहित करना और अधिकांश समाज जो विपन्नता का दंश भोग रहा है, को, उसकी विपन्नता, उसकी नियति का परिणाम है, यह उसके मन मस्तिष्क में बैठा देना है। आज जिस, विभाजनकारी राजनीति और, पूंजी को कुछ चुने हुए हाथों में लगातार केंद्रित किए जाने के उद्देश्य से, तानाशाही मनोवृत्ति वाली सत्ता के नशे में, शासित सरकार के साए तले, ऐसी अमानवीय घटनाएं घट रही है तो, ऐसी राजनीति और सत्ता को उखाड़ फेंकने के लिए, खड़ा हो जाना, ही इस तरह की अमानवीयता का सीधा जवाब है। जब, यह कहा जाए कि, मणिपुर टाइप घटनाओं पर, राजनीति नहीं होनी चाहिए, और इनका विरोध एक राजनीतिक नैरेटिव है तो, रक्षात्मक मुद्रा में न आइए। मणिपुर निर्वस्त्र महिला कांड, जिस राजनीति का दुष्परिणाम है, उसके खिलाफ राजनीतिक स्टैंड लेना ही होगा। भटकाव उनका स्थायी भाव है, और धर्म तथा ईश्वर, उनकी आस्था नहीं, उनके कुटिल राजनीति के आधार हैं। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Friday 21 July 2023

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (15) कुछ साल मायानगरी, बंबई और पूना में / विजय शंकर सिंह

                  चित्र बंबई, 1947 में.

लखनऊ में, जोश मलीहाबादी का मुशायरों में शिरकत करने का कार्यक्रम जारी था। उनका मलीहाबाद जाना कम हो गया था। उनकी पत्नी जरूर जमींदारी का काम थोड़ा बहुत सभालती रहती थीं। जोश को एक मुशायरे में भाग लेने का दावतनामा मिला, और वे अपने दो अन्य शायर दोस्तो, उम्मीद अमेठवी और सागर निजामी के साथ बंबई रवाना हो गए। कुछ दिन बंबई में रहने के बाद यह शायर समूह, पूना शिफ्ट हो गया। तभी आजादी आई, देश बंटा और गांधी जी की हत्या जैसी महत्वपूर्ण घटनाएं हुई। इन सब घटनाओं के समय, जोश बंबई में ही रहे, लेकिन बाद में दिल्ली आ गए। 

अब उन्ही के शब्दों में पढ़े...
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उम्मीद अमेठवी और सागर निजामी को साथ लेकर जब उ में एक मुशायरे में शरीक होने बम्बई गया तो उसके दूसरे ही दिन शाम के वक़्त शालीमार पिक्चर्स पूना के मालिक अहमद साहब बन्ने (सज्जाद ज़हीर) के घर आए (हम लोग वहीं ठहरे हुए थे और हम लोगों का कलाम सुनने के बाद वह बन्ने मियाँ को दूसरे कमरे में उठाकर ले गए। देर तक बातें करने के बाद जब रुखसत हो गए तो बन्ने मियाँ ने मुझसे कहा कि अहमद साहब आपको और सागर साहब को अपने साथ रखना चाहते हैं। आप दोनों पर कोई पाबन्दी नहीं होगी। सिर्फ गाने लिख दिया कीजिएगा। आपका मुआवजा ग्यारह सौ तक और सागर का मुआवजा साढ़े पाँच सौ तक हाज़िर किया जाएगा। मैंने कहा, "यह पीने का वक्त है। इस वक्त इन बातों का मौक़ा नहीं, कल जवाब दूंगा। " सुबह को सागर ने मुझसे कहा कि अगर आप यह शर्त लगा दे कि मेरा और सागर का मुआवजा बिलकुल बराबर होगा तो चूँकि अहमद साहब की यह तमन्ना है कि आप उनके वहाँ काम करें, इसलिए, वह इस शर्त को मान लेंगे और मेरी ज़िन्दगी बन जाएगी।"

मैंने बन्ने से कहा कि मेरी यह शर्त है कि सागर को मेरे बराबर मुआवजा दिया जाए। अगर अहमद साहब इसे क़बूल नहीं करेंगे तो मैं उनकी यह पेशकश नामंजूर कर दूंगा।

अहमद साहब ने न चाहते हुए भी यह शर्त कबूल कर ली। थोड़े दिन के बाद हम लोग पूना आ गए और शंकर सेठ रोड के 'ताहिर पैलेस' में रहने लगे।

मैंने अपने दिल्ली के रहने वाले पंजाबी दोस्त मलिक हबीब अहमद और अपने दकनी दोस्त हबीबुल्ला रुशदी को भी शालीमार में मुलाजिम रखा दिया था। कृश्नचन्दर को भी अहमद साहब पूना खींच लाए थे, बेचारा जवांमर्ग शाम तिवारी, हमीद बट, ब्रजभूषण और भारत भूषण भी शालीमार में काम कर रहे थे। मेरे पुराने फौजी दोस्त मन्नान ख़ाँ रामपुरी भी तबादला पाकर पूना आ चुके थे और पूना के नये दोस्त कुद्दुस घड़ीवाले और मुहम्मद फ़सीह भी ऐसे दिलचस्प निकले कि रात की अक्सर बैठक उनके घर पर हुआ करती थीं। एक अच्छी खासी चंडाल चौकड़ी की सूरत निकल आई थी।

यहाँ मेरे एक लखपती दोस्त और भी थे 'मोलाडीना', जो तमाम वक़्त शराब पीते और दिल खोलकर लोगों की इमदाद किया करते थे। एक ख़ास सिलसिले में उन्होंने मेरी भी मदद की थी, जिसे मैं भुला नहीं सकूँगा।

वहीं सागर साहब का मुरादाबाद की एक साहबज़ादी से क़लम के जरिये इश्क भी चल रहा था और कुछ रोज़ के बाद यह साहबजादी ताहिर पैलेस में दुल्हन बनकर आ गई थीं।

पूने का हर दिन ईद हर रात शबे बरात थी हर आठवें दसवें दिन में बम्बई जाकर किसी के सौदर्यता की चौखट पर सजदा भी कर आता था लेकिन अहमद साहब की ग़लत अमली ने दो- ढाई साल के अन्दर वह सारा तिलिस्म तोड़ दिया। वह चुपचाप पाकिस्तान की तरफ कूच कर गए और हम सब लोगों के हाथों के तोते उड़ गए। वह सारा खेल मिट्टी में मिल गया।

पूना छोड़कर में बम्बई आ गया और बन्ने के खाली घर में रहने लगा। उस घर के एक कोने में मुमताज हुसैन, जो आजकल कराची के किसी कॉलेज में उर्दू के उस्ताद हैं, भी रहते थे, जहाँ सईदा के बच्चों और उनमें रोज़ कोई-न-कोई झगड़ा हुआ करता था। इसलिए मैं अपने एक बेतकल्लुफ़ मिलने वाले मिस्टर अब्दुल अजीज रामपुरी के जैकब सर्किल वाले खाली फ्लैट में उठ आया। उस जमाने में फ़िल्मी बाजार ठंडा पड़ा हुआ था। सागर हर दूसरे-तीसरे दिन मेरे पास आते और हम एक-दूसरे से पूछा करते थे कि ख़ाँ साहब अब होगा क्या?

मैं इसी आलम में एक रोज शाम के वक्त शराब पी रहा था कि बाजार में यकायक क़यामत का एक हंगामा शुरू हो गया और हर तरफ से मारो मारो की आवाज़ आने लगी। मैं बरामद में जाकर झांकने लगा कि देख मामला क्या है। इतने में किसी ने जोर-जोर से मेरे फ्लैट का दरवाजा खटखटाना शुरू कर दिया। मैंने भरी सोडे की बोतल हाथ में लेकर दरवाज़ा खोल दिया। दरवाजा खुलते ही एक जानी-पहचानी सूरत के हिन्दू ने बड़ी घबराहट के साथ कहा, "मिस्टर जोश, आप यहाँ से फ़ौरन किसी मुस्लिम मुहल्ले में चले जाएँ। किसी ने महात्मा गाँधी को गोली मार दी है। हिन्दुओं का ख़याल है कि यह काम किसी मुसलमान का है। मैं अपने बाल-बच्चों और बोतल को लेकर अपनी बेटी की सहेली रिफअत के मकान में, जो भिंडी बाज़ार में था, चला गया। वहाँ पहुँचा तो रेडियो पर जवाहरलाल का यह ऐलान सुना कि महात्मा गाँधी को एक हिन्दू मरहठे गोडसे ने गोली मारकर हलाक कर दिया है। अगर जवाहरलाल इस ऐलान में पाँच मिनट की भी देर कर देते तो लाखों मुसलमानों को कत्ल कर दिया जाता। दूसरे दिन मैं अपने फ्लैट में आ गया जिन्दगी तंगदस्ती में गुजरने लगी। एक दिन मैने देखा कि बीवी बेहद उदास बैठी है। पूछा, 'क्या बात है। " कहने लगी, "मेरे पास जो रुपया था, अब वह सुबकिया भर रहा है। जल्दी कोई सुबीता करो, नहीं तो खुदा न करे, धड़ाधड़ फाके होने लगेंगे।"

बीवी की इस उदासी पर मेरा दिल भर आया। दूसरे कमरे में लेटकर सो गया। जब आंख खुली तो देखा कि मेरा दामाद अल्ताफ एक अखबार लिए आ रहा है। उसने अखबार देकर कहा, "मामू, सरकारे हिन्द की अपने रिसाले आजकल के लिए एडीटर की जरूरत है। आपके वास्ते यह बेहतरीन मौका है। आप फ़ौरन दरख्वास्त रवाना कर दें और पं. जवाहरलाल नेहरू के पास उसकी नकल भेज दें। मैंने कहा, "बेटा दरख्वास्त तुम लिख लाओ, मैं दस्तखत कर दूंगा।" दामाद थोड़ी देर में दरख्वास्त लिखकर आ गया और वह दिल्ली भेज दी गई।

इसके दूसरे-तीसरे दिन इत्तफ़ाक़ से पं. जवाहरलाल नेहरू और मौलाना अबुल कलाम दोनों बम्बई आ गए। मैंने इसे एक अच्छा शगुन समझा और सीधा गवर्नमेंट हाउस पहुँच गया। मालूम हुआ कि पंडित जी और मौलाना कहीं बाहर गए हुए हैं और एक घंटे में पलट आएंगे। जी में आया, कुँवर महाराज सिंह से क्यों न मिल लूँ और खाली बैठकर इंतजार क्यों करू। पर्चे पर अपना नाम लिखकर भेजा। उन्होंने फौरन बुला लिया और पूछा, "खाँ साहब आप यहाँ कहाँ? मैंने कहा, "मैं तो आजकल बम्बई में रहता हूँ। उन्होंने कहा, "और फिर भी मुझसे कभी नहीं मिले?" मैंने कहा, "मैं इस वक्त पंडित जी से मिलने आया था। वह मौजूद नहीं इसलिए आपसे मिलने आ गया हूँ।" मगर फौरन ख़याल आया कि मैंने बड़ी बेतुकी बात कही है। यह सोचकर में झेंप गया। महाराज सिंह बड़े जहीन आदमी थे, भाँप गए और मुस्कुराकर कहने लगे, "आप पठानों की यही बात तो मुझे बहुत अच्छी लगती है कि जो बात आपके दिल में होती है, वहीं झट से ज़बान पर आ जाती है। मैंने कहा, "मैं अपनी बदहवासी की माफी चाहता हूँ।" उन्होंने कहा, मैं जिस बात की दिल से क़दर करता है, आप उसकी माफ़ी चाह रहे हैं। उसी वक्त मौलाना आगे आगे और पंडित जी पीछे-पीछे उनके कमरे में दाखिल हुए। मौलाना ने फक़त हाथ मिलाया और पंडित जी लपककर मेरे गले लग गए और छूटते ही पूछा- "जोश साहब, आजकल आप क्या कर रहे हैं?" मैने कहा, पंडित जी 'आजकल' के लिए दरख्वास्त देकर उसका इंतज़ार कर रहा हूँ। "
पंडित जी ने मुस्कुराकर कहा, "यह आजकल की उलट-फेर मेरी समझ में नहीं आई। "मौलाना आजाद ने लाल बुझक्कड बनकर। कहा, "मालूम होता है कि जोश साहब ने हमारे सरकारी रिसाले आजकल का जो इश्तहार निकला है, उसकी इदारत के वास्ते दरख्वास्त दी होगी। पंडित जी ने कहा, "तो फिर छठे रोज़ आप दिल्ली आ जाएँ, मैं बन्दोबस्त कर दूंगा।'

मौलाना आजाद ने कहा, "पंडित जी, यह महकमा सरदार पटेल का है। आप सोच-समझकर जोश साहब को दिल्ली बुलाएं।" पंडित जी ने कहा, "जोश साहब हमारे कंधे से कंधा मिलाकर ब्रिटिश सरकार से लड़ चुके हैं। पटेल को भी यह बात मालूम होगी और अगर नहीं मालूम होगी तो मैं उन्हें बता दूँगा। आप बड़े इत्मीनान के साथ दिल्ली आ जाएं।"
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दिल्ली से मलीहाबाद, फिर लखनऊ और लखनऊ से बंबई पूना, फिर वापस दिल्ली। नेहरू की कृपा जोश पर रही। लेकिन वे दिल्ली में ही कहां टिके। टिके तो मुल्क में भी नहीं। दो तीन मुशायरों में भाग लेने वे पाकिस्तान गए और फिर उन्ही मुशायरों में, उन्हे पाकिस्तान में ही, हिजरत कर आने की सलाह, उनके कुछ शायर मित्रो ने दे दी और, मलीहाबादी दशहरी की खुशबू और यादों को लिए दिए, जोश साहब, पाकिस्तान हिजरत कर गए। 

लेकिन यह मार्मिम और रोमांचक विवरण आप आगे पढ़ेंगे...
(क्रमशः)

विजय शंकर सिंह
Vijay Shanker Singh 

'जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (14) दिल्ली से मलीहाबाद और फिर लखनऊ / विजय शंकर सिंह ' 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/07/14.html


Thursday 20 July 2023

यौन शौषण के अपराध में दिल्ली पुलिस ने मुल्जिम की जमानत का विरोध क्यों नहीं किया / विजय शंकर सिंह

पहले यह खबर पढ़े...
"कुश्ती महासंघ के प्रमुख बृजभूषण को जमानत दी जानी चाहिए या नहीं, इस पर दिल्ली पुलिस ने कोई ठोस रुख अपनाने से इनकार कर दिया। दिल्ली पुलिस का कहना है, "हम उसकी जमानत का उचित विरोध नहीं कर रहे हैं... न ही हम इसका समर्थन कर रहे हैं। हम इसे अदालत के विवेक पर छोड़ते हैं।"

जिस यौन शौषण के मामले को लेकर, पूरे दिल्ली और जंतर मंतर में हंगामा रहा, देश विदेश से, सरकार को जलालत भरी प्रतिक्रिया सुननी पड़ी, जिस मामले में, पीड़िता की एफआईआर तब दर्ज हुई जब सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया, और उस एफआईआर पर तब तक कार्यवाही नहीं हुई, जब तक, पीड़िता ने, पुलिस की निष्क्रियता से ऊब कर पॉस्को का केस वापस नहीं ले लिया, उसी मामले में, दिल्ली पुलिस, मुल्जिम के साथ खड़ी नजर आ रही है। 

पुलिस ने, मुल्जिम की जमानत अर्जी का विरोध नहीं किया। वह निरपेक्ष बनी रही। ऐसी निरपेक्षता, वास्तव में, अपराध की पक्षधरता होती है। अब तक पुलिस द्वारा अभियुक्त की जमानत के पुरजोर विरोध करने की परंपरा रही है। जमानत मिलने के बाद भी, उसे रद्द कराने के लिए उच्चतर अदालतों में, अपील की जाती रही है। पुलिस का ध्येय ही यह होता है कि, मुल्जिम को किसी भी दशा में, जमानत न मिले, और जमानत स्वीकृति के बाद भी जमानतदारों के वेरीफिकेशन के बहाने कोशिश करती है कि, मुल्जिम कुछ दिन तो जेल में रहे। जमानत न देने के लिए मैजिस्ट्रेट से विशेष अनुरोध भी, अदालत में, सरकारी वकील कर रहते हैं। 

पर यहां, पुलिस जमानत के न तो विरोध में है, और न ही समर्थन में। बड़ी मासूमियत से लिए गए इस स्टैंड को, सीधे सीधे डिकोड करें तो, दिल्ली पुलिस का स्टैंड यही दिख रहा है, "हुजूर जमानत दे दें, हम तो कुछ कह ही नहीं रहे हैं।" फिर हुजूर को क्या पड़ी है कि, वह जमानत न दें। क़ाज़ी, क्यों हो भला दुबला, शहर के अंदेशे से। दुबला, मोटा हो, तो कोतवाल हो। और कोतवाल तो मुल्जिम के पक्ष में खड़ा है। 

कल जो, गुस्से में होकर सुभाषित बोल रहे थे कि, किसी गुनहगार को छोड़ा नहीं जाएगा, उन्ही की जेरे साया, यह मुल्जिम महोदय,  माननीय सांसद जी, सेंगोल को मूर्धाभिषिक्त होते हुए, कुछ हफ्ते पहले देख रहे थे। यह न्यू इंडिया है। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

Wednesday 19 July 2023

घर के एक कमरे में आग लगी है और हुकूमत दूसरे कमरे में सो रही है / विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट ने आज, 20/07/23, गुरुवार को उस भयावह वीडियो पर स्वत: संज्ञान ले लिया है, जिसमें मणिपुर में दो महिलाओं को नग्न अवस्था में घुमाने और राज्य में जातीय संघर्ष के बीच यौन हिंसा का शिकार होते दिखाया गया है। कोर्ट ने राज्य सरकार से, अपराधियों को कानून के दायरे में लाने के लिए उठाए गए कदमों की जानकारी तलब की है। 

सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ ने आज सुबह भारत के अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमणी और भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता को अदालत में  उपस्थिति होने को कहा। आज जब अदालत बैठी तो, तो एजी और एसजी को संबोधित करते हुए, सीजेआई ने कहा: "हम उन वीडियो से बहुत परेशान हैं, जो कल मणिपुर में दो महिलाओं की परेड के बारे में सामने आए हैं। हम, आपसे अपनी गहरी चिंता व्यक्त कर रहे हैं। अब समय आ गया है कि सरकार वास्तव में कदम उठाए और कार्रवाई करे। यह स्थिति बिल्कुल अस्वीकार्य है।"

सीजेआई ने कहा, "सांप्रदायिक संघर्ष के क्षेत्र में लैंगिक हिंसा भड़काने के लिए महिलाओं को साधन के रूप में इस्तेमाल करना, एक बेहद परेशान करने वाला ट्रेंड है। यह मानवाधिकारों का सबसे बड़ा उल्लंघन है।"  
सीजेआई ने कहा कि कोर्ट इस तथ्य से अवगत है कि वीडियो 4 मई का है लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।

"हम सरकार को कार्रवाई करने के लिए थोड़ा समय देंगे अन्यथा हम हस्तक्षेप करेंगे,"सीजेआई ने अपराधियों के खिलाफ मामला दर्ज करने के लिए मई के बाद से अधिकारियों द्वारा की गई कार्रवाई का विवरण पूछने के बाद चेतावनी दी और यह सुनिश्चित करने को कहा कि, "इसकी पुनरावृत्ति न हो।" 
सीजेआई ने कहा, "कौन जानता है कि यह अलग-थलग या अकेला मामला था या कोई पैटर्न है।"

सीजेआई ने अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल से कहा कि, "अदालत अगले शुक्रवार को मणिपुर हिंसा से संबंधित चल रहे मामलों में विचार के लिए इस मुद्दे पर ध्यान दे रही है।"

सीजेआई ने निम्नलिखित आदेश दिया, 
"न्यायालय मणिपुर में महिलाओं पर यौन उत्पीड़न और हिंसा के अपराध के बारे में कल से मीडिया में दिखाई देने वाले वीडियो के दृश्यों से बहुत परेशान है। हमारा विचार है कि न्यायालय को अपराधियों को जवाबदेह ठहराने के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कदमों से अवगत कराया जाना चाहिए और यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि मणिपुर में संघर्ष में ऐसी घटनाएं दोहराई न जाएं। मीडिया में दिखाए गए दृश्य गंभीर संवैधानिक उल्लंघन और मानवाधिकारों के उल्लंघन को दर्शाते हैं। हिंसा को अंजाम देने के लिए महिलाओं को साधन के रूप में उपयोग करना संवैधानिक लोकतंत्र में तनावपूर्ण माहौल बिल्कुल अस्वीकार्य है। हम केंद्र और राज्य सरकार को निर्देश देते हैं कि वे अदालत को यह बताने के लिए तत्काल कदम उठाएं कि क्या कार्रवाई की गई है।''

मणिपुर कैडर में आईपीएस रहे, एक वरिष्ठ सहकर्मी का कहना है कि, मणिपुर में राज्यपाल, मुख्यमंत्री, राज्यपाल के सुरक्षा सलाहकार और डीजीपी, केवल दफ्तरों में बैठ कर, हालात का जायजा ले रहे हैं और हालात, जबरन निर्वस्त्र कराए बेबस महिला की तरह, हो चुके हैं। न तो, वे ग्रामीण क्षेत्रों में घटनास्थल का दौरा करते हैं और न ही ऐसे अवसर पर सामने आ कर, सुरक्षा बल का मार्गदर्शन ही कर रहे हैं।जमीन पर, सब कुछ,  कनिष्ठ अधिकारियों और केंद्रीय अर्धसैनिक बलों जैसे असम राइफल्स या बीएसएफ आदि पर छोड़ दिया गया है। 

इसका असर, सुरक्षा बलों की मनोदशा और उनके मनोबल पर पड़ रहा है। डीजीपी के पद पर रह चुके, उक्त आईपीएस अफसर का कहना है कि, जब तक कि वरिष्ठ पुलिस अधिकारी, सामने आकर, आक्रामक नेतृत्व नहीं संभालते हैं, तब तक, स्थिति में कोई सुधार नहीं आएगा। 

मणिपुर, अब एक सामान्य कानून व्यवस्था का मामला नहीं रहा। यह एक राज्य के लगभग पूरी तरह से अराजक हो जाने का मामला है। यह आग, आगे भी फैलेगी और इस बात की आशंका जताई जा रही है कि, नॉर्थ ईस्ट के अन्य राज्य भी इसी प्रकार की जातीय हिंसा में झुलस सकते हैं। प्रधानमंत्री जी, खामोश है। गृहमंत्री, के लिए प्राथमिकता, राजनीतिक गुणाभाग है। मुख्यमंत्री की कोई जिम्मेदारी अब कानून व्यवस्था को लेकर नहीं है, क्योंकि राज्य में अनु.355 लागू है। 

अनु.355 के बाद, जिम्मेदारी भारत सरकार के गृह मंत्रालय, राज्यपाल और अन्य अफसरों की है। और जिम्मेदारी का आलम, आप एक निर्वस्त्र महिला के परेड के रूप में देख सकते है। नौकरी में अनेक वीभत्स दृश्य देखने के अनुभव के बाद भी मैं वह वीडियो यहां नहीं डाल पाऊंगा। 

एक कमरे में आग लगी है, और हम सब दूसरे कमरे में आराम से पसरे हुए खबरें देख रहें हैं, सो रहे है, और यह स्थिति, दुखद है, शर्मनाक है और निंदनीय है। प्रधानमंत्री, गृहमंत्री को, तत्काल इस स्थिति से निपटने के लिए मणिपुर में ही ऑल पार्टी मीटिंग करनी चाहिए और कानून व्यवस्था के मुद्दे से ऊपर उठ कर, जातीय वैमनस्यता का समाधान ढूंढना चाहिए। इस बात की भी पड़ताल होनी चाहिए कि, आखिर स्थिति इस हद तक कैसे पहुंच गई और इसके लिए जिम्मेदार कौन है?

पत्रकारिता का स्तर यह है कि, सरकार के माउथ पीस के रूप मे स्थापित हो चुका गोदी मीडिया, बोल रहा है कि, पवित्र सावन महीने में संसद का सत्र चलेगा। इसी पवित्र सावन महीने में मणिपुर में एक महिला को निर्वस्त्र कर सड़क पर घुमाये जाने की शर्मनाक खबरें आ रही है। इन खबरों पर, गोदी मीडिया मौन है। न सरकार से कोई सवाल न जवाब, न बहस न डिबेट। बस, खबरों को छिपाना और जनता को सच से दूर रखना। संविधान के अनुछेद 355 के अंतर्गत आ जाने के बाद, मणिपुर की क़ानून व्यवस्था की जिम्मेदारी, अब केंद्र के हाथों में है। क्या गृहमंत्री को, ऐसी शर्मनाक घटना के बाद, अपने पद से इस्तीफा नहीं दे देना चाहिए ? 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 


Sunday 16 July 2023

जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (14) दिल्ली से मलीहाबाद और फिर लखनऊ / विजय शंकर सिंह

जोश मलीहाबादी का अखबार, कलीम, चार साल चला और फिर वह बंद हो गया। जोश ने उस अखबार को, लखनऊ के एक अन्य, अखबार, नया अदब में मिला दिया और खुद, दिल्ली से, अपने घर मलीहाबाद के लिए चल पड़े। मलीहाबाद में, पत्नी के जोर देने पर, उन्होंने आम के बाग लगवाए, और अपनी जमींदारी में रहने लगे। मलीहाबाद में, जोश को आराम ही आराम था। जमीदारना जिंदगी और देहात का प्राकृतिक परिवेश। इन सबके बीच वे अपना अदबी अभ्यास जारी रखे हुए थे। 

लेकिन कमी थी तो बौद्धिक खुराक की। मलीहाबाद में, जोश के साथ, न तो हम प्याले थे और न ही साहित्य के श्रोता और पारखी। कुछ महीने रह कर, जोश फिर लखनऊ आ गए और फिर जाम लड़ने लगे, सागर छलकने लगे, और अदब की सरिता बहने लगी। लखनऊ में, जोश साहब की कोठी भी थी। लखनऊ से मलीहाबाद, था ही कितना दूर, रेल भी थी। जोश, बीच, बीच में, जमींदारी देखने, या मिजाज बदलने चले जाया करते थे। 

इसी बीच दूसरा विश्वयुद्ध छिड़ गया। देश का राजनीतिक माहौल बदल रहा था। जोश की कलम, इंकलाब के तराने लिखने लगी। उन्होंने एक ऐसी नज़्म लिख दी कि, सरकार के निशाने पर आ गए। उनकी निगरानी हुई, खाना तलाशी हुई, उनसे कहा गया अंग्रेजी राज के खिलाफ न लिखें। जोश नही माने। फिर कहा गया, हिटलर मुसोलिनी के खिलाफ लिखिए। जोश ने कहा, "इस समय, हिटलर मुसोलिनी के खिलाफ लिखना, ब्रिटिश को लाभ पहुंचाएगा।" इंकलाब लिखते रहे वे, और इंकलाब की आमद हो भी रही थी। 

अब आगे का हाल, उन्ही के शब्दों में...
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बीवी तुल गई आमों के बाग लगवाने पर और ऐसी तुल गई कि खाना पीना दूभर कर दिया। हर आन यह रट लग गई कि बाग़ लगयाओं और जब तक बागों में कलम न लग जाएं कलम न उठाओ। मैंने उसी जमाने में एक तवील ड्रामाई नज्म 'हर्फे आखिर शुरू की थी। उन्होंने वह नज्म भी नहीं कहने दी।

तंग आकर मैंने मातादीन पटवारी को बुलाया। उसने कहा, मंझले भैया, अब कानून बदल गया है। आप किसी काश्तवार को बेदखल करके उससे जमीन नहीं निकाल सकते। और जब जमीन नहीं निकल सकेगी तो बाग़ कैसे लगेगा?" 

मातादीन की बात सुनकर में बाग बाग हो गया कि चलो एक मुसीबत कट गई। मैं खुशी खुशी बीवी के पास गया और झूठ-मूठ का गमगीन चेहरा बनाकर पटवारी की बात दोहरा दी। लेकिन बीवी निराश नहीं हुई। मुझे और पटवारी को साथ लेकर गांव गई। थाने के सामने काश्तकारों को जमा करके पटवारी से
कहा, "पूछो काश्तकारों से, कि मझले भैया ने क्या तुम पर कभी जुल्म ढाया है? तुम पर लगान वसूली करने में कभी सख्ती की है. तुमसे कभी बेगार लिया है?" और जब मातादीन ने वह तमाम सवाल किए तो हर तरफ से आवाजें आने लगी- नाही नाही, नाहीं कभू नाहीं। फिर बीबी ने कहा, "मातादीन, पूछो, अगर भैया बाग लगवाने के लिए तुमसे थोड़ी-थोड़ी जमीन माँगें तो क्या तुम नहीं दोगे?" सारी रिआया ने एकजुबान होकर कहा- दीबा, दीया, अभू अभू दीबा, गले-गले दीया। 

इसके बाद मातादीन ने इस्तीफे निकाले और काश्तकारों ने धड़ाधड़ अँगूठे लगाने शुरू कर दिए। जब तमाम इस्तीफे मुकम्मल हो गए तो बीवी ने मुझसे कहा, "अब तुम इनका शुक्रिया अदा कर दो।" जब में शुक्रिया अदा करने खड़ा हुआ तो तमाम काश्तकार रोने लगे- भैया, हम तो तुम्हारी पनही हैं, अस न करौ (भैया, हम तुम्हारी जूती है, ऐसा न करो)।

बीबी ने मिठाई तकसीम की और रिआया ने मझले भैया की जय के नारे लगाए। दो-तीन महीने के अन्दर आम के बाग़ लग गए और बीवी निहाल हो गई।

यह सच है कि मलीहाबाद में बेहद शान्ति थी, सूर्योदय और सूर्यास्त के दृश्य, अमीनागंज के मैदान की ख़ालिस हवाएं, बौर की खुशबू, कोयल की कू-कू और पपीहे की पीहू थी और लिखने-पढ़ने की फुरसत। लेकिन जब शाम को शराब पीने की इबादत शुरू करता था तो दोस्तों को आँख ढूंढ़ने लगती थी, और चूँकि

ज़ाहिद की नमाज हो कि मैकश की शराब
दोनों का मजा है बाजमाअत साक्री ।

इस तनहाई से तंग आकर में शायद 1941 में फिर लखनऊ आकर रहने लगा। एक रोज जब में अपनी बनारसी बाग के फाटक के सामने वाली कोठी में बैठा लखनऊ के गवर्नर की तक़रीर रेडियो घर सुन रहा था, जिसमे हिन्दुस्तानियों से अपील की गई थी कि, वे इंसानियत के भविष्य को बचाने की खातिर जंग में ब्रिटेन की मदद पर कमरबस्ता हो जाएं, उस वक्त मैंने अपनी नज़्म 'ईस्ट इंडिया कम्पनी के फरजदों से खिताब' पन्द्रह मिनट में कह डाली
थी।

इस नाम का छपना था कि आग लग गई। लोग जुलूस बना-बनाकर निकले और उसे गली-गली गाते फिरने लगे। आगे-आगे वे लोग होते थे और पीछे-पीछे पुलिस। मेरी यह नज्म जब बर्लिन रेडियो से ब्रॉडकास्ट हुई तो मेरी सख्त निगरानी होने लगी और मेरी कोठी से मिली हुई दूसरी कोठी में एक सी. आई.डी. इंस्पेक्टर मेरी दिन रात की निगरानी के वास्ते आकर रहने लगा। एक दिन सह पहर के वक्त पुलिस ने मेरी कोठी पर धावा बोल दिया और एक हिन्दू इंस्पेक्टर के नेतृत्व में दस-पन्द्रह कास्टेबल आ धमके, मेरी खाना तलाशी के लिए। इंस्पेक्टर से मैने कहा, "जनाब, मेरा घर खुला हुआ है। आप शौक से एक-एक कोना छान डालें। " इंस्पेक्टर ने सरगोशी के अंदाज़ में कहा, "मैं आपको ऐसी उम्दा नज्म लिखने पर मुबारकबाद देता हूँ। मैं आपके घर की तलाशी नहीं लूंगा और सिर्फ कानूनी कार्रवाई करके चला जाऊँगा।" मैंने कहा, पुलिस में रहकर आप इस क़दर शरीफ़ हैं, बड़े तअज्जुब की बात है। " उसने कहा, "मैं अपने बच्चों का पेट पालने के लिए मजबूरन नौकरी करता हूँ। मगर मैने ज़मीर नहीं बेचा है, मेरा दिल आप लोगों के साथ है।" वह एक मेज पर सर झुकाकर कानूनी खानापूरी के वास्ते कुछ लिखने लगा। इंस्पेक्टर की मशगूलियत से फायदा उठाकर एक मुसलमान हैड कांस्टेबल ने मेरी टाइमपीस उठाकर जेब में रख ली चोरी उसने की, मैने शर्माकर सर झुका लिया।

कानूनी कार्रवाई मुकम्मिल करके जब इंस्पेक्टर रुखसत होने लगा, मैने उसका शुक्रिया अदा किया। हिन्दू की शराफ़त और मुसलमान की कमीनगी देखकर मुझको दाँतों पसीना आ गया, 

कोई हद ही नहीं इस एहतरामे आदमीयत की 
बंदी करता है दुश्मन और हम शर्माए जाते हैं

मैंने इस घटना पर एक नज़्म कहकर छपवा दी, जो छपते ही जब्त कर ली गई। चूंकि वह नज्म मेरे किसी संग्रह में नहीं है, इसलिए यहां नकल दिए देता है-

जिससे उम्मीदों में बिजली आग अरमानों में है 
ऐ हुकूमत, क्या यह शै इस मेज के खानों में है? 

बंद पानी में सफीने खे रही है किसलिए? 
तू मिरे घर की तलाशी ले रही है किसलिए? 

घर में दरवेशों के क्या रखा हुआ है, बदनिहाद 
आ, मिरे दिल की तलाशी ले कि बर आए मुराद।

जिसके अंदर दहशते पुरहौल तूफानों की हैं, 
जिसमें ग़लता आँधियाँ अंधे बयाबानों की हैं।
 
जिसके अन्दर नाग है, ऐ दुश्मने-हिन्दोस्ता 
शेर जिसमें हाँकते हैं, काँधती हैं बिजलियाँ 

छूटती हैं जिससे नब्ज़े अफसर- औरंग की 
जिसमें है गूँजी हुई आवाज़ तब्ले-जंग की 

जिसके अन्दर आग है, दुनिया पे छा जाए वो 
आग नारे दोजख को पसीना जिससे आ जाए 

वह आग मौत जिसमें देखती है मुँह उस आईने को 
देख मेरे घर को देखती क्या है, मिरे सीने को देख !!

इसके बाद मैंने आग़ाई साहब के इमामबाड़े में एक मुसद्दस (छह पंक्तियों वाली कविता) पढ़ा हुसैन और इंकलाब' के नाम से। जिसे सुनने के लिए पूरा अदबी लखनऊ टूट पड़ा था।  इमामबाड़े में तिल धरने को भी जगह न थी। लखनऊ के तमाम शायर तमाम उस्ताद, यहाँ तक कि मौलाना सफी भी तशरीफ लाए, और मजलिस में सिर्फ शिया ही नहीं अहले सुन्नत और हिन्दू भी शरीक हुए थे।

चूंकि इस मुसद्दस में रोने-पीटने पर जोर देने के बजाय हुसैन के चरित्र और बलिदान पर अमल करने की बात बिलकुल पहली बार कही गई थी इसलिए अहले-मजलिस ने आमतौर पर और अहले- सियासत ने खासतौर पर बार-बार खड़े होकर इस जोशो-खरोश के साथ दाद दी थी कि उनकी आवाज़ों के थपेड़ों से मंच में, जुम्बिश पैदा हो गई और ऐसा मालूम हो रहा था कि श्रोता अपने-अपने गरबान फाडकर मैदाने जंग में कूद पड़ेंगे। 

हुकूमत के कान तक यह शोर पहुँचा तो उसने शिया खान साहबों, खान बहादुरों और 'सरों को तलब करके यह हिदायत की कि वे ऐसी कोई तदबीर निकालें कि इस मुसदस का असर दूर हो जाए। अपने आका का हुक्म सुनकर उन्होंने मशविरा किया और ये तमाम लखनऊ के सबसे बड़े धार्मिक विद्वान सैयद नासिर हुसैन साहब क्रिबला की ख़िदमत में हाज़िर हुए और उनसे कहा कि अहले मजलिस ने आमतौर पर और बानी -ए-मजलिस हकीम साहब आलम ने खासतौर पर हमारे दीन की तौहीन की है और मिम्बरे हुसैन घर जोश जैसे शराबी को बिठाकर मिम्बर की बेइज्जती की है। इसलिए आप उस मजलिस के झूठ होने का फतवा सादर फ़रमा दें।

किबला-जी-काबा ने मुझे बुलवा भेजा और चायनीशी के बाद अपने बाई तरफ एक मुसल्ला' बिछवाकर इरशाद फ़रमाया कि जोश साहब, जहमत न हो तो मुसल्ले पर बैठकर अपना वह मुसद्दस सुना दें, जो आपने आग़ाई साहब के इमामबाड़े में पढ़ा था तो हुकूमत के एजेंटों की सफ़ों में एक खलबली और बौखलाहट पैदा हो गई थी और जब में वह मुसद्दस पढ़कर अपनी जगह वापस आ गया तो उन्होंने सरकारपरस्तों की टोली की तरफ देखकर इरशाद फ़रमाया कि आप हजरात ने यह हदीसे मुबारक सुनी होगी, जिसका मतलब है कि जब तुम सुक्र (नशे) में हो तो नमाज़ के क़रीब न फटको, इससे यह बात साबित हो जाती है कि पीनेवालों को होश के आलम में नमाज पढ़ने से रोका नहीं गया है और इससे यह नतीजा निकलता है कि अगर कोई शख्स नशे के आलम में नहीं है तो वह मिम्बरे हुसैन पर भी बैठ सकता है और मस्जिद में दाखिल होकर नमाज भी पढ़ सकता है।

यह सुनते ही सरकारपरस्तों का रंग एक हो गया।

इस मुसद्दस का अंग्रेजी अनुवाद जब मिस्टर मार्श मुशीरे-गवर्नर के ध्यान से गुजरा तो उन्होंने मुझे बुला भेजा और बड़े मुहब्बत भरे अन्दाज़ में कहा, "मैंने जब आपकी नज़्म 'हुसेन और इनकलाब' का अनुवाद पढ़ा तो आपके बारे में यह राय कायम की कि आप हक के पुजारी और झूठ के दुश्मन है और अब मैं आपसे यह सवाल करता हूँ कि मुसोलिनी और हिटलर दोनों इस वक्त यजीद का पार्ट अदा कर रहे हैं या नहीं?" जब मैंने कहा कि "बेशक आप सच कह रहे हैं," तो उन्होंने दूसरा सवाल किया कि "अगर मैं आपसे दरख्वास्त करूँ कि आप इन यजीदों के खिलाफ ऑल इंडिया रेडियो से हर हफ्ते एक नज्म ब्रॉडकास्ट करते रह (जिसके मुआवजे में यू.पी. सरकार आपको आठ सौ रुपये महीना ऑनरेरियम दिया करेगी) तो आप इस 'ऑफर' को कुबूल नहीं कर लेंगे?"

मैंने कहा, "मिस्टर मार्श, में किसी ऑनरेरियम के बगैर आपके इरशाद को मान लेता; मगर क्या करूँ अपने उसूल से मजबूर हूं। कांग्रेस ने इस जंग में आपका हाथ बंटाने की जो शर्तें पेश की थी, आपकी हकूमत ने उन्हें नहीं माना।" मार्श ने मेरी बात काटकर कहा, "मैं आपसे हुकूमत के मदद की दरख्वास्त नहीं कर रहा हूँ, मैं सिर्फ इतना चाहता हूँ कि आप मुसोलिनी और हिटलर को बेनकाब करें।" मैने कहा, "अगर में ऐसा करूँगा तो इसका जो ग्रांड टोटल निकलेगा वह आपकी हुकूमत के मनमुताबिक ही होगा।

मार्श यह सुनकर कुछ देर के लिए तो खामोश हो गए। फिर अपनी ऐनक की ताल साफ़ करके वह बड़े जोश के साथ खड़े हो गए। मैं समझा वह मुझ पर हमला करेंगे। मैं भी जवाबी हमले के वास्ते खड़ा हो गया।

लेकिन वह मेरे करीब आए और मेरी पीठ ठोंककर कहने लगे, "वंडरफुल यंगमैन! आपके इनकार ने मेरे दिल में, आपकी इज्जत कायम कर दी। आप अपने बाप की मानिंद बड़े आदमी है। आपको देखकर मैंने अपनी इस राय में तब्दीली कर ली है कि हिन्दुस्तान की ज़मीन कैरेक्टर पैदा नहीं करती। अगर आपको कभी मेरी जरूरत पड़े तो मुझे याद कर लीजिएगा।" यह कहकर वह मुझे बरामदे तक रुखसत करने आए और बराबर मुस्कुराते रहे।
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लखनऊ भी वे अधिक दिन नहीं रहे। उन्हे फिल्म नगरी बंबई से बुलावा आया और वे बंबई चले गए। चले तो गए, पर वहां भी, वह टिक न सके। यह सब आप आगे पढ़ेंगे...

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 

'जोश मलीहाबादी की आत्मकथा, यादों की बारात का अंश (13) दिल्ली आगमन और कलीम, अखबार का संपादन / विजय शंकर सिंह '
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2023/07/13.html

राहुल गांधी ने, मानहानि मामले में सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की / विजय शंकर सिंह

कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने 'मोदी-चोर' टिप्पणी के आपराधिक मानहानि मामले में मिली, अपनी सजा पर रोक लगाने से,  गुजरात उच्च न्यायालय द्वार इनकार कर दिए जाने के बाद, सबंधित फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक विशेष अनुमति याचिका दायर कर दी है। इस मामले में, उन्हे 2 साल की सजा हुई है, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें संसद सदस्य के रूप में अयोग्य घोषित कर दिया गया है। 

उनकी याचिका में दिए गए मुख्य विंदु इस प्रकार हैं:

1. 'मोदी' एक अपरिभाषित अनाकार समूह: 

भारतीय दंड संहिता की धारा 499/500 के तहत मानहानि का अपराध केवल एक परिभाषित समूह के संबंध में ही दायर हो सकता है।  'मोदी' एक अपरिभाषित अनाकार समूह है जिसमें लगभग 13 करोड़ लोग देश के विभिन्न हिस्सों में रहते हैं और वे, विभिन्न समुदायों से संबंधित हैं।  आईपीसी की धारा 499 के तहत 'मोदी' शब्द व्यक्तियों के संघ या संग्रह की किसी भी श्रेणी में नहीं आता है।

2. टिप्पणी शिकायतकर्ता के खिलाफ नहीं थी: गांधी ने टिप्पणी की, 

"सभी चोरों का उपनाम एक जैसा क्यों होता है?"  ललित मोदी और नीरव मोदी का जिक्र करने के बाद.  टिप्पणी विशेष रूप से कुछ निर्दिष्ट व्यक्तियों को संदर्भित कर रही थी और शिकायतकर्ता, पूर्णेश ईश्वरभाई मोदी को उक्त टिप्पणी से बदनाम नहीं किया जा सकता है, जिसे विशिष्ट व्यक्तियों के संदर्भ में एक विशिष्ट संदर्भ में संबोधित किया गया था।

3. शिकायतकर्ता ने यह नहीं बताया कि वह, इस टिप्पणी से, कैसे प्रभावित हुआ: 

पहला, शिकायतकर्ता के पास केवल गुजरात का 'मोदी' उपनाम है, जिसने यह नहीं बताया है कि, वह कैसे प्रभावित हुआ। 
दूसरा, यह आरोप, किसी विशिष्ट या व्यक्तिगत अर्थ में पूर्वाग्रहग्रस्त या क्षतिग्रस्त होने के कारण लगाया गया है।  
तीसरा, शिकायतकर्ता ने स्वीकार किया कि, वह मोढ़ वणिका समाज से आता है। और यह शब्द मोदी के साथ विनिमेय नहीं है और मोदी उपनाम विभिन्न जातियों में भी मौजूद है।

4. बदनाम करने का कोई इरादा नहीं: 

यह टिप्पणी 2019 के लोकसभा अभियान के दौरान दिए गए एक राजनीतिक भाषण का हिस्सा थी और शिकायतकर्ता को बदनाम करने का कोई इरादा नहीं था।  इसलिए अपराध के लिए, जरूरी मानवीय कारण का अभाव है।

5. उच्च न्यायालय ने यह मानने में गलती की कि अपराध के लिए कठोरतम सजा की आवश्यकता है: 

लोकतांत्रिक राजनीतिक गतिविधि के दौरान आर्थिक अपराधियों और प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी की आलोचना करने वाले एक राजनीतिक भाषण को नैतिक अधमता का कार्य माना गया है।  कठोरतम सज़ा.  इस तरह की खोज राजनीतिक अभियान के बीच में लोकतांत्रिक और स्वतंत्र अभिव्यक्ति और भाषण के लिए गंभीर रूप से हानिकारक है। यह किसी भी प्रकार के, राजनीतिक संवाद या बहस को मिटा देने वाली एक विनाशकारी मिसाल कायम करेगी जो लोकतांत्रिक आलोचना की स्वतंत्रता के लिए घातक होगी। 

6. अपराध में कोई नैतिक अधमता शामिल नहीं: 

अपराध में कोई नैतिक अधमता शामिल नहीं है।  शब्द "नैतिक अधमता" प्रथम दृष्टया ऐसे अपराध पर लागू नहीं हो सकता जहां विधायिका ने केवल 2 साल की अधिकतम सजा का प्रावधान करना उचित समझा।  यह अपराध जमानती और गैर-संज्ञेय भी है और इसलिए इसे "जघन्य" नहीं माना जा सकता।

निम्न त्रिस्तरीय परीक्षण यह निर्धारित करता है कि, कोई अपराध नैतिक अधमता के बराबर है या नहीं:

० क्या यह कृत्य सामान्य रूप से समाज की नैतिक चेतना को झकझोरता है?
० क्या इस कृत्य के पीछे का उद्देश्य आधारहीन है? 
० क्या उस कृत्य के कारण उस व्यक्ति को भ्रष्ट चरित्र का माना जा सकता है या समाज द्वारा हेय दृष्टि से देखा जाने वाला व्यक्ति माना जा सकता है?

जहां तक ​​पहले परीक्षण का संबंध है, कथित तौर पर पीड़ित एकमात्र व्यक्ति शिकायतकर्ता है।  इसलिए "सामान्य रूप से समाज की नैतिक चेतना" को झकझोरने वाले अपराध का कोई सबूत नहीं है।

अधिक से अधिक, याचिकाकर्ता का भाषण एक ऐसा मामला था जहां राजनीतिक व्यंग्य के हिस्से के रूप में आर्थिक अपराधियों और सरकार में शक्तिशाली पदों पर बैठे लोगों के बीच संबंध स्थापित करने की मांग की गई थी।  यदि राजनीतिक व्यंग्य को "आधार मकसद" माना जाए, तो कोई भी राजनीतिक भाषण जो सरकार, या किसी अन्य राजनीतिक दल के प्रति  आलोचनात्मक हो या जिसमे, उक्त राजनीतिक भाषण के दौरान वाक्यांशों का एक मोड़ शामिल हो, तो हर भाषण में, नैतिक अधमता का विंदु ढूंढ निकाला जाएगा। यह प्रवृत्ति, लोकतंत्र की नींव को पूरी तरह से कमजोर कर देगी।'

भ्रष्टता और नीचता, जो नैतिक अधमता के आवश्यक मूल हैं, बलात्कारियों, हत्यारों, जघन्य हिंसा और ऐसे ही अन्य अपराधों से जुड़ते हैं।  राजनीतिक संदर्भ में दिए गए व्यंग्यपूर्ण बयान को नैतिक रूप से भ्रष्ट कृत्य नहीं माना जा सकता।

7. याचिकाकर्ता और उसके निर्वाचन क्षेत्र को हुई अपूरणीय क्षति: 

याचिकाकर्ता के खिलाफ अधिकतम दो साल की सजा दिए जाने के परिणामस्वरूप, जो कि एक आपराधिक मानहानि मामले में अपने आप में, एक दुर्लभ उदाहरण है, वह, अपने संसदीय क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करने वाले सांसद के रूप में अयोग्य हो गये हैं। वायनाड निर्वाचन क्षेत्र, जहां से उन्होंने 4.3 लाख से अधिक वोटों के उल्लेखनीय अंतर से जीत हासिल की थी।  दोषसिद्धि पर रोक न होने से याचिकाकर्ता, एक प्रमुख विपक्षी आवाज, को भविष्य में चुनाव लड़ने से रोका जा सकता है।

8. उच्च न्यायालय ने दोषसिद्धि पर रोक लगाने के लिए बुनियादी मानदंडों की अनदेखी की: 

अच्छी तरह से स्थापित उदाहरणों के अनुसार, दो बुनियादी सिद्धांत दोषसिद्धि के निलंबन का मार्गदर्शन करते हैं - 

(1) इसमें कोई गंभीर अपराध शामिल नहीं है जो मौत, आजीवन कारावास या एक अवधि के कारावास से दंडनीय है।  10 वर्ष से कम;  

(2) शामिल अपराध में नैतिक अधमता शामिल नहीं होनी चाहिए।  याचिकाकर्ता के मामले में ये दोनों शर्तें पूरी होती हैं।  फिर भी उच्च न्यायालय ने अपराध को नैतिक अधमता से जुड़ा हुआ मानकर दोषसिद्धि को निलंबित नहीं करने का निर्णय लिया।

9. उच्च न्यायालय ने असंगत विचारों पर कार्रवाई की: 

उच्च न्यायालय ने पाया कि गांधी ने "स्पष्ट रूप से सनसनी फैलाने के लिए और संबंधित निर्वाचन क्षेत्र के उम्मीदवार के परिणाम को प्रभावित करने के इरादे से माननीय प्रधान मंत्री का नाम सुझाया था।  माननीय प्रधान मंत्री की राजनीतिक पार्टी..."। 

दोषसिद्धि को निलंबित करने की याचिका पर निर्णय लेने में इस तरह के विचार पूरी तरह से अप्रासंगिक हैं, खासकर जब दोषसिद्धि, इस आधार पर नहीं थी कि, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ कोई आरोप लगाया गया था।

कोई अपराध गंभीर है या नहीं, यह निर्धारित करने के लिए उच्च न्यायालय द्वारा एक और बाहरी और नया कारक जोड़ा गया है, और वह है 'राजनीति में शुचिता'। उच्च न्यायालय ने न केवल लंबित आपराधिक मामलों (जहां याचिकाकर्ता कभी  (आपराधिक पृष्ठभूमि) के रूप में दोषी नहीं ठहराया गया है, लेकिन इस महत्वपूर्ण तथ्य को पूरी तरह से नजरअंदाज कर दिया गया है कि ऐसे मामलों में भी जहां याचिकाकर्ता केवल आरोपी है, उनमें से प्रत्येक मामला पूरी तरह से सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों द्वारा दायर किया गया है।

10. उच्च न्यायालय का आदेश स्वतंत्र भाषण, लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित करता है: 

यदि लागू फैसले पर रोक नहीं लगाई गई, तो यह "स्वतंत्र भाषण, स्वतंत्र अभिव्यक्ति, स्वतंत्र विचार और स्वतंत्र बयान का गला घोंट देगा"।  यह "लोकतांत्रिक संस्थाओं को व्यवस्थित, बार-बार कमजोर करने और इसके परिणामस्वरूप लोकतंत्र का गला घोंटने में योगदान देगा जो भारत के राजनीतिक माहौल और भविष्य के लिए गंभीर रूप से हानिकारक होगा"।  यदि राजनीतिक व्यंग्य को आधार उद्देश्य माना जाए, तो कोई भी राजनीतिक भाषण जो सरकार की आलोचनात्मक हो, नैतिक अधमता का कार्य बन जाएगा।  "यह लोकतंत्र की नींव को पूरी तरह से नष्ट कर देगा,"

सुप्रीम कोर्ट में राहुल गांधी की विशेष अनुमति याचिका वकील तरन्नुम चीमा और एस प्रसन्ना द्वारा तैयार की गई है और वरिष्ठ वकील प्रशांतो कुमार सेन, हरिन पी रावल, आरएस चीमा द्वारा निपटाई गई है और वरिष्ठ वकील डॉ अभिषेक मनु सिंघवी द्वारा दोबारा निपटाई गई है।

23 मार्च, 2023 को सूरत के मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट की अदालत ने, राहुल गांधी को दोषी ठहराया और 2 साल कैद की सजा सुनाई, जिसके बाद उन्हें लोकसभा के सदस्य के रूप में अयोग्य घोषित कर दिया गया। हालाँकि, उनकी सजा निलंबित कर दी गई और उसी दिन उन्हें जमानत भी दे दी गई ताकि वह 30 दिनों के भीतर अपनी दोषसिद्धि के खिलाफ अपील कर सकें।

3 अप्रैल को, राहुल गांधी ने अपनी दोषसिद्धि पर आपत्ति जताते हुए सूरत सत्र न्यायालय का रुख किया और अपनी दोषसिद्धि पर रोक लगाने की मांग की, जिसे 20 अप्रैल को खारिज कर दिया गया। हालांकि, सूरत सत्र न्यायालय ने 3 अप्रैल को गांधी को उनकी अपील के निपटारे तक जमानत दे दी।

राहुल गांधी की पुनरीक्षण याचिका को खारिज करते हुए, गुजरात उच्च न्यायालय ने कहा कि गांधी के खिलाफ मामला एक बड़े पहचान योग्य वर्ग (मोदी समुदाय) से संबंधित है, न कि केवल एक व्यक्ति से।

न्यायालय ने कहा कि भारत के सबसे पुराने राजनीतिक दल के वरिष्ठ नेता और "भारतीय राजनीतिक परिदृश्य के क्षेत्र में एक प्रमुख व्यक्ति" होने के नाते, गांधी का यह कर्तव्य है कि वे बड़ी संख्या में व्यक्तियों की गरिमा और प्रतिष्ठा सुनिश्चित करें या  कोई भी पहचान योग्य वर्ग उसकी राजनीतिक गतिविधियों या कथनों के कारण "खतरे में" नहीं पड़ता है।

गौरतलब है कि हाईकोर्ट ने गांधी के खिलाफ लंबित अन्य शिकायतों पर भी ध्यान दिया, जिसमें पुणे कोर्ट में वीर सावरकर के पोते द्वारा दायर एक शिकायत भी शामिल थी।  एचसी ने कहा कि कथित भाषण में, राहुल गांधी ने कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में वीर सावरकर के खिलाफ मानहानि के शब्दों का इस्तेमाल किया था। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh 


Saturday 15 July 2023

असंवैधानिक घोषित कानून की असंवैधानिकता का निराकरण किए बिना, उसे दुबारा कानून बना कर लागू करना अवैध: सुप्रीम कोर्ट / विजय शंकर सिंह

ईडी निदेशक संजय कुमार मिश्रा के कार्यकाल में दिए गए विस्तार पर रोक लगाते हुए, और सेवा विस्तार के फैसले को अवैध ठहराते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने, एक महत्वपूर्ण कानूनी विंदु की व्याख्या की है। वह विंदु है, क्या सुप्रीम कोर्ट द्वारा, दिए गए किसी फैसले के संवैधानिक आधार को, जिस आधार पर, राज्य का निर्णय रद्द किया गया हो, उसे, कार्यपालिका दुबारा अध्यादेश अथवा विधायिका दुबारा कानून बनाकर लागू कर सकती है? इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने पुनः इसी कानूनी विंदु को दोहराया है कि, किसी फैसले के आधार विंदु, जिन कारणों से असंवैधानिक घोषित किया गया है, का निराकरण किए बिना,  उसे रद्द करने का विधायी कार्य एक अनुचित कृत्य है।

अदालत का कहना है कि, राज्य के किसी निर्णय को, जिसे अदालत, असंवैधानिक घोषित कर चुकी हो या अदालत ने, उसके कुछ अंश को, असंवधानिक पाते हुए रद्द कर दिया हो, तो, फिर उसी मामले में, उक्त असंवैधानिक विसंगतियों को दूर किए बिना, उसे फिर से कानून बना कर लागू कर देना, अदालत की उक्त व्याख्या के विपरीत है और ऐसा अधिकार विधायिका को नहीं है। 

संविधान में, शक्ति पृथक्करण यानी सेपरेशन ऑफ पॉवर का सिद्धांत, वह मूल सिद्धांत है, जो शासन के तीनों अंगों, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका को, बिना एक दूसरे के, कार्य व्यापार में, दखल दिए, अपने अपने कर्तव्यों और दायित्वों के निर्वहन करने की शक्तियां देता है। लेकिन इन तीनों में, न्यायपालिका की स्थिति इसलिए थोड़ी अलग है कि, न्यायपालिका को, विधायिका द्वारा पारित कानून की न्यायिक समीक्षा करने की शक्तियां हैं, और उक्त कानून को, संविधान के मूल ढांचे के विपरीत पाए जाने पर, उसे रद्द कर देने का अधिकार है। 

हालांकि, विधायिका यानी संसद, सर्वोच्च है, क्योंकि वह जनता द्वारा निर्वाचित है और संसद की सर्वोच्चता का सिद्धांत, असल में जनता की सर्वोच्चता का सिद्धांत है। लेकिन, सर्वोच्चता का अर्थ यह भी नहीं है कि, बहुमत का दुरुपयोग कर के, ऐसे कानून बना दिए जाय, जो संविधान की मंशा के ही खिलाफ हों। लोकतंत्र या एक सभ्य गणराज्य में, जहां अधिकार और शक्तियों की बात की जाती है, वह असीमित नहीं होती है, बल्कि उनपर तरह तरह के राइडर भी होते हैं। संसद, अपनी असंदिग्ध सर्वोच्चता के बाद भी, संविधान के मूल ढांचे में कोई संशोधन या बदलाव नहीं कर सकती है, यह व्यवस्था भी सुप्रीम कोर्ट के केशवानंद भारती के मुकदमे में, सुप्रीम कोर्ट की तेरह सदस्यीय पीठ द्वारा दी गई है। 

अब आते हैं, प्रवर्तन निदेशालय के प्रमुख के सेवा विस्तार के मसले पर। ईडी प्रमुख के सेवा विस्तार मामले में दायर याचिकाओं की सुनवाई करने के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि, नवंबर 2022 के बाद से दिया गया सेवा विस्तार अवैध है। जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस विक्रम नाथ और संजय कौल की पीठ ने कहा कि, "कॉमन कॉज बनाम यूनियन ऑफ इंडिया मामले में 2021 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा दिए गए निर्देश की अनदेखी करते हुए कि एसके मिश्रा को और विस्तार नहीं दिया जाना चाहिए, जबकि, केंद्र सरकार ने उनका कार्यकाल बढ़ा दिया।  उसके बाद, दो बार नवंबर 2021 और नवंबर 2022 में कार्यकाल, फिर बढ़ाए गए।"

मद्रास बार एसोसिएशन बनाम भारत संघ (2021), मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया बनाम केरल राज्य और अन्य, मदन मोहन पाठक और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य जैसे विभिन्न उदाहरणों का उल्लेख करते हुए, पीठ ने कहा कि "विधायिका, न्यायालय के फैसले के विपरीत, कानून बनाकर, अदालती फैसले को रद्द कर सकती है, लेकिन,  किसी निर्णय का आधार हटाकर या कानून की खामियों को दूर करके ही ऐसा किया जा सकता है। यह कानून, पूर्वव्यापी (बैक डेट)  से भी, लागू किया जा सकता है। लेकिन, हर हालत में, अदालती फैसले के, उस मूल आधार, जिसके कारण, कानून असंवैधानिक घोषित किए गया है, का उपचार करना होगा। साथ ही, एक अधिनियम जो, केवल एक, निर्णय को रद्द करने के उद्देश्य से लाया जाय, असंवैधानिक है।"

जस्टिस बीआर गवई ने, सेवा विस्तार के फैसले में लिखा है, "इस प्रकार, यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि, इस न्यायालय ने माना है कि, इस न्यायालय के निर्णयों के प्रभाव को, निर्णय के आधार को हटाकर, एक विधायी अधिनियम द्वारा रद्द किया जा सकता है। यह भी माना गया है कि, ऐसा कानून पूर्वव्यापी (बैक डेट से) हो सकता है। लेकिन, यह भी माना गया है कि, पूर्वव्यापी (बैक डेट ) संशोधन उचित होना चाहिए और मनमाना नहीं होना चाहिए और संविधान के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। यह माना गया है कि, बताई गई खामी को, इस तरह से ठीक किया जाना चाहिए था कि, निर्णय का आधार  दोष दूर हो गया है। हालाँकि, इस न्यायालय ने स्पष्ट रूप से माना है कि, एक अधिनियम द्वारा परमादेश को रद्द करना अस्वीकार्य विधायी कृत्य होगा।"
अदालत ने आगे माना है कि, "संवैधानिक सीमाओं का उल्लंघन और विधायिका द्वारा न्यायिक शक्ति में घुसपैठ का उल्लंघन, शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत, कानून के शासन और भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 के विपरीत होगा।"

अदालत में, ईडी प्रमुख, एसके मिश्र के कार्यकाल के सेवा विस्तार का बचाव करते हुए, भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने तर्क दिया था कि, "केंद्रीय सतर्कता आयोग अधिनियम और मौलिक नियमों में किए गए संशोधन ने कॉमन कॉज़ निर्णय के आधार को बदल दिया।" 
यह बात भी सच है कि, पीठ ने कहा कि "कॉमन कॉज फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने ईडी निदेशक का कार्यकाल बढ़ाने की केंद्र की शक्ति को स्वीकार किया था।  उस फैसले में यह विशेष रूप से कहा गया था कि सरकार के पास 2 साल की अवधि से परे ईडी निदेशक को नियुक्त करने की शक्ति है।" 

शीर्ष अदालत ने आगे कहा है, "ऐसा नहीं है कि इस न्यायालय ने यह माना है कि, सरकार के पास दो साल की अवधि से अधिक नियुक्ति करने की कोई शक्ति नहीं है। किए गए संशोधनों द्वारा, स्थिति स्पष्ट की गई है, जिसे चुनौती दी गई है।"
अदालत ने माना कि, "यह तर्क कि, जिस आधार पर कॉमन कॉज़ (2021) के मामले में इस न्यायालय का निर्णय आधारित था, उसे हटा दिया गया है, इसमें कोई दम नहीं है।"
अदालत ने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा, "चूँकि कॉमन कॉज़ मामले में एक विशिष्ट और स्पष्ट आदेश जारी किया गया था कि, एसके मिश्र को आगे (नवंबर 2022 के बाद) सेवा विस्तार नहीं दिया जाना चाहिए, यह यूनियन ऑफ इंडिया और एसके मिश्रा दोनों, जो उक्त मामले में पक्षकार थे, के लिए बाध्यकारी आदेश था।"
लेकिन, इस स्पष्ट आदेश के बाद भी सेवा विस्तार दिया गया। 

अतः अदालत ने आगे कहा, "पक्ष बनने के लिए जारी किया गया परमादेश उन दोनो पर ही बाध्यकारी था। इसलिए, हम पाते हैं कि प्रतिवादी नंबर 1 (यूनियन ऑफ इंडिया) इस न्यायालय द्वारा अपने 8 तारीख के फैसले के तहत जारी किए गए परमादेश का उल्लंघन करते हुए 17 नवंबर 2021 और 17 नवंबर 2022 को आदेश जारी नहीं कर सकता था।"
यानी यह आदेश दोनो (यूनियन ऑफ इंडिया और एसके मिश्र ईडी निदेशक) के लिए बाध्यकारी था, पर इस आदेश का पालन करने के बजाय, भारत सरकार ने, नए कानून बना कर, सेवा विस्तार के नियम ही बदल डाले और नए नियम भी इस प्रकार बनाए गए, जिससे एसके मिश्र को ही, आगे चलकर, पुनः ईडी प्रमुख के रूप में सेवा विस्तार दिया जा सके। (और ऐसा हुआ भी) यानी एक व्यक्ति के लाभ के लिए, सरकार ने कानून बनाकर सुप्रीम कोर्ट के आदेश का ही उल्लंघन कर दिया। 

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्रीय सतर्कता अधिनियम (CVC Act) और दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम (DSPE Act) में 2021 के संशोधनों को तो वैध माना है लेकिन, सरकार के, उस तर्क को खारिज कर दिया, जिसमें, ईडी और सीबीआई प्रमुखों की शर्तों को एक बार में, केवल एक वर्ष का सेवा विस्तार देने की बात कही गई थी।  

पीठ ने कहा, “यह सरकार की इच्छा पर निर्भर नहीं है कि, सीबीआई निदेशक या प्रवर्तन निदेशक को विस्तार दिया जा सकता है। यह, सेवा विस्तार, केवल उन समितियों की सिफारिशों के आधार पर ही होगा, जो उनकी नियुक्ति की सिफारिश करने के लिए गठित की जाती हैं और वह भी तब, जब यह (सेवा विस्तार देना)  सार्वजनिक हित में पाया जाता है और, जब इनके कारण लिखित रूप में, मिनिट्स में, दर्ज किए जाते हैं, तो सरकार द्वारा ऐसा विस्तार दिया जा सकता है।"
 
याचिकाकर्ताओं ने जांच एजेंसियों की स्वतंत्रता के बारे में चिंता जताई थी और वरिष्ठ वकील गोपाल शंकरनारायणन ने निदेशकों को एक समय में केवल एक वर्ष का विस्तार देने की 'गाजर-और-छड़ी नीति' के रूप में वर्णित किया था। शंकरनारायणन ने तर्क दिया था, "प्रमुखों  पर एक्सटेंशन की तलवार लटकाने और आगे के एक्सटेंशन के लिए, उन पर मानसिक रूप से दबाव बनाने के रूप में, केवल एक साल के सेवा विस्तार की नीति,  गाजर-और-छड़ी नीति के आधार पर दिया जाने वाला सेवा विस्तार होगा। ऐसे सेवा विस्तार का लाभ पाने वाले निदेशक की अध्यक्षता वाली जांच, स्वतंत्र नहीं हो सकती है।"
यही राय, इस मुकदमे में, एमिकस क्यूरी (न्याय मित्र) की भी थी, "ये एजेंसियां ​​महत्वपूर्ण काम करती हैं और इन्हें न केवल स्वतंत्रता बल्कि स्वतंत्रता की धारणा की आवश्यकता है।"

अदालत ने सुनवाई के दौरान विनीत नारायण के फैसले का उल्लेख किया।  विनीत नारायण के फैसले में, अदालत की धारणा थी कि, सीबीआई और राजस्व विभाग जैसी जांच एजेंसियों को किसी भी बाहरी प्रभाव से बचाने की आवश्यकता है, ताकि वे अपने कर्तव्यों का निष्पक्ष और प्रभावी ढंग से निर्वहन कर सकें। विनीत नारायण के फैसले का उल्लेख करते हुए कहा, “विनीत नारायण के मामले में और उसके बाद के निर्णयों में जो निर्देशित किया गया है वह यह है कि [जांच एजेंसियों के निदेशक] का सेवानिवृत्ति की तारीख के बावजूद न्यूनतम दो साल का कार्यकाल होना चाहिए।  आक्षेपित संशोधनों द्वारा, उक्त अवधि के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है।  जो किया गया है वह यह है कि उनकी अवधि को एक बार में एक वर्ष की अवधि के लिए बढ़ाने की शक्ति दी गई है, जो अधिकतम तीन ऐसे विस्तारों के अधीन है।  हालाँकि, ऐसा तभी किया जाना चाहिए जब उनकी नियुक्ति की सिफारिश करने के लिए गठित समिति को सार्वजनिक हित में ऐसा विस्तार देना आवश्यक लगे।  उक्त उद्देश्य के लिए कारणों को लिखित रूप में दर्ज करना भी आवश्यक है।  नियुक्ति के संबंध में उपरोक्त प्रावधान विनीत नारायण के मामले में इस न्यायालय द्वारा दिए गए निर्देशों के अनुसरण में अधिनियमित किए गए हैं।''
 
इस तर्क कि "एकसाला विस्तार देने की नीति प्रवर्तन निदेशालय या केंद्रीय जांच ब्यूरो के निदेशकों के कार्यालयों को कार्यकारी प्रभाव के प्रति संवेदनशील बना देगी" को अदालत ने खारिज कर दिया और कहा कि, "यह नीति, संबंधित एजेंसी की स्वतंत्रता को खत्म कर देगी।" 
पीठ ने कहा, “जब किसी समिति पर, उनकी प्रारंभिक नियुक्ति की सिफारिश करने के संबंध में भरोसा किया जा सकता है, तो हमें इसका कोई कारण नहीं दिखता कि, ऐसी समितियों पर इस बात पर विचार करने के लिए भरोसा क्यों नहीं किया जा सकता है कि, सार्वजनिक हित में विस्तार दिया जाना आवश्यक है या नहीं ? पुनरावृत्ति की कीमत पर, ऐसी समिति को ऐसी सिफारिशों के समर्थन में लिखित रूप में कारण दर्ज करने की भी आवश्यकता होती है।  इसलिए, हम उन तर्कों को स्वीकार करने में असमर्थ हैं कि आक्षेपित संशोधन, सरकार को ईडी या सीबीआई के निदेशक के कार्यकाल को बढ़ाने के लिए मनमानी शक्ति प्रदान करते हैं और इन कार्यालयों को बाहरी दबावों से दूर करने का प्रभाव डालते हैं।"
 
इस प्रकार ईडी प्रमुख के सेवा विस्तार में, अदालत ने, जो फैसला पहले, 2021 में, दिया था कि, अब और सेवा विस्तार नहीं दिया जा सकता, को सरकार ने कानून में संशोधन कर, उसे पांच साल तक दिए जाने का प्राविधान कर दिया। अदालत ने, इस संशोधन को तो वैध माना, लेकिन इसी कानून के आधार पर, साल दर साल, यानी एकसाला सेवा विस्तार की नीति को, एजेंसी की स्वतंत्रता के विरुद्ध और, निदेशक पर, दबाव बनाने के उद्देश्य से लिया गया निर्णय घोषित कर दिया और 2022 के बाद के ईडी प्रमुख के सेवा विस्तार को अवैध घोषित कर दिया। 

चाहे, दो साल की अवधि का तयशुदा कार्यकाल हो, या उसके बाद का सेवा विस्तार, वह उसी कमेटी द्वारा तय किया जायेगा जो इन पदों पर नियुक्त करने की सिफारिश करने के लिए, अधिकृत है। सेवा विस्तार का कारण, अपरिहार्यता और यह सब उक्त कमेटी की मिनिट्स में दर्ज हो, तभी सेवा विस्तार को नियमानुकूल माना जायेगा। सरकार, ने सेवा विस्तार का कानून, संशोधित करते समय, यह पक्ष नजरअंदाज कर दिया था। 

विजय शंकर सिंह 
Vijay Shanker Singh