Wednesday 28 April 2021

यात्रा वृतांत - गंगोत्री यात्रा के पड़ाव (6)



                ( मानपुर की शाम )

हम वापस लौटे, क्योंकि ठंड बढ़ती जा रही है। सड़क पर से बर्फ़ अब पिघल चुकी थी। इसलिए एडवोकेट साहब ने गाड़ी की स्पीड अब थोड़ी अधिक रखी। गंगनानी के आगे एक समतल घाटी में नदी किनारे जंगल के बीच एक छोटा-सा ढाबा था। जिसमें चाय पी गई और एक-एक प्लेट मैगी खाई गई। अगर आप किसी भी पर्वतीय क्षेत्र में जाएँ तो मैगी अवश्य खाएँ। वहाँ जगह-जगह मैगी पॉइंट मिल जाते हैं। काली मिर्च और लौंग डाल कर इन लोगों ने स्वीडिश मैगी को एक नया स्वाद दिया है। एक स्कूटी पर सवार तीन नौयुवा आए। इनमें दो लड़के व एक लड़की थी। उन्होंने भी चाय व मैगी का स्वाद लिया। मैंने पूछा, कहाँ से आ रहे हैं? तो बताया कि वे उत्तरकाशी से हर्षिल पिकनिक पर गए थे। यानी डेढ़ सौ किमी का पहाड़ी सफ़र स्कूटी से? मैं अचरज में पड़ गया वह भी बर्फीली सड़क पर तीन जनें। पंडित जी ने बताया कि ये पहाड़ी बच्चे हैं इनके लिए यह कोई नई बात नहीं।

हाँ, एक बात बताना मैं भूल ही गया कि हर्षिल गढ़वाल में गंगोत्री मार्ग पर सबसे मनोरम स्थल है। आख़िर इसे यूँ ही नहीं मिनी स्वीटज़रलैंड कहा जाता। भागीरथी के दाएँ तट पर फैली बर्फ़ की चादर हर आने-जाने वाले का मन मोह लेती है। किंतु हिंदुस्तानी यहाँ पिकनिक के बहाने गंद भी बहुत फैलाते हैं। इस सफ़ेद चादर पर फैले खाने-पीने के पैकेट्स और पानी की बोतलें माहौल को प्रदूषित करती हैं। हालाँकि हर्षिल में प्लास्टिक के थैलों पर रोक है, पर कौन मानता है।

चाय पीने के बाद हम निकल पड़े। अब रात घिर आई थी। इसलिए हम लोग तेज़ी से लौट पड़े। पॉयलेट बाबा का मंदिर, मनेरी डैम होते हुए हम साढ़े सात बजे तक नैताला स्थित अपने गेस्ट हाउस में वापस आ गए। ठाकुर जी ने गरम पानी पिलाया और फिर चाय बनी। तब तक पंडित जी अलाव सुलगा दिया। आज रात के भोजन में मड़ुआ की रोटी और भट की दाल थी। रात को हल्दी पड़ा दूध। साथ में पातंजलि के कुछ आयुर्वेदिक उत्पाद लिए। चूँकि हम लोग काफ़ी थके हुए थे, अतः कुछ देर बाद सोने चले गए।

अगली सुबह तय हुआ कि हम लोग चौरंगी खाल जाएँ और वहाँ स्थित वन के अंदर चार किमी चढ़ कर नाचिकेता ताल भी देखने जाएँ। यह उत्तरकाशी की परली साइड में है। उत्तरकाशी से 12 किमी दूर पंडित जी की ससुराल मानपुर में नौटियालों के यहाँ है। उनके श्वसुर दयानंद नौटियाल बहुत ही मिलनसार और उत्साही बुजुर्ग हैं। प्रधानाचार्य के पद से अवकाशमुक्त हुए उन्हें 18 वर्ष बीत चुके हैं। गाँव सड़क से लगा हुआ है। वहाँ खूब बर्फ़ गिरती है और दिन को धूप। हम लोग पहले भी उनके यहाँ एक रात गुज़ार चुके थे। पर्वतीय अंचल के किसी घर में रात बिताने का अनुभव तो मज़ेदार है, किंतु मुझे याद आया कि उनके घर में दो दिक्कतें हैं। एक तो बाथरूम बेडरूम से अटैच्ड नहीं है, बल्कि बहुत दूर है और अँधेरे में जाना बहुत मुश्किल है। दूसरे कमोड टॉयलेट नहीं है। तीसरे बेडरूम से अगर रात को पेशाब करने गए तो अक्सर तेंदुए की गुर्राहट सुनाई पड़ती है। मगर पंडित जी ने कहा, कि महराज 2013 से अब काफ़ी कुछ बदल चुका है। अब एक कमरे में बाथरूम अटैच्ड है और कमोड भी है। रात भर बिजली की रोशनी रहती है। मैं भी राज़ी हो गया।

                 ( पहाड़ी आतिथ्य )

नैताला से हम नाश्ता करने के बाद कोई साढ़े दस बजे निकले। उत्तरकाशी से थोड़ा पहले पातंजलि समूह का गो मूत्र प्लांट है, वहीं पर बने लोहे के पुल से भागीरथी पार की और उस तरफ़ की सड़क पर गाड़ी दौड़ने लगी। आधा घंटे में हम मानपुर पहुँच गए। नौटियाल साहब बहुत खुश हुए। उन तक खबर पहुँच चुकी थी, इसलिए सड़क तक लेने आए। पहाड़ में मकान सीढ़ियों की तरह होते हैं। यहाँ भी जातिवाद और श्रेष्ठतावाद चलता है। जैसे ऊपर की साइड में मकान दलितों के फिर थोड़ा कम दलितों के और सबसे नीचे ब्राह्मणों और ठाकुरों के होंगे।

अब इसके साथ एक पाकिस्तान का भी क़िस्सा सुन लीजिए। जो हमारे मित्र और ओरछा के पूर्व महाराजा मधुकर शाह ने सुनाया था। मालूम हो कि ओरछा 1550 से 1950 तक एक ख़ुद मुख़्तार रियासत रही है। इसे बुंदेला क्षत्रिय वीर सिंह ने स्थापित किया। वीरसिंह बादशाह अकबर के बेटे शहज़ादा सलीम का दोस्त था, इस नाते अकबर का विरोधी भी। जब शहज़ादा सलीम ने बादशाह जहांगीर नाम धारण किया तो बुंदेलखंड को काफ़ी रियायतें दीं। बुंदेला बहुत बहादुर होते हैं। इसी परिवार के अमर सिंह ने बादशाह शाहजहाँ को धता बताई थी। बादशाह औरंगज़ेब के अत्याचारों के विरुद्ध छत्रसाल ने निरंतर संघर्ष किया था। मधुकर शाह इस वंश के आख़िरी शासक थे। किंतु 1947 में उन्होंने अपनी रियासत का भारत संघ में विलय कर लिया। संयोग से मधुकर शाह अभी जीवित हैं और दिल्ली के चाणक्यपुरी इलाक़े में रहते हैं। उनको खड़ी बोली हिंदी बोलने में दिक़्क़त होती हैं। वे या तो बुंदेली में बतियाते हैं अथवा अंग्रेज़ी में। 

उनका सुनाया क़िस्सा लिख रहा हूँ-
“भोपाल की बेगम के नाती नादरी की शादी 1981 सन् मां पाकिस्तान के लाहौर मां भई ती। बराती के तौर पर नादरी साहब हमउं का लै गए। पूरे लाहौर मां सोर मच गयो कि ईं शादी मां चार हिंदू भी आए हैं, उनमें से एक राजा है। अगवानी मां लाहौर के कमांडर इन चीफ राजा महमूद अली जनजुआ भी आए हते। आते ही उनने हमसे पूछी कि आप हिंदू हो? हमाए हां कहने पर उनने कही कौन कौम? यह सुनते ही हम भौंचक्का हुइ गए कि हाय राम ईं यो का पूछत हैं? खैर हम उनते कही कि कौम का हमें तो पता नहीं जनरल साहब पै हमाए पुरखा बताउत ते कि हम बुंदेला राजपूत हैं। यह सुनते जनरल साहब ने खुसी मां हमें अपने गले से लगाय लओ औ बोले कि हमऊं राजपूत हैं। अब कुछ हमऊं खुले पूछी कि जनरल साहब आपके नाम के आगे यो जनजुआ काहे लगा है। जनरल साहब खूब जोर से हंसे बोले कि भई जनजुआ यानी कि जनेऊ। हम बड़े ठाकुर हते। मुसलमान हुई गए तो का भा? अपनी जाति तो बनी ही रहिए। उसके बाद जनजुआ साहब ने हमाई बड़ी खातिरदारी करी। हमें बिठाय के खिलावौ!” इसके बाद महाराजा साहब ने पाकिस्तान के श्रेष्ठतावाद की पोल खोली।जनरल साहब बताने लगे कि देखिए, यहाँ जो पहाड़ पर नीचे की बस्ती आप डेख रहे हैं, वहाँ हम लोग बसते हैं और ऊपर गूजर लोग। अर्थात् हर जगह पहाड़ों पर ऊँची कही जाने वाली जातियाँ नीचे की तरफ़ बसती हैं, ताकि वे खेतों को देख सकें और पानी की सहूलियत हो। महाराजा ने सहज भाव से अपनी यात्रा का वृत्तांत। सुनाया लेकिन मैं सोचने लगा कि पाकिस्तान और भारत में कोई फर्क नहीं है। दोनों जगह जातियां बराबर हैं। एक ही तरह की बोली-बानी और एक ही तरह के लोग। राजा साहब ने उसके बाद जो बातें बताईं उन्हें मैं नहीं लिख रहा हूं क्योंकि उससे कुछ जाति परस्तों और मजहब परस्तों को आपत्ति हो सकती है।

   ( महाराजा मधुकर शाह के साथ (फर की टोपी लगाए महाराजा )

इसी तरह मान पुर में थे। नौटियाल नीचे और दलित ऊपर। किंतु सरकारी योजनाओं के तहत सड़कें निकलीं तो ये नीची कही जाने वाली जातियाँ अनायास अमीर हो गईं। सड़क किनारे बाज़ार लगे, होटल बने। पंजाबी व्यापारियों ने दलितों को पैसा दिया और ज़मीन ले ली।
(बाक़ी का कल)

शंभूनाथ शुक्ल 
( Shambhunath Shukla )

गंगोत्री यात्रा के पड़ाव (5)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/5_27.html
#vss

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