Wednesday 31 January 2018

गांधी हत्या पर के विक्रम राव का एक लेख / विजय शंकर सिंह

महात्मा गांधी की 30 जनवरी 1948 को हत्या कर दी गयी थी। यह पोस्ट लेख वरिष्ठ पत्रकार के विक्रम राव द्वारा उनके फेसबुक टाइमलाइन से है।
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आखिर कौन था गांधीजी का हत्यारा ?

सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court of India) अन्ततः शायद मान ले अपने कोर्ट सलाहकार वकील अमरेन्द्र शरण (Chamber of Amrendra Sharan, Senior Advocate, Supreme Court) की रपट कि पुणेवासी नाथूराम विनायक गोड्से ही बापू का अकेला हत्यारा था। फिलहाल चार सप्ताह का समय दिया है याचिकाकर्ता को, जो कहता है कि हत्यारा अन्य व्यक्ति था। अभी भी भारत में एक तबका है, जो इतिहास को झुठलाना चाहता है। अभिनव भारत संस्था (Abhinav Bharat SEVA Samiti) के न्यासी डा. पंकज फडनवीस ने सर्वोच्च अदालत में गत माह एक रिट द्धारा नयें सिरे से बापू की हत्या (70वीं बरसी कल) की जांच कराने की मांग उठाई है। उनका यह दिमागी फितूर है कि बापू को ब्रिटिश गुप्तचर संस्था ने गोली मारी थी। इतना मितलीभरा झूठ ! अंग्रेज साम्राज्यवादी चाहते तो महात्मा गांधी को कभी भी मार सकते थे। किसी हिन्दू महासभाई अथवा मुस्लिम लीगी को रिश्वत दे देते।

लेकिन बापू की हत्या की तह में एक घिनौना मकसद था, एक निकृष्टतम सोच थी। एक कवि की आग्रहभरी पंक्ति थी, “जो बापू को चीर गई थी, याद करो उस गोली को।”  गोड्से के वे कारतूस महज दागने के लिये नहीं थे। इतिहास की धारा मोड़ने की राष्ट्रघातक, जनविरोधी सजिश थी। उग्र बनाम उदार हिन्दुओं की टकराहट थी। बल्कि वस्तुतः यह कायर तथा बदजात व्यक्ति की बुजदिलीभरी हरकत थी। गोड्से में यदि शौर्य होता तो सुरक्षा चक्र से घिरे राष्ट्र नायकों को निशाना बनाता। पाकिस्तान बनवाने में मोहम्मद अली जिन्ना के साथ इन लोगों की भी साझेदारी थी। लुकाटी थामे, डे़ढ पसली के, अठहत्तर वर्ष के, अधे नंगे संत पर धोखे से, गोली दागने वाला गोड्से किस दिमाग का था? इसमें क्या शौर्य था?

ऐसा कुकृत्य तो कायरतम व्यक्ति भी नही करता। वस्तुतः कितनी गोलियां गोड्से ने दागी इसका यथावत चित्रण रायटर संवाद समिति के रिपोर्टर ने किया था।

उस दिन (३० जनवरी १९४८) अपने रिपोर्टर पी.आर. राय को उसके रायटर ब्यूरो प्रमुख डून कैम्पबेल ने बिड़ला हाउस भेजा था क्योंकि महात्मा गांधी अपनी प्रार्थना सभा में घोषणा कर सकते थे कि हिन्दु-मुस्लिम सौहार्द हेतु वे फिर अनशन करेंगे। “फोन करना यदि कुछ गरम खबर हो तो,” उन्होंने निर्देश दिये। राय ने फोन किया मगर केवल पांच शब्द ही बोल पाया: “चार गोलियां बापू पर चलीं।” आवाज थरथरा रही थी, अस्पष्ट थी। समय थाः शाम के 5:13 और तभी कैम्पबेल ने फ्लैश भेजा: “डबल अर्जन्ट, गांधी शाट फोर टाइम्स पाइन्ट ब्लैंक रेंज वर्स्ट फियर्ड।” कैम्पबैल दौड़ा अलबुकर रोड (अब तीस जनवरी मार्ग) की ओर। विस्तार में रपट बाद में आई जिसमें गौरतलब बात थी कि गोली लगते ही गांधी जी अपनी पौत्री आभा के कंधों पर गिरे। आभा ने कहा तब बापू “राम, राम” कहते कहते अचेत हो गये। दूसरा कंधा पौत्रवधु मनु का था जिसने बापू को संभाला। दोनों की सफेद खादी की साडि+यां रक्तरंजित हो गई। अफवाह थी कि हत्यारा मुसलमान था। सरदार वल्लभभाई  पटेल ने घोषणा की कि मारनेवाला हिन्दु था। दंगे नहीं हुये। दुनिया तबतक जान गई कि एक मतिभ्रम हिन्दू उग्रवादी ने बापू को मार डाला।

आखिर कैसा, कौन और क्या था नाथूराम विनायक गोड्से? क्या वह चिन्तक था, ख्यातिप्राप्त राजनेता था, हिन्दू महासभा का निर्वाचित पदाधिकारी था, स्वतंत्रता सेनानी था? इतनी ऊंचाईयों के दूर-दूर तक भी नाथूराम गोड्से कभी पहुंच ही नहीं पाया था। पुणे शहर के उसके पुराने मोहल्ले के बाहर उसे कोई नहीं जानता था, जबकि वह चालीस की आयु के समीप था।

नाथूराम स्कूल से भागा हुआ छात्र था। नूतन मराठी विद्यालय में मिडिल की परीक्षा में फेल हो जाने पर उसने पढ़ाई छोड़ दी थी। उसका मराठी भाषा का ज्ञान बडे़ निचले स्तर का था। अंग्रेजी का ज्ञान तो था ही नहीं। जीविका हेतु उसने सांगली शहर में दर्जी का दुकान खोल ली थी। उसके पिता विनायक गोड्से डाकखाने में बाबू थे, मासिक आय पांच रुपये थी। नाथूराम अपने पिता का लाड़ला था क्योंकि उसके पहले जन्मी सारी संताने मर गयी थी। नाथूराम के बाद तीन और पैदा हुए थे जिनमें था गोपाल, जो नाथूराम के साथ सह-अभियुक्त था।

नाथूराम की युवावस्था किसी खास घटना अथवा विचार के लिए नहीं जानी जाती है। उस समय उसके हम उम्र के लोग भारत में क्रान्ति का अलख जगा रहे थे। शहीद हो रहे थे। इस स्वाधीनता संग्राम की हलचल से नाथूराम को तनिक भी सरोकार नहीं था। अपने नगर पुणे में वह रोजी-रोटी के ही जुगाड़ में लगा रहता था। पुणे में 1910 में जन्मे, नाथूराम के जीवन की पहली खास घटना थी अगस्त, 1944, में जब हिन्दू महासभा नेता एल.जी. थट्टे ने सेवाग्राम में धरना दिया था। तब महात्मा गांधी भारत के विभाजन को रोकने के लिए मोहम्मद अली जिन्ना से वार्ता करने मुम्बई जा रहे थे। चैंतीस वर्षीय अधेड़ नाथूराम उन प्रदर्शनकारियों में शरीक था। उसके जीवन की दूसरी घटना थी एक वर्ष बाद, जब ब्रिटिश वायसराय ने भारत की स्वतंत्रता पर चर्चा के लिए राजनेताओं को शिमला आमंत्रित किया था तब नाथूराम पुणे के किसी अनजान पत्रिका के संवाददाता के रूप में वहां उपस्थित था।

गोड्से का मकसद कितना पैशाचिक रहा होगा, इसका अनुमान इस बात से लग जाता है कि हत्या के बाद पकड़े जाने पर नाथूराम ने अपने को मुसलमान दर्शाने की कोशिश की थीं। अर्थात् एक तीर से दो निशाने सध जांये। गांधी की हत्या हो जाती, दोष मुसलमानों पर जाता और उनका सफाया शुरु हो जाता। ठीक उसी भांति जो 1984 के अक्टूबर 31 को इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सिखों के साथ हुआ था। न जाने किन कारणों से अपने राष्ट्र के नाम सम्बोधन में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नहेरू (Jawahar Lal Nehru) ने नहीं बताया कि हत्यारे का नाम क्या था। उसके तुरन्त बाद आकाशवाणी भवन जाकर गृहमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल ने देशवासियों को बताया कि महात्मा का हत्यारा एक हिन्दू था। सरदार पटेल (Sardar Vallabhbhai Patel) ने मुसलमानों को बचा लिया।

जो लोग अभी भी नाथूराम गोड्से के प्रति थोड़ी नरमी बरतते हैं उन्हें इस निष्ठुर क्रूर हत्यारे के बारे में तीन प्रमाणित तथ्यों पर गौर करना चाहिए। प्रथम, गांधी जी को मारने के दो सप्ताह पूर्व अविवाहित नाथूराम ने अपने जीवन को काफी बड़ी राशि के लिये बीमा कंपनी से सुरक्षित कर लिया था। उसकी मौत के बाद उसके परिवारजन इस बीमा राशि से लाभान्वित होते। अर्थात “ऐतिहासिक” मिशन को लेकर चलने वाला यह व्यक्ति बीमा कंपनी से मुनाफा कमाना चाहता था।

उसके भाई गोपाल गोड्से ने जेल में प्रत्येक गांधी जयंती में बढ़चढ़कर शिरकत की, क्योंकि जेल नियम में ऐसा करने पर सजा की अवधि में छूट मिलती है। गोपाल पूरी सजा के पहले ही रिहाई पा गया था।

कुछ लोग नाथूराम गोड्से को उच्चकोटि का चिन्तक, ऐतिहासिक मिशनवाला पुरुष तथा अदम्य नैतिक ऊर्जा वाला व्यक्ति बनाकर पेश करते है। उनके तर्क का आधार नाथूराम का वह दस-पृष्टीय वक्तव्य है जिसे उसने बड़े तर्कसंगत, भावना भरे शब्दों में लिखकर अदालत में पढ़ा था कि उसने गांधी जी क्यों मारा। हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने गोड्से के इस प्रतिबंधित भाषण के प्रसार की अनुमति दे दी है। उस समय दिल्ली मे ऐसे कई हिन्दुवादी थे जिनका भाषा पर आधिपत्य, प्रवाहमयी शैली का अभ्यास तथा वैचारिक तार्किकता का  ज्ञान पूरा था। उनमें से कोई भी नाथूराम का ओजस्वी वक्तव्य लिखकर जेल के भीतर भिजवा सकता था। जो व्यक्ति मराठी भी भलीभांति न जानता हो, अंग्रेजी से तो निरा अनभिज्ञ हो, उस जैसा कमजोर छात्र परीक्षा में अचानक सौ बटा सौ नम्बर ले आये? दो तथ्य और। गोड्से के साथ फांसी पर चढ़ा नारायण आप्टे रंगीले मिजाज का था। पिछली (२९ जनवरी १९४८) रात उसने दिल्ली के जीबी रोड पर गुजारा। यहां वेश्या घर हैं। आत्माओं से संपर्क करने वाले मेरे साथ “टाइम ऑफ इण्ड़िया” (The Times of India), मुबंई में कार्यरत, कुछ लोगो ने बताया कि गोड्से का दुबारा जन्म हुआ था पुणे की गली में एक खुजली से ग्रस्त आवारा श्वान की योनि में। क्या संभव है? हम भारतीय अपनी दोमुखी छलभरी सोच को तजकर, सीधी, सरल बात करना कब शुरु करेंगे, कि हत्या एक जघन्य अपराध और सिर्फ नृशंस हरकत है। वह भी एक वृद्ध, लुकाटी थामे, अंधनंगे, परम श्रद्धालु हिन्दू की जो राम का अनन्य, आजीवन भक्त रहा।

K Vikram Rao
Mob: 9415000909
Email: k.vikramrao@gmail.com
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© विजय शंकर सिंह

Monday 29 January 2018

कासगंज की तिरंगा यात्रा और राष्ट्रीय ध्वज अधिनियम की अवहेलना - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

15 अगस्त, 2 अक्टूबर और 26 जनवरी देश के तीन राष्ट्रीय पर्व हैं। 15 अगस्त स्वाधीनता दिवस को मुख्य उत्सव लाल किले पर पीएम द्वारा ध्वजारोहण के रूप में, 2 अक्टूबर , गांधी जयंती को राजघाट के गांधी समाधि स्थल पर पुष्पचक्र अर्पित कर और 26 जनवरी गणतंत्र दिवस को राजपथ पर राष्ट्रपति द्वारा ध्वजारोहण और एक भव्य परेड की सलामी के साथ मनाया जाता है।

राष्ट्रीय ध्वज कब कैसे और किन किन औपचारिकताओं के साथ फहराना चाहिये इसका भी एक संहिताबद्ध नियम क़ायदा है और इसकी एक लिखित ड्रिल है। राष्ट्रीय ध्वज का अपमान एक संज्ञेय अपराध है और यह फ्लैग कोड ऑफ इंडिया या ध्वज संहिता में लिखा है। सबसे नवीनतम ध्वज संहिता 2002 में सरकार ने जारी किया हैं।

भारतीय ध्वज संहिता भारतीय ध्वज को फहराने व प्रयोग करने के बारे में दिये गए दिशा निर्देश हैं। भारत का राष्ट्रीय झंडा, भारत के लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं का प्रतिरूप है। यह राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक है। सभी के मार्गदर्शन और हित के लिए भारतीय ध्वज संहिता 2002 में सभी नियमों, रिवाजों, औपचारिकताओं और निर्देशों को एक साथ लाने का प्रयास किया गया है। ध्वज संहिता-भारत के स्थान पर भारतीय ध्वज संहिता 2002 को 26 जनवरी 2002 से लागू किया गया है।

संक्षेप में दिए गए दिशा निर्देश इस प्रकार है ~

* जब भी झंडा फहराया जाए तो उसे सम्मानपूर्ण स्थान दिया जाए। उसे ऐसी जगह लगाया जाए, जहाँ से वह स्पष्ट रूप से दिखाई दे।

* सरकारी भवन पर झंडा रविवार और अन्य छुट्‍टियों के दिनों में भी सूर्योदय से सूर्यास्त तक फहराया जाता है, विशेष अवसरों पर इसे रात को भी फहराया जा सकता है।

* झंडे को सदा स्फूर्ति से फहराया जाए और धीरे-धीरे आदर के साथ उतारा जाए। फहराते और उतारते समय बिगुल बजाया जाता है तो इस बात का ध्यान रखा जाए कि झंडे को बिगुल की आवाज के साथ ही फहराया और उतारा जाए।

* जब झंडा किसी भवन की खिड़की, बालकनी या अगले हिस्से से आड़ा या तिरछा फहराया जाए तो झंडे को बिगुल की आवाज के साथ ही फहराया और उतारा जाए।

* झंडे का प्रदर्शन सभा मंच पर किया जाता है तो उसे इस प्रकार फहराया जाएगा कि जब वक्ता का मुँह श्रोताओं की ओर हो तो झंडा उनके दाहिने ओर हो।

* झंडा किसी अधिकारी की गाड़ी पर लगाया जाए तो उसे सामने की ओर बीचोंबीच या कार के दाईं ओर लगाया जाए।

* फटा या मैला झंडा नहीं फहराया जाता है।

* झंडा केवल राष्ट्रीय शोक के अवसर पर ही आधा झुका रहता है।

* राष्ट्रीय ध्वज को केवल राजकीय शोक से घोषित  और सेना या अर्धसैनिक बलों के शवों के अंतिम संस्कार के लिये उन पर ही ओढाया जा सकता है। अन्य किसी पर भी नहीं।  वह भी जैसे ही अंतिम सैल्यूट समाप्त हो तभी उसे सम्मान पूर्वक शव से उठा लिया जाना चाहिए और उज़के तुरन्त बाद ही अंतिम संस्कार की कार्यवाही होगी। शव से ध्वज उठाने की भी ड्रिल होती है। ऐसा बिल्कुल ही नहीं कि चादर की तरह उसे खींच लिया जाय ।
( Section (d) of Explanation 4 of PART II of the code forbids )

* किसी भी परिस्थिति में कोई भी अन्य ध्वज राष्ट्रीय ध्वज से ऊंचा नही रखा जाएगा और न ही उसके अगल बगल रखा या फहराया जाएगा । यह अकेले ही फहराया जाएगा। यह ध्वज सभी ध्वजों से अलग, महत्वपूर्ण और विशिष्ट है।
( A section (VIII) of 3.2 of the code says that NO OTHER FLAG or bunting should be placed higher than or above or side by side with the National Flag )

* झंडे पर कुछ भी लिखा या छपा नहीं होना चाहिए। और न ही लिखना चाहिये। आप को याद होगा एक बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा के दौरान भूल से राष्ट्रीय ध्वज पर उन्होंने हस्ताक्षर कर किसी को ध्वज दे दिया था पर जैसे ही भारतीय विदेश विभाग के चीफ ऑफ प्रोटोकॉल को यह भूल ज्ञात हुई वह हस्ताक्षरित ध्वज वापस ले लिया गया। यह बात मीडिया में भी आ गयी थी।

* जब झंडा फट जाए या मैला हो जाए तो उसे एकांत में पूरा नष्ट किया जाए । सार्वजनिक रूप से उसे नष्ट न किया जाय और जला कर तो बिल्कुल ही नहीं।

अब जरा कासगंज में 26 जनवरी को निकाली गयी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की तिरंगा रैली की फोटोज देखें। इन फोटों में जो सोशल मीडिया, टीवी चैनलों और विभिन्न अखबारों में जो चित्र छपे हैं उनमें तिरंगा तो है पर उसके साथ साथ भारी संख्या में भगवा झंडा भी है। एक चित्र में तिरंगा लिटा कर उसे एक चादर की तरह पकड़ कर ले जाये जाता दिखाया गया है। और अगल बगल भगवे ध्वज हैं। ध्वज के सम्मान पूर्वक ले जाने के लिये एम्ब्लेम्स एंड नेम्स ( प्रिवेंशन ऑफ इम्प्रोपर यूज़ ) एक्ट 1950 और नेशनल ऑनर एक्ट 1971 दो कानून है। इन कानूनों और झंडे से जुड़े सम्मान की जानकारी सभी को होनी चाहिये। केवल नारे बाज़ी ही राष्ट्रभक्ति नहीं है। बल्कि राष्ट्र के प्रतीकों का सम्मान और आदर भी नागरिक का एक कर्तव्य है। कासगंज में जो भी तिरंगा यात्रा निकाली गयी थी उसमें राष्ट्रीय ध्वज का कोई भी सम्मान नहीं किया गया था, बल्कि वह कानूनी प्राविधानों का उल्लंघ भी है। पुलिस ने भी इस संबंध में राष्ट्रीय ध्वज के अपमान को मानते हुये धारा 3 राष्ट्रीय ध्वज अधिनियम के अंतर्गत मुक़दमा कायम ही नहीं किया है बल्कि इस संबंध में कुल नामजद 20 अभियुक्तो में से 3 को गिरफ्तार भी किया है। यह मुक़दमा पुलिस ने खुद ही कायम किया है।

एक बचकाना सवाल पूछा जा रहा है कि, क्या हमें राष्ट्रीय पर्व पर तिरंगा फहराने का अधिकार नहीं है और क्या इसके लिये भी किसी की अनुमति लेनी होगी ?
इस पर सुप्रीम कोर्ट में नवीन जिंदल ने एक याचिका दायर कर के यह सवाल उठाया था कि उन्हें भी राष्ट्रीय पर्व पर राष्ट्रीय ध्वज फहराने का अधिकार एक नागरिक के रूप में है ।
सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका स्वीकार की और उनके इस अधिकार को माना। पर ध्वज फहराने का यह अर्थ कदापि नहीं है कि उसे अपनी मनमर्जी से जहां चाहे वहां फहरा दिया जाय। कासगंज की तिरंगा यात्रा के आयोजकों ने ध्वज के सम्मान की चाहे या अनचाहे, जाने या अनजाने अवहेलना ही की है। यह मनोवृत्ति दरअसल कानून को ठेंगे पर रखने की बढ़ती मानसिकता का ही एक परिणाम है।

अनुमति का जहाँ तक प्रश्न है यह कोई वैधानिक प्राविधान नहीं बल्कि एक प्रशासनिक प्राविधान या परम्परा है। इसी घटना के संदर्भ में सोचें यदि इसकी प्रशासनिक अनुमति जिला प्रशासन से ली गयी होती या यह यात्रा और इसका रूट थाने और जिला प्रशासन के संज्ञान में होता तो निश्चय ही कुछ न कुछ पुलिस बंदोबस्त जुलूस या यात्रा के साथ किया गया होता और तब यह यात्रा भी शांति से निकल गयी होती और चंदन गुप्ता जैसे एक युवक की जान भी बच जाती। यह दायित्व यात्रा के आयोजकों का था कि वे पुलिस को सूचित कर के यह कार्यक्रम पूरा किये होते। मैंने इसे एक व्यवहारिक उपचार के रूप में लिखा है ।

© विजय शंकर सिंह

Sunday 28 January 2018

कासगंज में साम्प्रदायिक दंगा - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

अभी तक तो होली, ईद दशहरा और मुहर्रम जैसे पर्व जब एक साथ पड़ जाते थे तो साम्प्रदायिक उन्माद और दंगों की संभावना हो जाती थी। पर यह भी पहली ही बार है कि 26 जनवरी गणतंत्र दिवस के अवसर पर तिरंगा यात्रा के जुलूस में दंगा हुआ हो। कासगंज में 26 जनवरी  को एक  जुलूस निकला और वह जब एक मुस्लिम आबादी से गुजरा तो आपसी झड़प हुई और किसी ने गोली चला दी जिस से एक युवक चंदन गुप्त की मौके पर ही मृत्यु हो गयी और एक अन्य राहुल उपाध्याय की अस्पताल में । उत्सव शोक में बदल गया ।

अब शुरू हुआ सिलसिला महाभोज का। भड़कने और भड़काने का। प्रशासन का कहना है कि यह जुलूस बिना पुलिस को सूचना दिए ही निकाला गया और इसका रूट भी तय नहीं था।

जुलूस वालों का कहना है कि वे तो गणतंत्र दिवस के अवसर पर एक रूटीन जुलूस निकाल रहे थे कि मुस्लिम आबादी में जब पहुंचे तो किसी ने पाकिस्तान जिंदाबाद का नारा लगाया और जब पाकिस्तान मुर्दाबाद का नारा जुलूस से लगा तो तनाव और बढ़ गया और इसका परिणाम दो व्यक्तियों की मृत्यु हुयी।

एक खबर और वीडियो के अनुसार इस तिरंगा यात्रा में तिरंगा कम भगवा झंडे अधिक थे और जो नारे लग रहे थे वे भी भड़काऊ नारे थे। जानबूझकर तनाव उत्पन्न करने की कोशिश की गई और यह दंगे कराने की साज़िश है।

इंडियन एक्सप्रेस के अनुसार ~
" कासगंज के बुद्धा नगर के अब्दुल हमीद तिराहे पर क्षेत्र के मुसलमानों ने जुमे की नमाज़ के बाद झंडारोहण का प्रोग्राम रखा था इसके लिए सड़क घेर के कुर्सियां आदि बिछाई गयी थीं इस प्रोग्राम के लिए दो सौ रूपये का चंदा देने वाले अधिवक्ता मोहद रफ़ी के अनुसार झंडा रोहण होने ही वाला था की पचास साठ मोटर साइकलों पर सवार ABVP के कार्यकर्ता वहाँ आये उनके गाड़ियों पर तिरंगा और भगवा दोनों झंडे थे उन्होंने कुर्सियां हटाने को कहा इस पर समारोह के संयोजकों ने कहा की थोड़ी ही देर में समारोह खत्म हो जायगा तब कुर्सियां हटा लेंगे तब तक आप लोग भी इस समारोह में शरीक हों लेकिन वह लोग कुर्सियां हटवाने पर न केवल बज़िद हुए बल्कि खुद ही कुर्सियां उठा उठा के फेंकने लगे जिसपर बवाल हो गया ।

सच क्या है,  यह तो प्रत्यक्ष दर्शी ही बता पाएंगे या वे जो इस पूरी घटना की छानबीन करेंगे। दंगों की जांच तो अनिवार्य रूप से होती ही है। इसकी भी होगी। मजिस्ट्रेटी जांच का आदेश तो हो ही गया होगा और थाने में भी मुक़दमा कायम हुये होंगे। जब तक परिणाम न आएं तब तक कुछ कहना उचित नहीं होगा विशेषकर हम जैसे उन लोगों के लिये जो ऐसी घटनाओं से पूरी नौकरी भर रूबरू होते रहे हैं।

दंगों के बारे में मेरा अनुभव यह है कि ऐसे दंगो में कोई भी बड़ा नेता या आयोजक अमूमन नहीं मरता है। मरते हैं वे नौजवान जो भीड़ में शामिल होते हैं और वे लोग जो या तो तमाशबीन होते हैं या उधर से गुज़र रहे होते हैं। गिरफ्तार भी दूसरे ही पंक्ति के लोग होते हैं पहले वाले तो घरों में बैठ, रिमोट से यह सब कारगुजारियां संचालित करते रहते हैं।

धर्म के नाम पर अब भी भड़काया जा रहा है। दोनों ही धर्म के लोग अपने अपने धर्म को खतरे में बता रहे हैं। कुछ सरकार को कोस रहे हैं कि सरकार कुछ करती क्यों नहीं। कुछ यह भी सरकार से उम्मीद कर रहे हैं कि सरकार या पुलिस चंदन गुप्ता की मृत्यु का बदला लेगी। जिसकी जैसी सोच वैसी उम्मीद पाले बैठा है। कुछ तो सरकार से ऐसे खफा हैं जैसे उन्होंने सरकार ही दंगा कराने के लिये चुनी हो जैसे !

सरकार को इस साम्प्रदायिक दंगे के सभी विन्दुओं जैसे,
* क्या तिरंगा यात्रा अचानक निकाली गयी या यह पहले भी निकाली जाती थी ?
* पहले भी निकाली जाती रही है तो उसके लिये जो पुलिस व्यवस्था होनी चाहिये थी क्यों नहीं की गई ?
* जब मुस्लिम आबादी से जुलूस गुज़र रहा था तो भड़काऊ नारे लगाए गए या नहीं ? और यह नारे लगाए गए तो किसने लगाये ?
* जिन असामाजिक तत्वों ने गोली चलाई उनके खिलाफ क्या कार्यवाही की गई।
आदि आदि और भी विंदु स्वतः उठ सकते हैं जिनकी जांच की जानी चाहिये।

सबसे ज़रूरी है कि मृतक चंदन गुप्ता और राहुल उपाध्याय के हत्यारों को जल्दी से जल्दी गिरफ्तार किया जाना चाहिये और इस मामले में बिना किसी भी दबाव में आये दंगाइयों के खिलाफ रासुका और अन्य आपराधिक धाराओं में मुक़दमा कायम कर के कार्यवाही करनी चाहिये। हालांकि दंगो के समय राजनीतिक दबाव बहुत होता है। पर जब किसी भी मामले में बहुत राजनीतिक दबाव पड़ रहा हो तो वैसी दशा में जो और जितना कानून की किताब और सुबूत कहें उतना ही अधिकारियों को करना चाहिये और अक्सर अधिकारी ऐसा करते भी हैं।

दंगो के अपराधी अभियुक्तों के ऊपर दंगों के दौरान कायम किये गए आपराधिक मुकदमों के खिलाफ विशेष अदालतों का गठन कर के उनकी त्वरित सुनवायी की जानी चाहिये पर जब से राजनीतिक लगाव के आधार पर ऐसे मुक़दमे वापस लेने की परंपरा सरकारों ने शुरू की है तो दंगाईयों का और दंगा फैलाने वालों का मनोबल बढ़ने लगा है। सुना है यूपी सरकार मुजफ्फरनगर के दंगों से जुड़े मुकदमों को वापस लेने जा रही है और कर्नाटक सरकार ने हाल ही में ऐसे ही कुछ मुकदमे वापस ले लिये हैं। ऐसे माहौल और प्रशासनिक सोच की सरकारों के रहते क्या हम एक कानून का आदर करने वाला समाज बन सकते है ?

चुनाव की तारीखें जैसे जैसे नज़दीक आती जाएंगी, ऐसी शरारतें बढ़ेंगी औऱ इनका एक ही उद्देश्य है कि समाज को हिन्दू मुस्लिम के कठघरे में बांटा जाय। इस समय दोनों ही समुदाय के विवेकशील लोगों को एकजुट हो खड़ा होना पड़ेगा जिस से इस उन्माद और पागलपन का शमन हो सके।

© विजय शंकर सिंह

Saturday 27 January 2018

जवाहरलाल नेहरू के वंश के सम्बंध में दुष्प्रचार - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

जवाहरलाल नेहरू के वंशावली पर गूगल पर बहुत सी ऐसी जानकारी दी गयी है जो न केवल झूठी है बल्कि शरारत से भरी हुयी है। अक्सर उन्हें मुसलमान या खान कह कर प्रचारित किया जाता है। ऐसा सिर्फ इस लिये कि भारत के बहुसंख्यक समाज मे उनके लिये घृणा भरी जा सके। और उन्हें मुस्लिम हितैषी सिद्ध कर के उनके सेक्युलर विचारधारा और पृष्ठभूमि को विवादित तथा मुस्लिम परस्त घोषित किया जा सके।  हालांकि नेहरू ने अपनी आत्मकथा माय स्टोरी , ( हिंदी में मेरी कहानी ) भी लिखी है और यह पुस्तक न सिर्फ बहुपठित है बल्कि बहुचर्चित भी है। पर आज के इस ई काल मे हम सब पुस्तकों और श्रोत अध्ययन से बहुत दूर होते जा रहे हैं और गूगल पर जो भी मिल जाता है उसे ही सच मान बैठते हैं। लेकिन नेहरू के बारे में जो भी गूगल पर उनके मुस्लिम होने की बात परोस दी गयी है या जानबूझकर फैलाई जा रही है  वह एक साजिश है।

" जब बादशाह फ़र्रूख़सियर सन् 1716 में कश्मीर गया तो वह तीन विशिष्ट लोगों से मिला.. इनायतुल्लाह कश्मीरी से, मोहम्मद मुराद से और पंडित राज कौल से.. इनायतुल्लाह कश्मीरी को बादशाह ने 4000 का मनसबदार बनाया.. वह पंडित राजकौल की फ़ारसी पर पकड़ से बहुत प्रभावित हुआ और उनको दिल्ली बुलाया.. कश्मीर के हब्बा कादल गांव निवासी पंडित राजकौल जिनका जन्म 1695 के आसपास हुआ था वह 1716 में बादशाह फ़र्रूख़सियर के बुलाने पर सपरिवार दिल्ली आ गए और शाही परिवार के बच्चों को फ़ारसी पढ़ाने लगे.. पंडित राजकौल को बादशाह ने रहने के लिए हवेली दी.. यह हवेली उस नहर के किनारे थी जिस नहर से जमुना नदी से पानी लाल किले में लाया जाता था.. राजकौल के पुत्र पंडित विश्वनाथ कौल का जन्म सन् 1725 में हुआ, जो पर्शियन कालेज दिल्ली से पढ़े और मुग़ल कोर्ट में नौकरी करने लगे..पंडित विश्वनाथ कौल के तीन पुत्र हुए.. पंडित साहिब राम, पंडित मंशाराम और पंडित टीकाराम.. ये तीनों फ़ारसी के विद्वान थे ..क्योंकि इनका घर नहर के किनारे था तो फ़ारसी रवायत के अनुसार स्थान विशेष का तख़ल्लुस इन्होंने इख्तियार किया और अपने नाम के आगे नेहरू लिखना शुरू किया.. इन तीनों भाइयों  ने ही सर्वप्रथम कौल की जगह अपना टाइटिल नेहरू लिखा..ज्ञात हो कि कौल कश्मीरी ब्राह्मणों की उपजाति है..  मंशाराम नेहरू के पुत्र लक्ष्मी नरायन नेहरू का जन्म दिल्ली में हुआ ...ये कंपनी सरकार की ओर से मुग़ल दरबार में वकील नियुक्त हुए.. इनके पुत्र हुए पंडित गंगाधर नेहरू जिनका जन्म 1827 में दिल्ली में हुआ.. गंगाधर नेहरू दिल्ली कालेज से पढ़े और उनके सहपाठी रहे पंडित रामकृष्ण सप्रू.. पंडित विश्वंभर नाथ साहिब और पंडित स्वरूप नरायन हक्सर ...पंडित गंगाधर नेहरू अच्छे घुड़सवार थे और बहादुर थे.. यही देखते हुए बादशाह बहादुरशाह ज़फ़र ने सन् 1845 के  आसपास इन्हें दिल्ली का कोतवाल बना दिया.. गंगाधर नेहरू की शादी दिल्ली के बाज़ार सीताराम के निवासी पंडित शंकर लाल जुत्शी ,जो मुग़ल कोर्ट में कैलिग्राफ़र भी थे उनकी बेटी इंद्राणी जुत्शी से हुई ..जब बहादुरशाह ज़फ़र अंग्रेज़ों द्वारा पकड़ लिए गए तो गंगाधर नेहरू अपने दो बेटों बंशीधर नेहरू और नंदलाल नेहरू तथा दो बेटियों महारानी नेहरू और पटरानी नेहरू के साथ अंग्रेज़ों से जान बचाकर किसी तरह दिल्ली से आगरा चले गए.. वहीं आगरा में सन् 1861 की फ़रवरी में पंडित गंगाधर नेहरू की मौत हो गई और उनकी मौत के समय मोतीलाल नेहरू गर्भ में थे और तीन महीने बाद सन् 1861 की 6 मई को मोतीलाल नेहरू का जन्म हुआ.. मोतीलाल नेहरू के पुत्र जवाहर लाल नेहरू हुए और जवाहर लाल नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी ।

( स्रोत --पुस्तक --कश्मीरी पंडितों के अनमोल रत्न... लेखक.. डॉ. बैकुंठ नाथ सरगा)"

* यह लेख वरिष्ठ पत्रकार शम्भूनाथ शुक्ल जी के फेसबुक टाइमलाइन से लेकर प्रस्तुत किया गया है।

© विजय शंकर सिंह