Tuesday 20 April 2021

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 7.

“पाकिस्तान ने भारत को आसानी से हरा दिया और संयुक्त राष्ट्र के सीजफायर के कारण ही युद्ध रुका”
- जेम्स विनब्रांड्ट (पाकिस्तान और मध्य एशिया विशेषज्ञ 1965 कच्छ रण युद्ध के विषय में)

“इससे क्या अंतर पड़ता है कि कौन जीता, कौन हारा। सवाल यह है कि उन्हें जो चाहिए था यानी कश्मीर। वह मिला? नहीं। हमने अपनी सीमाओं की रक्षा कर ली। हमने तो आक्रमण किया भी नहीं था कि जीतना महत्वपूर्ण होता।”
- ब्रिगेडियर चित्तरंजन सावंत. 

1965 के चुनाव की रचना ही ऐसी थी कि फ़ातिमा जिन्ना को मिले जन-समर्थन के बावजूद अयूब ख़ान की जीत निश्चित थी। हालांकि उन्होंने अयूब ख़ान को तानाशाह और भारत के सामने सिंधु घाटी समझौते में घुटने टेकने वाला कह दिया। (इस समझौते के अनुसार सतलज, रीवा, बेआस का जल भारत के हिस्से, और सिंधु, झेलम, चिनाब का जल पाकिस्तान के हिस्से आया था।)

चुनावी जीत के बाद अयूब ख़ान को अपनी ताकत दिखानी थी। उनको कूटनीति की समझ कम थी, लेकिन सेना के तो वह फ़ील्ड-मार्शल रहे थे। यही काम उन्हें ठीक से आता था। युद्ध लड़ना।

कूटनीति के लिए एक दूसरे व्यक्ति उनसे जुड़े। वह व्यक्ति अमरीका में पढ़े थे, सोवियत से प्रभावित थे, और भारत से बेइंतहा नफ़रत करते थे। पाकिस्तानी राजनीति में उनसे बड़ा कूटनीतिज्ञ अब तक शायद ही कोई हुआ। वह थे ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो।

भुट्टो पाकिस्तान के तेल, खनिज मंत्री थे, जबकि पाकिस्तान में न तेल था, न ख़ास खनिज। वह यह समझ चुके थे कि अमरीका जो भाव इरान, इराक या अरब देशों को देगा, वह पाकिस्तान को कभी नहीं देगा। क्योंकि पाकिस्तान में तेल नहीं है। हालांकि वह मानते थे कि पाकिस्तान में तेल है, और सोवियत से एक गुप्त करार कर लिया कि वे तेल ढूँढने पाकिस्तान आएँगे। यह अमरीका की पीठ में छुरा भोंकना था, मगर यह छुरेबाजी तो हर तरफ चल रही थी।

1962 में भारत-चीन विवाद युद्ध का रूप ले रहा था। उस वक्त अयूब ख़ान के लिए स्वर्णिम अवसर था कि कश्मीर में घुस जाएँ। भारत को दो मोर्चों पर एक साथ लड़ने में कठिनता होती। उस समय अमरीका और इंग्लैंड ने अयूब ख़ान के हाथ बाँध दिए। इस पर विस्तृत चर्चा मैंने अन्य लेखन (केनेडी: बदलती दुनिया का चश्मदीद) में की है।

भुट्टो-अयूब ख़ान की जोड़ी ने एक नये समीकरण की नींव रख दी। उन्हें लग गया कि एशिया के दो ही बॉस हैं- चीन और सोवियत। अमरीका के गणित में भारत की जगह अधिक महत्वपूर्ण है, पाकिस्तान की कम। जबकि चीन पाकिस्तान की अधिक मदद कर सकता है। पूर्व प्रधानमंत्री सुहरावर्दी भी चीन जा चुके थे, मगर अब यह रिश्ता पक्का हो रहा था। 1964 में चीन ने पाकिस्तान में एक सैन्य-उद्योग उपक्रम बनाने की पेशकश कर दी, और कश्मीर की आज़ादी में भी मदद की बात कही। अब हिन्दी-चीनी भाई-भाई नहीं, पाकी-चीनी भाई-भाई थे। 

जम्मू-कश्मीर अब तक काफ़ी हद तक स्वायत्त था। उसके अपने प्रधानमंत्री और सद्र-ए-रियासत थे, अपना संविधान था। 1965 में उस संविधान में छठा संशोधन किया गया, जिसके अनुसार वहाँ मुख्यमंत्री और राज्यपाल बनने थे। इसका अर्थ था कि भारत की केंद्र सरकार अपना चुना हुआ राज्यपाल चुन सकती थी। ग़ुलाम मुहम्मद सादिक़ पहले कांग्रेसी मुख्यमंत्री बने। कश्मीर इस फैसले के बाद अशांत हो रहा था। 

ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो के लिए यह सुनहरा कूटनीतिक अवसर था। कथित रूप से उन्होंने शेख अब्दुल्ला की मुलाकात चीन के राष्ट्राध्यक्ष चाउ-एन-लाई से अल्जीरिया में करवाई। जब लाल बहादुर शास्त्री को यह मालूम पड़ा, शेख अब्दुल्ला को तुरंत भारत बुलवाया।

अमरीका के पैटन टैंकों, चीन के वरदहस्त, और कश्मीर के मुजाहिद्दीनों के बदौलत पाकिस्तान भारत से लड़ने को तैयार हो रहा था। जनवरी 1965 में भारतीय सेना को एक अप्रत्याशित सीमा पर हलचल दिखी। यह न कश्मीर में था, न पंजाब में। यह हलचल थी सिंध के खारे, दलदली कच्छ के रण में। 

भारतीय प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री जनरल अयूब ख़ान से तीन साल बड़े थे। कुछ ही महीनों पहले काहिरा से लौटते हुए वह कराची में रुके थे और अयूब ख़ान ने शाकाहारी भोजन से उनका स्वागत किया था। एक स्वयं को किसान कहते, दूसरे जवान। अब दोनो युद्ध में आमने-सामने थे।
(क्रमश:)

प्रवीण झा
( Praveen Jha प्रवीण झा )

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 6.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/6_19.html

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