Wednesday, 21 April 2021

कुंदन लाल सहगल - जब दिल ही टूट गया...

ये पचास के दशक का अंत था, जब मैंने होश संभाला था। घर में रेडियो नहीं था। स्कूल जाने के रास्ते में एक होटल था। वहां रेडियो था। सुबह-सुबह का वक़्त होता था। रेडियो पर पुरानी हिंदी फिल्मों के गाने चल रहे होते थे। गायकों में एक आवाज़़ बिलकुल अलग होती थी, जो अक्सर सुनायी देती थी। इस आवाज़ में बलां का दर्द होता होता था। जैसे कोई गहरी चोट खाया हुआ बंदा हो। मेरे पैर इस आवाज़ पर जाने क्यों तनिक ठिठक जाते। दरअसल, उस वक़्त उस आवाज़ पर एक आदमी दीवानावार होकर हाय-हाय करता हुआ दिखता। वो कभी अपने बाल नोचता तो कभी कपड़े़ तार-तार करने पर उतारू हो जाता। कभी-कभी तो दीवार पर सिर भी पटकता। होटल का मालिक इस दौरान उसे बामुश्किल कंट्रोल करने कोशिश में जुटा रहता। वो दर्द भरी आवाज़ से ये गाने निकलते होते थे- ग़म दिए मुस्तिकिल, कितना नाजु़क है दिल, ये ना जाना, हाय हाय ये ज़ालिम ज़माना... हम जी के क्या करंेेगे जब दिल ही टूट गया...चाह बरबाद करेगी हमें मालूम ना था... बाबुल मोरा नइहल छूटा जाए.. दुख के दिन अब बीतत नाहीं....। कुछ अरसे बाद, मैं बड़ा हुआ तो जाना कि वो कलेजा फाड़ कर दर्द भरी आवाज़ रेडियो सिलोन से आ रही होती थी और इस आवाज़ के मालिक का नाम कुंदन लाल सहगल था, जिन्हें परलोकवासी हुए मुद्दत हो चुकी थी। तभी मुझे इन गानों का अर्थ पता चला और जाना कि इस आवाज़ को सुन कर उस शख्स का कलेजा फट कर बाहर क्यों आ जाता था? तभी ये भी जाना कि इंसान का जिस्म ज़रूर एक न एक दिन माटी होता है, मगर दिल की गहराईयों से ईमानदारी से उठी बाज़ आवाज़ें अमर रहती हैं।

कुंदन लाल सहगल का जन्म 11 अप्रेल, 1904 को जम्मू के एक निम्म मध्यम वर्गीय साधारण परिवार में हुआ था। उनके पिता अमर चंद जम्मू-कश्मीर के राजा प्रताप सिंह के दरबार में तहसीलदार थे। सहगल बामुश्किल छह जमातें ही पास कर सके थे। पढ़ाई की बजाए उनका दिल भजन व शब्द-कीर्तन में ज्यादा टिकता था। मां कैसर बाई भी अति धार्मिक थीं। बेटे का शौक देखकर वो उन्हें सूफ़ी पीर सुलेमान यूसुफ़ के पास ले गयीं। उन्होंने सहगल की आवाज़ के दर्द को पहचाना और बताया कि ये दर्द गले से नहीं आत्मा से उठ रहा है। मश्विरा भी दिया कि परवरदीगार को हाज़ि़र-नाज़ि़र कर खूब गाओ। दिल से दर्द और भी ज्यादा बाहर आएगा। 

सहगल ने पहली दफ़े़ 12 साल की उम्र में महाराजा प्रताप सिंह के दरबार में मीरा का भजन गाया था। बड़ी वाह-वाही मिली थी। मगर इस ख़बर को सुन कर पिता को बहुत तकलीफ़ हुई थी। उन्हें इस बेटे से बहुत उम्मीदें थीं, जो अब मटियामेट हो गयी थीं। पर सहगल पर कोई असर नहीं पड़ा। वो पीरों-फकीरों की संगत करते रहे और मंदिरों में बदस्तूर भजन व शब्द-कीर्तन में हिस्सा लेते रहे। चूंकि ज्यादा पढ़ नहीं पाए थे, लिहाज़ा अच्छी नौकरी नहीं मिल पायी। सिफ़ारिश पर पंजाब रेलवे में टाईम कीपर की नौकरी मिली। बाद में रेमिंगटन टाईप-राईटर कंपनी में सेल्समैनी की। इससे फायदा ये हुआ कि उन्हें मुल्क के दूसरे हिस्सों में जाने का मौका मिला। सहगल के बचपन के दोस्त थे मेहरचंद। अमीर व्यापारी थे। खुद भी गाने के जनूनी थे। मगर सहगल से अच्छा गला नहीं था। इसका उन्हें बखूबी इल्म था। सहगल को न सिर्फ उन्होंने सहारा दिया बल्कि उनकी क़ामयाबी में भी बड़ी भूमिका अदा की। यही वजह रही कि सहगल बराबर गाते रहे। उन्हें धन की कमी कभी नहीं होने दी। 

सहगल ने गायन और संगीत की औपचारिक शिक्षा कभी हासिल नहीं की। उनके पास जो कुछ भी था, क़ुदरत की देन थी। उनकी आत्मा से निकलती दर्द भरी आवाज़ एक स्टाईल बन गयी, एक अलग पहचान। उन दिनों के गायन में ये अलग ही ऊपर उठती आवाज थी। जो सुनने वाले को तड़पा कर रख देती थी। इस वजह से उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैल गयी। वो दौर भी कुछ सूफ़ियाना था। कई साल बाद जब सहगल का जादू पूरे शबाब पर था और माना जा रहा था कि सहगल की कॅापी करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है। तब इसे चुनौती मानते हुए संगीतकार ओंकार प्रसाद नैयर ने सी.एच.आत्मा से गवाया- प्रीतम आन मिलो...। सबने माना कि आत्मा के गले में सहगल जैसा दर्द है। परंतु ख़ुद नैयर ने मानने से इंकार कर दिया। उनका कहना था कि आत्मा महज़ कापी हैं असल जैसे नहीं। फिर बरसों बाद सन 1945 में मुकेश ने अनिल बिस्वास के संगीत निर्देशन में पहली बार ‘पहली नज़र’ में गाया- दिल जलता है तो जलने दो....। लगा कि सहगल का विकल्प मिल गया है। मगर सहगल के जाने से खाली हुए बड़े शून्य को मुकेश नहीं भर पाए। उन्होंने बाद में सहगल से अलग अपनी दुनिया बसायी। लेकिन सहगल की शैडो से बाहर नहीं आ पाये। सहगल जैसा थोड़ा-थोड़ा दर्द उनके स्वर में झलकता रहा। 

बहरहाल, सहगल के मित्र मेहरचंद व्यापार के सिलसिले में कलकत्ता गये तो सहगल को भी साथ ले गयेे। वहां एक पार्टी में सहगल का भजन गायन सुन कर हिंदुस्तान रेकार्ड कंपनी का प्रतिनिधि उनकी आवाज़ का दीवाना हो गया। इस तरह सहगल का पहला एलबम तैयार हुआ, जिसमें भजन ही भजन थे। संगीतकार थे- हरीशचंद्र बाली। इस एलबम का ये भजन बहुत मशहूर हुआ था- झूला ना झुलाओ...। इस बीच कलकत्ता फिल्म इंडस्ट्री में सहगल की भेंट पहाड़ी सान्याल, पंकज मल्लिक, के.सी. डे सरीखे पारखियों से हो चुकी थी। उन्होंने सहगल की आवाज़ को पारिमार्जित करने में काफी सहयोग दिया। फिर बी.एन. सिरकार ने न्यू थियेटर कंपनी में उन्हें रु0 200/- प्रतिमाह की नौकरी पर रख लिया। 1932 में सहगल की एक के बाद एक तीन फिल्में -मोहब्बत के दुश्मन, ज़िंदा लाश और सुबह का तारा- रिलीज़ हुई। इनमें वो गायक के साथ-साथ एक्टर भी थे। ये फिल्में बाक्स आफ़िस पर नाकाम रहीं। पर ये तय हो गया कि सहगल नाम के सिंगिंग स्टार का उदय हो गया है, जिसकी दर्दीली आवाज़ और अभिनय में किसी को भी तड़पाने की बेमिसाल खूबी है। और इसके साथ ही शुरू हुआ सहगल युग, जो 1946 तक बड़े जोर-शोर से चला। सहगल उस ज़माने के सुपर स्टार थे वो। हर खासो-आम के दिलों में बसते थे। आगे चल कर ऐसी दीवानगी दिलीप कुमार, राजकपूर, देवानंद, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन और हालिया सलमान खान, अक्षय कुमार व शाहरुख खान के लिए देखी गयी। लगभग अकेले दम पर सहगल ने 14 साल तक दर्शकों के दिलों पर मुक़म्मल राज किया। इस 6 फिट व 2 इंच ऊंचे कद के खूबसूरत पंजाबी नौजवान गायक सहगल की आवाज़ का दर्द एक्टर सहगल के चेहरे पर भी बखूबी नुमांया होता था। इसलिए वो अपने बेहतरीन एक्टर होने का भी लोहा मनवाने लगे। फिल्मों में उनके पहले संगीत निर्देशक आर.सी. बोराल थे। 

शुरूआती फिल्मों की नाकामी के बावजूद सहगल को फिल्मों के आॅफ़र आते रहे। सन 1933 में ‘पूरन भगत’ ने पूरे हिंदुस्तान में तहलका मचा दिया। इसमें सहगल के चार गाने थे। फिर एक और ज़बरदस्त हिट आयी ‘चंडीदास’। ‘प्रेम नगर में बसाऊंगी घर मैं...’ जन-जन की जुबान पर चढ़ा। 1935 में पी.सी. बरूआ की ‘देवदास’ ने तो सहगल को दिलों का सम्राट बना डाला। इसके ये गाने बड़े मशहूर हुए- बलम आये बसो मेरे मोरे मन में... दुख के अब दिन बीतत नाहीं...। कलकत्ता में सहगल ने कई और फिल्में भी कीं, जिनमें प्रमुख थीं- यहूदी की लड़की (नुक़्ताचीं है गम-ए-दिल, उनको सुनाए ना बने...), रूपलेखा, कारवां-ए- हयात, जिंदगी, परिचय आदि। न्यू थियेटर के लिए भी सहगल ने यादगार फिल्में कीं। जैसे, प्रेसीडेंट (ईक बंगला बने न्यारा...दुख की नदिया जीवन नैया...), मेरी बहन (दो नैना मतवाले... ऐ कातिल-ए-तकदीर इतना बता दे....), स्ट्रीट सिंगर (बाबुल मोरा नईहर छूटल जाए...) आदि। हालांकि उन दिनों प्लेबैक पूरी तरह से अपनाया जा चुका था। मगर ‘स्ट्रीट सिंगर’ (1938) में सहगल ने ज़िद करके ‘बाबुल मोरा नईयर छूटल जाए...’ लाईव गाते हुए फिल्माया गया। इस फिल्म में उन दिनों की सिंगिग क्वीन कानन देवी नायिका थीं। उन्होंने सहगल के साथ गाने से इंकार कर दिया। ऐसा इसलिए कि उन्हें डर था कि सहगल की करिश्माई आवाज़ तले उनकी जादुई आवाज़ दो टके की रह जाएगी। इसी तरह बरसों बाद बंबई में सुरैया भी ‘परवाना’ (1947) में इसलिए डर गयी थी कि सहगल की अदभुत आवाज़ के सामने उनकी आवाज़ की कोई कद्र नहीं होगी। दोनों के इस फिल्म में चार-चार सोलो गाने रेकार्ड हुए थे। ‘परवाना’ सहगल की आखिरी फिल्म थी जो उनके इस दुनिया से बिदायी के बाद रिलीज़़ हुई थी। सुरैया इससे पहले सहगल के साथ ‘तदबीर’ भी कर चुकी थी। 

तीसरे दशक के अंत में हिंदी सिनेमा का सेंटर कलकत्ता की बजाए पूरी तरह बंबई बन गया था। अतः सहगल 1940 में कलकत्ता छोड़कर बंबई आ गए। यहां भी सहगल का जलवा कायम रहा। कभी वह भक्त सूरदास होते तो कभी तानसेन। कुरूक्षेत्र, उमर खय्याम, तदबीर, शाहजहां, परवाना आदि सभी हिट थीं। उन्होंने ग़म, खुशी, क्रोध, भय, वात्सलय, प्यार, आश्चर्य आदि सभी रसों के कई बेमिसाल गाने दिए। ख्याल, बंदिश, गीत, ग़जल, भजन, दादारा होरी को उन्होंने भैरवी, बिरंग, बागेश्वरी, काफ़ी, देव गंधार आदि अलग-अलग रागों में पूरे परफेक्शन के साथ गाया। उस ज़माने में शास्त्रीय संगीत का उफान पर शबाब पर था। पूरा महौल ही शास्त्रीय संगीतमय था। हम जी कर क्या करेंगे जब दिल ही टूट गया... ऐ दिले बेकरार झूम ... चाह बरबाद करेगी, हमें मालूम ना था ... ग़म दिए मुस्तिकिल ये ना जाना... आदि सुपर हिट गाने नौशाद अली साहब ने के संगीत निर्दशन में बने। तब तक सहगल जीते-जी किवदंती बन चुके थे। सहगल के मुरीद नौशाद का कहना था कि आवाज़ की दुनिया का ये बेताज शहंशाह जब भी गाता था तो सामने हारमोनियम का होना ज़रूरी था। जबकि रेकार्डिंग के वक़्त प्लेबैक सिंगर के सामने माईक के अलावा कुछ भी रखना मना था। परंतु सहगल की भी अपनी मजबूरी थी। लिहाजा एक नकली की बोर्ड वाला हारमोनियम उनके सामने रख दिया जाता था। सहगल ने हिंदी, उर्दू के साथ-साथ पश्तो, पंजाबी, तमिल और बंगाली फिल्मों में भी गाया थे। उन्हें बंगाला भाषा का बहुत अच्छा ज्ञान था। बंगाली फिल्म ‘दीदी’ के लिए गुरूदेव रविंद्र नाथ टैगोर लिखित गीतों की रेकार्डिंग से पहले गुरूदेव ने सहगल की आवाज़ का टेस्ट लिया था। दरअसल गुरूदेव अपने गीतों के मामले में किसी किस्म का समझौता नहीं करते थे। उनकी मंज़ूरी मिलने के बाद ही सहगल को रेकार्ड करने की इजाज़त मिली। 

सहगल शराब का बहुत सेवन करते थे। बिना पीये गा नहीं सकते थे। पीने के बाद वो गाने के बहुत भीतर तक घुस जाते थे। इसके लिए उन्होंने एक कोड रखा - पैग काली पांच। ये शराब ही सहगल का काल बनी। उनको लीवर सिरोसिस हो गया। इसी वजह से उनका फिल्मी कैरीयर भी ज़ख्मी हुआ और ज़िंदगी छोटी हो गयी। नौशाद का कहना था कि सहगल ने अपनी आखिरी दो फिल्मों - शाहजहां और परवाना के गाने शराब पिये बिना रेकार्ड कराए थे। जब उनकी बीमारी लाईलाज हो गयी तो वो 1946 में ज़िद करके बंबई से अपने घर जालंधर आ गए और एक नामी फ़कीर से ईलाज कराने लगे। मगर नियति को ‘होनी’ का टलना मंजूर नहीं था। 18 जनवरी, 1947 को आज़ादी से कुछ महीने पहले सहगल ने आखिरी सांस ली। उन वक़्त सहगल की उम्र महज़ 42 साल थी। सहगल के एक अनन्य भक्त से सुना था कि जब आख़िरी सफ़र के लिए उनका जनाज़ा उठा था तो दूर कहीं से आवाज़ आ रही थी- अब जी कर क्या करेंगे, जब दिल ही टूट गया...। अब इसमें सच कितना है, मालूम नहीं। उस दौर का कोई बंदा नहीं मिला, जिसने सहगल को भले देखा ना हो पर महसूस किया हो।

कुंदन लाल सहगल ने कुल 36 फिल्मों में अभिनय किया। जिसमें अपने पर फिल्माए सारे गाने उन्होंने खुद गाए। कुल मिलाकर 185 गाने रेकार्ड हुए, जिसमें 142 फिल्मों से थे। सहगल ने दो बंगाली फिल्मों -दीदी और साथी भी न्यू थियेटर्स के लिए की थी। तीन रील की एक शार्ट कामेडी फिल्म 'दुलारी बीबी' भी की। सहगल की याद में न्यू थियेटर के बी.एन. सिरकार ने 1955 में एक डाक्यूमेंटरी ‘अमर सहगल’ बनायी थी। भारत सरकार ने भी सहगल की गायन, संगीत व अभिनय के प्रति पूुर्ण समर्पण की भावना का ऐहतराम करते हुए 1995 में पांच रुपए कीमत का एक डाक टिकट जारी किया था। सन 1967 में स्वरों की मलिका लता मंगेशकर ने अपने गायन की सिल्वर जुबली के जश्न की शुरूआत सहगल की ‘जिंदगी’ के इस अमर गीत ‘‘सो राज कुमारी, सो जा...‘‘ से करके साबित किया था कि वो उनकी ज़बरदस्त भक्त तो थीं ही और साथ ही सहगल को गीत-संगीत की दुनिया में बहुत ऊंचा मुकाम हासिल है। उस वक्त पूरा समां सहगलमय होकर सहगल के सुनहरे युग में गुम हो गया था। लता की दिली ख्वाहिश थी कि उन्हें सहगल के साथ गाने का मौका मिले। मगर लता को फिल्मों में ब्रेक सहगल की मृत्यु के एक साल बाद मिला। 

तीस और चालीस के दशक का सुपर सिंगिंग स्टार कुंदन लाल सहगल, जिन्हें कुदरत की एक नायाब रचना भी कहा जाता था, को इस दुनिया सें विदा कहे 73 साल हो चुके हैं। ये लंबा अरसा किसी को भी भुलाने के लिए काफ़ी है। अपवाद छोड़ दें तो उनके युग के लोग भी अब नहीं बचे है। मगर इसके बावजूद सहगल ज़िंदा हैं तो अपनी अमर आवाज़ के लिए और इसलिए भी कि उनके चाहने वालों की वजह से उनकी विरासत पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती रही है और आगे भी सदियों तक होती रहेगी। जिस्म नश्वर है, मगर अमर आवाजें कभी खामोश नहीं होती। संगीत व गायन में ज़रा सी भी रुचि रखने वालों का ज्ञान सहगल को जाने बिना अधूरा है। ये सच है कि एक बार जो सहगल को दिल से सुन लेता है तो उसे सहगल की लत पड़ जाती है। वो सिर्फ़ और सिर्फ़ सहगल के बारे में ही सोचता रहता है। इच्छा होती है सदियों तक सोचता रहे। मुझे भी सहगल पर लिखने की लत है और चाहत है कि बस लिखता ही रहूं। 

वीर विनोद छाबड़ा 
( Vir Vinod Chhabra )

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