सत्य की परतें इतनी धीरे धीरे खुलती है। हम अगली रिचा की ओर बढ़े इससे पहले पिछली दोनों रिचाओं के सार पर दृष्टिपात करना उचित होगा। हमने संकेत रूप में कहा था की ग्रीष्म की तपन को ध्यान में रखते हुए इंद्र की प्यास को समझने का प्रयत्न करें तब भी यह नहीं सोचा था कि वनस्पतियों की रस-पान वास्तव में भारतीय ग्रीष्म का भारतीय ग्रीष्म ऋतु का काव्यात्मक चित्रण है । ताप तो चैत से ही आरंभ जाता है, परंतु बैसाख और जेठ की झुलसानेवाली प्रचंड धूप और लू के थपेडे़ (प्रहार) तो हर चीज को झुलसा कर रख देते हैं। इस प्रकोप और इन थपेड़ों को यदि आक्रमण के रूप में चित्रित किया गया तो उचित ही था। इंद्र यहां किसी एक संग्राम में नहीं उतरते हैं, संग्रामों में (आहवेषु) उतरते हैं। सान्द्रता (जल में उस तत्व की मिलावट जिससे वनस्पतियों में मीठा या कड़वा स्वाद पैदा होता है), शोषण की प्रक्रिया को मंद करती है। शुद्ध जल की आकांक्षा रखने वाले के लिए किसी स्वाद का होना बाधक है, इसे यदि और किसी बात से नहीं तो समुद्र के जल से पेय जल पाने की समस्या से तो समझा ही जा सकता है। समुद्र के खारेपन की तरह मधु-कटु सभी स्वाद, सभी तरह के गंध रस (शुद्ध जल) के ग्रहण में बाधक हैं, आर्द्रता के शोषण के विरुद्ध कवच हैं, पर ये भी इंद्र के प्रहार का सामना नहीं कर पाते - न कश्चन सहत आहवेषु। इस रस-पान से या कहें अपनी पहली विजय, सोम-पान, से उत्साहित और शक्तिशाली होकर वह जल को रोक कर रखने वाले हिमानी शिखरों पर प्रहार करते हैं। शंबर की अनगिनत हिमानी पुरियों को एक साथ तोड़ देते हैं। यह काम वह किसी सेना के बल पर, या हथियार की सहायता से नहीं, अपने बाहु-बल (किरणों/करों) से करते हैं, और उस महाकार सर्प का वध कर देते जो इन पर फैला हुआ था (नव यो नवतिं पुरो बिभेद बाहु ओजसा । अहिं च वृत्रहा वधीत् ।। 8.93.2)।
शंबर की या किसी सरदार या राजा की तो केवल एक ही पुरी होनी चाहिए थी, एक ही किला होना चाहिए था, उसे एक ही पर्वत पर निवास करना चाहिए था। पर वह पर्वतों पर निवास करता है:
यः शम्बरं पर्वतेषु क्षियन्तं
चत्वारिंश्यां शरद्यन्वविन्दन् ।
ओजायमानं यो अहिं जघान
दानुं शयानं स जनास इन्द्रः ।। 2.12.11)
(जिसने पर्वतों पर निवास करने वाले शंबर की चालीस हिमानी (पुरियों) को ध्वस्त करके इन पर सर्पाकार पसरे हुए अभिमानी दानव का वध किया, ऐ लोगो, वही इन्द्र है।)
हमने ऋचा के मर्म को स्पष्ट करने के लिए इसके चरणों को अलग अलग रखा है। पहले चरण में शंबर को ‘पर्वतों’ पर निवास करने वाला बताया गया है। यहां पर्वतों का अर्थ है पर्वत-माला जो महासृप की टेढ़ी-मेढी दूर तक फैली हुई है। दूसरे चरण में शम्बर की पुरियों के लिए प्रयुक्त विशेषणों पर ध्यान दें उनमें अन्विति होनी चाहिए। इनके विशेषण हैं 1. पृथु (पूश्च पृथ्वी बहुला न उर्वी ), 2.चरिष्णु (त्वं पुरं चरिष्ण्वं वधैः शुष्णस्य सं पिणक् ), 3. शारदी (पुरो यदिन्द्र शारदीरवातिरः), 4. दृळ्ह/दृढ़ (पुरः पुरोहा सखिभिः सखीयन्दृळ्हा रुरोज कविभिः कविः सन्; इन्द्राविष्णू दृंहिताः शम्बरस्य नव पुरो नवति च श्नथिष्टम् ), 5. नार्मिणी (आ यः पुरं नार्मिणीमदीदेत्). 6. गोमती (पुरं न दर्षि गोमतीम् )
इनकी संख्या 1. सौ (शतानि, 6.31.4); 2. निन्यानबे (नवतिं नव, 2.19.6; 7.99.5); नब्बे (नवतिं, 3.12.6); चालीस (चत्वारिंश, 2.12.11) है। इन सभी संख्याओं का अर्थ है, अनगिनत ( त्वं शतानि अव शम्बरस्य पुरो जघन्थ अप्रतीनि दस्योः , 6.31.4।
इन्द्र इन पुरों का विदीर्ण करते हैं (वि पुरो दर्दरीति) । इनको छिन्न-भिन्न कर देते है (शतं पुरो रुरुक्षणिम् ), परंतु इस ध्वंस के नदियाँ आप्लावित होती हैं (रुरोज पुरो अरदन्न सिन्धून्)। पर्वतों को इन्द्र इस तरह तोड़ देते हैं जैसे कोई कच्चे घड़े को तोड़ दे (बिभेद गिरिं नवमिन्न कुम्भमा गा इन्द्रो अकृणुत्स्वयुग्भिः)।[2] इन्द्र अपनी वर्षणकारी किरणों से उनका भेदन करते है (वि तिग्मेन वृषभेणा पुरोऽभेत् )[3] वह जल धाराओं से पर्वतों को तोड़ देते है (प्र वक्षणा अभिनत् पर्वतानाम् )। वह अहि का वध करते है तो जल की धाराएँ फूट पड़ती है (अहन्नहिमन्वपस्ततर्द )।
जैसे बछड़ा गाय की ओर दौड़ता है उसी तरप जल धाराएँ उमड़ क समुद्र की ओर दौड़ती हैं (अहन्नहिं पर्वते शिश्रियाणं त्वष्टास्मै वज्रं स्वर्यं ततक्ष । वाश्रा इव धेनवः स्यन्दमाना अंजः समुद्रमव जग्मुरापः )। पुरियों को पत्थर की तरह तोड़ देते है (अध्वर्यवो यः शतं शम्बरस्य पुरो बिभेदाश्मनेव)। सबसे रोचक है काले पत्थरों पर जमी हुई बर्फ का छिल्के की तरह उतर जाना जिसके आधार पर एक ‘मार्क्सवादी’ इतिहासकार ने आर्यों की क्रूरता का प्रमाण पेश करते हुए दावा किया था कि आक्रमणकारी आर्य काले दासों की चमड़ी उधेर देते थो (पञ्चाशत् कृष्णा नि वपः सहस्राऽत्कं न पुरो जरिमा वि दर्दः )।[4]
अहन् अहिं पर्वतेषु क्षियन्तं)। वह अपाद-हस्त है पर उसके कंधे और शिर हैं (अयमिन्द्रो मरुत्सखा वित्रस्याभिनच्छिरः... 8.76.2; दासस्य नमुचेः शिरो यदवर्तयो मनवे गातुमिच्छन् ।। 5.30.7; शिरो दासस्य नमुचेर्मथायन् ।। 5.30.8) ये सभी पर्वतशिखरों पर पाषाणवत (अश्मनेव) जमे हिम पर उन्हीं प्रचंड सूर्य किरणों का प्रहार है। इस अभियान में चोटियों और घाटियो
में जमी बर्फ के टूटने, गिरने, प्रवाहित होने का चित्रण हैः
नि आविध्यत् इलीबिशस्य दृळहा वि शृंगिणमभिनच्छुष्णमिन्द्रः ।
यावत्तरो मघवन् यावदोजो वज्रेण शत्रुमवधीः पृतन्युम् ।। 1.33.12
सूर्य तो वैश्वानर हैं ही, पर वैश्वानर के रूप में हम अग्नि से अधिक परिचित हैं क्योंकि दूर देशों की व्यापारिक यात्रा पर जाने वाले आग साथ ले कर निकलते थे, प्रस्थान करते समय आग ले कर चलने वाले सबसे आगे होते थे।
यद्यपि वृत्र और शंबर में प्रायः अभेद हो जाता है पर वृत्र के साथ इन्द्र का युद्ध वर्षागम के साथ, बादलों की गर्जना, बिजली की चमक और वृत्रवध से धरती के आप्लावित हो जाने का चित्रण।
प्राकृतिक लीला का ऐसी जीवंत, ऐसा मनोग्राही, ऐसा सम्मोहनकारी जिसमें जिनको यह पता है कि असुरों के रूप में चित्रित वृत्रादि बादलों के मानवीकरण हैं वे भी इस काव्य विधान को नहीं समझ पाते और इस नासमझी के कारण ये कविताएं पागलों के प्रलाप जैसी लगती हैं।
प्रसंगवश याद दिला दें कि हमारा यह विमर्श रामकथा का विस्तारित पाठ है और इस दृष्टि से दशकंधर रावण शंबर का प्रतिरूप है तो मेघनाद वृत्र का और संभव है कुंभकर्ण इलीबिश का (उन गहरी खाइयों का जिनमें छह महीने बर्फ जमी रहती है।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
ऋग्वेद की रहस्यमयता (6)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/6.html
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