ऋग्वेद में उपलब्ध कविताओं के सांस्कृतिक पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए यदि उनका पाठ किया जाए तो कुछ समस्याएं सुलझ जाती हैं। सृष्टि विषयक एक सूक्त में सृष्टिबीज हिरण्यगर्भ अंडाणु के रूप में प्रकट होता है। इस सूक्त का देवता या विषय ‘को’ है। हम पीछे देख आए हैं कि को और गो का मूल अर्थ जल है। जल के पर्यायों का ही प्रयोग विष्णु या ईश्वर आदि के सहस्रनामों के लिए किया जाता है। तमिल भाषा में कोविल (को+इल) का अर्थ है देव गृह । गोपुरम का अर्थ है मंदिर का शिखर। कोविद का अर्थ मात्र ज्ञानी नहीं ब्रह्म ज्ञानी है और यही अर्थ कोविंद/ गोविंद - का भी होना चाहिए। जो भी हो, इस सूक्त की पहली ही ऋचा है
हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम ।। 10.121.1ॉ
(सबसे पहले हिरण्यगर्भ प्रकट हुआ जो समस्त भूत-जगत का स्वामी था, उसी में धरती आकाश सभी समाहित थे, उस कः को ही हवि प्रस्तुत करें।)[1]
परंतु हिरण्यगर्भ अंडाणु के साथ दो विशेषताएँ जुड़ी हुई हैं, एक यह कि सृष्टि कि उसमें जल तत्व है और दूसरा यह कि वह भण् के स्फोट के साथ फटता है उसके साथ समस्त ब्रह्मांड सृजित हो जाता है - ‘सकृत द्यौ अजायत, सकृत भू अजायत।’ अब सृष्टि के मूल में दो तत्व उपस्थित होते हैं, एक आदि जल और दूसरा वाग्ब्रह्म या स्फोट। न-कुछ-वत से एक साथ समस्त ब्रह्मांड के अस्तित्व में आने और इसी तरह एकाएक समस्त ब्रह्मांड का ध्वंस या महाप्रलय की इन दोनों भारतीय अवधारणाओं से अभिन्न आज के वैज्ञानिकों की (Big Bang and Big crunch) [2] महास्फोट और महाध्वंश मान्यता मुझे चकित करती है। परंतु, यह लेख माला तो आपको चकित करने के लिए नहीं है, केवल यह बताने के लिए है के संदर्भों की चूक के कई रूप हैं। चिंतन के स्तर के, प्रस्तुति के स्तर के आत्मविश्वास ( मनोवैज्ञानिक) के स्तर के।
आप कहेंगे कि बिग बैंग का सिद्धांत और साथ ही बिग क्रंच का सिद्धांत पुराना पड़ चुका है वैज्ञानिक दूसरे स्तर पर खोज कर रहे हैं। परंतु यदि यही असंतोष वैदिक चिंतन में मिले तो क्या कहेंगे। स्थापना मैं भी समानता और उसके प्रति संदेह में भी समानता और निरंतर खोज में भी समानता। मैं आंदोलनकारी नहीं हूं। मैं किसी को अपने विचारों का कायल बनाना नहीं चाहता। मैं केवल यह चाहता हूं किस विषय में आप भी जानते हैं कुछ नहीं जानते हैं सुनी सुनाई बातों पर अपना विचार बना रखा है उस पर अधिकार पूर्वक बात न करें, और जी से जानते हैं, और लगता है कि आप भी जानते हैं, तो उसमें संदेह के लिए थोड़ी सी जगह अवश्य बनी रहने दें।
केवल एक बात को दोबारा स्पष्ट करने के लिए मैं सूक्त 121 की एक अन्य ऋचा को पेश करते हुए कि इसमें को/कः को आदि जल, परम सत्ता. रसो वै सः से अभिन्न मानता हूं, हम पिछले सूक्त (10.125) पर लौटना चाहेंगे। यह है:
आपो ह यद् बृहतीर्विष्वमायन् गर्भं दधाना जनयन्तीरग्निम् ।
ततो देवानां समवर्ततासुरेकः कस्मै देवाय हविषा विधेम ।। 10.121.7
इसकी हम व्याख्या भी नहीं करना चाहते क्योंकि इससे आगे के जरूरी विवेचन प्रभावित होंगे और उनके लिए समय न रह जाएगा ।
हम इस सूक्त 125 में जल से उत्पन्न ध्वनियों के संसार और उसकी सृष्टि और उससे हमारी चेतना का जो संबंध है उसका विवरण पाते हैं। परंतु जिस शब्दावली में इसे व्यक्त किया गया है, उससे क्या हम इसे समझ सकते थे?[3]
पहली ही ऋचा में वाणी कहती है, मैं रूद्रों, वसुओं, आदित्यों, समस्त देवों, मित्रा वरुण इंद्र और अग्नि, अश्विनों के माध्यम से विचरण करती हूँ:
अहं रुद्रेभिः वसुभिः चरामि अहं आदित्यैः उत विश्वेदेवैः ।
अहं मित्रावरुणा उभा बिभर्मि अहं इन्द्राग्नी अहं अश्विना उभा ।। 10.125.1
प्रस्तुति की यह शैली आप को भ्रमित कर देती है, और आप यह भूल जाते हैं कि ये सभी भाषा की ही सृष्टि हैं, एक ही महा शक्ति की विभिन्न रूपों, कार्यों और अवस्थाओं की अभिव्यक्तियाँ हैं और इसके लिए आपको एक दूसरे सूक्त का सहारा लेना पड़ता है। हम उस सूक्त को उद्धृत कर सकते हैं परंतु अनुवाद करने का समय नहीं है:
त्वमग्ने द्युभिस्त्वमाषुषुक्षणिस्त्वमद्भ्यस्तवमष्मनस्परि ।
त्वं वनेभ्यस्त्वमोषधीभ्यस्त्वं नृणां नृपते जायसे षुचिः ।। 2.1.1
तवाग्ने होत्रंतव पोत्रमृत्वियं तव नेष्ट्रं त्वमग्निदृतायतः।
तव प्रषास्त्रं त्वमध्वरीयसि ब्रह्मा चासि गृहपतिश्च नो दमे ।। 2.1.2
त्वमग्न इन्द्रो वृषभः सतामसि त्वं विष्णुरुरुगायो नमस्यः ।
त्वं ब्रह्मा रयिविद् ब्रह्मणस्पते त्वं विधर्तः सचसे पुरंध्या ।। 2.1.3
त्वमग्ने राजा वरुणो धृतव्रतस्त्वं मित्रो भवसि दस्म ईड्यः।
त्वमर्यमा सत्पतिर्यस्य संभुजं त्वमंषो विदथ्ेा देव भाजयुः ।। 2.1.4
त्वमग्ने त्वष्टा विधते सुवीर्यं तव ग्नावो मित्रमहः सजात्यम्।
त्वमाषुहेमा ररिषेस्वष्व्यंत्वं नरां षर्धो असि पुरूवसुः ।। 2.1.5 {17}
त्वमग्ने रुद्रो असुरो महो दिवस्त्वं षर्धो मारुतं पृक्ष ईषिषे ।
त्वं वातैररुणैर्यासि शंगयस्त्वं पूषा विधतः पासि नु त्मना ।। 2.1.6
त्वमग्ने द्रविणोदा अरंकृते त्वं देवः सविता रत्नधा असि ।
त्वं भगो नृपते वस्व ईषिषे त्वं पायुर्दमे यस्तेऽविधत् ।। 2.1.7
त्वामग्ने दम आ विष्पतिं विषस्त्वां राजानं सुविदत्रमृंजते ।
त्वं विश्वानि स्वनीक पत्यसे त्वं सहस्राणि शता दश प्रति ।। 2.1.8
त्वां अग्ने पितरमिष्टिभिर्नरस्त्वां भ्रात्राय षम्या तनूरुचम् ।
त्वं पुत्रो भवसि यस्तेऽविधत् त्वं सखा सुषेवः पास्याधृषः ।। 2.1.9
त्वमग्ने ऋभुराके नमस्यस्त्वं वाजस्य क्षुमतो राय ईषिषे ।
त्वं वि भास्यनु दक्षि दावने त्वं विषिक्षुरसि यज्ञमातनिः ।। 2.1.10{18}
त्वमग्ने अदितिर्देव दाषुषे त्वं होत्रा भारती वर्धसे गिरा ।
त्वं इळा शतहिमासि दक्षसे त्वं वृत्रहा वसुपते सरस्वती ।। 2.1.11
त्वमग्ने सुभृत उत्तमं वयस्तव स्पार्हे वर्ण आ संदृषि श्रियः ।
त्वं वाजः प्रतरणो बृहन्नसि त्वं रयिर्बहुलो विश्वतस्पृथुः ।। 2.1.12
त्वामग्न आदित्यास आस्यं1 त्वां जिह्नां षुचयश्चक्रिरे कवे ।
त्वां रातिषाचो अध्वरेषु सश्चिरे त्वे देवा हविरदन्त्याहुतम् ।। 2.1.13
त्वे अग्ने विष्वे अमृतासो अद्रुह आसा देवा हविरदन्त्याहुतम् ।
त्वया मर्तासः स्वदन्त आसुतिं त्वं गर्भो वीरुधां जज्ञिषे षुचिः । 2.1.14
यहां यह ये रूप और नाम अग्नि के संदर्भ में हैं और स्वयं अग्नि जल से उत्पन्न और आग जल और आदिजल और आदिम स्फोट सृष्टि के मूल हैं।
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[1] यह एक देववाद विरोधी, कर्मकांड विरोधी, वैज्ञानिक और भौतिकवादी अवधारणा है जिसे वे लोग कभी समझ नहीं सकते जो ऋग्वेद को अन्य बातों के अलावा धर्म ग्रंथ के रूप में पेश करते और समझने का प्रयत्न करते रहे हैं। ध्यान रहे कि कवि यहां किसी सत्ता को हवि प्रदान करने की बात नहीं कर रहा है, बल्कि कर्मकांड का विरोध करते हुए, यह कह रहा है कि यदि किसी की आराधना करनी है तो इंद्र आदि की आराधना क्यों करते हो, वे तो उसी आदि कारण से पैदा हुए हैं जो भौतिक है। इसे एक अन्य ऋचा में वेन भार्गव इस रूप में चुनौती देते हैं, कि मैं इनकी आराधना नहीं कर सकता, मैंने उसे देखा ही नहीं, जानता ही नहीं, यदि तुम उसे जानते हो तो तुम उसका स्तवन करो, मैं किसकी उपासना करूँ?
प्र सु स्तोमं भरत वाजयन्त इन्द्राय सत्यं यदि सत्यमस्ति ।
नेन्द्रो अस्तीति नेम उ त्व आह क ईं ददर्ष कमभि ष्टवाम ।। 8.100.3
यह भौतिकवादी, वैज्ञानिक विचारधारा देववाद विरोधी, कर्मकांड विरोधी, वर्णवाद विरोधी विचारधारा है और वैदिक कालीन औद्योगिक और वैज्ञानिक श्रेष्ठता में इसी का योगदान है, और बहुत कम जानते हुए भी मुझे इस बात पर होता है कि मुझसे पहले परंपरावादी, आर्यसमाजी, या पाश्चात्य आधुनिक विद्वानों मैं इस ओर ध्यान ही नहीं दिया, और वेदविदांवरों के बीच अपनी तो कोई हैसियत ही नहीं । मेरे विश्लेषण का लाभ वह भी नहीं उठा पाएंगे जो वैज्ञानिकता की बात तकिया कलाम की तरह करते हैं। वे मुझे पढ़ते ही नहीं।
[2]“The Big Crunch is a hypothetical scenario for the ultimate fate of the universe, in which the expansion of the universe eventually reverses and the universe recollapses, ultimately causing the cosmic scale factor to reach zero, an event potentially followed by a reformation of the universe starting with another Big Bang.”
[3] यदि ऋग्वेद का कंप्यूटर पाठ अपने हाथों से तैयार करते हुए, वायरस की कृपा से, लगभग पूरे हुए काम के नष्ट हो जाने के बाद कई बार इसे नए सिरे से लिखने के अभ्यास और अंततः इसका विकल्प तैयार करने में सफलता, इसे कई रूपों में सुरक्षित रखने की चिंता के चलते, और कंप्यूटर के माध्यम से पूरे ऋग्वेद के कंठाग्र हो जाने के अभाव में क्या मैं भी ऐसा कर सकता था।
आदमी का दिमाग नहीं, उसका पसीना, उससे अधिक सोचता है। पसीना किस तर्क से लहू में बदलता है, आत्मविश्वास में बदलता है, दृष्टि में बदलता है, मनुष्य द्वारा निर्मित यंत्र उसके ज्ञानेंद्रियों कर्मेंद्रियों को अनंत गुणित करती जाती है, इसका द्रष्टा मैं हूँ जो कृष का दावा करते हुए, अपने से कितना छोटा हो जाता है, और नारों में सिमट कर रह जाने वाले आभासी ज्ञान के दौर में, यदि तन कर खड़े हुए, तो टुच्चे महारथियों द्वारा कुचल दिए जाएंगे, इसलिए नागवार माहौल में अपने मूल्यांकन का जरूरी काम स्वयं संभालना होता है कि इसे खोंखली बौद्धिकता को भी नहीं सौंपा जा सकता है और सांस्थानिक दादागिरी करने वालों को भी नहीं सौंपा जा सकता। यह उस विचार को जीवित रखने के संकल्प से जुड़ा कार्यभार है जिसके लिए आपने अपना जीवन उत्सर्ग किया हो। बुढ़ापा वहाँ से आरंभ होता है, जहां आप खाता बही का हिसाब लगाते हुए ‘नाम और जमा’ का मिलान करते हुए क्या खोया क्या पाया का हिसाब करने लगते हैं। लगता है 90 के गिर्दे में पहुंच कर मैं भी बूढ़ा होने लगा हूं।
भगवान सिंह
(Bhagwan Singh)
ऋग्वेद की रहस्यमयता (12)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/12.html
#vss
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