Friday 30 September 2022

कामलाकांत त्रिपाठी / विशाखदत्त का प्रयोगधर्मी नाटक मुद्राराक्षसम्‌ (6)



मुद्राराक्षसम्‌ का संक्षिप्त भावानुवाद: पंचम अंक ~

मुद्राराक्षस के इस अंक का नाम है कूटलेख. यानी कपट-पत्र और उसकी लक्ष्यपूर्ति।  इस पत्र को लिखा गया था पहले अंक में लेकिन इसकी महिमा खुलती है इस अंक में. याद होगा, इसका मसौदा तैयार किया था चाणक्य ने, लिखावट है राक्षस के मित्र और निजी सचिव शकटदास कायस्थ की, और मोहर लगी है राक्षस की. और इसका वाहक है सिद्धार्थक, चाणक्य का ख़ास गुप्तचर जो ‘समझा-बुझाकर’ राक्षस के पास भेजा गया था, अकेले नहीं, फाँसी के लिए वध-स्थल पर ले जाए गए शकटदास को छुड़ाकर, उसके साथ. वह राक्षस का विश्वासपात्र बन गया, और अभी तक तो बना हुआ है. लेकिन  आगे ?.... पत्र विस्फोटक है, पाँसा पलट सकता है.

पाँचवें अंक का पहला दृश्य: 

स्थान है सैन्य-शिविर. राक्षस के सेनापतित्व में कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) पर आक्रमण के लिए कूच करती मलयकेतु और उसके पाँचों सहयोगी राजाओं की सेनाएँ अब गंतव्य से ज़्यादा दूर नहीं हैं. वहीं कहीं स्थित है यह पड़ाव. 

परदा उठता है तो सिद्धार्थक हाथ में वह पत्र और आभूषणों की एक मोहरबंद पेटी लिए हुए मंच पर प्रवेश करता है.

तभी क्षपणक (बौद्ध श्रमण) जीवसिद्धि भी उधर ही आ निकलता है. पाठक जानते हैं, यह भी चाणक्य का ही आदमी है और सिद्धार्थक की तरह ही राक्षस का विश्वासपात्र बना हुआ है. इसे पर्वतक की हत्या में शामिल होने के अपराध में प्रायोजित तरीक़े से तिरस्कारपूर्वक कुसुमपुर से निकाल दिया गया था, जिसके बाद यह मलयकेतु के यहाँ आकर जम गया था। यह भी शिविर में मौजूद है।   

जीवसिद्धि घुसते ही एक विनीत श्रमण की तरह सभी को बौद्ध मानकर प्रणाम करता है--बौद्ध जो बुद्धि की गम्भीरता से संसार में लोकोत्तर साधनों से सफलता प्राप्त करते हैं. वह सभी को श्रावक (बुद्धोपासक) कहकर संबोधित करता है, जब कि सभी उसे भदन्त कहकर (प्रकटत:) सम्मान से बुलाते हैं. यह विशाखदत्त के युग की मर्यादा रही होगी. 

[कुछ वामपंथी और दलित चिंतकों और इतिहासकारों ने बड़े स्तर पर बौद्धों के संहार की जो बात फैलाई है, उसका विश्वसनीय प्रमाण इस अकिंचन को तो कहीं मिला नहीं. पुष्यमित्र शुंग से जुड़े कुछ बौद्ध ग्रंथों के विद्वेष और अतिरंजना से भरे वर्णनों के सिवा, जिनकी ऐतिहासिकता किसी अन्य स्रोत से समर्थित न होने के कारण हमेशा संदेहास्पद रही. इत्सिंग, फाह्यान और ह्वेनसांग-जैसे चीनी बौद्ध यात्रियों के संस्मरण तक इसका कोई ज़िक्र नहीं करते. और आदि शंकराचार्य (788-820 ई.) पर ऐसा कुत्सित आरोप! वे तो कभी किसी राजा के आश्रयी रहे नहीं, उनका अल्प जीवन, लंबा अध्ययन-काल, फिर पूरे भारत का भ्रमण, कई-कई स्तोत्रों के अलावा प्रस्थान-त्रयी (ब्रह्मसूत्र, ग्यारह प्रमुख उपनिषद्‌ और गीता) का विस्तृत भाष्य—उन्हें इतना समय कहाँ मिला होगा कि बौद्ध-संहार संगठित करते! वे तो शास्त्रार्थ करके बौद्ध विद्वानों को क़ायल करनेवाले थे; फिर उस युग में सनातनी तांत्रिकों की तरह वामाचार और पंच मकार की साधना में लिप्त हो चुके वज्रयानी बौद्धों ने यदि सामान्य जन को तथागत के उपदेशों से दूर कर दिया तो इसमें शंकराचार्य का क्या दोष? संहार का साक्ष्य तो जैनों, आजीविकों और घोर अनीश्वरवादी लोकायतों का भी नहीं मिलता, बौद्ध धर्म तो महायान के रूप में सनातन की समावेशी धारा  से घुलमिल गया था। सही है कि शूद्रों और अंत्यजों के साथ घोर अन्याय हुआ था, उसका उचित प्रतिकार भी हो रहा है। लेकिन ऐसा तो नहीं होना चाहिए कि तज्जनित कलुष और नफ़रत सत्य को आच्छदित कर दे. तब तो हम पूर्व के गुनाहगारों की ग़लती ही दोहरा रहे होंगे, और गर्हित में लिपटा यदि कोई शुभ तत्व हुआ तो उससे भी वंचित होकर एक स्थाई हीन-ग्रंथि के शिकार हो जाएँगे.] 

सिद्धार्थक शिविर से बाहर निकलकर कुसुमपुर जाने के लिए उद्यत है, लेकिन बस उद्यत है, उसे कहीं जाना-वाना नहीं है. उसको तो यहीं रहते हुए कुछ विशिष्ट, कुछ सनसनीख़ेज़ करना है. और कुसुमपुर जाने का उपक्रम उसी का हिस्सा है...लेकिन अभी थोड़ा इंतज़ार कीजिए.

तो फ़िलहाल मंच पर उपस्थित हैं सिद्धार्थक और बौद्ध भिक्षु जीवसिद्धि.

जीवसिद्धि: ‘देखो श्रावक, पहले तो इस शिविर में लोगों का आना-जाना बेरोक-टोक था, लेकिन अब कुसुमपुर के निकट आ जाने से, उसके लिए मंत्री भागुरायण (पाठक जानते हैं, कुसुमपुर से भागकर मलयकेतु के यहाँ शरण लेने और उसका मंत्री बननेवाला यह भागुरायण भी चाणक्य का ही आदमी है) का मोहर लगा परिचय-पत्र चाहिए. ऐसा न हो कि सुरक्षा-अधिकारियों द्वारा हाथ-पाँव बाँधकर राजकुल के सामने पहुँचा दिए जाओ.’ 

सिद्धार्थक: ‘भदन्त, क्या वे नहीं जानते कि मैं अमात्य राक्षस का ख़ास आदमी हूँ?’

जीवसिद्धि: ‘राक्षस के ख़ास आदमी हो या पिशाच के, बिना परिचय-पत्र के जाने का कोई उपाय नहीं.’ (जीवसिद्धि थोड़ा क्रोध में आ जाता है.) 
 
सिद्धार्थक: ‘कुपित न हों भदन्त, आशीर्वाद दें कि मेरा कार्य सिद्ध हो.’

‘जाओ, तुम्हारा कार्य सिद्ध हो. मैं चलता हूँ, मुझे भी परिचय-पत्र बनवाना है.’

दूसरा दृश्य: 

अनुचर की तरह राजपुरुष द्वारा अनुसरण किए जाते हुए भागुरायण का प्रवेश. 

भागुरायण: ‘कुमार (मलयकेतु) मुझे दूर नहीं होने देना चाहते, इसलिए यहीं उनके सभा-मंडप में मेरा आसन लगा दो. अनुमति-पत्र देनेवाला काम यहीं से करूँगा…..अब  बाहर जाओ और इस सम्बंध में जो मुझसे मिलना चाहे, उसे लेकर अंदर आना’. 

तभी द्वार-रक्षिका विजया द्वारा अनुसरण किए जाते हुए मलयकेतु का मंच पर (पार्श्व में) प्रवेश. 

मलयकेतु: (स्वगत) ‘नन्दकुल से सम्बद्ध चंद्रगुप्त द्वारा चाणक्य को निकाल दिए जाने के बाद, नन्दवंश के प्रति प्रबल भक्ति के कारण, राक्षस चंद्रगुप्त से संधि कर लेगा, या मेरी श्रद्धा की स्थिरता को अधिक महत्व देता हुआ मेरे प्रति दृढ़प्रतिज्ञ बना रहेगा? इसी द्वंद्व में मेरा चित्त कुम्हार के चाक पर चढ़ा हुआ-सा लगातार घूम रहा है.’ (प्रकट‌) ‘विजये, भागुरायण कहाँ हैं?’

विजया: ‘शिविर से बाहर जाने को इच्छुक लोगों के लिए परिचय-पत्र बनाते वह रहे.’

‘ठीक है. वे दूसरी ओर मुँह किए हुए, इधर नहीं देख रहे. हम भी कुछ देर निश्चल खड़े रहें.’

[यहाँ से मलयकेतु भागुरायण को देख-सुन सकता है, भागुरायण उसे नहीं.]

(मंच के मुख्य भाग में)-- 

राजपुरुष अंदर आकर भागुरायण को सूचित करता है कि एक श्रमण अनुमति-पत्र के लिए मिलना चाहता है. 

‘आने दो.’

प्रवेश करते हुए श्रमण-वेशी जीवसिद्धि: ‘श्रावकों की धर्मसिद्धि हो.’

भागुरायण: (स्वगत) ‘अरे, राक्षस का मित्र जीवसिद्धि यहाँ!’ (प्रकट) ‘भदंत, राक्षस के किसी कार्य से बाहर जा रहे हैं क्या?’

जीवसिद्धि: (कानों पर हाथ रखकर) ‘पाप शांत हो. ऐसा न कहो श्रावक. मुझे वहाँ जाना है, जहाँ राक्षस-पिशाच का नाम तक न सुनाई पड़े.’

भागुरायण: ‘अपने मित्र से बहुत रूठे हुए (प्रणय-कुपित) लगते हैं. उन्होंने ऐसा क्या अनिष्ट कर दिया?’

जीवसिद्धि: ‘वे क्या करेंगे, मैं मंदभाग्य अपना ही अनिष्ट कर रहा हूँ.’

भागुरायण: ‘आप तो जिज्ञासा पैदा कर रहे हैं. कुछ बताएँगे?’

‘मैं भी सुनना चाहता हूँ.’ पार्श्व में द्वार-रक्षिका के साथ खड़ा मलयकेतु बुदबुदाता है.

जीवसिद्धि: ‘श्रावक, जो सुनने लायक नहीं है, उसे सुनकर क्या करोगे?’

भागुरायण: ‘यदि रहस्य है तो रहने दिया जाए.’ 

जीवसिद्धि: ‘रहस्य तो नहीं है श्रावक, किंतु अत्यंत क्रूरतापूर्ण है’.

भागुरायण: ‘रहस्य नहीं है, तो कह डालिए.’

जीवसिद्धि: ‘रहस्य नहीं है, फिर भी नहीं कहूँगा.’

भागुरायण: ‘तो अनुमति-पत्र भी नहीं दूँगा.’ 

जीवसिद्धि: (स्वगत) ‘जो इस तरह चाहता है, उसे बतलाना ही उचित है.’ (प्रकट)
‘यह सच है कि पाटलिपुत्र में रहते हुए मुझ मंदभाग्य से राक्षस की मित्रता हो गई. उसी समय राक्षस ने प्रच्छन्न विषकन्या के प्रयोग से (मेरे सहयोग द्वारा) पर्वतक को मरवा दिया.’ 

[यहाँ यह लक्ष्य करने योग्य है कि जीवसिद्धि इतनी हुज्जत के बाद, इस  (प्रायोजित असत्य) को तब बताता है जब देखने-सुननेवाले को लगे कि बिना बताए उसका काम ही नहीं चल सकता था. इससे मलयकेतु को इसके अनर्गल प्रलाप होने का रंच मात्र भी संदेह नहीं रह जाएगा. विशाखदत्त का कथा-विधान अपनी त्रुटि-हीनता में इतना अक्षुण्ण है कि एक भी शब्द छोड़ने से कुछ न कुछ तो अवश्य खो जाता है.]

(मंच के पार्श्व में)--  

मलयकेतु: (आँखें डबडबाई हुई) ओह, तो क्या मेरे पिता राक्षस द्वारा मरवाए गए, चाणक्य द्वारा नहीं?

(मंच के मुख्य भाग में)--  

भागुरायण: भदन्त, उसके बाद क्या हुआ ?

जीवसिद्धि: फिर तो मुझे राक्षस का मित्र समझकर चाणक्य ने तिरस्कारपूर्वक कुसुमपुर से निकाल दिया....राक्षस फिर कुछ वैसा ही काम शुरू करने जा रहा है, उससे तो मैं संसार से ही निकाल दिया जाऊँगा.

भागुरायण: हमने तो सुना है कि वादा किया गया आधा राज्य न देना पड़े, इसलिए दुष्ट चाणक्य ने ही पर्वतक का वध करवाया था. 

जीवसिद्धि: (कान ढककर) पाप शांत हो. चाणक्य ने तो विषकन्या का नाम तक नहीं सुना था.

भागुरायण: यह रहा मोहर-लगा परिचय-पत्र. यही बात मलयकेतु को भी सुना दीजिए. 

मलयकेतु: (आगे बढ़कर) हे मित्र ! (राक्षस के) मित्र (श्रमण) के मुख से (मेरे) शत्रु (राक्षस) के बारे में जो कहा गया, कान को विदीर्ण करनेवाला वह कथन सुन लिया गया. पिता के वध से उत्पन्न होनेवाला दु:ख काफ़ी दिन बीत जाने पर भी आज दुगुना-सा होकर बढ़ रहा है. 

जीवसिद्धि: (स्वगत) तो दुष्ट मलयकेतु ने सुन लिया. मैं कृतकृत्य हुआ.(ऐसा कहकर मंच से निकल जाता है.)

[स्वाभाविक है कि मलयकेतु पर इसकी प्रतिक्रिया बहुत उग्र हुई. उसने राक्षस को नाम से ही नहीं, कर्म से भी राक्षस कहा. भागुरायण को आशंका होती है कि अब मलयकेतु से राक्षस के प्राणों को ख़तरा है, जो उसके मैंडेट के विपरीत है. वह तुरंत पटरी बदल देता है.] 

भागुरायण: ‘अर्थशास्त्र (दंडनीति या राजनीतिशास्त्र) का प्रयोग करनेवालों को उसी की व्यवस्था के अनुरूप लोगों को तीन श्रेणी में रखना पड़ता है--शत्रु, मित्र और तटस्थ. उस समय नंद को राजा के रूप में देखने के इच्छुक राक्षस के लिए, चंद्रगुप्त से अधिक आपके पिता के प्रबल होने के कारण, वही उसके घातक शत्रु लगे होंगे. इसलिए मैं राक्षस का पूरा दोष नहीं समझता. राजनीति है ही ऐसी चीज़—

मित्राणि शत्रुत्वमुपानयंती मित्रत्वमर्थस्य वशाञ्च शत्रून्‌। 
नीतिर्नयत्यस्मृतपूर्ववृत्तं जन्मान्तरं जीवत एव पुंस:॥5:8॥

[राजनीति अवसरानुकूल मित्र को शत्रु और शत्रु को मित्र मनवा देती है, पुरुष के जीवित रहते ही उसका दूसरा जन्म करा देती है, इस तरह कि पीछे का सारा व्यवहार भूल जाए.] 

तो कुमार, इस विषय में राक्षस को तब तक उलाहना नहीं देना चाहिए जब तक कि नंद (अब चंद्रगुप्त) का राज्य हस्तगत न हो जाए. उसके बाद आप राक्षस को ग्रहण करें या त्यागें, आपकी इच्छा.’

मलयकेतु: ‘ठीक है मित्र, तुमने ठीक सोचा है. अमात्य का वध कर देने पर प्रजा में उत्तेजना फैलेगी और हमारी विजय संदिग्ध हो जाएगी’  

कूटपत्र-प्रसंग:

पूर्व दृश्य का विस्तार. मलयकेतु और भागुरायण पहले से मंच पर मौजूद हैं. राजपुरुष आकर सुरक्षा-चौकी के अधिकारी का संदेश देता है कि बिना मुद्रित परिचय-पत्र के शिविर से बाहर निकलते हुए एक व्यक्ति पकड़ा गया है, जिसके पास एक पत्र भी मिला है. भागुरायण से अंदर लाने का आदेश मिलने पर राजपुरुष के पीछे-पीछे बँधा हुआ सिद्धार्थक प्रवेश करता है. भागुरायण उसे देखकर राजपुरुष से पूछता है कि यह व्यक्ति बाहर से आया हुआ है, या यहाँ पर किसी का सेवक है? (भागुरायण इसी बिंदु से राक्षस पर आरोप मढ़ने की दिशा में काम करना शुरू कर देता है—उसे सारा माजरा पता रहा होगा). 

राजपुरुष कुछ बोले इसके पहले सिद्धार्थक ही जवाब दे देता है —आर्य मैं तो अमात्य राक्षस का सेवक हूँ. 

भागुरायण: ‘बिना परिचय-पत्र लिए शिविर से बाहर क्यों निकल रहे थे?’

सिद्धार्थक: ‘आर्य, काम के बोझ के चलते जल्दी में था.’

सिद्धार्थक: ‘काम का कैसा बोझ कि राजाज्ञा का उल्लंघन कर दो?’  

मलयकेतु: मित्र भागुरायण, इसके पास का पत्र ले लो. 

भागुरायण: (पत्र लेकर देखता है।) ‘इस पर जो मोहर लगी है उस पर तो राक्षस का नाम अंकित है.’

मलयकेतु: ‘मोहर को बचाते हुए खोलो’

भागुरायण खोलता है और मलयकेतु को दिखलाता है. मलयकेतु पूरा पत्र  पढ़ता है—

“कल्याण हो. 

किसी स्थान से कोई व्यक्ति किसी विशिष्ट व्यक्ति को ठीक समय पर अवगत करा रहा है: 

हमारे शत्रु* को तिरस्कृत करके आप-जैसे सत्यवादी@ द्वारा सत्य के प्रति विलक्षण आग्रह दिखाया गया है. अब पहले से संधि का प्रस्ताव रखनेवाले हमारे मित्रों# से किए गए वादे को पूराकर आप प्रेम का विस्तार करें. इस प्रकार अनुगृहीत हुए हमारे ये पाँचों मित्र, अपने आश्रय$ के विनष्ट हो जाने से, उपकार करनेवाले आप का आश्रय ग्रहण करेंगे. आप-जैसे सत्यवादी को भूला तो नहीं होगा, फिर भी हम स्मरण दिला रहे हैं. हमारे कुछ मित्र शत्रु$ के हाथियों के इच्छुक हैं तो कुछ उसका भूक्षेत्र चाहते हैं. आपके द्वारा आभूषणों का जो तीन सेट< भेजा गया था, वह मिल गया है. इस पत्र के साथ भी कुछ> भेजा जा रहा है, उसे स्वीकार करें. मौखिक संदेश इस विश्वसनीय पत्रवाहक से सुन लें.’’

[*चाणक्य,  @चंद्रगुप्त, #मलयकेतु और राक्षस से सहयोग करनेवाले मलयकेतु के पाँच पड़ोसी राजा-- कुलूत, मलय, कश्मीर, सिंध, और पारसीक प्रदेशों के; $मलयकेतु, <स्वर्गीय पर्वतक के आभूषणों के वे तीन सेट जिन्हें चंद्रगुप्त ने पर्वतक के श्राद्ध में तीन ‘सुपात्र ब्राहणों’ (जो दरअसल चाणक्य के गुप्तचर थे) को दान किया था और जिन्हें बिना पहचाने राक्षस की अनुमति से शकटदास ने ‘व्यापारियों’ से ख़रीद लिया था, >वे आभूषण जो मलयकेतु ने राक्षस को धारण करने के लिए भिजवाए थे और जिन्हें राक्षस ने सिद्धार्थक को पुरस्कार में दे दिए थे.] 

मलयकेतु : मित्र भागुरायण यह कैसा पत्र है ?

भागुरायण: ‘भद्र सिद्धार्थक, यह पत्र किसका है? 

सिद्धार्थक: आर्य, मैं नहीं जानता. 

भागुरायण: धूर्त, पत्र ले जा रहे हो और जानते नहीं किसका है...ख़ैर, पहले यह बताओ, मौखिक संदेश किसके लिए है?

सिद्धार्थक: (भय का अभिनय करते हुए) आप लोगों के लिए. 

भागुरायण: (क्रोध के साथ) भारसुक (राजपुरुष), इसे बाहर ले जाओ और तब तक पिटाई करो जब तक यह बतला न दे.’ 

थर्ड डिग्री की पहली ख़ुराक के बाद राजपुरुष सिद्धार्थक के साथ लौटकर बताता है कि पिटाई के समय इसकी काँख से एक मोहरबंद पेटी गिरी है. 

भागुरायण: ‘कुमार, पेटी की यह मोहर भी राक्षस के नाम की है.’  

मलयकेतु के कहने से मोहर को बचाते हुए पेटी खोली जाती है.

मलयकेतु: ‘अरे, ये तो वही आभूषण हैं जो मैंने अपने शरीर से उतारकर राक्षस के लिए भेजे थे. तो साफ़ है कि पत्र चंद्रगुप्त के लिए लिखा गया है.’ 

भागुरायण: अभी सारा संदेह दूर हो जाता है.... भासुरक अभी और पीटो.

थर्ड डिग्री की दूसरी ख़ुराक के बाद राजपुरुष सिद्धार्थक के साथ लौटकर बताता है कि यह पूरा प्रकरण कुमार (मलयकेतु) को ही बताने की बात कर रहा है. [मिशन के लिए चाणक्य के एक गुप्तचर द्वारा दूसरे की पिटाई कराना और दूसरे का स्वेच्छा से बर्दाश्त करना एक विचित्र नाट्यतत्व का समावेश है, जिसके चाक्षुष असर की बस कल्पना ही की जा सकती है. ध्यान देने योग्य यह है कि यहाँ कोई किसी संकीर्ण, निजी हित के लिए काम नहीं कर रहा, सभी का एक समेकित और बृहत्‌ राष्ट्रीय लक्ष्य है, जिससे अनुप्राणित होने पर असह्य भी सह्य हो जाता है.]

मलयकेतु: ठीक है. मुझे ही बताओ. 

सिद्धार्थक मलयकेतु के पैरों पर गिरकर, बताने के पहले अभयदान की माँग करता है, जो इस आधार पर तुरंत दे दिया जाता है कि वह तो पराधीन है, दूसरों के लिए काम कर रहा है. अब वह मौखिक संदेश बताता है, जिसमें पाँचों सहयोगी राजाओं और उनके राज्यों का नाम लेकर राक्षस का चंद्रगुप्त के लिए संदेश है कि उसके सहयोगी ये पाँचों राजा चंद्रगुप्त के प्रति अनुरक्त हैं. इनमें से पहले तीन मलयकेतु का भूक्षेत्र और शेष दो उसकी हस्ति-सेना चाहते हैं. राक्षस ने कहलवाया है कि जैसे चंद्रगुप्त ने उसके प्रति प्रेम दिखाया है, वैसे ही इन पाँचों का भी मनोरथ पूरा करे. 

[मलयकेतु के पिता पर्वतक या पर्वतेश्वर का सिकंदर के पोरस से काफ़ी साम्य है. पर्वतक पश्चिमोत्तर का प्रमुख राजा है, पोरस भी झेलम के आस-पास स्थित पौरव राज्य का राजा था, बहुत दुर्धर्ष युद्ध में उसे जीतने के बाद सिकंदर ने उसका राज्य लौटा दिया था, और भारत से लौटते समय, अपने कुछ और विजित प्रदेश भी उसके सुपुर्द कर गया था. पोरस की हस्ति-सेना बहुत विशाल और बलशाली थी. बरसात होने से उसकी पैदल सेना की गति बाधित हो गई थी और उसके घायल हाथी बेकाबू होकर अपने ही सैनिकों पर टूट पड़े थे, जिससे सिकंदर की द्रुतगामी अश्व-सेना का पलड़ा भारी पड़ गया था. इतिहास यह भी बताता है कि (नाटक में पर्वतक की तरह ही) पोरस की भी बाद में हत्या हो गई थी. यह पश्चिमोत्तर और पंजाब का इलाक़ा चंद्रगुप्त का भी प्रारम्भिक कार्य-क्षेत्र रहा था, और अभी वह किशोर ही था जब सिकंदर के शिविर में घुसकर उसे इस क़दर लताड़ दिया था कि रुष्ट सिकंदर ने उसे मार डालने की आज्ञा दे दी थी, लेकिन वह वहाँ से भाग निकलने में सफल रहा था. वहीं तक्षशिला में (संभवत: विदेशियों को निकाल बाहर करने का प्रस्ताव लेकर नंदों के पास गए और वहाँ से तिरस्कृत होकर लौटे) चाणक्य से उसकी मुलाक़ात हुई थी और दोनों ने मिलकर विदेशियों के प्रभुत्व से मुक्त एक अखिल भारतीय, सशक्त और सुशासित साम्राज्य का सपना देखा था. बाद में सेल्यूकस पर विजय के बाद नाटक के मलयकेतु और उसके पाँचों पड़ोसियों के भूक्षेत्र (फारस, और कश्मीर को छोड़कर) चंद्रगुप्त के साम्राज्य में वाकई शामिल  हो गए थे.]

मौखिक संदेश सुनते ही मलयकेतु जैसे आकाश से गिरा—तो मुझसे सहयोग करने का दावा करनेवाले पाँचों पड़ोसी राजा भी मुझसे द्रोह करते हैं !... वह तुरंत राक्षस से मिलने चल देता है. साथ में भागुरायण, सिद्धार्थक, राजपुरुष भारसुक और द्वार-रक्षिका विजया भी. 

तीसरा दृश्य: 

राक्षस कुसुमपुर के करीब आ जाने से विजय-यात्रा की समुचित व्यूह-रचना में व्यस्त है. वह अपने सहायक प्रियंवदक के माध्यम से आदेश भेज रहा है कि उसके पीछे-पीछे खस और मगध गणों के सैन्य दल (जो नन्द सेना में अपने शौर्य के लिए विख्यात थे और संभवत: राक्षस के साथ मगध से निकल आए थे) चलेंगे. इस आक्रमणकारी दस्ते के बीच में यवन राजाओं और गांधार देश की सेनाएँ रहेंगी, उनके पीछे शक राजाओं की चीनी और हूण सेनाएँ रहेंगी और पाँचों सहयोगी राजा मलयकेतु को घेरे में लेकर चलेंगे.

तभी द्वार-रक्षिका मलयकेतु के आगमन की सूचना देती है. राक्षस को ध्यान  आता है कि मलयकेतु ने उसके पहनने के लिए आभूषण भिजवाए थे, इसलिए आभूषण पहनकर ही उससे मिलना ठीक रहेगा. तभी याद आया, वे तो पुरस्कार में सिद्धार्थक को दे दिए गए हैं. फिर याद आया कि शकटदास ने उससे पूछकर व्यापारियों से तीन आभूषण खरीदे थे. तो उनमें से एक मँगवाकर पहनने के बाद ही वह मलयकेतु से मिलने जाता है.

मलयकेतु: (प्रणाम करने और आसन देने के बाद) बहुत दिनों से आपके दर्शन न होने से हम व्यग्र हैं.

राक्षस: मेरे कूच करने की व्यवस्था में लगे रहने से ही आपको ऐसे उलाहने का अवसर मिला. 

मलयकेतु: कैसी व्यवस्था की गई है? 

राक्षस अपने उपरोक्त आदेश को दोहरा देता है.

मलयकेतु: (स्वगत) तो जो पाँच राजा मेरा विनाश करके चंद्रगुप्त की सेवा में जाने के लिए तत्पर हैं, वही मुझे घेरे में लेकर चलेंगे. (प्रकट में) आर्य, क्या कोई व्यक्ति कुसुमपुर जा या वहाँ से आ रहा है? 

राक्षस: अब जाने-आने का कोई प्रयोजन नहीं, अब तो थोड़े ही दिनों में हम ही वहाँ पहुँच जायेंगे.

मलयकेतु: यदि ऐसा है तो आर्य के द्वारा यह व्यक्ति (सिद्धार्थक की ओर इंगित करके) पत्र के साथ वहाँ क्यों भेजा जा रहा था? 

राक्षस: अरे सिद्धार्थक ! यह क्या मामला है? 

सिद्धार्थक: (आँखों में आँसू भरकर, घोर लज्जा का अभिनय करता हुआ) अमात्य नाराज़ न हों. पीटा जाता हुआ मैं ‘रहस्य’ को छिपा नहीं सका. 

राक्षस: कैसा रहस्य, कौन-सा रहस्य ? 

मलयकेतु: भागुरायण, अपने स्वामी से भयभीत और लज्जित यह नहीं बता पाएगा. तुम ही बता दो. 

भागुरायण: अमात्य, यह कहता है, अमात्य ने इसे पत्र और जबानी संदेश के साथ चंद्रगुप्त के पास भेजा था. 

राक्षस: भद्र सिद्धार्थक, क्या यह सत्य है ? 

सिद्धार्थक: (लज्जा का नाटक करता हुआ) अत्यधिक पीटे जाते हुए मुझे कहना ही पड़ गया. 

राक्षस: यह असत्य है. पीटा जाता हुआ व्यक्ति क्या नहीं कह सकता!

मलयकेतु: मित्र भागुरायण, पत्र दिखलाओ. जबानी संदेश यह सेवक ख़ुद बताएगा. 

राक्षस: (पत्र पढ़कर) यह शत्रु की चाल है. 

मलयकेतु: और साथ में यह जो आभूषण भेजा गया है ? 

राक्षस: (पेटी के आभूषण को ध्यान से देखकर) कुमार (मलयकेतु) ने यह मेरे लिए भेजा था. मैंने भी किसी प्रसन्नता के क्षण में इसे सिद्धार्थक को दे दिया था.

भागुरायण:इतने बहुमूल्य और ख़ासकर कुमार द्वारा शरीर से उतारकर अनुग्रहपूर्वक आपको दिए गए आभूषण इसको (सिद्धार्थक को) दिए जाने योग्य हैं? 

मलयकेतु: अब इस भले मानुस से मौखिक संदेश भी सुन लिया जाए. 

राक्षस: कौन-सा मौखिक संदेश और किसके लिए. अरे, यह पत्र ही हमारा नहीं है.

मलयकेतु: और इस पर लगी यह मोहर ? 

राक्षस: धूर्त लोग नकली मोहर बना सकते हैं.

भागुरायण: तुम्हीं बताओ सिद्धार्थक, यह पत्र किसके हाथों से लिखा गया है. 

सिद्धार्थक: शकटदास के. 

मलयकेतु: (द्वार-रक्षिका से) विजये, शकटदास को बुलाओ. 

लेकिन भागुरायण जानता है कि शकटदास बुलाया गया तो वह उन परिस्थतियों का उल्लेखकर, जिनमें मूल पत्र से उससे यह नक़ल करवाई गई थी, संशय खड़ा कर सकता है. अस्तु-- 

‘कुमार, अमात्य के सामने शकटदास कभी स्वीकार नहीं करेगा. अत: शकटदास का दूसरा लेख मँगवाया जाए, और वह मोहर भी.’

दूसरा लेख, और मोहर के रूप में प्रयुक्त नामांकित अँगूठी (याद होगा, राक्षस ने सिद्धार्थक से अँगूठी पाने के बाद शकटदास को अपनी ओर से इस्तेमाल के लिए दे दी थी) आ जाने के बाद मलयकेतु दोनों लेखों का मिलान करता है—सारे अक्षर मिल रहे हैं. 

[अभी एक कड़ी और बाक़ी है।]

मलयकेतु: पत्र में लिखा है ‘आपके द्वारा जो तीन आभूषण भेजे गए थे, वे मिल गए हैं’. तो उनमें क्या एक वही है जो आपने पहन रखा है?

राक्षस : व्यापारियों से खरीदा था. 

मलयकेतु: (द्वार-रक्षिका से) विजये, क्या तुम इस आभूषण को पहचानती हो? 

द्वार-रक्षिका: (ध्यान से देखकर और आँखों में आँसू भरकर) क्यों नहीं कुमार! प्रात:स्मराणीय पर्वतेश्वर महाराज इसे पहना करते थे. 

अपने स्वर्गीय पिता का आभूषण देखकर मलयकेतु उनकी याद में शोकाकुल हो उठता है. अब जाकर राक्षस को महसूस होता है कितना बड़ा छल किया गया है! तो वे तीनों व्यापारी चाणक्य द्वारा ये आभूषण हमारे पास लाकर बेचने के लिए नियुक्त किए गए थे! पूरी चाल कितनी सुसम्बद्ध है! पत्र  मेरा नहीं है--यह कोई उत्तर नहीं हुआ, क्योंकि इस पर मेरी मोहर लगी है. शकटदास ने सहसा मित्रता तोड़ दी है और षड्यंत्र में शामिल हो गया है, इस पर भी कौन विश्वास करेगा! चंद्रगुप्त स्वर्गीय पर्वतेश्वर के आभूषण बेचेगा, इसे भी कौन मानेगा! तो कोई गँवारू उत्तर देने के बजाए मान लेना ही ठीक है. 

मलयकेतु: आर्य से पूछना चाहता हूँ कि....

राक्षस: जो आर्य हो उससे पूछिए. हम तो अनार्य हो चुके हैं. 

मलयकेतु: फिर भी....चंद्रगुप्त आपके स्वामी का पुत्र (दासी-पुत्र ही सही) है, इसलिए वह आपके लिए सेव्य है. मैं आपके मित्र का पुत्र हूँ, इसलिए आप मेरे लिए सेव्य हैं. चंद्रगुप्त के यहाँ अमात्य-पद पाकर भी आपकी दासता ही बनी रहेगी, जब कि यहाँ आपकी प्रभुता ही प्रभुता है. तो कौन-सा प्रलोभन है जो आपको इतना अनार्य (अधम) बना रहा है?

राक्षस: कुमार ने तो अपने प्रश्न का उत्तर स्वयं दे दिया है. प्रलोभन कोई नहीं, कुमार के सोचने की दिशा ही अनुचित है.

मलयकेतु: (पत्र और आभूषणों की पेटी की ओर इशारा करके) तो ये क्या हैं ? 

राक्षस: (आँखों में आँसू भरकर) दैव (भाग्य) का खिलवाड़ है, कुमार। मनुष्यों की परख रखनेवाले जिन स्वामियों (नंदों) को, जिनके लिए हम पुत्र की तरह थे, जिस पापिष्ठ दैव ने विनष्ट कर डाला, उसी का खिलवाड़.  

मलयकेतु: दैव का खिलवाड़! आपका लोभ नहीं!! अब भी आप छिपाने से बाज नहीं आ रहे. अरे कृतघ्न! तुम्हारे ऊपर अत्यधिक विश्वास करनेवाले मेरे पिता तीक्ष्ण विष से घातक बनाई गई विषकन्या के प्रयोग से मार डाले गए. और अब अमात्य पद की तुम्हारी अभिलाषा हमें भी विनाश के लिए शत्रु के हाथ मांस की तरह बेच रही है.

राक्षस: एक फोड़े के ऊपर दूसरा फोड़ा! अब महाराज पर्वतेश्वर की हत्या का इल्ज़ाम भी लगेगा. (दोनों कान हाथ से ढककर) पाप शांत हो, पाप शांत हो. मैंने पर्वतेश्वर के लिए विषकन्या का प्रयोग कभी नहीं किया. 

मलयकेतु: तो किसके द्वारा मारे गए पिता जी ?

राक्षस: इस विषय में भी दैव से ही पूछना चाहिए. 

मलयकेतु: (क्रोध के साथ) दैव से पूछना चाहिए या क्षपणक जीवसिद्धि से?

राक्षस: (स्वगत) तो क्या जीवसिद्धि भी चाणक्य का गुप्तचर है! तब तो मेरा हृदय (जीवसिद्धि को राक्षस के हृदय के सारे भेद पता हैं) भी शत्रुओं द्वारा वश में कर लिया गया। 

मलयकेतु: (क्रोध और भी भड़क उठता है) राजपुरुष भारसुक, सेनापति शिखरसेन को मेरी ओर से आज्ञा दो कि राक्षस के मित्र, और मेरे प्राणों की आहुति देकर चंद्रगुप्त की सेवा करने के इच्छुक, पाँचों राजाओं को दंडित करें. कौलूत-नरेश चित्रवर्मा, मलयराज सिंहनाद और कश्मीर-पति पुष्कराक्ष, जो मेरे भूक्षेत्र पर नज़र गड़ाए हुए हैं, भूमि में ही गाड़कर मिट्टी से ढक दिए जाएँ. सिंधुराज सुषेण और पारसीक-नरेश मेघनाद, जिन्हें मेरी गजसेना की लालसा है, हाथी द्वारा ही कुचलवा दिए जाएँ. 

राजपुरुष के ‘जैसी आज्ञा’ कहकर निकल जाने के बाद--

मलयकेतु: राक्षस, हे राक्षस! (‘आर्य’ वगैरह कुछ नहीं!) मैं तुम्हारी तरह विश्वासघात करनेवाला नहीं हूँ. मैं हूँ मलयकेतु. जाओ, जाकर हर तरह से चंद्रगुप्त का आश्रय ग्रहण करो (प्राण बख़्श दिया). मैं तुम्हारे साथ आ मिले चंद्रगुप्त को, और चाणक्य को भी, उसी तरह विनष्ट करने में समर्थ हूँ जैसे दुष्टनीति त्रिवर्ग—धर्म, अर्थ और काम—को विनष्ट कर देती है. 

भागुरायण: समय नष्ट करना व्यर्थ है कुमार. अब कुसुमपुर को घेरने के लिए हमारी सेनाओं को प्रस्थान की आज्ञा दी जाए.

मलयकेतु अपने लाव-लश्कर के साथ निकल जाता है. 

राक्षस: धिक्कार है, धिक्कर! ये बेचारे चित्रवर्मा वगैरह भी निर्दोष मारे गए. तो क्या राक्षस अपने शत्रुओं नहीं, मित्रों के विनाश के लिए यह सब कर रहा है? मैं हतभाग्य अब करूं तो क्या करुँ? 

किं गच्छमि तपोवनं न तपसा शाम्येत्सवैरं मन: 
किं भर्तृर्ननुयामि जीवति रिपौस्त्रीणामियं योग्यता। 
किं वा खड्गसख: पताम्यरिवले नैतञ्च युक्तं भवेच्‌- 
चेतश्चंदनदासमोक्षरभसं रुन्ध्यात्कृतघ्नं न चेत्‌॥5:24॥

[क्या मैं तपोवन चला जाऊँ? नहीं, तपस्या द्वारा प्रतिशोध-भाव से भरा मन शांत नहीं होगा. तो क्या शत्रु के जीते जी नंद स्वामियों का अनुसरण करता हुआ मृत्यु को गले लगा लूँ? नहीं, यह तो स्त्रियों की पद्धति होगी (नारीवादी क्षमा करेंगे, यह चौथी शताब्दी ई. पू. का प्रसंग है). तो क्या हाथ में तलवार लेकर शत्रु-सेना पर टूट पड़ूँ? यह भी ठीक नहीं क्योंकि मित्र चंदनदास को मृत्यु-दंड से छुड़ाने के लिए मन विह्वल है, और अपने को इससे (टूट पड़ने से) न रोका तो घोर कृतघ्नता होगी. तो...??] 

इसी के साथ कूटलेख नामक पाचवाँ अंक समाप्त होता है. 

[पूर्व टिप्पणी में आ चुका है कि मौर्य काल में वर्ण और जाति व्यवस्था व्यवहार में अपवाद स्वरूप ही थी. ब्राह्मण कुलोत्पन्न राक्षस एक कुशल अमात्य के साथ-साथ एक दक्ष और साहसी सेना-नायक भी है. वह कर्मयोगी है, इसलिए तपोवन उसका मार्ग नहीं. लेकिन क्रूर राजनीति के पैतरों और नियति की ठोकरों ने उसे आज ऐसे मुक़ाम पर ला खड़ा किया है, जहाँ उसका सारा सिद्धांत, सारा जीवन-दर्शन, सारी आस्था और सारा विश्वास टूटकर खंड-खंड हो गया है. वह बिना लड़े ही हार गया है—एक सैनिक के जीवन की सबसे बड़ा त्रासदी. आज वह पददलित है, कुंठित है, कीचड़ में लथेड़ दिया गया है, और सबसे बढ़कर, बिना किसी अपराध के अपने आश्रयदाता और सहयोगी का विश्वास खोकर लांक्षित-कलंकित हो गया है। जिनपर विश्वास किया, उन्हीं से धोखा खाकर चोटिल और विदीर्ण-हृदय राक्षस अंधकार में दिशाहीन, असहाय है. उसका आगे का रास्ता क्या होगा? क्या इस असह्य पराजय-बोध से उबरने का कोई मार्ग है? यही आगे के दो अंकों का प्रतिपाद्य है. वस्तुत: राक्षस की यह व्यक्तिगत पराजय राष्ट्र के विजयोत्कर्ष  की भूमिका है. 

अभी तक तो सिर्फ़ ध्वंस हुआ है, चाणक्य ने अपने प्रतिद्वंद्वी राक्षस के एक-एककर  सारे पंख काट दिये हैं, सारी योजनाएँ विफल कर दी हैं. लेकिन लक्ष्य तक पहुँचने के लिए अभी पुनर्निर्माण का अहम चरण बाक़ी है. राक्षस का मानस-प्रक्षालन बाक़ी है. उसको और उसके गुणों और प्रतिभाओं को व्यापक राष्ट्रीय फलक से जोड़कर राष्ट्र-निर्माण के दुस्तर कार्य में नियोजित करना बाक़ी है. इस तरह चाणक्य का दूरगामी लक्ष्य अभी अधूरा है. और यही काम राक्षस की असफलता को सफलता में बदलनेवाला है। 
...............
(क्रमश:)

कमलकांत त्रिपाठी
Kamlakant Tripathi

विशाखदत्त का प्रयोगधर्मी नाटक मुद्राराक्षसम्‌ (5)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/5_30.html 

कमलाकांत त्रिपाठी / विशाखदत्त का प्रयोगधर्मी नाटक मुद्राराक्षसम्‌ (5)



मुद्राराक्षसम्‌ का संक्षिप्त भावानुवाद: चतुर्थ अंक ~

मुद्राराक्षसम्‌ के इस अंक की कथा-भूमि दूसरे अंक की तरह मलयकेतु की राजधानी है. इसका कथा-सूत्र भी दूसरे अंक से जुड़ा हुआ है. उस अंक के अंत में राक्षस ने सर्प-जीवी बने गुप्तचर विराधगुप्त के माध्यम से कुसुमपुर में चारण बनकर रह रहे अपने ख़ास व्यक्ति स्तनकलश को संदेश भेजा था कि चाणक्य द्वारा चंद्रगुप्त की आज्ञाओं के उल्लंघन के विषय में उत्तेजित करनेवाले श्लोकों से वह उसका स्तुतिगान करे. स्तनकलश को उसने यह भी कहलवाया था कि उसके प्रयास का जो परिणाम निकले,  उसकी सूचना गुप्त  रूप  से गुप्तचर करभक के माध्यम से उसके पास भेजे. दूसरे अंक के अंत में ही उसने अपने स्वगत कथन में करभक को कुसुमपुर भेजने का ज़िक्र करते हुए अपनी इस भेद-नीति की संभावित सफलता के आधार का ख़ुलासा भी किया था. उसका आकलन था कि मगध-विजय के बाद चाणक्य और चंद्रगुप्त दोनों अपनी-अपनी सफलता के अहंकार में डूबे होंगे, ऐसे में जब चंद्रगुप्त के सहयोग से नंदों का विनाश करने की चाणक्य की प्रतिज्ञा पूरी हो गई है, वह चंद्रगुप्त का तेज बर्दाश्त नहीं कर पायेगा और अवसर मिलते ही दोनों की मित्रता टूट जाएगी. उसकी योजना इसी अवसर का सृजन करने की थी.

चौथे अंक की शुरुआत कुसुमपुर से राक्षस की भेद-नीति के हासिल की सूचना लेकर उसके पास आए गुप्तचर करभक के मंच-प्रवेश से होती है. 

चिंतामग्न राक्षस रात भर सो नहीं पाया है. सिरदर्द से पीड़ित है. बाईं आँख फड़कने से अशुभ का संकेत मिलता है. पर वह सब कुछ भूलकर अपने उद्योग को आगे बढ़ाने के लिए कृतसंकल्प है. वह शयनकक्ष में ही अपने पहले के सचिव शकटदास (कायस्थ) के साथ पर बैठा हुआ है जब द्वारपाल से करभक के आने की सूचना मिलती है. उसे वहीं बुला लेता है. लेकिन करभक को देखकर उसे याद नहीं आता कि किस कार्य के लिए उसे नियुक्त किया था (चाणक्य की विलक्षण स्मृति और सतत चौकन्नेपन के बरअक्स राक्षस की कमज़ोरी एकाधिक बार सामने आती है).

तभी राजपुरुष द्वारा दर्शकों को सूचना मिलती है कि कुमार मलयकेतु शिर की व्यथा से पीड़ित अमात्य राक्षस को देखने इधर ही आ रहे हैं. मंत्री भागुरायण और कंचुकी जाजलि के साथ मलयकेतु का मंच पर (पृथक्‌, पार्श्व में) प्रवेश. ज्ञात होता है कि मलयकेतु के पीछे-पीछे पाँचों सहयोगी राजा भी आ रहे हैं किंतु वह कंचुकी को भेजकर उनसे निवेदन करता है कि वे कष्ट न उठाएँ, क्योंकि वह अचानक बिना सूचना दिए आया है और अकेला ही अमात्य राक्षस से मिलना चाहता है. वे लौट जाते हैं. अब मलयकेतु अनुचरों के साथ कंचुकी को भी लौटा देता है. मंच के पार्श्व में मलयकेतु और भागुरायण रह जाते हैं, जो परस्पर बातें कर रहे हैं.

भागुरायण, मगध की पैदल सेना के सेनापति का छोटा भाई. पहले अंक में वध-स्थल से भागते शकटदास और (गुप्तचर) सिद्धार्थक को पकड़ने भेजा गया था, लेकिन उनका पीछा करता हुआ वह स्वयं भी भाग निकला था. चंद्रगुप्त के उन आठ अधिकारियों में वह सबसे प्रमुख है जो कुसुमपुर से भागकर मलयकेतु के यहाँ शरण लिए हुए हैं. लेकिन दर्शक असलियत जानते हैं. ये सभी चाणक्य की गुप्त योजना के तहत मलयकेतु के यहाँ रहकर चाणक्य का ही काम कर रहे हैं. भागुरायण तो कुसुमपुर में ही मलयकेतु का विश्वासपात्र बन गया था और अब यहाँ उसका मंत्री बन गया है. उसकी भूमिका बेहद अहम पर बेहद नाज़ुक. उसका मक़सद है बाक़ी सातों अधिकारियों की मदद से मलयकेतु और राक्षस के बीच अविश्वास और विद्वेष का बीज बोना, लेकिन इतनी बारीकी से कि मलयकेतु को इसकी हवा तक न लगे और भागुरायण पर उसका विश्वास अडिग बना रहे. छुरी की धार पर चलना है. उसकी परीक्षा तो है ही,  इस सूक्ष्म लक्ष्य की ओर उन्मुख त्रुटिहीन संवादों के सृजन में विशाखदत्त के नाटककार की परीक्षा भी है, जो पाँचवें और छठे अंकों में भी चलती रहेगी,  बल्कि और भी दुस्तर होती जाएगी. 

मलयकेतु: भद्रभट वगैरह (चंद्रगुप्त के सात अधिकारियों) ने आकर मुझसे कहा कि वे मेरे आश्रय में इसलिए नहीं आये कि अमात्य राक्षस ने उन्हें अपने आश्रय लायक समझा, बल्कि वे तो चाणक्य के चंगुल में फँसे चंद्रगुप्त से विरक्त होकर, मेरे प्रशस्त गुणों के चलते, मेरे सेनापति शिखरसेन के माध्यम से मेरे आश्रय में आए हैं. बहुत देर तक विचार करने के बाद भी इस वाक्य का अर्थ मुझे समझ में नहीं आया. 

भागुरायण: समझना कठिन तो नहीं लगता,  कुमार. आश्रय देने लायक व्यक्ति का आश्रय उसके प्रिय और हितैषी व्यक्तियों के माध्यम से ही लेना चाहिए.

मलयकेतु: किंतु मित्र भागुरायण, अमात्य राक्षस तो हमारे सर्वाधिक प्रिय और हितैषी हैं. 

भागुरायण: इसमें कोई संदेह नहीं. लेकिन अमात्य राक्षस का वैर तो चाणक्य से है, चंद्रगुप्त से नहीं. यदि कभी चंद्रगुप्त सफलता से गर्वोन्नत हुए चाणक्य को बर्दाश्त न कर पाने के कारण अमात्य पद से हटा देता है और अमात्य राक्षस उससे संधि कर लेते हैं तो?  भद्रभट वगैरह का आशय यही हो सकता है कि ऐसा होने पर कुमार उन पर अविश्वास न करें….और यह स्थिति कोई असंभव भी नहीं. चंद्रगुप्त आख़िर है तो नंदवंश का ही, जिस वंश के प्रति राक्षस की निष्ठा अटूट है, और तब चंद्रगुप्त के लिए भी वंश-परंपरा को क़ायम रखना सुविधाजनक होगा. 

[मुद्राराक्षसम्‌  में संकेत उपलब्ध है (2:8) कि चंद्रगुप्त अंतिम नंद राजा का दासी-पुत्र (इसलिए अकुलीन, वृषल) है, जिसे व्याघ्र-शावक की तरह पालकर वे वंश-सहित नष्ट हो गए. इतिहास भी इस प्रमेय को ख़ारिज नहीं कर पाया है, जब कि बौद्ध परंपरा उसे पिप्पलिवन का मोरिय (संस्कृत ‘मौर्य’ का पाली रूप) क्षत्रिय बताती है (पिप्पलिवन के मोरियों को महात्मा बुद्ध की अस्थियों का एक हिस्सा मिला था) और जैन परंपरा भी उसे क्षत्रिय-कुल का बताती है. जाति और वर्ण के आधारभूत निषेध के बावजूद बौद्ध और जैन परंपराएँ जाति-वर्णगत पूर्वाग्रह से मुक्त हो पाईं? ईश्वर जानें.]

चंद्रगुप्त के प्रति विशाखदत्त की इसी साफ़गोई के चलते विद्वान लोग मुद्राराक्षसम्‌ के भरतवाक्य में ‘पार्थिवश्चंद्रगुप्त:’ को चंद्रगुप्त मौर्य के बजाए चंद्रगुप्त विक्रमादित्य से जोड़ते हैं,  और विशाखदत्त को 700 साल बाद के समय में ढकेल देते हैं. मेरी विनीत राय में नाटक चाहे जिस युग में लिखा गया हो, भरतवाक्य में पूर्वविवादित अंश का  सही पाठ ‘पार्थिवश्चंद्रगुप्त:’ तो होगा ही, इसमें चंद्रगुप्त का तात्पर्य चंद्रगुप्त मौर्य से ही होगा. जब पूरे नाटक की भावभूमि उस युग की है तो भरतवाक्य को समकालीन राजा से जोड़ने के लिए उसमें पैबंद लगाने की इस चाटुकारी नीयत का आरोपण क्यों? यह तो विशाखदत्त को मुद्राराक्षसम्‌ की हस्तलिखित प्रतियाँ तैयार करनेवाले उन महानुभावों की श्रेणी में ही रखना हुआ, जिनके द्वारा किए गए पाठभेद के चलते यह विवाद खड़ा हुआ. विवाद का आधार ही बेबुनियाद है. लेकिन ‘विद्वानों’ की महिमा! लगता है, वे ख़ुद नाटक लिखते तो अपने समकालीन शासकवर्ग की चाटुकारिता में ऐसा पैबंद ज़रूर लगा देते. यह तो भारतीय परंपरा की बहुत बचकानी समझ हुई.  नाटक में डूबकर जो मिले उसे ग्रहण करें या अपनी ओर से नई उद्भावना दें, विशाखदत्त के पीछे डंडा लेकर क्यों पड़े हैं, उन्होंने अपने बारे में जितना बता दिया,  बता दिया. आख़िर काल और स्थान तो अध्यासी ही हैं.]

राक्षस का घर आ जाता है. दोनों उसमें प्रवेश करने लगते हैं, तभी भीतर से राक्षस की आवाज़ सुनाई पड़ती है. अब तक गुप्तचर करभक का संदर्भ राक्षस को याद आ गया है और वह उससे पूछ रहा है—तुम कुसुमपुर में स्तनकलश से मिले थे? करभक हाँ कहकर आश्वस्त करता है. 

मलयकेतु: (भीतर हो रही बात सुनकर) भागुरायण,  कुसुमपुर का समाचार चल रहा है. यहीं से सुनते हैं. बात यह है कि राजा (यहाँ मलयकेतु) का उत्साह भंग न हो,  इसलिए मंत्री लोग (यहाँ राक्षस) उसके सामने वह सब नहीं कहते जो स्वच्छंद बातचीत में कह देते हैं.   

अब एक विडंबनात्मक नाट्य-तत्व का समावेश होता है. राक्षस और उसके मुलाक़ातियों के बीच चल रहे वार्तालाप के साथ-साथ मलयकेतु और भागुरायण का वार्तालाप भी एक-दूसरे से चलेगा, लेकिन पृथक्‌-पृथक्‌. मलयकेतु और भागुरायण तो राक्षस का वार्तालाप सुन रहे हैं, लेकिन राक्षस और उसके मुलाक़ाती मलयकेतु और भागुरायण का वार्तालाप नहीं सुन रहे. यह प्रयोग नया नहीं है लेकिन विशाखदत्त द्वारा इसका निर्वाह जिस कुशलता से और जिस सूक्ष्म अर्थ-व्यंजना के साथ किया गया है, वह नायाब है. पाठकों की सुविधा के लिए यहाँ रेखाएँ खींचकर पृथक्करण किया गया है.

(याद रहे, भागुरायण का लक्ष्य राक्षस और मलयकेतु के बीच संदेह और विच्छेद उत्पन्न करना है किंतु इतनी बारीकी से कि ख़ुद उस पर संदेह न हो जाए।]   
 
राक्षस: (करभक से) भद्र, वह कार्य सिद्ध हुआ?

करभक: आपकी कृपा से अच्छी तरह सिद्ध हुआ. 

…………………………………………………………………………………

मलयकेतु: मित्र भागुरायण, वह कौन-सा कार्य है? 

भागुरायण: यह वृतांत तो गूढ़ है. इतने भर से समझ में नहीं आ रहा. कुमार सावधान होकर सुनें.‌‌‌‌‌‌‌‌

..................................................................... 
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राक्षस: भद्र, विस्तार से सुनना चाहता हूँ. 

करभक: अमात्य ने मुझे आदेश दिया था कि मैं कुसुमपुर जाकर चारण स्तनकलश से मिलूँ और आपकी ओर से उससे कहूँ कि चाणक्य द्वारा चंद्रगुप्त के आदेशों का उल्लंघन किए जाने पर वह चंद्रगुप्त को भड़काने वाले श्लोकों से उसका स्तुतिगान करे।

राक्षस: फिर क्या हुआ? 

करभक: फिर राजा ने कौमुदी महोत्सव मनाए जाने की घोषणा कर दी, जिससे नंद-कुल के विनाश से दुखी पुरवासी बहुत प्रसन्न हुए.

राक्षस: उसके बाद?

करभक: उसके बाद दुष्ट चाणक्य ने उसे रोक दिया. फिर तो स्तनकलश द्वारा चंद्रगुप्त को उत्तेजित करनेवाला स्तुतिगान शुरू कर दिया गया। 

राक्षस :किस तरह?

करभक: (अंक तीन में उद्धृत) स्तनकलश के स्तुतिगान वाले दोनों श्लोकों का पाठ करता है.

राक्षस: (प्रसन्नता से) वाह स्तनकलश, वाह! ठीक समय पर भेद का बीज बोया. साधारण जन भी आनंद के अकस्मात्‌ व्याघात को सहन नहीं कर पाते, इतना तेज धारण करनेवाला राजा क्या कर पाएगा ! 

...............................................................

मलयकेतु: अमात्य ने ठीक कहा. ऐसा ही होता है.

...................................................................

राक्षस: उसके बाद, उसके बाद क्या हुआ ?

करभक: उसके बाद राजा ने आपके गुणों की प्रशंसा करते हुए दुष्ट चाणक्य को अमात्य पद से हटा दिया.

............................................................. 

मलयकेतु: मित्र भागुरायण, चंद्रगुप्त ने अमात्य के गुणों की प्रशंसा कर राक्षस के प्रति भक्ति दिखाई है.

भागुरायण: गुणों की प्रशंसा से उतनी नहीं,  जितनी दुष्ट चाणक्य को हटाने से. 

.........................................................

राक्षस: करभक, कौमुदी महोत्सव रोके जाने से ही चंद्रगुप्त इतना नाराज़ हो गया या और भी कोई कारण है ?

...................................................................

मलयकेतु: मित्र भागुरायण, अमात्य राक्षस चंद्रगुप्त के क्रोध का दूसरा कारण खोजने में इतनी दिलचस्पी क्यों ले रहे हैं? 

भागुरारण: बुद्धिमान चाणक्य बिना किसी बड़े कारण के चंद्रगुप्त को क्रुद्ध नहीं करेगा,  न चंद्रगुप्त उसके गौरव का उल्लंघन करेगा. कोई और बड़ा कारण होगा, जो भी हो,  दोनों में विलगाव होगा तो वह स्थाई ही होगा.

......................................................

करभक: दूसरा कारण भी है. वह यह कि मलयकेतु और राक्षस वहाँ से भागते समय पकड़े क्यों नहीं गए? 

राक्षस: (अति प्रसन्न होकर) मित्र शकटदास,  अब आ गया चंद्रगुप्त हमारी मुट्ठी में. अब चंदनदास की मुक्ति और तुम्हारा अपने स्त्री-बच्चों से मिलना निश्चित है.

.....................................................

मलयकेतु: मित्र भागुरायण, ‘मुट्ठी में आ गया’ का क्या मतलब? 

भागुरायण: चंद्रगुप्त को उख़ाड़ फेंकना तो कतई नहीं. चाणक्य से अलग हुए चंद्रगुप्त को अमात्य द्वारा उखाड़ने का कोई मतलब भी नहीं. तो मुट्ठी में आने का एक ही मतलब हुआ...

...............................................................

राक्षस: चाणक्य इस समय है कहाँ?

करभक: पाटलिपुत्र (कुसुमपुर) में ही.

राक्षस: वहीं रह रहा है? तपोवन नहीं गया ? फिर से (इस बार चंद्रगुप्त के) विनाश की प्रतिज्ञा नहीं की? 

करभक: सुना है कि तपोवन जा सकता है. 

राक्षस : यह तो ठीक नहीं लगता. जब पृथ्वीपति महाराज नंद का तिरस्कार उससे बर्दाश्त नहीं हुआ तो उसी के द्वारा राजा बनाए गए चंद्रगुप्त का कैसे होगा!

....................................................

मलयकेतु: मित्र भागुरायण, चाणक्य के तपोवन जाने या चंद्रगुप्त के विनाश की प्रतिज्ञा करने में इन्हें क्या स्वार्थ दिख रहा है? 

भागुरायण: समझना बहुत कठिन नहीं है,  कुमार. चंद्रगुप्त से चाणक्य जितनी दूर जाएगा,  अमात्य राक्षस का स्वार्थ उतना ही पूरा होगा.

.......................................................................................

शकटदास: (राक्षस से) छोड़िए अमात्य. जो भी हुआ,  ठीक हुआ. पिछली बार प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए चाणक्य को मारणादि क्रिया में जो कष्ट हुआ था, उसके डर से अब दुबारा प्रतिज्ञा नहीं करेगा.

राक्षस: यह भी ठीक है, मित्र शकटदास.... तो जाओ, करभक के विश्राम की व्यवस्था करो....मैं अब कुमार (मलयकेतु) को देखना चाहता हूँ. 

मलयकेतु: (आगे बढ़कर) मैं ही आर्य को देखने आ गया. 

राक्षस: अरे...बैठिए-बैठिए. 

मलयकेतु: आर्य आपके सिर की पीड़ा कैसी है ?

राक्षस: अब तो जब हम कुमार को अधिराज कहेंगे तभी यह पीड़ा दूर होगी. 

मलयकेतु: आर्य ने मान लिया तो हो ही जाएगा...अब हम और कब तक आक्रमण के लिए शत्रु की विपत्ति की प्रतीक्षा करेंगे, आर्य?

राक्षस: अब समय गँवाने का अवसर नहीं है. विजय के लिए प्रस्थान कीजिए.

मलयकेतु: शत्रु के संकट का कोई समाचार मिला है क्या?

राक्षस: हाँ मिला है. 

मलयकेतु: क्या है?

राक्षस: मंत्रिसंकट. चंद्रगुप्त चाणक्य से पृथक्‌ हो गया.

मलयकेतु: आर्य,  मंत्रिसंकट तो कोई बड़ा संकट नहीं है.

राक्षस: और राजाओं के लिए न होगा, चंद्रगुप्त के लिए है.

मलयकेतु: मुझे तो नहीं लगता  आर्य. चंद्रगुप्त के प्रति प्रजाओं में जो असंतोष है, वह चाणक्य के ही कारण है. उसके निकाल दिए जाने के बाद अब वे चंद्रगुप्त पर अनुरक्त हो जाएँगी. 

राक्षस: ऐसा नहीं है, कुमार. प्रजाएँ दो तरह की हैं. एक, जो नंद के विनाश से प्रसन्न हैं, दूसरी, जो नंद के प्रति अनुरक्त हैं. दूसरी तरह की प्रजाएँ अपने ही  पितृकुल को नष्ट करनेवाले चंद्रगुप्त से बहुत रुष्ट हैं, लेकिन कोई विकल्प न होने से उसका अनुसरण कर रही हैं. वे चंद्रगुप्त को हराने की शक्ति से सम्पन्न आपको पाकर उसे छोड़कर आपका आश्रय ग्रहण कर लेंगी.

मलयकेतु: तो आर्य, एकमात्र मंत्रिसंकट ही आक्रमण के लिए यथेष्ट है या और भी कोई कारण है? 

राक्षस: हैं तो और भी, लेकिन मुख्य वही है. 

मलयकेतु: क्या चंद्रगुप्त यह (अमात्यप्रवर का) दायित्व किसी और को देकर या ख़ुद लेकर समाहार नहीं निकाल सकता?

राक्षस: नहीं. जो राजा अपने हाथ में अधिकार रखते हैं, या मंत्री का सहयोग लेकर काम करते हैं,  उनसे संभव है. लेकिन जो चंद्रगुप्त की तरह मंत्री के हाथ में अधिकार समर्पित कर देते हैं,  उनसे नहीं. राजशक्ति और मंत्रिशक्ति के दो पैरों पर खड़ी राजलक्ष्मी, राजा और मंत्री में परस्पर भेद होने पर, स्थिर न रह पाने के कारण,  उनमें से एक को छोड़ देती है. मंत्री पर आश्रित होने से लोक-व्यवहार को न देख पाने के कारण मंदबुद्धि हुआ राजा उससे पृथक्‌ होने पर माँ के स्तन से अलग किए गए दुधमुँहे बच्चे की तरह जीवित नहीं रह सकता.

[यह आज से दो हज़ार तीन सौ साल पहले की कथा है (चंद्रगुप्त मौर्य का शासनकाल 322-24—298-300 ई.पू.) और इसका स्वीकृत रचनाकाल चौथी-पांचवीं शताब्दी (चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का शासनकाल 375-413 ई.) है. राजतंत्र में शासन-परिवर्तन की सफलता को लेकर प्रजा की अनुरक्ति-विरक्ति पर इतना गहन चिंतन और राजशक्ति एवं मंत्रिशक्ति के सम्यक्‌ संतुलन पर इतना समीचीन विचार उस युग के विश्व-साहित्य में अन्यत्र शायद ही मिले.]

इस तरह भागुरायण द्वारा मलयकेतु के दिमाग़ में संदेह का कीड़ा भर देने के कारण वह काफ़ी तर्क-वितर्क के बाद ही राक्षस की आक्रमण करने की मंत्रणा को स्वीकार करता है. स्वीकृति के बाद शीग्रातिशीघ्र प्रयाण का आदेश दे देता है—

उत्तुंङ्गास्तुङ्गकूलं स्रुतमदसलिला: प्रस्यन्दिसलिलं 
श्यामा: श्यामोपकण्ठद्रुममलिमुखरा: कल्लोलमुखरम्‌।
स्रोत:खातावसीदत्तटमुरुदशनैरुत्सादिततटा:
शोणं सिंदूरशोणा मम गजपतयो पास्यंति शतश:॥4:16॥

गम्भीरगर्जितरवा: स्वमदाम्बुमिश्रम्‌ 
आसारवर्षमिव शीकरमुद्गिरन्त्य:।
विंध्यं विकीर्णसलिला इव मेघमाला 
रुन्धन्तु वारणघटा नगरं मदीया:॥4:17॥

[ मेरे अतिविशालकाय सैकड़ों श्यामवर्ण किंतु सिंदूर से पुते होने से लाल, बड़े-बड़े दाँतों से नदी-तट तोड़ने में समर्थ, गजराज, जो मदजल बहानेवाले हैं और मदजल की सुगंध के कारण भौंरों से घिरे हुए गुंजायमान हैं, शोण नद (सोन नदी) के जल को पी डालें. शोण नद जो ऊँची उठती तरंगों से शब्दायमान जल-प्रवाह के आघात से खोखले किए गए और रह-रहकर गिरते ऊंचे तटों और किनारे की हरित वृक्ष-पंक्तियों से शोभायमान है {कुसुमपुर (बाद का पाटलिपुत्र) सोन और गंगा के  संगम पर स्थित था, तब से सोन रास्ता बदलकर पटना से काफ़ी पहले गंगा में मिल जाती है;  पश्चिमोत्तर से आनेवाली सेना को सोन पारकर ही कुसुमपुर पहुँचना होता}. 

चिंघाडने की गम्भीर ध्वनि करते और अपने मदजल से मिश्रित जलकणों की बारिश करते मेरे हाथियों की घटाएँ कुसुमपुर नगर को वैसे ही घेर लें जैसे मूसलाधार बारिश करनेवाले बादलों की घटाएँ विंध्याचल को घेर लेती हैं.] 

भागुरायण के साथ मलयकेतु के निकल जाने पर राक्षस आक्रमण की तिथि तय करने के लिए एक राजकर्मी को आसपास से कोई ज्योतिषी बुलाने का आदेश देता है। राजपुरुष जिसे साथ लेकर आता है वह और कोई नहीं, बौद्ध भिक्षु (क्षपणक) बनकर राक्षस का विश्वास जीतनेवाला चाणक्य का गुप्तचर जीवसिद्धि है, जो पहले अंक में (दिखावे के लिए) कुसुमपुर से निकाले जाने के बाद, यहीं आकर डट गया है. वस्तुत: वह चाणक्य का सहपाठी रह चुके होने से उसका अति विश्वासपात्र है. उसी ने राक्षस द्वारा चंद्रगुप्त की हत्या के लिए नियुक्त विषकन्या को गुमराहकर पर्वतक के पास पहुंचा दिया था. वह ज्योतिष का भी ज्ञाता है. उसे देखकर राक्षस को अपशकुन का आभास होता है—क्या क्षपणक ही मिला था! यह तत्कालीन समाज में बौद्ध भिक्षुओं के प्रति कुछ पूर्वाग्रह का सूचक हो सकता है। जीवसिद्धि द्वारा दिया गया आशीर्वचन भी उस युग में बौद्ध भिक्षुओं की सामाजिक स्थिति की एक झलक देता है—
‘अज्ञानरूपी रोगों के लिए वैद्यतुल्य बौद्ध भिक्षु की औषधि-रूपी शिक्षा स्वीकार करो, जो क्षण भर के लिए तो (प्रचलित रीतियों और पारंपरिक विश्वासों पर चोट करने के कारण) कटु लगती है किंतु बाद में हितकारी होती है. 

वह अपने शोधे हुए मुहूर्त की जो गूढ़ व्याख्या करता है और उसका जो फल बताता है, ज्योतिष-सम्मत हैं, किंतु विचित्र रूप से द्विअर्थक है. एक अर्थ में वे मलयकेतु को विजय दिलानेवाले हैं तो दूसरे और अभिप्रेत अर्थ में चंद्रगुप्त को. लेकिन राक्षस का वास्तविक कल्याण दोनों ही स्थितियों में सुनिश्चित है, जो घटनाओं का पूर्वाकलन-जैसा है. राक्षस भी ज्योतिष का कुछ ज्ञान रखता है, उसे संदेह होता है तो वह दूसरे ज्योतिषी की राय लेने की बात करता है. इस पर जीवसिद्धि थोड़ा रुष्ट होकर कहता है--लग्न भले ही अशुभ हो, सौम्य ग्रह बुध के होने से वह शुभ हो जाता है। गूढार्थ—विद्वान चाणक्य के होने से तुम्हारा तो कल्याण ही होगा।  

राक्षस सहायक से समय ज्ञात करने के लिए कहता है तो मालूम होता है कि भगवान सूर्य अस्त होनेवाले हैं. राक्षस बाहर निकलकर देखता है—क्षण भर के लिए अनुरागरूपी लालिमा दिखानेवाले उद्यान-वृक्षों के पत्तों की छाया ऊपर उठते सूरज के साथ दूर तक जाकर सूर्य के अस्तोन्मुख होने पर लौटकर सिमट गई है. जैसे सेवा करते हुए सेवक सम्पत्तिविहीन होने पर स्वामी को छोड़ जाते हैं. यह मलयकेतु के पतन की पूर्व-सूचना-जैसा है. 

चौथा अंक इस दुविधाग्रस्त भाव में समाप्त होता है.
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(क्रमश:)

कमलाकांत त्रिपाठी
Kamlakant Tripathi 

विशाखदत्त का प्रयोगधर्मी नाटक मुद्राराक्षसम्‌ (4) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/4_30.html 

कमलकांत त्रिपाठी / विशाखदत्त का प्रयोगधर्मी नाटक मुद्राराक्षसम्‌ (4)

मुद्राराक्षसम्‌ का संक्षिप्त भावानुवाद: तृतीय अंक ~

मुद्राराक्षम्‌ का तीसरा अंक चाणक्य और चंद्रगुप्त के बीच प्रायोजित कलह (कृतककलह) का है. है तो यह प्रायोजित किंतु इसकी योजना इतनी युक्तिसंगत और विश्वसनीय है कि यदि विचलित चंद्रगुप्त के कुछ स्वगत कथन न होते तो पाठक को पता ही न चलता, यह पूरा अंक प्रायोजित कलह का है--शत्रुओं को छलने के लिए रचा गया स्वाँग,  नाटक के भीतर नाटक. लेकिन ख़ासियत यह है कि प्रायोजन को एक तरफ़ रख दें तो भी कथा-सूत्र उतना ही दिलचस्प है,  उसमें बस एक विडंबनात्मक वैचित्र्य ज़रूर जुड़ गया है,  जो अन्यथा पाठक / दर्शक को कथा-प्रवाह के साथ अनपेक्षित दिशा में बहा ले जा सकता था।   

इसलिए ठीक ही है कि दर्शकों के सामने अंक के पाँचवें श्लोक के बाद ही इस रहस्य को उद्घाटित कर दिया गया है. चंद्रगुप्त का स्वगत कथन— "...कृतककलहं कृत्वा स्वतंत्रेण  किञ्चित्कालान्तरं व्यवहर्तव्यमित्यार्यादेश:। स च कथमपि मया पातकामिवाभ्युपगत:।" [...आर्य चाणक्य का आदेश है कि कुछ समय तक  प्रायोजित कलह करके मुझे स्वतंत्र व्यवहार करना चाहिए. और वह गले पड़े पाप की तरह मेरे द्वारा अंगीकार भी कर लिया गया है.]

अंक की शुरुआत शरद पूर्णिमा को होनेवाले पारंपरिक कौमुदी महोत्सव के लिए सुगांग राजमहल को सजाने के राज्यादेश की कंचुकी द्वारा घोषणा से होती है.

चंद्रगुप्त पहली बार मंच पर दिखाई पड़ता है. कंचुकी के मार्गदर्शन में सुगांग राजमहल में प्रवेशकर उसकी सीढ़ियाँ चढ़ता हुआ. राजधर्म की कठोर अपेक्षाओं के सामने अपनी विवशता से त्रस्त. [ इस संदर्भ का एक श्लोक आलेख के शुरू (खंड-एक) में उद्धृत है.]  उसे रोशनी की एक ही किरण दिखती है--यदि आर्य चाणक्य के निरंतर उपदेश से बुद्धि सम्यक्‌ बनी रहे तो हम स्वतन्त्र हैं. शिष्यत्व का यही हासिल है. गुरु सदाचार-युक्त क्रिया को नहीं रोकता, बस अज्ञानवश हुए विचलन पर अंकुश लगाता है;  उसके द्वारा बताए गए मार्ग पर चलने की स्वतंत्रता तो रहती ही है,  और इससे अधिक स्वतंत्रता वरेण्य भी नहीं--चन्द्रगुप्त का निष्कर्ष.

इसी प्रसंग में शरद ऋतु की रमणीयता का स्वल्प वर्णन भी है. वर्षा के उफान और मालिन्य से निकलकर कृशकाय हुई नदियों के बालुकामय तट सफ़ेद बादलों के विस्तार-जैसे लगते हैं. ऐसा प्रतीत होता है जैसे मधुर ध्वनि करते शुभ्र सारस पक्षियों के झुंड और रात में खिली हुई कमलिनी की तरह चमकते नक्षत्रों से व्याप्त दशों दिशाएँ आकाश से उतर रही हों. जलाशय अपनी मर्यादा में सिमट आए हैं, खेतों में बालों के भार से धान की फ़सलें झुक गई हैं,  और मोरों का मद विष की तरह दूर हो गया है;  मानो शरद ऋतु संसार को विनय का पाठ पढ़ा रही हो. 

लेकिन चारों ओर निगाह दौड़ाने पर चंद्रगुप्त को कौमुदी महोत्सव शुरू होने का कोई लक्षण ही नहीं दिखता. कंचुकी (जो अंत:पुर की देखरेख करनेवाला वृद्ध, गुणी ब्राह्मण होता था) काफ़ी टालमटोल के बाद झिझकते हुए बताता है कि महोत्सव को रोक दिया गया है. 

[और बस नाटक के भीतर नाटक शुरू.] 

राजा: (क्रोध के साथ) किसके द्वारा?

कंचुकी: महाराज,  इससे अधिक निवेदन नहीं किया जा सकता.

राजा: आर्य चाणक्य के द्वारा तो नहीं ?

कंचुकी: जिसको अपनी जान प्यारी हो, ऐसा और कौन हो सकता है, महाराज? 

द्वार-रक्षिका को बुलाकर और उसके द्वारा सिंहासन तक ले जाए जाने और उस पर विराजमान होने के बाद-- 

राजा: आर्य वैहीनरि (कंचुकी का नाम), आर्य चाणक्य को देखना चाहता हूँ (यहाँ अभिनय के भीतर अभिनय--आदेश देने के पहले राजकीय औपचारिकता पूरी करने को लक्ष्य करें). 

मामला इतना नाज़ुक है कि वृद्ध वैहीनरि महोदय झींकते-काँखते, अपने काम को कोसते, ख़ुद ही चाणक्य की कुटिया तक पहुँच जाते हैं.

मगध साम्राज्य के अमात्य-प्रवर चाणक्य का आवास--यह कुटिया है कैसी? 

उपलशकलमेतद्भेदकं गोमयानां 
बटुभिरुपहृतानां बर्हिषां स्तूपमेतत्‌।
शरणमपि समिद्भि: शुष्यमाणाभिरामि-
र्विनमितपटलान्तं दृष्यते जीर्णकुड्यम्‌॥3:15॥

[(कंचुकी के शब्दों में) सूखे उपलों को तोड़नेवाला यह पत्थर का टुकड़ा है; यह ब्रह्मचारियों द्वारा लाए गए कुशों का ढेर है, सूखने के लिए रखी समिधा (यज्ञ में प्रयुक्त लकड़ी) के भार से नीचे झुके किनारोंवाला यह छप्पर है. जीर्ण-शीर्ण दीवारोंवाला यह चाणक्य का ही घर तो दिख रहा है.] 

वैहीनरि सोचते हैं--महाराज चंद्रगुप्त को आर्य चाणक्य जो नौकर की तरह ‘वृषल’ (जन्मना हीन) कहकर बुलाते हैं,  ठीक ही है. ऐसा देखा गया है कि सत्य बोलनेवाले लोग भी दीनता में आकर वाचाल हो जाते हैं, राजा मौजूद न हो तब भी उसकी प्रशस्ति में मुँह को थका डालते हैं. निश्चय ही भीतर छिपी अदम्य लालसा ही ऐसा कराती होगी. यदि आदमी नि:स्पृह हो तो उसके लिए तो राजा तृण की तरह तिरस्कार-योग्य है.

[विशाखदत्त के समय में अंग्रेजी की कहावत—End justifies the means—प्रचलित नहीं रही होगी. रही होती तो ऐसी टिप्पणी आ सकती थी कि यह कहावत चाणक्य-जैसे विरले निस्पृह लोगों पर ही लागू होती है, देशप्रेमी बनने या दिखने का हर महत्वाकांक्षी इसका दावा नहीं कर सकता. अब यही कि एक ओर तो ग़रीब जनता के विकास की बात करो और दूसरी ओर दस लाख का सूट देनेवाले को न तो झिड़क सको, न उसे धारण करने से अपने को रोक सको; तब तो इस कहावत का कचूमर ही निकल जाएगा.]

वैहीनरि द्वारा राजा का आदेश बताए जाने पर चाणक्य पूछता है—मेरे द्वारा कौमुदी महोत्सव का निषेध चंद्रगुप्त के कानों तक पहुँच तो नहीं गया? कंचुकी की स्वीकारोक्ति पर चाणक्य का (प्रायोजित) क्रोध भड़क उठता है—किसने पहुँचाया ?

पूरी बात बताने की कंचुकी की हिम्मत नहीं--‘सुगांग राजमहल पहुँचकर महाराज ने स्वयं देख लिया’.

चाणक्य—तब तो आप लोगों ने चंद्रगुप्त को भड़काकर मेरे ऊपर नाराज़ करने में कोई कसर नहीं उठा रखी होगी....ख़ैर चलिए. 

चाणक्य कंचुकी के साथ सुगांग महल पहुँचकर, प्रणामाशीर्वाद के शिष्टाचार के बाद यथोचित आसन ग्रहणकर, राजा से बुलाने का कारण पूछता है.

राजा: आर्य के दर्शन से अपने को अनुगृहीत करने के लिए. 

चाणक्य: (मुस्कराकर) यह विनम्रता छोड़ो, राजा लोग अधिकारी को बिना किसी प्रयोजन के नहीं बुलाते.

राजा: कौमुदी महोत्सव रोकने से आर्य क्या लाभ देखते हैं?

चाणक्य: तो उलाहना देने के लिए बुलाया है?

राजा: नहीं-नहीं, ऐसा न कहिए. निवेदन करने के लिए. 

चाणक्य: जो इस योग्य हो कि उससे निवेदन किया जाय, उसके द्वारा स्व-विवेक के अनुरूप कुछ भी करने पर शिष्य को रोक-टोक तो नहीं करनी चाहिए. 

राजा: वह तो ठीक है,  लेकिन बिना किसी कारण के आर्य (आप) कुछ नहीं करते,  इसलिए पूछ लिया. [आज के  दुनियादार क़िस्म के अधीनस्थों द्वारा बार-बार प्रयुक्त Sir की तरह ‘आर्य’ शब्द बार-बार इस्तेमाल होता था-- ‘आप’ की जगह भी आर्य। मेरा विनीत मत है कि संस्कृत में कहीं भी आर्य या अनार्य शब्द का प्रयोग किसी नस्ल के अर्थ में नहीं हुआ है.] 

चाणक्य: वृषल, तुमने ठीक समझा है. कारण के बिना चाणक्य स्वप्न में भी कुछ नहीं करता. 

राजा: वही कारण सुनने की इच्छा तो मुझे पूछने को प्रेरित कर रही है.

चाणक्य: तो सुनो. इस मामले में अर्थशास्त्र (दंडनीति या राजनीतिशास्त्र) के आचार्य तीन तरह के विधान बताते हैं—राजा के अधीन, मंत्री के अधीन, और दोनों के अधीन. अब जो विधान मंत्री के अधीन है,  तुम्हें उसका कारण ढूँढ़ने की क्या ज़रूरत?  इसके लिए नियुक्त हम मंत्री लोग, जो उचित है,  कर ही रहे हैं.

राजा क्रोध से मुँह फेर लेता है (इतना उकसाने के बाद ही वह दृढ़ हो पाता है कि यह तो नाटक चल रहा है, जिसमें उसे क्रुद्ध होकर आचार्य से लड़ना है).

और उधर राजसभा में सब अनजान-से बने तमाशा देख रहे हैं (योजना के अनुसार ही).

तभी पर्दे के पीछे से दो चारण राजा का स्तुतिगान शुरू करते हैं. इनमें से दूसरा वही है—राक्षस का आदमी स्तनकलश (संदर्भ: अंक दो)

पहला चारण तो दो बहुत ही सुंदर और अर्थगर्भित श्लोकों में क्रमश: शिव और विष्णु से शरद ऋतु को जोड़कर (एक अर्थ शिव /विष्णु के पक्ष में, दूसरा शरद ऋतु के पक्ष में) राजा के लिए आशीर्वचन बोलता है।  

दूसरे चारण स्तनकलश का स्तुतिगान—

सत्वोत्कर्षस्य धात्रा निधय इव कृता: केsपि कस्यापि हेतो-
र्जेतार: स्वेन धाम्ना मदसलिलमुचां नागयूथेस्वराणाम्‌।
दंष्ट्राभङ्गं मृगाणामधिपतय इव व्यक्तमानावलेपा 
नाज्ञाभङ्गं सहन्ते  नृवर नृपतयस्त्वादृशा:सार्वभौमा:॥3:22॥
भूषणाद्युपभोगेन प्रभुर्भवति न प्रभु:।
परैरपरिभूताज्ञास्त्वमिव प्रभुरुच्यते॥3:23॥

[हे नरश्रेष्ठ ! विधाता के द्वारा कुछ लोग किसी कारणवश  अतिशय सामर्थ्य के पुंज (सम्राट) बना दिए जाते हैं. आपकी तरह विख्यात स्वाभिमानी ऐसे चक्रवर्ती सम्राट जानवरों के अधिपति सिंह की तरह होते हैं, जो हाथियों के झुंड के मदजल गिराते मुखियाओं को भी हरा देता है. वे अपनी आज्ञा का उल्लंघन बर्दाश्त नहीं कर सकते,  जैसे शेर अपना दाँत तोड़ा जाना बर्दाश्त नहीं कर सकता. 

आभूषणों के इस्तेमाल से कोई राजा राजा नहीं हो जाता. आपकी तरह राजा वही होता है जिसकी आज्ञा अखंड होती है, जिसका कोई उल्लंघन नहीं कर सकता.]  

चाणक्य: (पहले चारण का शिव और विष्णु की स्तुतिरूप शरद ऋतु का आशीर्वचन और दूसरे का राजा को भड़कानेवाला उपरोक्त स्तुतिगान सुनकर,  स्वगत) पहले चारण का गान तो समझ में आ गया, इस दूसरे का नहीं आ रहा है. (सोचकर) अब समझा, तो यह राक्षस की करामात है. अरे पाजी राक्षस,  दिख रहे हो तुम,  मुझे दिख रहे हो,  कौटिल्य जाग रहा है.

राजा: आर्य वैहीनरि, इन दोनों चारणों को सौ-सौ हज़ार स्वर्ण मुद्राएँ दिलवा दीजिए (जैसे चंद्रगुप्त कुछ ज़्यादा ही स्वतंत्र व्यवहार पर उतर आया हो). 

‘जैसी महाराज की आज्ञा’ कहकर वैहीनरि उठकर चलने को होते हैं. 

चाणक्य: (क्रोध के साथ) वैहीनरि, रुक जाइये, कहीं नहीं जाना है. (राजा की ओर मुख़ातिब होकर) वृषल, धन का ऐसा अपव्यय क्यों?

राजा: (उसी तरह क्रोध के साथ) आर्य के द्वारा मेरी हर चेष्टा पर रोक लगा दी गई है, राज्य मेरे लिए राज्य न रहकर बंधन-जैसा हो गया है. 

चाणक्य: जब राजा स्वयं राज्य का संचालन नहीं करता तो यह दोष आ ही जाता है. सहन नहीं हो रहा तो स्वयं राज्य के संचालन में लग जाओ.

राजा: लीजिए, लग गया. 

चाणक्य: अच्छी बात है,  अब मैं भी अपने कार्य (पठन-पाठन) में लगता हूँ. 

राजा: लेकिन कौमुदी महोत्सव रोके जाने का कारण बताते जाइए.  

चाणक्य: एक कारण तो यह है कि चारों समुद्रों के पार के सैकड़ों राजा जो तुम्हारी आज्ञा शिरोधार्य करते हैं, वह तुम्हारी उस प्रभुता का द्योतक है जो मेरे द्वारा बाधित होते हुए भी तुम्हारे विनय से सुशोभित होती है. 

[दूसरा कारण बताने के पहले चाणक्य प्रतिहारी को अपने सहायक के पास भेजकर वह दस्तावेज़ मँगवाता है जिसमें (प्रकटत: असंतुष्ट होने के कारण) मगध की राजधानी से मलयकेतु के यहाँ जाकर आश्रय लिए हुए आठ अधिकारियों का प्रमाणलेख है और उसे पढ़ना शुरू करता है. [पहले अंक में चाणक्य की योजना के तहत इनके राजधानी से भागने का ज़िक्र आ चुका है,  किंतु प्रमाणलेख से दूसरा पहलू सामने आता है,  जो प्रायोजित के तहत है.]

चाणक्य: हस्तिसेना का सेनापति भद्रभट और अश्वसेना का सेनापति पुरुषदत्त इसलिए गए कि वे  स्त्री-भोग और मदिरा के शौकीन और इसलिए अपने-अपने काम में असावधान होने से मेरे द्वारा पद-मुक्तकर मात्र जीविका-निर्वाह पर रख दिए गए थे;  ये मलयकेतु के यहाँ जाकर उन्हीं-उन्हीं पदों पर कार्य करने लगे हैं. प्रधान द्वार-रक्षक डिंगरात और तुम्हारा संबन्धी बलगुप्त बेहद लालची होने से तुम्हारे द्वारा दी जानेवाली जीविका को अपर्याप्त समझते थे और अधिक लाभ के लिए शत्रु-पक्ष में चले गए. तुम्हारा बचपन का सेवक राजसेन तुम्हारी कृपा से हाथी-घोड़े और कोष के रूप में एक विशाल सम्पत्ति सहसा पा गया था, उसके विनाश (शासन द्वारा अपहरण) की आशंका से मलयकेतु की शरण में चला गया. प्रधान सेनापति का छोटा भाई भागुरायण कुसुमपुर की घेराबंदी के समय पर्वतक के संपर्क में आकर उसका मित्र और उसके मारे जाने पर उसके पुत्र मलयकेतु का विश्वासपात्र बन गया. उसने मलयकेतु को सुरक्षा के लिहाज़ से मगध से निकल जाने की सलाह दी,  और बाद में शत्रुओं के सहायक चंदनदास वगैरह के पकड़ लिए जाने पर ख़ुद भी डर से भागकर मलयकेतु की शरण में चला गया, और वहाँ उसका मंत्री बन गया. मालव राजपुत्र लोहिताक्ष और कुसुमपुर का क्षत्रिय-गण-प्रधान विजय वर्मा अपने बांधवों को तुम्हारे द्वारा सम्मानित किया जाना ईर्ष्यावश सहन नहीं कर पाए और मलयकेतु के आश्रय में चले गए. 

चंद्रगुप्त बाक़ायदे जवाबतलब करता है—इन सब का प्रतिकार क्यों नहीं किया गया ?  [वह ख़ुद राज्य-संचालन के लिए अभी-अभी कटिबद्ध हुआ है न.] 

चाणक्य: असंतुष्ट प्रजाओं का प्रतिकार दो तरह से करने का विधान है—कृपा (अनुग्रह) या दमन (निग्रह). भद्रभट्ट और पुरुषदत्त पर कृपा करने का मतलब है फिर से उन्हें क्रमश: हस्तिसेना और अश्वसेना का प्रधान बना देना, फिर तो वे इन दोनों सेनाओं को अपनी बुरी आदतों के चलते विनष्ट ही कर देंगे. बेहद लालची डिंगरात और बलगुप्त संपूर्ण राज्य दे देने से भी संतुष्ट नहीं होनेवाले. अनायास पाये धन की सुरक्षा के लिए भयभीत राजसेन और मृत्युदंड से भयभीत भागुरायण पर कृपा करने की गुंजाइश कहाँ है?  अतिशय स्वाभिमानी लोहिताक्ष और विजयवर्मा पर कौन-सी कृपा उनमें प्रीति पैदा कर सकेगी,  मुझे नहीं मालूम. जहाँ तक दमन का सवाल है,  अभी-अभी हमने नंदों का वैभव प्राप्त किया है, उनके विनाश में साथ देनेवाले इन लोगों को कठोर दंड देने से हम नंदकुल में अनुरक्त प्रजाओं के बीच कितने अविश्वसनीय बन जायेंगे!....और अब इन लोगों पर अनुग्रह करनेवाला, राक्षस की योग्य मंत्रणा माननेवाला, और अपने पिता की हत्या से क्रुद्ध, मलयकेतु जब विशाल ‘म्लेच्छ’  सेना लेकर हमारे ऊपर आक्रमण के लिए तत्पर है तो यह प्रतिरक्षा की तैयारी का समय है या कौमुदी महोत्सव मनाने का ? 

राजा: इस अनर्थ के कारणभूत मलयकेतु को भागने क्यों दिया गया? 

चाणक्य: भागने न दिया जाता, तो या तो पकड़कर बन्दी बनाना पड़ता, नहीं तो आधा राज्य देना पड़ता. बंदी बनाने का मतलब उसकी इस धारणा को पुष्ट करना होता कि उसके पिता पर्वतक की हमारे ही द्वारा कृतघ्नतापूर्वक हत्या करवा दी गई. वादे के अनुसार आधा राज्य देने पर भी उसकी इस धारणा के चलते कि पर्वतक की हत्या हमने कराई है, हमारी कृतघ्नता नहीं धुलती. अत: हर हाल में कृतघ्नता का आरोप ही हमारे हाथ लगता. 

राजा: फिर राक्षस को क्यों जाने दिया गया?  

चाणक्य: राक्षस का नंदों के प्रति अनुराग है. उसके एक ही स्थान पर रहने से प्रजा उसका स्वभाव जानती है. नंद के प्रति अनुरक्त प्रजाओं को उस पर पूरा भरोसा है, वह बुद्धि और पुरुषार्थ में बढ़-चढ़कर है. उसके अनेक सहायक हैं और उसके पास प्रभूत कोष है. यदि वह यहीं नगर में रहता तो सशक्त आंतरिक विद्रोह खड़ा कर सकता था. बाहर जाकर वह जो भी कर रहा है, उसका प्रतिकार किया जा सकता है.

राजा: फिर जाते समय उसे आक्रमण करके बंदी क्यों नहीं बना लिया गया?

चाणक्य: यदि प्रचंड आक्रमण किया जाता तो वह मृत्यु को प्राप्त हो सकता था, जिससे तुम उस जैसे योग्य पुरुष की सेवाओं से वंचित रह जाते. नहीं तो तुम्हारी बहुत सारी सेना नष्ट कर सकता था,  कई सेनापतियों को मार सकता था. 

राजा: हम वचन में आर्य से पार नहीं पा सकते. लेकिन मुझे तो अमात्य राक्षस ही सब तरह से प्रशंसनीय लगता है.

चाणक्य:  ‘न कि आप’  इतना और जोड़ दो....राक्षस ने ऐसा क्या कर लिया?

राजा: यही कि हमारे द्वारा विजित इस नगर में वह हमारे गले पर पैर रखकर रहता रहा, हमारी सेना की गतिविधियों में विघ्न डालता रहा और जब चाहा तब निकल लिया. और हम अपनी घबराहट में अपने विश्वसनीय लोगों पर भी विश्वास नहीं कर रहे हैं.

चाणक्य: ओह, बस यही किया राक्षस ने! मैंने तो समझा,  नंद की तरह तुमको  उखाड़कर मलयकेतु को पृथ्वी का राजाधिराज बना दिया.

राजा: यह जो नंदों का विनाश और राजाधिराज के पद पर मेरी प्रतिष्ठा हुई है, उसमें आर्य का क्या है? 

चाणक्य के क्रोध का विस्फोट— ‘99 सौ करोड़ सुवर्णमुद्राओं के स्वामी, अभिमानी नंदों का विनाश, जिनकी चिताएँ आज तक नहीं बुझीं, मेरे अतिरिक्त और कौन कर सकता था!... और देखो,  नंदों के नष्ट होने से शांत हुई मेरी कोपाग्नि को तुम फिर भड़का रहे हो, लगता है तुम भी मृत्यु के वशीभूत हो गए हो.’

राजा: (घबराकर, स्वगत) लगता है,  आर्य सचमुच कुपित हो गए.  

चाणक्य: (कृत्रिम क्रोध को रोककर) वृषल, उत्तर-प्रत्युत्तर से क्या लाभ! यदि राक्षस को मुझसे श्रेष्ठ समझते हो तो यह लो शस्त्र (अमात्य-प्रमुख का राजचिह्न-रूप दंड) और उसी को बुलाकर दे दो.

दंड को वहीं छोड़कर, चाणक्य उठ खड़ा होता है और आकाश की ओर देखकर राक्षस को चुनौती-सी देता है— तुमने जो यह सोचकर कि चाणक्य से विलग करके चंद्रगुप्त को जीत लूंगा, भेद नीति का सहारा लिया है, उससे तुम ही भेद दिए जाओगे, राक्षस. और निकल जाता है. 

उसके जाने के बाद—

राजा: आर्य वैहीनरि (कंचुकी), अब से चाणक्य को एक किनारेकर चंद्रगुप्त स्वयं राज्य करेगा. प्रजा को इसकी सूचना दे दी जाए.

कंचुकी: (स्वगत) सिर्फ़ ‘चाणक्य’ ! ‘आर्य चाणक्य तक नहीं’!! ख़ैर, इसमें महाराज का दोष नहीं, क्योंकि राजा जो अनुचित करता है, वह मंत्री का ही दोष होता है.

[हमें इंग्लैण्ड का संविधान पढ़ाते समय  वहां  संवैधानिक राजतंत्र के विकास के साथ प्रकाश में आई यह उक्ति बताई गई थी—King can do no wrong. यदि हम  विशाखदत्त को चंद्रगुप्त विक्रमादित्य के काल में रखकर इस कथन को मौर्य काल के बजाए उनके युग की अवधारणा मानें, तो भी यह चौथी-पाँचवीं शताब्दी की बात साबित होती है, जब इंग्लैंड रोमन साम्राज्य का एक नगण्य, सर्वथा अविकसित हिस्सा था. यह पुष्पक विमान के सहारे की जानेवाली बेसिरपैर की अटकलों-जैसी बात नहीं है. पूरा मुद्राराक्षसम्‌ एक पूर्ण विकसित राजनीतिक-प्रशासनिक संस्कृति का आईना है.]  

कंचुकी के निकल जाने के बाद राजा का स्वगत कथन—हमारे कलह को लोगों द्वारा यथार्थ समझ लिए जाने में अपने कार्य की सिद्धि देखनेवाले आर्य चाणक्य सफल-मनोरथ हों.

फिर द्वार-रक्षिका शोणोत्तरा से यह कहते हुए कि इस नीरस विवाद से मुझे सरदर्द हो गया है,  मुझे शयनकक्ष का मार्ग बताओ, चंद्रगुप्त भी निकल जाता है. 

और इस तरह कथा-योजना में प्रायोजित का एक अपूर्व और अद्भुत नाटकीय तत्व लिए हुए तीसरा अंक समाप्त होता है.
.....................
(क्रमश:)

कमलाकांत त्रिपाठी
Kamlakant Tripathi

विशाखदत्त का प्रयोगधर्मी नाटक मुद्राराक्षसम्‌  (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/3_28.html 

सच्चिदानंद सिंह / आइंस्टीन के शब्दों में सापेक्षता - रिलेटिविटी (11)

20. गुरुत्वाकर्षी मात्रा और जड़त्वीय मात्रा का बराबर होना सामान्य सापेक्षता का एक प्रमाण ~

ब्रह्माण्ड (आकाश) के एक खंड की कल्पना करें जो किसी तारा या वैसी वस्तु से इतना दूर है कि हम निश्चिन्त हो कर मान सकते हैं कि यहाँ गैलिलिओ का वह मूलभूत नियम लागू होगा - यदि कोई वस्तु इस खंड में स्थिर है तो वह स्थिर रहेगी और यदि कोई वस्तु चलायमान है तो वह एकभाव गति से सरलरेखा में चलती रहेगी. अब कल्पना करें कि वहाँ एक बड़ा सा बक्सा है - एक कमरे के बराबर - जिसके अंदर एक व्यक्ति है. वहाँ कोई गुरुत्वाकर्षण नहीं है जो उस व्यक्ति के पैरों को बक्से की फर्श से लगाए रखे. उस मनुष्य ने अपने को फर्श से बाँध रखा है अन्यथा अपने पैरों के हल्के आघात से भी वह बक्से की छत की तरफ चला जाएगा. 

अब कल्पना करें कि बक्से की छत के केंद्र से एक रस्सी लटकी हुई है जो बक्से के बाहर, बहुत दूर,  किसी कील से लटक रही है. यह भी कि कोई प्राणी, कौन या कैसा प्राणी हमारे लिए महत्वपूर्ण नहीं है, कोई प्राणी उस रस्सी को समान, एकरूप बल से खींच रहा है. उसके खीँचने से बक्सा त्वरित (एक्सेलरेटेड) गति से ऊपर जाएगा. बक्से की गति लगातार बढ़ती जाएगी और कुछ समय बाद बक्सा बहुत तेज गति से ऊपर जाने लगेगा. 

और हम सब एक दूसरे बक्से में हैं जो स्थिर है, और जो पहले  बक्से के लिए एक स्थिर सन्दर्भ बिंदु है. अपने बक्से से हम यह सब देख रहे हैं; लेकिन ऊपर ओर भागते बक्से में खड़े उस मनुष्य को क्या लगेगा?

उसका बक्सा तेजी से ऊपर जा रहा है, उसके पैरों पर ऊपर जाते बक्से के फर्श का दबाव है.  वह बक्से में उसी तरह खड़ा है जैसे पृथ्वी पर कोई किसी कमरे में खड़ा हो. उसे लगेगा कि बक्से का फर्श उसे अपनी तरफ खीँच रहा है. उसके ओवरकोट की जेब में अनेक वस्तुएं हैं. वह किसी चीज को निकाल कर हाथ से छोड़ देता है, फेँकता नहीं,  बस उसे जाने देता है. बक्से का त्वरण अब उस चीज तक नहीं आएगा और वह चीज त्वरित सापेक्षित गति से बक्से की फर्श की तरफ जाएगी. 

वह अपनी जेब से कुछ और चीजें निकाल कर हाथ से गिरा देता है. सभी उसी तरह फर्श की ओर गिरतीं हैं. उनकी गति को देख कर उसका निष्कर्ष है: किसी ऐसी चीज का फर्श की दिशा में त्वरण एक समान रहता है. यह त्वरण उस वस्तु के किसी गुण से बदलता नहीं है.

उस व्यक्ति को गुर्त्वाकर्षी क्षेत्र (जिसे हमने पिछली कड़ी में देखा था) की समझ है और अपने उस ज्ञान के आधार पर वह इस निष्कर्ष पर पंहुचता है कि वह स्वयं और वह बक्सा किसी गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र में है, जिसकी तीव्रता समय के साथ नहीं बदलती. उसे कुछ आश्चर्य होगा कि बक्सा नीचे क्यों नहीं जा रहा लेकिन तब तक वह उस रस्सी को देखेगा और अब उसका निष्कर्ष होगा, बक्सा गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र में उस रस्सी से लटका हुआ है! 

क्या उसकी सोच गलत है? हमें नहीं लगता कि ऐसा सोचने में उसने तर्क की कोई गलती की है, न ही उसकी सोच मेकैनिक्स के किसी नियम की अवहेलना कर रही है. यद्यपि  बक्सा 'गैलीलियन आकाश' में त्वरित गति से ऊपर जा रहा है, फिर भी हम बक्से को स्थिर मान सकते हैं. (किसी गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र में रस्से से लटका!)  तब सापेक्षता के सिद्धांत को अधिक व्यापक बनाते हुए हम इसमें वैसे सन्दर्भ निकायों को भी सम्मिलित  कर पा रहे हैं जो एक दूसरे से त्वरित गति की स्थिति में हों! सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत की दिशा में यह  एक जोरदार दलील है.

यह ध्यान में रखने की बात है कि उपरोक्त व्याख्या के मूल में है गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र का हर वस्तु को, बिना उसके किसी गुणविशेष के, एक समान रूप से प्रभावित करना, एक त्वरण देना या जैसा पिछली कड़ी में दिखाया गया था जड़त्वीय द्रव्यमान और गुरुत्वाकर्षी द्रव्यमान का परस्पर बराबर होना. यदि यह प्राकृतिक नियम नहीं रहता तो ऊपर की ओर त्वरित गति से जा रहे बक्से के अंदर वह मनुष्य अपने आस-पास की वस्तुओं के व्यवहार को गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र के प्रभाव के रूप में नहीं देख पाता. और तब अपने अनुभवों के आधार पर उसका यह निष्कर्ष अमान्य रहता कि  वह / उसका बक्सा 'स्थिर' हैं.

अब कल्पना करें कि उस मनुष्य ने बक्से की छत में अंदर की तरफ एक कील ठोंकी और उससे एक डोरी लटका कर डोर के दूसरे छोर पर कोई वस्तु बाँध दी. इसका असर यह होगा कि रस्सी तन जाएगी और बिलकुल लम्बवत लटकेगी. यदि उस व्यक्ति से हम डोरी में तनाव का कारण पूछें तो उत्तर मिलेगा, "गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र के चलते लटकी हुई वस्तु पर नीचे की तरफ (बक्से की फर्श की दिशा में) एक बल लग रहा है वस्तु नीचे नहीं जा रही क्योंकि डोरी का तनाव उस बल को काट रहा है / निष्प्रभावित कर दे रहा है (न्यूट्रलाइज़ कर दे रहा है.) कितना तनाव डोरी में है यह इस पर निर्भर करेगा कि लटकती वस्तु का गुरुत्वाकर्षी द्रव्यमान  क्या है."

वहीँ कोई और व्यक्ति, जो उस बक्से में नहीं है, इन सारी चीजों को ऐसे समझेगा: डोरी बक्से से जुड़ी है इस लिए यह भी बक्से के साथ उसकी त्वरित गति से जा रही है. और डोरी उस गति को उस लटकी वस्तु तक प्रेषित करता (ट्रांसमिट करता) है. डोरी में तनाव कितना होगा यह इस पर निर्भर करता है कि लटकती वस्तु जड़त्वीय द्रव्यमान क्या है. इस उदाहरण से स्पष्ट है कि सापेक्षता के सिद्धांत को अधिक व्यापक बनाने के लिए यह जरूरी है कि जड़त्वीय द्रव्यमान और गुरुत्वाकर्षी द्रव्यमान बराबर हों. और इस तरह, इस (सामान्य सापेक्षता) नियम की हमें एक भौतिक विवेचना मिलती है.

त्वरित गति से ऊपर जा रहे बक्से की जो चर्चा हमने की, उससे हम देख सकते हैं कि सामान्य साक्षेपता सिद्धांत गुरुत्वाकर्षण के नियमों पर महत्वपूर्ण निष्कर्ष दे सकेगा. यह सच है कि, सामान्य साक्षेपता को सही सही समझने से हमें ऐसे नियम मिले हैं जो गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र की शर्तों का अनुपालन करते हैं. 

आगे बढ़ने के पहले मैं पाठक को चेताना चाहूंगा. उस बक्से में खड़े आदमी के लिए एक गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र था जब कि हमने जिस सन्दर्भ निकाय (रेफरेन्स सिस्टम) को पहले चुना था उसमें वैसा कोई क्षेत्र नहीं था. इससे हमें यह भान हो सकता है कि गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र का अस्तित्व सदा अवास्तविक होता है. हम यह भी सोच सकते हैं कि किसी गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र के रहने पर भी हम ऐसा सन्दर्भ निकाय चुन सकते हैं जिस के लिए कोई गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र नहीं है. यह सभी गुरुत्वाकर्षी क्षेत्रों के लिए कतई सच नहीं है - बस उनके लिए जो कुछ विशेष रूप में होते हैं. उदाहरण के लिए ऐसा कोई सन्दर्भ निकाय खोजना असंभव है जिस पर पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र बिलकुल काम नहीं कर रहा हो.

आइंस्टीन के शब्दों में सापेक्षता (रिलेटिविटी) – 9 में हमने पुस्तिका के अठारहवे अध्याय, "विशेष और सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत", को देखा था. उसके अंतिम अनुच्छेदों में हमने देखा था कि एकभाव गति से चलती ट्रेन के डिब्बे के अंदर बैठे यात्री को गति का कोई भान नहीं होता. वह समझता है कि पटरियाँ, पूरा रास्ता पीछे की ओर भाग रहा है. और विशेष सापेक्षता का सिद्धांत के अनुसार इस तरह सोच कर भी वह अपनी गति के विषय में सही गणना कर सकता है. 

लेकिन जब ट्रेन की एकभाव गति नहीं रहती है: ट्रेन की रफ़्तार अचानक धीमी हो जाती है. तब यात्री को अचानक एक झटका लगेगा, आगे की तरफ और वह यात्री अब नहीं सोच सकता कि ट्रेन स्थिर है और रास्ता पीछे जा रहा है. स्पष्टतः गैलिलिओ का नियम उस गाड़ी पर लागू नहीं होगा जो एकभाव गति से नहीं चल रही. इस कारण से एकभाव गति से नहीं चलने वाले सन्दर्भ निकाय को अभी हम एक ऐसी भौतिक यथार्थता देने को बाध्य हो  रहे हैं जो सापेक्षता के सिद्धांत से बेमेल है. वहां हमने कहा था कि आगे हम देखेंगे कि यह निष्कर्ष सही नहीं है.

अब हम देख सकेंगे कि हमारी उपरोक्त आपत्ति क्यों सही नहीं है. यह बिलकुल सच है कि गाड़ी की गति धीमी होने के चलते डब्बे में बैठे यात्री को आगे की तरफ झटका लगता है और उसे स्पष्ट होजाता है कि उसकी गाड़ी की गति एकभाव नहीं है. लेकिन ऐसा कोई कारण नहीं है कि वह आगे की तरफ लगे उस झटके को गाडी की रफ़्तार के धीमी होने से ही जोड़े. इस अनुभव को वह इस तरह भी सोच सकता है: "मेरा सन्दर्भ निकाय (यह डब्बा) लगातार स्थिर रहा है. लेकिन इसके सन्दर्भ में एक गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र (जब गाड़ी की रफ़्तार धीमी होने लगी) है जो मुझे आगे की ओर आकर्षित कर रहा है, और जो समय के साथ बदल रहा है. इस क्षेत्र के प्रभाव के चलते पटरियाँ और पूरे रास्ते की गति एकभाव नहीं रही और पीछे की दिशा में उनकी गति लगातार कम होती जा रही है."
(समाप्त) 

सच्चिदानंद सिंह
Sachidanand Singh 

आइंस्टीन के शब्दों में सापेक्षता - रिलेटिविटी (10) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/10.html 


सच्चिदानंद सिंह / आइंस्टीन के शब्दों में सापेक्षता - रिलेटिविटी (10)



19. गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र ~ 

"अगर किसी पत्थर को उठा कर हम छोड़ देते हैं तो वह नीचे क्यों गिर जाता है?" इस प्रश्न का सामान्य उत्तर है, "क्योंकि पृथ्वी उसे अपनी ओर खीँचती है." आधुनिक भौतिकी इस का उत्तर कुछ अलग देगी. इसका कारण है कि इलेक्ट्रोमैग्नेटिक घटनाओं के अध्ययन से हम इस निष्कर्ष पर पंहुचे हैं कि कुछ दूरी रहने पर कोई क्रिया असंभव हो जाती है यदि बीच में कोई माध्यम न रहे. एक उदाहरण लेते हैं. चुम्बक लोहे को अपनी ओर आकर्षित करता है. इस आकर्षण से हम यह नहीं समझते कि चुम्बक और लोहे के बीच की खाली जगह के बावजूद चुम्बक लोहे को अपनी ओर खींच पाता है. हम यह सोचते हैं, बतौर फैराडे, चुम्बक अपनी दिशा की चारो तरफ हमेशा, भौतिक रूप से वास्तविक, 'कुछ' बनाये रखता है जिसे हम चुम्बकीय क्षेत्र (मैग्नेटिक फील्ड) कहते हैं. और यह चुम्बकीय क्षेत्र लोहे पर अपना काम करता है जिससे लोहा चुम्बक की तरफ खिँचा चला आता है (या उसकी प्रवृत्ति खिंचे चले आने की होती है.) 

इस चुम्बकीय क्षेत्र की अवधारणा के औचित्य पर हम चुप रहेंगे, मानते हुए कि यह धारणा कुछ मनमानी है. हम बस यह कहेंगे कि चुम्बकीय क्षेत्र मान लेने से एलेक्रोमॅग्नेटिक घटनाओं की, विशेषकर इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों के प्रसारण की सैद्धांतिक व्याख्या बेहतर ढंग से की जा सकती है. गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव भी इसके अनुरूप ढंग से समझे जा सकते हैं. तब हम कहेंगे कि पत्थर पर पृथ्वी की क्रिया सीधे नहीं होती. पृथ्वी अपनी चारो तरफ एक गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र बनाए 
रखती है और यह क्षेत्र पत्थर को प्रभावित कर उसमें पृथ्वी की दिशा में गति पैदा करता है. हम अनुभव से जानते हैं कि जैसे जैसे हम पृथ्वी से दूर होते जाते हैं, इस क्रिया की तीव्रता एक सुनिश्चित नियम के अनुसार घटती जाती है. हमारे उद्देश्य के लिए इसका अर्थ है, पृथ्वी द्वारा अपनी चारो तरफ एक गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र बनाने के भी सुनिश्चित नियम होने चाहिए जिनसे वस्तु की पृथ्वी से दूरी बढ़ने पर यह गुरुत्वाकर्षण वैसे ही घटता दिखे जैसे हम यथार्थ में देखते हैं. दूसरे शब्दों में, कोई वस्तु (जैसे पृथ्वी) अपने निकट चारो तरफ एक क्षेत्र बनाती है; जैसे जैसे हम इस वस्तु से दूर जाते हैं, इस क्षेत्र की तीव्रता और दिशा उस नियम के अनुसार बदलते हैं जिस नियम के अनुसार वह आकाश / दिशा (स्पेस) स्वयं नियंत्रित होती है जहाँ गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र बना रहता है.

(नोट: इस पतली पुस्तिका में पहली बार आइंस्टीन ने इंगित किया है कि किसी वस्तु से बना गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र उसी नियम से नियंत्रित होता है जो नियम उस दिशा (स्पेस) को नियंत्रित करती है, जहाँ वस्तु स्थित है.)

विद्युत या चुम्बकीय क्षेत्रों के विपरीत, गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र में एक बहुत उल्लेखनीय गुण है; यह गुण उसके आधार में रहेगा जो बात आगे कही जाने वाली है. जो वस्तुएं बस गुरुत्वाकर्षण के चलते गतिमान हैं उनमे एक त्वरण (अक्सेलरेशन) आता है जो इस पर तनिक भी नहीं निर्भर करता है कि वह वस्तु किस चीज की बनी है. उदाहरण के लिए, सीसे का टुकड़ा और रूई का फाहा, यदि हवा का अवरोध न हो - जैसे शून्य में, बिलकुल एक समान त्वरण से गिरेंगे.  (गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र चुम्बकीय या विद्युत् क्षेत्र से बिलकुल अलग है.  चुम्बकीय क्षेत्र बस उन्ही वस्तुओं को प्रभावित करते हैं जो चुम्बक से आकर्षित होते हैं,  विद्युत क्षेत्र बस उन कणों को प्रभावित करता है जिन पर कोई विद्युतीय आवेश - इलेक्ट्रिकल चार्ज - हो.)
इस नियम का पालन हम हमेशा देखते हैं. इसे एक दूसरे रूप में भी लिखा जा सकता है. न्यूटन के नियम से:  
बल =  जड़त्वीय द्रव्यमान (इनर्शिअल मास) x  त्वरण (एक्सेलरेशन)

यहाँ जड़त्वीय द्रव्यमान उस त्वरित जा रही वस्तु का गुणविशेष है. यदि त्वरण का कारण गुरुत्वाकर्षण है तब बल का समीकरण होगा:
बल = गुरुत्वाकर्षी द्रव्यमान x गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र की तीव्रता 

यहाँ गुरुत्वाकर्षी द्रव्यमान उस त्वरित जा रही वस्तु का गुणविशेष है. इन दो समीकरणों से:
त्वरण =   (गुरुत्वाकर्षी द्रव्यमान / जड़त्वीय द्रव्यमान) x गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र की तीव्रता

लेकिन प्रयोगों से हम जानते हैं कि गुरुत्वाकर्षण के चलते होता त्वरण वस्तु के किसी गुणविशेष पर निर्भर नहीं करता, बल्कि यह बस गुरुत्वाकर्षी क्षेत्र की तीव्रता पर निर्भर करता है. तब (गुरुत्वाकर्षी द्रव्यमान / जड़त्वीय द्रव्यमान) सभी वस्तुओं के लिए समान ही होगा. उचित इकाईयों को चुनकर इस अनुपात का मान एक किया जा सकता है और तब हमे यह नियम मिलता है: किसी वस्तु का गुरुत्वाकर्षी द्रव्यमान उसके जड़त्वीय द्रव्यमान के बराबर होती है!

इस महत्वपूर्ण नियम को मेकैनिक्स में पहले से जगह मिली हुई थी लेकिन इसकी व्याख्या सही ढंग से नहीं हुई थी. इसका संतोषप्रद निर्वचन (इंटरप्रिटेशन) तभी सम्भव है जब हम इस तथ्य को ध्यान में रखें: किसी वस्तु की जड़ता (इनर्शिआ) और उसकी गुरुता (वजन) उस वस्तु के एक ही गुणविशेष के दो रूप हैं.
 
आगे हम देखेंगे कि किस सीमा तक यह यथार्थ है और कैसे यह प्रश्न सामान्य साक्षेपता के सूत्रण से सम्बद्ध है.
(क्रमशः) 

सच्चिदानंद सिंह
Sachidanand Singh 

आइंस्टीन के शब्दों में सापेक्षता - रिलेटिविटी (9) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/9.html 

Thursday 29 September 2022

सीडीएस की नियुक्ति और सेना में वरिष्ठता की परंपरा / विजय शंकर सिंह

चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ, सीडीएस का पद सभी सेनाध्यक्षों के ऊपर एक केंद्रीय कमांडर की तरह होता है। तीनों सेनाओं के, सेनाध्यक्ष, जिसमे,जनरल, एयर चीफ मार्शल, एडमिरल भी शामिल हैं, फोर स्टार जनरल के होते हैं। प्रथम, सीडीएस के रूप में बनाए गए जनरल विपिन रावत, भी सीडीएस बनने के पहले तक, जनरल/थल सेनाध्यक्ष थे तो, इस प्रकार वे स्वाभाविक रूप से, चार स्टार जनरल पहले से ही थे। और चूंकि वे रिटायर्ड होने के बाद सीडीएस बने थे तो, वे स्वाभाविक रूप से, सभी चार स्टार जनरलों/सेनाध्यक्षों से भी वरिष्ठ थे। उस समय सीडीएस के लिए चार स्टार जनरल होना अनिवार्य अर्हता थी। तब यही सोचा गया होगा कि सीडीएस के पद पर, कोई न कोई रिटायर्ड चार स्टार जनरल/सेनाध्यक्ष ही नियुक्त होगा। इसे एकीकृत कमांड प्रमुख के रूप में वह सेना की संयुक्त कमान संभालेंगे। 

लेकिन, बाद में, जब अचानक जनरल विपिन रावत की एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना में, दुखद मृत्यु हो गई, तब फिर नए सीडीएस की तलाश शुरू हुई। इसी के बाद सरकार ने सीडीएस नियुक्ति के मानक भी बदल दिए। नए मानक के अनुसार, 
० कोई भी अधिकारी चाहे वह सेवारत हो या अवकाशप्राप्त, उसे जनरल या कम से कम लेफ्टिनेंट जनरल रैंक का होना चाहिए.
० नियुक्ति के समय अधिकारी की आयु 62 साल से कम होनी चाहिए. केंद्र सरकार चाहे तो उसका कार्यकाल 65 साल की उम्र तक बढ़ा सकती है। 
यह नियम तय किया गया। 

पुराने और नए मानक में यह अंतर है कि, पहले केवल जनरल के ही पद पर विचार किया जा सकता था अब सीडीएस के पद के लिए लेफ्टिनेंट जनरल के पद से रिटायर्ड अधिकारी की नियुक्ति पर भी विचार किया जा सकता है। इसी नए मानक के अनुसार लेफ्टिनेंट जनरल अनिल चौहान, नए सीडीएस नियुक किए गए हैं। 

सीडीएस के दायित्व और कर्तव्य को सरकार ने इस प्रकार से तय किया है। 
० यह भारतीय सेना, नौसेना व वायुसेना में किसी ऑफिसर की सर्वोच्च रैंक है।
० चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ को तीनों सेनाओं के सेनाध्यक्ष, रिपोर्ट करते हैं।
० सीडीएस की भूमिका, रक्षा मंत्रालय के मुख्य रक्षा सलाहकार की भी होती है। 
० CDS रक्षा मंत्रालय के सैन्य मामले विभाग में सचिव की भूमिका भी निभाता है। 
देश में पहली बार 1 जनवरी, 2020 को CDS का पद सृजित किया गया था और, तत्कालीन चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ, जनरल बिपिन रावत पहले सीडीएस बनाए गए थे। 

सीडीएस एक यूनिफॉर्म सैन्य अधिकारी होता है, तो उसके कंधे पर लगने वाले बैज का भी निर्धारण किया गया। सीडीएस के कंधे पर लगने वाले बैज में, जनरल के रैंक से थोड़ा अलग दिखने के लिए, आंशिक रूप से बदलाव किया गया। उन्हे एक सितारा, अशोक  और क्रॉस ऑफ बैटन तथा सोर्ड का निशान के साथ एक फ्लोरल घेरा भी लगाने की अनुमति दी गई और जनरल को पहले की ही तरह, एक स्टार, अशोक चिह्न और क्रॉस ऑफ बैटन तथा सोर्ड का बैज बना रहा। जनरल के समकक्ष, वायु सेना और नौ सेना के अध्यक्षों जिनका पदनाम एयर चीफ मार्शल और एडमिरल होता है के कंधो पर उनके निशान अलग तरह के होते हैं। अब यह तय नहीं हुआ है कि, जब कोई सीडीएस, नौसेना या वायुसेना से बनेगा तो वह कंधे पर क्या बैज धारण करेगा। हो सकता है जब ऐसी स्थिति सामने आए, तो इसका समाधान भी तभी निकाला जाय। लेकिन यह तो तय है कि वायुसेना और नौसेना से नियुक्त हुआ सीडीएस, अपनी सेना की ही वर्दी धारण करेगा न कि आर्मी की वर्दी और रैंक तथा बैजेस। 

स्टार जनरल की अवधारणा, उनके वाहनों पर लगे स्टार से तय किए जाने की परंपरा है। जिस गाड़ी पर एक स्टार होगा, वह, ब्रिगेडियर, दो स्टार वाली गाड़ी मेजर जनरल, तीन स्टार जिसके वाहन पर होगा, वह लेफ्टिनेंट जनरल और जनरल/सेनाध्यक्षों की गाड़ी पर चार स्टार लगते हैं। अब तक देश में चार स्टार की फौजी गाड़ियां केवल तीन ही होती थी पर सीडीएस पद के बाद अब चार हो गई है। पुलिस सेवा का एक पद, निदेशक, आईबी यानी इंटेलिजेंस ब्यूरो प्रमुख का होता है, उसकी गाड़ी पर भी चार स्टार लगते हैं और यह पुलिस का वरिष्ठम पद होता है।  

सेनाध्यक्षों के पद, ऑर्डर ऑफ प्रेसीडेंस,  या वरिष्ठता क्रम कह लीजिए के अनुसार, 12वें नंबर पर आता है। इस श्रेणी में तीनों सेनाध्यक्ष और सीडीएस के पद आते हैं। सरकार द्वारा घोषित ऑर्डर ऑफ प्रेसीडेंस में, इस श्रेणी में चार स्टार जनरल का स्पष्ट उल्लेख है। 

सेना में लेफ्टिनेंट जनरल, एक रैंक है पर उनके पद भी अलग अलग है। वाइस चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ, कमांडर इन चीफ, यानी कमांड प्रमुख, कोर कमांडर और सेना मुख्यालय में अन्य वरिष्ठ पदों पर भी लेफ्टिनेंट जनरल रहते हैं। इन सबकी गाड़ियों पर तीन स्टार लगता है और इन्हें थ्री स्टार जनरल कहा जाता है। पर अधिकार और पद के रूप में उप सेनाध्यक्ष, कमांडर इन चीफ CIC और कोर कमांडर अलग अलग होते है। 

अब अगर ऑर्डर ऑफ प्रेसीडेंस की बात करें तो, वाइस चीफ ऑफ द आर्मी स्टाफ, और आर्मी कमांडर, यानी कमांड प्रमुख, लेफ्टिनेंट जनरल और थ्री स्टार जनरल ही होते हैं, लेकिन वे इस ऑर्डर में, 23वें नंबर पर आते हैं और सभी लेफ्टिनेंट जनरल/थ्री स्टार जनरल इस ऑर्डर में एक श्रेणी नीचे यानी 24वें नंबर पर रखे गए हैं। 

सेना में या यूं कहें कि सभी यूनिफॉर्म सशस्त्र बलों में, रैंक, बैज, वरिष्ठता का बहुत महत्व होता है और सेना के अफसर इस वरिष्ठता और प्रोटोकॉल को लेकर बहुत सजग और संवेदनशील रहते हैं। मैं एक संस्मरण आप को बताता हूं। साल 2009 में लखनऊ में तत्कालीन राष्ट्रपति का आगमन था और मेरी ड्यूटी,  अमौसी एयरपोर्ट पर लगी थी। राष्ट्रपति चूंकि, सभी सशस्त्र सेनाओं के सुप्रीम कमांडर भी होते है तो उनके स्वागत में, लखनऊ सेंट्रल कमांड के कमांडर इन चीफ भी आए थे। मेरे पास उन महानुभावों की सूची भी थी जो, राष्ट्रपति की अगवानी एयरपोर्ट पर करने वाले थे। राज्यपाल और मुख्यमंत्री तो नंबर एक और दो पर थे ही, फिर मेयर जो उस समय दिनेश शर्मा थे को खड़ा होना था। फिर जब अफसरों की बारी आई तो, चीफ सेक्रेटरी का स्थान था, और चीफ सेक्रेटरी के साथ डीजीपी भी थे दोनो साथ खड़े हो सकते थे। 

लेकिन राष्ट्रपति का जहाज अभी उतरा नहीं था, सभी अधिकारीगण आपस में बातचीत कर रहे थे, तभी मध्य कमान के कमांडर इन चीफ के एडीसी आए और उन्होंने स्वागत करने वाले महानुभावों की सूची और उनका स्टैंडिंग अरेंजमेंट देखना चाहा। मैने फाइल से वह कागज दिखाते हुए उन्हें कहा कि, जनरल साहब, चीफ सेक्रेटरी के बाद खड़े रहेंगे और जनरल साहब के बाद, तब डीजीपी खड़े रहेंगे। उन्हे यह आशंका थी कि, कहीं मैं उन्हे चीफ सेक्रेटरी, फिर डीजीपी और तब उन्हे न खड़ा कर दूं। पर मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि यह सूची ऑर्डर ऑफ प्रेसीडेंस के ही अनुसार बनी है। तब वे हल्के से मुस्कुराए और थैंक यू सर कह कर के, यही बात जनरल साहब जो बताने के लिए चले गए। उस समय डीजीपी साहब यह सब देख रहे थे, और उन्होंने मुझे इशारे से बुलाया कि, क्या बात हो गई। उन्हे मैने बता दिया कि सर आप को चीफ सेक्रेटरी, फिर लेफ्टिनेंट जनरल और तब खड़े होना है। वे हंसे और कहे कि कोई बात नहीं। 

लेफ्टिनेंट जनरल भी थ्री स्टार जनरल है और डीजीपी की भी गाड़ी में तीन स्टार लगता है लेकिन लेफ्टिनेंट जनरल जो कमांडर इन चीफ होता है, वह 23वें पायदान पर आता है डीजीपी अन्य लेफ्टिनेंट जनरल के समान 24वें पायदान पर आते हैं। इतना सब स्पष्ट कर दिए जाने पर भी जब जहाज़, जमीन पर उतर गया, और राज्यपाल, मुख्यमंत्री  उनकी अगवानी के लिए आने लगे तो जनरल साहब ने, मुझसे फुसफुसाकर पूछा, मुझे कहां खड़ा होना है चीफ सेक्रेटरी के ठीक बाद? मैने कहा जी सर। वे फिर अपनी निर्धारित जगह पर खड़े हो गए। 

यह संस्मरण मैने इस लिए बताया है कि, रैंक, पद, ऑर्डर ऑफ प्रेसीडेंस आदि का बहुत अधिक महत्व सेना में होता है और यह बहुत ही अनुशासित ढंग से होता है। सेना में एक अलग तरह की संस्कृति ही विकसित हो जाती है और ऐसा इसलिए है कि सैन्य परंपराएं इसी रेजीमेंटेशन के आधार पर विकसित हुई है। 

सीडीएस, जो अब तक जनरल के ही पद से रिटायर या सेवारत भी होते रहे हैं तो, रैंक और अनुशासन की कोई समस्या सामने नहीं आई, क्योंकि जनरल रावत तो खुद ही चार स्टार जनरल रह चुके थे। लेकिन अब जान थ्री स्टार जनरल को भी सीडीएस के पद पर नियुक्त किया जा सकता है, के प्राविधान के अनुसार, नए सीडीएस लेफ्टिनेंट जनरल अनिल चौहान को नियुक्त कर दिया गया है, जो निश्चित ही जनरल रैंक से कनिष्ठ हैं, तो इसे लेकर, वरिष्ठता, रैंक, या ऑर्डर ऑफ प्रेसीडेंस की जटिलता और संवेदनशीलता को देखते हुए, सेना के वरिष्ठ अफसरों में क्या प्रतिक्रिया होती है, इस पर भी सरकार को नजर रखनी पड़ेगी। 

चीफ ऑफ डिफेंस का पद, एक एकीकृत कमांड के रूप में, तीनो सेनाओं के बीच समन्वय और रणनीतिक जरूरतों के कारण गठित किया गया है, अतः इस पद नियुक्त अफसर, तीनों सेनाओं के प्रमुखों यानी जनरल, चीफ एयर मार्शल और एडमिरल जो फोर स्टार जनरल होते हैं से, कनिष्ठ नहीं होना चाहिए, यह रेजीमेंटेशन, वरिष्ठता और यूनिफॉर्म सुरक्षा बलों की परंपरा के विपरीत है। इसका असर अनुशासन पर भी पड़ सकता है। 

(विजय शंकर सिंह)

Wednesday 28 September 2022

सच्चिदानंद सिंह / आइंस्टीन के शब्दों में सापेक्षता - रिलेटिविटी (9)

18. विशेष और सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत ~

अब तक हमने एकभाव गति (यूनिफार्म मोशन) की भौतिक सापेक्षता की बात की थी और उसे विशेष सापेक्षता का सिद्धांत कहा था. एक बार उसका पुनर्वलोकन करते हैं और देखते हैं कि इसे "विशेष" क्यों कहा जा रहा है. हम अपने पुराने उदाहरण को लेते हैं जिसमे एक ट्रेन पटरी पर चल रही थी. इसे दो तरह से हमने देखा था:
क) ट्रेन पटरी की अपेक्षा गति में है, और 
ख) पटरी ट्रेन की अपेक्षा गति में है.

क) में पटरी सन्दर्भ है जिसकी अपेक्षा ट्रेन गतिशील है और ख) में ट्रेन संदर्भ है जिसकी अपेक्षा पटरी गतिशील है. जिस सिद्धांत की हम चर्चा कर रहे थे उसके अनुसार किसी एक  को संदर्भ और दूसरे को गतिशील मान कर हम गति का वर्णन कर सकते हैं. यह स्वतः स्पष्ट है.

लेकिन सिद्धांत बस इतना ही नहीं कहता. इसके अनुसार, दो सन्दर्भ निकाय (रेफरेन्स सिस्टम) K और K' में निकाले गए (उत्पन्न किये गए) यांत्रिकी के नियम (और प्रकाश की गति का नियम) एक समान होंगे यदि K और K' एक दूसरे के साथ एकभाव गति (यूनिफार्म मोशन) में हों. अर्थात, K और K' में कोई ऐसा नहीं है जो इसके लिए (उन नियमों को निकालने के लिए) अधिक उपयुक्त है. इस बात की व्युत्पत्ति गति और सन्दर्भ निकाय की धारणा में नहीं है, यह उनसे नहीं निकाली जा सकती. इसकी सत्यता बस प्रयोग द्वारा जाँची जा सकती है.  

हमने सभी ऐसे सन्दर्भ निकायों को एक समान माना है. हमने एक ऐसे निकाय K से शुरुआत की थी जिसमे गलीलिओ का नियम लागू होता था: यदि किसी गतिशील वस्तु पर कोई बाहरी बल न लगे और वह दूसरी वस्तुओं से पर्याप्त दूरी पर हो तो वह वस्तु एकभाव गति से चलती रहेगी. इस सन्दर्भ निकाय K (जिसमे गलीलिओ का नियम लागू है) के साथ साथ यह नियम उन सभी सन्दर्भ निकायों K' में भी लागू रहेगा यदि ये निकाय K की अपेक्षा एकभाव, रैखिक गति में हों और उनमे कोई घूर्णन नहीं हो. हमारा यह सिद्धांत इन 'विशेष' निकायों पर ही काम करता है, इसी लिए यह विशेष सापेक्षता का सिद्धांत कहा जाता है.     

इसके विपरीत, सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत से हम यह समझना चाहते हैं: प्रकृति में देखे जा रहे सभी नियमों / घटनाओं के लिए (प्राकृतिक नियमों के सूत्रीकरण के लिए) सभी सन्दर्भ निकाय K, K' आदि समतुल्य हैं, चाहे उनकी गति की स्थिति कुछ भी हो! यह सूत्रण भी, हम आगे देखेंगे, स्पष्ट कारणों से कुछ अधिक अमूर्त /गूढ़ होगा. (उसके कारण भी उस समय स्पष्ट किये जाएंगे.)

हमलोग अपने पुराने उदाहरण को फिर से देखते हैं. ट्रेन पटरियों पर एकभाव गति से जा रही है. उसके अंदर बैठे यात्री को गति का कोई भान नहीं होता. वह समझ रहा है कि पटरियाँ, पूरा रास्ता पीछे की ओर भाग रहा है. और विशेष सापेक्षता का सिद्धांत कहता है कि इस तरह सोच कर भी वह अपनी गति के विषय में सही गणना कर सकता है. अब मानिये कि ट्रेन की एकभाव गति नहीं रहती है: ट्रेन की रफ़्तार अचानक धीमी हो जाती है. तब अंदर बैठे यात्री को अचानक एक झटका लगेगा, आगे की तरफ. अब वह यात्री नहीं सोच सकता कि ट्रेन स्थिर है और रास्ता पीछे जा रहा है. धीमी हो रही गति का प्रभाव हर जगह दिखेगा. वस्तुओं के यांत्रिक व्यवहार (मैकेनिकल बेहेवियर) अब भिन्न हो गए हैं. और इस कारण यह सम्भव नहीं लग रहा कि जो यांत्रिक नियम पहले लागू हो रहे थे वे अब भी, जब एकभाव गति नहीं है, लागू होंगे. 

स्पष्टतः गैलिलिओ का नियम उस गाड़ी पर लागू नहीं होगा जो एकभाव गति से नहीं चल रही. इस कारण से एकभाव गति से नहीं चलने वाले सन्दर्भ निकाय को अभी हम एक ऐसी भौतिक यथार्थता देने को बाध्य हो  रहे हैं जो सापेक्षता के सिद्धांत से बेमेल है. आगे हम देखेंगे कि यह निष्कर्ष सही नहीं है.

(नोट: विशेष सापेक्षता का सिद्धांत आइंस्टीन का बहुत मत्वपूर्ण किन्तु अपेक्षाकृत एक छोटा काम था. भौतिकी को समझने की दिशा में उनका अगला काम, सामान्य साक्षेपता का सिद्धांत आया जिसके मुख्य अवयव उन्होंने नवम्बर 1915 सिद्ध कर लिए थे. विशेष सापेक्षता सिद्धांत के रचनात्मक पक्ष पर आइंस्टीन को करीब डेढ़ महीने काम करने पड़े थे. यदि 1905 में उन्होंने इसे प्रतिपादित नहीं किया होता तब भी इसी या शायद कुछ भिन्न रूप में यह सिद्धांत आ जाता. इसके आधारभूत समीकरण लॉरेंज़ और पॉइनसारे दोनों ने स्वतंत्र रूप से प्रतिपादित कर लिए थे. उन समीकरणों की उनकी समझ, उनके निर्वचन आइंस्टीन के निर्वचन से भिन्न थे. दूसरी तरफ सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत को विकसित करने में आइंस्टीन को सात वर्ष लगे थे; जिनमे अंतिम दो-तीन वर्ष के काम अत्यंत कठिन थे. कोई दूसरे भौतिकविद उनके विचारों के निकट भी नहीं थे. यदि आइंस्टीन ने इस सिद्धांत को नहीं खोजा होता तो शायद आज भी सामान्य सापेक्षता का सिद्धांत हमारे बीच नहीं होता. 

आइंस्टीन का यह सिद्धांत एक अर्थ में क्लासिकी है - क्लासिकी मतलब जो क्वांटम सिद्धांत के पहले का हो. यह सिद्धांत अपने पहले और अपने बाद आये सिद्धांतों से बिलकुल अलग है.  यह 'बल' (फ़ोर्स) की विवेचना ज्यामिति से करता है और अंततः हमें बिलकुल चकित कर देने वाली अभिधारणाएँ देता है: कृष्ण विवर (ब्लैक होल), दूसरे ब्रह्माण्ड, उन तक जाने वाले 'पुल', और काल-यात्रा (टाइम ट्रेवल) की संभावना भी! बल के सभी अन्य सिद्धांत क्वांटम सिद्धांत की छतरी के नीचे छुप गए हैं, सामान्य सापेक्षता नहीं.  आधुनिक भौतिकी की सबसे कठिन और सबसे महत्वपूर्ण पहेली है सामान्य सापेक्षता और क्वांटम सिद्धांत को एक साथ ला पाना.)
....क्रमशः

सच्चिदानंद सिंह
Sachidanand Singh
 
आइंस्टीन के शब्दों में सापेक्षता - रिलेटिविटी (8) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/8.html 

कमलाकांत त्रिपाठी / विशाखदत्त का प्रयोगधर्मी नाटक मुद्राराक्षसम्‌ (3)



मुद्राराक्षसम्‌ का संक्षिप्त भावानुवाद: द्वितीय अंक ~
 
राक्षस का गुप्तचर विराधगुप्त. अहितुंडक (सर्पजीवी=सँपेरा) के वेष में. इस वेष में उसका नाम है जीर्णविष. कुसुमपुर के ताज़ा समाचार की रिपोर्ट राक्षस को देने मलयकेतु की राजधानी आया हुआ है. कुसुमपुर में चाणक्य की बुद्धि से परिचालित चंद्रगुप्त को देखकर उसे राक्षस निष्फल लगता था, यहाँ राक्षस की बुद्धि से परिचालित मलयकेतु को देखकर चाणक्य निष्फल लगता है. [वस्तुत:, जैसा कि अमूमन होता है, एक पक्ष की ओर झुके होने के कारण उसे वे बारीक बिंदु दिखाई ही नहीं पड़ते तो चाणक्य का पलड़ा भारी करते हैं, किंतु सावधान पाठक को ज़रूर दिखाई पड़ेंगे.] इतना अवश्य है कि मगध की राजलक्ष्मी परस्पर भिड़े दो जंगली हाथियों के बीच अनिश्चित, भयभीत, इधर से उधर झूलती हथिनी की तरह खिन्न है—वस्तुस्थिति यही है जो नाटक को नाट्य-तत्व से सराबोर करती है.

गुप्तचर विराधगुप्त के पहुँचने से पहले राक्षस का मंच पर प्रवेश. नंदों के पराभव से मायूस,  अलंकरण-हीन,  चिंता व शोक से विह्वल. और मलयकेतु का आश्रय लेने के अपराध-बोध से ग्रस्त भी. राक्षस का स्वगत कथन--  

नेदं विस्मृतभक्तिना न विषयव्यासङ्गरूढात्मना 
प्राणप्रच्युतिभीरुणा च न मया नात्मप्रतिष्ठार्थिना।
अत्यर्थं परदास्यमेत्य निपुणं नीतौ मनो दीयते
देव: स्वर्गगतोपि शात्रववधेनाराधित: स्यादिति॥ 2:5॥

[नंद से इतर मलयकेतु की दासता स्वीकारकर जो मैं राजनीति में इतनी सावधानी से दत्तचित्त हुआ हूँ, वह इसलिए नहीं कि नंद के प्रति अपनी निष्ठा भूल गया, या मेरा मन भोग-विलास में आसक्त हो गया, या मुझमें मृत्यु का डर समा गया, या मुझे मान-सम्मान की लालसा है, बल्कि इसलिए कि स्वर्गवासी होने के बाद ही सही, हमारे स्वामी शत्रुओं के विनाश से संतुष्ट हों (अनायास नहीं कि चाणक्य उसके गुणों पर मुग्ध है)]

उसी समय मलयकेतु का कञ्चुकी (अंत:पुर का द्वारपाल) कुछ आभूषणों के साथ राक्षस से यह निवेदन करने आता है कि उसके (राक्षस के) बहुत दिनों से साज-शृंगार छोड़ देने के कारण कुमार मलयकेतु बहुत दुख़ी हैं;  इसलिए यदि वह इन्हें धारण कर ले तो कुमार का दु:ख दूर हो जाएगा। राक्षस पहले तो मना करता है, लेकिन फिर अपने वर्तमान आश्रयदाता और सहयोगी का मन रखने के लिए आभूषण धारण कर लेता है—नाटक की अंतर्ग्रंथित विडंबना में एक और गाँठ.      

गुप्तचर विराधगुप्त (जीर्णविष) का मंच पर प्रवेश. सूचित किए जाने पर भी राक्षस उसे पहचानता नहीं. उसकी स्मृति चाणक्य-जैसी कहाँ! अपनी वर्तमान मनस्थिति में यह कहकर टालना चाहता है कि उसे साँप देखने की उत्कंठा नहीं है, कुछ इनाम वगैरह देकर सँपेरे को विदा कर दिया जाए. विवश गुप्तचर प्राकृत भाषा का एक कूट पद लिखकर राक्षस के पास भेजता है—‘मधुमक्खी जब निपुणता से कुसुम (कुसुमपुर/ फूल) का रस चूसकर निकलती है तो वह दूसरों का हित ही करती है’. गनीमत है कि पत्र पढ़कर राक्षस को पद का निहितार्थ समझ में आ जाता है—भ्रमण करनेवाला गुप्तचर जब कुसुमपुर का सारा रहस्य समेटकर बाहर आया है तो वह स्वामी का हित ही करेगा. 

कुसुमपुर का रहस्य?  राक्षस-पक्ष के पराभव का एक के बाद एक चल रहा अनवरत सिलसिला. चंद्रगुप्त द्वारा कुसुमपुर की चारों ओर की गई घेराबंदी दीर्घ काल तक चलने से नागरिकों को होनेवाले नित नये कष्ट को सहन करने में असमर्थ धननंद का उत्तराधिकारी सर्वार्थसिद्धि सुरंग के रास्ते तपोवन निकल गया (बाद में पता लगने पर गुप्तचर द्वारा वहीं उसकी हत्या करा दी गई). स्वामी के अभाव में नंद-सेना ढीली पड़ गई. नगर में बहुत-से लोग चंद्रगुप्त की जय-जयकार करने लगे. नंद-राज्य वापस लेने के भावी अभियान में जब राक्षस भी सुरंग से बाहर निकल गया, उसके द्वारा नियुक्त विषकन्या ने (जीवसिद्धि के माध्यम से परिचालित चाणक्य के कुचक्र के चलते)  चंद्रगुप्त के बजाय पर्वतक की हत्या कर दी. पिता की इस हत्या से भयभीत मलयकेतु भाग खड़ा हुआ. पर्वतक की हत्या की ज़िम्मेदारी राक्षस के ऊपर डालकर उसकी जगह उसके भाई वैरोचक को आधा राज्य देने का भरोसा दिया गया. चाणक्य ने नगर के शिल्पियों को बुलाकर कहा कि ज्योतिषी के मतानुसार चंद्रगुप्त अर्द्धरात्रि में नन्दों के सुगांग महल में प्रवेश करेगा, तदनुरूप महल और उसके द्वार की सजावट की जाए. जब प्रधान शिल्पी दारुवर्मा ने बताया कि हम लोगों ने तो इसकी प्रत्याशा में पहले ही महल का प्रथम द्वार सुवर्णनिर्मित, मेहराबदार तोरण से सजा दिया है और केवल भीतर की सजावट बाक़ी है, तो चाणक्य संतुष्ट दिखता हुआ बोला कि शीघ्र ही उसे उसकी कुशलता के अनुरूप पुरस्कार मिलेगा. [दरअसल इसमें उसने राक्षस का षड्यंत्र ताड़ लिया और उसकी ऐसी काट सोच ली जिसमें षड्यंत्रकारी के लिए समुचित दंड (पुस्कार!) निहित हो]. फिर उसी रात राक्षस के भाई वैरोचक को चंद्रगुप्त के साथ एक ही आसन पर बिठाकर दोनों का राज्याभिषेक कर दिया गया.

इसके बाद जो हुआ, वह बेहद अहम, बेहद रोमांचक (और समझने में थोड़ा जटिल भी) है. वैरोचक के शरीर को स्वच्छ मोतियों से जड़े विविध रंगों के वस्त्रों से निर्मित (असली नहीं) कवच पहनाकर,  उसकी केशराशि को मणि-मुकुट से ठीक से ढककर, सुगंधित पुष्पमालाओं को तिरछा पहनाकर, जिससे उसकी छाती (चंद्रगुप्त की तरह) चौड़ी लगे, उसे चंद्रगुप्त की चंद्रलेखा नामक हथिनी पर बिठाकर, समारोह में आए राजाओं के जुलूस के आगे-आगे महल में प्रवेश कराया जाने लगा. फिर पीछे चलनेवाले राजाओं की सवारियाँ बाहर ही रुक गईं. यंत्रयुक्त तोरण के एक हिस्से को गिराकर चंद्रगुप्त की हत्या करने के लिए नियुक्त और ऊपर तोरण में ही छिपकर बैठा पूर्वोक्त प्रधान शिल्पी दारुवर्मा वैरोचक को ही चंद्रगुप्त समझकर तोरण गिराने के लिए सन्नद्ध हो गया. तभी राक्षस द्वारा नियुक्त हथिनी के महावत वर्वरक ने सोने की जंजीर से लटकते सोने के छोटे-से दंड को हाथ में उठाया कि उसके भीतर रखा अंकुश बाहर निकाले. होशियार हथिनी ने इसका आभास मिलते ही पुट्ठे पर लगने जा रहे आसन्न आघात की आशंका से पहले ही अपनी तेज़ चाल धीमी कर दी. उसकी पहले की चाल के हिसाब से सवार पर गिराया गया यंत्रयुक्त तोरण उससे आगे बैठे महावत पर गिर पड़ा जिससे वह बेचारा मारा गया. तब ऊपर बैठे दारुवर्मा ने यंत्र-युक्त तोरण गिराने का दोषी करार दिए जाने के डर से, यंत्र चलाने की लोहे की कील से ही हथिनी पर बैठे वैरोचक को (जिसे पहले ही उसने भूल से चंद्रगुप्त समझ लिया था) मार दिया. फिर तो वैरोचक के पीछे चलनेवाले जुलूस के लोगों ने ही दारुवर्मा को पत्थर मार-मारकर वहीं ख़त्म कर दिया.

राक्षस के पूछने पर गुप्तचर आगे बताता है कि उसके (राक्षस के) विश्वासपात्र वैद्य अभयदत्त ने चंद्रगुप्त के लिए जो योगचूर्ण-मिश्रित औषधि तैयार की थी, ‘दुष्ट’ चाणक्य ने निरीक्षण के लिए उसे सोने के पात्र में रखवाया तो उसका रंग बदल गया. इस तरह उसके विषाक्त मालूम होने पर चाणक्य ने चंद्रगुप्त को उसे पीने से मना कर दिया और वैद्य को ही पीने को बाध्य किया जिससे वह मृत्यु को प्राप्त हो गया. इसी तरह राक्षस द्वारा एक बड़ी धनराशि देकर पटाए गए शयनकक्ष के अधिकारी प्रमोदक के अनाप-शनाप ख़र्च के स्रोत के बारे में पूछे जाने पर भिन्न-भिन्न उत्तर देने से वह पकड़ा गया और मरवा दिया गया. यही नहीं, सोते हुए चंद्रगुप्त पर प्रहार के लिए शयन-कक्ष की दीवार के भीतर राक्षस द्वारा लगाये गये बीभत्सक आदि गुप्तचर भी चाणक्य की ‘कुटिल’ निगाह से नहीं बच पाए. कक्ष में प्रवेश से पूर्व ध्यान से निरीक्षण करने पर दीवार के एक छेद से पके चावल के टुकड़े लेकर निकलती चीटियाँ देखकर शयनकक्ष जलवा दिया गया और धुएँ से बंद हुई आँखों के कारण पहले से बना निकास-द्वार न खोज पाने से वे सब के सब वहीं नष्ट हो गए. फिर तो अत्यधिक सावधान हुए चाणक्य द्वारा राक्षस के सारे विश्वासपात्र लोग पकड़वा लिए गए और उनमें से बौद्ध भिक्षु जीवसिद्धि (जो चाणक्य का मोल है) को विषकन्या द्वारा पर्वतक को मरवाने के ‘आरोप' में तिरस्कार-पूर्वक नगर से निकाल दिया गया.

[राजतंत्र  में राजा के जीवन के लिए ख़तरा कितना व्यापक होता था, ख़ासकर नव-विजित राज्य में पुराने राजवंश के आश्रितों और निहित स्वार्थी तत्वों से घिरे होने पर यह कितना अकल्पनीय हो जाता था,  इसका इतना यथार्थ चित्रण कम ही मिलेगा. रजवाड़ों-बादशाहों और ताल्लुक़ेदारों तक का लिखित और श्रुत इतिहास ऐसे लोमहर्षक कृत्यों और प्रतिकार में उससे भी क्रूर कृत्यों से भरा हुआ है. इसी के चलते शासकों की व्यक्तिगत सुरक्षा का वह पुराना सरंजाम जनतंत्र में भी पीछा नहीं छोड़ रहा है.] 

फिर गुप्तचर विराधगुप्त ने राक्षस को बताया कि ऐसी घोषणा करके कि आपके मित्र और निजी सचिव शकटदास द्वारा ही ये दारुवर्मा वगैरह नियुक्त किए गए थे, उसे सूली पर चढ़ा दिया गया. [शकटदास को सूली पर चढ़ाए जाने से समय जो घटित हुआ (संदर्भ: प्रथक अंक), गुप्तचर उससे अनभिज्ञ है क्योंकि वह उसके पहले ही कुसुमपुर से रवाना हो गया था).

शकटदास की इस ख़बर से शोकाकुल राक्षस दिल कड़ाकर अपने दूसरे मित्र चन्दनदास के बारे में पूछता है. यह बताने के बाद कि अमात्य (राक्षस) का परिवार चंदनदास द्वारा किसी अज्ञात स्थान पर हटा दिया है  गुप्तचर आगे बताने लगता है कि जब चाणक्य द्वारा दबाव डाले जाने पर भी चंदनदास ने आपका परिवार समर्पित नहीं किया तो क्रुद्ध होकर उसने.....

राक्षस (घबराकर)-- ‘उसे मार तो नहीं डाला?’

‘नहीं, लेकिन सम्पत्ति ज़ब्त्कर उसे परिवार-सहित जेल में डाल दिया है.’

‘तो संतोष के साथ ऐसा क्यों कहा कि मेरा परिवार अज्ञात जगह हटा दिया गया, अरे ऐसा कहो, स्त्री-पुत्रों के साथ मैं बाँध दिया गया.’

[मित्र चंदनदास को राक्षस अपने से अभिन्न मानता है और उसके इस कथन में नाटक की इष्ट-पूर्ति का संकेत निहित है.] 

तभी सहायक प्रवेशकर सूचित करता है कि दरवाजे पर शकटदास उपस्थित है  (चूँकि अभी-अभी गुप्तचर ने उसे सूली पर चढ़ाए जाने की ख़बर दी थी, नाटक के मंचन में इस दृश्य-क्रम-जनित नाट्य-तत्व की सघनता का अंदाज़ लगाया जा सकता है).

राक्षस को पहले तो विश्वास नहीं होता, लेकिन गुप्तचर के यह कहने पर कि होनी कुछ भी कर सकती है, वह सेवक की ओर मुख़ातिब होता है--अब उसे अंदर लाने में विलम्ब क्यों कर रहे हो? पीछे-पीछे चलते सिद्धार्थक (चाणक्य का विश्वस्त गुप्तचर जिसने शकटदास का विश्वास जीत लिया है—संदर्भ: प्रथम अंक) के साथ शकटदास प्रवेश करता है. ‘चाणक्य के हाथ में जाकर भी तुम बच गए’— कहते हुए राक्षस उसे आलिंगन में लेता है तो भावावेग से देर तक उबर नहीं पाता.

राक्षस--मेरे हृदय के इस आनंद का कर्ता कौन है?’

‘इसी प्रिय मित्र सिद्धार्थक द्वारा जल्लादों को खदेड़कर, वध-स्थल से निकालकर मुझे भगा दिया गया’. 

राक्षस कञ्चुकी द्वारा लाए और अभी-अभी पहने आभूषणों को उतारकर सिद्धार्थक को पुरस्कार में दे देता है. सिद्धार्थक राक्षस के पैरों पर गिरकर, चाणक्य की बात का स्मरण करते हुए, आभूषणों को स्वीकार तो कर लेता है लेकिन इस स्थिति का, साथ लाई राक्षस की अंगूठी को, चाणक्य के निर्देश (‘समुझा-बुझाकर’ में निहित) के अनुसार,  प्रकट करने के लिए उपयोग करता है—‘अमात्य, इस नगर में पहली बार आया हूँ. यहाँ मेरा कोई परिचित नहीं, जिसके यहाँ अमात्य का यह कृपा-प्रसाद (आभूषण) रखकर निश्चिंत हो सकूँ. तो चाहता हूँ, आभूषणों की पेटी को इस अँगूठी से चिह्नितकर अमात्य के भंडार में ही रख दूँ, जब काम पड़ेगा, ले लूंगा.’

‘इसमें तो कोई हर्ज़ नहीं दिखता.’ [राक्षस राक्षस है, चाणक्य नहीं, जिसे शिल्पी दारुवर्मा की अतिरिक्त अनुकूलता से षड्यंत्र की बू आ गई थी.] 

तभी शकटदास अँगूठी में राक्षस का नामांकन देख लेता है और जनांतिक में--हाथ से आड़ करके (नाटक में मान लिया जाता है कि तीसरा पात्र नहीं सुन रहा) राक्षस को बताता है कि इसमें तो आपका नाम खुदा है. 

‘ओह तो वह अँगूठी है ! असल में कुसुमपुर से निकलते समय ब्राह्मणी ने विरह के कष्ट को तरल करने के लिए मुझसे ले लिया था. भद्र सिद्धार्थक, तुम्हें यह कहाँ मिली?’ 

[ब्राह्मण द्वारा अपनी पत्नी को ब्राह्मणी कहने का रिवाज अभी हाल तक चला आया था. मुद्राराक्षसम्‌ में संभवत: यही एक संवाद है जिसमें नंदों के अमात्य और प्रधान सेनापति राक्षस के ब्राह्मण होने का साक्ष्य मिलता है. जाति ब्राह्मण और नाम राक्षस—ज्योतिबा फुले की स्थापनाओं के सर्वथा विपरीत. चाणक्य और राक्षस दोनों ही ब्राह्मण के पारंपरिक कृत्यों से विरत हैं, न ही उनके वर्ण-व्यवस्था के पोषक होने का कोई और संकेत मिलता है. मौर्य काल में वर्ण-व्यवस्था व्यवहार में अपवाद-स्वरूप ही दिखती है. नंद और मौर्य दोनों में से कोई क्षत्रिय-वंश का नहीं है, अधिकांश प्रमाण उनके शूद्र-वंशीय होने के पक्ष में हैं. नाटक में कुसुमपुर (पाटलिपुत्र) के क्षत्रिय-गण का प्रधान विजयवर्मा अन्य गणों के प्रधान से कोई अधिक हैसियत नहीं रखता.]

‘कुसुमपुर में चंदनदास नाम के एक जौहरी सेठ हैं. उन्हीं के दरवाजे के पास पड़ी मिल गई थी’. 

शकटदास: मित्र सिद्धार्थक, यह अँगूठी अमात्य के नाम से अंकित है. इसके मूल्य से अधिक धन से अमात्य आपको संतुष्ट कर सकते हैं.

सिद्धार्थक तुरंत मान जाता है. लेकिन राक्षस अपनी यह मुद्रांकित अँगूठी स्वयं लेने के बजाए शकटदास को दे देता है, कि वह जहाँ ठीक समझे, राक्षस के अधिकार का प्रयोग करे. 

सिद्धार्थक अब चाणक्य की योजना की दूसरी सीढ़ी पर पाँव रखता है-- 

‘अमात्य तो जानते ही हैं कि दुष्ट चाणक्य का अहित करके पाटलिपुत्र में अब मैं दुबारा कदम नहीं रख सकता. तो मैं अमात्य के चरणों में रहकर ही सेवा करना चाहता हूँ.’

राक्षस: मैं भी यही चाहता था, लेकिन आपका मन जाने बिना कह नहीं सका.

राक्षस का गुप्तचर विराधगुप्त खड़ा-खड़ा सब देख रहा था. अब राक्षस का ध्यान उसकी ओर गया. राक्षस का अवसाद अब तक धुल चुका है तो वह अलग तरह का प्रश्न पूछता है—‘मित्र, वहाँ कुसुमपुर में और क्या ख़बर है? हमने वहाँ जो परस्पर फूट का बीज बोया है, उसका फलित क्या है?'

‘ख़बर यह है कि मलयकेतु के वहाँ से भागने के समय से चंद्रगुप्त चाणक्य से नाराज़ है. और विजय से फूला चाणक्य भी चंद्रगुत को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है. वह चंद्रगुप्त की अहम आज्ञाओं की अवहेलना कर रहा है, जो चंद्रगुप्त के लिए अत्यंत पीड़ादायी है.’

राक्षस ख़ुश होकर उसे दुबारा सँपेरे के वेश में कुसुमपुर भेजता है--

‘वहाँ जो वैतालिक (चारण) वेशधारी स्तनकलश नामका हमारा आदमी है उससे कहना कि वह चाणक्य द्वारा चंद्रगुप्त की आज्ञाओं के उल्लंघन के विषय में उत्तेजित करनेवाले श्लोकों द्वारा चंद्रगुप्त का स्तुतिगान करे और इसकी परिणति के बारे में गुप्त रूप से हमारे गुप्तचर करभक के माध्यम से मेरे पास सूचना भेजे.’

विराधगुप्त के निकल जाने पर सेवक सुंदर आभूषणों के तीन सेट लेकर आता है और कहता है कि शकटदास इन्हें ख़रीदना चाहते हैं, जिसके लिए अनुमति माँग रहे हैं. 

राक्षस उन्हें देखकर बहुमूल्य होने की पुष्टि करता है और विक्रेताओं को संतुष्ट करनेवाला मूल्य देकर खरीद लेने की अनुमति देता है.

[ये मृत पर्वतेश्वर के वही आभूषण हैं जिन्हें चंद्रगुप्त ने उसका श्राद्ध करके ‘सुपात्र’ ब्राह्मणों को दान दिया था. और ये ‘सुपात्र’ ब्राह्मण और कोई नहीं, चाणक्य के गुप्तचर हैं.]

तत्पश्चात्‌ राक्षस अपने गुप्तचर करभक को कुसुमपुर भेजने के लिए तत्पर होता है. उसका विचार है कि चंद्रगुप्त इस समय मगध का राज्य पाकर अन्य राजाओं को आदेश देने की स्थिति में होने से तेज में होगा  और  उधर चाणक्य यह सोचकर गर्वोन्नत होगा कि उसके सहारे ही चंद्रगुप्त शासक बना है. चूँकि अब चंद्रगुप्त के सहयोग से नंदों के विनाश की चाणक्य की प्रतिज्ञा पूरी हो गई है, ऐसे में वह चंद्रगुप्त के तेज को बर्दाश्त नहीं कर पायेगा और अवसर मिलते ही दोनों की मित्रता टूट जाएगी. राक्षस इसी अवसर का सृजन करने को उद्यत है. 

[चाणक्य को राक्षस की इस भेद-नीति का पूर्वाभास है, और उसे मुगालते में रखने के लिए स्वयं चंद्रगुप्त से सबके सामने चटका-चटकीवाले कलह की नीति अपना चुका है, जिसके नाटकीय क्रियान्वयन में कभी-कभी तो चंद्रगुप्त को संदेह हो जाएगा कि कहीं आर्य चाणक्य सचमुच तो नाराज़ नहीं हो गए.] 

इस तरह नाटक के केंद्रीय लक्ष्य की ओर एक निश्चित और दृढ़ कदम बढ़ाकर दूसरा अंक समाप्त होता है.
.....................
(क्रमश:)

कमलाकांत त्रिपाठी
Kamlakant Tripathi

विशाखदत्त का प्रयोगधर्मी नाटक मुद्राराक्षसम्‌ (2)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/09/2_27.html