Thursday 31 May 2018

चुनाव और निर्वाचन आयोग की साख - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह

राजनीति में उखाड़ पछाड़ चलता रहता है। यह सनातन है। उसी तरह से संसदीय लोकतंत्र में हार जीत होती रहती है। बिल्कुल एक बनारसी कहावत की तरह, कभी घनीघना, कभी मुट्ठी भर चना कभी वह भी मना। लेकिन संसदीय लोकतंत्र को पटरी पर बनाये रखने के लिये जिन संस्थाओं का गठन संविधान में किया गया है उनमें भारतीय निर्वाचन आयोग सबसे महत्वपूर्ण है। चुनाव, प्रतितिनिधित्व लोकतंत्र की जान होते हैं और निर्वाचन आयोग की यह जिम्मेदारी है कि वह नियम और कायदे से चुनाव सम्पन्न कराए। भारत के संविधान के अनुच्छेद 324 और रिप्रेजेंटेशन ऑफ पीपुल एक्ट 1951 के अंतर्गत यह संस्था विधायकों से ले कर राष्ट्रपति तक का चुनाव सम्पन्न करती है। यह चुनाव निष्पक्ष हों इस लिये मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्त को संवैधानिक संरक्षण मिला हुआ है। लेकिन हाल में आयोग के कुछ ऐसे निर्णय सामने आए जिससे इस संस्था की निष्पक्षता पर विवाद उठ खड़ा हुआ है।

निर्वाचन आयोग, टीएन शेषन के मुख्य निर्वाचन आयुक्त बनने के पूर्व खबरों में कम ही रहता था। चुनाव के दौरान भी अखबार मुख्य निर्वाचन आयुक्त का नाम ले कर कम ही चर्चा करते थे। विवाद और शिकायतें भी कम ही होती थीं। बूथ लूटने और बूथ छापने की घटनाएं, मूलतः शांति व्यवस्था से जुड़ी घटनाएं होतीं थीं तो उससे पुलिस और मैजिस्ट्रेट ही निपट लेते थे। चुनाव के दौरान कोई नीतिगत विवाद खड़ा भी कम ही होता था। इसका कारण यह भी था, चुनाव लड़ने वाली जमात में नैतिकता बोध शेष था और संचार के साधन केवल अखबार थे या राज्य नियंत्रित दूरदर्शन और आकाशवाणी तो विवाद अगर स्थानीय होता भी था तो वह देशव्यापी नहीं हो पाता था। प्रचार साधन के सीमित होने से वह अधिक फैल भी नहीं पाता था, और लोगों की स्मृति से उतर भी जाता था। लेकिन अब सोशल मीडिया और इस पर सक्रिय लोगों का  मित्र समूह भी देशव्यापी क्या विश्वव्यापी हो गया है। केरल के एक छोटे से बूथ की खबर मोबाइल पर लाइव तत्काल देखी जा सकती है और उस पर बहस हो सकती है। ऐसी स्थिति में चुनाव आयोग के समक्ष खुद को साफ सुथरा रखने और खुद को साफ सुथरा दिखाने की एक स्वाभाविक चुनौती आ खड़ी हुई है।

1991 के चुनाव का एक किस्सा है। चंद्रशेखर जी प्रधानमंत्री थे, और टीएन शेषन मुख्य निर्वाचन आयुक्त। 21 मई को चुनाव प्रचार के दौरान ही राजीव गांधी की हत्या हो गयी थी। हत्या की खबर मिलते ही शेषन ने चुनाव के तयशुदा कार्यक्रम में बदलाव कर चुनाव को 15 दिन के लिये असामान्य परिस्थितियों के कारण टाल दिया गया। जब इस कि खबर प्रधानमंत्री को हुयी तो उन्होंने कैबिनेट सचिव से इसके बारे में पूछताछ करने को कहा। प्रधानमंत्री सहित पूरी सरकार को भी यह खबर समाचार माध्यमों से मिली। यह शेषन का अपना निर्णय था। तब आयोग एकल होता था। कैबिनेट सचिव के पूछने पर शेषन ने उन्हें उनकी मर्यादा तो बताई ही साथ मे यह भी बता दिया कि,  चुनाव के तिथियों में फेरबदल करने का अधिकार आयोग है। चुनाव की अधिसूचना लागू होने के बाद अदालतें भी चुनाव प्रक्रिया में दखल नहीं दे सकतीं हैं। उस समय आयोग को असीमित शक्ति मिल जाती है।यह प्राविधान इसलिए किया गया है कि आयोग बिना दबाव और भय के सरकार के शिकंजे से मुक्त रह कर काम कर सके। लेकिन जब आयोग की क्षवि और कार्यप्रणाली पर विवाद उठता है तो संस्था की साख संकट में आती है।

हाल ही में चुनाव आयोग के कुछ फैसलों को ले कर विवाद हुआ है। उसमें सबसे पहला विवाद ईवीएम को ले कर हुआ है। मैं खुद चुनावी प्रक्रिया से जुड़ा रहा हूँ और ईवीएम तथा मतपत्र दोनों से ही चुनाव कराए हैं, लेकिन यह आज तक समझ नहीं पाया कि ईवीएम हैक कैसे हो सकती है। दिल्ली विधानसभा में विधायक सौरभ भारद्वाज ने ईवीएम हैक कर और उसे लाइव दिखा कर के सनसनी भी फैला दी थी, पर जब आयोग ने अपनी ही मशीनें हैक कर के दिखाने की चुनौती दी तो, कोई भी सामने नहीं आया। इस अविश्वसनीयता और विवाद से बचने के लिये ही वीवीपीटी मशीन जिसमे से डाले गए वोट की कागज़ी प्रति निकलती है को हर ईवीएम के साथ लगाए जाने का निर्देश सुप्रीम कोर्ट ने दिया है। ईवीएम मशीनें दुनिया भर के अनेक देशों से हटा ली गयीं है पर अभी भी हमारे यहां है। अब ईवीएम और वीवीपीएटी का मिलान कर के जोड़ने के बाद अगर कोई अंतर नहीं आता है तभी इन मशीनों पर कोई विवाद उठने की संभावना नहीं होगी। विवादों को नज़रअंदाज़ किया भी नहीं जाना चाहिए क्यों कि इससे न केवल संदेह पुख्ता होता है बल्कि साख पर संकट और गहराता भी है।

अभी कैराना में चुनाव के दिन ही भारी संख्या में मशीनें खराब हो गयी। कहा गया कि गर्मी से ये मशीनें खराब हो गईं हैं। गर्मी का असर हो सकता इन उपकरणों पर पड़ता हो, पर अगर ऐन चुनाव के दिन ही यह कहा जायेगा तो इसका मज़ाक़ उड़ेगा ही। आयोग को मशीन का स्पेशिफिकेशन जारी कर क्या सावधानी रखना है, यह बताना चाहिये। उसे यहां भी आगाह करना चाहियें था कि कितने तापक्रम पर मशीनें काम करना बंद कर सकती हैं। 20 सालों से ईवीएम से चुनाव हो रहे हैं, लेकिन आज तक गर्मी से मशीन हैंग कभी नहीं हुयी । यह भी पहली बार ही हुआ है कि गर्मी से ईवीएम कैराना में तो खराब हुई पर महाराष्ट्र जहां गर्मी कम नहीं पड़ती है, वहां से ईवीएम के गर्मी से खराब होने की खबर नहीं आयी। मशीनों का खराब हों जाना बिल्कुल अस्वाभाविक नहीं है पर खराबी के बारे में बिना सोचे समझे और जांचे, कारण बता देना उसे अस्वभाविक बना देता है। यह तो अच्छा हुआ कि आयोग ने तुरंत ही 73 मतदान केंद्रों पर पुनर्मतदान का निर्णय ले लिया।

आयोग की साख पर सबसे गहरा झटका मुख्य निर्वाचन आयुक्त, एके जोति के उस फैसले से लगा जो उन्होंने अपने अवकाश ग्रहण के दिन, बिना आरोपी को अपनी बात कहने का अवसर दिए, दिल्ली के कुछ विधायकों को, लाभ के पद में मानते हुए अयोग्य घोषित कर दिया। बाद में इसी झटके में राष्ट्रपति ने भी अधिसूचना भी जारी कर दी। पर एक बेहद ज़रूरी कानूनी नुक्ते कि, इस मामले में न्याय के प्राकृतिक सिद्धांत की अवहेलना की गयी है के आधार पर हाई कोर्ट ने उसे निरस्त कर दिया। इससे यह संदेश गया कि आयोग ने किसी के दबाव में यह फैसला लिया है। दबाव का प्रमाण हो या न हो पर अगर परिस्थितियों का गहन अध्ययन किया जाय तो संदेह स्वभावतः उठता है।

यही बात कैराना में प्रचार बन्द हो जाने के बाद प्रधानमंत्री जी के रोड शो पर भी उठाया जा सकता है। तकनीकी रूप से सड़क के लोकार्पण और रोड शो को अनुचित नहीं कहा जा सकता है और उस पर अंगुलियां भी नहीं उठती, अगर यही लोकसभा का उपचुनाव लगे हुए क्षेत्र के बजाय कहीं दूर का होता तो।

कर्नाटक के चुनाव की घोषणा चुनाव आयोग 11 बजे की प्रेस कॉन्फ्रेंस में करने वाला होता है तभी उस दिन सुबह 8 बजे बीजेपी आईटी सेल के प्रमुख, अमित मालवीय यह घोषित कर देते हैं कि 11 मई को चुनाव होंगे। उनके ट्वीट के तुरंत बाद ही टाइम्स नाउ यही खबर ट्वीट कर देता है। ज़्ब सोशल मीडिया पर हंगामा मचता है तो आयोग खिसोयाते हुए कहता है कि यह लीक कैसे हो गया, इसकी जांच कराई जाएगी। आज तक यह पता नहीं चला कि उस जांच में हुआ क्या है। अगर शेषन मुख्य निर्वाचन आयुक्त होते तो सरकार को गोपनीयता भंग करने के आरोप में अमित मालवीय की जांच कराते और वह यह भी हो सकता था कि तिथि ही रद्द कर दूसरी तिथि की घोषणा करते ताकि आयोग की साख बनी रहे।

कर्नाटक विधानसभा के चुनाव की मतगणना 15 को  होने वाली थी। भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदार बीएस येदुरप्पा यह घोषणा भी कर देते हैं कि वे 17 मई को शपथ लेंगे। और उन्होने 17 मई जो बिना बहुमत के ही सबसे बड़ी पार्टी के नेता की हैसियत से मुख्यमंत्री के पद की शपथ भी ले लिए। यह अलग बात है कि सर्वोच्च न्यायालय की दखल और कांग्रेस तथा जेडीएस की रणनीति के कारण बहुमत सिद्ध होने के पहले ही उन्होंने इस्तीफा दे दिया। येदुरप्पा ज्योतिष में विश्वास करते हैं और उन्होंने मुहूर्त देख कर यह घोषणा की थी हम 17 को ही शपथ लेंगे, अगर यह तर्क मान भी लिया जाय तो भी उनके इस सार्वजनिक घोषणा से शक आयोग की कार्यशैली पर ही गया।

गुजरात विधानसभा के चुनाव में प्रधानमंत्री द्वारा वोट डालने के बाद सड़क पर जनता से मिलते हुए घूमना जिसे विरोधी दलों ने रोड शो का नाम दिया था और आयोग से शिकायत की थी पर आयोग की चुप्पी खलने वाली थी। प्रथमतः तो प्रधानमंत्री जी को स्वयं यह आचरण नहीं करना चाहिए था, और अगर ऐसा हुआ भी तो आयोग को शिकायत के बाद नोटिस जारी करना चाहिये था।

मुख्य निर्वाचन आयुक्त एके जोति की नियुक्ति पर भी लोगों ने अंगुलियां उठायी। संविधान के अनुसार राष्ट्रपति इनकी नियुक्ति करते है। लेकिन राष्ट्रपति भी सरकार की सलाह से ही नियुक्ति करते हैं। यह कहना कि जोति इसलिये मुख्य निर्वाचन आयुक्त बनाये गए क्यों कि वे प्रधानमंत्री ने नज़दीक थे। गुजरात कैडर का होने के कारण भी उन्हें यह पद मिला था। अगर ऐसा हुआ भी है तो यह बिल्कुल भी अस्वाभाविक नहीं है। सरकार सभी संवैधानिक और मुख्य पदों पर अपने विश्वसनीय लोगों को नियुक्त करती ही है। टीएन शेषन भी कांग्रेस और राजीव गांधी की सरकार में कैबिनेट सचिव रह चुके थे और सरकार के नज़दीक भी थे। उनकी भी नियुक्ति सरकार ने अपना समझ कर ही किया होगा। लेकिन टीएन शेषन ने अपनी क्षवि एक कड़क, कानून से चलने वाले और एक निष्पक्ष प्रशासक की बनाई। उनके उत्तराधिकारी जेएम लिंगदोह भी अपनी कडक और निष्पक्ष क्षवि के लिये जाने गये। लेकिन एके जोति अपनी क्षवि और रुख निष्पक्ष नहीं रख पाए।

किसी भी संस्था की साख बनी रहे, यह दायित्व और कर्त्तव्य उस संस्था के प्रमुख का है। निर्वाचन आयोग सरकार का अंग नहीं है और न ही वह सरकार के आधीन है। सरकार चुनाव के लिये संसद से कानून पारित कर सकती है, आयोग के मानने पर सुरक्षा बल तथा अन्य अफसरों की फौज उतार सकती है, लेकिन जैसे ही चुनाव की तिथियों की घोषणा होती है, आयोग एक सुपर बॉस के रूप में आ जाता है। अगर आयुक्तों के मन में कोई राजनीतिक महत्वाकांक्षा या राज्यपाल या बड़े राष्ट्रों में राजदूत बनने की सुप्त आकांक्षा न हो, और उसकी कोई कमज़ोर नस सरकार के पास न दबी हो तो बिना दबाव के कार्य करने में आयुक्तों के समक्ष कोई बाधा नहीं है। संविधान के निर्माता, आयोग की कार्य प्रणाली के प्रति संवेदनशील थे इसी लिये इस संवैधानिक पद के लिये उन्होंने संवैधानिक संरक्षण की पर्याप्त व्यवस्था की है। पर इतने संरक्षण के बाद भी, अगर कोई अफसर डोल जाय तो, यह तो मेरुदंड की क्षीणता ही कही जाएगी।

आयोग को 2019 का आम चुनाव कराना है। यह चुनाव काफी गहमागहमी भरे भी होंगे। आयोग के हर कदम पर विरोधी दलों की नज़र रहेगी। साख टूटती तो है एक झटके से पर उसे बनाने में बहुत समय लगता है। आयोग को इस तरफ भी ध्यान देना होगा। उसे एक कुशल रेफरी की तरह जो भी फाउल खेले सीटी बजा देनी होगी और कार्ड दिखाना होगा। दर्शक दीर्घा में बैठे दर्शक जब मनोयोग से खेल में रमे रहते हैं तो, रेफरी की हर हरकत साफ नजर आती है। साख बचाना या न बचाना यह संस्थान का काम है। सरकारें तो आती जाती रहेंगी।

© विजय शंकर सिंह

Wednesday 30 May 2018

Ghalib - Qatraa apnaa bhii haqeeqat mein hai dariyaa / क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

ग़ालिब - 94.
क़तरा अपना भी हक़ीक़त में है दरिया, लेकिन
हमको तक़लीद ए तुनुक जफी ए मंज़ूर नहीं !!

Qatraa apnaa bhii haqeeqat mein hai dariyaa, lekin
Hamko taqleed e tunuk zafee e manzuur nahiin !!

सच तो यह है कि हमारी बूंद भी समुद्र ही है। लेकिन हमें मंसूर के ओछेपन की नकल करना पसंद नहीं है।
ग़ालिब के अनुसार उनकी बूंद भी एक प्रकार का सागर है। जो गुण और तत्व सागर में हैं वही गुण और तत्व उस बूंद में भी है जो ग़ालिब के भीतर। यह अद्वैत दर्शन के मूल यत जगते तत पिंडे के अनुसार है। ग़ालिब अपने क़तरे को दरिया से कम नहीं आंकते हैं।

ग़ालिब एक स्वाभिमानी व्यक्ति थे। मुसीबतों और मुफलिसी में भी उन्होंने अपने स्वाभिमान को नहीं छोड़ा। एक प्रसंग सुने । ग़ालिब की आर्थिक स्थिति जब बहुत खराब हो गयी तो, उनके दोस्त एक मुफ्ती साहब ने उनके लिये एक मदरसे में फारसी के उस्ताद के रूप में पढ़ाने के लिये व्यवस्था की। दिन और वक़्त तय हुआ। ग़ालिब साहब, उस्ताद के रूप में मदरसे में गये। पर जब वहां गये तो जिनका मदरसा था, वे न तो दरवाज़े पर ग़ालिब के लिये स्वागत में खड़े मिले और न ही मदरसे में थे। ग़ालिब उल्टे पांव लौट आये। मुफलिसी में भी उन्होंने एक अच्छी तनख्वाह केवल इस लिये ठुकरा दी कि, उनके आवभगत में मदरसे के मालिक ने कमी कर दी। बात आयी गयी हो गयी। बाद में कुछ दिनों के बाद मुफ्ती साहब मिले और उन्होंने कहा, 
" मिर्ज़ा नौशा, ( ग़ालिब का यह लोकप्रिय नाम था ) आप ने मदरसे की मुलाज़िमत ( नौकरी ) क्यों छोड़ दी ?
ग़ालिब ने कहा, 
" वे मदरसे में फारसी के उस्ताद ( अध्यापक ) के रूप में गये थे, न कि मुलाज़िम के रूप में। " 
मुफ़्ती ग़ालिब का मुंह देखते रह गए।

मंसूर अल हजाज़ ( 858 ई से 26 मार्च 922 ) को सूफीवाद के प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है। ग़ालिब इस शेर में इन्ही मंसूर का उल्लेख कर रहे हैं। मंसूर ने कहा था, अल अल हक़, मैं ही ईश्वर हूँ। यह बिल्कुल अहम ब्रह्मास्मि का अनुवाद लगता है। लेकिन खुद को ईश्वर घोषित करना मंसूर के लिये भारी पड़ गया। उन्हें 922 में अब्बासी खलीफा अल मुक्तदर के आदेश से सूली पर चढ़ा दिया गया। मंसूर पर खुद को खुदा कहने का जुर्म आयद हुआ और इस कुफ्र की उन्हें सजा मिली। मंसूर के इस वाक्य में छिपे दर्शन के तत्व को न खलीफा समझ सका न उसके कारिंदे न मौलाना। 

ग़ालिब, यहां मंसूर से थोड़ा मत वैभिन्यता रखते हैं। खुद को खुदा कहने की मंसूर की बात को वे ओछा मानते हैं। तभी वे कहते हैं कि वे अपने अस्तित्व ( बूंद ) को भी सागर मानते हैं। यद पिंडे तत जगते। कह ग़ालिब भी वही रहे हैं जो मंसूर ने कहा था। पर यह तो ग़ालिब के अंदाजे बयानी की खूबसूरती है।
इसी दर्शन पर कबीर को पढिये,
जल में कुंभ कुंभ में जल है, बाहरि भीतरि पानी,
फूटहि कुंभ, जल जलहि समाना, यह तत कथौ ज्ञानी !!
( कबीर )

© विजय शंकर सिंह

Tuesday 29 May 2018

एक कविता - ठूंठ / विजय शंकर सिंह

मेरे घर की खिड़की के पार
एक ठूंठ था,
कल अचानक खोखला हो,
ढह गया,।

खिड़की के पल्ले
जब जड़े जा रहे थे फ्रेम में,
बीसेक साल पहले का किस्सा है,
वह ठूंठ तब परिंदों के डेरे लिए,
मौसमों की रंगत बदलता था ।

वक़्त का सितम कहूँ,
या बेरुखी उसकी,
पत्तियां झड़ी, और नंगी शाखें,
वक़्त के साथ साथ दम तोड़ने लगी,
परिंदों ने ठिकाना बदला,
और मौसम ने रंग,
खोखलापन पेड़ के अंदर
धीरे धीरे बसने लगा ।

ऐसे ही एक दिन,
रात जब बादलों से घिरी थी,
काले , भूरे बादल,
मायावी असुर से ,
ढँकते तोपते धरती को,
बढ़े आ रहे थे,
पीछे पीछे, तूफान लिये।

तेज हवा ने उखाड़ दिये पाँव,
उस खूबसूरत अतीत समेटे ,
दरख़्त के ।

एक चीख सुनी थी मैंने,
खिड़की खोली तो,
ढहा हुआ पेड़,
पसरा था ज़मीन पर,
इतिहास पसरता है ,
कभी कभी, जैसे,
वक़्त के साथ साथ ,
एक हारी हुयी और तयशुदा जंग
लड़ते लड़ते !!

© विजय शंकर सिंह

Monday 28 May 2018

Ghalib - Qataa kiije na ta'alluk hamse / कता कीजे न त'अल्लुक हमसे - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह


ग़ालिब - 93.
क़तअ कीजे न तअल्लुक हमसे,
कुछ नहीं है तो, अदावत ही सही !!

Qata'a kiije na ta'alluk hamse,
Kuchh nahiin hai to, adaawat hii sahii !!
- Ghalib

आप हमसे अपना संबंध विच्छेद न कीजिये। अगर कोई संबंध नहीं रखना चाहते तो, अदावत , शत्रुता का ही संबंध रख लें। पर संबंध बिल्कुल भी नहीं खत्म कीजिये।

यह एक कूटनीतिक शब्दावली है। प्रेयसी प्रेम न करे तो न सही पर शत्रुता ही करे। प्रेम से याद न करे तो न सही शत्रुता के ही कारण याद कर ले। पर ग़ालिब संबंध के खात्मे के विरुद्ध है। यहां एक उम्मीद भी है कि अगर प्रेम नहीं शत्रुता या नाराज़गी भी है और सम्बंध बना है तो यह शत्रुता फिर प्रेम में बदल जाएगी। लेकिन अगर ताल्लुकात टूट गया तो सारी सम्भावनाएं ही समाप्त हो जाएंगी।

राजनीति में एक चर्चित उद्धरण है। मुझे यह ज्ञात नहीं कि किसका है। यह उद्धरण यह है कि, 
यदि राजनीति में सफल होना है तो, लोग आप को या तो बेहद प्यार करें या फिर बेहद घृणा करें। पर वे भुला न दें। नज़रअंदाज़ न करें। 
यही अंदाज़ ग़ालिब का इस शेर में भी है। बस यहां राजनीति के स्थान पर प्रेम रख कर पढ़ लें।

© विजय शंकर सिंह

विनायक दामोदर सावरकर और द्विराष्ट्रवाद - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

आज वीडी सावरकर का जन्मदिन है। 28 मई 1883 को उनका जन्म भागुर, नासिक मे हुआ था। उन्हें वीर सावरकर के नाम से पुकारा जाता है। भारतीय स्वाधीनता संग्राम जिसका प्रारम्भ 1857 से माना जाय जैसा सावरकर ने माना है, तो, 1947 तक, इसके नब्बे साल के इतिहास में भारत के किसी भी स्वाधीनता संग्राम सेनानी को वीर नहीं कहा गया ।, यह विशेषण सावरकर को ही क्यों मिला, कब मिला, किसने इस विशेषण से उन्हें विभूषित किया यह मुझे पता नहीं है। अपने नेताओं का हम जब मूल्यांकन करने बैठते हैं तो हमारी परम्परा का अवतारवाद हम पर हावी हो जाता है। हम उसके अच्छे पहलू को तो लपक कर ग्रहण करते हैं, पर बुरे पहलू को या तो नज़रअंदाज़ कर देते हैं या अनावश्यक तर्क से उसका बचाव करने लगते हैं। हम यह भूल जाते हैं या जान बूझ कर हम उनकी कमियों का औचित्य ढूंढने लगते है। हर व्यक्ति मूलतः मनुष्य ही है। उसके जीवन मे भी भूलें होती ही हैं। कभी कभी जीवन मे ऐसे मोड़ अचानक आ जाते हैं कि वह आदमी पूर्व के बिल्कुल विपरीत दिखने लगता है। ऐसे में उसका मूल्यांकन उसके द्वारा किये कृत्यों और उन कृत्यों को भी परिस्थितियों के आधार पर ही देखा जाना चाहिये।

सावरकर का मूल्यांकन करने के पूर्व इनके जीवन को दो भागों में बांट कर देखा जाना चाहिए। एक जन्म से अंडमान तक, दूसरे अंडमान से इनकी मृत्यु तक। सावरकर ने ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ तब संघर्ष छेड़ा जब गांधी भारत आ भी नहीं पाए थे। सावरकर 1910 में इंडिया हाउस के क्रांतिकारी गतिविधियों के सम्बंध में गिरफ्तार और आजीवन कारावास के दंड से दंडित हो 1911 में अंडमान की जेल में सज़ा काटने के लिये भेजे जा चुके थे। अंडमान कोई साधारण कारागार नहीं था। वह नाज़ी जर्मनी के कंसन्ट्रेशन कैम्प और साइबेरिया के ठंडे रेगिस्तान के यातनापूर्ण शिविरों जैसा तो नहीं था, पर यातनाएं वहां भी खूब दी जाती हैं। सावरकर यातना सह नहीं पाए, वह टूट गए और उन्होंने 6 माफीनामें भेजे। एक माफीनामा जो प्रख्यात इतिहासकार डॉ आरसी मजूमदार द्वारा लिखी गयी इतिहास की पुस्तक से है मैं उसे उद्धृत कर रहा हूँ।
आप उसे पढ़ें ।
O
सेवा में,
गृह सदस्य,
भारत सरकार

मैं आपके सामने दयापूर्वक विचार के लिए निम्नलिखित बिंदु प्रस्तुत करने की याचना करता हूं:

(1) 1911 के जून में जब मैं यहां आया, मुझे अपनी पार्टी के दूसरे दोषियों के साथ चीफ कमिश्नर के ऑफिस ले जाया गया. वहां मुझे ‘डी’ यानी डेंजरस (ख़तरनाक) श्रेणी के क़ैदी के तौर पर वर्गीकृत किया गया; बाक़ी दोषियों को ‘डी’ श्रेणी में नहीं रखा गया. उसके बाद मुझे पूरे छह महीने एकांत कारावास में रखा गया. दूसरे क़ैदियों के साथ ऐसा नहीं किया गया. उस दौरान मुझे नारियल की धुनाई के काम में लगाया गया, जबकि मेरे हाथों से ख़ून बह रहा था. उसके बाद मुझे तेल पेरने की चक्की पर लगाया गया जो कि जेल में कराया जाने वाला सबसे कठिन काम है. हालांकि, इस दौरान मेरा आचरण असाधारण रूप से अच्छा रहा, लेकिन फिर भी छह महीने के बाद मुझे जेल से रिहा नहीं किया गया, जबकि मेरे साथ आये दूसरे दोषियों को रिहा कर दिया गया. उस समय से अब तक मैंने अपना व्यवहार जितना संभव हो सकता है, अच्छा बनाए रखने की कोशिश की है.

(2) जब मैंने तरक्की के लिए याचिका लगाई, तब मुझे कहा गया कि मैं विशेष श्रेणी का क़ैदी हूं और इसलिए मुझे तरक्की नहीं दी जा सकती. जब हम में से किसी ने अच्छे भोजन या विशेष व्यवहार की मांग की, तब हमें कहा गया कि ‘तुम सिर्फ़ साधारण क़ैदी हो, इसलिए तुम्हें वही भोजन खाना होगा, जो दूसरे क़ैदी खाते हैं.’ इस तरह श्रीमान आप देख सकते हैं कि हमें विशेष कष्ट देने के लिए हमें विशेष श्रेणी के क़ैदी की श्रेणी में रखा गया है.

(3) जब मेरे मुक़दमे के अधिकतर लोगों को जेल से रिहा कर दिया गया, तब मैंने भी रिहाई की दरख़्वास्त की. हालांकि, मुझ पर अधिक से अधिक तो या तीन बार मुक़दमा चला है, फिर भी मुझे रिहा नहीं किया गया, जबकि जिन्हें रिहा किया गया, उन पर तो दर्जन से भी ज़्यादा बार मुक़दमा चला है. मुझे उनके साथ इसलिए नहीं रिहा गया क्योंकि मेरा मुक़दमा उनके साथ चल रहा था. लेकिन जब आख़िरकार मेरी रिहाई का आदेश आया, तब संयोग से कुछ राजनीतिक क़ैदियों को जेल में लाया गया, और मुझे उनके साथ बंद कर दिया गया, क्योंकि मेरा मुक़दमा उनके साथ चल रहा था.

(4) अगर मैं भारतीय जेल में रहता, तो इस समय तक मुझे काफ़ी राहत मिल गई होती. मैं अपने घर ज़्यादा पत्र भेज पाता; लोग मुझसे मिलने आते. अगर मैं साधारण और सरल क़ैदी होता, तो इस समय तक मैं इस जेल से रिहा कर दिया गया होता और मैं टिकट-लीव की उम्मीद कर रहा होता. लेकिन, वर्तमान समय में मुझे न तो भारतीय जेलों की कोई सुविधा मिल रही है, न ही इस बंदी बस्ती के नियम मुझ पर पर लागू हो रहे हैं. जबकि मुझे दोनों की असुविधाओं का सामना करना पड़ रहा है.

(5) इसलिए हुजूर, क्या मुझे भारतीय जेल में भेजकर या मुझे दूसरे क़ैदियों की तरह साधारण क़ैदी घोषित करके, इस विषम परिस्थिति से बाहर निकालने की कृपा करेंगे? मैं किसी तरजीही व्यवहार की मांग नहीं कर रहा हूं, जबकि मैं मानता हूं कि एक राजनीतिक बंदी होने के नाते मैं किसी भी स्वतंत्र देश के सभ्य प्रशासन से ऐसी आशा रख सकता था. मैं तो बस ऐसी रियायतों और इनायतों की मांग कर रहा हूं, जिसके हक़दार सबसे वंचित दोषी और आदतन अपराधी भी माने जाते हैं. मुझे स्थायी तौर पर जेल में बंद रखने की वर्तमान योजना को देखते हुए मैं जीवन और आशा बचाए रखने को लेकर पूरी तरह से नाउम्मीद होता जा रहा हूं. मियादी क़ैदियों की स्थिति अलग है. लेकिन श्रीमान मेरी आंखों के सामने 50 वर्ष नाच रहे हैं. मैं इतने लंबे समय को बंद कारावास में गुजारने के लिए नैतिक ऊर्जा कहां से जमा करूं, जबकि मैं उन रियायतों से भी वंचित हूं, जिसकी उम्मीद सबसे हिंसक क़ैदी भी अपने जीवन को सुगम बनाने के लिए कर सकता है? या तो मुझे भारतीय जेल में भेज दिया जाए, क्योंकि मैं वहां (ए) सज़ा में छूट हासिल कर सकता हूं; (बी) वहां मैं हर चार महीने पर अपने लोगों से मिल सकूंगा. जो लोग दुर्भाग्य से जेल में हैं, वे ही यह जानते हैं कि अपने सगे-संबंधियों और नज़दीकी लोगों से जब-तब मिलना कितना बड़ा सुख है! (सी) सबसे बढ़कर मेरे पास भले क़ानूनी नहीं, मगर 14 वर्षों के बाद रिहाई का नैतिक अधिकार तो होगा. या अगर मुझे भारत नहीं भेजा सकता है, तो कम से कम मुझे किसी अन्य क़ैदी की तरह जेल के बाहर आशा के साथ निकलने की इजाज़त दी जाए, 5 वर्ष के बाद मुलाक़ातों की इजाज़त दी जाए, मुझे टिकट लीव दी जाए, ताकि मैं अपने परिवार को यहां बुला सकूं. अगर मुझे ये रियायतें दी जाती हैं, तब मुझे सिर्फ़ एक बात की शिकायत रहेगी कि मुझे सिर्फ़ मेरी ग़लती का दोषी मान जाए, न कि दूसरों की ग़लती का. यह एक दयनीय स्थिति है कि मुझे इन सारी चीज़ों के लिए याचना करनी पड़ रही है, जो सभी इनसान का मौलिक अधिकार है! ऐसे समय में जब एक तरफ यहां क़रीब 20 राजनीतिक बंदी हैं, जो जवान, सक्रिय और बेचैन हैं, तो दूसरी तरफ बंदी बस्ती के नियम-क़ानून हैं, जो विचार और अभिव्यक्ति की आज़ादी को न्यूनतम संभव स्तर तक महदूर करने वाले हैं; यह अवश्यंवभावी है कि इनमें से कोई, जब-तब किसी न किसी क़ानून को तोड़ता हुआ पाया जाए. अगर ऐसे सारे कृत्यों के लिए सारे दोषियों को ज़िम्मेदार ठहराया जाए, तो बाहर निकलने की कोई भी उम्मीद मुझे नज़र नहीं आती.

अंत में, हुजूर, मैं आपको फिर से याद दिलाना चाहता हूं कि आप दयालुता दिखाते हुए सज़ा माफ़ी की मेरी 1911 में भेजी गयी याचिका पर पुनर्विचार करें और इसे भारत सरकार को फॉरवर्ड करने की अनुशंसा करें.

भारतीय राजनीति के ताज़ा घटनाक्रमों और सबको साथ लेकर चलने की सरकार की नीतियों ने संविधानवादी रास्ते को एक बार फिर खोल दिया है. अब भारत और मानवता की भलाई चाहने वाला कोई भी व्यक्ति, अंधा होकर उन कांटों से भरी राहों पर नहीं चलेगा, जैसा कि 1906-07 की नाउम्मीदी और उत्तेजना से भरे वातावरण ने हमें शांति और तरक्की के रास्ते से भटका दिया था.

इसलिए अगर सरकार अपनी असीम भलमनसाहत और दयालुता में मुझे रिहा करती है, मैं आपको यक़ीन दिलाता हूं कि मैं संविधानवादी विकास का सबसे कट्टर समर्थक रहूंगा और अंग्रेज़ी सरकार के प्रति वफ़ादार रहूंगा, जो कि विकास की सबसे पहली शर्त है.

जब तक हम जेल में हैं, तब तक महामहिम के सैकड़ों-हजारें वफ़ादार प्रजा के घरों में असली हर्ष और सुख नहीं आ सकता, क्योंकि ख़ून के रिश्ते से बड़ा कोई रिश्ता नहीं होता. अगर हमें रिहा कर दिया जाता है, तो लोग ख़ुशी और कृतज्ञता के साथ सरकार के पक्ष में, जो सज़ा देने और बदला लेने से ज़्यादा माफ़ करना और सुधारना जानती है, नारे लगाएंगे.

इससे भी बढ़कर संविधानवादी रास्ते में मेरा धर्म-परिवर्तन भारत और भारत से बाहर रह रहे उन सभी भटके हुए नौजवानों को सही रास्ते पर लाएगा, जो कभी मुझे अपने पथ-प्रदर्शक के तौर पर देखते थे. मैं भारत सरकार जैसा चाहे, उस रूप में सेवा करने के लिए तैयार हूं, क्योंकि जैसे मेरा यह रूपांतरण अंतरात्मा की पुकार है, उसी तरह से मेरा भविष्य का व्यवहार भी होगा. मुझे जेल में रखने से आपको होने वाला फ़ायदा मुझे जेल से रिहा करने से होने वाले होने वाले फ़ायदे की तुलना में कुछ भी नहीं है.

जो ताक़तवर है, वही दयालु हो सकता है और एक होनहार पुत्र सरकार के दरवाज़े के अलावा और कहां लौट सकता है. आशा है, हुजूर मेरी याचनाओं पर दयालुता से विचार करेंगे.

वीडी सावरकर
(स्रोत: आरसी मजूमदार, पीनल सेटलमेंट्स इन द अंडमान्स, प्रकाशन विभाग, 1975)
यह याचिका 1913 में सावरकर द्वारा ब्रिटिश सरकार को भेजी गयी थी। सावरकर इन्ही माफीनामे पर 1921 में जेल से रिहा किये गए थे।
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सावरकर, टूटे क्यों ? ब्रिटिश राज की निर्दयतापूर्वक की जा रही यातनाओं से पीड़ित हो कर ? या कोई राजनीतिक लाभ की उम्मीद से ? जो भी कारण हो, पर सावरकर के दिल मे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रति विरोध का जो भाव था वह बदल गया था। 1921 में जेल से छूटने के बाद वे आज़ादी के संघर्ष से अलग हट गए और लंबे समय तक शांत रहने के बाद वे 1937 ई में हिन्दू महासभा के अध्यक्ष बने । 1935 से 1939 तक का काल राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में, बेहद तेज़ घटनाओं से भरा रहा है। कांग्रेस की सरकारों ने 1939 के विश्वयुद्ध के बाद विरोध स्वरूप त्यागपत्र दे दिया था। अंग्रेज़ों को भारतीय जनता का साथ चाहिए था, तो कांग्रेस के हट जाने से जो शून्य बना, उसे जिन्ना के मुस्लिम लीग और सावरकर की हिन्दू महासभा ने भर दिया। ये दोनों ही अंग्रेज़ो के साथ आ गए थे। सावरकर, 1937 से 1943 तक हिन्दू महासभा के अध्यक्ष थे । 1937 में अध्यक्ष बनते ही सावरकर ने यह विचार उछाल दिया कि हिन्दू एक राष्ट्र है और हिन्दू महासभा हिन्दू राष्ट्र के लिये प्रतिबद्ध है। उधर पाकिस्तान की मांग भी उठी। धर्म ही राष्ट्र है के एक नए सिद्धांत का जन्म हुआ जिसके प्रतिपादक सावरकर भी बने। जिन्ना से सावरकर का कोई विरोध नहीं था। जिन्ना के बारे में जो विचार सावरकर का था, वह 1937 के ऐसेंशियल्स ऑफ हिंदुत्व के प्रस्ताव में मिलता है।

ऐसेंशियल्स ऑफ हिंदुत्व 1937 के हिन्दू महासभा के सम्मेलन, जिसमे सावरकर अध्यक्ष बने थे में द्विराष्ट्रवाद का  सिद्धांत प्रतिपादित किया गया है। इसके तीन साल बाद 1940 में, मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में एमए जिन्ना ने धर्म के नाम पर मुसलमानों के लिये एक नए राष्ट्र की मांग कर के बंटवारे का संकेत दे दिया । यह भारतीय इतिहास का पहला अधिकृत धार्मिक ध्रुवीकरण था। हिन्दू राष्ट्र की अवधारणा, सावरकर की थी, और पाकिस्तान की, जिन्ना की और विडंबना यह देखिये ब्रिटिश सरकार के दोनों हीनेता विश्वासपात्र थे और आज़ादी की लड़ाई से तब न जिन्ना का सरोकार था, न सावरकर का। जिन्ना के बारे में सावरकर क्या कहते हैं, अब इसे पढिये,

" I have no quarrel with Mr Nonna's two nation theory. We Hindus are a nation by ourselves and it is a historical fact that Hindus and Muslims are two nation's. "

( मेरा मिस्टर जिन्ना से कोई झगड़ा नहीं है। हम हिन्दू अपने आप मे ही स्वतः एक राष्ट्र हैं और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि हिन्दू और मुसलमान दोनों ही दो राष्ट्र हैं। )

जिन्ना की जिन कारणों से निंदा और आलोचना की जाती है, उन्ही कारणों के होते हुये, सावरकर कैसे एक माहनायक और वीर कहे जा सकते हैं ? यह सवाल मन मे उठे तो उत्तर खुद ही ढूंढियेगा। पर एक इतिहास के विद्यार्थी के रूप में ।

1944 - 45 के बाद जब कांग्रेस के बड़े नेता जेलों से छोड़ दिये गये, तो अंग्रेज़ों ने आज़ादी के बारे में सारी औपचारिक बातचीत कांग्रेस से करनी शुरू कर दी, और तब यह त्रिपक्षीय वार्ता का क्रम बना ।  अंग्रेज़, कांग्रेस और मुस्लिम लीग। सावरकर यह चाहते थे कि बात अंग्रेज़ों, मुस्लिम लीग और, कांग्रेस के बजाय हिन्दू महासभा से हो। पर गांधी और कांग्रेस का भारतीय जनता पर जो जादुई प्रभाव था, उसकी तुलना में सावरकर कहीं ठहरते भी नहीं थे। गांधी, से सावरकर की नाराजगी का यही कारण था, जो बाद में उनकी हत्या का भी  कारण बना। जिन्ना तो कटा फटा ' कीड़ों द्वारा खाया पाकिस्तान ' ( जिन्ना ने खुद ही पाकिस्तान की सरहदबन्दी के बाद खीज करपा गये पर सावरकर विफल रहे । गांधी और कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्ष भारत चाहा और उसके लिये वे शहीद भी हो गए। यह भी एक विडंबना है कि पूर्णतः आस्थावान और धार्मिक गांधी धर्म निरपेक्ष भारत चाहते हैं और जिन्ना जो किसी भी दृष्टिकोण से अपने मजहब के पाबंद नहीं थे, वे एक धर्म आधारित थियोक्रेटिक राज्य के पक्षधर थे । ऐसे ही अनसुलझे और विचित्र संयोगों को नियति कहा जा सकता है।

30 जनवरी 1948 को गांधी जी की हत्या नाथूराम गोडसे ने की। गोडसे पहले आरएसएस में था, फिर हिन्दू महासभा में गया। गांधी जी की हत्या पर सबसे प्रमाणित पुस्तक तुषार गांधी की है, Let Us Kill Gandhi, लेट अस किल गांधी। 1000 पृष्टों की यह महाकाय पुस्तक ह्त्या के षडयंत्रो, हत्या, मुक़दमे की विवेचना और इसके ट्रायल के बारे में दस्तावेजों सहित सभी विन्दुओं पर विचार करती है।सावरकर भी षडयंत्र में फंसे थे। पर अदालत से वह बरी हो गयी। हिन्दू राष्ट्र की मांग को, कोई व्यापक समर्थन, न तो आज़ादी के पहले मिला और न बाद में। सावरकर धीरे धीरे नेपथ्य में चलते गये और 26 फरवरी, 1966 में अन्न जल त्याग कर उन्होंने संथारा कर प्राण त्याग दिया।

लेकिन, सावरकर पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 1857 के विप्लव को एक अलग दृष्टिकोण से देखा। अंग्रेज़ उस विप्लव को sepoy mutiny, सिपाही विद्रोह कहते थे, पर सावरकर ने प्रथम स्वाधीनता संग्राम कह कर देश के स्वाधीन होने की दबी हुई इच्छा को स्वर दे दिया। 1911 में गिरफ्तार जेल जाने के पूर्व आज़ादी के लिये वह पूर्णतः समर्पित थे। पर 1911 से 21 तक के बदलाव ने उनकी दिशा और दशा दोनों ही बदल दी। आज 28 मई को उनका जन्मदिन है। उनसे जो बन पड़ा उन्होंने देश के लिये किया। इतिहास निर्मम होता है। वह सब कुछ दिखाता है, बशर्ते हम देखना चाहें।

© विजय शंकर सिंह