Wednesday 28 June 2017

जम्मू कश्मीर , भारत का एक राज्य है, Indian Administerd भूभाग नहीं / विजय शंकर सिंह

जम्मू और कश्मीर को अमेरिकी दस्तावेज़ में Indian Administered Jammu and Kashmir कहना अनुचित है और सरकार को इस वाक्य को सुधार कर Indian Administered अंश हटाने के लिए प्रयास करना चाहिए । हाल ही में मोदी ट्रम्प वार्ता की दो बड़ी उपलब्धियाँ बतायी जा रही हैं । एक भारत और अमेरिका में आतंकवाद जिसे ट्रम्प ने इस्लामिक आतंकवाद कहा , से मुकाबले के लिये एक जुट रहना, और दूसरे ड्रोन का खरीदना ।
ड्रोन के बेचने में अमेरिका की भी रूचि थी । यह एक व्यापार है । हमें ज़रूरत थी, उसे बेचना था , हमने पैसा दिया और ड्रोन खरीद लिया । अमेरिका से सारे  दुनिया भर के मुल्क हथियार खरीदते रहते हैं । हम भी वक़्त ज़रूरत खरीदते रहते हैं । हमारे पड़ोसी भी कुछ ऐसे हैं कि हथियार खरीदना हमारी ज़रूरत कम और मज़बूरी अधिक होती है ।

आतंकवाद पर अमेरिका का साथ एक उपलब्धि है । हालांकि यह इस्लामिक आतंकवाद अमेरिका द्वारा पोषित और पालित है । चाहे तालिबान हो, या आईएसआईएस यह सभी कभी न कभी अमेरिका द्वारा पाले पोसे गए हैं । जम्मू कश्मीर का ही रहने वाला हिज्ब उल मुजाहिदीन आतंकी गुट के सरगना सलाहुद्दीन को अमेरिका ने ग्लोबल टेररिस्ट घोषित किया है । वह ऐसा है भी । आतंकी घोषित करने से उसके संगठन को आर्थिक मदद नहीं मिल पाएगी और वह खुले आम अपनी गतिविधियाँ नहीं चला पायेगा । उस पर कुछ न कुछ नियंत्रण रहेगा । हालांकि ऐसे आतंकी संगठन नाम बदल कर किसी न किसी एनजीओ के अंतर्गत धन आदि की व्यवस्था करते रहते हैं । वह धन आतंक फ़ैलाने के काम में आता है । हाफ़िज़ सईद का लश्कर ए तोइबा जब प्रतिबंधित हुआ था तो उसने जमात उद दावा के नाम से एक नया संगठन खड़ा कर लिया और उसी के माध्यम से वह अपनी आतंकी गतिविधियाँ चलाने लगा । असल बात है इन संगठनों पर पाकिस्तान कितनी गंभीरता से प्रतिबन्ध लगाता है । पाक सेना और आईएसआई इन सारे आतंकी समूहों की ट्रेनर है और घुसपैठ तथा आतंकी गतिविधियों के लिए रणनीतिक और लॉजिस्टिक सुविधा देती है , उसका क्या रुख इन संघटनों के बारे में रहेगा ? अमेरिका ने क्या पाकिस्तान को भी इन पर प्रतिबंध लगाने और प्रतिबंध न लगाने की दशा में पाक को अमेरिकी मदद न देने क बात भी कही है या नहीं , यह ज्ञात नहीं है । जब तक अमेरिका पाकिस्तान पर कड़ाई से इन आतंकी संगठनों पर रोक के लिये दबाव और आर्थिक मदद नहीं रोकेगा तब तक ऐसी घोषणाओं का कोई विशेष लाभ नहीं होगा । हाँ यह मनोवैज्ञानिक दबाव ज़रूर डालेगा ।

अब ज़रा यह अमेरिकी सरकार का बयान पढ़ें -
The statement describing Salahuddin’s terror activities over the years reads, “Mohammad Yusuf Shah, AKA Syed Salahuddin, is the senior leader of the militant group Hizbul Mujahideen (HM). In September 2016, Salahuddin vowed to block any peaceful resolution to the Kashmir conflict, threatened to train more Kashmiri suicide bombers, and vowed to turn the Kashmir valley ‘into a graveyard for Indian forces.’ Under Salahuddin’s tenure as senior HM leader, HM has claimed responsibility for several attacks, including the April 2014 explosives attack in Indian-administered Jammu and Kashmir, which injured 17 people.”

इस बयान में एक भूल है जो या तो जान बूझ कर हो गयी है या लापरवाही के कारण है । इस बयान में जम्मू कश्मीर को indian administered कहा गया है । यह वाक्य हमारे मूल स्टैंड कि जम्मू कश्मीर , जिसमे पाक अधिकृत भूभाग POK भी है हमारा अभिन्न अंग है , से अलग है । हमारा मूल उद्देश्य भी POK से पाकिस्तान को हटाना ही है । इस गलती का परिष्कार आवश्यक है । कूटनीतिक दस्तावेज़ यूँही नहीं ड्राफ्ट किये जाते हैं । एक एक शब्द पर मंथन होता है और विभिन्न पर्यायवाचियों में से वही शब्द चुने जाते हैं जो सरकार का इरादा और दस्तावेज़ का उद्देश्य प्रतिविम्बित करते हैं । कई स्तरों पर इन ड्राफ्टों का परीक्षण होता है , तब ये जारी किये जाते हैं । यह वाक्य आपत्तिजनक है और इसे हटा कर केवल जम्मू कश्मीर ही लिखा जाना चाहिए ।

( विजय शंकर सिंह )

Thursday 22 June 2017

एक लोकोक्ति, सावन में जनमल सियार आ भादों में आइल बाढ़ - सन्दर्भ योग दिवस / विजय शंकर सिंह

कल 21 जून को दो विधाओं का दिवस मनाया गया । एक अंतरराष्ट्रीय योग दिवस और दूसरा विश्व संगीत दिवस । योग दिवस की धूम रही और लोगों ने योग किया , लोगों में जागृति उत्पन्न हुयी,  कुछ ने चेहरा दिखाया तो कुछ ने खानापूर्ति की । दुनिया भर में यह आयोजन हुआ । लन्दन और अमेरिका में भी । लन्दन के मेयर मु सादिक़ ने योग आयोजन का नेतृत्व किया और कुछ मित्रों ने इस पर ख़ुशी ज़ाहिर की कि उन्होंने ॐ के स्वर से प्राणायाम किया । कुछ को इसमें हिंदुत्व पर गर्व हुआ, तो कुछ के लिए सादिक़ साहब का ईमान खतरे में दिखा । कुल मिला कर बड़ा मनसायन रहा । दिन बढ़िया बीता ।

संगीत को इस दिन , वह प्रचार नहीं मिला । मैंने कुमार गंधर्व द्वारा गाया, कबीर का ' उड़ जाएगा हंस अकेला ' निर्गुण यूट्यूब से ले कर शेयर किया । जिन मित्रों  को रुचि थी उन्होंने सुना । शेष स्किप कर गए । इतने सारे स्टेटस को कौन कहाँ तक पढ़े । वैसे योग और संगीत में एक चीज़ या भाव समान है । वह है एकाग्रता और श्वास पर नियंत्रण । बिना एकाग्र हुये और श्वास पर नियंत्रण किये संगीत की गंभीर साधना हो ही नहीं सकती है । चाहे वह ध्रुपद जैसी कठिन गायकी हो या पॉप संगीत ।

कल मेरे योग पर लिखे पोस्ट पर कुछ मित्र इनबॉक्स में भी तशरीफ़ लाये और उन्होंने मुझे यह समझाने का प्रयास किया कि योग को इस मुक़ाम तक लाने में , सरकार को भी योग के प्रति जागरूक करने में बाबा रामदेव की बड़ी भूमिका है । उन्ही के प्रयासों से योग के टीचर सभी स्कूलों में नियुक्त हो रहे हैं । उनके ज्ञान और बाबा के प्रति भक्ति भाव की क़द्र करता हूँ पर यह बात सही नहीं हैं।

1964 में मैं यूपी कॉलेज में आया था । यूपी कॉलेज वाराणसी में है । यह एक रेजिडेंशियल कॉलेज है । उस समय क्लास 8 th में था । यूपी कॉलेज में उस समय जिम और योग की शिक्षा दी जाती थी । घुड़सवारी की भी सिखलाई होती थी । यह परम्परा 1909 से जब  यूपी कॉलेज की स्थापना हुयी थी तब से ही है । अब घुड़सवारी नहीं रही । उस समय हमारे योग शिक्षक स्व. ब्रज मोहन सिंह निडर थे । निडर उनका उपनाम था । वे हर साल विद्यालय के संस्थापक दिवस समारोह में आग पर चलवाते थे । पहली बार हम चमत्कृत रह गए । किसी ने कहा कि, यह जादू है तो किसी ने कहा कि नहीं आग को बाँध दिया गया । पर यह योग था या क्या यह मैं नहीं बता पाउँगा । बाद में मुहर्रम के दौरान आग का मातम बहुत देखा है हमने । लगभग हर स्कूल में एक पीटी टीचर होता था, अब भी यह व्यवस्था होगी । यह टीचर योग भी सिखाता है ।

1970 के बाद  एक और योगी का राजनीति में पदार्पण हुआ । वह स्वामी धीरेन्द्र ब्रह्मचारी थे । स्वामी जी योग की शिक्षा इंदिरा जी को देते थे । उनकी सत्ता के गलियारे में जितनी हनक थी उतनी रामदेव की भी नहीं है । यह अलग बात है कि मुझे रामदेव योग शिक्षक, व्यापारी और कुछ हद तक लालची व्यक्तित्व लगते हैं । जिस तरह से ये व्यापारिक सौदे करते हैं, ज़मीनों का जुगाड़ करते हैं , योग शिविर में , राजनीतिक नेताओं की चापलूसी करते हैं , उस से मेरी यह धारणा बनी है , हो सकता है आप सब की अलग हो । धीरेन्द्र ब्रह्मचारी का योग शिक्षा का कार्यक्रम रोज़ सुबह श्वेत श्याम दूरदर्शन प्रसारित करता था । धीरेन्द्र ब्रह्मचारी उसकी बारीकियां बताते थे । ऐसा नहीं कि धीरेन्द्र ब्रह्मचारी ने सत्ता का लाभ नहीं उठाया । उन्होंने बंदूकों का कारखाना जम्मू में खड़ा किया और उनके पास निजी वायुयान भी था । उनके बारे में तब के अखबारों में कई बार रोचक खबरें भी छपती थीं । कुछ अखबार उन्हें रासपुटिन के नाम से भी लिखते थे । इंदिरा गांधी को ज़ारीना कहते थे । ज़ारीना , ज़ार जो रूस का सम्राट था, की रानी को कहा जाता था, और रासपुटिन एक पादरी था, जिसका प्रभाव ज़ारीना पर बहुत ही अधिक था ।

इसके पहले भी ऋषिकेश में स्वामी शिवानंद, महर्षि महेश योगी , स्वामी योगानंद परमानन्द, काशी के लाहिड़ी महाशय, पॉन्डिचेरी के  अरविंदो, दक्षिण भारत रमण महर्षि जो अमेरिका में ही बस गए थे, आदि आदि महानुभाव इस प्राच्य गुह्य विद्या में अपना दखल दे चुके थे । लेकिन वे योग शिक्षक नहीं थे आध्यात्मिक गुरु थे । योगासन अष्ठांग योग के आठ अंगों यम , नियम , प्रत्याहार , आसन, प्राणायाम , ध्यान , धारणा और समाधि का मात्र एक अंग है ।शेष भी योग साधना के लिये ज़रूरी है । लेकिन आज जो योग प्रचलित है और जिसका गुणगान किया जा रहा है वह मात्र आसन और प्राणायाम के कुछ प्रकार हैं । योग जब तक अपने अष्ठांग रूप में न अपनाया जाय तब तक उसका लाभ नहीं मिल सकता है ।

रामदेव का योगदान योगासनों और योग के प्रचार में है । पहले यह विधा गोपन रहती थी । गुरु शिष्य परम्परा से होती हुयी फैलती रहती थी । गुरु सिर्फ आसन सिखा कर, देह यष्टि को ही नहीं साधता था बल्कि वह मस्तिष्क को भी ध्यान से नियंत्रित करना सिखलाता था । गुरु राज्याश्रय से दूर रहता था । वह गुरु ही नहीं एक बल्कि एक दार्शनिक पथ प्रदर्शक भी होता है । मैं बाबा रामदेव में इस प्रकार के गुरुत्व का अभाव पाता हूँ । पर उन्होंने आधुनिक संचार के साधनों और मार्केटिंग विज्ञान की टेकनीक का उपयोग कर योग को ज़रूर लोकप्रिय बनाया । उनका यह कृत्य प्रशंसनीय है ।

लेकिन बाबा रामदेव को ही योग विस्तार और प्रसार का श्रेय देना , उन सभी महान योग के साधकों के प्रति अन्याय होगा जो अपने तपोवन या घर जैसे तपोवन में ही बैठ कर योग की साधना में लीन थे और यह भी सम्भव है कि, अभी भी ऐसे अज्ञात योगी ऐसी ही  साधना में रमे हों । सोशल मीडिया पर सक्रिय युवा मित्र पढ़ने लिखने से थोडा कतराते हैं । उन्हें जो भी आज हो रहा है वह अजूबा दीखता है और वे उसके चकाचौंध से चमत्कृत हो जाते हैं । जब कि ऐसा नहीं है । ऐसे ही लोगों के लिए हमारी तरफ भोजपुरी में एक कहावत प्रचलित है, सावन में जनमल सियार आ भादों में आइल बाढ़ !!  आज कल भावनायें थोड़ी भुरभुरी हो रही हैं, वे ज़मीन से कम जुडी होने लगी हैं , जल्दी जल्दी आहत हो जाती है , दुर्वासा भाव जाग्रत कर देती हैं इस लिए यह स्पष्ट कर दूँ कि यह कहावत सभी मित्रों के लिये नहीं है, उनके लिये हैं जो बिना तथ्यों में गए अनर्गल अपनी बात कहते रहते हैं ।

( विजय शंकर सिंह )

Wednesday 21 June 2017

योग अगर अहंकार, मिथ्याभिमान और आत्ममुग्धता के रोग से मुक्त नहीं करता है तो वह सिर्फ एक व्यायाम है / विजय शंकर सिंह

आज 21 जून , अंतरराष्ट्रीय योग दिवस है । आज योग की धूम है । लोग कहीं न कहीं योग कर रहे हैं । अष्ठांग योग के एक अंग आसन की आज बहार है । प्रधानमंत्री जी लखनऊ में योग कर रहे हैं । हम जैसे लोगों ने भी थोडा बहुत आसन और प्राणायाम जैसे रोज़ करते हैं वैसे आज भी किया है , और जब कल जब योग दिवस नहीं रहेगा तो भी करेंगे । क्यों कि यह स्व के लिये है । किसी दवा या आहार विशेष के प्रचार के लिए नहीं है ।

आज सुबह ही मैंने एक पोस्ट डाली कि , खाये अघाये लोगों को योग दिवस की शुभकामनाएं । मित्रों ने इसे लाइक किया और अपने कमेंट्स से भी इस पोस्ट को नवाज़ा । हर पोस्ट की तरह इस पर भी मीन मेख निकाला गया । कुछ बौद्धिक विनोद हुआ, कुछ विवाद और कुछ मानसिक कसरत भी हुयी । यह भी एक प्रकार का मानसिक योग ही है ।

सरकार योग जागृति का श्रेय ले रही है । बिल्कुल यह श्रेय वर्तमान सरकार का ही है कि उसके ही सद्प्रयासों से यूएनओ ने आज के दिन 21 जून को अन्तर्राष्ट्रीय योग दिवस घोषित किया । लेकिन यह परम्परा बहुत प्राचीन है । पतंजलि ने इसे वर्गीकृत और व्याख्यायित किया । राम देव के जन्म के पूर्व ही दुनिया योग से परिचित हो चुकी थी । योग की अनेक विधाएँ राज योग, क्रिया योग आदि प्राच्य वांग्मय के अध्येताओं ने ढूंढ और उसे परिमार्जित कर के लोगों को सिखाना शुरू कर दिया था । रामदेव ने योग का  संगठित प्रचार ज़रूर किया। उनके इस योगदान को नकारा नहीं जा सकता है ।

मेरे पोस्ट खाये अघाये पर, इस शब्द पर कुछ मित्रों को आपत्ति है । उनसे निवेदन है कि योग से जुड़े टीवी और अखबारी समाचारों में जो छाया चित्र प्रसारित और प्रकाशित हुए हैं ज़रा उस पर भी नज़र डालें । और खुद इस निष्कर्ष पर पहुंचें कि मेरी बात कितनी सच है या झूठ । मैंने टीवी पर, नेट पर, विज्ञापनों में, जितने भी चित्र योग करते हुए लोगों को देखे हैं , वे एक विशिष्ट समाज से आते है । खाये अघाये लोगों का यह समाज ही योग को योगा में बदल कर योग कर्म को भी एक स्टेटस सिम्बल के रूप में प्रस्तुत करता है । जिम कल्चर, फिटनेस सेंटर्स, न्यूट्रिशनोलॉजिस्ट्स आदि आदि अब एक फैशन और लाभ का व्यवसाय बन गया है । लेकिन यह फैशन कितनों की पहुंच में है ? ज़रा सोचियेगा इस पर ।  देह को साधने, सुंदर और सुष्ठु दिखने की चाह ही तब उपजती है जब रोटी कपड़ा मकान और रोजगार की समस्या से मन और मस्तिष्क  मुक्त हो । मैंने इसी समाज को इंगित कर के अपनी पोस्ट लिखी है । मैं इसी समाज को खाया अघाय कह रहा हूँ । वह समाज जो सुबह उठ कर रोज़मर्रा के काम में व्यस्त हो जाता ताकि उसका और उसके परिवार का पेट भरे, जीविका चले , उसे योग दिवस की क्या मुबारकबाद दूँ । यह खोखली मुबारकबाद होगी । यह उसका उपहास होगा । आप मुझ से असहमत होने के लिये स्वतंत्र हैं । पर में उनका उपहास नहीं कर सकता ।

योग जोड़ता है. किस से ? स्वयं से ? समाज से ? ईश्वर से ? या प्रकृति से ? या कोई और है जिस से वह जोड़ता है ?  अक्सर यह सवाल उठता रहता है मेरे मन मैं. अब जब विश्व योग दिवस की तिथि नज़दीक आ रही है तो यह प्रश्न और अकुलाहट के साथ उठ रहा है. एक कथा सुनें,

एक बार आदि शंकराचार्य किसी नदी के किनारे उसे पार करने हेतु किसी साधन की प्रतीक्षा में बैठे हुए थे । शंकर का कुल जीवन ही 32 वर्ष का था । उस समय वह केवल 18 साल के एक किशोर सन्यासी थे । तभी एक हठयोगी  उनके पास आया और कहा कि योग कर लेते हो ?
" नहीं " शंकर ने कहा " थोड़ा बहुत प्राणायाम कर लेता हूँ ।"
" मैं पद्मासन में भूमि से ऊपर उठ जाता हूँ । " योगी की बातों में अहंकार स्पष्ट था ।
शंकर ने कहा  , " दिखाओ । "
योगी ने पद्मासन लगाया और थोडा ऊपर उठा ।
फिर विजयी भाव से उसने शंकर से कहा, " इस नदी के जल पर पैदल चल कर पार कर सकते हो ? "
शंकर ने इनकार के भाव से सर हिलाते हुए कहा " नहीं । "
पर वह शांत थे, चमत्कृत नहीं.
योगी ने कोई साधना की, और पैदल नदी पर चलता हुआ पार गया और वापस आ गया.
विजयी और दर्पीले भाव से उसने शंकर पर तुच्छ दृष्टि डालते हुए कहा , " देखा यह योग होता है । "
अप्रभावित शंकर, उस योगी को देखते रहे और फिर मुस्कुरा कर पूछा , " इस साधना में आप का कितना समय लगा होगा । "
योगी ने आँखे फैलाते हुए कहा, " चालीस साल ! चालीस साल की यह साधना है यह । तब मैं जल पर पैदल चल सकता हूँ । "
शंकर खिलखिला कर हंस पड़े. कहा, " आपने चालीस साल केवल यह सीखने में लगा दिए कि जल पर पैदल कैसा चला जाता है.! अरे नदी तो तैर कर या नाव से पार की जा सकती है.। "
योगी को क्रोध आ गया । उसने शंकर को बुरा भला कहा ।
शंकर ने कहा, " यह कैसा योग जो आप के मन को नियंत्रित न कर सके ? यह कैसा योग जो आप को अहंकार से मुक्त न कर सके ? यह कैसा योग जो जीवन के अत्यन्त महत्वपूर्ण समय को एक चमत्कार प्राप्त करने में व्यतीत करा दे ? "
तब तक नाव आ गयी थी और शंकर उस पर बैठ कर उस पार के लिए चल पड़े ।

योग अगर अहंकार, दर्प , मिथ्याभिमान और आत्ममुग्धता के रोग से मुक्त नहीं करता है तो वह केवल एक पीटी परेड की तरह है । एक तमाशा है । खेल है और आयोजन है ।

( विजय शंकर सिंह )

Tuesday 20 June 2017

एक कविता - तुमने कहा था ! / विजय शंकर सिंह

तुमने कहा था,
एक कविता लिखो
मैंने तुम्हारी आँखों में झाँका,
दूर तक फैला,
स्पंदित सागर दिखा,
देखता ही रहा, अनंत तक,
क्षितिज के पार कुछ भी न दिखा ।

फिर देखे कुंतल मैंने,
घना अरण्य ,
राह खोजे तो
खोजते ही रह जाय कोई,
भटकता ही रहे अहर्निश
न थके , न ऊबे !

उत्सुक आँखें
टिकी कपोलों पर,
संधि काल की दिव्य लालिमा,
दृष्टि टिकती भी कहाँ ,
पहाड़ों से उतरती हुयी,
उदय और अस्त होते हुए,
मिहिर के आलोक के समक्ष !

एक अदद कागज़,
और हाँथ में कलम थामे,
ढूंढ रहा हूँ, शब्द दर शब्द,
भटकता हूँ,
प्रतीकों की खोज में,
गढ़ता हूँ ढेर सारे विम्ब !

इन विम्बों से सजाता हूँ ,
कविता का एक संसार,
पर जब उन्हें तौलता हूँ,
सागर की शांत लहरों,
दिव्य अरण्य
उदय और अस्त होती आभा से,
तो शब्दों प्रतीकों
और विम्बों की खोज में फिर
खो जाता हूँ !
तुम्ही ने तो कहा था ,
एक कविता लिखो !!

© विजय शंकर सिंह
    20 जून 2017.

Monday 19 June 2017

एक कविता - कुछ कहना है / विजय शंकर सिंह

गहन अब्र, चकित नयन
स्मिति मदिर, अधर मधुर,
खिल उठे पुष्प  सभी, 
बज उठा  मन तरंग !

महक उठा , वातायन, 
बेखुद हुआ , मस्त पवन,
स्तब्ध है,  सघन गगन, 
जाग उठे , स्वप्न सजन !

दूर कहीं, कोकिल ध्वनि, 
आम्र कुञ्ज से आयी, 
सागर कहीं अंतर में, 
घुमड़ पडा आज प्रिये ।

कुछ शब्द हुये उद्गमित,
कुछ भाव हुये घनीभूत,
कुछ नाद मुखरित हुए,
हहर हहर बरस गया.!

सोचा कह डालूँ ,आज
अधरों पर अटका है जो, 
पर तुम ,खुद ही हो, बेखुद
कब तक चुपचाप रहूं मैं ।

कह दूं, जो कहना है, 
घुमड़ रहा है , भीतर
अब्र, पलकों में छिपा,
अब , उसे  कहना है. 
अब ,  उसे  बहना है !!

© विजय शंकर सिंह
    19 जून 2017.

Saturday 17 June 2017

कश्मीर के पाक प्रायोजित आतंकवाद का मुक़ाबला केवल सुरक्षा बलों के दम पर संभव नहीं हैं / विजय शंकर सिंह

जेके पुलिस के 6 जवानों की शहादत पर, कश्मीर के राजनैतिक नेताओं की नजरअंदाजी दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय है । 16 जून 2017 को  जम्मू कश्मीर राज्य पुलिस के 75000 जवानों और अधिकारियों ने कर्तव्य के प्रति निष्ठा की शपथ ली और यह भी संकल्प लिया कि वे इस समय जेके पुलिस के समक्ष खड़ी हुयी आतंकवाद की दैत्याकार चुनौती का पूरे मनोयोग से सामना करेंगे और विजयी होंगे । अपने 6 जवानों के आतंकियों के हाँथो मारे जाने और उनके शवों को बर्बरता पूर्वक क्षत विक्षत किये जाने का आक्रोश तो उनमें था ही साथ ही, लंबे समय से चले आ रहे आतंक के कारण उनकी ऊब भी थीं। अब बहुत हो चुका है । यह हद है । एक जवान के सिर पर तो पॉइंट ब्लेंक रेंज से एक दर्जन गोलिया दाग दी गयीं थी । यह बर्बरता की पराकाष्ठा है । पाशविकता की हद है । यह भी दुःखद और निंदनीय है कि, कश्मीर में शहीद पुलिस कर्मियों के अंतिम संस्कार में न नेता पहुंचे  और न जनता पहुंची, दूसरी ओर आतंकियों के  जनाजे में आतंकी और जनता  पहुंची। निंदनीय बात यह है कि शहीद पुलिस वालों के अंतिम संस्कार में भाजपा -पीडीपी का कोई विधायक,सांसद, मंत्री नहीं गया।  कश्मीर की राजनैतिक बिरादरी का यह रवैय्या हैरान करने वाला है । 6 जवान शहीद हुए और उनके शहादत को सम्मान देने के लिए मुख्य मंत्री द्वारा एक भी शब्द न कहना दुर्भाग्यपूर्ण है ।

सेना पुलिस का विकल्प नहीं है । यह पुलिस को अतिरिक्त बल , और संसाधन तथा अपने विशिष्ट प्रशिक्षण से सहायता करने के लिये तब सरकार द्वारा लगायी जाती है जब पुलिस कमज़ोर पड़ने लगती है । वह पुलिस बल को विस्थापित नहीं करती है बल्कि उसके साथ मिल कर लड़ती है । सिविल प्रशासन और आपराधिक न्याय प्रशासन की जिम्मेदारी पुलिस और मैजिस्ट्रेट की ही होती है । कश्मीर में फ़ैल चुके आतंकवाद को केवल सेना और केंद्रीय सुरक्षा बलों के दम पर खत्म नहीं किया जा सकता है । सेना युद्ध के लिए प्रशिक्षित होती है, न कि आंतरिक सुरक्षा के उपद्रवों और आतंकी घटनाओं से लड़ने के लिए । लेकिन जम्मू कश्मीर की सरकार चाहे वह अब्दुल्ला परिवार की हो या मुफ्ती परिवार की , किसी ने भी आतंकवाद के दमन के लिये वह इच्छा शक्ति नहीं दिखायी जो पंजाब में बेअंत सिंह की सरकार ने दिखायी थी । तब का अकाली दल कभी  छुपे तो कभी खुले रूप में खालिस्तान समर्थकों के साथ था । जब केपीएस गिल साहब ने पंजाब पुलिस पर भरोसा कर उन्हें  आगे किया तो आतंकियों की कमर टूटने लगी । कश्मीर में जेके पुलिस को उस तरह के नेतृत्व का अवसर नहीं दिया गया है। परिणामतः सेना को वह दायित्व भी संभालना पड़ा जिसके लिए वह गठित  नहीं है । सेना एक आपात व्यवस्था है । वह पुलिस नहीं है । और न ही उस से नियमित पुलिसिंग का काम नहीं लिया जाना चाहिए ।

आतंकवाद का परिणाम, कानून और व्यवस्था की समस्या है, पर आतंकवाद खुद ही राजनीति का परिणाम है । अतः बिना राजनैतिक पहल के इसका समाधान ढूंढा भी नहीं जा सकता है । कश्मीर का आतंकवाद , पाकिस्तान का खुला और अपूर्ण एजेंडा है । वे इसे छोड़ नहीं सकते हैं । कश्मीर उनके लिए भी जीने मरने का सवाल है, हमारे लिए तो वह हमारा अभिन्न अंग है ही । जब जनरल मुशर्रफ आगरा समिट में आये थे तो आगरा जाने के पहले उनकी प्रेस वार्ता हुयी थी । मुशर्रफ के माता पिता पुरानी दिल्ली की किसी हवेली में रहते थे और वहीँ विभाजन के पहले उनका जन्म हुआ था । जनरल अपनी दिल्ली यात्रा के दौरान उस हवेली में गए भी थे । जब पत्रकारों ने उनसे कश्मीर पर पाक के जिद भरे रवैय्ये की बात करते हुए पूछा कि  " यह मसला कैसे उनके जीने मरने का है ? " तो उन्होंने कहा कि " अगर मैं यह मसला छोड़ दूंगा तो मुझे दिल्ली आकर उसी हवेली में रहना होगा । " यह जवाब पाकिस्तान के सेना और हुक्मरान की मानसिक सोच कश्मीर के प्रति उनकी हठवादिता को बताता है ।

कश्मीर में जो कुछ भी सेना और सुरक्षा बल कर रहे हैं वे बहुत अच्छा कर रहे हैं । पाकिस्तान के घुसपैठियों को वे करारा जवाब भी दे रहे हैं । हो सकता है, कूटनीतिक प्रयास भी हो रहे हों । लेकिन कश्मीर की राजनैतिक बिरादरी का रवैय्या हैरान करने वाला है । 6 जवान शहीद हुए और उनके शहादत को सम्मान देने के लिए मुख्य मंत्री द्वारा एक भी शब्द न कहना दुर्भाग्यपूर्ण है । अगर आप सेना के बल पर आतंकवाद के खात्मे की उम्मीद किये बैठे हैं तो यह उम्मीद एक भ्रम है । शहरों में होने वाले सांप्रदायिक दंगे तक तो केवल सुरक्षा बलों के दम पर रोके नहीं जा पाते । वहाँ  लोगों से बात कर के स्थिति को सामान्य करना पड़ता है । फिर यह तो उनसे कई गुना बड़ी विकराल समस्या है । और इस आतंकवाद की तुलना दंगों से की भी नहीं जा सकती है ।

हम जम्मू कश्मीर के शहीद जवानों का वीरोचित अभिवादन करते हैं और शोक संतप्त परिजनों के प्रति शोक संवेदना भी व्यक्त करते हैं । लेकिन इस आतंकवाद के खिलाफ राज्य सरकार को खुल कर आगे आना होगा । उसे उपद्रवी पत्थरबाज और आम नागरिक के बीच के अंतर को पहचानना होगा । उन्हें यह भी समझना होगा कि राज्य की कानून व्यवस्था , उनकी पहली जिम्मेदारी है और  केंद्र उनकी मदद के लिए है । महबूबा मुफ़्ती ने एक भी ऐसा अभियान नहीं चलाया जिस से आम कश्मीरी अवाम को अलगाववादी सोच के शिकंजे से बाहर निकाला जा सके । अधिकतर अवाम उदासीन होती है । ' कोउ नृप होहिं ' का मन में गहरे पैठा भाव जिधर ढलान पाता है, बहने लगता है । सिख आतंकवाद के समय में भी एक वह दिन भी था जब कि हर सरदार चाहे वह ट्रक ड्राइवर हो या कोई भी , शक की नज़र से देखा जाता था । हर गुरूद्वारे पर छापा पड़ता था । दरबार साहिब में जो हुआ वह तो ' न भूतो ' था ही । लेकिन जब राजनैतिक नेतृत्व और सामाजिक संगठनों के लोग सड़कों पर निकले और सुरक्षा बलों का अभियान तेज़ हुआ तो आतंकी किले ढहने लगे और अब सब सामान्य हो गया और खुशहाली वापस लौट आयी ।

महबूबा मुफ़्ती और जम्मू कश्मीर के राजनैतिक नेतृत्व को आतंकवाद के खिलाफ खुल कर सामने आना होगा , तभी इस समस्या का समाधान संभव है । जब तक स्थानीय पुलिस बल, स्थानीय लोग, और ज़मीन से जुड़े राजनेता सामने नहीं आएंगे तो तब तक शहीद होने और दहशतगर्दों को मारने का सिलसिला खत्म नहीं होगा । आतंकवाद एक वैश्विक राजरोग है । इस का समाधान केवल सुरक्षा बलों के बल पर ही सम्भव नहीं है ।

( विजय शंकर सिंह )