Saturday 31 December 2016

देखने हम भी गए थे.....पै तमाशा न हुआ - 2016 ई का आखिरी ब्लॉग / विजय शंकर सिंह

आरबीआई ने तोहफा दिया है हम सबको । कल ही उनका फरमान जारी हुआ है । आज तक टीवी वाली एंकर खुश खुश हो कर बता रही थी । कह रही थी , कल से आप एटीएम से 4500 रूपये तक निकाल सकेंगे । क्या फरमान है ! यह एक्स्ट्रा नहीं है , और बोनस भी नहीं । पचास दिन की तपस्या जो हम सब ने क़तारों में खड़े हो कर की है उसका प्रतिफल है । सुना नहीं था, तंज़ उनके । देश बदलने के लिए क़तारों में खड़े रहना पड़ता है । थोडा कष्ट सहना पड़ता है । कुछ को जान देनी पड़ती है । थोडा सब्र करना पड़ता है । लोगों ने किया भी । क़तारों में भी खड़े रहे, कष्ट भी सहा, सब्र भी खूब रखा, और 150 लोगों ने जान भी दे दी । पर देश तो अभी बदला नहीं , हाँ साल ज़रूर बदल गया । अब उनका तोहफा भी आया । बिलकुल इस शेर की तर्ज़ पर,
' दिल की बरबादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या । '
पर जब लोग क़तारों में खड़े हो कर मर रहे थे तो उनकी चिड़िया ने वेदना और संवेदना के एक भी स्वर नहीं उगले । किसी भी मरने वाले के बारे में न तो सरकार ने कुछ कहा, और न ही आरबीआई ने । जिम्मेदारी लेना तो दूर नामोल्लेख तक नहीं किया उनका । उलटे मज़ाक उड़ा उनका, उन्हें  बेईमान कहा गया । संवेदनशीलता का भी काश कोई एप्प होता तो वह भी एक दिन ऐसे ही जारी हो गया होता । आज के घोर कल - युग में हो सकता है साफ्टवेयर कम्पनियां ऐसा एप्प बना रही हों । किसे पता । बस आदेश निर्देश निकलते रहे । कभी आरबीआई के तो कभी सरकार के । सरकार और आरबीआई के बीच की जो स्पष्ट सीमा थी, जिसे संविधान के पाठकों को यह कह कर पढ़ाया जाता है कि आरबीआई एक स्वायत्त संस्थान है, अचानक मिटा दी गयी । सब एक ही में गड्डमड्ड हो गए । दोनों ही अंग एक ही बात पर सहमत थे कि सुबह तुम कुछ कहो, शाम हम कुछ कहें । अज़ीब नशेड़ियों के महकमे इकट्ठे हो गए थे । दै आदेश , दै आदेश ।  एक पर एक । कभी इतना मिलेगा । नहीं नहीं इतना ही देंगे । बाद में लेना यार अभी तो पैसा ही नहीं आया । बीच बीच में बाज़ारू ऑफर भी । जिन्होंने जीवन पर स्वाभिमान से रोटी खायी , जिन्होंने अंतिम समय तक भूखे रह गए और हाँथ नहीं फैलाये उन्हें भी बैंक मैनेजर के सामने अपनी बेटी बेटे की शादी के लिये गिड़गिड़ाते हुए , दस्तावेजों की फोटोकॉपी जमा करते हुए देखा है मैंने । यह गिड़गिड़ाहट किसी ऋण के लिए नहीं थी, और न ही किसी सरकारी अनुदान के लिए थी । यह अनुनय विनय , क्षोभ आक्रोश सब था तो अपने उस धन के लिए जो उसने अपने बेटे बेटी की शादी में खुल कर खर्च करने के , सुरक्षित जान कर बैंक में रखे अपने ही पैसे के लिए थी । पैसा तो सुरक्षित था, और वह इतना सुरक्षित हो गया कि उसकी स्थिति सरकार के हक़ में ही आरक्षित हो गयी । और इसे ही आज तक चैनेल तोहफा बता रहा है ।

योजनाएं कितनी भी अच्छी हों अगर उनका क्रियान्वयन सही तरह से नहीं किया गया है तो, उन योजनाओं का अपेक्षित परिणाम तो छोड़ दीजिये, वह तो मिलता ही नहीं है बल्कि उसके दुष्परिणाम मिलने लगते हैं । इरादा नेक तो होना ही चाहिये पर उन इरादों को ज़मीन में लाने का उपक्रम भी त्रुटि रहित होना चाहिए । एक अच्छा जनरल वह नहीं है जो कुशल रणनीति बना ले बल्कि वह है जो कुशलता पूर्वक उस रणनीति को धरातल पर उतार ले । इतिहास में बहुत से संवेदनशील युद्ध इस लिए हारे गए हैं कि उनके कमांडरों ने सोची समझी रणनीति के अनुसार काम नहीं किया । यही हाल इस नोटबंदी की योजना का होने जा रहा है । हालांकि अभी यह आशंका गलत हो सकती है । पर जैसी खबरें आ रही हैं उनसे उन परिस्थितियों का आकलन किया जा सकता है ।इसे एक साहसिक कदम कहा गया है और प्रधानमंत्री की दृढ इच्छा शक्ति का प्रतीक भी बताया जा रहा है । इसमें गोपनीयता भी बरतनी चाहिए थी और बरती भी गयी । यह खबर लीक की गयी है मैं इसे भी दुष्प्रचार मान लेता हूँ । तो भी इसका जो व्यापक असर बाज़ार पर पड़ेगा उसका आकलन आवश्यक हैं। अर्थ शास्त्र और बाजार मनोविज्ञान की मुझे बहुत अकादमिक जानकारी नहीं है और जो भी जानकारी है वह अखबारों और मित्रों से बातचीत से ही है । पर अपने सरकारी नौकरी के अनुभव के आधार पर इसके क्रियान्वयन में  हुयी खामियों को जो मैं महसूस करता हूँ आप सब से साझा कर रहा हूँ ।

रिज़र्व बैंक ही वह वैधानिक संस्था है जो मुद्रा संबंधी बदलाव के लिए अधिकृत है और यह एक स्वायत्त शासी संस्थान है । देश में कितने नोट किस राशि के हैं इन्हें पता रहता है क्यों की मुद्रा का प्रवाह , स्फीति और संकुचन आदि सभी यह मॉनिटर करते रहते हैं । देश के अंदर 1, 2, 5, 10 , 50, 100, 500 और 1000 रूपये की मुद्राएं और कुछ के सिक्के चलते हैं । जब से महंगाई बढ़ने लगी तब से बड़ी मुद्रा में भुगतान की गति ने उनकी मांग भी बढ़ा दी । 1000 और 500 की नोटें अधिक प्रचलन में आ गयीं । बल्कि 100 और 500 की मुद्रा सबसे अधिक चलन में आने वाली नोट बन गयी । मुद्रा के इस प्रसार में देश में जितनी भी मुद्रा थी, उसमे 84 प्रतिशत मुद्रा 500 और 1000 के नोटों की थी । जब 8 तारीख की मध्य रात्रि से धारक को 500 और 1000 रूपये का भुगतान करने का वचन सरकार ने वापस ले लिया तो, 84 प्रतिशत मुद्रा का शून्य उत्पन्न हो गया । अगर इन बंद मुद्राओं का प्रतिशत 84 के बजाय 16 होता तो थोड़ी समस्या होती पर इतना हाय तौबा नहीं मचता । रिज़र्व बैंक ने अगर इसका आकलन नहीं किया तो यह एक बड़ी प्रोफेशनल भूल है । सरकार के वित्त मंत्रालय को रिज़र्व बैंक द्वारा यह बताना और आगाह करना चाहिए था कि ऐसी समस्या आ सकती है और इसका समाधान भी उन्हें बताना चाहिए था । सरकार का कहना है कि नोटों की छपाई 6 माह से चल रही थी । सरकारे बहुत से काम गुपचुप तरीके से करती रहती हैं और उन्हें विभिन्न कारणों से गोपनीय रखा भी जाता है , और रखा जाना भी चाहिए, पर इसके परिणामो , तद्जन्य समस्याओं और समाधानों के विषय में भी अध्ययन करते रहना भी चाहिए । 84 % की कमी की पूर्ति कैसे होगी ? कितने नोट छपेंगे ? उन्हें दूर दराज तक कैसे पहुंचाया जाएगा ? कैसे यह सुनिश्चित किया जाएगा कि, हर जगह नोट पहुँच जाएँ ? उनकी मॉनिटरिंग कौन और कैसे करेगा ? जो गाड़ियां नोट ले कर जा रही हैं उनकी सुरक्षा कौन करेगा ? इन सब की कार्ययोजना बननी चाहिए । हो सकता है बनी भी हो पर आज इतने ( 52 ) दिन बाद भी अगर लोग परेशान हैं तो इसका सीधा अर्थ है कि या तो योजना में कमी है या जो योजना बनायी गयी है वह धरातल पर नहीं उतारी गयी है । दोनों ही स्थितियों में जनता सरकार को कोसती है और इसका खामियाज़ा भी सरकार को ही भोगना पड़ता है ।

यह कोई भी नहीं बता रहा है कि
कितना काला धन पकड़ा गया ?
जिनके पास से पकड़ा गया उनके खिलाफ क्या कार्यवाही हुयी ?
क्यों उन्हें 50 50 % की छूट दे कर दंड मुक्त कर दिया गया ।
राजनीतिक दलों की फंडिंग में पारदर्शिता लाने के लिए क्या क्या उपाय किये जाएंगे ?
उन्हें क्यों पुराने नोट जमा करने की छूट दी गयी ।
क़तारों में मरने वालों के लिए किसी मुआवज़े की घोषणा क्यों नहीं की गयी ?
न देते मुआवजा तो संवेदना के दो शब्द ही कह दिए होते सरकार ने ?
पर बराबर यही कहा जाता रहा कि नोटों की कोई कमी नहीं है और कैश पर्याप्त है । फिर भी कैश निकालने की हदबंदी हटायी नहीं जा रही है । नोटबंदी से हदबंदी तक का सफर अभी भी हम तय नहीं कर पाये ।

आज प्रधानमंत्री जी का सम्बोधन भी हुआ । बड़ी सरगर्मी थी । न्यूज़ चैनेल काउंटडाउन यूँ दिखा रहे थे जैसे भाषण बोला नहीं जाएगा बल्कि प्रक्षेपित होगा । पर जब कोई कभी कभी ही बोलता है तो वह कुछ सार्थक बोलता है । पर जब कोई रोज़ रोज़ ही खड़ा हो जाएगा बोलने के लिए तो क्या बोलेगा ! प्रधानमंत्री जी एक मंजे हुए वक्ता है । सम्प्रेषण की उनमे क्षमता है । पर वे सम्प्रेषित करेंगे क्या ? सरकार का काम, उपलब्धियां, भावी योजनाएं यही तो ? पर जब योजनाओं के क्रियान्वयन में ही खोट है , योजनाओं के इरादों पर ही संशय है तो वे क्या कहेंगे ? आज उन्होंने जो कहा उस पर मेरे अर्थशास्त्री मित्र अरविन्द वर्मा ने बड़ी ही सधी हुयी त्वरित टिप्पणी की है -
" 1.इतना धन का भण्डार बैंक के पास कभी नहीं आया था बैंक गरीब को ध्यान में रखकर  अपनी योजना बनाएं: महाशय जी क्या ये पैसा बैंक का है ये पैसा आम जनता का हक़ है।
2.किसान क्रेडिट कार्ड रुपे कार्ड से जोड़े जाएंगे: महाशय ये घोषणा भी पहले की जा चुकी है
3.गर्भवती महिलाओं के लिए 6 हज़ार रुपये की सहायता: महाशय पूरे भारत में 2000 रूपये दिए जा रहे थे,जिसमें इलाज और टीकाकरण पहले ही मुफ्त था और इसे बढाकर 4000 रु पहले ही किया जा चूका था।
4. वरिष्ठ नागरिक के लिए 10 वर्ष की जमा पर 8% ब्याज फिक्स: महाशय ये योजना है या कुयोजना, 8% ब्याज निम्नतम है कोई अहसान नहीं
5.बाबा साहिब के नाम पर भीम योजना: महाशय भीम का फुल फॉर्म भारत इंटरफ़ेस फ़ॉर मनी है फिर इसमें बाबा साहिब का नाम कहाँ हुआ, भीम तो महाभारत के पात्र भी हैं।
6.गृह निर्माण हेतु बैंक लोन पर 4% तक की छूट दी जायेगी: भाई जी पहले तो इंदिरा आवास योजना के तहत लगभग मुफ्त घर दिए जाते थे, और एफफोर्डब्ले हाउसिंग योजना पहले से ही लागू होगी।
मोदी जी कुछ घोषणाएं यथा ब्याज में छूट,गर्भवती महिलाओं के लिए सहायता राशि बढाने वाली योजना इत्यादि बजट से सम्बंधित हैं जिनके लिए वितीय प्रावधान की जरूरत है जो अगले वित्तिय वर्ष से लागू होंगी, ये शर्मिंदा करने वाला वक्त है जब व्यवस्था को तार तार कर दिया गया है। "
ग़ालिब का एक शेर यहाँ मुझे उपयुक्त लगा सो उसका उल्लेख कर रहा हूँ ,
थी खबर गर्म कि, ग़ालिब के उड़ेंगे पुर्ज़े,
देखने हम भी गए थे, पै तमाशा न हुआ !!

चलिए 2016 समाप्त हो रहा है । वक़्त के साथ एक बात तय होती है, वह चाहे जैसा भी हो बीत ही जाता है । बीतता भी वह अपनी गति से ही है । पर जब रात अंधेरी होती है तो लंबी दिखती है और जब दिन की धूप मस्त होती है तो जल्दी ढल जाती है । यह सुख और दुःख का मनोविज्ञान है । घड़ी का कोई कुसूर नहीं है । उसकी टिकटिक समभाव से ही चलती है पर मन ही अक्सर सम और विषम भावों के बीच दोलायमान रहता है ।
2016 ईस्वी सन् की विदा के साथ ही 2017 ईस्वी का स्वागत है !

( विजय शंकर सिंह )

Ghalib.- Asadullaa khan tamaam huaa / असदउल्ला खां तमाम हुआ / विजय शंकर सिंह


                                                                    

 


ग़ालिब - 20.

'
असदुल्ला खाँ ' तमाम हुआ, 
ऐ दरेगा, वो रिन्द ए शाहिद'बाज़ !! 

असदुल्ला खाँ - ग़ालिब का असली नाम, 
शाहिद'बाज़ - सुन्दर स्त्रियों से प्रेम करने वाला. 

'Asadullaa khan ' tamaam huaa, 
Ai daregaa, wo, rind e shahid'baaz !! 
-Ghalib. 

असदुल्ला खाँ मर गया. इस मृत्यु पर बहुत अफसोस है. वह, सौंदर्य का आसक्त, सुन्दर स्त्रियों का शौकीन, और मद्यप था. 

ग़ालिब ने अपने मृत्यु की घोषणा इस प्रकार की. ग़ालिब खुद को मद्यपी और शराबी घोषित करते हुए सुन्दर स्त्रियों का प्रेमी भी कहते है. ग़ालिब का यह कथन उनके निंदकों पर व्यंग्य भी है. वह अपने निंदकों को यह कहते हैं कि जब उनकी मृत्यु होगी तो उनके निंदक इसी प्रकार की शब्दावली उनके बारे में कहेंगे. 

ग़ालिब शराब पीते थे और खूब पीते थे. एक बार उन्हें पेंशन मिली थी वे पूरी पेंशन की शराब खरीद लाये और जब उनकी इस हरकत पर उनकी पत्नी ने ऐतराज़ जताया और कहा कि " तुमने सारे पैसों की शराब खरीद ली, खाओगे क्या ? उन्होंने बड़े इतमीनान से कहा, कि खिलाने का वादा तो अल्लाह ने कर रखा है. उसकी मुझे फिक्र नहीं है. लेकिन पीने का उसका कोई वादा नहीं सो पीने का इंतज़ाम मैं कर आया हूँ ! " अब इस पर क्या कोई कह सकता है. 

उर्दू शायरी में साक़ी , मयखाना , रिन्द , और प्याला , कहने का अर्थ यह कि सारे प्रतीक मदिरा के इर्द गिर्द ही हैं। जब कि इस्लाम में शराब पीना हराम है। सभी शायरों ने इन्ही प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात कही है। इसी भाव पर आधारित मीर का यह शेर पढ़ें ,

लब ए मय गूँ पर जान देते हैं ,
हमें शौक़ इ शराब ने मारा !!
-
मीर 

माधुरी तर होंठों पर हम अपनी न्योछावर कर देते हैं , इस प्रकार माधुरी अर्थात शराब के शौक़ ने हमें समाप्त कर दिया 

ये दो उदाहरण देखें। रियाज़ खैराबादी का यह शेर पढ़ें। 

मर गए फिर भी त'अल्लुक़ है मयखाने से ,
मेरे हिस्से की छलक जाती है पैमाने में !!
-
रियाज़ खैराबादी ,

यह जनाब भी अपने मरने की चर्चा शराब के माध्यम से करते हैं। '' हम मर गए हैं फिर भी मधुशाला से सम्बन्ध बना हुआ है। अब भी मेरे हिस्से की शराब जाती है 

अख्तर मीरासी का यह शेर भी पढ़ें।

पिला दे जितनी चाहे , अब तो मेहमाँ है कोई दम के ,
जरस का शोर गूंजा , कारवाँ तैयार है साक़ी !!
-
अख्तर मीरासी 

अंतिम यात्रा की तैयारी है। कुछ साँसे तेज़ है। लोग ले चलने की तैयारी में जुटे हैं। बस अब कुछ घूँट की उम्मीद है साक़ी से। साक़ी यहां ईश्वर का और मदिरा उसकी कृपा का प्रतीक है। 
( विजय शंकर सिंह )

Tuesday 27 December 2016

Ghalib - Asad ham wo junuun jaulaan / असद हम वो जुनूं जौलां - ग़ालिब / विजय शंकर सिंह

आज 27 दिसंबर है और आज मिर्ज़ा ग़ालिब का जन्म दिन भी है। मिर्ज़ा ग़ालिब उर्दू के महानतम शायर थे। साहित्य में अनेक विभूतियाँ जन्मती है और अपनी प्रतिभा से लोगों को चमत्कृत करती रहती हैं पर आकाश गंगा में कहीं खो जाती हैं। कुछ तो गुमनामी के अँधेरे में ब्लैक होल की तरह विलीन ही हो जाती हैं। पर कुछ प्रतिभाएं समय के अनेक प्रभाव को झेलते हुए , मौज़ ए वक़्त को पार करते हुए , कालजयी हो कर अनवरत रूप से दैदीप्यमान बनी रहती हैं।  ऐसी प्रतिभाएं लगभग विश्व के हर साहित्य में मिलेंगी और उनकी प्रासंगिकता सदैव बनी रहती है। ग़ालिब उन्ही कालजयी शख्शियतों में से एक है। आज भी हर अवसर पर उन्हें उद्धृत कर माहौल को वज़नदार और मौज़ू बनाया जा सकता है। ग़ालिब एक सामंत थे , सूफी थे , कला के पारखी थे , फक्कड़ थे और मद्यप भी ।  1857 के विप्लव के समय एक बार अंग्रेजों ने विप्लव का दमन कर लेने के बाद जब उन्हें पकड़ा और जब पूछताछ की , तो एक  सवाल , कि तुम्हारा मजहब क्या है , पर उन्होंने कहा कि " मैं आधा मुसलमान हूँ, और काफ़िर।  शराब पीता हूँ , पर सूअर नहीं खाता हूँ।"  यह ग़ालिब का व्यंग्य था या उनकी साफ़ बयानी , यह तो वही बता पाएंगे । पर इस उत्तर ने माहौल को हल्का कर दिया। ग़ालिब मूलतः फारसी के शायर थे । फारसी राजभाषा थी तब। मुगल काल की वही भाषा थी । लश्करों में विभिन्न क्षेत्रों से आये सैनिकों की संपर्क भाषा के रूप में उर्दू का स्वरूप बन रहा था । फिर ग़ालिब ने भी इस स्वरुप को अपनाया और उर्दू उनकी प्रतिभा से समृद्ध  हुयी।  ग़ालिब की शायरी में दर्शन भी है , इश्क़ ए हक़ीक़ी भी और इश्क मजाज़ी भी। तंज भी और इबादत भी। उनका अंदाज़ ए बयाँ भी अलग और उनकी अदा भी अलग। इसी लिए ग़ालिब आज भी न सिर्फ समकालीनों में बल्कि अपने बाद की महान साहित्यिक प्रतिभाओं में भी अलग ही चमकते हैं। यही विशिष्टता , ग़ालिब को ग़ालिब बनाती है। दिल्ली में हजरत निज़ामुद्दीन की दरगाह के पहले ही जाते समय ग़ालिब अकादेमी है और उसी के आगे ग़ालिब भी चिर निद्रा में लीन हैं। पर बहुत कम लोग ग़ालिब की मज़ार पर जाते हैं। शायद बहुत ही कम। किसी किसी की नज़र पड़ती है तो वहाँ एक सादगी भरा सन्नाटा पसरा रहता है। साहित्यकार पत्थरों से नहीं अमर होते हैं , वे अमर रहते हैं अक्षरों में। अक्षर का अर्थ ही है , जिसका क्षय न हो। और ग़ालिब की कीर्ति का कभी क्षय नहीं होगा। वह अक्षुण्ण  रहेगी। नीचे उनका एक शेर प्रस्तुत कर रहा हूँ। यह फारसी के शब्दों से भरा पड़ा है , इस लिए इसका शब्दार्थ और अर्थ भी दे रहा हूँ। 



ग़ालिब -
असद हम वो जुनूं जौलां गदा ए बे सर ओ पा हैं, 
कि है, सर पंजा ए मिज्गान ए आहू पुश्त खार अपना !! 

असद - ग़ालिब का नाम असदुल्ला खान 
जुनूं जौलां - उन्माद ग्रस्त. 
गदा - भिखारी, 
बे सर ओ पा - बिना सर और पैर के, यानी बिना सहारे. 
मुज्गा - पलक, 
आहू - हिरण.
पुश्त - पीठ. 

' Asad ' ham wo junoon jaulaan hai, gadaa e be sar o paa hain, 
Ki hai sar'panjaa e mijgaan e aahoo pusht khaar apnaa !! 
- Ghalib. 

हम ऐसे उन्माद ग्रस्त भाग्यहीन भिखारी हैं, हिरण की पलकें जिसकी पीठ खुजाने का पंजा बनी हुयी हैं.

यह उन्माद या धुन की पराकाष्ठा है. हिरण की पलकों से पीठ खुजाने की कल्पना, भुषण की एक प्रसिद्ध पंक्ति, जो तीन बेर खाती थीं, तीन बेर खाती हैं की याद दिला देती है. धुन में कुछ भी ज्ञात नहीं है. उन्माद में भी सिर्फ उन्माद का कारक ही दिखता है. उन्माद का कारक कुछ भी हो सकता है. दैहिक प्रेम हो या दैविक प्रेंम, जिसे सूफ़ी संतों ने इश्क हकीकी और इश्क मजाजी में बांटा है. पूरा सूफी दर्शन ईश्वर को माशूक, प्रेमिका के रूप में देखता है. ईध्वर के प्रति यह नजरिया भारतीय दर्शन परंपरा के लिए नया है. राधा कृष्ण का प्रेम, या कृष्ण गोपी प्रेम भी इश्क हकीकी ही था. भक्तिकाल का पूरा निर्गुण साहित्य इसी प्रेरणा से प्रभावित है. उन्माद की इस पराकाष्ठा में ग़ालिब यह भी विस्मृत कर गए हैं कि कहीं हिरण की पलकों से पीठ खुजाई जा सकती है. यह उन्माद और कुछ नहीं ईश्वर को पाने की उद्दाम लालसा है. जिसमे वेदना है, विरह है और भरपूर आशावाद है। 


( विजय शंकर सिंह )

Sunday 25 December 2016

एक पूर्व आईएएस अधिकारी का नोटबन्दी के सन्दर्भ में पूर्वांचल से जुड़ा एक अनुभव / विजय शंकर सिंह

यह आलेख पूर्व आईएएस अधिकारी और मेरे सीनियर सूर्य प्रताप सिंह का है । यह उनका प्रथम दृष्टया भोगा हुआ अनुभव है जो मैं मित्र जसवंत सिंह सर जो स्वयं एक वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी हैं , के टाइमलाइन से उठा रहा हूँ । एसपी सिंह सर पूर्वांचल के कुछ इलाको के दौरे पर थे और उन्होंने पूर्वाचल के ग्रामीण इलाक़ों का नोटबन्दी के बाद जो हाल देखा उसे उन्होंने यहां बयान कर दिया है । यह उनका अनुभव है और लम्बे समय तक प्रशासनिक सेवा में रहने के कारण उनकी दृष्टि हो सकता है वह देख पा रही हो जो किसी अन्य की नही देख पाये । यह तो, अनुभव अनुभव की बात हैं। पत्रकार, पुलिस अफसर और प्रशासनिक अफसर तथा अन्य जो किसी भी सेवा में नहीं रहे हैं की दृष्टि में अंतर हो सकता है । यह उनका अनुभव है । अगर किसी का विपरीत अनुभव हो तो वह अपना भी साझा कर सकता है । लोग एक भ्रम के शिकार हैं । उनका भ्रम यह है कि आरबीआई लगातार नोट छाप रहा है और महीने दो महीने में जब सब को मुद्रा मिलने लगेगी तो , चीज़ें फिर जस की तस हो जाएंगी । पर ऐसी बात नहीं है । मुद्रा संकुचन जिसे डिफ्लेशन कहते हैं अगर इस दिशा में अर्थ व्यवस्था चल गयी तो इस से सबसे बड़ा खतरा आर्थिक मंदी का हो सकता है । जब आर्थिक मंदी से कल कारखाने कम उत्पादन करने लगेगें तो उनके यहां उन मज़दूरों की छंटनी होने लगेगी जो दिहाड़ी पैसे ले कर काम कर रहे हैं । भारत में असंगठित क्षेत्र का आधार बहुत बड़ा है और अधिकतर वह क्षेत्र उचित प्रतिनिधित्व के अभाव और संगठित न होने के कारण उसकी आवाज़ भी बहुधा अनसुनी रहती है, अतः उसे भारी संख्या में बेरोजगारी का सामना करना पड़ सकता है । यह भी एक विडंबना ही होगी कि जिन गरीबों को लाभ पहुंचाने के नाम पर यह साहसिक कदम उठाया गया है , वह उन्ही गरीबों का ही सबसे अधिक हानि करेगी । कृषि क्षेत्र देश का सर्वाधिक प्रसारित और बड़ा असंगठित क्षेत्र है । आगे क्या होता है, यह अभी नहीं कहा जा सकता है । इसका असल असर दो महीने में दिखने लगेगा ।
- vss.

उत्तर प्रदेश में 'नोटबंदी' से उतरने लगा है का खुमार !
मैं आजकल पूर्वांचल के दौरे पर हूँ। नोटबंदी के सामान्य लोगों पर पड़ रहे प्रभाव पर सच लिखूँगा और सच के सिवाय और कुछ नहीं लिखूँगा।
नोटबंदी से जनता का लगभग हर वर्ग प्रभावित है।  हर व्यवसाय को घाटा है, किसानो की फ़सल की बिक्री व भुगतान में बहुत दिक़्क़त आ रही है। छोटे तबके की रोज़गारी बुरी तरह प्रभावित हुई है।  बाज़ार से ख़रीदार ग़ायब हैं। अधिकांश छोटे धंधे कैश पर आधारित रहे हैं, वह सभी प्रभावित हैं।
नोटबंदी का जो उत्साह पहले ८-१० दिन तक था वह धीरे-२ कम हो रहा है। अमीरों के पास पकड़े जा रहे करोड़ों के नए नोटों से लाइन में खड़े लोग ठगा सा महसूस कर रहे हैं। चूँकि नोटबंदी को राष्ट्र भक्ति से जोड़ दिया गया है और ग़रीबों को भविष्य के बड़े-२ सपने दिखाए गए हैं , से तदर्थ जोश के बशिभूत परेशान होने के बावजूद भी कुछ लोग अपनी परेशानी छुपा कर  बाहरी मन से प्रशंसा करने को इस लिए बाध्य हैं कि यदि उन्होंने अपनी परेशानी का इज़हार किया तो उनकी देश भक्ति चैलेंज हो जाएगी। अंदर से सभी परेशान हैं, लेकिन सार्वजनिक रूप से कुछ बोल नहीं पा रहे हैं।
यदि कैश की दिक़्क़त नहीं सुधरी, तो जैसे जैसे समय गुज़रेगा लोगों की निराशा(frustration) बढ़ना लाज़मी है।
घटता व्यवसाय व बढ़ती बेरोज़गारी निराशा को और बढ़ाएगी। कोई यह कहे कि नोटबंदी का उत्तर प्रदेश के आगामी चुनाव पर प्रभाव नहीं पड़ेगा, यह मूर्खता होगी। देखना होगा कि यह प्रभाव अनुकूल होगा या प्रतिकूल। भाजपा की लखनऊ में हुई सांसदों की बैठक व दिल्ली में हुई संगठन की बैठक में जो चर्चा हुई है, उससे भाजपा में घबराहट है। भाजपा के कुछ बड़े नेताओं को छोकर नीचे कोई कुछ बोल नहीं रहा है.... सन्नाटा है।
बॉर्डर पर हुई सर्जिकल स्ट्राइक को लोग भूलते जा रहे हैं। नोटबंदी से यद्यपि आतंकवाद/ नक्सल पर फ़ौरी प्रभाव पड़ा है, इसे नकारा नहीं जा सकता फिर भी सर्जिकल स्ट्राइक का ख़ुमार नोटबंदी की अफ़रातफ़री से उतरता जा रहा है। अब लाइन में खड़ा आवाम अब सर्जिकल स्ट्राइक की बात नहीं कर रहा है।
लाइन में खड़े लोगों को आभास होने लगा है कि अमीर/ पूँजीपतियों/नेताओं/नौकरशाहों द्वारा अपने ढेरों पुराने नोट खपाए जा चुके है और नए नोट भी बड़ी मात्रा में उनके पास आ चुके हैं। बड़े लोग न तो लाइन में खड़े हुए और न ही उनके पास आज कैश की क़िल्लत है।
लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि जब दुनिया में कोई भी देश पूर्ण रूप से कैशलेस नहीं है, भारत को एक झटके में ऐसा कैसे सम्भव है?
भारत की आवाम ने नोटबंदी को अमीर/पूँजीपतियों पर चोट के रूप में देखा था.... वह ख़ुश था कि पहली बार अमीर पर सरकार का डंडा चला और अमीर का पैसा ग़रीब को मिल जाएगा परंतु क्या ऐसा वास्तव में हुआ या आगे होगा ..... ग़रीब ख़ाली सपने ही देख रहा है ?
मुझे नहीं लगता कि ऐसा हुआ  या होगा ....अमीर आज भी मौज में है और कल भी था ....और ग़रीब जो पहले से ही परेशान था वह और भी दिक़्क़त में आज खड़ा है। जो पकड़ धकड हो रही है वह तो ऊँट के मुँह में जीरे के ज़्यादा नहीं है।
लोग यह भी समझ रहे हैं कि काला धन कैश में मात्र ५-६% ही है और यह सारा कैश बैंक में वापिस आ गया। जैसा प्रचार किया जा रहा था, इक्का-दुक्का मामलों को छोड़ कर किसी ने न तो नदी-नाले में बहाया और न ही जलाया।
नोटबंदी इस कवायत को अर्थशास्त्र की भाषा में मुद्रा-संकुचन (economic contraction/cash withdrawal) कहना ज़्यादा उचित होगा न कि कालेधन पर वास्तविक प्रहार। ८०-९०% कालाधन रियल इस्टेट/सोने/स्टॉक/हवाला में है। देखना होगा कि नोटबंदी के सन्नाटे को चीरते हुए सरकार का अगला क़दम कब आएगा?
चारों और नोटबंदी का सन्नाटा ( frustration) पसरा है, मेरे भाई ....लोग समझ नहीं पा रहे क्या कहें और क्या करें?
सर्जिकल-स्ट्राइक का ख़ुमार धीरे-२ उतरने लगा है .... यदि चुनाव से कोई और नया चोचला/ क़दम बाहर नहीं आया तो, उत्तर प्रदेश में आगामी चुनाव में भाजपा को भारी पड़ सकती है नोटबंदी !!!
भावनाओं,अंध-भक्ति या भेड़-चाल से बाहर निकल विवेकसंगत व तार्किक सोच से समझने की ज़रूरत है, मेरे भाई।
यह कहना कि नोटबंदी पर जो टिका-टिप्पणी कर रहा है वह पाकिस्तान समर्थक़ है या देश द्रोही है .....यह लोकतंत्र में कितना उचित है? आप ही निर्णय करें। याद करें कि इंदिरा गांधी के समय में नसबंदी का विरोध करने वालों को भी यही कहा जाता था। 
इतना कह कर बीत गई हर ठंडी भीगी रात,
सुखके लम्हे, दुख के साथी, तेरे ख़ाली हात।
जय हिंद जय भारत !!!
साभार-सूर्य प्रताप सिंह आईएएस, उत्तर