ऋग्वेद में जानबूझकर रहस्यमयता पैदा की गई है, यह बात हम पहले ही कह चुके हैं। रहस्यमयता का यह इतिहास वैदिक रचना काल से हजारों साल पीछे तक जाता है। इसे बाद की कृतियों में जिस रूप में याद किया गया था, वह यह कि आसुरी जीवन पद्धति से जुड़े हुए लोग कृषि के लिए भूमि की सफाई का जितना उत्कट विरोध करते थे उसमें, इसका संदेह होने पर भी किसी की जान ले सकते थे। इसलिए सफाई करने यज्ञ का आयोजन करने के जो उपाय किए जाते थे उन पर किसी तरह का संदेह बहाने बनाने थे, हम अमुक काम कर रहे हैं। यज्ञ उस अवस्था में भी एक विज्ञान था। सही मौसम का चुनाव, वायु की सही दिशा का चुनाव, और सही क्षेत्र का चुनाव और यह गोपनीयता उनकी संस्कृति का अंग बन चुकी थी। यहां तक की आदमी के नाम भी दो होते थे एक पुकार के लिए और दूसरा असली जिसे छिपा कर रखा जाता था। जब इसको कला का रूप दिया गया तो प्रतिस्पर्धा सी हो गई। वर्णन इतना जीवंत कि काल्पनिक घटना वास्तविक घटना प्रतीत हो और वास्तविक अमूर्तन के कारण आंखों के आगे से ओझल हो जाए। एक और इंद्र के युद्ध का वर्णन। दूसरी ओर प्रिय दावा कि इन्द्र ने तो किसी के साथ युद्ध किया ही नहीं था:
यदचरस्तन्वा वावृधानो बलानीन्द्र प्रबुवाणोजनेषु ।
मायेत् सा ते यानि युद्धान्याहुर्नाद्य शत्रुं ननु पुरा विवित्से ।। 10.54.2
‘इन्द्र स्वतः अपनी शक्ति का विस्तार करते हुए जो कुछ करते रहे हैं उसके विषय में वह लोगों को बताते हैं कि ये सभी युद्ध आभासिक हैं। न तो कभी उनका कोई शत्रु है, न पहले कभी था।’
एक ओर कहा जाता है कि इन्द्र ने जन्म लेते ही मा शवसी से पूछा कि :
आ बुन्दं वृत्रहा ददे जातः पृच्छद्वि मातरम् ।
क उग्राः के ह शृण्विरे ।। 8.45.4
‘वृत्रहन्ता इंद्र ने पैदा होते ही बाण तानते हुए अपनी माता शशि से पूछा दुनिया में सबसे प्रचंड कौन है, इस रूप में कौन विख्यात है।
प्रति त्वा शवसी वदद्गिरावप्सो न योधिषत् ।
यस्ते शत्रुत्वमाचके ।। 8.45.5
इसके उत्तर में माता शवसी (शक्ति) ने कहा, ‘वही जो तुझ से शत्रुता मोल लेगा और पर्वतीय गजराज की तरफ से युद्ध करेगा।’
दूसरी ओर हमें पढ़ने को मिलता है कि इंद्र तो अजातशत्रु है। उनका कोई शत्रु कभी पैदा ही नहीं हुआ हो सकता है
आ उ मे निवरो भुवद्वृत्रहादिष्ट पौंस्यम् ।
अजातशत्रुः अस्तृतः ।। 8.93.15
जो किसी का बुरा नहीं करता, जो किसी का बुरा नहीं चाहता, जो सबका भला चाहता है, उस इंद्र का शत्रु कौन हो सकता है?
नासदीय सूक्त जो सबसे कठिन और दार्शनिक ऊंचाई की कविता है उसका आरंभ होता है, ‘न सत आसीत न असत आसीत तदानीम्’ परंतु यहां तो देखते हैं कि पूरा ऋग्वेद ही ‘ है भी नहीं और नहीं भी नहीं है। केवल एक सूक्त तक सीमित नहीं, पूरी ऋग्वेदिक कविता की समस्या है। जो मूर्त हैं, वह वायव्य हो जाता है, जो अमूर्त है वह भी मूर्त है। उसे अमूर्त बना दिया जाता है। असत्य होकर भी यह सत्य है इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता।
एक दूसरी समस्या है वे जो कुछ पार्थिव और विशेष है, उसको उसके अंतःसत्य के आधार पर सामान्य बनाकर उसकी पहचान को धुंधली बना देते हैं। हम पहचानते हुए भी संशय में पड़ जाते हैं। फिर वे झट पार्थिव से हट कर वैश्विक (कॉस्मिक) पर पहुंच जाते हैं।
यह खेल कई रूप में चलता रहता है ।
एक है भाषा का स्तर।
दूसरा है कार्य व्यापार का स्तर।
तीसरा परंपरागत का समसामयिक से घालमेल ।
यह सोचकर आश्चर्य होता है कि वे अनेक क्षेत्रों में उस ऊंचाई पर पहुंच गए थे, जिसमें आधुनिक जगत विज्ञान युग में पहुंचा है। इसका व्याख्यान करूँ तो मेरे कई मित्र जो मुझे अपने परिवार जैसा प्यार देते हैं, या तो मेरी हत्या कर देंगे, या स्वयं आत्महत्या कर लेंगे। विचारों के मामले में रियायत तो की ही नहीं जा सकती।
दुनिया भी मिली ऐसी
हरचंद बदलते हैं
बदली हुई दुनिया भी
फॉसिल नजर आती है।
अब तो शायरी विचार पर हावी हो गई। शायरी ही सही। समस्या है कि इतने प्राचीन समय में वैदिक ऋषि इन ऊंचाइयों पर कैसे पहुंचे थे जिनमें से कुछ तक आधुनिक जगत विज्ञान युग में पहुंचा है। कुछ नई ऊंचाइयों पर इनसे प्रेरित होकर पहुंचा है, जैसे सृष्टि की उत्पत्ति, शून्यवत पार्टिकल से ब्रह्मांड की सृष्टि और अकल्पनीय कालावधि के बाद पहले की संभावना, और कुछ अभी ऐसी है जिन तक विज्ञान युग की पहुंच हो ही नहीं सकी है,जैसे भाषा की उत्पत्ति।
आश्चर्य यह नहीं है कि ऐसा हुआ, आश्चर्य यह है कि या भौतिक उपकरणों के अभाव में ऐसा संभव कैसे हुआ। यहां मैं आइंस्टाइन के एक कथन को उद्धृत करना चाहूंगा।
" I did not arrive at my understanding of the fundamental laws of the universe through my rational mind."
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
ऋग्वेद की रहस्यमयता (2)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/2.html
#vss
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