कल से त्रिपुरा के अगरतला जिले के कलेक्टर शैलेश यादव का एक वीडियो वायरल है और वह वायरल वीडियो हमारे प्रशासनिक सिस्टम में व्याप्त अहंकार, जिद, बदतमीजी और जहां तक मैं देखता हूँ, वहां तक का मैं ही सम्राट हूँ, के वायरस से संक्रमित सिस्टम का ही एक उदाहरण है। वह वीडियो मैं यहां प्रस्तुत कर रहा हूँ। वीडियो एक विवाह समारोह का है। वर है बधू है, विवाह की वेदी है, मेहमान हैं, और विवाह संस्कार सम्पन्न कराने वाले पुरोहित भी हैं। विवाह की प्रक्रिया चल रही है। लोग इस आफत में भी जैसे तैसे यह मांगलिक कार्य सम्पन्न करा ही रहे हैं।
अचानक फिल्मी अंदाज में कलेक्टर साहब का मैरेज हाल में आगमन होता है और वे धमकाते हैं और कहते हैं सबको लॉक अप में ले चलो। जब उन्हें अनुमति पत्र दिखाया जाता है तो, वे उसे फाड देते हैं और सबसे कहते हैं कि बंद करो यह सब और बाहर निकलो। फिर वे मेहमानों को पीटते हैं, वर को उसके मुकुट सहित खींचते हैं, पीटते हैं, और उनके इस बदतमीजी से बेचारे पंडित जी भी नही बचते हैं और वे भी पिट जाते हैं।जब कलेक्टर का हांथ उठ गया तो सिपाही तो धुनने ही लगेंगे। और कहाँ तो यह शादी हो रही थी, पर अब सब को हवालात में बंद होने की नौबत आ गयी।
यहीं यह सवाल उठता है कि क्या एक कलेक्टर का ऐसा व्यवहार कानून की दृष्टि से उचित है ? सरकार ने खुद ही अपने कलेक्टर के ऐसे बदतमीजी भरे व्यवहार पर सख्त ऐतराज किया है और कलेक्टर को निलंबित भी किया है। कलेक्टर ने उत्पीड़ित परिवार से क्षमा याचना भी की है। पर कलेक्टर का यह कृत्य न तो उनके पद के अनुरूप था और न ही कानून के अनुसार उचित।
कलेक्टर को धारा 144 सीआरपीसी में या, अन्य निरोधात्मक प्राविधानों में, निषेधाज्ञा जारी करने का अधिकार है और कोविड प्रोटोकॉल के अंतर्गत, यहां भी कलेक्टर ने कोई न कोई निषेधाज्ञा जारी की होगी। हो सकता है विवाह की अनुमति रात 8 बजे तक की ही दी गयी हो। पर विवाह एक समारोह होता है, मांगलिक कार्य होता है और विवाह का एक तय मुहूर्त होता है। हो सकता है कुछ देर हो गयी हो और निषेधाज्ञा का उल्लंघन हो भी गया हो। अमूमन विवाह समारोहों में विलंब हो ही जाता है।
पर उस उल्लंघन पर इस प्रकार की प्रतिक्रिया अशोभनीय और अवांछित है। वे यह कह सकते थे कि, आप सुबह तक यहीं रहें और बाहर न निकलें और अपना कार्य पूरा करें। निश्चित ही कलेक्टर के इस मृदु व्यवहार पर, उन्हें सहयोग ही मिलता क्योंकि यह कोई राजनीतिक भीड़ नहीं थी, और न कोई धरना प्रदर्शन। बल्कि यह एक विवाह समारोह था। इसमे लोगो का खर्चा होता है, और कोई भी व्यक्ति जिसने अपने बेटे, भाई, बहन या बेटी का विवाह किया है वह इस नुकसान का दर्द आसानी से समझ सकता है।
वैसे भी एक कलेक्टर या मैजिस्ट्रेट को इस प्रकार की डंडेबाजी नही करनी चाहिए। कानून व्यवस्था के बड़े मामलों में ऐसी हरकतें थोड़ी बहुत चल भी जाती हैं, पर ऐसे निजी समारोह में यह सब बिल्कुल ही नहीं किया जाना चाहिए। अगर विवाह समारोह वाले चाहे तो अपने नुकसान की भरपाई के लिये अदालत मे दावा भी ठोंक सकते है, और यदि ऐसा दावा वे ठोकते भी हैं तो यह कलेक्टर साहब के लिये एक निजी मुकदमा होगा।
ऐसी ही एक घटना, मेरे सहकर्मी एक मैजिस्ट्रेट एसीएम से कानपुर में हो गयी थी, जिसे लेकर लखनऊ तक बवाल मचा और फिर वह भी माफी के बाद ही शांत हुआ। पर वह मामला विवाह समारोह का नहीं था। हुआ यह कि, 1988 में कानपुर में रावतपुर तिराहे पर राज्य कर्मचारियों का एक धरना चल रहा था। उसी में उद्य्योग निदेशालय और रोडवेज कर्मचारियों के एक असरदार कर्मचारी नेता भी भाग लेने जा रहे थे। मैं तिराहे पर ही था और मेडिकल कॉलेज चौराहे पर भी उक्त नेता की एक एसीएम साहब से किसी बात को लेकर भिडन्त हो गयी। वही इंस्पेक्टर स्वरूपनगर भी थे। बात बहुत गंभीर नही थी पर अचानक उक्त एसीएम साहब ने अपने हांथ में लिये डंडे से उक्त कर्मचारी नेता को पीट दिया। थोड़ी देर बाद जो धरना रावतपुर तिराहे पर हो रहा था वह मेडिकल कॉलेज गोल चौराहे पर आ गया। इंस्पेक्टर स्वरूप नगर ने किसी तरह से उक्त एसीएम साहब को वहां से हटाया।
देखते देखते धरना का मुद्दा ही बदल गया और बात एसीएम के तबादले और जांच की होने लगी। उस समय वरिष्ठ आईएएस अफसर, देवी दयाल साहब उद्य्योग निदेशक थे औऱ उनके हस्तक्षेप से धरना फिलहाल टल गया। दूसरे दिन उन्होंने डीएम, एसएसपी से कहा कि सीओ, एसीएम और इंस्पेक्टर को उनके आवास पर भेजा जाए। हम लोग देवी दयाल सर के आवास पर जो पत्थर कॉलेज, चंद्रशेखर आज़ाद कृषि विश्वविद्यालय के कैम्पस मे था वहां पहुंचे।
देवी दयाल ने पहला ही सवाल यह दागा कि, "आप तो मैजिस्ट्रेट हैं आप को यह मारपीट करने का अधिकार किसने दे दिया।" फिर मेरी तरफ इशारा कर के कहा कि "बल प्रयोग करने का और कितना बल प्रयोग करना है इसे तय करने का अधिकार तो इनका है। अब अगर वे नेता मुकदमा दर्ज कराते हैं या और कोई तमाशा करते हैं तो इसका खामियाजा कौन भुगतेगा। आप को तो इस तरह के मारपीट या पुलिस ज्यादती की जांच करनी चाहिए तो आप वहां, जहां इंस्पेक्टर खड़ा है, और वह आप को रोक भी रहा है, और आप मारपीट पर उतारू हैं।" फिर उन्होंने कहा कि " आप दोनो जाइये उक्त कर्मचारी नेताओ से मिलिए औऱ इसे हल कीजिए।" फिर हम लोग नेताओ के पास गए और फिर यह मामला सुलझा। दोनो ही तरफ से अफसोस व्यक्त किया गया।
ऐसी बहुत सी घटनाये कानून व्यवस्था के दौरान हो जाती हैं। पर ऐसे समय पर भी धैर्य और विवेक ही काम आता है। दरअसल जब सख्त प्रशासन की बात होती है तो उसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि एक असंवेदनशील और बदतमीज प्रशासन हो। सख्ती का अर्थ और अभिप्राय, कानून की सख्ती है न कि डंडे की सख्ती। यह सख्ती भी कानून व्यवस्था की विभिन्न परिस्थितियों को देख कर की जाती है। जैसे यदि साम्प्रदायिक दंगे भड़क गए हैं तो वहाँ अतिशय बल प्रयोग भी करना पड़ सकता है, और किया भी जाता है, पर ऐसे विवाह समारोह से जुड़े निषेधाज्ञा उल्लंघन के समय दंगे रोकने के नुस्खा से काम नही चलाया जा सकता है। जनता भी कभी कभी मरकहवा अफसर पसन्द करती है पर जब खुद पर पड़ती है तो ऐसे ही अफसरों के खिलाफ वह खड़ी भी हो जाती है।
यह गुस्सा, यह तेवर, यह अंदाज, इनका स्वभाव नही है सख्त दिखने का एक नाटक है। ऐसी सख्ती ऐसे ही निजी समारोहों में दिखती होगी इनकी। पर जब किसी चुनावी रैली में, जहां आयोग के आचार संहिता की धज्जियां बड़े नेताओं द्वारा उड़ाई जा रही होंगी तो ऐसे अंदाज़ वाले अफसर, सारी जिम्मेदारी अपने कनिष्ठ अफसरों पर छोड़ कर, कहीं सरक जाते हैं, और तब न उनके यह अंदाज़ दिखते हैं, न तेवर न रुआब। वे राजनीतिक बैर कम ही लेते हैं।
( विजय शंकर सिंह )
No comments:
Post a Comment