जब मैं इस बात की शिकायत करता हूं कि मेरी जानकारी के वैदिक विद्वान वागम्भृणी सूक्त को नहीं समझ सके तो यह याद दिलाना जरूरी है कि यदि मैं अपने लीक से हटकर किए गए प्रयोगों से इस निष्कर्ष पर न पहुंच गया होता तो मैं भी इसे समझ न पाता और समझ जाने के बाद भी प्रस्तुति ऐसी थी कि मैं अपने समर्थन में इसको उद्धत करने का साहस नहीं जुटा सका था। इस दुविधा में पड़ा रहा कि कहीं मुझसे कोई खींचतान न हो रही हो।
मैं यह निवेदन तो नहीं कर सकता कि मैं सही निष्कर्ष पर पहुंच चुका हूं,, न ही हम हम भाषा की उत्पत्ति विचार कर रहे हैं। इस प्रसंग को यहां इसलिए छेड़ बैठे कि वैदिक कवियों ने यदि गंभीर विषयों पर विवेचन का कोई दूसरा तरीका निकाला हो और उसमें, मिसाल के लिए, पारस्परिक शास्त्रार्थ में, वे विषय केंद्रित रहकर बातें करते रहे हों, तो वह एक अलग बात है। ऋचाओं में वे अपने कथन को इसलिए गूढ़ बनाते हैं कि इसकी गुत्थियां सुलझाने में किया गया श्रम, कथ्य के प्रभाव को गहन बनाता है।
यह उस युग की सीमा कही जा सकती है। उनकी रचनाओं में बौद्धिकता प्रधान है हार्दिकता या राग आत्मकथा का नितांत अभाव।
आज हम कृति के प्रभाव को मार्मिक बनाने के लिए, उसे संवेद्य बनाने की विविध युक्तियों का प्रयोग करते हैं, यह काम वे चमत्कार पैदा करके करना चाहते थे। इसकी विरासत सिद्धों, जोगियों या जोगियों और संतों के बीच की कड़ी बने कबीर ने और लोकरंजन के लिए पहेलियां (बुझौवल) के रूप में जन समाज ने प्राप्त किया ।
यद्यपि काव्य में आनन्दानुभूति की बात सबसे पहले वैदिक कवि करते हैं (तयोरिद् घृतवत् पयो विप्रा रिहन्ति धीतिभिः । गन्धर्वस्य ध्रुवे पदे ।। 1.22.14) परंतु लगता है, यह ज्ञानामृत पान का आनंद है, भावों की रसानुभूति का नहीं। इसी ब्रह्मानन्द की बात भर्तृहरि भाषा के विषय में करते हैं। हम यह कह सकते हैं कि अनुभूति को ब्रह्मानंद सहोदर मानने के पीछे इसका हाथ अवश्य है।
सूक्त 10.125 के ऋषि या पात्र और विषय या देवता दोनों वाक् ही है। वाणी स्वयं अपनी महिमा का आख्यान करती है जो समस्त सृष्टि को अपने भीतर समाहित किए हुई है इसलिए विषय या देवता के रूप मे आत्म (आत्म-कथन)के आशय में आत्मा रखा गया है न कि स्पिरिट के आशय में जिसे ग्रिफिथ ने मान लिया। आत्मा का एक अर्थ स्वभाव है। वागम्भृणी का अर्थ है जल से उत्पन्न वाक्। अम्ब का पूरबी रूपअम्भ (अंबुज/अंभोज) भी चलता रहा। इसमें (-शील) का द्योतक इन प्रत्यय कास्त्रीलिंग प्रयोग हुआ लगता है जैसा हम गृहिणी में पाते हैं।
जल से भाषा की उत्पत्ति या भाषा की जलमूलकता हमारी कल्पना नहीं, इस सूक्त में स्पष्ट कहा गया है, फिर भी जो समझ में आता है वह भी दुर्बोध और इसलिए अग्राह्य प्रतीत होता है।
अचरज इस बात पर होता है कि भारतीय वैयाकरणों में इस सूक्त से सबसे अधिक प्रभावित और इसकी अंतर्वस्तु के सबसे अधिक निकट प्रतीत होने वाले भाषा दार्शनिक भर्तृहरि भी इसके महत्व को रेखांकित नहीं कर सके और वह उस अवस्था में ही रुके रह जाते हैं जहां मैं 1973 में अपने स्रोतों की छानबीन के माध्यम से पहुंचा था, यद्यपि न मुझे स्फोट शब्द का ज्ञान था, न ही वाक्पदीयम् का नाम पता था। यदि पता होता तो मेरी चिंता धारा बदल गई होती और संभव है, रुक गई होती।
हम इस बात पर विचार करें कि भाषा विषयक परवर्ती भारतीय चिंतन विश्व में अनन्य सिद्ध होने के बाद भी, वेद की भाषा को समझने के जुझारू प्रयत्न के बाद भी, उस स्तर तक नहीं पहुंच पाया जिस स्तर तक वैदिक समाज पहुंच चुका था।
अपने इस दुस्साहसिक दावे को स्वीकार्यता के निकट पहुंचाने के लिए मैं यह दिखाना चाहूंगा कि
(1) भर्तृहरि वेद के चिंतन, उसकी महिमा, उसकी प्रामाणिकता के इतने कायल हैं कि वह वेद लिखित को प्रत्यक्ष ज्ञान के समान मानते हैं। इसको मैं प्रमाणित नहीं करना चाहूंगा, क्योंकि यह उनके पूरे चिंतन में विद्यमान है। जिसे हमने वस्तु जगत की विविध क्रियाओं से उत्पन्न ध्वनि कहा था उसे वह ध्वनि न कह कर स्फोट कहते हैं इसलिए घंटी की आवाज भी स्फोट है[1], और अनादिनिधन सृष्टि के बीज ब्रह्म और सृष्टि का कारण स्फोट को मानते है साथ ही हमारे सामान्य व्यवहार में उत्पन्न नादों/ध्वनियों को वह उसी समकक्षता में रखते हैं। मात्र शब्दों का अंतर है, अभिप्रेत एक ही है।
(2) इस बात पर ध्यान देना जरूरी है कि भर्तृहरि समस्त सृष्टि को उन वस्तुओं तक सीमित कर देते हैं जिनसे ध्वनि उत्पन्न होती है। जो इसके परे आते हैं उनके लिए उन्होंने कल्पना शक्ति से काम चलाना चाहा। बिना अरे का पहिया, बिना सींग का मृग होता नहीं है परंतु हम शब्दों के माध्यम से उसकी सर्जना कर लेते हैं। परंतु हमारी कल्पना वस्तु जगत के ज्ञान और अनुभव से किसी न किसी रूप में जुड़ी होती है और जुड़ाव के इन सूत्रों के माध्यम से ही सबसे प्रभावशाली नादस्रोत पर ध्यान जाना चाहिए था, जो नहीं जा सका।
भर्तृहरि की सीमा को ना पहले समझा जा सकता था न अब समझाया जा सकता है, परंतु वेद के सामने वह भी नतमस्तक हैं और हम भी दूसरे कारणों से नतमस्तक अनुभव करते हैं। हमने संस्कृत के धातु शब्द को अपर्याप्त मानते हुए ध्वनि बीजों की बात की थी, भर्तृहरि उन्हें धातु न कह कर स्फोट का अणु कहते हैं,उन्हें सर्वशक्तिमान मानते हैं
अणवः सर्वश्क्तित्वात् भेदसंसर्गवृत्तयः ।
छायातपतमः शब्द भावेन परिणामिनः ।।
जबकि हम उनको कार्य कारण और साधर्म्य के आधार पर सीमित दायरे में ही प्रयोज्य मानते थे जो अधिक सही है।
लगता है मैं आज भी मूल विषय से भटक गया। यह विषय केंद्रित विश्लेषण न हो कर ब्याज रूप में आत्मस्तुति हो गई।
नादब्रह्म की महिमा तक तो ठीक था, परंतु वह इस तथ्य को भुला बैठे कि ब्रह्म सहित परमेश्वर के दूसरे सभी नाम जल की ध्वनियों के पर्याय हैं. या इसे कुछ आग्रहों के कारण, ऐसे मुहावरों में समझ पाए जो हमारी तर्क शृंखला को एक अलग दिशा में ले जाते हैं।
यदि किसी को लगता हो कि मैं अपने को भर्तृहरि से भी बड़ा सिद्ध करना चाहता हूं, तो यह गलत है। हम केवल यह निवेदन करना चाहते हैं कि हमें इस आस्थावादी शिकंजे से बाहर आना चाहिए कि हमारे महान चिंतक जो कुछ ऐसा कह आए हैं कि जिसका लोहा आज का पश्चिमी जगत भी मानता है, या जानने और मानने के बाद ही नई ऊंचाइयों पर पहुंचा है, उससे आगे कोई चिंतन संभव नहीं है. उसे आत्मसात कर चुके पश्चिमी ज्ञान का कोई तोड़ नहीं हो सकता या भारत के किसी प्राचीन चरण पर इससे ऊंचा चिंतन संभव नहीं है, और आज कोई ऐसी मेधा पैदा नहीं हो सकती जो अधिक सही विवेचन न कर सके, तो यहां मैं अपने को ऋषि-ऋण से मुक्ति के लिए ऐसा करना अपना उद्धार मानता हूं।
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[1]स्फोटस्याभिन्नकालस्य ध्निकालानुपातिनः।
ग्रहणोपाधिभेदेन वृत्तिभेदं प्रचक्षते।। 1/75
भगवान सिंह
(Bhagwan Singh)
ऋग्वेद की रहस्यमयता (15)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/15.html
#vss
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