Wednesday 14 April 2021

ऋग्वेद की रहस्यमयता (12)

वाणी के उद्भव और व्याप्ति पर केंद्रित  यह सूक्त (ऋ.10.125) कुछ दृष्टियो से नासदीय सूक्त (10.129) से भी अधिक पेचीदा है, क्योंकि इसके संदर्भ इस तरह बदलते हैं कि पाठक ठगा सा  रह जाता है।  समस्या  ऋषि नाम से ही आरंभ हो जाती है। ऋषि और देवता शब्द बहुत भ्रामक हैं।  सौनक के अनुसार संवाद सूक्तों में जो बात किसी से  कहलाई जा रही है वह उसका ऋषि है और जो कुछ उसके  द्वारा कहा जा रहा है,  वह देवता है।  अर्थात् ऋषि वास्तव में उन ऋचाओं के कवि नहीं है, जिनका नाम सूक्तों के साथ आया है,   ये पात्र हैं,   और देवता देवता नहीं है, वर्ण्य  विषय (द्योतित) या कथ्य है। उन्होंने जो बात  संवाद सूक्तों  के विषय में कही है वह पूरे ऋग्वेद पर लागू होती है। वंश मंडलों (फैमिली बुक्स) के विषय में  कुछ दुविधा हो सकती है। हम इसके विस्तार में जाना नहीं चाहते (देखें,  हड़प्पा सभ्यता और वैदिक साहित्य,2016; 28-  32)।  इससे ऋग्वेद का ढाँचा  बदल जाता है,  परंतु इसे समझे बिना,  तरह-तरह की पहेलियां बुझानी पड़ती हैं, और फिर भी संतोष नहीं होता।  

इस सूक्त की ऋषिका वागम्भृणी है और देवता (वर्ण्य विषय) आत्मा है। सायण इन दोनों के विषय में दुविधा में दिखाई देते हैं।  पहली  बात, उन्हें वागम्भृणी  का अर्थ समझ में नहीं आता। वह वागंभृण नाम के एक पिता की कल्पना करते हैं,  जिसका कहीं अस्तित्व नहीं है।  वागम्भृणी को  उनकी पुत्री बता देते हैं। 

यह संस्कृत पंडितों की आखिरी ढाल रही है।  गार्गी के साथ  ‘वाचक्नवी’   विशेषण लगा है।  अर्थ समझ में नहीं आया तो पंडितों ने  वचक्नु नाम  के पिता की कल्पना कर ली, और गार्गी को   उनकी पुत्री  बता दिया।  परंतु कोई पूछे कि वचक्नु का अर्थ क्या था, तो फंदा  फिर गले आ पड़ेगा।  

वाचक्नवी का अर्थ है, वाग्विदा, विदुषी।   इसमें प्रयुक्त क्न वही है जिसे हम  अंग्रेजी के क्नो (know),   लातिन के ग्नोस (gnos), भारतीय भाषाओं में ज्ञ, ज्न, ग्न, जिनसे ज्ञान,  जानना,  गिनना, आदि शब्द निकले हैं,  में पाते हैं। और ऐसा भी नहीं क्न से कुछ निकला ही न हो,  अकनना उसी से निकला है।  मूल की ओर लौटने पर आप को तमिल का कण्- आँख, सं/.हि कनीनिका, निषेधपरक काना/ काणा,  धनात्मक कण्व (ज्ञानी) , प्रस्कण्व (विचक्षण) पाते हैं और  संभावना यह पैदा होती है  कि कान (ज्ञान का प्रमुख स्रोत, क्योंकि लिखित साहित्य न था, या नाममात्र को था, इसलिए ज्ञानी को बहुपठित नहीं, बहुश्रुत कहा जाता था) मूल हो। कर्ण , जिसका हम इसे तद्भव  मानते हैं,  स्वयं अपने मूल कान का,  कौरवी प्रभाव में, तद्भव  रूप हो।  

हम वागम्भृणी  पर आएँ । सायण इसका भाष्य करते हुए लिखते हैं,
 ‘अम्भृणस्य महर्षेर्दुहिता, वाङ्नाम्नी ब्रह्मविदुषी स्वात्मानमासीत्। अतः सर्षिः। सच्चित्सुखात्मकः सर्वगतः परमात्मा देवता। तेन ह्येषा तादात्म्यं अनुभवन्ती सर्वजगद्रूपेण  सर्वस्वस्याधिष्ठानत्वेन चाहमेव सर्वं भवामीति स्वात्मानं स्तौति।’
इसे हिंदी में कहें तो अम्भृण ऋषि की   ब्रह्मज्ञानी  वाक् नाम की  पुत्री स्वयं अपनी वंदना करती है। इसलिए  वह ऋषि है।  इसका सत, चित, सुख रूप में सर्वविद्यमान परमात्मा  देवता है।   उसके साथ वह अपना तादात्म्य अनुभव करती हुई यह मान लेती है कि  उसका भी सर्वत्र निवास है और कामना करती है कि सर्वत्र मैं भी होऊँ और इस रूप में अपनी वंदना करती है।’  इस पर  हम विस्तार से कुछ कहने की जरूरत नहीं समझते,  इतना ही कहना काफी है की नींव ही गलत हो गई,  इमारत तो गलत होगी ही।  इसकी समझ गलत तो होगी ही। 

मैं पाश्चात्य अध्येताओं  की आलोचना  करने में अपने समय के दूसरे सभी विद्वानों से आगे पड़ता हूं,  परंतु उनको पढ़े बिना ही अज्ञानावेश वश जो लोग उन्हें मूर्ख मान लेते हैं उनको समझना चाहिए कि वे आधुनिक काल के ऋषि हैं।  इसके साथ हमें यह मानना होगा कि जिस तरह वसिष्ठ  और विश्वामित्र में मनोमान्य,  और चारित्रिक सीमाएं  अधिक प्रबल थीं,  पूर्वाग्रह  ही  वैसी ही प्रबलता  आधुनिक युग के इन ऋषियों में भी, अनेक कारणों से, हैं।   मानवीय दुर्बलताओं का आरोपण तो देवताओं पर भी कर लिया जाता है। इन्होंने हमसे  बहुत कुछ सीखा है, हमारे ऋषियों की तरह इन्होंने  जानवरों से भी बहुत कुछ सीखा है,  परंतु हमने न उनसे कुछ सीखा, न  जानवरों से कुछ सीख पाते हैं। हम इतने समझदार हो चुके हैं कि अपने  अनुभवों,  विफलताओं और व्यर्थताओं से भी नहीं सीख पाते। मूर्ख वह नहीं होता जो कुछ जानता ही नहीं,  वह तो अज्ञानी होता है।  मूर्ख वह होता है जो अपनी प्रतिभा पर इतना भरोसा करता है कि अपने अनुभवों से, अपनी विफलताओं से भी,  कुछ सीख नहीं पाता।  यह सोच कर दुख होता है कि अपने अतीत पर गर्व करने वाला हमारा समाज  दूसरों पर हंसने का इतना आदी हो चुका है,  कि  उनसे कुछ सीखना और अपने आप पर हंसना भी भूल गया है। 

अधिक विस्तार में जाना संभव नहीं है,  अवकाश भी नहीं है।  परंतु  इसी शब्द की व्याख्या में ग्रिफिथ ने संभवतः बर्गेन (Bergaigne) के भरोसे जो कुछ कहा है वह ध्यान देने योग्य है: 
Vak is  Speech Personified, the Word, the first creation and representative spirit,  And the means of communication between men and gods: Here she is said to be the daughter of the Rishi, Ambhrina.
अर्थात  सायण  की सीमाओं को जानते हुए भी,    उनसे बचकर निकलने की कोशिश के बाद भी, वे इतना साहस नहीं जुटा सके कि इसकी  विश्वसनीय व्याख्या कर सकें। 

उपनिषदो में जहां अध्याय की व्यवस्था है, वहाँ  ध्यान इस पर दिया गया है कि एक दिन में श्रोता या पाठक कितना पचा सकता है। मुझे उनकी  व्यवस्था  का सम्मान तो करना ही चाहिए।

भगवान सिंह 
Bhagwan Singh

ऋग्वेद की रहस्यमयता (11)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/11.html 
#vss

No comments:

Post a Comment