Friday 25 November 2016

एक कविता - सर्दियां फिर आ गयी हैं / विजय शंकर सिंह

एक कविता,
सर्दियाँ फिर आ गयी हैं !

मैंने कहा था न सर्दियां आएंगी ,
सूरज जल्दी से रुखसत हुआ करेगा ,
और सुबह भी देर से काम पर आएगा ,
रातें लंबी और दिन जल्दी बीतेंगे ,
लोग जो देर तक दरवाजों के इर्द गिर्द
दुनिया जहान की बातें किया करते थे
अब अपने अपने दड़बों में जल्दी दुबक जाएंगे ।

रात के सन्नाटे बढ़ेंगे , और
मेरे घर के इर्द गिर्द फैला हुआ जंगल
कुहरे का लिहाफ ओढ़े
सूरज की प्रतीक्षा में यूँ ही उबासियाँ लेता रहेगा .
दिनभर की मेहनत के बाद,
लिहाफ में धँसे हुए,
कुर्सी के हत्थों के बीच,
कभी कुनमुनाते हुए , तो कभी,
उदास से जम्भाईए लेते हुए ,
कुछ पहरेदार,
तारों में, सहर की आमद ढूंढते रहेंगे ।

ऐसी ही किसी खामोश ,
रात के अँधेरे पलों में
दरवाज़े पर हलकी सी एक थाप
चौंका देती है मुझको ,
कौन आया इस वीरान और सन्नाटे भरी निशा में ,
मैं तो मुन्तज़िर भी नहीं किसी का ,
और, तलबगारी
तो अरसा हुआ छूट गयी ,
हवा के किसी पागल और आवारा टुकड़े की
शरारत थी यह थाप ।

ऐसे ही किसी रात,
अँधेरा जब पसर रहा हो तो,
तैरते हुए यादों के मेघ पर, आ जाना
ढेर सारी बातें अभी बाकी हैं ,
और सुनों
सर्दियां फिर आ गयीं हैं
और सन्नाटे भी फिर पसरने लगे हैं !
रातें धुंधली और दराज़ होने लगी है !!

( विजय शंकर सिंह )

Thursday 24 November 2016

Thanks Giving Day - धन्यवाद दिवस - एक ऐतिहासिक विवेचन / विजय शंकर सिंह

भारतीय परम्परा में धन्यवाद दिवस या thanksgiving day की कोई अवधारणा नहीं है । आभार यहां की परम्परा का स्थायी भाव है । सारा वैदिक साहित्य देवों जो मूलतः प्रकृति के ही विभिन्न रूप है, की स्तुति में उन्ही को समर्पित है । स्तुति के हर शब्द और स्वर से आभार ही तो अभिव्यक्त होता है । यह आभार की महत्ता को प्रदर्शित करता है । लेकिन अब दुनिया चपटी हो गयी है । क्षितिज समाप्त हो गया । हम हर जगह झाँक सकते हैं और वह भी बिना वहाँ  गए , बिना उन्हें जनाए, सब जान सकते हैं, अब हम सबके पास वह तरकीब है जो महाभारत में केवल संजय को थी, कि हम दूर बैठे हुए घटित अघटित सब देख सकते हैं । दुनिया छोटी तो हुयी है, पर आभासी भी हो गयी है । इस आभासीपन ने संसार को संसार में ही अकेला कर दिया है । पर यह भी सही है कि,  यह अकेलापन इसी आभासी तंत्र द्वारा अकेला लगता भी नहीं है । फादर्स डे, मदर्स डे, आदि दिवस उस सभ्यता की देन है जहां वयस्क होते ही बच्चा परिवार से दूर चला जाता है पर हमारे समाज में 60 साल का होने पर भी व्यक्ति अगर उसकी माँ जीवित है तो बचवा ही बना रहता है । यह जो पारिवारिक अनुराग है, स्नेह है वह जीवन में कई बार आसन्न खतरे से उतपन्न स्वेद से भी बचा लेता है । हम अकेला नहीं महसूस कर पाते है । फिर भी अमेरिका और कनाडा में प्रचलित thanks giving day, यानी धन्यवाद दिवस की परम्परा है तो इसका भी निर्वाह किया जाना चाहिए ।

Thanks giving day धन्यवाद दिवस, मूलतः अमेरिका और कनाडा में फसलों की आमद पर धन्यवाद दे कर मनाया जाता है । फसल जीवन का आधार है । फसल का होना और फिर सुरक्षित सारा अनाज , भूंसा घर के बखार में आ जाना, किसी भी किसान के लिए सबसे आह्लादित पल होता है । भारत में भी बैसाखी, पोंगल, ओणम आदि पर्व धान्य आगमन के उत्सव के रूप में मनाये जाते हैं । कनाडा में यह पर्व अक्टूबर के द्वीतीय सोमवार को और अमेरिका में नवम्बर के अंतिम गुरुवार को मनाया जाता है । हालांकि इस परम्परा की जड़ें इतिहास के अंदर भी हैं । यह सभी धर्म, जाति और सम्प्रदाय द्वारा मनाया जाता है ।

इसकी परम्परा प्रोटेस्टेंट सुधार के समय इंग्लैंड में शुरू हुयी थी । इंग्लैंड में जब प्रोटेस्टेंट सुधार का कार्यक्रम हेनरी अष्ठम के समय शुरू हुआ तो उस समय वहाँ कैथोलिक धर्म की बहुत सी छुट्टियाँ होती थीं । इंग्लैंड का ईसाई धर्म कैथोलिक पोप के नियंत्रण से दूर हो कर प्रोटेस्टेंट  ईसाई सुधारवादी धर्म का कलेवर धारण कर रहा था । 1536 ईस्वी के पूर्व इंग्लैंड में 52 रविवारों के अतिरिक्त चर्चों के 95 की संख्या में  अवकाश के दिन थे । इस प्रकार वहाँ 365 दिन के वर्ष में, 147 दिन अवकाश के ही होते थे । पर 1536 के कैलेंडर में सुधारवादी आंदोलन के बाद चर्चों की छुट्टियां घटा कर 27 कर दी गयी । कुछ लोगों ने इसे भी समाप्त करने की मांग की और कुछ ने तो क्रिसमस और ईस्टर की भी छुट्टियाँ रद्द करने की बात कही । इन पर्वों पर लोग उपवास रखते थे और विशेष प्रार्थनाएं करते थे । लेकिन कुछ ऐसी आपदाएं ब्रितानी समाज में आयीं कि लोग प्रकृति के प्रति आभार या धन्यवाद की प्रार्थनाएं करने लगे । यह thanks giving का प्रारंभ काल था । ब्रिटेन में  सन् 1611 में भयंकर अकाल पड़ा, 1613 में प्रलयंकर बाढ़ आयी और 1604 तथा 1622 में, में विनाशकारी प्लेग फैला । भारी संख्या में जन धन की हानि हुयी । इन सब प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के बाद थैंक्स गिविंग असेंब्लीज़ चर्चों में होने लगी । इसके पहले 1528 ईस्वी में स्पेनिश आरमदा, जो एक बड़ी सामुद्रिक घटना थी, के समय  और 1705 ईस्वी में महारानी एन्ने Queen Enne के शासन काल में, यह औपचारिक रूप से मनाया जाने लगा था । लेकिन इसके नियमित मनाने की कोई परंपरा तब तक भी नहीं पडी थी ।

अमेरिका और कनाडा मूलतः यूरोपीय या ब्रिटिश उपनिवेश ही थें। कनाडा में यह परम्परा कहते हैं, 1548 ईसवी में शुरू हुयी । इसका कारण फसल नहीं बल्कि उन यूरोपीय लोगों का सकुशल कनाडा की धरती पर पहुंचना था जो अंध महासागर के उत्तरी पैसेज से होते हुए खोजी नाविक मार्टिन फॉर्बिशर के साथ सुरक्षित पहुंचे थे । फॉर्बिशर के इस अभियान के सुरक्षित रूप से संपन्न होने पर, बफ्फिन आइलैंड Buffin Island जो अब नुनावुट Nunavut कहा जाता है में पहली औपचारिक थैंक्स गिविंग समारोह पादरी रोबर्ट वोल्फल द्वारा संपन्न किया गया । कनाडा में इस दिवस के प्रारंभ के पीछे फ़्रांस से आये हुए लोगों के सुरक्षित पहुँचने का भी कारण भी कुछ लोग मानते हैं । 17 वीं सदी में फ्रेंच यात्री सैमुअल द चैंप्लें के सुरक्षित पहुंचने और उसके द्वारा भोज देने के कारण भी यह पर्व मनाया गया था , ऐसा भी लोग मानते हैं । कारण क्या था इस पर बहुत ही मत मतांतर है । पर एक कारण स्पष्ट है कि, अंध महासागर के तूफानी मौसम को पार कर एक सर्वथा नए और अलग थलग पड़े महाद्वीप में सुरक्षित पहुंचना भी किसी संतोष और आह्लाद से कम नहीं रहा होगा । मंज़िल पर सुरक्षित पहुँचने का आह्लाद स्वाभाविक रूप से आभार का भाव उत्पन्न करता है । जब यूरोप के अन्य देशों और इंग्लैंड से खेप के खेप आप्रवासी यहां पहुँचने लगे तो यह धन्यवाद प्रार्थना अपने आप ही उत्सव में बदलने लगी । अब यह कनाडा का मुख्य आयोजन ही हो गया है।

अमेरिका में भीं इसका प्रारंभ ऐसे ही हुआ । दस्तावेजों के अनुसार, अमेरिका के प्लेमाउथ में जो मैसाचुसेट राज्य का अंग है में 1621 में आये हुए प्रवासियों और प्रोटेस्टेंट ईसाईयों ने पहला थैंक्स giving आयोजन किया था । अमेरिकी इतिहास कार जेरेमी बैंग्स के अनुसार, जो लीडन अमेरिकन पिल्ग्रिम्स म्युज़ियम के निदेशक भी थे, 1574 ईस्वी में लीडन के युद्ध के बाद जिसमे लीडन को अमेरिका के मूल निवासियों से जीता गया था, की प्रसन्नता में औपचारिक धन्यवाद सभा की गयी थी । ऐसी ही सभा बोस्टन में 1631 ई में भी आयोजित की गयी थी । मैसाचुसेट्स के गवर्नर ब्रैडफोर्ड  ने 1623 में औपचारिक रूप से फसलों के कटने पर ईश्वर को धन्यवाद देने के लिए इस पर्व को मनाने और प्रार्थनाएं करने का एक आदेश जारी किया । 1682 तक यह उत्सव केवल चर्चों द्वारा ही आयोजित किया जाता था, राज्य की कोई भूमिका इसमें नहीं थी । 1682 के बाद से ले कर अमेरिकी क्रान्ति तक राज्य भी इस समारोह में शामिल हो गया । औपचारिक रूप से अमेरिका में पहला थैंक्स गिविंग समारोह 26 नवम्बर 1789 को जनता की ओर से आयोजित किया गया । यह ईश्वर को उसकी अनुकंपाओं के लिए धन्यवाद था जो बाद में धीरे धीरे परम्परा में समाता गया । हालांकि इस उत्सव की तिथि को ले कर भी विवाद कम नहीं हुआ है । एक विवाद इस विषय पर भी हुआ कि क्या यह एक धार्मिक  आयोजन है या सामाजिक । अमेरिका और कनाडा का समाज मूलतः प्रवासी समाज है । प्रारंभ में तो वहाँ  पहले इंग्लैंड से ही लोग वहाँ भेजे गए । फिर यूरोप के अन्य देशों से भी वहाँ पारगमन हुआ । काम करने के लिए अफ्रीका से दास बना कर अफ्रीकियों को यूरोपियन गोरे ले गए । रूस से वहाँ कम ही लोग गए । अब तो भारत सहित एशिया से भारी संख्या में लोग अमेरिका और कनाडा में बस रहे हैं । इस से वहाँ की संस्कृति अपने आप बहुलतावादी होती गयी पर वहाँ ईसाई धर्म का वर्चस्व बना रहा जो आज भी हैं।

कनाडा में औपचारिक रूप से यह दिवस 15 अप्रैल 1872 को मनाया गया । प्रिंस ऑफ़ वेल्स जो बहुत ही अधिक बीमार थे के स्वस्थ होने पर एक धन्यवाद प्रार्थना सभा के रूप में यह दिवस  मनाया गया । इसके पहले जब कनाडा का एकीकरण नहीं हुआ था तो विभिन्न राज्यों के गवर्नर अपने अपने राज्य में अलग अलग तिथियों को यह पर्व मनाते थे । लेकिन उन्नीसवीं सदी के अंत तक यह दिवस 6 नवम्बर को मनाया जाने लगा । प्रथम विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद दिवंगत   सैनिकों की याद में आरमिस्टिस दिवस मनाया जाता था, जो अक्टूबर में ही पड़ता था । छुट्टियों की संख्या कम करने के लिए धन्यवाद दिवस और आरमिस्टिस दिवस भी एक ही दिन 1957 ई में कर दिया गया । अब यह अक्टूबर के द्वीतीय सोमवार को मनाया जाता हैं।

अमेरिका में भी इस दिवस के मनाये जाने की कोई आधिकारिक तिथि तय नहीं थी । अमेरिकी लेखक सारा जोसेफा हेले के 40 वर्षीय अभियान के बाद, 1863 में अमेरिकी राष्ट्रपति ने एक अधिघोषणा की । इसके अनुसार यह नवम्बर के आखिरी वृहस्पतिवार को मनाया जाना घोषित हुआ । लेकिन बीच में जब अमेरिका लंबे समय तक गृह युद्ध में फंस गया तो, 1870 ई तक यह समारोह स्थगित रहा । तब तक अमेरिका का पुनर्निर्माण चल रहा था । इसके बाद यह पर्व नवम्बर के चौथे वृहस्पतिवार को पुनः मनाया जाने लगा । 1941 ई तक यही स्थिति चलती रही । 26 दिसम्बर 1941 को राष्ट्रपति रूज़वेल्ट ने इसे संशोधित कर के नवम्बर के अंतिम गुरुवार को इस पर्व को मनाए जाने का प्रस्ताव अमेरिकन कांग्रेस से पारित करवा दिया । तब से यह  नवम्बर के अंतिम गुरुवार को ही मनाया जाता है ।

यह धन्यवाद दिवस की ऐतिहासिक विवेचना है । आप सब मित्रों का धन्यवाद ।

( विजय शंकर सिंह )

Tuesday 22 November 2016

डॉ विवेकी राय का निधन- उन्हें विनम्र श्रधांजलि / विजय शंकर सिंह


डॉ विवेकी राय नहीं रहे । 93 वर्ष की आयु मैं उन्होंने संसार को अलविदा कहा । अंतिम समय उनका वाराणसी में व्यतीत हुआ । अंतिम सांस भी उन्होंने काशी में ही ली । मूल रूप से वे बलिया जिलें के भरौली गाँव के रहने वाले थे । कुछ अख़बार उन्हें हिंदी और भोजपुरी के एक बड़े साहित्यकार के रूप में उनके अवसान की ख़बरें दे रहे हैं । मुझे इस खबर पर आपत्ति है । वे बड़े साहित्यकार तो थे ही, इसमें किसी को संदेह नहीं है पर वे हिंदी भाषा के साहित्यकार थे । उनका लेखन भोजपुरी में भी है । भोजपुरी हिंदी की एक बोली है न कि कोई अलग भाषा है । वे जिस इलाके के थे वह साहित्यिक दृष्टिकोण से बहुत ही उर्वर क्षेत्र हैं। बलिया के ही आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी थे । बलिया, ग़ाज़ीपुर, वाराणसी, अब मेरे जिले चंदौली को भी इसमें नत्थी कर लीजिये तो यह एक ही परम्परा , रीति रिवाज़ और प्रकृति का क्षेत्र है । आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी , डॉ शिव प्रसाद सिंह, डॉ नामवर सिंह, डॉ काशीनाथ सिंह, डॉ राही मासूम रज़ा, जैसे दिग्गज साहित्यकारों ने इस मिट्टी में जन्म लिया है । ऐसे ही साहित्यिक रूप से उर्वर क्षेत्र में विवेकी राय का जन्म 19 नवम्बर 1924 को हुआ था । 

उनकी प्रारंभिक शिक्षा सोनवानी गाँव जो ज़िला ग़ाज़ीपुर में है, हुयी थी । राय साहब की पृष्ठभूमि ग्रामीण थी । माटी की गंध इन्होंने महसूस की थी । गाँव की समस्याएं , लोगों की बातचीत , रस्म ओ रिवाज़, गाँव के रगड़े झगड़े, लोकाचार के विभिन्न रूप इन्होंने खुद देखा और उनके साहित्य में करईल माटी की गंध की तरह उतरता  रहा ।  भोजपुरी इनकी मातृभाषा थी । भोजपुरी का कोई लिखित साहित्य नहीं होता था पहले । लेकिन वाक् साहित्य से समृद्ध इस बोली में भी इन्होंने अपनी कलम चलायी । शिक्षा दीक्षा के बाद वे अध्यापन कार्य से जुड़े । उनका लेखन कर्म तभी प्रारम्भ हुआ । हम लोग जब विश्वविद्यालय में थे तो उस समय सारिका, कादम्बिनी, साप्ताहिक हिंदुस्तान और धर्मयुग जैसी स्तरीय पत्रिकाएं निकलती थी । डॉ साहब की कहानियां अक्सर इनमे से किसी न किसी पत्रिका में छपती रहती थी । वे पढ़ी भी जातीं थीं और उन पर चर्चा भी होती थी । साहित्यिक अनुराग रखने वाले लोगों की काव्य गोष्ठी के साथ साथ कथा वाचन की महफ़िलें भी लगती थी । उनमें इन कहानियों का वाचन और इनके सरोकारों पर बहस भी होतीं थी । कहानियाँ सिर्फ मनोरंजन या टाइम पास जैसी चीज़ नहीं होती थी । वह भी समाज निर्माण के योगदान में एक कदम समझी जातीं थी ।

डॉ साहब ने विपुल साहित्य रचा । साहित्य की हर विधा पर उनकी कलम चली । 50 से अधिक रचनाएं उन्होंने की । कविता , कहानी , उपन्यास, समालोचना, और ललित निबंध पर उन्होंने कई पुस्तकें लिखी । उनकी रचनाओं को क्रमवार से आप यहां पढ़ सकते हैं -
उपन्यास -
बबूल, पुरुष पुराण, लोक ऋण, श्वेत पत्र, सोनामाटी, समर शेष है, मंगल भवन, नमामि ग्रामम, अमंगल हारी तथा देहरी के पार ।
ललित निबंध -
फिर बैतलवा डार पर, जुलुस रुका है, गँवई गंध गुलाब, मनबोध मास्टर की डायरी, वन तुलसी की गंध , आम रास्ता नहीं है, जगत तपोवन सो कियो, जीवन अज्ञात का गणित, घनी फगुनहट बौरे आम, उठ जाग मुसाफिर ।
कहानी संग्रह -
जीवन परिधि, गूंगा जहाज, नयी , कोंपल, कालातीत, बेटे की बिक्री, चित्रकूट के घाट पर, सर्कस ।
इन सब के अतिरिक्त, छः कविता संग्रह, तेरह समीक्षा ग्रन्थ, दो व्यक्तित्व और कृतित्व पर आधारित ग्रन्थ, दो संस्मरण ग्रन्थ, भोजपुरी में नौ पुस्तकें, और पांच ग्रंथों का संपादन भी इन्होंने किया है । ऐसा विपुल रचनाधर्मिता मुश्किल से ही मिलती है ।

उनकी रचनाओं और साहित्य सेवा का सम्मान भी कम नहीं हुआ है । उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा प्रेमचंद पुरस्कार, साहित्य भूषण तथा महात्मा गांधी सम्मान, उत्तर प्रदेश सरकार का सवोच्च नागरिक सम्मान यश भारती, बिहार राजभाषा विभाग द्वारा आचार्य शिवपूजन सहाय पुरस्कार, मध्य प्रदेश सरकार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय शरद जोशी सम्मान, मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा महापंडित राहुल सांकृत्यायन सम्मान, विश्व भोजपुरी सम्मेलन का सेतु सम्मान, हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा साहित्य वाचस्पति, प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन द्वारा आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी सम्मान आदि सम्मान से डॉ विवेकी राय को सम्मानित किया जा चुका है ।

फणीश्वर नाथ रेनू के उपन्यास  मैला आँचल और परती परिकथा के बाद हिंदी साहित्य में आंचलिक उपन्यासों का दौर प्रारम्भ हुआ । आंचलिक उपन्यासों में अंचल ही नायक और उसी की कथा मुख्य होती है और पात्र उसे ही अभिव्यक्त करते हैं । पूर्वांचल की मिट्टी की सोंधी महक और गाँव गिराँव के वातावरण से इनकी कहानियाँ न केवल रू ब रू कराती हैं बल्कि वे आप के साथ खेत की मेंड़ पर सहयात्री की तरह साथ बनी रहती हैं । पूर्वांचल का देहात इन कहानियों में जीवंत हो गया है । लेखक की सबसे बड़ी खूबी ही यह है कि जो लोक वह रचता है वह लोक पाठक को न केवल अपना लगे बल्कि घरउ भी लगे । अगर वह लोक अनजाना और अनचीन्हा लगता है तो वह उपन्यास या कहानी उबाऊ लगने लगती है । डॉ राय की कहानियाँ और उपन्यास बांधे रखते हैं । यह इनकी विशिष्टता है ।  विवेकी राय का रचना कर्म नगरीय जीवन के ताप से तपायी हुई मनोभूमि पर ग्रामीण जीवन के प्रति सहज राग की रस वर्षा के सामान है जिसमें भींग कर उनके द्वारा रचा गया परिवेश गंवइ गंध की सोन्हाई में डूब जाता है। गाँव की माटी की सोंधी महक उनकी ख़ास पहचान है।

डॉ राय की प्रसिद्धि अगर उनकी कहानियों को ले कर है तो ललित निबंध विधा में भी इनकी लेखनी ने कम ऊंचाइयों को नहीं छुआ है । पाठकों की मुख्य रूचि कहानी और उपन्यास पढ़ने में होती हैं । यह एक कल्पना का लोक है । यह लोक,  प्रेम भरा रूमानी भी हो सकता है , सनसनी फैलाता थ्रिलर भी, और आदर्श का प्रवचन देता हुआ पौराणिक टाइप कथा भी और इतिहास में कल्पना और नाटकीयता से पगा हुआ ऐतिहासिक भी । यह काल्पनिक लोक अगर सधा हुआ उपन्यास है तो बांधे रखता है । ललित निबंध कम लोग पढ़ते हैं ।  क्यों कि, ललित निबंध कोई प्रत्यक्ष लोक नहीं गढ़ता है, वह एक विषय की विभिन्न रूपों से व्याख्या करता हुआ , चुपचाप एक खूबसूरत उद्यान का भ्रमण करवाता हुआ लगता रहता है । निबंध लेखन के लिए विचारों और चिंतन की प्रौढ़ता आवश्यक है । सबसे अच्छे ललित निबंध आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के माने जाते हैं । डॉ राय की भी गिनती आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी, विद्यानिवास मिश्र और कुबेरनाथ राय की परम्परा में की जाती है। " मनबोध मास्टर की डायरी " और "फिर बैतलवा डाल पर " इनके सबसे चर्चित निबंध संकलन हैं । उपन्यासों में सोनामाटी उपन्यास डॉ राय का सबसे लोकप्रिय उपन्यास है ।

डॉ विवेकी राय के दुःखद निधन पर हार्दिक संवेदना और उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि । कलमकार कभी नहीं मरता । सम्राट भी उसी की लेखनी के दम पर जीवित और प्रासंगिक बने रहते हैं । डॉ राय के शब्द जिनसे उन्होंने साहित्य का अद्भुत लोक रचा है वह सदैव जीवित रहेगा । देह का क्या , वह तो नश्वर है ही ।

( विजय शंकर सिंह )

Monday 21 November 2016

' अर्थक्रान्ति ' , अनिल बोकिल, अराजकता और नोटबंदी / विजय शंकर सिंह

अर्थक्रान्ति प्रतिष्ठान , पुणे के अनिल बोकिल , जिन्होनें प्रधानमंत्री को विमुद्रीकरण की सलाह दी थी ने, आज बताया कि उनकी सलाह कुछ ही विन्दुओं पर मानी गयीं जिस से अब यह समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं । जुलाई में जब अनिल बोकिल की प्रधानमंत्री जी से मुलाकात हुयी थी तो उन्होंने विमुद्रीकरण के साथ साथ निम्न कदमों के भी उठाने की भी सलाह दी थी  । उनका कहना है,

" However, the government chose to use only two of them. It was a sudden move, not well-thought-out. The move cannot be welcomed or rejected. We are compelled to accept it. "

उन्होंने जो सुझाव दिये थे वह इस प्रकार है

1: Complete abolition of taxes, direct and indirect by the Central or State governments and also the local bodies.
( सभी करों, प्रत्यक्ष , अप्रत्यक्ष चाहे वे केंद्र सरकार या राज्य सरकारों या स्थानीय निकायों द्वारा लगाए गए हों  को समाप्त किया जाय। )

2: The taxes were to be replaced with Bank Transaction Tax (BTT), wherein every inward bank transaction would attract a levy (say about two per cent). It would be a single point tax deducted at source. – The deducted amount would go into the government kitties at various levels (Centre, State and Local, broken up in perhaps a ratio of 0.7 per cent, 0.6 per cent and 0.35 per cent, respectively). The concerned bank will also get a share of say another 0.35 per cent. Of course, the BTT rate would be decided by the finance ministry and Reserve Bank of India.
( समस्त कर समाप्त कर के बैंक ट्रांजेक्शन कर BTT को लागू किया जाय । प्रत्येक बीटीटी पर, एक अधिभार ( जैसे मान लीजिये 2 % ) लगाया जाय । इसे श्रोत पर ही वसूल लिया जाय और यह राजस्व केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों को 0.7 % , 0.6 % , और 0.35 % के अनुपात से हो सकता है । जिस बैंक में यह ट्रांजेक्शन हो रहा है उसे भी 0.35 % का लाभ मिलेगा । यह एक उदाहरण है । कर राशि वित्त मंत्रालय और आरबीआई ही तय करे ।

3: Cash transactions (withdrawals) would not attract tax.
( निकासी पर कोई भी कर नही होगा )

4: All high denomination currency (anything above Rs 50) should be withdrawn.
( ₹ 50 से अधिक के सारे नोट वापस ले लिए जाएंगे ।

5: Government should create legal provision to restrict cash transactions to Rs 2,000.
( ₹ 2000 से अधिक की धनराशि पर नकदी लेनदेन वैधानिक रूप से प्रतिबंधित कर दी जाय ।

बोकिल के अनुसार अगर इन सभी सुझाओं पर एक साथ अमल किया गया होता तो ऐसी अराजक समस्या नहीं आतीं। इस से आम जनता को लाभ ही होता । अनिल बोकिल आगे कहते हैं,

" We did not expect the death we are witnessing. But the government announced the operation without using anaesthesia, so patients are bound to lose their lives."

अर्थक्रान्ति , जिस संस्थान से वे जुड़े हुए हैं वह सन् 2000 में स्थापित हुआ था और वह काले धन की समस्या पर पिछले 16 साल से अध्ययन कर रहा है । जिस टेक्नीकल कमेटी का गठन इस अध्ययन हेतु किया गया था वह भी 16 सदस्यीय थी । बोकिल का कहना है कि अगर उनकी सलाह पूरी तरह मानी गयी होती तो, एक भी व्यक्ति जो काले धन के पचड़े में नहीं है , परेशान नहीं रहता । सारा अध्ययन ही केवल काले धन के विनाश पर केंद्रित था । इस से न केवल महंगाई रुकती बल्कि इसका असर जीडीपी पर भी सार्थक रूप से पड़ता । अब उन्होंने नए 2000 ₹ के नए नोटों को भी वापस लेने की सलाह दी है ।

अर्थक्रान्ति ने  अर्थशास्त्र और उसकी पेचीदगियों के बारे में कितना गहन अध्ययन किया है और उसने दुनिया भर में विमुद्रीकरण से हुयी परेशानियों और लाभ तथा इसका काले धन पर पड़े प्रभावों की कितनी पड़ताल की है यह तो मैं नहीं बता पाउँगा, पर उसके सुझाव पर किये गए आधे अधूरे ढंग की तैयारी के साथ लागू किये गए विमुद्रीकरण के निर्णय ने देश को विकट स्थिति में डाल दिया है । सामान्य सी समझ करती है कि अगर धारक से चालू मुद्रा के  84 % भाग को दिए जाने का वचन वापस ले लिया जाता है तो 16 % की मुद्रा उसे कैसे पूरा कर पाएगी ? अर्थक्रान्ति को इस जटिल प्रश्न का भी समाधान खोजना चाहिए था । प्रधानमंत्री कोई विशेषज्ञ नहीं होता है और वह न सर्वज्ञ होता है । वह उन समस्याओं की पहचान करता है और फिर उनके सार्थक समाधान हेतु विशेषज्ञों की राय लेता है । इस फैसले की सबसे बड़ी कमी इससे उत्पन्न होने वाली जो श्रृंखला बद्ध क्रियाएँ हो सकतीं है उन पर न तो ध्यान दिया गया और न ही गम्भीरता से सोचा गया । 16 साल पहले गठित संस्थान की 16 सदस्यीय तकनीकी कमेटी की संस्तुति जो 16 साल बाद , मिली और 2016 में ही लागू की गयी यह महज एक संयोग है या अंकशास्त्र की कोई गणित , इस पर भी मैं सोच रहा हूँ और आप भी सोचियेगा ।

( विजय शंकर सिंह )

Sunday 20 November 2016

एक कविता , कितने बदल गए हैं वे / विजय शंकर सिंह



कितने बदल गए हैं वे ,
मुंह में लगे खून को,
कितनी आसानी से चाट कर
मुस्कुराहटों के नकली मुखौटे ओढ़ ,
शातिराना मासूमियत लिए ,
दिलासे परोस रहे हैं, 
कितने बदल गए हैं वे !

सुनो,  ज़रा तुम उनको ,
दहकती आग पर, जिन्होंने 
पानी के छींटे तक नहीं डाले कभी, 
भड़का कर सेंकते रहे रोटियाँ ,
और मुस्कुरा कर, 
खेलते रहे उन्ही रोटियों से वे, 
कितने बदल गए हैं , वे !

शीरीं बयानी तो देखो 
उनकी,जुबां नहीं 
सिर्फ बयान शीरीं हैं !

क्या अजब बयार चली है जंगल में ,
गुर्राने वाली आवाज़ लिए दरिंदे ,
पूंछ समेटे आज ,
लपलपाती ज़ुबान ,और
कितनी अदाकारी से ,
सुन रहे हैं शिकवे जंगल के !

कितने दिन रहेगा यह मौसम ,
जंगल को तो जंगल ही रहना है।

उनकी ओढ़ी हुयी, मुस्कराहट
और मासूमियत उनकी ,
फिर बदल जाएगी ,
उन्ही खौफनाक गुर्राहटों में ,
जो बन चुका है  , 
स्थायी भाव उनका !!


( विजय शंकर सिंह )

फैज़ अहमद फैज़ की पुण्य तिथि 20 नवम्बर पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि / विजय शंकर सिंह




महान शायर फैज़ अहमद फैज़ साहब की आज पुण्य तिथि है । उनकी यह नज़्म पढ़ें। यह नज़्म देश की आज़ादी पर है । फैज़ साहब को मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि ।

सुबह ए आज़ादी.

ये दाग़ दाग़ उजाला, ये शबगज़ीदा सहर
वो इन्तज़ार था जिस का, ये वो सहर तो नहीं।

ये वो सहर तो नहीं जिस की आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जायेगी कहीं न कहीं ।
फ़लक के दश्त में तरों की आख़री मंज़िल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज् का साहिल
कहीं तो जा के रुकेगा सफ़िना-ए-ग़म-ए-दिल
जवाँ लहू की पुर-असरार शाहराहों से ।
चले जो यार तो दामन पे कितने हाथ पड़े
दयार-ए-हुस्न की बे-सब्र ख़्वाब-गाहों से
पुकरती रहीं बाहें, बदन बुलाते रहे
बहुत अज़ीज़ थी लेकिन रुख़-ए-सहर की लगन
बहुत क़रीं था हसीनान-ए-नूर का दामन
सुबुक सुबुक थी तमन्ना, दबी दबी थी थकन।

सुना है हो भी चुका है फ़िरक़-ए-ज़ुल्मत-ए-नूर
सुना है हो भी चुका है विसाल-ए-मंज़िल-ओ-गाम
बदल चुका है बहुत अहल-ए-दर्द का दस्तूर
निशात-ए-वस्ल हलाल-ओ-अज़ाब-ए-हिज्र-ए-हराम
जिगर की आग, नज़र की उमंग, दिल की जलन
किसी पे चारा-ए-हिज्राँ का कुछ असर ही नहीं
कहाँ से आई निगार-ए-सबा, किधर को गई
अभी चिराग़-ए-सर-ए-रह को कुछ ख़बर ही नहीं
अभी गरानि-ए-शब में कमी नहीं आई
नजात-ए-दीद-ओ-दिल की घड़ी नहीं आई
चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहीं आई ।
( शब् गज़ीदा - रात की डरी हुयी,  पुर असरार - रहस्यमय, करीं - निकट,  फ़िराक ए ज़ुल्मत ए नूर - अँधेरे और उजाले का अलगाव ,  विसाल ए मंज़िल ओ गाम - कदम और मंज़िल का मिलने, अज़ाब ए हिज़्र - विरह के कष्ट, चारा ए हिज्राँ - विरह का समाधान )

फैज़ उस तबके के थे जो भारत की आज़ादी का यह स्वरुप नहीं चाहते थे। देश आज़ाद हो और बँट भी जाए यह उनकी सोच नहीं थी। उनकी सोच ब्रिटिश साम्राज्यवाद का पतन था। वह धर्म आधारित राज्य की अवधारणा के खिलाफ थे। यहां यह इक़बाल से अलग थे। क़ौमी तराना , सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा लिखने के बाद भी इक़बाल इस्लाम आधारित एक स्वतंत्र देश की अवधारणा स्थापित करते हैं तो आगे चल कर पाकिस्तान की नींव बनती है। आज के जैसा पाकिस्तान इक़बाल चाहते थे या नहीं यह तो कहना मुश्किल है पर पाकिस्तान के विचार की शुरुआत उन्होंने ही की थी। फैज़ उस समय भी इस धार्मिक सोच से अलग थे। उनका चिंतन कमज़ोरों , मज़दूरों और मज़लूमों को केंद्रित था। तभी वह कहते हैं , ' जब तख़्त गिराए जाएंगे और ताज़ उछाले जाएंगे।  उनकी यह सोच तत्कालीन पाकिस्तान की सरकार को सदैव अखरती रही। उन्हें जेल भी जाना पड़ा था। उन्होंने अपनी पत्नी को जो पत्र लिखे थे उनका संग्रह सलीबें मेरे दरीचे में संकलित है , जिससे उनके सोच और मनोभावों का पता लगता है। 

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फैज़ अहमद फैज़ साहब का जन्म 1911 में सियालकोट जो अब पाकिस्तान में है में हुआ था । इन्होंने अरबी और अंग्रेज़ी साहित्य में एमए किया था । अमृतसर में वे अंग्रेज़ी के प्राध्यापक हुए और 1928 से उन्होंने लिखना शुरू किया । 1964 में कराची के अब्दुल्ला हारून कॉलेज के प्रिंसिपल बने और 1968 में उन्होंने इरादा ए यादगार ए ग़ालिब की स्थापना की । 1969 में उन्होंने पाकिस्तान में ग़ालिब शती समारोह का आयोजन भी किया था । 1962 में इन्हें लेनिन शान्ति पुरस्कार से सम्मानित किया गया । वे अफ्रो एशियाई संघ की पत्रिका लोटस के संपादक भी थे । फैज़ साहब एक प्रगतिशील विचारधारा के शायर थे । उनकी विद्रोही नज्मो और ग़ज़लों के कारण पाकिस्तान की सरकार ने उन्हें 1951 और 1958 में गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया था । फैज़ का निधन लाहौर में 20 नवम्बर 1984 को हुआ था । फैज़ भारतीय महाद्वीप के अग्रणी साहित्यकारों में से एक थे ।

उनकी रचनाएं -
नक़्श ए फरियादी,
दस्त ए सबा,
ज़िंदानामा,
दस्त ए तह ए संग ,
सर ए वादी ए सीना,
शाम ए सहर ए यारां,
मेरे दिल मेरे मुसाफिर ( कविता संग्रह )
मीज़ान ( निबंध संग्रह )
सलीबें मेरे दरीचे में ( पत्नी के नाम लिखे पत्रों का संकलन )
मता ए लौह ओ कलम ।

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फैज़ साहब की यह नज़्म उनकी आखिरी रचना है । नवम्बर , 4 को उनकी मृत्यु के पूर्व लिखी गयी यह नज़्म पढ़ें ।

बहुत मिला, न मिला ज़िंदगी से, ग़म क्या है
मता ए दर्द वहम है तो बेश ओ कम क्या है ।

हम एक उम्र से वाकिफ है , अब न समझाओ,
कि लुत्फ़ क्या है, मेरे मेहरबाँ सितम क्या है ।

करे न जग में अलाव तो शे'र किस मक़सद,
करे न शहर में जल थल तो चश्म ए नम क्या है ।

अज़ल के हाँथ कोई आ रहा है, परवाना,
न जाने आज की फेहरिस्त में रक़म क्या है ।

सजाओ बज़्म, ग़ज़ल गाओ, जाम ताज़ा करो,
बहुत सही ग़म ए गेती, शराब कम क्या है ।

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1928 में फैज़ साहब ने अपनी पहली ग़ज़ल लिखी थी तब वे इंटरमीडिएट के छात्र थे । उस ग़ज़ल का यह शेर भी पढ़ लें ।
लब बंद हैं साक़ी , मिरी आँखों को पिला दे,
वो जाम , जो मिन्नतकश ए सहबा नहीं होता ।
( मिन्नतकश ए सहबा - मदिरा के लिए इच्छुक )

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उर्दू साहित्य में फैज़ को हम ग़ालिब और इकबाल के स्तर पर रख कर देख सकते हैं । यूँ तो साहित्य में किसी की भी तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती है । हर लेखक के सोचने समझने और परखने का ढंग और दृष्टिकोण अलग अलग होता है । पर मीर , ज़ौक़ और ग़ालिब का एक काल था और इक़बाल,  फैज़ और फ़िराक़ का अलग काल था । मीर अपनी  अत्यंत लावण्यमयी ग़जलों के लिए विख्यात हैं तो ज़ौक़ में दरबारीपन हावी है । वे दरबार की सीमा नहीं तोड़ पाये । ग़ालिब तो ग़ालिब ही हैं । हर विषय को अपने अलग अंदाज़ में कहने का निराला ढंग उन्हें अपने समकालीनों को तो छोड़ दीजिये , अपने पूर्ववर्ती और बाद में हुए शायरों से भी , अपने इसी अंदाज़ ए बयानी के कारण अलग करता  हैं । इक़बाल मूलतः एक दार्शनिक शायर थे । उनकी रचनाओं में दर्शन का बार बार दर्शन होता है । जावेदनामा पढ़िए और इसमें सनातन धर्म दर्शन की झलक मिलेगी । इस्लाम का समतावाद और एकेश्वरवाद उन्हें बराबर लुभाता रहा है। फैज़ इंक़लाबी शायर थे । उनके कलाम में प्रगतिशील तत्व और मार्क्सवादी चिंतन का स्पष्ट प्रभाव है । लेकिन उन्होंने प्रेम और रोमांस पर भी बहुत अच्छी रचनाएं लिखी हैं । उनका रूमानिपन भी उनके इंक़लाब को छुपा नहीं पाती है । उनके रूमानी भाव में भी इंक़लाबी तेवर साफ़ साफ़ दिखता हैं । उनकी रचनाओं में उदासी , दर्द और कराह के साथ साथ उम्मीद की एक अदम्य आस भी छिपी हुयी है । घने अन्धकार में भी खूबसूरत सुबह की उनकी कल्पना और आशा उनकी जिजीविषा को ही रेखांकित करती है।  वह सुबह कभी तो आयेगी का भाव उनकी  रचनाओं में  नाउम्मीदी के बीच उम्मीद की एक हल्की पर स्पष्ट रेख सदैव दिखती रहती है।  उनकी यह रचना पढ़ें ' हम देखेंगे ' । यह एक बेहद मशहूर नज़्म है । इनकी शायरी अपने समय की मानवी, समाजी और सियासी सच्चाइयों को अर्थ प्रदान करती हुयी भाषायी दीवारों को तोड़ कर सबको आह्लादित करती है ।
" अब के तो खिजां ऐसी ठहरी , वो सारे ज़माने भूल गए ,
  जब मौसम ए गुल हर फेरे में आ आ के दुबारा गुज़रे था।  "

( विजय शंकर सिंह ) 

Saturday 19 November 2016

24 जून 1984, श्रीमती इंदिरा गांधी के साथ केदार नाथ में - एक संस्मरण / विजय शंकर सिंह



24 जून 1984 तब इंदिरा जी जीवित थीं इंदिरा गांधी अक्सर बद्री केदार की यात्रा पर आती रहती थी इस दिन भी वे केदार नाथ की यात्रा पर आयीं थीं उनकी इस यात्रा के समय मैं वहाँ ड्यूटी पर था वे मुझे नहीं जानती थीं मैं उस समय मथुरा में डीएसपी के पद पर नियुक्त था उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री के तब बहुत दौरे होते थे और उनकी सुरक्षा के प्रबन्ध यूपी पुलिस करती थी मथुरा से मैं उस ड्यूटी के लिए गढ़वाल के लिए गया था जब मैं गोपेश्वर पहुंचा तो वहाँ पता लगा कि मुझे केदारनाथ जाना है उस समय चमोली के एसपी रामेश्वर दयाल सर थे मैं 14 जून को पहुंच गया था पहले प्रधानमंत्री का कार्यक्रम 17 जून को ही था पर वह कार्यक्रम बदल कर 24 जून का हो गया 14 से 24 तक , वह भी पहाड़ों पर क्या किया जाय यह भी संभव नहीं कि हरिद्वार या देहरादून जाया जाय , क्यों कि तब ऐसी ड्यूटियों में मीटिंग भी बहुत होती थी गोपेश्वर में  उस दिन रुक कर मैं जोशीमठ गया 15 की रात मैं जोशीमठ में ही एसपीएफ के एक मेस में रुका 16 को दिन भर रहा और उसी दिन शंकराचार्य जी के आश्रम में भी गया जब बद्री नाथ के कपाट बंद हो जाते हैं तो बद्रीनाथ जी की पूजा अर्चना जोशीमठ में ही होती है वही उसी मठ में ही शंकराचार्य स्वामी स्वरूपानंद के दर्शन हुए 16 की रात जोशीमठ में बिता कर सुबह ही मैं बद्रीनाथ के लिए निकल गया  

दोपहर तक बद्रीनाथ पहुंचा उस दिन और रात बद्रीनाथ में ही बीती 17 को दोपहर के बाद आस पास के स्थानों पर घूमने की इच्छा हुयी वहाँ से 4 किमी दूर माणा गाँव है वहाँ हम आये माणा, भारत का आखिरी गाँव है उसके बाद कोई गाँव नहीं हैं। पर चीन सीमा पर आईटीबीपी और एसपीएफ की पोस्ट रहती है एसपीएफ उत्तर प्रदेश पीएसी की ही एक बटालियन थी जो  पहाड़ों पर चीन की सीमा पर नियुक्त रहती थी 9 वीं बटालियन अभी भी मुरादाबाद में है पर उसका विशेष दर्ज़ा अब नहीं रहा वह भी सभी बटालियनों की तरह से पीएसी की एक बटालियन बन गयी

माणा गाँव समुद्र से 3219 मीटर ऊंचाई पर स्थित है गाँव से सटी एक जलधारा बहती है जिसे सरस्वती नदी कहा जाता है यहां के निवासी भोटिया कहे जाते हैं यह हिमालय का भोट खंड है माणा के बारे में कहा जाता है कि यह पांडवों के स्वर्गारोहण मार्ग पर भी स्थित है यहॉँ स्थित एक पत्थर के पुल को भीम पुल कहते हैं यहां एक बड़ा हेलीपैड भी था अब सुनता हूँ वह एक छोटी हवाई पट्टी हो गयी है माणा से शाम तक बद्रीनाथ और रात बद्रीनाथ में ही एक धर्मशाला में जो पुलिस अफसरों के लिए ही अधिग्रहीत थी में व्यतीत हुयी

18 नवम्बर को सुबह बद्रीनाथ  दर्शन के बाद वहाँ से चल दिया और रास्ते में थोड़ी देर के लिए जोशीमठ में रुकने के बाद फिर हम गोचर पहुंचे और वही स्थित वन विश्राम गृह में रात रुक गए 19 को वहां से सुबह चल कर गौरीकुंड से 8 किमी पहले एक स्थान फाटा में रुक गए गौरीकुंड से केदारनाथ का मार्ग 14 किमी है जिसे लोग पैदल , खच्चरों या पालकी से पार करते हैं फाटा में ही मेरे अभिन्न मित्र काशीनाथ सिंह मिल गए जो शाहजहाँपुर में डीएसपी थे और वह भी उसी ड्यूटी के लिए जा रहे थे फाटा में रात बिताने के बाद हम गौरीकुंड 19 जून को सुबह पहुंचे और तब फिर वहाँ से केदारनाथ के लिए रवाना हुए शाम होते होते 14 किमी पहाड़ी मार्ग पार कर हम लोग जब केदारनाथ पहुंचे तो थक चुके थे अब हमें 24 जून प्रधानमंत्री मंत्री की यात्रा पूरी होने तक वही रहना था हम लोग वही एक धर्मशाला में रुके वहाँ 5 और अधिकारी भी थे

20 तारीख की सुबह बहुत चटख थी केदार नाथ मंदिर के पीछे बर्फ से ढंका पहाड़ था कहते हैं उसी के पीछे बद्रीनाथ भी हैं उस पर्वत को नर नारायण पर्वत कहते हैं यह भी कहा जाता है कि इन्ही पहाड़ों से हो कर साधू और महात्मा लोग बद्रीनाथ आतें जाते हैं दिन भर हम खाली रहते थे 20 से 23 जून तक मंदिर के इर्द गिर्द टहलना और केदारनाथ के दर्शन करना यहीं काम था दिन में एक बार सारे अधिकारियों की मीटिंग होती थी जिसका उद्देश्य केवल यह था कि हम सब यह भी समझते रहें कि हम यहां तीर्थाटन करने नहीं बल्कि सरकारी काम से आये हैं वहाँ पर पीएसी की कम्पनियाँ तैनात थी खाना पीना उन्ही के साथ होता था दिन भर यात्रीगण आते रहते थे वहाँ एक छोटा सा बाज़ार भी बस गया था शाम को पहाड़ों का मौसम थोडा धुंधला और बरसाती हों जाता है पहाड़ी मौसम की सुबह और चटख धूप को देख कर यह अनुमान लगाना मुश्किल होता है , कि शाम तक बारिश हो जायेगी पर तीन चार बजते बजते एक झटका बारिश का जाता और शाम ठंडी हो जाती 23 को ड्यूटी का रिहर्सल हुआ और मेरी ड्यूटी केदारनाथ के गर्भ गृह में लगाई गयी वहाँ मुझे अकेले ही रहना था

24 तारीख को सुबह 8 बजे से ही हम सब ड्यूटी पर गए थे उस दिन सुरक्षा कारणों से गौरीकुंड से ही यात्रियों के केदारनाथ की और आने पर रोक लगा दी गयी थी मंदिर के अंदर और भी पुलिस जन थे पर गर्भ गृह में मैं अकेले ही था केदारनाथ की भी एक कथा है वहाँ शिव लिंग का स्वरूप जैसा कि अन्य शिव मंदिरों में होता है वैसा नहीं था वह एक भैंसे की पीठ की तरह है  वही के एक स्थानीय पंडित जी ने इस सन्दर्भ में एक रोचक कथा सुनायी किंवदंति है कि, पांडव जब केदार क्षेत्र में जा रहे थे तो वें उस स्थान पर पहुंचे वह स्थान मन्दाकिनी नदी के किनारे है गढ़वाली भाषा में दलदल को केदार कहते हैं वही पर भीम का मार्ग एक भैंसे ने रोक लिया भीम ने भैंसे को बल से हटाने का प्रयास किया तो भैंसे ने भीम भर हमला कर दिया भीम देर तक, कहा जाता है कि 3 दिन तक वे उस से लड़ते रहे और थकने लगे भीम के शरीर में साठ हज़ार हाथियों का बल था, ऐसी मान्यता है भीम जब उस भैंसे को हरा नहीं पाये तो, वे रुक गए और अचंभित भी हुए। तब उन्होंने भैंसे से पूछा कि, तुम हो कौन ? भैंसा, कहा जाता है शिव ही थे वे समझ गए कि उनका भेद खुल गया है तो वे वापस तेजी से पहाड़ों की और भागे। भीम ने दौड़ा कर उनकी पूँछ पकड़ ली वह भैंसा दलदल यानी केदार में समा गया भैंसे का धड़ वही उसी दलदल में धँसा रह गया और , शीष काठमांडू में अवतरित हो गया जो पशुपति नाथ कहलाया वहाँ शिव का यही धड़ स्वरूप है यह कोईँ ऐतिहासिक तथ्य नहीं , बल्कि जो कथा प्रचलित है वह मैं बता रहा हूँ  मंदिर के आसपास और दूर पहाड़ों की तलहटी तक मिटटी मिलती हैऔर दलदली भूमि भी कभी रही हो, ऐसा लगता भी है 

24 जून को भी सूरज वैसे ही चटख धूप ले कर उदित  हुआ 8 बजे से ही हम सब अपनी अपनी ड्यूटी पर मुस्तैद थे तब तक प्रधानमंत्री सुरक्षा के लिये ही विशेष रूप से गठित बल एसपीजी, स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप का गठन नहीं हुआ था पीएम की सुरक्षा दिल्ली में दिल्ली पुलिस और राज्यों में राज्य पुलिस के ही जिम्मे था। राज्य पुलिस की जिम्मेदारी भी होती है , पर अब एसपीजी का दखल अधिक होता है। राज्य का  इंटेलिजेंस विभाग उनकी प्रोटेक्शन ड्यूटी में रहता था सुरक्षा के आंतरिक घेरे और आइसोलेशन कॉर्डन में सादे कपड़े में ड्यूटी लगती थी मैं आइसोलेशन कॉर्डन का प्रभारी था मैं खुद गर्भ गृह में रहा और अन्य फ़ोर्स मंदिर के दीवारों के पार थे वहाँ कोईँ खतरा था भी नहीं 10 बजे इंदिरा जी मंदिर आयीं वहाँ उनके द्वारा बाबा का दुग्धाभिषेक किये जाने का कार्यक्रम था व्यवस्था पूरी थी उनके साथ तेज़ी बच्चन, ( अमिताभ बच्चन की माँ ) और सोनिया गांधी थीं उनके शैडो जो दिल्ली पुलिस के ही एक डीएसपी , शर्मा जी थे , वे भी थे गर्भ गृह में यही चार लोग , दो पंडित जी और एक मैं था मंदिर का गर्भ गृह छोटा था सब लोग यथा स्थान बैठ गए और मुझे तो खड़ा रहना था तो मैं वही एक कोने में खड़ा रहा पंडित जी अभिषेक की तैयारी कर चुके थे अचानक वह शर्मा जी की और मुड़े और कहा, कि अभिषेक के लिए पांच  व्यक्ति का होना आवश्यक है शर्मा जी थोडा उठने को हुए ताकि वे किसी और को बाहर से बुला लें तभी इंदिरा जी की निगाह मुझ पर पडी और उन्होंने कहा, ' कम ज्वाइन अस ' मैं चुप चाप जा कर शर्मा जी के बगल में बैठ गया  इंदिरा जी ने मेरा नाम पद और परिचय पूछा। फिर पंडित जी ने पूजा शुरू की और मुझसे नाम गोत्र आदि पूछा मैनें उनसे सब बताते हुए धीरे से कहा कि पंडित जी मैं काशी का हूँ ! फिर पूजा शुरू हुयी और डेढ़ घण्टे में पूरा कार्यक्रम संपन्न हुआ मेरे लिए यह बहुत सुखद क्षण था

पूजा के बाद सब हेलीपैड पर आये हेलीपैड मंदिर से थोड़ी दूर घाटी में ही एक समतल स्थान पर बनाया गया था वहाँ जब इंदिरा जी पहुंची तो किन्ही तकनीकी कारणों से हेलिकॉप्टर के उड़ने में देर है, यह पता लगा लगभग 40 मिनट तक वे वहाँ के मनोरम दृश्यों की फ़ोटो लेती रहीं और अधिकारियो से बात करती रहीं यह उनकी  केदारनाथ की अंतिम यात्रा थी किसे पता था, कि चार महीने बाद उनकी हत्या कर दी जायेगी पर नियति को कौन पढ़ और समझ पाया है आज उनका सौवाँ जन्म दिन है उनका कार्यकाल बहुत उथल पुथल भरा रहा है जितना ही उनकी सराहना हुयी उस से कम उनकी निंदा और आलोचना नहीं हुयी इतिहास निर्मम होता है हमेशा कुछ कुछ नया दृष्टिकोण रखने की सामग्री परोसता रहता है उनकी जन्म तिथि पर उनका विनम्र स्मरण

( विजय शंकर सिंह )