Tuesday, 6 April 2021

ऋग्वेद की रहस्यमयता (5)

हमने अपनी लंबी व्याख्यान में  यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया कि सोम गन्ना था। यह भी याद दिलाया  कि  सोम की पहचान में इतनी भ्रांतियां हैं  कि आज भी  बहुत से विद्वान इसे भांग सिद्ध करने का प्रयत्न करते हैं। 

सोम के कई रूप हैं,
1. वनस्पति विशेष जिस के कुछ लक्षण हैं जैसे  इसका सर गन्ने की प्रजाति का होना, इसके डंठल में  कांडों (पोरों) का होना,  पोरों के जोड़ों पर गांठे होना,  उस गांठों में एक आंखों का होना,  पत्तियों के दंड भाग का पोर को लपेटे रहना, इसके सिरे  का नुकीला और  शतवल्श होना या पत्तियों के  गुच्छे से मंडित,  उसके भीतर से  मोर के पक्ष की तरह (मयूरशेप्य)  फुही निकलना,  बोने के लिए इसके तने  के  ही  टुकड़ों को इस सावधानी से काम में लाना कि आँखा टूटने न पाए,  बुवाई के लिए खेत को जोत-गोड़ कर साफ करना और फिर मेढ़ियाँ और नालियां बनाना, इसके लिए अधिक सिंचाई/पानी/वर्षा का आवश्यक होना,  इसका वर्षबृद्ध होना  अर्थात् इसके तैयार होने में एक साल का समय लगना,  इसे सीधे दाँतों से भी चूसा जाना;

2. उसका रस,  जिसकी भी कुछ विशेषताएँ हैं, जैसे  रस का  तने को कूटने  धार  के साथ निकलना,  इसके  स्वाद का मीठा होना जिस गुण के कारण इसकी तुलना मधु से की गई है (मध्वः पिबतं मधुपेभिरासभिः),   इसका दूसरे के पदार्थों की तुलना में सबसे अधिक सुस्वाद होना और इसके ऐसे विपाक की संभावना जो इसे अमृत (टिकाऊ) बना सके और जो दूसरों के लिए प्राणदायक हो और दूसरी ओर इससे मादक पेय बनाया जा सकता हो। इसे  जम  कर,  पेट भर पिया जा सकता (इन्द्राविष्णू पिबतं मध्वो अस्य सोमस्य दस्रा जठरं पृणेथाम् ।)

आज हम वनस्पति जगत के विषय में जितनी आधिकारिक जानकारी रखते हैं उतनी इससे पहले   कभी  संभव न थी,  और इसके बावजूद  गन्ने को छोड़कर दूसरा इस कसौटी पर  सही नहीं उतरता, इसलिए इन सभी अपेक्षाओं की पूर्ति  जिस पौधे से होती है वह  गन्ना है। देसी गन्ने के स्वाद के सामने फार्म के गन्ने का स्वाद वैसा ही है जैसा परंपरागत खेती की तुलना में यूरिया के प्रचुर उपयोग से पैदा किया अनाज, साग और फल। वन्य गन्ने का स्वाद  और भी मधुर रहा हो सकता है।  इस अनुपम मिठास के कारण  कल्पना की उड़ानें शुरू हुई  थीं कि इतना मधुर पौधा धरती पर आया कैसे और फिर यह प्रशस्ति कि यह सीधे स्वर्ग से आया होगा और आकाश में चन्द्रमा में  इसके भरे होने की कल्पना, धरती पर लाए जाने की कहानियाँ और फिर  सामाजिक, आर्थिक, विकास के समानांतर बौद्धिक उन्मेष के साथ नई ऊंचाइयां पाते हुए वह दार्शनिक ऊहापोह जिसमें अंतिम सत्य क्या है?
वह सत्ता क्या है जिससे समग्र सृष्टि की  रचना हुई?
रस, जिसे पकाने पर यह ठोस रूप ले लेता है, पकाते समय भाप उठती है इसलिए इससे वायु भी पैदा हो सकती है, इसलिए यदि किसी एक तत्व से ब्रह्मांड की सृष्टि हुई हो सकती है तो वह रस या सोम ही है। इस तरह सोम एक विशेष पौधे का रस, समस्त वनस्पतियों का रस, जल मात्र और फिर कारण जल का द्योतक बना और वैदिक कवि अपनी उक्तियों में एक साथ इन सभी स्तरों पर शब्दक्रीड़ा करते दिखाई देते हैं और इस तरह एक धुंध  पैदा की जाती है। इसका कुछ आभास डेविड फ्राले ने दिया है जो कुछ उलझनों  के होते हुए भी,मेरी जानकारी के अन्य किसी अध्येता की तुलना में अधिक निकट दिखाई देते हैं: 

Soma is a great deity, cosmic power and spiritual principle in Vedic thought. It also had its counterpart in the plant kingdom. There has been a long search for the identity of the original Soma plant was and several plants have been proposed as representing it.
My view – based upon more than thirty years of study of the Vedas in the original Sanskrit, as well as related Ayurvedic literature – is that the Soma plant was not simply one plant, though there may have been one primary Soma plant in certain times and places, but several plants, sometimes a plant mixture and more generally refers to the sacred usage of plants. Soma is mentioned as existing in all plants (RV X.97.7) and many different types of Some are indicated, some requiring elaborate preparations. Water itself, particularly that of the Himalayan rivers, is a kind of Soma (RV VII.49.4). In Vedic thought, for every form of Agni or Fire, there is also a form of Soma. In this regard, there are Somas throughout the universe. Agni and Soma are the Vedic equivalents of yin and yang in Chinese thought.

फ्राले से चूक यह हुई कि पहले उन्हें एक देवता दिखाई देता है फिर धरती का कोई पौधा इसलिए न जड़ को समझ पाते हैं न विकास प्रक्रिया को न उस दार्शनिक ऊँचाई को जिसमें कारण-जल सृष्टि का बीज रूप बन जाता है जब कि इसका स्पष्ट कथन ऋग्वेद में है कि सृष्टि का मूल सोम है:
सोमः पवते जनिता मतीनां जनिता दिवो जनिता पृथिव्याः ।
जनिताग्नेर्जनिता सूर्यस्य जनितेन्द्रस्य जनितोत विष्णोः ।। 9.96.5

यहां भ्रमित होने का एक कारण यह है कि सर्जकों की एक श्रृंखला है ।  कहें,  कुछ का जनन या सृजन सोम से होता है, फिर वे स्वयं बहुत कुछ उत्पन्न करते हैं, और अंत में हम भी तो उसी बुध्दिबल से सृजन करते हैं जो ‘सोम’ प्रदत्त है। 
हम  उस सोम  की पहचान करें  जिसका रस इंद्र  ग्रहण करते हैं।  यह  ध्यान रहे  इंद्र का अपना अस्तित्व है भी और नहीं भी है।  कारण, देवता तो केवल एक है - सूर्य (जिसे ताप या अग्नितत्व  कहना अधिक समीचीन होगा) जो लौकिक स्तर पर अपने को तीन रूपों में विभक्त करके विद्यमान है और दूसरे सभी देवता इसकी रश्मियों में समाहित हैं। यही सत और असत  (प्रकाश और अंधकार, ज्ञान और अज्ञान, जीवन और मरण का उत्स है, यही प्राणियों का पालक है।
असतश्च सतश्चैव योनिरेषा प्रजापति:‌।
यदक्षरं च वाच्यं च यथैतद् ब्रह्म शाश्वतम् ।।१/६२
कृत्वैष त्रिधात्मानं एषु लोकेषु तिष्ठति।
देवान्यथायथं सर्वान् निवेश्य स्वेषु रश्मिषु।।१/६३ (बृहद्देवता)
इंद्र का काम है रस  ग्रहण करना (आर्द्रता का शोषण)और वृत्र (बाधाओं) का निराकरण (‘रसादानं तु कर्मास्य वृत्रस्य च निबर्हणम्।....बृहद्देवता, २/६)। 

प्रश्न यह है कि यदि इन्द्र का कार्यभार सूर्यरश्मियों से  वायु की सहायता से रसों का संचय या शोषण है तो वह रस केवल एक वनस्पति का  नहीं ग्रहण करता है,  अपितु आर्द्रता के समस्त स्रोतों से, नदी, ताल, पोखर, समुद्र सबसे आर्द्रता ग्रहण करता है। कवियों ने उसे  सूमो पहलवानों के आदर्श के रूप में तुन्दिल या वपोदर,  (पृथु ग्रीवो वपोदरो सुबाहुः अन्धसो मदे) चित्रित किया है। जब वह छक कर सोम पान कर लेता है तो  उसका पेट समुद्र की तरफ फैल जाता है ( यः कुक्षिः सोमपातमः समुद्र इव पिन्वते। उर्वीरापो न काकुदः ।। 1.8.7)।

इसका ग्रिफिथ ने जो अनुवाद किया है वह ध्यान देने योग्य है:
His belly, drinking deepest draughts of Soma, like an ocean swells, Like wide streams from the cope of heaven.

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

ऋग्वेद की रहस्यमयता (4)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/4.html

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