Saturday 24 April 2021

साहित्यकार - रामवृक्ष बेनीपुरी

रामवृक्ष बेनीपुरी न सिर्फ साहित्य लिखते थे बल्कि वे उस साहित्य को जीते भी थे।साहित्य उनके राजनीतिक संघर्ष का हथियार था जैसे गोर्की का था या अपने देश में प्रेमचंद का था या लातिनी अमेरिका में पाब्लो नेरुदा का। महापंडित राहुल सांकृत्यायन, नागार्जुन, रेणु की तरह वे भी कंधे में कंधे मिलाकर किसानों की  मुक्ति का जंग लड़ते थे जो उस समय ज़मींदारी प्रथा के सामंती जकड़न में एक गुलाम की हैसियत से उसी तरह जीते थे जैसे आज पूंजी की गुलामी में जीने को बाध्य हो रहे हैं। देश के महान किसान नेता  स्वामी सहजानन्द सरस्वती का प्रभाव इन पर अधिक पड़ा। किसानों के साथ प्रेम और उनके लिए ज़मींदारों से संघर्ष की स्वभाविक परिणति हुई कि वे सीधे समाजवादी राजनीतिक धारा के अग्रणी रहनुमाओं के दौर में दाख़िल हो गए।  आज़ादी की लड़ाई के तीसरे चरण मे जयप्रकाश नारायण के  नेतृत्व में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन के पूर्व ही इन्होंने उसकी पूर्ववर्ती संस्था के रूप में बिहार सोशलिस्ट पार्टी का गठन कर लिया था। सुप्रसिद्ध पत्रकार डॉक्टर सुरेश शर्मा ने बेनीपुरी ग्रंथावली के छठे खंड की भूमिका में लिखा है , "रूसी क्रांति ने विश्व के अधिकांश बुद्धिजीवियों के सोच की दिशा बदल दी। इस क्रांतिकारी विचारधारा (मार्क्सवाद लेनिनवाद) के मूल्यों से बेनीपुरी जी भी गहरे प्रभावित हुए। रूसी क्रांति के चौदह साल बाद 1931 में उन्होंने " बिहार सोशलिस्ट पार्टी "  की स्थापना की।"

सोशलिज़्म के प्रति इनके अंदर तीव्र आकर्षण का अंदाज़ा इसी से लगाया जा  सकता है कि इन्होंने उस काल में समाजवादी आंदोलन की तीन सबसे बड़ी प्रेरणा रूस, ज़र्मनी और चीन पर इन्होंने ग्रंथ लिखे। रूसी क्रांति  पर इनके साहित्य लेखन के ज़ज्बे के इतने गहरे थे कि हज़ारीबाग़ सेंट्रल जेल में इन्होंने ती महीने 20अगस्त 1944 25अक्तूबर 1944 तक की अवधि में पूरा किया था। पहले इस पुस्तक का नाम इन्होंने "लाल क्रांति" रखा, फिर कुछ सोचकर उसका नाम "रूस की उथल पुथल" रखना चाहा  लेकिन आख़िरकार इसका नाम "रूस की क्रांति" दिया। वाम जनवादी आंदोलन के सिपहसलारों के लिए यह पुस्तक जितना तब ज़रूरी थी उतनी अभी भी है कह सकते हैं। इसे आप बेनीपुरी जी द्वारा इस पुस्तक के सार रूप में कही गयी कुछ पंक्तियों के इस अंश से समझ सकते हैं :
     "अक्तूबर क्रांति... लेनिन और उनके बोल्शेविक साथियों की सालों की  मेहनत का फल था। उन्होंने इंक़्लाब के लिए अपनी ज़िंदगी खपा दी थी। रूसी क्रांति के बाद बोल्शेविक शब्द सदा-सर्वदा के लिए फौलादी और अपराजेय का पर्याय बन गया। "
रूसी क्रांति पर हिंदी में लिखी इस पुस्तक को मौलिक साहित्यिक रचना माना जा सकता है । इसकी भाषा सरल और सुबोध परंतु ओजपूर्ण है। स्पष्टबयानी में गहरी प्रेरणा और अर्थवत्ता के पुट स्वतः समाहित है। यह उनकी तीसरी पुस्तक थी। 

पहली पुस्तक के रूप में विश्व क्रांतिकारी घटना क्रम पर लाल चीन  थी जिसे उन्होंने अपने अनन्य साथी व नेता जयप्रकाश नारायण (जेपी) की प्रेरणा से लिखी थी। चीन की क्रांति तब पूरी नहीं हुई थी। सन् 1939 तक का वाक्या है। लेकिन बहुत सारे इलाक़ों में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपनी सोवियत कायम कर ली थी। सुप्रसिद्ध पत्रकार एडगर स्नो  की "रेड स्टार ओवर चाइना" प्रकाश में आ चुकी थी। बेनीपुरी जी की "लाल चीन" की मूल प्रेरणा यही पुस्तक थी। लेकिन बेनीपुरी जी ने इसके आधार पर शब्दों की नई विशाल इमारत खड़ी कर "लाल चीन" को पूरा किया और कहने में तनिक भी अतिशयोक्ति नहीं कि हिंदी साहित्य में चीन की क्रांति की लहर और उसके जुझारू नेताओं पर इससे बेहतर कोई मौलिक साहित्य हमें शायद ही मिले। ख़ुद जयप्रकाश नारायण ने इसकी भूमिका में लिखा है कि बेनीपुरी जी ने कई ग्रंथों का मंथन कर सोवियत चीन के जन्म एवं विकास का जीवित इतिहास हमारे सामने रखा है। इसके महत्व और प्रासंगिकता के बारे में वे आगे कहते हैं कि यह पुस्तक सिर्फ जिज्ञासा ही पूरी नहीं करेगी, बल्कि पथप्रदर्शन भी करेगी।

इस कड़ी की दूसरी सर्वाधिक महत्वपूर्ण पुस्तक है ज़र्मनी की क्रांति पर जो बेनीपुरी के ही शब्दों में "जर्मनी की जनता के दुर्भाग्य से, उसके अपार बलिदान के बावज़ूद, ज़र्मनी की क्रांति दूसरी मंज़िल तय नहीं कर पायी। वह असफल हुई। नतीज़ा दोनों को (क्रातिविरोधी सोशलिस्टों और और पूंजीवादी लोकतांत्रिकों को) भुगतना पड़ा-जनता की छाती पर एक दिन हिटलर सवार हुआ और उसकी नेता रोज़ा लक्ज़मबर्ग नेउस प्रयत्न में  सिर्फ़ अपनी जान ही नहीं कोई, उसकी क्रांति भी सीमित रह गई।"

 "रोज़ा लक्ज़मबर्ग " नामक इस किताब को भी उन्होंने जेल में ही मात्र पचास दिन में पूरा किया और इस बार भी जयप्रकाश नारायण की ही प्रेरणा और संकल्प से:
 " जब मै हज़ारीबाग़ सेंट्रल जेल में पहुँचा पॉल फ्रेलिख़ की रोज़ा लक्ज़मबर्ग नामक पुस्तक साथी जयप्रकाश ने मुझे दी और कहा - क्या हिंदी इस विषय में  कोई पुस्तक तैयार नहीं की जा सकती? "
इस पुस्तक को लिखने में बेनीपुरी जी ने संपूर्ण साहित्यिक रस विधान का सहारा लिया है। पूरी किताब "लेखनी नहीं, जादू की छड़ी से" लिखी गई है। इसकी चंद पंक्तियों को देखिए! :
"प्रथम विश्वयुद्ध के समय अंतर्राष्ट्रीय समाजवाद का यूरोप में जैसे दिवाला पिट गया। बड़े बड़े अगरधत्त समाजवादी नेताओं (सोशलिस्ट इंटरनेशनल के नेतागण) ने अपने सभी पुराने सिद्धांतों और कथनों को जैसे सात हाथ ज़मीन खोदकर नीचे गाड़ डाला और वहाँ के मज़दूरों को साम्राज्यवादी ज़िबहख़ाने, अपने पुराने नेतृत्व की लाठी से हाँककर, क़त्ल होने को डाल दिया। मज़दूरों के अंतर्राष्ट्रीय भाईचारे के मंदिर में उन्होंने, देशभक्ति के नाम पर, एक राक्षसी को बिठा दिया-राक्षसी जो ख़ून पर जिये, विनाश पर मुस्कुराये! 
 "यूरोप में तांडव हो रहा था! ख़ून की नदियाँ बह रही थीं। उनकी वीभत्स धारा में मानवता ऊब डूब रही थी! "

बेनीपुरी जी की इस कड़ी में एक और महत्वपूर्ण किताब थी कार्ल मार्क्स की जीवनी। कार्ल मार्क्स की जीवनी अनेक भाषाओं में प्रकाशित थी लेकिन हिंदी में यह पहली जीवनी थी। 

कितनी सरस भाषा और शैली में उन्होंने इस पुस्तक को लिखी है निस्संदेह प्रगतिशील साहित्य को उनकी यह अनुपम भेंट है। लिखते हैं, "जिस तरह से डारविन ने प्राणियों के विकास के नियम का अनुसंधान किया, उसी तरह मार्क्स ने मनुष्य के इतिहास के विकास के  नियम को हमारे सामने रख दिया । उसने उस सरल तथ्य का आविष्कार किया, जो आदर्शवाद के घटाटोप में अब तक छिपा हुआ था.....! "

इन सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर उनका लेखन निस्संदेह उनकी क्रांतिकारी चेतना के यगांतकारी आयाम को प्रस्तुत करता है। अपने साहित्यिक सामर्थ्य को इन विषयों को हिंदी में उपस्थापित कराने में समर्पित कर इन्होंने ऐतिहासिक काम किया। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रगतिशील साहित्य आंदोलन ने साहित्य में उनके इस अवदान की अवहेलना की। इतना ही नहीं, माटी की मूरतें और गेहूं और गुलाब में जो रेखाचित्र और शब्दचित्र उन्होंने उकेरे हैं उस लेखनशैली के अक्स रूस चीन और जर्मनी के क्रांतिकारी नायकों चित्रण में भी  दिखाई पड़ते हैं।  

बेनीपुरी जी की सारी रचनाएँ आज प्रासंगिक हैं। आज भी उनकी "माटी की मूरतें"अपने "गेहूँ" के लिए "गुलाब" से युद्ध करती हुई दिल्ली की सीमाओं पर खडीं हैं जैसे कभी उनके गाँव जबार इलाक़े में ज़मींदारों से अपने खेत बचाने के लिए जंग लड़ रही थीं। उनके हाथ में उस रंग का झंडा भी है जिस रंग को कभी आपने ख़ुद की भी पहचान कही थी। जब इन किताबों को लिख रहे थे तब के बारे में आपने कहा था , " मैं ऊपर से नीचे तक पूरा लाल था"!!! 

तब एक ईस्ट इंडिया कंपनी के पैरोकार हुकूमत में थे आज ईस्ट इंडिया कंपनी के वारिसान बहु राष्ट्रीय अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के सहयोगियों के नुमाइंदगान तख़तनशीं हैं। आज भी उनके द्वारा संपादित "युवक" के शहीद विशेषांक की प्रतीक्षा पूरी नहीं हुई है और न  अजातशत्रु नाम से लिखा उनका क्रांतिकारी लेख "इंक़लाब ज़िंदाबाद" पूरा हो पाया है।

किसान आंदोलन की शहादतें और उसका विवेकसम्मत निष्कर्ष   उन जैसों की लेखनी की बाट जोह रहा है।

भगवान प्रसाद सिन्हा
( Bhagwan Prasad Sinha )

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