"धीरे धीरे रे मना धीरे सब कछु होय।"
भाषा की उत्पत्ति जल की ध्वनियों से हुई है, इसके बहुत निकट मैं अस्थाननामों का अध्ययन करते हुए, परंतु इसका साहस नहीं कर सकता था। मैं इस बात से विस्मित था कि अटपटे और निरर्थक प्रतीत होने वाले स्थान नाम का मूल जलवाची सिद्ध होते हैं। इस उलझन का जिक्र हम (किश्त 9 ख) मे निम्न शब्दों में कर आए हैं, “यह पहेली तब मेरी समझ में नहीं आती थी। मैने अपने को समझाया कि पानी के बिना जीवन संभव नहीं, इसलिए बस्तियाँ पानी के किसी स्रोत के निकट बसाई जाती रही होंगी।”आर्य-द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत एकता (1973) तक मेरी समझ यह थी, “भाषा का विकास प्रकृत ध्वनियों के अनुकरण से हुआ है। इस प्रकार अनुकृत उच्चार ध्वनि विशेष, ध्वनि के स्रोत, अर्थात ध्वनि उत्पन्न करने वाली वस्तु और क्रिया तथा तदनुरूपता का द्योतक हो सकता था.। दूसरे शब्दों में कहें तो एक ही उच्चार संज्ञा, क्रिया, विशेषण और क्रिया विशेषण सभी के लिए प्रयुक्त हो सकता था जिनसे हमारी भाषा का विराट ढांचा बना है।”(पृ 95) संस्कृत धातुओं का विश्लेषण करने के बाद, “
सभी धातुओं का मूल उत्स गति, प्रिया, अथवा संघात है जिससे धनिया उत्पन्न होती हैं और इनका अपवाद यदि हो सकती हैं तो पक्षियों आदि की स्वगत ध्वनियाँ, जिन के साथ मानवीय स्वायत्त भावाभिव्यंजकों को भी गिना जा सकता है। यदि भाषा मनुष्य की सुविचारित सर्जना होती तो इतनी अधिक धातु का प्रयोग एक ही संकल्प या प्रत्यय के लिए ना केवल असंभव होता अपितु वह भाषा के विकास में बाधक होता “ (पृ.108)।
और
“ पंडितों ने ठीक ही कहा है कि अर्थ शब्द में नहीं, वाक्य में होता है, और वही भाषा की सबसे छोटी इकाई है जबकि अक्षर और शब्द उसके टाइप या बिल्डिंग ब्लॉक होते हैं, जिनको कंपोज करके वह इकाई तैयार की जाती है। शब्द भंडार के विकास की सामान्य प्रवृत्ति निम्न प्रकार रही है:
मूल ध्वनि या उच्चार= आदिम शब्द
उस ध्वनि या उच्चार का स्रोत, अर्थात उसका वस्तुगत आधार = संज्ञा, क्रिया.
उस वस्तु या क्रिया से सादृश्य रखने वाली वस्तुएं और क्रियाएँ = अर्थविस्तार;
इन वस्तुओं और प्रिया से संबंध वस्तु, गुण और कार्य= भाववाचक, विशेषण, क्रिया विशेषण।
अर्थात यदि हम (1) को बीज शब्द माने तो हम आते हैं कि इसके परिसर में इससे संबंध वस्तुओं, क्रियाओं, और गुणों के लिए भी इसी ध्वनि का यथावत, या स्वल्प ध्वनिभेद के साथ प्रयोग होता है। (पृ.171) इससे आगे (पृ. 171-179) इसे उदाहृत किया था।”
यह विचार तर्कसंगत था। इस चरण पर यदि मुझे वैदिक सूनृता वाक्, सायण के अनुसार ‘पशुपक्षिमृगादीणां भाषा’ का पता चल गया होता तो इतना संतोष होता कि गदगद हो कर आगे सोचना ही बंद कर देता। परन्तु यहां तक तो मैं अपने निजी तर्क-वितर्क से ही पहुंच चुका था। लाभ यह हुआ कि मैंने पाया चिंतक भाषा के विषय में उससे अधिक गहरी समझ रखते थे जो आज के भाषा वैज्ञानिक रखते हैं या हमारे विश्व विख्यात वैयाकरण रखते थे।
कोलकाता निवास में राष्ट्रीय ग्रन्थागार में सायणाचार्य थे। सायण का लाभ मुझे 1978 के बाद मिलना आरंभ हुआ मैंने सायण के भाष्ययुक्त ऋग्वेद खरीदने की स्थिति में आ गया। इस बीच उनसे वंचित रह जाने का लाभ यह हुआ कि क्रमिक तर्क-वितर्क में मैंने पाया कि अनेक समस्याओं का समाधान ‘पशुपक्षिमृगादीणां भाषा’ से नहीं होता।
पहले मेरा ध्यान इस दिशा में नहीं गया था कि वस्तु जगत और भाव जगत में सर्वाधिक आवर्तिता उनकी है जिनसे कोई ध्वनि पैदा नहीं होती। हमारी ज्ञानेंद्रियों में स्पर्श, रस, गंध, दृश्य के संप्रेषण के लिए हमारे पास भाषा नहीं है परंतु स्मृति होती है। हमारे पास केवल शब्द है, जिसके माध्यम से हम विश्व-ब्रह्मांड को, अपने को और अपने समाज और इतिहास को जानते हैं। जो इन्द्रियग्राह्य होते हुए भी शब्द की पकड़ में नहीं आता, उसका हमें मात्र आभास होता है, अनुभव होता है, प्रतीति होती है, उसका संचार नहीं हो पाता।
जिस भाषा के बल पर हम अपने को सर्वज्ञ मानते हैं, उसकी पकड़ में तो हमारा अपना ही संवेद्य जगत नहीं आता। हम नहीं कह सकते कि वस्तुबोध के लिए अपेक्षित सभी ज्ञानेन्द्रियां मनुष्य के पास हैं। हम जानते हैं कि मनुष्यों में जन्मजात विकलांगताएँ होती हैं। हम जानते हैं, सभी प्राणियों में ज्ञान की वे सभी इंद्रियां नहीं होतीं जो मनुष्य के पास हैं। परंतु मनुष्य की ज्ञानेंद्रियों से अर्जित विश्वबोध क्या अपने आप में समग्र विश्वबोध है? हम जानते हैं कि मनुष्य के लिए अज्ञेय, यहां तक की उसके द्वारा विकसित यंत्रों के माध्यम से भी आग्राह्य प्राकृतिक आपदाओं की सूचना दूसरे प्राणियों को समय रहते मिल जाती है जबकि न हमारा दिमाग उनका पूर्वानुमान कर पाता है न ही इस सचाई को जानने के बाद भी हम अपने सर्वज्ञ होने के अहंकार को कम कर पाते हैं।
विश्व अबोध उलझाने वाले प्रश्न से बचते हुए हमने सायणाचार्य के भाष्य मैं ऐसी वस्तुओं के लिए भी जल या आहार का अर्थ देखकर पहले एक आघात सा लगा और फिर उससे प्रेरित होकर सोचना आरंभ किया तो उन वस्तुओं और भाव जगत की अवधारणाओं की शब्दावली के निर्माण की प्रक्रिया का किंचित आभास सा हुआ।और तब मैंने पाया कि निशब्द सत्ताओं और अमूर्त संकल्पनाओं के लिए निर्माण जल की ध्वनियों से हुआ हो सकता है, के बाद 2000 दो से लेकर बाद के 1 दशक से अधिक समय तक इसकी अनबीन करता हुआ अपने लेख प्रकाशित कराता रहा। इसके बाद भी मेरा ध्यान उसकी ओर बहुत विलंब से गया जिसमें भाषा की उत्पत्ति जल से बताई गई है और मैं विचलित होकर सोचता रहा कि क्या वैदिक मनीषी वाणी की उत्पत्ति के विषय में अंतिम सत्य तक पहुंच गए थे? इस ऋचा को समझने में मेरे मन में इसलिए भी झिझक बनी आ गई थी , किं कहीं मैं अपने मिस कॉल 100 की पुष्टि के लिए खींचतान तो नहीं कर रहा हूं?
भगवान सिंह
(Bhagwan Singh)
ऋग्वेद की रहस्यमयता (14)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/14.html
#vss
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