Thursday 29 April 2021

यात्रा वृतांत - गंगोत्री यात्रा के पड़ाव (7)

नौटियाल साहब ने अपने दामाद के जजमानों का बेहतरीन स्वागत किया। चाय के साथ मड़वे के आटे की कचौरियाँ। अद्भुत स्वाद था। साथ में हरी चटनी और मीठा अलग से। हमने उन्हें बताया कि चौरंगी खाल होते हुए नाचिकेता ताल जाना है, तो बोले अवश्य जाएँ। लेकिन जल्दी ही घूम कर आ जाएँ। एक बज रहा है। रात न होने पाए वहाँ भालू बहुत हैं। मानपुर से आधा घंटे का रास्ता है। सड़क बहुत अच्छी थी। चौरंगी खाल 2350 मीटर पर वन विभाग का जंगल है। चौरंगी खाल के गेट से चार किमी की चढ़ाई है, तब नाचिकेता ताल मिलता है। वन विभाग यात्रियों से एंट्री फ़ीस लेता है, किंतु यदि अंदर किसी यात्री को भालू मार दे तो कोई गारंटी नहीं मिलती। हम अपनी जोखिम पर चल दिए। हमारे पास दो लाइसेंसी वॉकी-टाकी थे। और हम छह पैदल यात्री। मित्र सुभाष बंसल, उनका बेटा एडवोकेट राहुल बंसल, उनका भानजा पीयूष गुप्ता, पंडित जितेंद्र सैमवाल और उनका 15 वर्ष का पुत्र दीपांशु तथा मैं। एक वॉकी-टाकी दीपांशु ने लिया। वह सबसे कम उम्र का था। दूसरा मैंने, क्योंकि मैं सबसे बड़ी उम्र का। इस वॉकी-टाकी की रेंज डेढ़ किमी की थी। यात्रा शुरू हुई। पीयूष और दीपांशु की जोड़ी थी। दूसरी पंडित जी और सुभाष बंसल की। सबसे पीछे मैं और एडवोकेट राहुल बंसल चल रहे थे क्योंकि उसे मेरा हाथ कई जगह पकड़ना पड़ता था। पहली टीम तो सरपट निकल गई, दूसरी टीम भी काफ़ी आगे थी। हमरी टीम पीछे थी। एकाएक बीच वाली टीम की आवाज़ आई भालू! हम ठिठक गए और सिहर भी गए। पर वह एक पत्थर फ़ेक कर भाग निकला। 

यह जंगल एकदम सन्नाटे वाला और जन-विहीन था। न कोई गाँव न कोई व्यक्ति आता-जाता दिखा। एक पहाड़ से दूसरे पहाड़ घूमते हुए हम एक ऊँचाई पर पहुँचे। यह स्थल कोई 3300 मीटर ऊँचा था। सामने बर्फ़ से लदे पर्वत शिखर दिख रहे थे। कुछ देर हम वह रुके। चूँकि चलते समय हमने ढेर सारी चॉकलेट्स, टॉफ़ियाँ और खट्टे-मीठे स्वाद वाले कंपट ख़रीद रखे थे और हर टीम में बाँट दी थीं। पानी की एक-एक बॉटल भी। इस ऊँचाई वाले स्थल पर पानी पिया और कंपट खाए। तब तक पहली टीम की वॉकी-टाकी पर आवाज़ आई- पहुँच गए। अब तेज़ ढलान थी पर वे हमें दिख नहीं रहे थे। दस मिनट बाद वे दिखने शुरू हुए। तब तक दूसरी टीम भी पहुँच गई। यह क़रीब 200 मीटर लंबा और सौ मीटर चौड़ा तालाब था। जिसके तटबंध पक्के थे। तालाब किनारे एक झोपड़ी थी, जिसमें एक साधु-बाबा रहते हैं। काले-भुजंग साधु बाबा चार डिग्री टेम्प्रेचर में भी सिर्फ़ एक फटा-पुराना कम्बल ओढ़े थे। बदन पर कोई वस्त्र नहीं। एक कथरी बिछा कर तालाब के किनारे बैठे थे। पहुँचते ही बोले- छोड़ आए कि ऐसे ही आए। हमने कहा- छोड़ना तो चाहते हैं, पर छूटती कहाँ है! बोले, यह तो आप लोगों को देख कर ही लगता है। बाबा जी खूब बातूनी थे और बिलकुल वैसे ही दिख रहे थे, जैसा कि मैंने उन्हें 2013 में देखा था। वे नाचिकेता ताल छोड़ कर कहीं नहीं जाते। कुछ घसियारिनें वहाँ घास काट रही थीं, वही बाबा जी को कुछ चावल वग़ैरह दे जाती हैं। अचानक बोले- सरकार को किसानों की माँगें मान लेनी चाहिए। क्योंकि ये किसान ही सबका पेट भरते हैं। फिर बोले, लेकिन ये मोदी किसी की सुनता कहाँ हैं। 

मैंने पूछा, बाबा जी देश-दुनिया का हाल-चाल कैसे पता रखते हो? बोले- साल भर तक जब लॉक डाउन था तब ये घसियारिनें और जंगल के बाहर के गाँव वासी मेरे पास आ जाते थे। अन्न-जल लाते और दुनियाँ की ख़बरें भी। आप लोग तो सुधि लेने से रहे। बाबा जी ने काली चाय बनाई और स्टील की गिलसियाँ निकाल कर उनमें वह चाय उड़ेल कर हमें पिलाई और बोले- यह जंगल है और मंगल भी यहीं है। अब क्या पूछते। हम लोग मान पुर से दो-ढाई किलो आटा ले गए थे उसे माँड़ कर गोलियाँ बनायीं और नाचिकेता ताल की मछलियों को खिलाईं। खूब फ़ोटो खींची गईं। 

नाचिकेता की कथा वेदों में हैं। तैत्तरीय ब्राह्मण और कठोपनिषद व महाभारत में भी। ये एक वैदिक ऋषि बाजश्रवा के पुत्र थे। बाजश्रवा ने विश्वजीत यज्ञ किया। प्रतिज्ञा की कि इस यज्ञ में मैं अपनी सारी संपत्ति दान कर दूंगा। कई दिनों तक यज्ञ चलता रहा। यज्ञ की समाप्ति पर महर्षि ने अपनी सारी गायें यज्ञ करने वालों को दक्षिणा में दे दी। दान देकर महर्षि बहुत संतुष्ट हुए। बालक नचिकेता के मन में गायों को दान में देना अच्छा नहीं लगा क्योंकि वे गायें बूढी और दुर्बल थीं। ऐसी गायों को दान में देने से कोई लाभ नहीं होगा। उसने सोचा पिताजी जरुर भूल कर रहे है। पुत्र होने के नाते मुझे इस भूल के बारे में बताना चाहिए। न देने योग्य गौ के दान से दाता का उल्टे अमंगल होता है, इस विचार से नचिकेता पिता के पास गया और बोला, ”पिताजी आपने जीर्ण, वृद्ध और दुर्बल गायों को दान में दिया है उनकी अवस्था ऐसी नहीं थी कि ये दूसरे को दी जाएँ। 

महर्षि बोले, ”मैंने प्रतिज्ञा की थी कि, मैं अपनी साड़ी सम्पत्ति दान कर दूंगा, गायें भी तो मेरी सम्पत्ति थी। अगर मैं दान न करता तो मेरा यज्ञ अधूरा रह जाता।
नचिकेता ने कहा, मेरे विचार से दान में वही वास्तु देनी चाहिए जो उपयोगी हो तथा दूसरो के काम आ सके फिर मैं तो आपका पुत्र हूँ बताइए आप मुझे किसे देंगे?

ऋषि ने कोई उत्तर नहीं दिया। नचिकेता ने पुन: वही प्रश्न किया, पर वे टाल गये।
'पिताजी! मुझे किसे दे रहे हैं? 
तीसरी बार पूछ्ने पर पिता को क्रोध आ गया। चिढ़कर उन्होंने कहा- 'तुम्हें देता हूँ मृत्यु को। 

नचिकेता विचलित नहीं हुए। परिणाम के लिए, वे पहले से ही प्रस्तुत थे। उन्होंने हाथ जोड़कर पिता से कहा - 
'पिताजी! शरीर नश्वर है, पर सदाचरण सर्वोपरि है। आप अपने वचन की रक्षा के लिए यम सदन जाने की मुझे आज्ञा दें।'
ॠषि सहम गये, पर पुत्र की सत्यपरायणता देखकर उसे यमपुरी जाने की आज्ञा उन्होंने दे दी।नचिकेता यम पुरी के लिए प्रस्थान कर गए। जब नचिकेता यमपुरी पहुँचे, उस समय यमराज कहीं गए हुए थे। नचिकेता दरवाज़े पर ही बैठ गए। यम की पत्नी ने उन्हें घर के अंदर आने को कहा किंतु स्वामी विहीन घर में पदार्पण उन्हें उचित नहीं लगा। तीन दिन बीत गए। नचिकेता ने न कुछ खाया न पिया। अब यम की पत्नी परेशान हो उठीं। कहीं इस ब्राह्मण बालक की मृत्यु हो गई तो लोक निंदा का पाप पड़ेगा। उन्होंने यमराज के पास दूत भेज कर बुलवाया। यमराज घर आए तो ऋषि पुत्र का हठ देख कर काँप उठे। तेजस्वी ॠषिकुमार उनकी अनुपस्थिति में उनके द्वार बिना अन्न-जल ग्रहण किए तीन रात बिता चुके थे। यम जलपूरित स्वर्ण-कलश अपने ही हाथों में लिए दौड़े।

उन्होंने नचिकेता को सम्मानपूर्वक पाद्यार्घ्य देकर अत्यन्त विनय से कहा -'आदरणीय ब्राह्मणकुमार! पूज्य अतिथि होकर भी आपने मेरे द्वार पर तीन रात्रियाँ उपवास में बिता दीं, यह मेरा अपराध है। आप प्रत्येक रात्रि के लिये एक-एक वर मुझसे माँग लें।

'मृत्यो! मेरे पिता मेरे प्रति शान्त-संकल्प, प्रसन्नचित्त और क्रोधरहित हो जाएँ और जब मैं आपके यहाँ से लौटकर घर जाऊँ, तब वे मुझे पहचानकर प्रेमपूर्वक बातचीत करें।' पितृभक्त बालक ने प्रथम वर माँगा।
'तथास्तु' यमराज ने कहा।

'मृत्यो! स्वर्ग के साधनभूत अग्नि को आप भलीभाँति जानते हैं। उसे ही जानकर लोग स्वर्ग में अमृतत्त्व-देवत्व को प्राप्त होते हैं, मैं उसे जानना चाहता हूँ। यही मेरी द्वितीय वर-याचना है।'
'यह अग्नि अनन्त स्वर्ग-लोक की प्राप्ति का साधन है। ' 
यमराज नचिकेता को अल्पायु, तीक्ष्ण बुद्धि तथा वास्तविक जिज्ञासु के रूप में पाकर प्रसन्न थे। उन्होंने कहा- 
'यही विराट रूप से जगत की प्रतिष्ठा का मूल कारण है। इसे आप विद्वानों की बुद्धिरूप गुहा में स्थित समझिये।'
उस अग्नि के लिए जैसी जितनी ईंटें चाहिए, वे जिस प्रकार रखी जानी चाहिए तथा यज्ञस्थली निर्माण के लिए आवश्यक सामग्रियाँ और अग्निचयन करने की विधि बतलाते हुए अत्यन्त सन्तुष्ट होकर यम ने द्वितिय वर के रूप में कहा- 'मैने जिस अग्नि की बात आपसे कहीं, वह आपके ही नाम से प्रसिद्ध होगी और आप इस विचित्र रत्नों वाली माला को भी ग्रहण कीजिए।'

'हे नचिकेता, अब तीसरा वर माँगिये।' अग्नि को स्वर्ग का साधन अच्छी प्रकार बतलाकर यम ने कहा। 
'आप मृत्यु के देवता हैं।' 
श्रद्धा-समन्वित नचिकेता ने कहा- 
'आत्मा का प्रत्यक्ष या अनुमान से निर्णय नहीं हो पाता। अत: मैं आपसे वहीं आत्मतत्त्व जानना चाहता हूँ । कृपापूर्वक बतला दीजिए।'
यम झिझके। आत्म-विद्या साधारण विद्या नहीं। उन्होंने नचिकेता को उस ज्ञान की दुरूहता बतलायी, पर उनको वे अपने निश्चय से नहीं डिगा सके। 
यम ने भुवन मोहन अस्त्र का प्रयोग किया- सुर-दुर्लभ सुन्दरियाँ और दीर्घकाल स्थायिनी भोग-सामग्रियों का प्रलोभन दिया, पर ॠषिकुमार अपने तत्त्व-सम्बंधी गूढ़ वर से विचलित नहीं हो सके।

'आप बड़े भाग्यवान हैं।' 
यम ने नचिकेता के वैराग्य की प्रशंसा की और वित्तमयी संसार गति की निन्दा करते हुए बतलाया कि 
' विवेक वैराग्य सम्पन्न पुरुष ही ब्रह्मज्ञान प्राप्ति के अधिकारी हैं। श्रेय-प्रेय और विद्या-अविद्या के विपरीत स्वरूप का यम ने पूरा वर्णन करते हुए कहा- 'आप श्रेय चाहते हैं तथा विद्या के अधिकारी हैं।'
'हे भगवन! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो सब प्रकार के व्यावहारिक विषयों से अतीत जिस परब्रह्म को आप देखते हैं मुझे अवश्य बतलाने की कृपा कीजिये।'
'आत्मा चेतन है। वह न जन्मता है, न मरता है। न यह किसी से उत्पन्न हुआ है और न कोई दूसरा ही इससे उत्पन्न हुआ है।' 
नचिकेता की जिज्ञासा देखकर यम अत्यंन्त प्रसन्न हो गए थे। 

उन्होंने आत्मा के स्वरूप को विस्तारपूर्वक समझाया-
'वह अजन्मा है, नित्य है, शाश्वत है, सनातन है, शरीर के नाश होने पर भी बना रहता है। वह सूक्ष्म-से-सूक्ष्म और महान से भी महान है। वह समस्त अनित्य शरीर में रहते हुए भी शरीर रहित है, समस्त अस्थिर पदार्थों में व्याप्त होते हुए भी सदा स्थिर है। वह कण-कण में व्याप्त है। सारा सृष्टि क्रम उसी के आदेश पर चलता है। अग्नि उसी के भय से चलता है, सूर्य उसी के भय से तपता है, इन्द्र, वायु और पाँचवाँ मृत्यु उसी के भय से दौड़ते हैं। जो पुरुष काल के गाल में जाने के पूर्व उसे जान लेते हैं, वे मुक्त हो जाते हैं। शोकादि क्लेशों को पार कर परमानन्द को प्राप्त कर लेते हैं।'

यम ने कहा,
'वह न तो वेद के प्रवचन से प्राप्त होता है, न विशाल बुद्धि से मिलता है और न केवल जन्मभर शास्त्रों के श्रवण से ही मिलता है। वह उन्हीं को प्राप्त होता है, जिनकी वासनाएँ शान्त हो चुकी हैं, कामनाएँ मिट चुकी हैं और जिनके पवित्र अन्त:करण को मलिनता की छाया भी स्पर्श नहीं कर पाती जो उसे पाने के लिए अत्यन्त व्याकुल हो जाते हैं। 

यह मान्यता है, कि यह वही नाचिकेता ताल की।
(जारी)

शंभूनाथ शुक्ल
( Shambhunath Shukla )

गंगोत्री यात्रा के पड़ाव (6)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/6_28.html
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