Monday 5 April 2021

ऋग्वेद की रहस्यमयता (4)

इससे पहले हमने ऋग्वेद की  रहस्यमयता  के कुछ सूत्रों का उल्लेख किया था।  हम यहां  उसी का  उदाहरणों के साथ  विस्तार करना चाहेंगे।  पहली समस्या युद्ध की वास्तविकता और मायाचार की है।

इंद्र का युद्ध वृत्र के साथ  होता है,  और इसको इतनी बार,  इतने रूपों में दोहराया गया है,  कि  इंद्र का एक नाम  वृत्रघ्न या  वृत्रहन है। [1] परंतु वृत्र कौन है, या क्या है? 

शाब्दिक रूप में इसका अर्थ हुआ वह जो किसी चीज को घेरे हुए है, या अवरुद्ध ।  इसका अर्थ है,
(1) जल को रोकने वाला बादल (अपामतिष्ठत् धरुणह्वरं तमः अन्तः वृत्रस्य जठरेषु पर्वतः । );
(2),  जलधारा को रोकने वाला; 
(3), जल को हिम बना देने वाला और प्रवाहित होने से रोकने वाला पर्वत शिखर; 
(4) नदी का कगार (त्वं वृत्रहा वसुपते सरस्वती  ।। 2.1.11; सरस्वती को हिरण्यवर्तनी = धारा बदलनेवाली और इसलिए वृत्रघ्नी कहा गया है -उत स्या नः सरस्वती घोरा हिरण्यवर्तनिः । वृत्रघ्नी वष्टि सुष्टुतिम् ।। 6.61.7 ),
(5) नदी की धारा में आने वाला कोई अवरोध (नदं न भिन्नं अमुया शयानं मनो रुहाणा अति यन्ति आपः । याः चिद् वृत्रो महिना पर्यतिष्ठत् तासामहिः पत्सुतःशीः बभूव ।। 1.32.8)[2], 
(6) औषधियों को आवृत करने वाला  छिल्का, यहां तक कि रस को रोकने वाली सभी वनस्पतियां वृत्र की शाब्दिक परिधि में आ जाती है और सोमलता को तो वृत्र इसलिए कहा गया सोमपान के लिए वृत्र का वध करना होता है  (वृत्रघ्नः सोमपाव्नः) और त्रिवृत (त्रिवृत वै सोम आसीत्)[3]
(7)वृत्र का  प्रयोग  शत्रुओं के लिए भी किया गया है[4] और 
(8) लुटेरों, उचक्कों  के  लिए भी हुआ है ।  इसे असुर (अमित्रहा वृत्रहा दस्युहन्तमं ज्योतिर्जज्ञे असुरहा सपत्नहा ।। 10.170.2)  वृत्र को  दानव या दानु (अहिं जघान दानुं शयानं स जनास इन्द्रः) , का और अहि (अहिमोहानमप आशयानं प्र मायाभिर्मायिना सक्षदिन्द्रः ।। 5.30.6)   आदि भी कहा गया है।

अंतिम (8) को छोड़कर, किसी दूसरे का वध किया जा सकता है क्या?  और  वध या हत्या करने वाला  इंद्र  क्या है?

हम दुबारा शौनक  के  उस कथन को उद्धृत करना चाहते हैं  जिसमें वह स्पष्ट करते हैं  कि  इंद्र सूर्य का वह रूप है जो आर्द्रता या रस को अपनी रश्मियों से, वायु के सहारे सोखता है  और उसी को एकत्र करके  संसार में वर्षा कराता है(रसान् रश्मिभिरादाय वायुनायं इतना सह। वर्षत्येष च यल्लोके तेनेन्द्र इति स स्मृत:।।१/६८)।

ऐसा  इन्द्र किसकी हत्या कर सकता है? किस तरह हत्या कर सकता है? वृत्र  कौन है? जिस में जल या आर्द्रता है।  जो उस आर्द्रता या जल तत्व को,  रस  को रोक कर रखता है ।  व्यापक अर्थ में सभी जीवित या मृत, जीव या वनस्पतियाँ,  वृत्र  हैं,  क्योंकि वे स्वतः आर्द्रता का त्याग नहीं करते। सूर्य की रश्मियां अपने ताप से उन पर प्रहार करती हैं, और उनके उस रस को  सोखती हैं  जो  उनमें है और जिसे वे बचा कर रखना चाहते / चाहती थे/हैं।  पहले इस बात की स्पष्ट अवधारणा नहीं थी कि वायुमंडल की एक सीमा है, उससे आगे वह नहीं मिलता। विश्वास यह था कि वायु समस्त ब्रह्मांड में व्याप्त । इसलिए जल के शोषण और उसे सूर्यलोक तक पहुंचाने में ही नहीं वृत्र के वध में भी इन्द्र के साथ वायु/मरुतों की भूमिका है( वधीं वृत्रं मरुत इन्द्रियेण स्वेन भामेन तविषो बभूवान् । अहमेता मनवे विश्वश्चन्द्राः सुगा अपश्चकर वज्रबाहुः ।। 1.165.8)। मरुद्गण इन्द्र के भाई है (किं न इन्द्र जिघांससि भ्रातरो मरुतस्तव।) और वे वृत्र से  युद्ध करते हैं।  

परंतु युद्ध भी किससे? एक विकलांग से।  वृत्र के न हाथ  है, न   पाँव है।  कंधा अवश्य है जिसे तोड़ना पड़ता है, जिससे वह चूर चूर हो कर विखर जाता है (अपादहस्तो अपृतन्यदिन्द्रमास्य वज्रमधि सानौ जघान । वृष्णर्वध्रिः प्रतिमानं बुभूषन् पुरुत्रा वृत्रो अशयद् व्यस्तः ।। 1.32.7)।  रामायण में दोनों कंधे दस में बदल जाते हैं।  यूँ दस का अर्थ बलवान भी होता है, दमनकारी भी होता है जो  दासति और अभिदासति, और सुदास और दिवोदास (=स्वर्जित्, न कि देवताओं का दास, जैसा दुहराया जाता रहा है) में पाया जाता है। 

इतना ही नहीं वृत्र स्वयं मधु में समाया हुआ और मधुपान का प्रेमी है, और इन्द्र उसके घर में घुस कर अपनी गदा से उसे चूर कर देते हैं।
त्यं चिदर्णं मधुपं शयानमसिन्वं वव्रं मह्याददुग्रः ।
अपादमत्र महता वधेन निदुर्योण आवृणङ्मृध्रवाचम् ।। 5.32.8)
The fierce God seized that huge and restless coiler, insatiate, drinker of the sweets, recumbent,
And with his mighty weapon in his dwelling smote down the footless evil-speaking ogre.  (ग्रिफिथ) 
वृत्र जल से घिरा हुआ था। इन्द्र ने  मधुपान से मस्त होकर उसका वध किया तो, नदियाँ उमड़ कर पूरे वेग से समुद्र की और बह चलीं:
अस्य मन्दानो मध्वो वज्रहस्तोऽहिमिन्द्रो अर्णोवृतं वि वृश्चत् ।
प्र यद् वयो न स्वसराण्यच्छा प्रयांसि च नदीनां चक्रमन्त ।। 2.19.2
स माहिन इन्द्रो अर्णो अपां प्रैरयदहिहाच्छा समुद्रम् ।
जनयत् सूर्यं विदद् गाः अक्तुनाह्नां वयुनानि साधत् ।। 2.19.3
2.Cheered by this meath Indra, whose hand wields thunder, rent piecemeal Ahi who barred up the waters,
So that the quickening currents of the rivers flowed forth like birds unto their resting-places.
3 Indra, this Mighty One, the Dragon's slayer, sent forth the flood of waters to the ocean.
He gave the Sun his life, he found the cattle, and with the night the works of days completed.

यह अपनी बात की पुष्टि में चुनाव पूर्वक जुटाई गई सामग्री नहीं है। पूरे ऋग्वेद में  यही सिलसिला चलता है।  खींचतान  कर  लगाया हुआ अर्थ भी नहीं है। इससे अलग कोई अर्थ लगाया ही नहीं जा सकता था।  इसीलिए हमने इनके साथ  ग्रिफिथ के अनुवाद को  दिया है कि इस विषय में पहले भी कभी कोई भ्रम नहीं था ।

एकमात्र संदर्भ झंझावात के साथ बादलों की गड़गड़ाहट और वर्षा के उस दृश्य का है इसमें वास्तविक युद्ध का  भ्रम पैदा हो जाता है, और इसका ही लाभ वेदिक कवियों ने उठाया है।  विचित्र है कि ऋग्वेद का कवि  खुले शब्दों में घोषणा  करता है कि युद्ध के ये वर्णन युद्ध से संबंध नहीं रखते, ये  प्राकृतिक प्रपंच के चित्रण हैं, और उसके बाद भी रूप विधान इतना  सशक्त कि वैदिक काल में भी इनकी सत्यता का भ्रम पैदा हो जोता रहा होगा कि ये वास्तविक युद्धों के वर्णन हैं।  परन्तु व्याख्याकारों के सामने समग्र साहित्य था, और वे अपने भाष्य, टीका, अनुवाद में इसे स्वीकार भी करते हैं फिर भी सायणाचार्य जैसे विद्वान ने इन्हें युद्ध के रूप में इसलिए चित्रित किया कि ऐसी व्याख्या कृष्णदेव राय की महत्वाकांक्षा के अनुरूप थी;  पश्चिमी विद्वानों ने समझते हुए भी यह प्राकृतिक लीला का वर्णन है, युद्ध के रूप में पेश किया, क्योंकि यह सिद्ध करने के लिए कि संस्कृतभाषी भारत में यूरोप से, जर्मनी से आए थे इसलिए वे उस समय तक के कल्पित जर्मनों की तरह युद्धोन्मादी, निष्ठुर, और विध्वंसकारी रहे हों तभी यह मान्यता टिक सकती है.  इस प्राकृतिक लीला को  भयंकर आक्रमणों. और युद्धों का रूप देकर भारतीयों के निर्मम संहार के रूप में अपना इतिहास गढ़ा और इसमें यह जानते और मानते हुए भी कि सायण की ये व्याख्यायें गलत हैं उनका भरपूर उपयोग किया।  इस्लामपरस्त नेताओं को इसलिए दोष नहीं दे सकते कि उन्हें न वेद के विषय में कुछ पता था न ही भारत के प्राचीन इतिहास के विषय में और अपने जघन्य मध्यकालीन अपराधों और उपद्रवों का औचित्य सिद्ध के लिए ही नहीं, अपितु भारत पर अपना नैतिक अधिकार दावा करने के लिए पाश्चात्य विद्वानों के निष्कर्षों को वज्रलेख मानना सबसे सुविधाजनक था।  पर दूसरे विद्वान, जिनको राष्ट्रवादी कह कर कोसा जाता रहा है, वे क्या कर रहे थे? क्या किसी नें इस बात का खुल कर दावा किया? नहीं।  औरों की बात छोड़ दें, स्वयं इन पंक्तियों के लेखक ने इस समस्या को इतने स्पष्ट रूप में पहले समझा? प्रचारतंत्र जिसके अधिकार में होती है वह गलत होने के बाद भी सही होता है और सही की तलाश करने वाले भी इस सम्मोहक दबाव, हिप्नोटिक दबाव से पूरी तरह मुक्त नहीं रह पाते।

कल हम एस सूक्त के माध्यम से इसकी अंतःरचना को समझने का प्रयत्न करेंगे।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

ऋग्वेद की रहस्यमयता (3)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/3.html


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