बहुत कम फिल्में, बहुत कम किताबें ऐसी होती हैं जो हमें मानवीय रिश्तों के सौंदर्य और गरिमा का अहसास करा पाती हैं। कुछ ऐसा जो मनुष्य होने की गरिमा से भरा हुआ हो। एक ऐसी कहानी जिसके ख़त्म होने पर हम खुद को थोड़ा बेहतर मनुष्य होने की तरफ पा सकें। रूसी लेखक तुर्गेनेव मुझे ऐसे रचनाकार और ह्रषिकेश मुखर्जी ऐसे ही निर्देशक लगते हैं। इन दोनों ने ही उदात्त सेल्फ डिस्ट्रक्टिव पात्रों की रचना की है।
आम तौर पर हम सिनेमा और साहित्य में ऐसी प्रवृति किसी निजी दुःख, जो अक्सर असफल प्रेम होता है - की वजह से देखते आए हैं। देवदास एक ऐसा ही पात्र है। यहां तक कि समाज से रूमानी विद्रोह करने वाला 'प्यासा' फिल्म का नायक भी बुनियादी रूप से प्रेम में असफल एक इंसान है। ह्रषिकेश मुखर्जी के नायक अलग हैं, उनके भीतर खुद को तबाह करने की जिद है मगर एक स्वाभिमान भी है। यह उन्हें बाहर से तो जर्जर कर देता है मगर भीतर उस स्वाभिमान की लौ निष्कंप जलती रहती है। बल्कि समय के थपेड़ों के बीच उसका तेज और बढ़ता जाता है। 'आशीर्वाद' के अशोक कुमार, 'सत्यकाम' के धर्मेंद्र और 'आलाप' के अमिताभ बच्चन ऐसे ही नायक हैं।
हमने अमिताभ का मुखर क्रोध बहुत सारी फिल्मों में देखा है मगर उनका बुझा हुआ गुस्सा- जो राख के भीतर दबा रह जाता है, अगर देखना हो तो 'आलाप' फिल्म देखनी चाहिए। इसके सिवा यह रिश्तों के सौंदर्य की फिल्म भी है। शास्त्रीय संगीत का विद्यार्थी आलोक प्रसाद (अमिताभ बच्चन) का पुराने समय की मशहूर गायिका सरजूबाई बनारसवाली (छाया देवी) से कोई रिश्ता नहीं होता। वे सिर्फ अपने संगीत प्रेम की वजह से उनके दरवाजे तक पहुँच जाते हैं और जब उनको यह पता लगता है कि उनके सख़्तमिजाज़ और अनुशासनप्रिय पिता (ओम प्रकाश) ने उन्हें बेघर कर दिया है तो विरोधस्वरूप वे उनके घर से निकलकर उसी शहर में तांगा चलाने लगते हैं।
कहानी आगे बढ़ती जाती है। शहर में गाड़ियों और बसों के आने से अब कोई तांगे की सवारी पसंद नहीं करता। अमिताभ की आजीविका दिन प्रतिदिन घटती जा रही है। इस बीच सरजूबाई बनारस अपना ठिकाना खोजने चली जाती हैं। अपने दोस्त (असरानी) की बहन (रेखा) से आलोक को प्रेम हो जाता है और दोनों की शादी भी हो जाती है। दोनों का एक बेटा होता है मगर उनकी आर्थिक स्थिति बिगड़ती जाती है। अमिताभ तपेदिक का शिकार हो जाते हैं। फिल्म के इस हिस्से में सत्तर के दशक की तमाम सीमाओं के बावजूद अमिताभ का शानदार अभिनय देखने को मिलता है।
ह्रषिकेश मुखर्जी ने इस फिल्म में कई सुंदर दृश्य रचे हैं। जैसे कि एक रात अमिताभ अपने ही पिता को तांगे से घर तक छोड़ते हैं। दोनों के ही भीतर अपना-अपना अहं है मगर वे भीतर-बाहर से टूट भी चुके हैं। इस बात को फिल्म कुछ ही संवादों के जरिए बड़ी खूबसूरती से बयान कर देती है। फिल्म में राही मासूम रज़ा ने कई जगह बहुत अच्छे संवाद लिखे हैं। ओम प्रकाश का संवाद "आदमी जिनके साथ जीना चाहता है, उनके बग़ैर भी जी सकता है..." या अमिताभ कहते हैं, "प्यार का मजा साथ मरने में नहीं, साथ जीने में है...", "अम्मा मुझसे यह लोरी सुनना चाहती थीं, मगर सुनने से पहले ही सो गईं..." या फिर जब संजीव कुमार ओम प्रकाश से कहते हैं "तुम बहुत ही बदनसीब आदमी त्रिलोकी प्रसाद, तुम्हें पता ही नहीं तुमने क्या खो दिया..." फिल्म के खत्म होने के बाद भी ये याद रह जाते हैं।
इन सब बातों से बढ़कर यह फिल्म रिश्तों की खूबसूरती को सामने लाती है। पिता और बेटे के बीच अहंकार और करुणा से भरा रिश्ता तो पूरी फिल्म की बुनियाद है मगर इसके अलावा फिल्म में स्त्रियां अपने मोहक और न भूलाए जाने वाले किरदारों में मौजूद हैं। सरजूबाई का राजा बहादुर (संजीव कुमार) से अबोला रिश्ता जो सिर्फ प्रेम की परिधि में नहीं आता, सरजूबाई की सेवा करने के लिए अपना घर-बार छोड़कर उनके साथ बस जाने वाले महाराज दीनानाथ (मनमोहन कृष्ण) अमिताभ की भाभी (बंगाली अभिनेत्री लिली चक्रवर्ती) जो एक साथ हंसी-ठिठोली करने वाली दोस्त और देखभाल करने वाली मां- दोनों के रिश्तों को जीती है या फिर सुलक्षणा (फरीदा जलाल) जिसका अमिताभ से रिश्ता होने वाला होता है मगर वह बाद में उनकी आजीवन एक अच्छी दोस्त बन जाती है।
यह फिल्म सामान्य तरीके से नहीं देखी जा सकेगी, तब शायद हम उसकी सुंदरता को पकड़ भी नहीं पाएंगे। हमें याद रखना होगा कि यह बिजनेस के लिहाज से अपने समय की बहुत बड़ी फ्लॉप थी। सन् 1977 में अमिताभ की जैसी 'एंग्री यंग मैन' की छवि बन चुकी थी उसके बिल्कुल विपरीत थी फिल्म। कहते हैं लोगों ने ह्रषिकेश मुखर्जी को सुझाव भी दिया कि अमिताभ से भजन न गवाए जाएं और उनके एक-दो फाइट सीन भी फिल्म में रखे जाएं मगर ह्रषि दा ने इनकार कर दिया। फिल्म में घटनाएं बहुत कम हैं जिसकी वजह से इसकी गति धीमी लगती है। बीच के हिस्से में फिल्म ठहरी हुई सी लगती है। पिता और बेटे के बीच तनाव है मगर द्वंद्व नहीं है। इसकी सुंदरता दरअसल एक गहरे नैतिक बोध में है, जिसे हम नायक के भीतर सतत देखते हैं। वह इस नैतिक बोध को किसी बोझ की तरह नहीं ढोता। यह जीवन का सहज स्वीकार किया जाने वाला पक्ष है। फिल्म एक बार भी इसे जस्टीफाइ नहीं करती है कि सरजूबाई के लिए अमिताभ ने इतना बड़ा फैसला क्यों ले लिया। आत्मा के भीतर यही नैतिक बोध जीवन को सौंदर्य देता है। इसे फिल्म के अंतिम दृश्य से भी समझा जा सकता है।
फिल्म का अंतिम दृश्य मार्मिक है, जब पिता बने ओम प्रकाश सारा अहंकार छोड़कर काशी में बिस्तर पर पड़े बीमार अमिताभ से मिलते जाते हैं। ठीक उसी समय रेखा और अमिताभ का बेटा भजन गाना आरंभ करते हैं, "माता सरस्वती शारदा..."। यह दृश्य अद्भुत है। शय्या पर पड़े अमिताभ, साधारण से कपड़ों में उनकी पत्नी और बेटे के पास जैसे यही एक संपत्ति है- कला और ज्ञान की देवी सरस्वती का साथ। उनसे निःस्वार्थ प्रेम करने वाले कुछ दोस्तों का साथ- यही उनकी सारी कमजोरी और गरीबी के बीच कुल जमापूंजी और ताकत है।
फिल्म के अंतिम हिस्से में ही हरिवंश राय बच्चन की एक कविता को जयदेव ने बहुत सुंदर ढंग से संगीतबद्ध किया है, जिसे सुनना सुखद है -
कोई गाता मैं सो जाता
संसृति के विस्तृत सागर पर
सपनों की नौका के अंदर
सुख-दुख की लहरों पर उठ-गिर बहता जाता मैं सो जाता
कोई गाता मैं सो जाता।
दिनेश श्रीनेत
( Dinesh Srinet )
#vss
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