Sunday, 25 April 2021

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 11.

लाहौर भारत के लिए ख़ास महत्वपूर्ण नहीं था। लाहौर जीतना कभी न एजेंडा में था, न सेना ने कभी कोशिश की।

सीमा से लाहौर की दूरी तो उतनी ही है, जितनी कनॉट प्लेस से नोएडा की। ऐसा भी नहीं कि रास्ते में टैंकों की लाइन लगी होती है, और सेना उसे पार न कर सके। ग्रैंड ट्रंक रोड जैसी बेहतरीन रोड बनी हुई है। लाहौर की परिधि में पाकिस्तान ने एक पुराने जमाने की सुरक्षा-व्यवस्था कर रखी थी। किले के बाहर एक नहर खोद देना, ताकि दूसरी सेना वहीं रुक जाए। यह पाकिस्तान का अपना नदियों के जोड़ने का प्रोजेक्ट भी है, जो उसने 1948 में कर लिया था। 

भारतीय सेना कभी लाहौर शहर नहीं पहुँची। वह उस नहर के किनारे ही रुकी रही, जो सीमा से महज दस किलोमीटर दूरी पर थी। उसी बरकी थाने पर खड़े भारतीय फौजियों की तस्वीर अक्सर दिख जाती है, कि भारत ने लाहौर जीत लिया था। ऐसी तस्वीरें पाकिस्तानी फौजियों की भी खेमकरण (पंजाब) और मुनाबाव (राजस्थान) पोस्ट पर अपना झंडा फहराते मिल जाएगी। इसका अर्थ यह नहीं कि उन्होंने अमृतसर जीत लिया था। 

लाहौर का महत्व कुछ पुराने फ़िल्मों की लड़ाई जैसा था कि एक ने किसी के बच्चे पर बंदूक तान दी, तो दूसरे ने उसकी प्रेमिका को गिरफ़्त में लेकर कहा कि तुम बच्चा छोड़ो, तभी यह मिलेगी। चूँकि अख़नूर में स्थिति नाजुक थी, इसलिए भारतीय सेना लाहौर की सीमा तक धमकाने आ पहुँची। पाकिस्तानी सेना ने उस नहर पर बने पुल खुद ही उड़ा दिए, ताकि भारतीय फौज अटक जाए। यह भी बात थी कि नहर के दूसरी ओर एक बाटा चप्पल के फ़ैक्ट्री की वजह से बाटापुर नामक घनी बस्ती बस गयी थी। यह जानकारी भारतीय सेना को नहीं थी, और वे भी घनी बस्ती देख कर हैरान थे। आम नागरिकों पर हमले या लाहौर के गलियों में भटकने का इरादा उनका था ही नहीं। यह कोई स्तालिनग्राद की लड़ाई नहीं थी कि बड़े शहर ध्वस्त किए जाएँ। 

अगर किसी भारतीय सेना के व्यक्ति से पूछा जाए कि उनके लिए 1965 के युद्ध में सबसे बड़ा दुख किस बात का है। तो वह बहुमत से एक उत्तर दे सकते हैं - ‘हाजी पीर दर्रे को लौटाना’। हाजीपीर पर फ़तह को ही आज भी सेना सम्मान से मनाती है। नितिन गोखले, जिन्होंने अपनी किताब में 1965 के युद्ध को भारत की विजय कहा है, उन्होंने हाजीपीर विजय को दुनिया के कठिनतम युद्धों में गिना है। वहीं रचना बिष्ट रावत अपनी पुस्तक में लिखती हैं कि जिस दिन हाजीपीर से भारतीय सेना अपना झंडा उतार कर लौट रही थी, उनकी आँखें भीग गयी थी। यह इस युद्ध का इकलौता महत्वपूर्ण हासिल था, जो भारत ने ताशकंद में खो दिया।

यह दर्रा उरी और पूँछ को जोड़ता है, और दुनिया के कठिनतम घुमावदार रास्तों में है। यह वही रास्ता है जिससे आज भी गाहे-बगाहे पाकिस्तान नियंत्रित कश्मीर से घुसपैठ चलती रहती है। इसकी चोटी पर जब मेजर रणजीत सिंह दयाल पहुँचे थे, तो मुजफ़्फराबाद (पीओके) तक का हिस्सा उन्हें दिख रहा था, और वहाँ चल रहे सभी कैम्पों पर नजर रखी जा सकती थी। यह वही रणजीत सिंह दयाल हैं, जिन्होंने बाद में ऑपरेशन ब्लूस्टार में बड़ी भूमिका निभायी जिसकी चर्चा मैंने पहले (ब्लूस्टार: अस्सी के दशक का भारत) में की है। 

सेना लाहौर शहर लेकर क्या करेगी, सेना को तो हाजी पीर की तरह रणनीतिक बिंदु चाहिए। पाकिस्तान की सेना 6 सितंबर को ही काफी हद तक लाहौर की परिधि बचा चुकी थी। दो दिन बाद संयुक्त राष्ट्र संघ के सेक्रेट्री जनरल यू थाँट ही पाकिस्तान पहुँच चुके थे। लग रहा था कि युद्ध रुक जाएगा। 

मगर पाकिस्तान तो अलग ही मोर्चा खोल रही थी। नया-नया फौजी स्कूल पास आउट सेकंड लेफ़्टिनेंट परवेज मुशर्रफ़ भी खेमकरण मोर्चे पर पहुँच चुका था। खेमकरण पर अमरिका की भी नज़र थी, कि उनके पैटन टैंकों की लगे हाथ जाँच हो जाएगी। आखिर यहाँ सदी का सबसे बड़ा टैंक युद्ध होने को था। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा 
( Praveen Jha )

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 10. 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/10_24.html
#vss

No comments:

Post a Comment