Wednesday 21 April 2021

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 8.

“हम हज़ार वर्षों तक कश्मीर के लिए लड़ेंगे। चाहे हमें घास क्यों न खाना पड़े, हम एटम बम बनाएँगे।”

- ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो

लड़ाई सेना नहीं चाहती, सियासत चाहती है। अयूब ख़ान के आते ही युद्ध की संभावना दिखने लगी थी। आख़िर पाकिस्तान पर सेना का राज आया था। मगर लगभग एक दशक तो कोई बड़ी लड़ाई नहीं हुई। मौके मिले थे, फिर भी नहीं हुई। मुमकिन हो कि अयूब ख़ान अमरीका से पर्याप्त अस्त्र जुगाड़ रहे हों, इसलिए भी नहीं हुई। उन्हें अमरीका ने रोक रखा हो, इसलिए नहीं हुई। लेकिन क्या एक फ़ौजी को दस साल तक कश्मीर जीतने का मन नहीं हुआ? यह इच्छा नहीं हुई कि एक युद्ध लड़ लिया जाए ? सेना हाथ बाँधे कैसे बैठ सकती है ?

ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो न होते, तो शायद आगे भी युद्ध नहीं हुआ होता। भले ही उन्हें पाकिस्तान में लोकतंत्र का मसीहा कहा जाए, भारत से अनंत लड़ाई में उनके दिमाग को झुठलाया नहीं जा सकता। तेल-खनिज विभाग के बाद अयूब ख़ान के विदेश मंत्री बनते ही उन्होंने सुनियोजित ढंग से इस दिशा में साम-दाम-दंड-भेद लगाया। अगर वह न होते तो शायद पाकिस्तान के दो टुकड़े नहीं हुए होते, और न ही कश्मीर की लड़ाई के चक्कर में पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था बलि पर चढ़ती। आज भले ही दुनिया में उनकी छवि एक विश्व-नेता के रूप में है, किसी पाकिस्तानी से पूछने पर वे कन्नी काटते नजर आते हैं। खैर, कायद-ए-आजम की तरह कायद-ए-अवाम तो वह कहलाते ही हैं। वह भी मोहम्मद अली जिन्ना की तरह शिया मुसलमान थे, और कभी वैसा ही रुतबा हुआ करता। वह भी फौजी नहीं थे, सियासत के आदमी थे।

अगर यह थ्योरी ठीक है कि सेना युद्ध नहीं चाहती, सियासत चाहती है, तो भारत में हमेशा से सियासत का ही राज रहा है। यहाँ तो युद्ध की ही योजना चलती रहनी चाहिए। मैं भारत को इस आरोप से मुक्त नहीं करूँगा। भारत ने भी सुनियोजित ढंग से युद्ध की चालें चली। अगर वहाँ एक भुट्टो थे, तो यहाँ भी कई भुट्टो थे। यह बात तो पाकिस्तानी खुल कर कहते ही हैं कि भारतीय ‘चालबाज़’ राजनीति ने ही पाकिस्तान को बँटवारे में उचित हिस्सा नहीं दिया, कश्मीर भी हथिया लिया, पूर्वी पाकिस्तान भी तोड़ लिया।

कच्छ के रण में भारतीय खेमे के लोगों का कहना है कि पाकिस्तान अपनी सीमा से आगे बढ़ रहा था। जबकि पाकिस्तान का कहना है कि यह तो उनका ही हिस्सा था। दुनिया के सबसे बड़े खारे मरुस्थलों में से एक, यह इलाका बंजर और निर्जन था। जब बँटवारा हुआ, तो इस सीमा पर स्पष्टता नहीं थी, और किसी ने जरूरत भी नहीं समझी। यही स्पष्ट नहीं था कि यह जमीन है, या समुद्र का ही हिस्सा। पूरी दुनिया में ऐसे दलदल का बँटवारा कठिन होता है, जहाँ एक भौतिक सीमा-रेखा खींचना असंभव हो। दुर्भाग्य से भारत के एक तरफ सुंदरबन और दूसरी तरफ यह कच्छ का दलदल था, और दोनों ही तरफ़ पाकिस्तान।

मगर भारत वाकई अपनी चाल एक कदम आगे तो चल रहा था। 1956 में ही भारतीय सेना उत्तरी रण में कब्जा जमा चुकी थी। जब विभाजन के बाद कराची पोत पाकिस्तान गया, तो भारत ने गुजरात में कांडला पोत बना लिया। पाकिस्तान तब तक इस दलदल को ख़ास भाव नहीं दे रहा था। ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो जब तेल-खनिज मंत्री थे, उन्हें मालूम पड़ा कि कच्छ के दलदल में तेल और खनिज है। लेकिन, तब तक यह भारत के हाथ में जाने लगा था।

सबसे बड़ी बात पाकिस्तान के जेहन में कुछ देर से आयी। यह इकलौता बिंदु था, जहाँ से जल-सेना, थल-सेना और वायु-सेना तीनों एक साथ आक्रमण कर सकती थी, और कराची को बाकी पाकिस्तान से एक झटके में काट सकती थी। यह बात तो मार्च, 1965 में स्पष्ट दिखने लगी जब INS विक्रांत जाकर कच्छ में लग गया, और भारतीय सेना का गुप्त ऑपरेशन ‘ऐरो-हेड’ शुरू हुआ।

लाल बहादुर शास्त्री ने इस पूरे ऑपरेशन के विषय में हैदराबाद में कुछ यूँ कहा, “महज कुछ एकड़ की जमीन के लिए पाकिस्तान ख़्वाह-म-ख़्वाह बखेड़ा खड़ा कर रही है...अगर उनकी सेना आगे बढ़ती है, फिर तो हमें मुकाबला करना ही होगा।”

पाकिस्तान इस कथन के बाद इस सोच में था कि बखेड़ा खड़ा कौन कर रहा है। सारा बखेड़ा तो भारत ने किया है। उनके अनुसार आगे भी भारतीय ही बढ़े थे और सिंध में घुस आए थे।

अमरीकी राजदूत की तरफ से कथन आया, “यह लड़ाई कुछ यूँ शुरू हो रही है, जैसे कोई स्कूली बच्चा खेल-खेल में दूसरे को धक्का दे देता है”।

वहीं ब्रिटिश राजदूत ने कहा, “यूँ तो मसला गंभीर है, किसी एक की ग़लती नहीं कही जा सकती। लेकिन, पूरा भले न सही, सच का पलड़ा भारत की ओर झुका लग रहा है”

अगर इस पूरे मसले पर निरपेक्ष होकर अभारतीय नज़रों से आंका जाए, तो भारतीय कूटनीति अपने ‘टॉप क्लास’ पर थी। कच्छ एक ऐसा युद्ध था, जिसमें पाकिस्तान को आज तक लगता है कि वह जीते। लेकिन सीजफ़ायर के बाद पूरे रण का मात्र दस प्रतिशत ही पाकिस्तान को मिला, नब्बे भारत ले गया।

शायद भुट्टो का अंदेशा ठीक था। यह दलदल वाक़ई तेल का खजाना हो सकता है। खैर, उस समय पाकिस्तान को लगा कि यह दलदल जाए तो जाए, कश्मीर जीत लिया जाए। ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने नयी चाल चली- ऑपरेशन जिब्राल्टर।
(क्रमशः)

प्रवीण झा
( Praveen Jha )

पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 7.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/7_20.html
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