“कश्मीरी कैसेट सुनते। फिर बोर होकर या भारतीय गश्ती से डर कर कैसेट फेंक देते। टेपरिकार्डर जमा कर लेते और सैलानियों को बेच देते।”
- एक कश्मीरी का कथन
युद्ध के मायने अब बदल गए हैं। अगर अमरीका भी चाहे कि किसी देश में घुस कर उस पर कब्जा कर ले, तो यह मुमकिन नहीं। अगर ऐसा होता तो इराक और अफ़ग़ानिस्तान में अमरीकी चुनाव का मतदान हो रहा होता। पाकिस्तान के पास अगर असीम ताकत होती, कश्मीर पर कब्जा भी कर लेती, तो भी कश्मीर उनके नाम नहीं होता। अंतरराष्ट्रीय एजेंसियाँ सीज़फायर करती, और सीमाएँ निर्धारित की जाती। किसके हाथ कितना आता, यह वहीं तय होता। जैसा कच्छ में हुआ।
कच्छ में शुरुआती लड़ाई के बाद उस दलदल में भारतीय सेना ने आगे बढ़ना ज़रूरी नहीं समझा। इसे पाकिस्तानी अखबारों ने छापा कि भारतीय सेना डर कर भाग गयी। इंग्लैंड के प्रधानमंत्री ने सीज़फायर करवा दिया, और भारत को बिना लड़ाई जारी रखे, लगभग पूरा कच्छ का रण मिल गया। पाकिस्तान के लिए यह बस उनकी अखबारी जीत बन कर रह गयी।
मगर पाकिस्तान ने इसी युद्ध को आधार बना कर सोचा कि कश्मीर में ही अगर यही स्थिति हो, तो शायद फिर से सीज़फायर हो, अंतरराष्ट्रीय एजेंसियाँ बीच-बचाव करें, और इस बार यह विवाद संयुक्त राष्ट्र ही सुलझाए। उन्हें यह भी यकीन था कि न सिर्फ अमरीका और चीन, बल्कि सोवियत भी उन्हीं का साथ देगी। ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो आधे कम्युनिस्ट तो थे ही, सोवियत से ताल्लुकात भी अच्छे थे, जो संबंध आगे ताशकंद में स्पष्ट दिखेगा।
इस बात को दुबारा लिखूँ तो कुछ यूँ कहा जाए कि कबड्डी के खेल की तरह अगर पाकिस्तान भारत के पाले में आकर छूकर भी लौट जाती, तो संयुक्त राष्ट्र बीच-बचाव के लिए आता ही। कश्मीर पर पुनर्विचार होता और कुछ-न-कुछ निर्णय ऐसा ज़रूर होता जो पाकिस्तान को जमीन देता।
सदियों पहले मुसलमानों ने अफ़्रीका के रास्ते जिब्राल्टर की खाड़ी पार कर पुर्तगाल और स्पेन पर आक्रमण किया था। कुछ इसी तरह की घुसपैठ करने की कोशिश थी। उन्हें कोई बड़ा युद्ध नहीं लड़ना था, बस चुपके से कश्मीर में घुस जाना था, और वहाँ के अवाम को पाकिस्तान में मिल जाने के लिए प्रेरित करना था।
पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर जिसे पाकिस्तान में आज़ाद कश्मीर कहते हैं, वहाँ से कश्मीरी लोगों के पारिवारिक संबंध भी थे। मेरे ही कुछ आज़ाद कश्मीरी जान-पहचान के लोग हैं, जिनके चाचा या बुआ भारतीय कश्मीर में हैं। उनकी भाषा और संस्कृति भी एक थी। विभाजन से पहले तो वे रहते भी एक छत के नीचे ही थे। विभाजन के बाद उनका मिलना अक्सर सीमा पर जाकर होता। अब तो खैर सीमा पर ऐसा कॉरीडोर है कि चिल्ला कर ही बात हो सकती है, और कई जगह दूरबीन से ही ठीक से देखा जा सकता है।
ऑपरेशन जिब्राल्टर के अनुसार कुछ पच्चीस हज़ार मुजाहिद्दीन (गुरिल्ला धर्मयोद्धा) तैयार करने थे, जो दस टुकड़ियों में बँट कर कश्मीर के अलग-अलग सेक्टरों में प्रवेश कर जाएँगे। वे हथियार रखें, यह ज़रूरी नहीं। वे प्रोपोगैंडा के सामान रखेंगे। जैसे पोस्टर, पत्रिका, कैसेट, टेपरिकार्डर आदि। वह कश्मीरियों में बाँटेंगे, गलियों में अपना एक आज़ाद कश्मीर ऑफिस बनाएँगे। यह सब 1965 के जुलाई-अगस्त महीने में शुरू हो जाएगा। क़यास लगते हैं कि यह सीआईए की भी तरकीब हो सकती है। इससे मिलती-जुलती तरकीब वे क्यूबा, तिब्बत और वियतनाम में पहले लगा चुके थे।
इसमें कोई दो राय नहीं कि संविधान संशोधन के बाद कश्मीर अशांत था। कश्मीरी अपनी स्वायत्तता खोने के बाद ठगा हुआ महसूस कर रहे थे, और उन्हें भड़काना आसान था। ख़ास कर जब 1963 में हज़रतबल दरगाह से मू-ए-मुकद्दश (हजरत मुहम्मद का बाल) चोरी हुई, तो हज़ारों की तादाद में कश्मीरी सड़क पर आ गए थे। शेख अब्दुल्ला स्वयं उस दौरान नाखुश थे। मगर यह इतना भी आसान नहीं था कि पाकिस्तान से कुछ हज़ार लोग आएँगे और पूरे कश्मीर का ‘ब्रेन-वाश’ कर देंगे। इसके ठीक उलट उन्होंने भारतीय सेना के मुखबिर का भी काम किया। ऑपरेशन जिब्राल्टर इतना गुप्त रहा कि पाकिस्तान के आला फ़ौजी अफ़सरों और मंत्रियों को खबर नहीं हुई, और भारत के संसद तक खबर पहुँच गयी।
यह पाकिस्तान का ऐसा ब्लंडर था, कि उनके लिए कश्मीर का ख़्वाब सदा के लिए ख़्वाब ही रह गया। काफी हद तक यह ग़लती भी ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की ही थी। यह अगस्त का महीना था, जब दोनों ही देशों में आज़ादी का झंडा फहराने की तैयारी हो रही थी।
(क्रमश:)
प्रवीण झा
( Praveen Jha प्रवीण झा )
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 8.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/8_21.html
#vss
No comments:
Post a Comment