Sunday 21 June 2015

विश्व योग दिवस - एक प्रतिक्रिया / विजय शंकर सिंह






योग संस्कृत धातु 'युज'  से उत्पन्न हुआ है जिसका अर्थ है व्यक्तिगत चेतना या आत्मा का सार्वभौमिक चेतना या रूह से मिलन। योग अत्यंत  प्राचीन  भारतीय ज्ञान है। यद्यपि कई लोग योग को केवल शारीरिक व्यायाम  ही मानते हैं जहाँ लोग शरीर को तोड़ते - मरोड़ते हैं और श्वास लेने के जटिल तरीके अपनाते हैं | वास्तव में देखा जाए तो ये क्रियाएँ मनुष्य के मन और आत्मा की अनंत क्षमताओं की तमाम परतों को खोलने वाले ग़ूढ विज्ञान के बहुत ही सतही पहलू से संबंधित हैं| योग विज्ञान में जीवन शैली का पूर्ण सार आत्मसात किया गया है , जिसमें ज्ञान योग या तत्व ज्ञान,भक्ति योग या परमानन्द भक्ति मार्ग,कर्म योग या आनंदित कार्य मार्ग और राज योग या मानसिक नियंत्रण मार्ग समाहित हैं । राजयोग आगे और आठ भागों में विभाजित है। राजयोग प्रणाली के  मुख्य केंद्र में उक्त विभिन्न पद्धतियों को संतुलित करना एवं उन्हे समीकृत करना ही योग के आसनों का अभ्यास है 

आज  विश्व योग दिवस है. राजपथ पर आयोजन है . नगर से लोग , कुलीन सत्ता तंत्र के सानिध्य में योगासन करेंगे. कहा जा रहा है, योग से तन और मन दोनों स्वस्थ रहता है. तन वसा रहित और मन विकार रहित हो जाता है. यूँ तो और भी  बहुत से आसन है विधि में और प्राणायाम की भी अनेक विधियां हैं. पर सभी नहीं कुछ आसान जो होंगी वही यहां बतायी और कराई जाएंगी. देश स्वस्थ रहे यह आवश्यक तो है ही पर देश भूखा न रहे यह योग से भी अधिक अनिवार्य है. बुभुक्षितं किम न करोति पापम्. योग नियम में बांधता है. पर भूख सारे नियम को तोड़ देती है. धर्म भी भूख की स्थिति में अपने सभी नियम और प्रतिबन्ध शिथिल करने की अनुमति देता है और उस समय एक ही धर्म रहता है आपद्धर्म . संकट काल का धर्म. संकट काल का धर्म होता है. जीवन की रक्षा. चाहे जैसे भी हो खुद को बचाइये.

सुबह हुयी। योगासन हुआ । भीड़ जुटी ।सेहत का सन्देश गया । अब पेट की बात करें । अब भूख की बात करें । कसरत भूखे पेट तो होती नहीं । चर्बी हो तो उसे जलाने की सोचा जाय । दुनिया मान गयी योग को । दुनिया यह भी मान गयी हम परम योगियों की परंपरा के हैं. पर दुःख है कि दुनिया यह भी मानती है हम भुक्खड़ों में भी अव्वल हैं. यह भी मानती है कि हमारे शहर दुनिया के सबसे अधिक गंदे और प्रदूषित शहर है. भ्रष्टाचार की तो बात ही मत कीजिये, सरकारी हमारी ज़ीरो टॉलरेंस वाली है. कुछ न कुछ तो करेगी ही. अब असली मुद्दों पर आइये. उन वादों पर आइये. जन समस्याओं पर आइये. आप को विश्व योग दिवस की बधाई । महर्षि पतंजलि की आत्मा प्रसन्न हो रही होगी. योग और इसका अभ्यास हम सब का मन भी विकार मुक्त करे यही कामना है !!

योग के लिए जो चटाइयां सरकार द्वारा मंगवाई गयी है, वह चीनी कंपनी की हैं. क्या मेक इन इंडिया के इस ज़माने और जज़्बे में देश में बनी चटाइयों का प्रयोग नहीं हो सकता है ? जो भी योग करने राजपथ पर जा रहा है वह स्वयं या उसका संगठन अपने आप चटाइयों की व्यवस्था नहीं कर सकता है. जो नियमित योग करता होगा वह निश्चित रूप से अपना आसन ले कर जाएगा. पर जो देखादेखी इस आयोजन में जा रहा है वह इसे तमाशा ही समझ कर जा रहा है. तमाशा मैं इस लिए कह रहा हूँ कि योग को विवादित करने का भरपूर प्रयास सरकार और विपक्ष ने किया. सूर्य नमस्कार और योग हम जब स्कूल में पढ़ते थे तो भी होता था. पर वह अहंकार और दर्प की अभिव्यक्ति नहीं थी. आप सारे आसन कर लेते हैं. आप देर तक कपाल भाति कर देते है. पर इस से जो लाभ हो रहा है वह भी तो आप को हो रहा है. आप योग के लिए वातावरण बनाइये पर इसे विवादित न होने दीजिये. धर्म विशेष कर सनातन धर्म तो हर क्रिया कलाप में अपना दखल रखता है. क्यों कि यह उस तरह का धर्म है ही नहीं, जैसे रिलिजन से अन्य धर्मों की छवि उभरती है. यह तो एक जीवन पद्धति है. उसी प्रकार योग तन और मन को स्वस्थ और निरोग रखने की प्रवित्ति है.

सूर्य नमस्कार 12 योगिक आसनों का एक सम्पुटन है. जिसमें सूर्य के समक्ष हम विभिन्न मुद्राओं मंर नत होते हैं. सूर्य ऊर्जा का अक्षय श्रोत है. सुबह की सूर्य रश्मियाँ शरीर का पोषण करती है. यह आसन तो एक माध्यम है उस अक्षय श्रोत से ऊर्जस्वित होने का. कुछ लोग इसे धर्म विरुद्ध मानते हैं. कुछ सूर्य के पक्ष में ऐसे खड़े नज़र आते हैं गोया सूर्य ने उन्हें यहां उनको अपना मार्केटिंग एजेंट नियुक्त किया हो. दरअसल न सूर्य के ये पक्ष में हैं और न ही वे सूर्य के विरोध में वे हैं बल्कि दोनों का उद्देश्य इसे विवादित करना है. कुछ कहते हैं ॐ नहीं कहा जा सकता, अल्लाह कहा जाएगा. इस पर भी विवाद है. योग जब भी अस्तित्व में आया होगा तो उसके साथ मन्त्र भी जुड़े होंगे. उस समय संस्कृत ही मुख्य भाषा थी. अतः सारे मन्त्र संस्कृत में ही थे. वैसे भी ये मन्त्र एक प्रकार की प्रार्थना ही है. सूर्य के प्रत्येक पर्यायवाची के साथ उसके नमन का एक मन्त्र है.

दुर्भाग्य से हम जितनी ही तरक़्क़ी कर रहे हैं, उतने ही कुंद दिमाग के होते जा रह है. सर्वशक्तिमान , ईश्वर तो है , पर वह बेहद कमज़ोर दीखता है . हैंडल विथ केयर के समान. या तो आस्थावानों की आस्था ही कमज़ोर धरातल पर टिकी है या वह मति भ्रम के शिकार है. योग करें , जॉगिंग करें, जिम जाएँ या खानपान से तन स्वस्थ रखें यह सबकी निजी आदतों के अनुसार है. हर चीज़ में जिस दिन धर्म दखल दे देगा, उस दिन सड़क पर चलना मुश्किल हो जाएगा. धर्म और ईश्वर को अपने पास अपनी आस्था के अनुसार रखें. न तो योग को विवादित बनाएं और न ही इसकी मार्केटिंग करें. मुख्य उद्देश्य है स्वस्थ रहें और निरोग रहें. शरीर् माद्यम् खलु धर्म साधनं !

कुछ लोग योग करने से अधिक इस बात पर ध्यान मग्न हैं कि कौन कौन और क्यों नहीं योग कर रहा है . गोया जो योग नहीं करता वह एक कमतर प्राणी है . वैसे ही धार्मिक कर्मकांडों के साथ भी होता है . नवरात्रि का व्रत हो या रोज़ा , जो करता है उनमें से कुछ खुद को ईश्वर का नज़दीकी मान बैठने का भ्रम पाल लेते हैं . योग और धर्म से जुड़े कर्मकांड अगर इन्ही कारणों से किसी में अहंकार का समावेश करते हैं तो ऐसे योग और धर्म का कोई अर्थ नहीं है . जिस योग से चित्त शांत न हो वह योग कैसा ?

योग जोड़ता है. किस से ? स्वयं से ? समाज से ? ईश्वर से ? या प्रकृति से ? या कोई और है जिस से वह जोड़ता है ? अक्सर यह सवाल उठता रहता है मेरे मन मैं. अब जब विश्व योग दिवस की तिथि नज़दीक आ रही है तो यह प्रश्न और अकुलाहट के साथ उठ रहा है. एक कथा सुनें,

एक बार आदि शंकराचार्य किसी नदी के किनारे उसे पार करने हेतु किसी साधन की प्रतीक्षा में बैठे हुए थे. शंकर का कुल जीवन ही 32 वर्ष का था. उस समय वह केवल 18 साल के एक किशोर सन्यासी थे. तभी एक हठयोगी उनके पास आया और कहा कि योग कर लेते हो ?
नहीं , शंकर ने कहा थोड़ा बहुत प्राणायाम कर लेता हूँ.
मैं पद्मासन में भूमि से ऊपर उठ जाता हूँ, योगी की बातों में अहंकार स्पष्ट था.
शंकर ने कहा , दिखाओ.
योगी ने पद्मासन लगाया और थोडा ऊपर उठा.
फिर विजयी भाव से उसने कहा, इस नदी के जल पर पैदल चल कर पार कर सकते हो ?
शंकर ने इनकार के भाव से सर हिलाते हुए कहा नहीं. पर वह शांत थे, चमत्कृत नहीं.
योगी ने कोई साधना की, और पैदल नदी पर चलता हुआ पार गया और वापस आ गया.
विजयी और दर्पीले भाव से उसने शंकर पर तुच्छ दृष्टि डालते हुए कहा , देखा यह योग होता है.
अप्रभावित शंकर, उस योगी को देखते रहे और फिर मुस्कुरा कर पूछा , इस साधना में आप का कितना समय लगा होगा.
योगी ने आँखे फैलाते हुए कहा, कि चालीस साल. चालीस साल की यह साधना है यह तब मैं जल पर पैदल चल सकता हूँ.
शंकर खिलखिला कर हंस पड़े. कहा, आपने चालीस साल केवल यह सीखने में लगा दिए कि जल पर पैदल कैसा चला जाता है. अरे नदी तो तैर कर या नाव से पार की जा सकती है.
योगी को क्रोध आ गया. उसने शंकर को बुरा भला कहा.
शंकर ने कहा, यह कैसा योग जो आप के मन को नियंत्रित न कर सके. यह कैसा योग जो आप को अहंकार से मुक्त न कर सके. यह कैसा योग जो जीवन के अत्यन्त महत्वपूर्ण समय को एक चमत्कार प्राप्त करने में बीत जाय.
तब तक नाव आ गयी थी और शंकर उस पर बैठ कर उस पार के लिए चल पड़े.

योग के दैहिक अभ्यास की सुंदरता यह है कि योग आसन आपको संभाले रखते हैं आप  वृद्ध हो या जवान ,हृष्ट पुष्ट हों या कमज़ोर। उम्र के बढ़ने के साथ आपकी समझ आसनो के प्रति प्रगतिशील हो जाती है। आप आसनों के बाहरी संरेक्षण  एवं प्रक्रिया से आगे बढ़कर आंतरिक शुद्धिकरण और अंततः केवल आसान में ही बने रहने तक पहुँच जाते है। योग हमारे लिए कभी भी पराया नहीं रहा है। हम योग तबसे कर रहे हैं जब से हम शिशु थे चाहे वह 'बिल्ली खिचाव' आसन हो जो मेरुदंड बनता हो या 'पवन मुक्त' आसन  जो पाचन को बढ़ावा देता है। आप देखेंगे कि शिशु दिन भर में कोई न कोई आसन   कर रहा होता है। विभिन्न लोगों के लिए योग के विभिन्न रूप हो सकते हैं । पर योग अगर अहंकार, दर्प , मिथ्याभिमान और आत्ममुग्धता के रोग से मुक्त नहीं करता है तो वह केवल एक पीटी परेड की तरह है.

( विजय शंकर सिंह )

Saturday 20 June 2015

Gandhi and Chaplin, meeting of legends, from the autobiography of Chaplin / गांधी और चार्ली चैपलिन , दो दिग्गजों की मुलाक़ात , चैपलिन के शब्दों में / विजय शंकर सिंह


कुछ प्रतिभाएं कालजयी होती है। वक़्त की गर्द कम पड़ती है उन पर। ऐसी ही एक प्रतिभा है चार्ली चैपलिन। चार्ली मूक फिल्मों के युग के महानायक थे। मूक फिल्मों में संवाद और संगीत नहीं होता है। अभिनय में संवाद अदायगी जो पूर्णता लाती है उसका अभाव था। फिल्मों का वह शैशव काल था। फिल्म तकनीक तब विकसित हो रही थी। चार्ली अपने गरीब माँ की सहायता के लिए अचानक एक दिन थियेटर पर उतरे और उनकी प्रतिभा दामिनी की तरह चमक गयी। बेहद गरीबी में बचपन गुज़ारने वाला यह व्यक्तित्व विश्व सिनेमा का लीजेंड बना।  चार्ली ने पूरी दुनिया को हंसाया। राजा से ले कर रंक तक सभी इनके दीवाने थे। अमेरिका से ले कर चीन तक इनकी अभिनय प्रतिभा का प्रकाश दीप्त हुआ। ढीला ढाला ,मुड़ा तुड़ा कोट , सरकती हुयी पेंट , कमीज पर खिसकती हुयी बो , आगे की और फटा हुआ जूता , इनकी पहचान बन गया था। इनका परिहास बोध , सेन्स ऑफ़ ह्यूमर , से दुनिया भर की फिल्में प्रभावित रही है। अगर आप को श्री चार सौ बीस फिल्म का यह गाना , मेरा जूता है जापानी , याद है तो आप राज कपूर को चार्ली की अदा के अनुसार इस गाने पर अभिनय करते देख सकते हैं। राज कपूर के अभिनय पर चार्ली की छाप स्पष्ट है।

वह एक स्वलेब्रिटी थे। अपने समय के सभी महान लोगों से उनके सम्बन्ध थे। गांधी से उनकी मुलाक़ात और गांधी का उनपर क्या प्रभाव पड़ा था , यह उन्ही के शब्दों में पढ़ लीजिये। चार्ली की आत्मकथा , विश्व की सर्वश्रेष्ठ और ईमानदार आत्म कथाओं में से एक है। मैं उसी का यह अंश आज उनके जन्म दिन पर प्रस्तुत कर रहा हूँ।  गांधी और चार्ली , दो महान विभूतियों की भेंट रोचक है।



" चर्चिल के पास थोड़े ही अरसे रुकने के बाद मैं गांधी से मिला। मसिने गांधी की राजनैतिक साफगोई और इस्पात जैसी इच्छा शक्ति के लिए हमेशा उनका सम्मान किया है और उनकी प्रशंसा की है। लेकिन मुझे ऐसा लगा उनका लन्दन आना एक भूल थी। उनकी मिथकीय महत्ता लन्दन के परिदृश्य में हवा में ही उड़ गयी और उनका धार्मिक प्रदर्शन भाव अपना प्रभाव छोड़ने में असफल रहा। इंग्लॅण्ड के भींगे ठन्डे मौसम में अपनी परम्परा गत धोती , जिसे वे अपने बदन पर बेतरतीबी से लपेटे रहते थे ,में वे बड़े बेमेल लगते थे। लन्दन में उनकी इस तरह की मौजूदगी से कार्टून और कैरीकेचर बनाने वालों को मसाला ही मिला। दूर के ढोल ही सुहावने लगते हैं। मुझसे पूछा गया था कि क्या मैं उनसे मिलना चाहूँगा। बेशक , मैं इस प्रस्ताव से ही रोमांचित था।

मैं उनसे ईस्ट इंडिया डॉक रोड के पास ही झोपड़पट्टी जिले के छोटे से अति साधारण घर में मिला। गलियों में भीड़ भरी हुयी थी और मकान की दोनों मंज़िलों पर प्रेसवाले और फोटोग्राफर ठूंसे पड़े थे। साक्षात्कार पहली मंज़िल पर  लगभग बारह गुणा बारह फुट के सामने वाले कमरे में हुआ। महात्मा तब तक आये नहीं थे , और जिस वक़्त मैं उनका इंतज़ार कर रहा था , मैं यह सोचने लगा , मैं उनसे क्या बात करूंगा। मैं उनके जेल जाने , और भूख हड़तालों ,तथा भारत की आज़ादी के लिए उनकी लड़ाई के बारे में थोड़ा बहुत जानता था कि वे मशीनों के इस्तेमाल के विरोधी थे।

आखिर कार जिस समय गांधी आये , टैक्सी से उनके उतरते हे चारों तरफ हल्ला गुल्ला मच गया। उनकी जय जय कार होने लगी। गांधी अपनी धोती को बदन पर लपेट रहे थे। उस तंग भीड़ भरी झोपड़पट्टी की गली में यह एक अजीब नज़ारा था। एक दुबली पतली काया एक जीर्ण शीर्ण से घर में प्रवेश कर रही थी। उनके चारों तरफ जय जय कार के नारे लग रहे थे। वे ऊपर आये और फिर खिड़की से अपना चेहरा दिखाया। तब उन्होंने मेरी तरफ इशारा किया , और तब हम दोनों मिल कर भीड़ की तरफ हाँथ हिलाने लगे।

जैसे ही हम सोफे पर बैठे , चारों तरफ से कैमरों की फ़्लैश लाइटों  का हमला हो गया। मैं महात्मा के दायीं तरफ बैठा था। अब वह असहज और डराने वाला पल आ ही पहुंचा था , जब मुझे एक ऐसे विषय पर ,घाघ की तरह बौद्धिक तरीके से कुछ कहना था जिसके बारे में मैं बहुत कम जानता था। मेरी दायीं तरफ एक हठी युवती बैठी हुयी थी ,जो मुझे एक अंत हीं कहानी सुना रही थी और मुझे उसका एक भी शब्द पल्ले नहीं पड़  रहा था मैं सिर्फ हाँ हाँ कहते हुए सर हिला रहा था। मैं लगभग इस बात हैरान हो रहा था कि , उनसे कहूँगा क्या। मुझे पता था कि बात मुझे ही शुरू  करनी है और यह बात तो तय ही थी कि महात्मा मुझे नहीं बताते उन्हें मेरी पिछली फिल्म कितनी अच्छी लगी थी। मुझे इस बात पर भी शक था कि उन्होंने मेरी कोई फिल्म देखी भी है या नहीं। तभी एक भारतीय महिला की आदेश देता हुआ स्वर गूंजा , मिस क्या आप बातचीत बंद करेंगी। और मि चैपलिन को गांधी जी से बात करने देंगी ?

भरा हुआ कमरा एक डैम शांत हो गया। और जैसे ही महात्मा के चेहरे पर मेरी बात का इंतज़ार करने वाले भाव आये ,मुझे लगा , पूरा भारत मेरे शब्दों का इंतज़ार कर रहा है। इसलिए मैंने अपना गला खँखारा।

' स्वाभाविक रूप से मैं आज़ादी के लिए भारत की आकांक्षाओं और संघर्ष का हिमायती हूँ। ' मैंने कहा , 'इसके बावजूद , मशीनरी के इस्तेमाल को ले कर आप के विरोध से मैं थोड़ा भ्रम में पद गया हूँ।

मैं जैसे जैसे अपनी बात कहता गया , महात्मा सिर हिलाते रहे और मुस्कुराते रहे। ' कुछ भी हो मशीनरी अगर निःस्वार्थ भाव से इस्तेमाल में लाई जाती है तो , इस से इंसान को गुलामी के बंधन से मुक्त करने में मदद मिलनी चाहिए और इस से उसे कम घंटों तक काम करना पडेगा और वह अपना मस्तिष्क विकसित करने और ज़िंदगी का आनंद उठाने के लिए ज्यादा समय बचा सकेगा। '

' मैं समझता हूँ , ' वह शांत स्वर में अपनी बात कहते हुए बोले , ' लेकिन इस से पहले कि भारत इन लक्ष्यों को प्राप्त कर सके , भारत को अपने आप को अंग्रेज़ी शासन से मुक्त कराना है। इस से पहले मशीनरी ने हमें इंग्लॅण्ड पर निर्भर बना दिया था , और उस निर्भरता से अपने आप को मुक्त कराने का एक ही तरीका है , कि हम मशीनरी द्वारा बनाये गए सभी सामानों का बहिष्कार करें। यही कारण है कि , हमने प्रत्येक नागरिक का यह देशभक्तिपूर्ण कर्तव्य बना दिया है कि , वह अपना स्वयं का सूत काते , और अपने स्वयं के लिए कपड़ा बुने। यह इंग्लॅण्ड जैसे शक्ति शाली राष्ट्र से लड़ने का हमारा अपना तरीका है। और हाँ , और भी कारण हैं। भारत का मौसम इंग्लॅण्ड के मौसम से अलग होता है भारत की आदतें और ज़रूरतें भी अलग हैं। इंग्लॅण्ड की सर्दी के मौसम के कारण यह ज़रूरी हो जाता है कि आप के पास तेज़ उद्योग हों और इसमें अर्थव्यवस्था शामिल है। आप को खाना खाने के बर्तनों के लिए उद्योग की ज़रुरत होती है। हम अपनी उँगलियों से ही खाना खा लेते हैं। और इस तरह से देखें तो कई तरह के फ़र्क़ सामने आते हैं। '

मुझे भारत की आज़ादी के लिए सामरिक जोड़ तोड़  लचीलेपन का वस्तुपरक  गया था और विरोधाभास की बात ये थी कि इस के लिए प्रेरणा एक यथार्थवादी , एक ऐसे युगदृष्टा से मिल रही थी, जिस में इस काम को पूरा करने के लिए दृढ इच्छा शक्ति थी। उन्होंने मुझे यह भी बताया कि सर्वोच्च स्वतंत्रता वह होती है कि आप अपने आप को अनावश्यक वस्तुओं से मुक्त कर डाले और कि हिंसा अंततः स्वयं को नष्ट कर देती है। '

 कमरा खाली हो गया तो उन्होंने मुझ से पूछा कि क्या मैं वहीं रह कर उन्हें प्रार्थना करते हुए देखना चाहूँगा। महात्मा फर्श पर पालथी मार कर बैठ गए और उनके आसपास घेरा बना कर पांच अन्य लोग बैठ गए। लंदन के झोपड़पट्टी वाले इलाक़े  बीचोबीच वाले एक छोटे से कमरे के फर्श पर छह मूर्तियां पद्मासन में बैठी हुईं थीं। लाल सूर्य छतों के पीछे से तेज़ी से अस्त हो रहा था और मैं खुद सोफे पर बैठा उन्हें नीचे देख रहा था। वे विनम्रता पूर्वक अपनी प्रार्थनाएं कर रहे थे।  क्या विरोधाभास है। मैंने सोचा इस अत्यंत यथार्हवादी व्यक्ति को, तेज़ कानूनी दिमाग और राजनैतिक सोच की गहरी समझ रखने वाले , इस शख्स को देख रहा था। यह सब आरोह अवरोह रहित बातचीत में विलीन होता प्रतीत हो रहा था। "
( चार्ली चैपलिन की आत्म कथा , ' मेरा जीवन ' से )

Thursday 18 June 2015

ललित मोदी , वसुंधरा राजे , सुषमा स्वराज , और क्रिकेट - सवालों के घेरे में / विजय शंकर सिंह



यूनियन कार्बाइड के एंडरसन, बोफोर्स के कवात्रोची, और आई पी एल के ललित मोदी में एक समता है. तीनों ही भारत में विभिन्न अपराधों में वांछित रहे हैं और तीनों ही देश से सरक गए the.किसी न किसी समय. एंडरसन कुख्यात भोपाल गैस त्रासदी के खलनायक, क्वात्रोची बोफोर्स के बड़े दलाल और सोनिया गांधी के मायके के देश इटली के नागरिक, और ललित मोदी, मोदीनगर जो मेरठ के पास है के मशहूर उद्योगपति घराना राय बहादुर सेठ गूजरमल मोदी के परिवार के हैं. एंडरसन एक अमेरिकी मल्टीनेशनल कंपनी का करता धर्ता था और निश्चित रूप से वह कांग्रेस के बड़े नेताओं के संपर्क में था. हो सकता है  अमेरिकी सरकार का भी उस पर वरद हस्त रहा हो. क्वात्रोची का सोनिया और राजीव से कनेक्शन था. यह सच भी है. भले ही यह प्रमाणित न हो पर परिस्थितियां इसी और इंगित करती है. बोफोर्स की तोप तो कारगर निकली ही और यह घोटाला भी कम कारगर नहीं निकला, जिस ने देश के राजनीति की दिशा बदल दी. ललित मोदी भी आई पी एल के 700 करोड़ के घपले में वांछित है और इस के खिलाफ ई डी ने ब्लू कार्नर नोटिस भी जारी किया है. वह भी देश के बाहर भाग गया है और अब लन्दन में रह रहा है. उसे ही ब्रिटेन से पुर्तगाल जाने के लिए सिफारिश करने का आरोप विदेश मंत्री सुषमा स्वराज पर लग रहा है.

उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि अगर क़ानून के हाँथ लंबे होते है तो, क़ानून के खिलाफ काम करने वाले अपराधियों के पास भी उन लंबे हांथों से बचने के लिए कम जुगाड़ नहीं होता. और यह जुगाड़ किसी ट्रेवल एजेंट का नहीं होता है, बल्कि, देश के भाग्य विधाताओं का होता है. कितना कौआ रोर मचा है, टीवी पर. भाजपा कह रही है कांग्रेस से तुमने भगाया एंडरसन और क्वात्रोची को, और कांग्रेस कह रही है , भाजपा से तुम्हारे मंत्रियों ने भगाया ललित मोदी को या लमो को. नमो का अनुकरण है यह. यहां कोई छिपा मक़सद नहीं है. भाग तो तीनों गए, पर ठगा सा देखता कौन रहा. भोपाल के गैस काण्ड में मरे हज़ारों लोग, बोफोर्स की दलाली में रूपये डकारने वाले दलालो को हम लोग और वह खेल प्रेमी जो क्रिकेट के लोभ में किसी अन्य खेल में ठग लिए गए.


ललित मोदी और नेताओं के रिश्ते कहा जा रहा है निजी नहीं है और न ही व्यावसायिक हैं। . यह रिश्ते  सामान्य और औपचारिक हैं. सामान्य औपचारिक रिश्ते भी  व्यावसायिक रिश्तों में बदलते हैं। और यही व्यावसायिक रिश्ते जब  दफ्तरों से होते हुए ड्राईंग रूम में और वहाँ से घर के अंतःपुर में जब पहुँच जाते हैं तो वह निजी रिश्ते बन जाते है. धन एक मूल भूत आवश्यकता है. पर जब यह आवश्यकता , लोभ और लोभ जन्य मनोरोग में बदल जाती है तो हर व्यावसायिक रिश्ता निजी हो जाता है. एंडरसन का किस से निजी रिश्ता विकसित हो गया था यह तो मुझे नहीं मालूम, पर क्वात्रोची का रिश्ता कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व से था. ललित मोदी का  रिश्ता भी कांग्रेस से था और भाजपा के वसुंधरा राजे से भी और अब विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से भी. सारे रिश्ते अब गोपन नहीं रहे. वसुंधरा राजे और सुषमा स्वराज से ललित मोदी के रिश्ते व्यावसायिक हैं और दोनों के हित सामान हैं।. कोई मानवीय एंगल और ‘ नेकी कर दरिया में डाल ’ का कोई हातिम ताई टाइप कॉन्सेप्ट इन रिश्तों में नहीं है.

जिस पुर्तगाल के अस्पताल में ललित मोदी की पत्नी का इलाज होने की बात कही  जा रही है, उसी अस्पताल को 35000 मीटर ज़मीन वसुंधरा राजे  द्वारा दी गयी है  यह भी कहा जा रहा है कि, इस ज़मीन के अतिरिक्त अन्य कई भूमि सौदों में ललित मोदी का खुला हस्तक्षेप रहा है. राम बाग़ पैलेस होटल के प्रेसिडेंशियल सूट में रुक कर ललित मोदी प्रदेश के नौकरशाहों के स्थानांतरण और नियुक्ति में भी दखल देते थे और  उनकी दखल मानी जाती थी. ऐसे बहुत से उदाहरण और प्रमाण अब सामने आ रहे है, जिस से यह साफ़ प्रमाणित होता है कि वसुंधरा राजे और ललित मोदी के सम्बन्ध न सिर्फ व्यावसायिक हैं बल्कि निजी और प्रगाढ़ भी. वसुंधरा राजे के सांसद पुत्र दुष्यंत के कंपनी के बहुत ही कम दाम वाले शेयर , ललित मोदी द्वारा  11 करोड़ रुपये में खरीदे जाने का मामला भी प्रकाश में आया है. जितना ही इस प्रकरण को  खोदा जा रहा है, परत दर परत उतना ही खुलासा हो रहा है. हालांकि सुषमा स्वराज का इतना नज़दीकी सम्बन्ध अभी , सिवाय उनके पति और बेटी द्वारा ललित मोदी का वकील बनने के अतिरिक्त नहीं दिख रहा है पर उनकी रूचि और सम्बन्ध तो प्रमाणित ही है.


क्रिकेट एक मायावी खेल हो गया है. खेल कम और धन कमाना, ग्लैमर, और सट्टेबाज़ी अधिक हो गया है। सबसे धनिक खिलाड़ी क्रिकेट से ही है. राजनेताओं का एक शगल क्रिकेट संघों की राजनीति भी हो गयी है. सभी दलों के नेता इस सोने की खान जैसे खेल संघ से जुड़ना चाहते हैं. कांग्रेस के राजीव शुक्ल, एन सी पी के शरद पवार, भाजपा के अरुण जेटली, राजद के लालू प्रसाद यादव क्रिकेट की राजनीति में भी क्रीज़ पर हैं. खुद प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी भी जब गुजरात के मुख्य मंत्री थे तो वे गुजरात  क्रिकेट अशोसिएसन के अध्यक्ष भी थे. ललित मोदी को उन्ही के कार्यकाल में गुजरात क्रिकेट एसोशिएसन से बी सी सी आई में भेजा गया था. प्रधान मंत्री को , सुषमा स्वराज का यह कृत्य ज्ञात हो या न हो, पर वह भी नज़दीकी रूप से ललित मोदी को जानते है यह भी  सच है.

अभी तो खुलासे होने शुरू हुए हैं. राजीव शुक्ल, शरद पवार सभी के नाम सामने आ रहे हैं . सबकी उंगलियां एक दूसरे की  ओर बेशर्मी से उठ रही है. सब कहीं न कहीं इस कीचड में लिप्त हैं. खेल में खेल भावना का होना ज़रूरी है. खेल भी एक प्रकार की साधना है. पर केवल खिलाड़ी के लिए ही. लेकिन  जब खेल मैदानों से हट कर, ऐशगाहों, सटोरियों के ठिकानों और बाज़ार के नियामकों के दफ्तरों में पहुँच जाता है तो वह खेल नहीं रहता भले ही वह कुछ और हो जाय. 

क्रिकेट अभिजात्य अंग्रेजों का खेल है. ब्रिटेन के लार्ड परिवार के लोग इसे खेलते थे. जहां जहां अंग्रेजों के उपनिवेश बने यह खेल वहाँ वहाँ पहुँचता गया. जहां जहां औपनेवेशिक मानसिकता गहरे पैठी वहाँ वहाँ यह खेल लोकप्रिय होता गया. भारत का यह सबसे लोकप्रिय खेल है. खेल की लोकप्रियता बढ़ी तो धन आना शुरू हुआ. कुछ अत्यंत प्रतिभा संपन्न खिलाड़ी भी देश में हुए, सुनील गावस्कर, सचिन तेंदुलकर, कपिल देव आदि आदि. सचिन तो भारतरत्न भी हैं. जब पैसा आया तो ग्लैमर भी इस खेल से जुड़ा. और तभी टीवी के जीवन्त  प्रसारण ने तो सब कुछ बदल के रख  दिया. सफ़ेद पतलून ,और  सफ़ेद शर्ट में खेले जाने वाले इस भद्र लोक खेल का परिधान भी धीरे धीरे बदला और खेल के तरीके भी.  पांच  दिनी टेस्ट मैच लंबा, और उबाऊ लगने लगा. दर्शक भी कम मिलने लगे और खेल के अनिश्चित परिणाम के कारण खेल का थ्रिल जो हार जीत के सस्पेंस से उपजता है वह कम होने लगा. तब जा कर सीमित ओवरों का एक दिनी मैच की कल्पना साकार हुयी. पहले 60 -  60 ओवर के फिर 50 - 50 ओवर के मैच होने लगे. एक दिन में ही खेल की हार जीत का फैसला होने लगा तो लोगों का उत्साह और रूचि दोनों बढ़ने लगी. इस लोकप्रियता ने BCCI को देश का  ही नहीं बल्कि दुनिया का सबसे समृद्ध खेल संगठन बना दिया.

अब जब धन के श्रोत खुले तो जहां गुड़ वहाँ च्युंटा . धनपतियों  ने धन लगा कर खेल को प्रायोजित करना शुरू किया और केवल व्यापार और धन के लिए खेल को और सिकोड़ दिया गया, जो आई पी एल कहलाया. बड़े बड़े औद्योगिक घरानों और फ़िल्मी कलाकारों ने खिलाड़ियों को खरीद कर आई पी एल का आयोजन शुरू किया. जब हार जीत के फैसले से धन ज्यादा जुड़ गया और खेल की भावना पीछे रह गयी , साथ ही सटोरियों का खेल भी शुरू हो गया . सट्टा क्रिकेट का परिणाम नहीं है. यह तो बहुत पहले से ही शेयर मार्केट या वायदा बाज़ार में था ही. पर जब पैसा क्रिकेट में दिखने लगा तो सटोरिये इधर मुखातिब हो गए. सटोरियों ने सट्टे को अंजाम तक पहुंचाने के लिए खिलाड़ियों से संपर्क साधा. कुछ युवा और किशोर वय के खिलाड़ी लड़के जिनकी आँखें अचानक इस ग्लैमर और धन से चुंधिया गयी थी सटोरियों के जाल में फंस भी गए. शिकायतें हुईं . जांच भी हुयी. और कुछ खिलाड़ियों को खेल से बाहर भी कर दिया गया.

ललित मोदी भी एक क्रिकेट के व्यापारी ही है. आई पी एल , काला धन छुपाने और मनी लांडरिंग का भी एक माध्यम बना. इस अकूत धन और ग्लैमर ने राजनेताओं को भी आकृष्ट किया. कुछ क्रिकेट संघ मैं प्रवेश किया. अब क्रिकेट के पास धन है, ग्लैमर है और सत्ता की हनक भी. दिमाग को खराब करने के लिए जितने भी कारण होने चाहिए वह सब एक साथ एकत्र हो गया. इसका असर भी दिखा. BCCI खुद को देश के क़ानून के ऊपर एक आभिजात्य  मानसिकता से ग्रस्त संगठन हो गया. खुद को सरकार के ऊपर समझने का अहंकार इस संगठन हो गया। पर जब घपले खुले और सुप्रीम कोर्ट ने जब गहराई से मुक़दमे की सुनवाई की तो ऊँट पहाड़ से नीचे आया. धन , ग्लैमर , और राज सत्ता के  दर्प से ग्रस्त  ललित मोदी का व्यवहार और तमाशा मुझे  किसी धनपशु के बिगड़ैल संतान की तरह लगता है. 

जिस तरह से आज पूरी भाजपा और सरकार वसुंधरा राजे और सुषमा स्वराज के साथ उनके ललित मोदी स्कैंडल में फंसे होने के बावजूद भी खड़ी है और खुद को उनके कर्मों के साथ एकजुट रहना दिखा भी रही है.ऐसा ही एका यू पी ए के काल में भी दिखा था . तब भी प्रधान मंत्री मौन रहा करते थे आज भी प्रधान मंत्री खामोश हैं . यह बताता है कि सत्ता और अधिकार की भाषा , व्याकरण और चरित्र एक सा ही होता है . 
-vss.




Tuesday 16 June 2015

युद्ध और सेना के मनोबल पर रक्षा मंत्री का बयान - एक विवेचना / विजय शंकर सिंह





रक्षा मंत्री का एक बयान आया है कि सेना लंबे समय तक युद्ध न होने के कारण सुस्त हो गयी है. युद्ध के लिए सेना और सेना के लिए युद्ध आवश्यक भी है. पहले के राजा महाराजा दशहरे में शस्त्र पूजन के बाद युद्ध या आखेट के लिए निकलते थे. दशहरे के पहले बारिश का मौसम आता था, और उस मौसम में आवागमन कठिन हो जाता था. अतः सेनाएं आराम करती थीं. दशहरे के बाद मौसम बदल जाता था और सैन्य अभियान शुरू हो जाता था. सैन्य अभियान का एक कारण साम्राज्य विस्तार तो था ही साथ ही प्रभुत्व की स्थापना भी थी. प्राचीन ग्रंथों में राजा, सम्राट, चक्रवर्ती सम्राट और एकराट का विवरण मिलता है. चक्रवर्ती सम्राट वह सम्राट होता था जिसे अधीनस्थ राजा और सम्राट कर देते थे, और अधीनता स्वीकार करते थे. जो कर नहीं देते थे या आधीनता स्वीकार नहीं करते थे उन्हें विद्रोही समझा जाता था और उन पर फिर सैन्य अभियान किया जाता था. अगर सैन्य अभियान नहीं होते थे तो सेना का उपयोग आखेट में होता था. मतलब वही अकबर बीरबल की एक कथा की तरह कि पान सड़ा क्यों, घोड़ा अड़ा क्यों, उत्तर मिला फेरा नहीं. सेना फेरी जाती थी. यह प्रत्यक्ष साम्राज्यवाद था. इसी से जुड़े, राजसूय और अश्वमेध यज्ञ होते थे. चक्रवर्ती सम्राटों के लिए यह यज्ञ अनुष्ठान आवश्यक थे। इस से उनके प्रभुत्व और अधिकार क्षेत्र की सीमा का भी अभिज्ञान होता था। 

वक़्त पलटा पर विस्तार और प्रभुत्व बढ़ाने की लालसा नहीं गयी. युद्ध के स्वरुप बदल गए. फिर औद्योगीकरण के प्रसार और नए नए वैज्ञानिक आविष्कारों ने सैनिक युद्धों के बजाय आर्थिक विस्तारवाद का नया कांसेप्ट दिया. यह एक नए तरह का साम्राज्यवाद था, जिसने आगे चल कर उपनिवेशवाद को जन्म दिया. सैनिक विस्तारवाद में जनता को बहुत अंतर नहीं पड़ता था. राजा ग्रामीण व्यवस्था में बहुत दखल नहीं देता था. ज़िंदगी अपनी रफ़्तार से चलती रहती थी. लेकिन औद्योगीकरण ने जो मुनाफे के अर्थशास्त्र पर ही टिका है, ने अपना असर गाँव गाँव तक दिखाया और मज़दूरों और पूंजी का स्पष्ट विभाजन हुआ. फिर जो सैन्य अभियान हुए वह उसी पूंजीवाद को बनाये रखने या बचाने के लिए हुए. यह एक नए प्रकार का साम्राज्यवाद था. इसमें प्रत्यक्ष कर तो नहीं वसूला जाता था, पर अप्रत्यक्ष रूप से जो कर बाज़ार बटोर लेता था , वह बहुत अधिक और निरंतर होता था. इस से पूंजीवाद का वर्चस्व बढ़ा और बाज़ारवाद की नींव पडी। 

बीच में सेमेटिक धर्मों की प्रतिद्वंद्विता ने एक नए तरह के साम्राज्यवाद को जन्म दिया. विशेष कर इस्लाम के प्रसार में सेना का ज़बरदस्त उपयोग किया गया. इस्लाम में पैगम्बर मुहम्मद साहब के निधन के बाद जो खलीफा की संस्था बनी ,तो खलीफा राज्य और धर्म दोनों का ही प्रमुख हो गया. ईसाई धर्म में धर्म प्रमुख तो पोप था, पर राज्य प्रमुख तो सम्राट होता था. चर्च और राज्य अलग अलग थे। पर ईसाई धर्म घोषित रूप से राज धर्म था। राज धर्मों की परंपरा मूलतः सेमेटिक धर्मों में ही है।  इस्लाम का प्रसार एक प्रकार से साम्राज्य विस्तार ही था. इसमें धर्म की चाशनी मिली हुयी थी. इस लिए ऐसे सारे युद्ध धर्म युद्ध कहे गए और योद्धाओं को गाज़ी की पदवी दी गयी. धर्म की अफीम अक्सर उन्माद पैदा करती है. यह उन्माद युद्ध को और बर्बर और हिंसक बना देता है.इसकी प्रतिक्रिया स्वरुप क्रूसेड हुए. ईसाईयों ने जो युद्ध इस्लाम के विरुद्ध  लड़ा, वह क्रुसेड्स कहलाये, क्यों कि वह युद्ध क्रॉस की रक्षा में हुए थे. इसके विपरीत सनातन धर्म में यह बात नहीं थी. यहाँ धर्म का अहिंसक प्रचार हुआ, हालांकि धार्मिक झगड़ों का जिक्र मिलता है पर साम्राज्य विस्तार के लिए धर्म का दुरूपयोग कभी नहीं हुआ. जैसा कि सेमेटिक धर्मों में हुआ है. सनातन धर्म ने खुद को राज धर्म नहीं माना। न तो एक किताब और एक पैगम्बर का धर्म है और न ही राजा और प्रजा का धर्म ही एक था। अशोक ने सर्व प्रथम खुद को बौद्ध घोषित किया पर जनता ब्राह्मण धर्म को भी मानती थी , और बौद्ध धर्म को। विरोध था पर हिंसक विवादों का उल्लेख नहीं मिलता है। इसके विपरीत , सनातन धर्म में शैव और वैष्णवों में हिंसक विवादों के बहुत उल्लेख हमिलते हैं। 

अब आज की परिस्थिति में। सारे देशों की सेना मूलतः आत्मरक्षा के लिए ही रखी जाती है. इसी लिए सीमा पर सेना नहीं पुलिस की तैनाती की जाती है.बीएसएफ एक पुलिस बल है वह सेना नहीं है रक्षा मंत्री का कहना कि युद्ध न होने से सेना में जड़ता आ जाती है. प्रत्यक्षतः तो यह कथन ठीक है, पर इस जड़ता को दूर करने के लिए कहाँ तलवार भांजा जाय, यह भी तो सोचिये. भारत में आज़ादी के बाद से चार युद्ध हो चुके हैं.तीन,घोषित, और दो अघोषित..1948 का युद्ध और 1999 का कारगिल युद्ध अघोषित था और 1962, का चीन के विरुद्ध 1965 और 1971 का पाकिस्तान के विरुद्ध युद्ध घोषित युद्ध था. इसके अतिरिक्त कश्मीर में। 1990 से जो आतंकवाद बढ़ा है वह भी एक प्रकार का युद्ध ही है. अंतर सिर्फ यह है कि यह युद्ध हम अपनी सीमा में लड़ रहे हैं.1983 से 1992 तक पंजाब का आतंकवाद और पूर्वोत्तर राज्यों का अलगाववाद भी युद्ध से कम नहीं है. श्री लंका में सैन्य अभियान और यू एन पीस कीपिंग मिशन युद्ध ही तो हैं. अतः ऐसा कहना कि युद्ध न होने से सेना सुस्त हो गयी है सेना पर भरोसा नहीं करना है.

म्यांमार की सीमा पर भारतीय सेना के सफल आक्रामक अभियान से पाकिस्तान को एक कडा सन्देश अवश्य गया है. पाकिस्तान की सेना पिछले 70 सालों से भारतीय सेना से दुश्मनी मान रही है. हर हमले में धूल चाटने के बाद पाक फ़ौज़ ईर्ष्या से जलते हुए भारत विरोधी अभियान चलाती रहती है. भारत पाक सम्बन्ध अगर सुधरते हैं तो इसका सबसे बड़ा असर पाक फ़ौज़ पर ही पड़ेगा. प्रधान मंत्री लियाक़त अली खान की हत्या के बाद पहली फौजी तानाशाही जनरल अयूब खान के नेतृत्व में बनी. फिर फौजी तानाशाहों की एक परम्परा, जनरल ज़िया उल हक़, से होते हुए जनरल परवेज़ मुशर्रफ तक चली आती है. बीच बीच में  राजनैतिक नेतृत्व भी, कभो ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो, तो कभी बेनज़ीर भुट्टो और फिर नवाज़ शरीफ प्रधान मंत्री हुए. यह एक खुला तथ्य है कि भारत में पश्चिमी सीमा से जो आतंकवादी गतिविधियों होती हैं वह पाक फ़ौज़ प्रशिक्षित और पाक सरकार समर्थित है.यहां तक कि उल्फा, और लिट्टे जैसे आतंकियों से भी आई एस आई से सम्बन्ध रहे हैं. वहाँ की फ़ौज़ कभी नहीं चाहती कि दोनों देशों के बीच सम्बन्ध् सामान्य हों .इसी लिए जब म्यांमार का अभियान चला तो सबसे तीखी प्रतिक्रिया पाकिस्तान की ही हुयी. चीन का कोई बयान नहीं  आया. चीन अपना वर्चस्व जताने के लिए अक्सर कूटनीतिक और प्रतीकात्मक घुसपैठ और नक़्शे मैं  ही लाल पीला रंगता रहता है. खुले युद्ध से वह बचना चाहता है.

एक  बार अलबर्ट आइंस्टीन से पूछा गया कि तीसरा विश्व युद्ध अगर हुआ तो किन हथियारों से लड़ा जाएगा ? उत्तर मिला, तीसरा किन हथियारों से लड़ा जाएगा, यह तो मैं नहीं बता पाउँगा, पर चौथा ईंट और पत्थरों से लड़ा जाएगा. मतलब तीसरे विश्वयुद्ध में ही इतने घातक हथियारों का प्रयोग होगा कि, सर्वानाश हो जाएगा, और चौथे के लिए सिवा ईंट और पत्थरों के कुछ नहीं बचेगा. इसी लिए परंपरागत युद्ध से सभी देश दूर रहना चाहते है. भारत के दो प्रतिद्वंद्वी चीन और पाकिस्तान दोनों ही परमाणु शक्ति संपन्न देश है. भारत भी है. इस से विनाश की भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता है. मैं जनरल मुशर्रफ के बड़बोले बयान को कि उन्होंने परमाणु बम शबे बरात में फोड़ने के लिए नहीं रखे हैं, कोई अहमियत नहीं दे रहा हूँ. यह बयान अपनी प्रासांगकिता को बनाये रखने और नवाज़ शरीफ से अपने को अधिक देशभक्त साबित करने के लिए दिया गया है.

रक्षा मंत्री का यह कथन अपनी जगह उचित है कि सेना को आधुनिक और समयानुकूल बनाये रखना चाहिए. उसे आधुनिकतम हथियार युद्ध पद्धति का प्रषिक्षण और मॉक वार ड्रिल करते रहना चाहिए. सेना यह सब करती रहती है यह अलग बात है यह गोपनीय होता है और गोपनीय रहना भी चाहिए. सेना को सन्नद्ध और युद्ध के लिए सदैव तैयार करने के लिए अनेक मॉक वार ड्रिल चलाई जाती है. यह गोपनीय होती है और इसे गोपनीय रखा भी जाना चाहिए. ऐसा ही एक मॉक अभियान ऑपरेशन ब्रास टास्क था. मनोबल किसी भी अभियान की जान होता है। एक जनरल ने कहा था कभी, युद्ध में शस्त्र महत्वपूर्ण नहीं होता, बल्कि शस्त्र के पीछे बैठा हुआ सैनिक महत्वपूर्ण होता है. पर अब स्थिति थोड़ी बदली है, दोनों ही महत्वपूर्ण है. शस्त्र भी और सैनिक भी. भारतीय सेना - 30 डिग्री तापक्रम से लेकर 48 डिग्री तापक्रम तक लड़ती है और सफलता पूर्वक लड़ती है. युद्ध हो न हो सेना को तैयार रहना है. वैसे ही जैसे हम रोग की कामना न करते हुए निरोग रहने के सारे उपक्रम करते हैं. युद्ध को अंतिम विकल्प के ही रूप में देखा जाना चाहिए.
( विजय शंकर सिंह )




Monday 15 June 2015

FIR के बारे में CrPC को संशोधित करने का महाराष्ट्र सरकार का फैसला - एक टिप्पणी / विजय शंकर सिंह




महाराष्ट्र सरकार का एक बेहद चौंकाने और बेवकूफी भरा फैसला सामने आया है। दंड प्रक्रिया संहिता के प्राविधान 156 के अंतर्गत पुलिस किसी भी अपराध की प्रथम सूचना दर्ज़ करती है। जिसे हम FIR कहते हैं। हिंदी में इसे कहीं प्राथिमिकी या इत्तला कहते हैं। यह दस्तावेज़ किसी भी मुकदमें की नींव होता है। FIR कोई भी किसी अपराध के बारे में सूचना दे कर दर्ज़ करा सकता है। पुलिस जांच में यह झूठा हुआ तो खारिज हो जाता है और झूठी FIR दर्ज़ कराने वाले के विरुद्ध भी पुलिस कानूनी कार्यवाही कर सकती है। महाराष्ट्र सरकार ने इसी CrPC की धारा 156 (3 ) और 190 में संशोधन किया है कि , किसी भी विधायक या नौकरशाह के विरुद्ध कोई भी FIR बिना विधान सभा और विधान परिषद के अध्यक्षों और नौकरशाह के मामलों में बिना मुख्य सचिव की अनुमति के पुलिस दर्ज़ नहीं कर सकती है। यह फैसला गैर कानूनी है। यह निश्चय ही हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट से यह क़ानून निरस्त हो जाएगा। इस फैसले की परिधि में पंचायतें और नगर पंचायतों के जान प्रतिनिधि भी आएंगे। इस प्रकार यह एक नए तरह का ब्राह्मणवाद है जो सक्षम वर्ग को क़ानून की परिधि से बाहर रखता है। महाराष्ट्र कैबिनेट के इस फैसले की तीखी प्रतिक्रिया हो रही है।

जैसे हर फैसले के पीछे हम तर्क शील लोग कोई कोई तर्क ज़रूर ढूंढ लेते हैं। उसी तरह इस फैसले के पीछे भी सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को आधार बनाया गया है। 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने अनिल कुमार बनाम अयप्पा के एक मामले में फैसला दिया था। इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने इस्तगासा जो सीधे अदालतों में कंप्लेंट केस के रूप में दायर किया जाता है में बिना सक्षम अधिकारी के अनुमति के दायर किये जाने पर रोक लगाया था। लेकिन FIR की मनाही वहां भी नहीं थी। अभी भी सरकारी अफसरों और पदासीन मंत्रियों या जन प्रतिनिधियों के विरुद्ध बिना सरकार या सक्षम अधिकारी की अनुमति के आरोप पत्र न्यायालय में नहीं दाखिल किया जा सकता है। लेकिन किसी भी आरोप पत्र के लिए साक्ष्य चाहिए , और साक्ष्य के लिए विवेचना , और विवेचना के लिए FIR अनिवार्य है। लेकिन सरकार ने जब FIR पर ही रोक लगा दी तो आगे की बात ही खत्म हो गयी।

अब यह तर्क सरकार द्वारा दिया जा रहा है , अक्सर जन प्रतिनिधियों और अफसरों के खिलाफ लोग झूठे मुक़दमें दर्ज़ करा देते हैं जिस से उनके मनोबल पर असर पड़ता है। पहले स्पीकर या मुख्य सचिव की अनुमति के बाद ही मुक़दमें कायम होने से यह समस्या नहीं आएगी। लेकिन सरकार यह नहीं स्पष्ट कर पा रही है कि , आखिर स्पीकर और मुख्य सचिव कैसे इस निष्कर्ष पर पहुंचेंगे कि यह FIR दर्ज़ की जाने योग्य है और यह नहीं। उनके पास कौन सा कानूनी अधिकार है , या मशीनरी है जिस से वह सच झूठ की जांच करेंगे। FIR केवल एक सूचना होती है , जो किसी अपराध के बारे में पहली बार पुलिस थाने में दी जाती है। इसके विवेचना , साक्ष्यों के एकत्रीकरण , परीक्षण , और अदालत से विभिन्न मामलों में मार्गदर्शन और आदेश लेने की एक स्थापित प्रक्रिया है। इसी के अनुसार गिरफ्तारी , पूछताछ , और जमानत का भी प्रावधान होता है। अगर मामला झूठा है तो फाइनल रिपोर्ट या सच है तो आरोप पत्र दिया जाता है। 

एक दिलचस्प यह है कि , देश में सतर्कता , सी आई डी , सी बी आई आदि जो बड़ी विवेचना एजेंसिया हैं के अनेक मामले वर्षों से सरकार की अनुमति हेतु लंबित हैं , क्यों कि अपराधी और अभियुक्त पैरवी कर के इन्हे आगे बढ़ने नहीं देते हैं। इस संशोधन के बाद भी यही स्थिति होगी कि असरदार लोग अपने विरुद्ध मुक़दमें ही नहीं कायम होने देंगे , परिणाम स्वरुप , कुछ विशेषाधिकार संपन्न लोग एक प्रकार की अराजकता उत्पन्न कर देंगे।  जिसका परिणाम , हिंसा और अवैधानिक रास्तों का इस्तेमाल होगा और क़ानून का शासन मज़ाक बन कर रह जाएगा। 

महाराष्ट्र सरकार द्वारा CrPC के सेक्शन 156 जो FIR से सम्बंधित है में संशोधन का जो निर्णय लिया गया है, उसका दूरगामी परिणाम होगा. हालांकि यह एक्ट एक सेन्ट्रल एक्ट है और समवर्ती सूची में है. समवर्ती सूची concurrent list में होने के कारण राज्य सरकारें भी इसे संशोधित कर सकती हैं. पर कैबिनेट से पास होने के बाद इसे विधान सभा से भी पास कराना होगा और विधान सभा के बाद यह राष्ट्रपति के पास अनुमोदन के लिए जाएगा. राष्ट्रपति के अनुमोदन के बाद यह क़ानून बन जाता है. पर यह फैसला अभी लागू नहीं हुआ है , यह केवल महाराष्ट्र सरकार ने खुद पास किया है. ऐसा नहीं है कि किसी भी केंद्रीय एक्ट में यह पहला संशोधन हो. उत्तर प्रदेश में , अग्रिम जमानत का प्राविधान , CrPC में होने के बावज़ूद भी , लागू नहीं है.

कभी कभी ऐसा भी हुआ है कि राज्य की विधान सभा ने तो संशोधन पारित कर दिया और उसे राष्ट्रपति के पास अनुमोदन हेतु भेज भी दिया. पर राष्ट्रपति ने अनुमोदन किया ही नहीं. वह लंबित है. और राज्य सरकार ने लागू भी कर दिया. ऐसा एक दिलचस्प मामला हरियाणा का है. हरियाणा सरकार ने कुछ समय पहले IPC की धारा 379 जो चोरी की है में संशोधन कर के दो धाराएं 379 A और 379 B जोड़ा था. यह प्रस्ताव पारित कर इसे अनुमोदन हेतु राष्ट्रपति के पास भेजा. राष्ट्रपति का अनुमोदन नहीं हुआ और बिना अनुमोदन के ही राज्य सरकार ने गज़ट नोटिफिकेशन कर दिया. पुलिस ने इस क़ानून के आधार पर कार्यवाही भी शुरू कर दी और इस पर कुछ की सज़ाएँ भी अदालतों ने कर दी. बाद में एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने जब छानबीन की तो पता लगा कि बिना अनुमोदन के ही यह क़ानून चल गया. 


एक कहानी सुनिए। एक गांव में दोपहर में कुछ बच्चे खेल रहे थे। दोपहर थी। गर्मी की दोपहर में वैसे भी सन्नाटा छा जाता है। खेल खेल मेंज उन बच्चों ने पत्थर जिसे हमारे यहां भोजपुरी में चिक्का कहा जाता है फेंका। वेक बिल्ली का बच्चा उस चोट से मर गया। पांच छह बच्चे जो खेल रहे थे थोड़ा परेशान हुए और सोचे की बात दबायी जाय। पर बात दबी नहीं। देहात में यह धारणा आम है कि बिल्ली को मार देने पर बहुत पाप लगता है और उसका प्रायश्चित स्वर्ण दान से होता है। लोग जुटे और पंडित जी बुलाये गए। पंडित जी ने सारे नियम , उपनियम ,प्रावधान देखा और पूरा खर्च बता दिया। जिनके बच्चे थे उनके परिवारों पर खर्च बांटने का निर्णय हुआ। तभी एक सज्जन ने कहा कि पंडित जी आप के हिस्से में भी यह आया है। आप का भी एक बेटा उसी ग्रुप में था। पंडित जी ने कहा कौन , क्या नाम है ? उत्तर मिला संतोष।

पंडित जी ने चश्मा लगाया और फिर पत्रा पलटा। फिर चश्मे के नीचे से झांकते हुए कहा , 
जउने घटना में हों संतोष ,
बिलार के मरले पडी दोष !

यह कथा महाराष्ट्र सरकार के उस फैसले पर याद आयी , जिसमें उसने जान प्रतिनिधियों और नौकरशाहों पर बिना अनुमति FIR दर्ज़ करने हेतु CrPC में संशोधन किया है।
-vss