Saturday, 10 April 2021

ऋग्वेद की रहस्यमयता (8)

अब हम ऋ.6.47 की अगली ऋचा  पर विचार कर सकते हैं।  ऋचा निम्न प्रकार है:
अयं मे पीत उदियर्ति वाचमयं मनीषामुशतीमजीगः ।
अयं षळुर्वीरमिमीत धीरो न याभ्यो भुवना कच्चनारे ।। 6.47.3
पिछली दो ऋचाओं में  इन्द्र की पिपासा की तृप्ति स्वरूप भारतीय ग्रीष्म की प्रचंडता, वनस्पतियों के रस के पान और फिर हिमाच्छादित चोटियों पर  ताप के प्रहार से शिलीभूत हिम के गलने, स्खलित होने का और फिर बरसात की प्राकृतिक  लीला का वर्णन है, तो  तीसरी ऋचा के पहले अर्धर्च में प्यासे मनुष्य के सोमपान (रस पान से लेकर जलपान तक कुछ भी हो सकता है) के प्रभाव का अंकन है और दूसरे अर्धर्च में सोम की महिमा का।

पहले अर्धर्च को समझने के लिए आप  को जेठ की दुपहरी में लू के थपेड़े झेलते आए प्यास से विकल अतिथि की दशा का चित्र सामने रखना होगा।  वह आकर बैठता नहीं है अपितु निढ़ाल हो कर ढह सा जाता है। न दिमाग काम करता है, न मुंह से  आवाज निकलती है। गला सूख रहा है, पर. यदि तुरत पानी पी ले तो वह भी जानलेवा हो सकता है। इसलिए आतिथेयी या परिजन, उसे  कुछ  पांव (सिर ओर  हाथ भी पखारने को जल और  कुछ सुस्ताने के बाद किसी मीठी चीज (गुड़) के साथ  जल , या (अप्तुर सोम)  या (गुड़+दधि/दुग्ध- मिश्र) जल पेय  (अर्घ) पेश करते थे।[1]

आज भी हम किसी व्यक्ति के आने पर, भले वह इसकी मांग करे या न हम  पहला काम आप पानी का गिलास और फिर चाय आदि पेश करते हैं वह  आतिथ्य की उसी परंपरा का निर्वाह है।  किसी अन्य देश में  किसी के पहुंचते ही चाय या कॉफी पेश करने की रीति नहीं  है।  पश्चिमी देशों को अपना आदर्श मानने वाले कुछ लोगों को यह यह रीति हमारे पिछड़ेपन का प्रमाण लगती है और वे किसी स्वजन के आगमन पर ‘कहिए कैसे आना हुआ?’ से अपना संलाप आरंभ करते हैं। दोनों में से किसी को दोष नहीं दिया जा सकता।  आगंतुक आज की स्थितियों में  न तो निदाघ से गुजर कर आया है न उसकी  पहली आवश्यकता  पानी या किसी अन्य द्रव की हो सकती है।  सांस्कृतिक मूल्य  हमारी भू-भौतिक परिस्थितियों की उपज हुआ करते हैं लू और धूप से शुष्ककंठ जनों की जीवन-रक्षा की चिन्ता से पैदा हुई है हमारी मूल्यप्रणाली।  

हमारी भाषा के घोर संकट के द्योतक शब्द और उत्कट लालसा को प्रकट करने वाले शब्द पिपासा से संबंध रखते हैं - तृषा> तृष्णा/  त्रास, त्राहि (युद्ध में घायल व्यक्ति  की आर्त पुकार ‘पानी’ की होती है, किसी अन्य कष्ट की नहीं) - ‘पानी पिला कर प्राण रक्षा करो’,त्राण/परित्राण -  रक्षा, त्राता;   पा> पाहि (पानी पिलाओ/ रक्षा करो।  हमें इसका ध्यान ही नहीं होता कि ,
हम आज भी आए हुए व्यक्ति से मिलते नहीं, उसकी प्राण रक्षा करने के बाद उससे मिलते हैं।

जो भी हो, ऋचा की पहली पंक्ति का अर्थ है, “सोमपान के बाद हमारी वाक्शक्ति लौटी और सुन्न पड़ी चेतना जाग्रत हुई और विचार शक्ति लौटी।  हमारी मुखरता और सजगता और चिंतन सब सोम की कृपा से ही संभव है।
अगली पंक्ति हैं “समस्त लोकों को इसी मनस्वी ने सँभाल रखा है, संसार में कुछ भी ऐसा नहीं जिसमें इसकी व्याप्ति न हो।”
अब ग्रिफिथ द्वारा किए गए अनुवाद पर दृष्टि डालें:
3 This stirreth up my voice when I have drunk it: this hath aroused from sleep my yearning spirit.
This Sage hath measured out the six expanses from which no single creature is excluded.

शब्दशः  अनुवाद की दृष्टि से देखें तो इसमें कोई कमी नहीं।   परंतु  इससे  जो चित्र उभरता है  उसमें कविता का सौंदर्य और भाव दोनो नष्ट हो जाते हैं। सोमपान के बाद ही आवाज  क्यों प्रेरित होती है? संदर्भ सामने न होने पर आप को इस बात की छूट मिल जाती है कि आप कहें कि सोम ऐेसा पेय है जिसके वाद आदमी वाजाल हो जाता है, अंड-बंड बकने लगता है। मनीषा को मनोभाव, विचार कहें तो ठीक है पर इसे स्पिरिट आवेश का द्योतक है और जिसका प्रयोग आत्मा के लिए ही नहीं  प्राणांतक मादकतम पेय के लिए भी  किया जाता है जिससे इस देश में प्रतिवर्ष मौतें होती रहती हैं।  अब सोमपान के बाद ऊटपटांग खयाल पैदा होने और सोम के भांग या धतूरे के प्रभाव के अनुरूप कोई सिद्ध करना चाहे तो कोई बाधा न होगी।  समस्या वहाँ पैदा होती है जहाँ दूसरी अर्धाली आरंभ होती है। इस पर किसी टिप्पणी की आवश्यकता नहीं।  एक तो षड् का अर्थ ग्रिफिथ छह करते हैं और यह नहीं समझते कि त्रि, चतुर, पंच, षष्ठ, सप्त, अष्ट, दश, शत और सहस्र एक ओर तो अपने नियत मूल्यों के लिए प्रयुक्त होते थे, दूसरी ओर संख्या के विकास क्रम में सबसे ऊँची संख्या होने के कारण समग्र के बोधक थे और इससे अवगत होने के कारण इनका दुहरा प्रयोग करते थे।   

त्रिलोक, सप्तलोक, समस्त लोक का अर्थ एक ही है, विश्व ब्रह्मांड। एक और चूक  उनसे हुई लगती है। वह है मान का अर्थ माप करने में। मान का एक अर्थ स्तंभ है (1709.    मान (मन) स्तम्भे)।
वैदिक काल में साहित्यिक विमर्श का स्तर क्या था यह तय करना कठिन है पर जिन युक्तियों से वे सामान्य को भी दुर्बोध बना देते थे वह है, संदर्भ पर ध्यान न देना, अनुभूत को लोकोत्तर बना देना और अल्पतम शब्दों में किसी विराट को समेकित कर देना । इसे समझने के लिए एक नए काव्यशास्त्र की या लब्ध काव्यशास्त्र की पुनर्व्याख्या की आवश्यकता है।

[1] हाथ-पाँव पखार कर ताप कम करने और खाद्य के साथ पेय तो जारी रहा पर काल-क्रम में अर्घ का अर्थोत्कर्ष हो गया और यह देवताओं के लिए रिजर्व हो गया, पर देवताओं के विषय में कुछ भी नहीं किया गया जो मनुष्यों के लिए न किया जाता रहा हो। पाद्य को ब्राह्मणों, विशेषतः दीक्षागुरु के पाँव पखारने और उसे चरणामृत के रूप में ग्राह्य बनाने का उपक्रम हुआ, और दूसरी ओर इसे श्लाघ्य बनाने के  लिए शालिग्राम की बटिका को पंचमिश्र सोम से पखार कर तुलसीदल सहित पंचामृत का प्रसाद ग्रहण किया जाने लगा।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

ऋग्वैद की रहस्यमयता (7)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/7.html
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