Saturday 24 April 2021

जब वे सलीबों के करीब आये, तो कायदा कानून समझाने लगे ! / विजय शंकर सिंह

दुष्यंत कुमार की एक बेहद प्रासंगिक कविता की पंक्तियां है
वो सलीबों के करीब आए तो हमको,
कायदे – कानून समझाने लगे हैं ।

कल से यह खबर फैल रही है कि, प्रधानमंत्री की मुख्य मंत्रियों के साथ हुई बैठक को लाइव कर के दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने शासकीय नियमो और प्रोटोकॉल का उल्लंघन किया है। प्रधानमंत्री ने आपत्ति की और केजरीवाल ने विनम्रता से माफी मांग ली। माफी मांगने का अंदाज़, एक राजनेता और मुख्यमंत्री का कम और एक नौकरशाह का अधिक था। इसका कारण है अरविंद केजरीवाल का कभी नौकरशाह रहना। उन्होंने कहा कि आइंदा से वह ध्यान रखेंगे। अब आइंदा से वे क्या करेंगे जब आइंदा कुछ हो, तो उस पर आइंदा ही बात होगी। फिलहाल तो इस प्रकरण का पटाक्षेप हो गया है। 

लेकिन इस प्रोटोकॉल प्रकरण ने, अनेक नए सवालो को जन्म दे दिया है जो गवर्नेंस से सम्बंधित है। सरकार के कामकाज में पारदर्शिता से सम्बंधित है और ऐसे आफत के काल मे जब सरकार का जनता में विश्वास का सूचकांक बेहद कम हो गया है तो, उस विश्वास बहाली के लिये सरकार क्या कर रही है और उसे क्या करना चाहिए, यह सारे सवाल देशभर में लोगों के मन मे उमड़ रहे हैं । एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनता और उसका हित सर्वोपरि होता है। यह पगड़ी, क्षत्र, चंवर, बल्लम, तुरही, नियम, कायदे सब के सब महत्वपूर्ण हों या न हों, पर जनता का हित इन सबकी मर्यादाओं से ऊपर होता है। शासन में कुछ चीजों को गोपनीय रखने के भी नियम हैं और कुछ चीजों को गोपनीय रखा भी जाता है, तो उसका भी यही परम उद्देश्य यही है कि वे जनहित में ही पोशीदा रखी गयी हैं। 

महाभारत में हस्तिनापुर के उन तमाम राजकुमारों और सेनापतियों को भी मर्यादा भी तभी याद आयी थी जब वे खुद अपने ही कुकर्मों के जाल में घिर गए थे। भीष्म को भी सारा ज्ञान शांतिपर्व में ही याद आया। भीष्म अज्ञानी नही थे। वे एक महान पुरूष थे, पर उनकी सारी महानता उनके कुछ कृत्यों से दूषित हो गयी। दुर्योधन भी, जो बिना युद्ध के पांच गांव तक देने को राजी नहीं था वह भी कमर के नीचे गदा प्रहार के प्रोटोकॉल को बार बार याद दिलाता रहा और इस अशिष्ट और क्लीव मर्यादा की आड़ में वह जीवित बचना चाहता था। कर्ण के रथ का पहिया जब पंक में फंस गया तो उस निहत्थे पर वाण चलाते समय, अर्जुन को उसने उसी प्रोटोकॉल की याद दिलाई पर युद्ध का यही प्रोटोकॉल वह, उसने एक पैशाचिक अट्टहास में, उस समय भुला दिया, जब अभिमन्यु चक्रव्यूह में अकेले घिर गया था और बाद में वह वीरगति को प्राप्त हुआ। कृष्ण यहां भी मोहपाश और मिथ्या प्रोटोकॉल का मायाजाल ध्वस्त करते नज़र आये और तब कर्ण युद्ध मे मारा गया। महाभारत ऐसी कहानियों से भरा पड़ा है। 

हस्तिनापुर यानी सत्ता यानी सामर्थ्यवान लोग, अक्सर प्रोटोकॉल की बातें तभी करते हैं जब संकट में अपनी भूमिका के खोखलेपन को उजागर होते देखते हैं। घर मे जब एक बच्चा या युवा अपने से बड़ो से तर्कपूर्ण बात करने लगता है तो यही सुनने को मिलता है कि, बहुत अधिक ज़ुबान चलने लगी है तुम्हारी और बड़े छोटे का कोई लिहाज ही नहीं रहा। सारा तर्क, सारे सवाल प्रोटोकॉल के इस फर्जी तिलस्म में खो कर रह जाते हैं और फिर वही कहानी दुहराई जाती है, जब नचिकेता को उसके पिता ने खीज और आजिज़ आ कर कह दिया था कि, मैं तुम्हे यम को दूंगा।

सरकारी मीटिंग में भी जिन लोगों को भाग लेने का अवसर मिला है या मिलता है, वे इसे बेहतर तऱीके से समझ सकते हैं कि, बहुत मुखर और नियम कानून बता कर समस्या का हल बताने वाले अधीनस्थ, बॉस को कम ही सुहाते है। बॉस की नीतियों पर सवाल उठाना तो कभी कभी ईशनिंदा ही मान ली जाती है। वहां भी यही सुनने को मिलता है कि, ज्यादा ज्ञान न बघारिये, जो कहा जाय वह करिए। मैं तो एक ऐसी सेवा में रहा हूँ जहां यही सुनने की आदत थी, कि आदेश का पालन होगा और सब बेहतर है सर। यह एक टिपिकल ब्यूरोक्रैटिक माइंडसेट है। यह कहानी इन सात सालों की नही है बल्कि यह लम्बे समय से चली आ रही है। 

प्रधानमंत्री जी की मीटिंग में अरविंद केजरीवाल ने कहा क्या यह बात अब गौण हो गयी है और सारा विमर्श इस पर  केन्दित हो गया है कि, उन्होंने यह सब कहा क्यों ? यह एक निजी मुलाक़ात नहीं थी और न ही ऐसी मीटिंग थी जिंसमे देश की सीमाओं और अंतरराष्ट्रीय राजनय के बेहद संवेदनशील मामलो पर चर्चा हो रही थी। यह मीटिंग हो रही थी, कोरोना के दूसरी लहर से जो मौत का मंजर चारो तरफ फैला हुआ है, से निपटने के लिये। प्रधानमंत्री को उन उपायों का उल्लेख करना था जो उनकी सरकार इस समस्या से निपटने के लिये कर रही है और उन्हें अपने राज्यों के मुख्यमंत्री से फीडबैक भी लेना था, कि जो कुछ केंद्र सरकार कर रही है, क्या वह ज़मीन तक उनके उनके राज्यों में पहुंच रहा है। 

केजरीवाल ने यही तो कहा कि, उनके यहां ऑक्सीजन का कोटा बढ़ा दिया जाय और फिर उन्होंने प्रधानमंत्री का आभार भी व्यक्त किया कि, उन्होंने कोटा बढ़ा दिया है। बस एक सवाल ज़रूर उन्होंने प्रधानमंत्री से पूछा कि वे यह बता दें कि, यदि ऑक्सिजन की किल्लत हो तो केंद्र के किस अधिकारी को इसके बारे में बताया जाए। ज़ाहिर है यह बात तो सीधे प्रधानमंत्री और स्वास्थ्य मंत्री से तो बार बार पूछी नही जा सकती है कि, अब ऑक्सिजन की किल्लत है और उसे दूर कौन करेगा। अगर यह सवाल ही प्रोटोकॉल का उल्लंघन है तो, फिर यह प्रोटोकॉल और अनुशासन सत्ता को असहज करने वाले वाजिब सवालो से बचने की आड़ के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। 

एक ऐसे भय के माहौल में आज लोग जी रहे हैं कि फोन की हर घण्टी आशंकित करती है। अगर फोन उठने में देर हो जाती है या कॉल बिना उठे रह जाती है तो सिवाय अशुभ सोचने के और कुछ सूझता भी नहीं है। आम तौर पर होने वाली छींके और, गले की खराश भी डरा जाती है। यह अजीब दौर है और इस दौर में प्रोटोकॉल की बाते जब की जाती हैं तो वह प्रोटोकॉल की आड़ में अपने निकम्मेपन को छुपाने की एक कवायद ही होती है। केजरीवाल ने अपने पूरे भाषण में बार बार प्रधानमंत्री की सराहना ही की है, उन्हें बधाई ही दी है, उनकी शुक्रिया ही अदा की है, कोई गुस्ताख़बयानी नहीं, पर यह ज़रूर पूछ लिया कि ऑक्सिजन के संकट काल मे वे किसे तकलीफ दें और यही बात उन्हें अखर गयी ? अब अगर सवाल ही तीरे नीमकश की तरह चुभ कर खलिश पैदा करते रहे तो ऐसी सोच का क्या किया जाय !

सन 2014 से आज तक देश के मीडिया का एक वर्ग प्रधानमंत्री के पीआर एजेंसी में तब्दील हो गया है। चाहे 2016 के नोटबन्दी की नीतिगत विफलता हो, या उसे लागू करने की प्रशासनिक अक्षमता,  या उसके बाद देश की बिगड़ी आर्थिक स्थिति हो, या 2020 के लॉक डाउन की बात या तब कामगारों के देशव्यापी महा विस्थापन से जुड़ी दुश्वारियां, या अब प्राणवायु के अभाव में दम तोड़ते कोरोना से संक्रमित लोगों की बड़ी तादाद, इन सब झंझावात के बीच, गोदी मीडिया की सबसे बडी प्राथमिकता यही रही है कि छुईमुई की तरह प्रधानमंत्री की नहीं, बल्कि नरेंद्र मोदी की निजी क्षवि पर कोई आंच न आने पाये। मीडिया का यह बेहूदा रूप पत्रकारिता के सारे मानदंडों, उद्देश्यों और मिशन के विपरीत है। दुनियाभर के किसी भी लोकतांत्रिक प्रेस ने अपने देश के प्रधानमंत्री की निजी क्षवि बनाने में इतनी अश्लीलता से दिलचस्पी नहीं दिखाई होगी जितनी हमारी टीवी मीडिया के कुछ चैनलो ने दिखाई है। 

प्रधानमंत्री ने तो अंतरराष्ट्रीय राजनय के प्रोटोकॉल तक का खुला उल्लंघन किया है और उसका खामियाजा आज देश को भुगतना पड़ रहा है। कई घटनाएं और बातें ऐसी होती हैं, जिनका नफा नुकसान बाद में नज़र आता है। जैसे हमारे प्रधानमंत्री द्वारा समस्त कूटनीतिक मर्यादाओं को दरकिनार करते हुए, अमेरिका में हाउडी मोदी के कार्यक्रम में अब की बार ट्रम्प सरकार का नारा लगाना। टीवी मीडिया के कुछ चैनलो ने इस गलत परंपरा और अंतरराष्ट्रीय प्रोटोकॉल के विपरीत इस विदेश नीति की आलोचना करने के बजाय, इसे औचित्यपूर्ण सिद्ध करते हुते, भक्ति के कसीदे गढ़े। जिन कुछ समझदार पत्रकार और लोगों ने सवाल उठाने और आलोचना करने की जहमत उठाई, उन्हें देशद्रोही करार दे दिया गया। कहा गया कि देश की तरक्की इन्हें चुभती है। मोदी की पॉपुलैरिटी से जलते हैं। भारत का डंका बज रहा है तो इन्हें तकलीफ होती है। 

आज अमेरिका में सत्ता परिवर्तन हो चुका है। ट्रंप चुनाव हार गए और बाइडेन अब दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र संयुक्त राज्य अमेरिका के राष्ट्रपति के पद पर हैं। आज अमेरिका से हमारे रिश्ते बिना किसी बात के ही केवल प्रधानमंत्री के बड़बोलेपन के काऱण कटु और अविश्वास भरे हो गए हैं। आज हमें कोरोना की वैक्सीन बनाने के लिए अमेरिका से कच्चा माल तथा अन्य सुविधाएं चाहिए। अमेरिका ने यह सब देने से मना कर दिया है। हमने दोबारा, अमेरिका से अनुरोध किया, पर  अमेरिका ने दोबारा उस अनुरोध को अस्वीकार कर दिया। हमारे प्रधानमंत्री ने उस प्रत्याशी के खिलाफ चुनाव प्रचार किया था, जो आज अमेरिका का राष्ट्रपति है। न्यू इंडिया की विचारहीन और विफल विदेश  नीति का खामियाजा देश आज इस विकराल संकट के समय भुगत रहा है। जहां प्रोटोकॉल का ध्यान रखा जाना चाहिए था वहां इसकी धज्जियां उड़ा दी गयीं और जहां प्रोटोकॉल जैसी कोई चीज ही प्रासंगिक नही है वहां इसका रोना रोया जा रहा है। 

सरकार को प्रधानमंत्री जी की मीटिंग का व्योरा सार्वजनिक करना चाहिये। कोई ज़रूरी नहीं कि पीएम ही यह काम करें, पर सरकार के स्वास्थ्य मंत्री को और यदि वे भी कहीं अन्यत्र व्यस्त हैं तो स्वास्थ्य सचिव को एक खुली प्रेस कांफ्रेंस कर के, सवाल जवाब के सत्र सहित,  यह व्योरा सार्वजनिक करना चाहिए कि, कोरोना आपदा प्रबंधन में सरकार ने क्या क्या कदम उठाए हैं और आगे सरकार की क्या योजना है। ऐसे व्योरे से जनता में सरकार के प्रति भरोसा ही बढ़ेगा और अफरातफरी का जो माहौल बन गया है वह थोड़ा कम होगा। मीटिंग का व्योरा देना किसी प्रोटोकॉल का उल्लंघन नहीं है। 

यह मीटिंग आपदा प्रबंधन को लेकर और देश मे कोरोना की दवाइयों तथा ऑक्सिजन आपूर्ति के संकट को लेकर हो रही है। कोई भी ऐसा राज्य नहीं जहां ऑक्सिजन की किल्लत न हो, अस्पताल में बेड की कमी न हो और ज़रूरी दवाइयों की अनुपलब्धता न हो गयी हो। सरकार ज़रूर कुछ न कुछ कर भी रही होगी आखिर वे भी हांथ पर हांथ धरे बैठे नहीं होंगे। बस यही तो सरकार को बताना है कि उसने इन सब समस्याओं से निपटने के लिये क्या क्या कदम उठाएं। जब पीएम आम से लेकर परीक्षा पर चर्चा कर सकते हैं, जिन विषयों का गवर्नेंस से दूर दूर तक का नाता नही है तो आज जनता की सबसे ज़रूरी चीज, दवा, ऑक्सिजन और अस्पतालों में बेड के बारे में क्यों नहीं बता सकते हैं ? 

जब सही तथ्य सरकार द्वारा जनता में नहीं पहुंचेंगे तो, सूत्रों से खबरे निकलेंगी जो गलत भी हो सकती हैं और सही भी। ऐसी अफवाहों को रोकने के लिये जरूरी है कि सरकार मीटिंग के मिनट्स के उन अंशो को सार्वजनिक करे जो, सरकार ने निर्णय लिया है और सरकार को मुख्यमंत्रियों द्वारा फीडबैक मिला है। जनता को यह जानने का पूरा अधिकार है कि उसके द्वारा चुनी गयी सरकार आखिर इस आफत में उसके लिये कर क्या रही है। मीटिंग, ईटिंग और चीटिंग के लिये नहीं होती है। मीटिंग होती है सरकार द्वारा ज़मीनी हक़ीक़त के बारे में जानकारी एकत्र कर के उन समस्याओं के समाधान के लिये जो जनता भुगत रही है। सरकार को अवतार न बनाइये उन्हें लोकसेवक ही बने रहने दीजिए। प्रधानमंत्री जी ने तो खुद को प्रधान सेवक घोषित भी किया है। सरकार से उसके कामकाज का ब्यौरा मांगना किसी प्रोटोकॉल का उल्लंघन नही है, बल्कि यह जनता का अधिकार है। 

औऱ अंत मे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की यह कविता पढ़े, 

इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
कागज पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और जमीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।

( विजय शंकर सिंह )

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