मैं आज अपनी बात पिछली पोस्ट की चौथी पादटिप्पणी से आरंभ करना चाहूँगा। ऐसा लगेगा कि मैंने उसमें अपने को, व्याज रूप में, ऋग्वेद का अब तक का सबसे अधिकारी अध्येता सिद्ध करना चाहा है। नेति, नेति। न यह सही है, न गलत है। वैदिक (हड़प्पा) सभ्यता की लिपि के मर्म को समझने के न जाने कितने दावे किए गए, कुछ तो था उनमें, पर एक मुद्रांक का भी ऐसा पाठ न हो सका जिसे निर्भ्रान्त माना जा सके।
इससे मिलती-जुलती स्थिति ऋग्वेद के पाठ की है। जैसा हम कह आए हैं, इसकी भाषा को समझने में बीसियों पीढ़ियाँ सिर धुनती रहीं और इसके बाद भी हम बहुत सारे वैदिक प्रयोगों का अर्थ नहीं जानते। मैक्स मूलर ने कहा था:
The historical importance of the Veda can hardly be exaggerated, but its intrinsic merit, and particularly the beauty or elevation of its sentiments, have by many been rated far too high. Large numbers of the Vedic hymns are childish in the extreme: tedious,low, common-place.
तो, वह अपनी सीमा को भी प्रकट कर रहे थे, और दूसरे अधिकारी माने जाने वाले विद्वानों की सीमा को रेखांकित कर रहे थे। उनका आगे का कथन और भी हतप्रभ करने वाला है :
I remind you again that the Veda contains a great deal of what is childish and foolish, though very little of what is bad and objectionable.
और इसके बाद भी वह अध्येताओं का
We shall not succeed always: words, verses, nay, whole hymns in the Rig-veda, will and must remain to us a dead letter. But where we can inspire those early relics of thought and devotion with new life, we shall have before us more real antiquity than in all the inscriptions of Egypt or Nineveh; not only old names and dates, and kingdoms and battles, but old thoughts, old hopes, old faith, and old errors, the old Man altogether--old now, but then young and fresh, and simple and real in his prayers and in his praises.
(Friedrich Max Müller, Chips From A German Workshop - Volume I, Essays on the Science of Religion, EBook #24686, Release Date: February 26, 2008)
दूसरों की समस्या जो भी हो, भारतीयों की समस्या यह है कि जिस वेद के गुरुत्वाकर्षण से हमारी पूरी परंपरा सूत्रबद्ध रही है, उसकी भाषा विद्वानों के दुर्बोध कैसे हो गई। हमारे पास इसका एक ही समाधान और कई शताब्दियों का वह प्राकृतिक विपर्यय जिसमें :
उपशुष्क जलस्थाया विनिवृत्त समाप्रपा।
निवृत्त यज्ञ स्वाध्याया निर्वषट्कार मंगला
उत्सन्न कृषि गोरक्ष्या निवृत्त विपणापणा।
निवृत्त पूगसमया संप्रनष्ट महोत्सवा।।
अस्थिकंकाल संकीर्णा हाहाभूत जनाकुला।
शून्यभूयिष्ठ नगरा दग्ध ग्रामनिवेशशना।। (महाभारत, शान्तिपर्व, 139, 18-20
तथाकथित हड़प्पा सभ्यता के पतन का इससे अधिक मार्मिक और विश्वसनीय चित्र नहीं मिल सकता। इसे महाभारत में युगांत की संज्ञा दी है, त्रेता और द्वापर के संधि-काल के रूप में चित्रित किया गया है। गलती महाभारतकार से भी हुई, जो उसने इसकी दीर्घता का सही कल्पना करने का भी साहस नहीं जुटा सका और इसे केवल 12 वर्ष का अकाल माना, जबकि ऐसे ही दो 300 वर्ष का संकट काल तो मानना ही था [1] और यह सचमुच बहुत लंबे अरसे तक कई शताब्दियों तक व्याप्त रहा।
शतपथ ब्राह्मण में इसेकी प्रचंडता ग्रीष्म ऋतु में कुरु पांचाल क्षेत्र के इस तरह देहकने का वर्णन है मानो सूखी लकड़ी आग लगा दी गई - जघन्ये नैदाघे समिमैव कोपयति । अब ऐसी स्थिति में उस एक और अर्थव्यवस्था का पूरी तरह नष्ट हो जाना, अध्ययन की परंपरा का निर्मूल हो जाना, और दूसरी ओर कुरु-पांचाल के निवासियों का उस क्षेत्र को छोड़कर उत्तर पूरब और दक्षिण समुद्र की ओर पलायन करना और उनकी भाषा का उन क्षेत्रों की भाषा से प्रभावित होना वह प्रधान कारण था जिससे न वेदों की प्रतिलिपियां तैयार हो सकी ना ल उनके अध्ययन और कंठाभरण की चिंता रह गई। वेद भी नष्ट (लुप्त), वेद की भाषा भी लुप्त, बोलचाल में उसका व्यवहार भी समाप्त, वैदिककालीन लिपि को भी लुप्त होना ही था।
प्रतापी विद्वान, ज्ञान सत्ता और व्यवस्था पर अधिकार करने वाले विद्वान वे संस्कृत के हों, वैदिक के हो, इतिहास के हों, समाजशास्त्र के हो, पुरातत्व के हों या नृतत्व के हों, वे सभी मैक्समुलर की उन इबारताें से बाहर निकलने का साहस ही न जुटा सके जिनमें नासमझी अपनी पराकाष्ठा पर है और सभी शाखाओं के मूर्धन्य माने जाने वाले विद्वानों में से किसी को यह समझ नहीं आयी कि ऋग्वेद में ही इस बात के संकेत भरे पड़े हैं कि ‘इस इमारत को जरा गौर से देखो तो सही।’
मार्क्स ने कहा उन्होंने हीगल को उलट दिया है, अर्थात् वह सिर के बल खड़े थे, चित को भूत का (आइडिया को मैटर का) जनक मानते थे, दर्शन इस मान्यता के साथ अपने पाँव पर खड़ा हो रहा था कि चित् भूत से उत्पन्न है। मैं चकित होकर सोचता हूं कि क्या ‘भूतस्य जातः पतिः एक आसीत्’ में यह सिद्धान्त प्रतिपादित है या नहीं। अपने को मार्क्सवादी कहने वाले भारतीय विद्वानों में किसी के पास के यह समझ थी या नहीं।
मेरा अधिकार अपने ज्ञान से संबंधित नहीं है। मेरा अधिकार पाठ के आधिकारिक ज्ञान से संबंध नहीं रखता। पाठों के अंतर्विरोधों, असंगतियों, विसंगतियों को दूर करने वाली किसी ऐसी खोज से संबंध रखता है जिसको लेकर मेरे मन में कई तरह के संदेह अब भी है परन्तु जो दीखता है उसे बयान करने से ही के सर के बल खड़े लोग पावों पर खड़े ही नहीं हो जाते हैं, यह भी समझने लगते हैं कि यदि पाँव चलना बंद कर दे तो दिमाग काम करना बंद कर देगा। भूत के अभाव में चित्त निष्क्रिय है, अन्नं वै ब्रह्म, शरीरं आद्यं खलु धर्मसाधनं, न सोमो अप्रता पपे की समझ न हो, समझने का प्रयत्न तक न रहे यह चिंता की बात है।
कार्ल मार्क्स को कोसने वाले, हिन्दुत्ववादियों को मैं जानता हूं, वे ही तो मेरे लिए संजीवनी का काम करते हैं और साथ ही मुझे कोसते भी हैं, क्योंकि उन्हें कोसते हुए मैं भी उन्हें संजीवनी प्रदान करता हूँ। मैं ज्ञान के भार में पिसते हुए उन विद्वानों को भी जानता हूँ जो मार्क्स की माला जपते हैं, हिन्दुत्व को कोसते हैं पर न मार्क्सवाद की समझ रखते हैं न ही हिन्दुत्व की। और मेरी स्थिति : दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय!
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[1] युगसंधि काल का मान सतयुग-त्रेता 400 , त्रेता-द्वापर 300, द्वापर-कलि 200 और कलि के बाद 100 = 1000, वर्ष।
भगवान सिंह
(Bhagwan Singh)
ऋग्वेद की रहस्यमयता (13)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/13.html
#vss
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