Saturday 28 February 2015

संसद में मन की बात और आज का बजट / विजय शंकर सिंह



हर अधिवेशन के पूर्व राष्ट्रपति जी के अभिभाषण की परम्परा रही है। यह अभिभाषण राष्ट्रपति को सरकार यानी कैबिनेट द्वारा लिख और पारित कर के भेजा जाता है। जो भेजा जाता है वह सरकार का वक्तव्य होता है। राष्ट्र्पति महोदय उस से सहमत हों या न हों पर उन्हें बिना विराम , अर्धविराम छुए वही पढ़ना पड़ता है। कुछ समय के लिए इसे आप उनकी निजी अभिव्यक्ति पर बंधन भी मान सकते हैं पर यह संसदीय परंपरा है। लोक से चुनी संसद ही सर्वोच्च है , और उसी से चुनी कैबिनेट अपनी बात लोक के समक्ष रखती है। फिर उस अभिभाषण के विन्दुओं पर जिसमें सरकार की दशा और दिशा तय होगी संसद में बहस होती है। अंत में सदन के नेता के रूप मैं प्रधान मंत्री उस बहस के दौरान विपक्ष द्वारा उठाये गए विन्दुओं पर अपनी बात कहते हैं।

कल प्रधान मंत्री जी का भाषण था। वह एक ओजस्वी वक्ता हैं। मूलतः वह प्रचारक थे और इस कारण उन्हें वाणी में महारत प्राप्त है। पर सदन में उनके भाषण और वक्तृता शैली से देश भले आशान्वित हो जाय , उत्साहित हो जाय , समर्थक ऊर्जस्वित हो जाएँ पर देश की हकीकत जब तक सड़क पर नहीं सुधरती है तब तक तब तक ऐसे आलंकारिक शब्दावली का कोई उपयोग भी नहीं है। सरकार के गठित हुए 10 माह हो गए हैं। इतना समय किसी भी सरकार के आकलन के लिए कम होता है पर दीये में तेल कितना है यह अनुमान लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा था , अन्धेरा घना है , पर दिया जलाना कहाँ मना है। आज उसी अँधेरे में एक दीप लेकर सरकार ससद में आ रही है। बहुत फ़र्क़ होता है संसद और सड़क के मौसम में। बहुत फ़र्क़ है राजपथ और मेरे गाँव की और जाती सड़क में । आशा है , यह फ़र्क़ कुछ तो कम होगा।

राहें तारीक़ हैं,
कुछ सूझ भी नहीं रहा है ,
कोई दीप नहीं ,
कोई रोशनी नहीं।
एक जुगनू ने आ कर ,
उम्मीद की चमक दिखाई है ,
पर इस का क्या ,
यह भी तो जीव है ,
कब तक रहेगा मेरे साथ ,
एक दीया , मुझे दे दो ,
उसकी रोशनी से असंख्य दीप ,
जैसे जगमगाते हैं ,
गंगा के किनारे, देव दीपावली के दिन,
वैसे ही आलोकित हो मेरा पथ। 

वह मनरेगा का ढोल आन बान और शान से सिर्फ इसलिए पीटते रहेंगे जिस से उनके चिर प्रतिद्वंद्वी का उपहास हो सके।  वह साठ  साल के गड्ढ़े इसलिए दिखाना चाहते  है ताकि वह यह साबित कर सकें कि , यदा यदा हि धर्मस्य यह एक राजनीतिज्ञ का बयान कम , बल्कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी का बयान अधिक लगता है। नशे और उन्माद में हम वह भी कह जाते हैं जो हमें नहीं कहना चाहिए। इन्ही साठ साली गड्ढा बनाओ अभियान में आप का भी कुछ योगदान रहा है हुज़ूर। आप कांग्रेस को कोसिये , जो जैसा है उसे वैसा ही कहा जायेगा , वह सुने या सुने , पर अगर आप गुजरात, मध्य प्रदेश,  छत्तीसगढ़ , राजस्थान , पंजाब , हिमाचल , जहां जहां आप शासन पिछले दस सालों से अधिक अवधि से कर रहे हैं , के अपने कार्यकाल के आंकड़े पेश करके कांग्रेस को आइना दिखाते तो बात ही कुछ और होती। जब तथ्य छिछले रहते हैं, और ढोल थोथे तो शोर बहुत मचता  हैं। भाषण से एक बात मेरी समझ में आयी कि चिंता , मनरेगा के लाभार्थियों की नहीं चिंता खुद की ज़मीन खिसकने की है। जिस देह भाषा और नाटकीयता के स्वरारोह अवरोह से आप आज सदन में बोल रहे थे , वह चुनावी भाषण अधिक , सरकार का वक्तव्य कम लग रहा था।

शेर की दहाड़ से जिसका पेट भरता हो, भरे ,
मुझे तो किसान के खेत का अनाज चाहिये !!




आज बजट आया। त्राता की भूमिका उनकी बना दी थी उनके भक्तों ने। कुछ ने सोचा था विकास रथ दौड़ पडेगा। जिसने भी आलोचना के कुछ बोल निकाले , वह देश द्रोही घोषित हो गया। हामिद अंसारी जैसे व्यक्ति और उप राष्ट्रपति जैसे पदासीन शख्सियत को तत्काल देशद्रोही कह दिया गया। विकास की बात होती तो कहा जाता था बजट में देखियेगा। आज वह भी देख लिया।

दर असल भारतीय जन संघ , जो भाजपा का पूर्वावतार है वह आर्थिक मोर्चे पर कभी साफ़ दृष्टि रख ही नहीं पायी। शुरुआती दौर में जन संघ जो आर एस एस का राजनैतिक चेहरा था  ,  आज़ादी पूर्व साम्प्रदायिक घृणा की प्रतिक्रिया थी। मुस्लिम लीग की यह एंटी थीसिस थी या मुस्लिम लीग, जन संघ के भी पूर्वावतार हिन्दू महा सभा या आर एस एस की एंटी थीसिस थी। या दोनों ही एक दूसरे की थीसिस और एंटी थीसिस थी आप इसे ऐसा भी समझ सकते हैं।  इस साम्प्रदायिक वैमनस्य और घृणा ने जो मूलतः जिन्ना द्वारा मुस्लिम लीग के बैनर तले फैलाई गयी थी से देश बँटवारा हुआ और थक चुके उस समय कांग्रेस नेतृत्व ने भी अंतिम समय में हाँथ खड़े कर इस बंटवारे पर अपनी सहमति दे दी।  जनसंघ का कोई आर्थिक एजेंडा तब भी नहीं था।  वह तो स्वतंत्र पार्टी की तरह पूंजीवादी थी , कम्युनिस्टों की तरह मार्क्सवादी , और ही लोहिया के दृष्टिकोण के अनुसार समाजवादी। कांग्रेस ने नेहरू के नेतृत्व में अपनी आर्थिक विचारधारा चुन ली थी वह मध्यम मार्ग था। जिसे लेफ्ट ऑफ़ सेंटर कहते थे।

इंदिरा के नेतृत्व में जब कांग्रेस आयी तो इसने समाजवादी स्वरुप ग्रहण कर लिया।  संविधान में संशोधन हुआ और समाजवादी तथा सेकुलर शब्द जोड़े गए। हालांकि इन शब्दों के जोड़ने से तो देश समाजवादी हुआ और धर्म निरपेक्षता में ही कोई बढ़ोत्तरी हुयी। भाजपा जो जनता दल से 1979 में दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर अलग हुयी ने अपनी विचारधारा गांधी वादी समाजवाद घोषित की।  जी वही गांधी जिनके यौन प्रयोगों को ही केवल , संस्कारी लोग उनके जन्म दिन पर ज़रूर याद करते हैं और उनके हत्यारे को हिन्दू धर्म का एक अवतार ही मान बैठे  हैं। लेकिन कोई भी आर्थिक दृष्टिकोण , विचारधारात्मक रूप से पनप नहीं पाया।   

यह तो राम की कृपा हुयी।  मंडल बनाम कमंडल की राजनीति शुरू हुयी। साम्प्रदायिक उन्माद चरम पर पहुंचा , और जिस से भाजपा का जनाधार बढ़ गया।  1991 में नरसिम्हा राव की सरकार ने समाजवादी केंचुल भी  फेंक दिया। मुक्त अर्थ व्यवस्था के दिन गए। प्रगति हुयी और प्रगति दिखी भी। दुनिया भर में समाजवादी अर्थ तंत्र असफल होने लगा था पूंजीवाद अपनी आदत के अनुसार तात्कालिक लाभ तुरंत दिखाता है और वह लाभ दिखा भी।  अब जब 10 साल मनमोहन सरकार थी तो यही मुक्त अर्थ व्यवस्था कई क्षेत्रों में असफल होने लगी। भ्रष्टाचार ने सीमा तोड़ दी थी। कांग्रेस नेतृत्वा के संकट से भी जूझ रही थी।  तब मोदी ने अपनी ओजस्वी वाणी से भविष्य की आकर्षक रूप रेखा प्रस्तुत की। और वह अत्यंत सफलता पूर्वक अपने लक्ष्य को पाने में सफल हुए।

यह तकनीकी तौर पर तो दूसरा बजट है , पर सच कहिये मोदी सरकार का यह पहला बजट है।  बजट से जो खबरें मैं देख रहा हूँ लोग  प्रसन्न नहीं नहीं हैं।  दरअसल जब आप अपेक्षा बढ़ा देते हैं तो अपेक्षा पूरी होने पर जो उपेक्षित होने का भाव होता है वह बिलकुल न्यूटन के तीसरे नियम की तरह होता है।  सरकार के पास समय है। वह अभी भी कुछ अपेक्षानुसार कर सकती है। पर उसे मानना  होगा कि विकास सिर्फ उद्योगों से ही नहीं होता , कृषि और किसान उसकी अनिवार्य अंग है।

Friday 27 February 2015

A Short Story in Hindi by Sudarshan / एक कहानी / हार की जीत / सुदर्शन



माँ को अपने बेटे और किसान को अपने लहलहाते खेत देखकर जो आनंद आता है, वही आनंद बाबा भारती को अपना घोड़ा देखकर आता था। भगवद्-भजन से जो समय बचता, वह घोड़े को अर्पण हो जाता। वह घोड़ा बड़ा सुंदर था, बड़ा बलवान। उसके जोड़ का घोड़ा सारे इलाके में न था। बाबा भारती उसे ‘सुल्तान’ कह कर पुकारते, अपने हाथ से खरहरा करते, खुद दाना खिलाते और देख-देखकर प्रसन्न होते थे। उन्होंने रूपया, माल, असबाब, ज़मीन आदि अपना सब-कुछ छोड़ दिया था, यहाँ तक कि उन्हें नगर के जीवन से भी घृणा थी। अब गाँव से बाहर एक छोटे-से मन्दिर में रहते और भगवान का भजन करते थे। “मैं सुलतान के बिना नहीं रह सकूँगा”, उन्हें ऐसी भ्रान्ति सी हो गई थी। वे उसकी चाल पर लट्टू थे। कहते, “ऐसे चलता है जैसे मोर घटा को देखकर नाच रहा हो।” जब तक संध्या समय सुलतान पर चढ़कर आठ-दस मील का चक्कर न लगा लेते, उन्हें चैन न आता।

खड़गसिंह उस इलाके का प्रसिद्ध डाकू था। लोग उसका नाम सुनकर काँपते थे। होते-होते सुल्तान की कीर्ति उसके कानों तक भी पहुँची। उसका हृदय उसे देखने के लिए अधीर हो उठा। वह एक दिन दोपहर के समय बाबा भारती के पास पहुँचा और नमस्कार करके बैठ गया। बाबा भारती ने पूछा, “खडगसिंह, क्या हाल है?”
खडगसिंह ने सिर झुकाकर उत्तर दिया, “आपकी दया है।”
“कहो, इधर कैसे आ गए?”
“सुलतान की चाह खींच लाई।”
“विचित्र जानवर है। देखोगे तो प्रसन्न हो जाओगे।”
“मैंने भी बड़ी प्रशंसा सुनी है।”
“उसकी चाल तुम्हारा मन मोह लेगी!”
“कहते हैं देखने में भी बहुत सुँदर है।”
“क्या कहना! जो उसे एक बार देख लेता है, उसके हृदय पर उसकी छवि अंकित हो जाती है।”
“बहुत दिनों से अभिलाषा थी, आज उपस्थित हो सका हूँ।”

बाबा भारती और खड़गसिंह अस्तबल में पहुँचे। बाबा ने घोड़ा दिखाया घमंड से, खड़गसिंह ने देखा आश्चर्य से। उसने सैंकड़ो घोड़े देखे थे, परन्तु ऐसा बाँका घोड़ा उसकी आँखों से कभी न गुजरा था। सोचने लगा, भाग्य की बात है। ऐसा घोड़ा खड़गसिंह के पास होना चाहिए था। इस साधु को ऐसी चीज़ों से क्या लाभ? कुछ देर तक आश्चर्य से चुपचाप खड़ा रहा। इसके पश्चात् उसके हृदय में हलचल होने लगी। बालकों की-सी अधीरता से बोला, “परंतु बाबाजी, इसकी चाल न देखी तो क्या?”

दूसरे के मुख से सुनने के लिए उनका हृदय अधीर हो गया। घोड़े को खोलकर बाहर गए। घोड़ा वायु-वेग से उडने लगा। उसकी चाल को देखकर खड़गसिंह के हृदय पर साँप लोट गया। वह डाकू था और जो वस्तु उसे पसंद आ जाए उस पर वह अपना अधिकार समझता था। उसके पास बाहुबल था और आदमी भी। जाते-जाते उसने कहा, “बाबाजी, मैं यह घोड़ा आपके पास न रहने दूँगा।”

बाबा भारती डर गए। अब उन्हें रात को नींद न आती। सारी रात अस्तबल की रखवाली में कटने लगी। प्रति क्षण खड़गसिंह का भय लगा रहता, परंतु कई मास बीत गए और वह न आया। यहाँ तक कि बाबा भारती कुछ असावधान हो गए और इस भय को स्वप्न के भय की नाईं मिथ्या समझने लगे। संध्या का समय था। बाबा भारती सुल्तान की पीठ पर सवार होकर घूमने जा रहे थे। इस समय उनकी आँखों में चमक थी, मुख पर प्रसन्नता। कभी घोड़े के शरीर को देखते, कभी उसके रंग को और मन में फूले न समाते थे। सहसा एक ओर से आवाज़ आई, “ओ बाबा, इस कंगले की सुनते जाना।”
आवाज़ में करूणा थी। बाबा ने घोड़े को रोक लिया। देखा, एक अपाहिज वृक्ष की छाया में पड़ा कराह रहा है। बोले, “क्यों तुम्हें क्या कष्ट है?”

अपाहिज ने हाथ जोड़कर कहा, “बाबा, मैं दुखियारा हूँ। मुझ पर दया करो। रामावाला यहाँ से तीन मील है, मुझे वहाँ जाना है। घोड़े पर चढ़ा लो, परमात्मा भला करेगा।”
“वहाँ तुम्हारा कौन है?”
“दुगार्दत्त वैद्य का नाम आपने सुना होगा। मैं उनका सौतेला भाई हूँ।”
बाबा भारती ने घोड़े से उतरकर अपाहिज को घोड़े पर सवार किया और स्वयं उसकी लगाम पकड़कर धीरे-धीरे चलने लगे। सहसा उन्हें एक झटका-सा लगा और लगाम हाथ से छूट गई। उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब उन्होंने देखा कि अपाहिज घोड़े की पीठ पर तनकर बैठा है और घोड़े को दौड़ाए लिए जा रहा है। उनके मुख से भय, विस्मय और निराशा से मिली हुई चीख निकल गई। वह अपाहिज डाकू खड़गसिंह था।बाबा भारती कुछ देर तक चुप रहे और कुछ समय पश्चात् कुछ निश्चय करके पूरे बल से चिल्लाकर बोले, “ज़रा ठहर जाओ।”

खड़गसिंह ने यह आवाज़ सुनकर घोड़ा रोक लिया और उसकी गरदन पर प्यार से हाथ फेरते हुए कहा, “बाबाजी, यह घोड़ा अब न दूँगा।”
“परंतु एक बात सुनते जाओ।” खड़गसिंह ठहर गया।
बाबा भारती ने निकट जाकर उसकी ओर ऐसी आँखों से देखा जैसे बकरा कसाई की ओर देखता है और कहा, “यह घोड़ा तुम्हारा हो चुका है। मैं तुमसे इसे वापस करने के लिए न कहूँगा। परंतु खड़गसिंह, केवल एक प्रार्थना करता हूँ। इसे अस्वीकार न करना, नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा।”
“बाबाजी, आज्ञा कीजिए। मैं आपका दास हूँ, केवल घोड़ा न दूँगा।”
“अब घोड़े का नाम न लो। मैं तुमसे इस विषय में कुछ न कहूँगा। मेरी प्रार्थना केवल यह है कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना।”

खड़गसिंह का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। उसका विचार था कि उसे घोड़े को लेकर यहाँ से भागना पड़ेगा, परंतु बाबा भारती ने स्वयं उसे कहा कि इस घटना को किसी के सामने प्रकट न करना। इससे क्या प्रयोजन सिद्ध हो सकता है? खड़गसिंह ने बहुत सोचा, बहुत सिर मारा, परंतु कुछ समझ न सका। हारकर उसने अपनी आँखें बाबा भारती के मुख पर गड़ा दीं और पूछा, “बाबाजी इसमें आपको क्या डर है?”
सुनकर बाबा भारती ने उत्तर दिया, “लोगों को यदि इस घटना का पता चला तो वे दीन-दुखियों पर विश्वास न करेंगे।” यह कहते-कहते उन्होंने सुल्तान की ओर से इस तरह मुँह मोड़ लिया जैसे उनका उससे कभी कोई संबंध ही नहीं रहा हो।

बाबा भारती चले गए। परंतु उनके शब्द खड़गसिंह के कानों में उसी प्रकार गूँज रहे थे। सोचता था, कैसे ऊँचे विचार हैं, कैसा पवित्र भाव है! उन्हें इस घोड़े से प्रेम था, इसे देखकर उनका मुख फूल की नाईं खिल जाता था। कहते थे, “इसके बिना मैं रह न सकूँगा।” इसकी रखवाली में वे कई रात सोए नहीं। भजन-भक्ति न कर रखवाली करते रहे। परंतु आज उनके मुख पर दुख की रेखा तक दिखाई न पड़ती थी। उन्हें केवल यह ख्याल था कि कहीं लोग दीन-दुखियों पर विश्वास करना न छोड़ दे। ऐसा मनुष्य, मनुष्य नहीं देवता है।

रात्रि के अंधकार में खड़गसिंह बाबा भारती के मंदिर पहुँचा। चारों ओर सन्नाटा था। आकाश में तारे टिमटिमा रहे थे। थोड़ी दूर पर गाँवों के कुत्ते भौंक रहे थे। मंदिर के अंदर कोई शब्द सुनाई न देता था। खड़गसिंह सुल्तान की बाग पकड़े हुए था। वह धीरे-धीरे अस्तबल के फाटक पर पहुँचा। फाटक खुला पड़ा था। किसी समय वहाँ बाबा भारती स्वयं लाठी लेकर पहरा देते थे, परंतु आज उन्हें किसी चोरी, किसी डाके का भय न था। खड़गसिंह ने आगे बढ़कर सुलतान को उसके स्थान पर बाँध दिया और बाहर निकलकर सावधानी से फाटक बंद कर दिया। इस समय उसकी आँखों में नेकी के आँसू थे। रात्रि का तीसरा पहर बीत चुका था। चौथा पहर आरंभ होते ही बाबा भारती ने अपनी कुटिया से बाहर निकल ठंडे जल से स्नान किया। उसके पश्चात्, इस प्रकार जैसे कोई स्वप्न में चल रहा हो, उनके पाँव अस्तबल की ओर बढ़े। परंतु फाटक पर पहुँचकर उनको अपनी भूल प्रतीत हुई। साथ ही घोर निराशा ने पाँव को मन-मन भर का भारी बना दिया। वे वहीं रूक गए। घोड़े ने अपने स्वामी के पाँवों की चाप को पहचान लिया और ज़ोर से हिनहिनाया। अब बाबा भारती आश्चर्य और प्रसन्नता से दौड़ते हुए अंदर घुसे और अपने प्यारे घोड़े के गले से लिपटकर इस प्रकार रोने लगे मानो कोई पिता बहुत दिन से बिछड़े हुए पुत्र से मिल रहा हो। बार-बार उसकी पीठपर हाथ फेरते, बार-बार उसके मुँह पर थपकियाँ देते। फिर वे संतोष से बोले, “अब कोई दीन-दुखियों से मुँह न मोड़ेगा।”

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सुदर्शन का जीवन-परिचय

 

सुदर्शन का वास्तविक नाम बदरीनाथ था। आपका जन्म सियालकोट (वर्तमान पाकिस्तान) में १८९६ में हुआ था। सुदर्शन की कहानियों का मुख्य लक्ष्य समाज व राष्ट्र को स्वच्छ व सुदृढ़ बनाना रहा है। प्रेमचन्द की भांति आप भी मूलत: उर्दू में लेखन करते थे व उर्दू से हिन्दी में आये थे। सुदर्शन की भाषा सहज, स्वाभाविक, प्रभावी और मुहावरेदार है। सुदर्शन  प्रेमचन्द परम्परा के कहानीकार हैं। इनका दृष्टिकोण सुधारवादी है।  आपकी प्रायः सभी प्रसिद्ध कहानियों में  समस्यायों का समाधान आदशर्वाद से किया गया है। 


मुंशी प्रेमचंद और उपेन्द्रनाथ अश्क की तरह पंडित सुदर्शन हिन्दी और उर्दू में लिखते रहे। उनकी गणना प्रेमचंद संस्थान के लेखकों में विश्वम्भरनाथ कौशिक, राजा राधिकारमणप्रसाद सिंह, भगवतीप्रसाद वाजपेयी आदि के साथ की जाती है।
लाहौर की उर्दू पत्रिका, 'हज़ार दास्तां' में उनकी अनेक कहानियां प्रकाशित हुईं। उनकी पुस्तकें मुम्बई के हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय द्वारा भी प्रकाशित हुईं। सुदर्शन को गद्य और पद्य दोनों में महारत थी। "हार की जीत" पंडित जी की पहली कहानी है और 1920 में सरस्वती में प्रकाशित हुई थी।

मुख्यधारा विषयक साहित्य-सृजन के अतिरिक्त आपने अनेकों फिल्मों की पटकथा और गीत भी लिखे। सोहराब मोदी की सिकंदर (1941) सहित अनेक फिल्मों की सफलता का श्रेय उनके पटकथा लेखन को जाता है। सन 1935 में उन्होंने "कुंवारी या विधवा" फिल्म का निर्देशन भी किया। आप 1950 में बने फिल्म लेखक संघ के प्रथम उपाध्यक्ष थे। सुदर्शन 1945 में महात्मा गांधी द्वारा प्रस्तावित अखिल भारतीय हिन्दुस्तानी प्रचार सभा वर्धा की साहित्य परिषद् के सम्मानित सदस्यों में थे। उनकी रचनाओं में हार की जीत, सच का सौदा, अठन्नी का चोर, साईकिल की सवारी, तीर्थ-यात्रा, पत्थरों का सौदागर, पृथ्वी-वल्लभ आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

फिल्म धूप-छाँव (1935 ) के प्रसिद्ध गीत 'बाबा मन की आँखें खोल' व एक अन्य गीत 'तेरी गठरी में लागा चोर मुसाफ़िर जाग ज़रा' जो शायद किसी फिल्म का गीत न होते हुए भी बहुत लोकप्रिय हुआ सुदर्शन के लिखे हुए गीत हैं।

Thursday 26 February 2015

मुद्दों को मत भटकाइये / विजय शंकर सिंह


न तो मदर टेरेसा से जुड़े कोई आयोजन हो रहे हैं , न ही उनपर कोई नयी किताब प्रकाशित हुयी है , और न ही सरकार ने उनसे जुड़े किसी कार्यक्रम घोषणा की है , फिर भी संघ प्रमुख को अचानक यह इलहाम क्यों हुआ  कि मदर टेरेसा सेवा की आड़ में धर्म परिवर्तन कराती थीं। यह सवाल मुझे थोड़ा हैरान कर रहा है। इधर आप गौर करें तो पाएंगे कि जब भी जनता से जुड़े मुद्दे संसद या सड़क पर उठते हैं या उठने वाले होते हैं और धर्म की दीवारें स्वतः लोप होने लगती है तो ऐसे बयान जान बूझ कर फैलाये जाते हैं। इसे हम सैन्य या पुलिस की भाषा में कवरिंग फायर कहते हैं। मदर पर बहुत ही कम विवाद रहा है। ईसाई मिशनरियों पर धर्म परिवर्तन कराये जाने के आरोप लगते रहे हैं , और वे कराते भी रहते हैं , पर इधर बिना विवाद के यह विवाद या प्रश्न उठाना , एक शातिर चाल भी हो सकती हैं।

संसद का  सबसे  महत्वपुर्ण अधिवेशन बजट अधिवेशन होता है। यह देश की आर्थिक दशा और दिशा दोनों ही तय करता है। आज रेल बजट, और सामान्य बजट 28 को पेश होगा। सरकार ने जो अध्यादेश जारी किये हैं उनका भी संसद द्वारा अनुमोदन किया जायेगा और वह भी विधेयक बनेंगे। सबसे महत्वपूर्ण बिल भूमि अधिग्रहण से जुड़ा है। इसे लेकर संसद में तो गतिरोध हुआ ही है सड़क पर भी किसान आंदोलित हैं। ऐसी परिस्थितियों में मोहन भागवत का बयान जो मदर टेरेसा पर है वह कहीं न कहीं बहस को भटकाने की चाल है। जब जब कोई भी ऐसा मुद्दा जो जान सरोकारों से , धर्म और जाति के कठघरे से इतर सामने आता है तो कुछ ताक़तें जो मूलतः जन विरोधी होती हैं इन्हे भटकाने का प्रयास करती हैं। हाल ही की कुछ घटनाओं को देखें। लोकसभा चुनाव के पूर्व , मुज़फ्फरनगर , कुछ उपचुनाओं के पूर्व घर वापसी , और दिल्ली चुनाव के पूर्व दिल्ली में हुयी छिटपुट साम्प्रदायिक वारदातें , और रामज़ादा और हरामज़ादे का बयान। इसी क्रम में आज आर एस एस प्रमुख का बयान मुझे लग रहा है कि यह भी कोई रणनीति है।

शायद अपने राज-धर्म का अहसास कर लम्बी चुप्पी तोड़ते हुए प्रधानमंत्री मोदी ईसाई संतों के बीच यह कह आए कि धार्मिक घृणा और हिंसा की गतिविधियाँ बरदाश्त नहीं होंगी; लेकिन उनको उन्हीं की बिरादरी से फौरन जवाब भी मिल गया है। परसों मोहन भागवत ने देवीसरीखी मदर टेरेसा के निस्स्वार्थ सेवा-कर्म को पोतने की चेष्टा की; कल योगी आदित्यनाथ ने कहा कि घर-वापसी का अनुष्ठान जारी रहेगा; प्रवीण तोगड़िया रोज कह रहे हैं कि घर-वापसी संवैधानिक कर्म है!

आर एस एस और हिंदुत्व के थिंक टैंक से जुड़े महानुभावों को चाहिये कि वह पिछले पचास साल में हुए धर्मांतरण पर शोध कर तथ्य एकत्र करें। एक अध्ययन इस बारे में भी हो कि कौन सी मिशनरियाँ धर्म परिवर्तन के काम में लगी हुयी हैं और उनके तरीके क्या हैं ? इस पर भी शोध और अध्ययन हो कि हिन्दुओं के किस वर्ग या जाति के लोगों ने ईसाई धर्म को स्वीकार प्रमुखता से किया है। लेकिन जब तक ऐसा कोई शोध या अध्ययन नहीं होता और तथ्य सार्वजनिक नहीं किया जाता तब तक ऐसे आरोप स्वयं की कमज़ोरी ही उजागर करेंगे। ईसाई मिशनरियां और चर्च देश में लोकप्रिय हों या न हों पर इनसे जुड़े स्कूल सबसे अधिक लोकप्रिय माने जाते हैं। छोटे छोटे गाँव में, शहरों के दूर दराज़ के मुहल्लों में संत जोजेफ , संत पैट्रिक , होली चाइल्ड , मरियम आदि के नाम पर आपको स्कूल मिल जायेंगें। पर ज़रूरी नहीं कि उसके संचालक ईसाई ही हों। पर वह नाम सिर्फ के ईसाई नाम से मिलता जुलता इस लिए रखते हैं ताकि लोग आकर्षित हो सकें। आखिर भारतीय मनीषा के संतों के नाम पर , जिनकी कोई कमी नहीं है ,ये स्कूल क्यों नहीं खोले जाते। या तो अवचेतन में दबी हुयी दासता के जीन्स हैं या  हमारी  खुद की हीन भावना , यह आत्म विश्लेषण अपेक्षित है। आप दूसरों के धर्म को बुरा भला कर के , कोस के , और कमियां निकाल के खुद के धर्म को श्रेष्ठ नहीं ठहरा सकते हैं। स्वप्रच्छालन की प्रक्रिया खुद ही शुरू करनी होगी। मन ईमानदारी से तभी आत्म निरीक्षण कर सकता है जब वह पूर्वाग्रह और द्वेष से मुक्त हो। द्वेष से मुक्त होने के लिए घृणा का मार्ग छोड़ना ही होगा.

जिस संगठन में विरोध के स्वर न उभरें, जिस संगठन में शीश झुका कर सब कुछ शिरोधार्य कर लिया जाय. जिस संगठन में कोई दिशा न हो. जिस संगठन में नेतृत्व को चुनने की कोई लोकतांत्रिक परंपरा न हो। जिस संगठन अतीत के प्रति भरम हो। जिस संगठन वर्तमान की कोई परख न हो। जिस संगठन भविष्य की कोई योजना न हो।
जिस संगठन रीति नीति में कोई पारदर्शिता न हो , जिस संगठन वह संगठन सिर्फ और सिफ भटकाता है।

मोदी सरकार , पिछली सरकार के घोटालों और कमियों के कारण जो जन असन्तोषः फैला था उसी का परिणाम था। जान अपेक्षाएं बहुत बढ़ी थीं और नयी सरकार का बहुत उत्साह से स्वागत भी हुआ। सरकार के गठित हुए , लगभग 10 माह हो चुके हैं ,सरकार का मूल एजेंडा जो  चुनाव के दौरान प्रस्तुत किया गया था , वह सबका साथ और सबका विकास था। प्रधान मंत्री के पद भार ग्रहण के बाद  बहुत संतुलित तरीके से अपनी बात भी रखी. पर बाद में जो फैसले आये वह जनता के कम और उद्योगपतियों के हित में अधिक दिखे। नए भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के कुछ प्राविधान तो साफ़ साफ जन विरोधी दिखी। लेकिन इन सब के बीच जब जब विकास की बात आती रही और सरकार घिरती रही तो वे ताक़तें , जो घृणा और वैमनस्य फैलाती रहीं है अचानक सक्रिय हो गयीं। जैसे घर वापसी का एजेंडा , साक्षी महाराज का चार बच्चे पैदा करने वाला बयान , साध्वी का रामज़ादा और हरामजादा वाला बयान , और इसी तरह के अन्य मिलते जुलते बयान। दुर्भाग्य से देश में जितना आक्रोश धर्म और जाति के नाम पर उबलता है उतना आक्रोश भूख और गरीबी के नाम पर नहीं उबलता है। इसी लिए बहस मूल उद्देश्य से भटक जाती है और देश में जो घृणा फैलती है वह अलग। जो संगठन ऐसा करते हैं वे सभी भाजपा से जुड़े हैं या भाजपा के लोग उनसे सहमति रखते हैं  . अगर इन सब बयानों से देश की फ़िज़ा खराब होती है तो इस से सरकार को क्या लाभ हो रहा है यह समझ में नहीं आ रहा है। लेकिन इन सब बयानबाज़ी से असली मुद्दे नेपथ्य में ही चले जा रहे हैं। यह स्थिति देश के लिए हितकर नहीं होगा।  
-vss.