Wednesday, 14 April 2021

ऋग्वेद की रहस्यमयता (10)

कल हमने गो और आर्य शब्द पर विचार करते समय जो कहना चाहता था उससे दूसरी दिशा में चला गया।  इन शब्दों के  जो अर्थ किए गए हैं वह बहुत रोचक हैं।   एक तो इनका प्रयोग इतने  रूप में किया जा सकता है और किया जाता रहा है जो यदि भाषा पर हमारा पूरा अधिकार होता तो शायद न किया जाता। शब्दों का अर्थ सुनिश्चित होना चाहिए और यदि  भाषा मनुष्य कृत होती तो इसका निर्वाह अवश्य किया जाता।  कोई और बड़ा तंत्र है जो शब्दों के अर्थ को नियंत्रित करता है। आपको आश्चर्य होगा गो का प्रयोग  अश्व के लिए और अश्व का प्रयोग गो के लिए हो सकता है और किया गया है।इतना ही नहीं वह का प्रयोग अज (गोट) के लिए हो सकता है क्योंकि अश्व,  गो, अज तीनों का अर्थ’ चलने वाला’ है। 

और शब्द पर आए।   कोश में गो के  निम्न अर्थ दिए गए है,
(1)  गोरू [cattle, kine), 
(2)    उत्पाद - दूध और दूध उत्पाद (दही, मक्खन, घी),  गोबर,  गोमूत्र,  चमड़ा,   सींग,  [anything coming from cow ], नक्षत्र [star], आकाश [the Sky], इन्द्र का वज्र[thunderbolt of Indra], रश्मि [a ray of light], स्वर्ग[Heaven], हीरा [a diamond], धरती [the earth], वाणी [speech, the words], सरस्वती [goddess of speech], माता [a mother], जल [water], आँख [eye], ज्ञानेन्द्रिय[an organ of the sense], घोड़ा [a horse], चाँद [the moon]।  

ऋग्वेद में इनमें से एक अनेक अनेक अर्थों में गो का प्रयोग हुआ है परंतु उसका एक प्रयोग ऐसा है जिसे संस्कृत का कोई विद्वान समझ न पाया,  और इसलिए वह यह सुझाते रहे कि वैदिक काल में समस्त लेनदेन गाय (गो) या उसके खंडों (गवार्ध, पाद, शफ और कला या खुर के आधे) के माध्यम से हुआ करता था,  अर्थात्  मान  रूप में गो शब्द का प्रयोग।  इसकी विचित्रता, अव्यवहारिकता की विस्तार से चर्चा करते हुए,  और साथ ही महान के लिए प्रयुक्त सेर और गज  की याद दिलाते हुए यह  समाधान इन पंक्तियों के लेखक द्वारा(1987)  दिया गया इस  यह मान की एक इकाई था।   हम केवल यह याद दिलाना चाहते हैं यदि इतने सारे आसनों में किसी चीज का प्रयोग हो रहा है तो इसका कोई  एक स्रोत होना चाहिए जिस के गुण और लक्षण और उनके विस्तार से  इतने सारे  आंसुओं में इस शब्द का प्रयोग हो रहा था। 

वैदिक कवियों ने शब्द गढ़े नहीं थे, हमारे दैनिक व्यवहार में आने वाले शब्दों के मर्म को समझने का प्रयत्न किया था और संभवतः इसी क्रम में वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि, भाषा की उत्पत्ति जल की ध्वनियों से हुई है। हमारा परिचय शब्दों की रूढ़ियों से है, जीवन में अस्थिरता और व्यस्तता अधिक है इसलिए हम इसुआपुर में नहीं पड़ते कि कौन सी चीज कैसे उत्पन्न हुई हो सकती है। जबकि वे सृष्टि कैसे पैदा हुई, भाषा कैसे पैदा हुई, आकाश कैसे पर तना हुआ है, धरती किस पर टिकी हुई है, हवा कैसे चलती है, पानी से बिजली कैसे पैदा होती है, जैसे बुनियादी सवालों को हल करने में अपना काफी समय लगाते थे, और ऐसे अनेक रहस्यों  की जड़ों  को तलाशने में समर्थ हुए थे, जिनसे  उलझने की कोशिश मनुष्य ने दोबारा वैज्ञानिक युग आरंभ होने के साथ किया और अनेक मामलों में उनसे मिलते जुलते निष्कर्ष पर पहुंचा। हम यह नहीं कह रहे हैं, वैदिक युग को आज की समकक्षता में  रखा  जा सकता है। हम केवल चिंतन की दिशाओं की बात कर रहे हैं और अपने युग की तकनीकी सीमाओं में उपलब्धियों की बात कर रहे हैं।  उनकी अनेक   खोजों को आधुनिक जगत ने दोबारा खोजा है,  इसके विस्तार में जाने के अपने खतरे हैं। भाषा की उत्पत्ति के विषय में उनके चिंतन की सम कक्षा में आज का भाषा विज्ञान नहीं आ सका और इसलिए भौतिकी के क्षेत्र में आधुनिक  भाषावैज्ञानिक  आविष्कारों का जो भी महत्व हो  मानविकी के क्षेत्र में भाषा विज्ञान का जो योगदान भाषा की उत्पत्ति की समस्या के समाधान से हो सकता था, जो नहीं हो पाया।   यहां तक कि उसकी ओर हमारा ध्यान आज भी नहीं जा पाता है। पर इसका  सबसे  रोमांचकारी पक्ष यह है कि इसकी पड़ताल के बाद  मानविकी -  इतिहास,  संस्कृति,  दर्शन,  समाज विज्ञान,  मानवविज्ञान,  मनोविज्ञान -  के क्षेत्र में पश्चिमी  जगत का बौद्धिक आतंक समाप्त ही नहीं हो जाता,   अपितु उलट जाता है। परंतु इसका भी विस्तृत विवेचन विषय से नये भटकाव का रूप ले लेगा।
 
हम भाषा की उत्पत्ति इस समस्या से यहां  टकरा भी नहीं रहे हैं।  हमारी समस्या है वेदों की भाषा  जन्य  रहस्यमयता  और  उसका एक  पक्ष  है  भाषा की   आदिम  चरण से लेकर विकसित  और  रूढ़  प्रयोगों के बीच  लुका छुपी का खेल खेलना।  अब  इस  दृष्टि  से विचार करने पर हम पाते हैं कि  को गो घो  तीनों एक ही शब्द है और इनका प्रयोग अपनी ध्वनि सीमा में कई  बोलियों  के लोग जल के लिए किया करते थे। मूल शब्द किस बोली का था,  इसके निर्णय में  समय गँवाना ठीक न होगा।  इतना ही निवेदन पर्याप्त है कि इनको कोमल नदी (जिसे कमला नदी बना दिया गया, जब कि नदी में कमल नहीं खिलते), कोमल,  गोमती/ गोदावरी/ गोमल और घाेंघर/घाघर/घग्घर  जैसे नदी  नामों में पहचान सकते हैं। अंतिम के विषय में संदेह हो तो घोंघा - जल में उत्पन्न, जैसे मोती, त. मुत्तु - मोती, हि. मूत (अर्थ  आप जानते हैं,  और यह भी जानते होगे हिंदी का यह शब्द संस्कृत के मूत्र का अपभ्रंश है परंतु यदि आप इस बात का ध्यान रखें कि जीमूत =  जीवन दायक जल,  में प्रयुक्त मूत का  बिगाड़ा हुआ  रूप मूत्र  है तो  आप यह भी समझ जाएंगे  के हिंदी की बोलियों में शुद्ध शब्द बना रहा। परंतु इसका  विकृत अर्थ  संस्कृत की कृपा से आ गया है।  भाषाएं  किन  आधातों- प्रत्याघातों  के बीच विकसित होती हैं, सामाजिक  तंत्र कितने तत्वों को समेटते हुए  विकसित होता है,   मानव वैज्ञानिक  दृष्टिकोण से विचार करने पर हम अपनी निजता में कितनी विविधता समेटे हुए हैं  इसका सही हिसाब करने चलें  तो समस्त ब्रह्मांड हमारे भीतर समाया मिलेगा और ब्रह्मांड हमारे ही आत्म का वि स्तार दिखाई देगा।
 
परंतु भटकने से  बचते हुए हमें अपने विषय पर केंद्रित  रहना है  जिसका  निष्कर्ष यह है  कि  जल वह मूल  उत्स था  जिससे  इस समस्त शब्दावली का विकास हुआ।  उसमें गति,  गमन सूचक शब्दों के लिए प्रयोग की क्षमता थी,  प्रकाश था जो नक्षत्र लोक तक हो सकता था, ध्वनि थी  जो आकाश को घेर सकती थी - शब्दगुणकं आकाशं,- इसी तरह दूसरी विशेषताएं थीं  जिनके आधार पर इसका प्रयोग इतने परस्पर विरोधी परंतु 1 साल से जुड़े हुए रूप में हुआ करता था। इससे आगे बढ़े तो विषय बोझ बन जाएगा।  प्रसंग वश यह याद दिला दें कि अश्व शब्द पर विचार करते हुए, हमारी सोच आशु - तेज गति से आगे नहीं बढ़ पाती।  हम नहीं सोच पाते  कि अश् का अर्थ जल हुआ करता था। स/श में अंतर नहीं। अश्रु  जिस मूल से निकला है, उसी से अंशु  और  अंश भी निकले हैं। अश् - जल,  में गति का भाव है. वेग आरोपित है, और अर्थ के  रूढ़ हो जाने के बाद भी गो के लिए अश्व  और  अश्व के लिए गो का ऋग्वेद में प्रयोग हुआ है यद्यपि एक आध बार ही जिसका अर्थ है वे रूढ़ अर्थ से  अवगत थे, और संस्कृत के रीतिकालीन कवियों की  प्रयोगबाह्य , परंतु  शब्द विचार की दृष्टि से संभव संदर्भ में उपयोग किया करते थे।  यह है  भाषा का समस्त विकास परंपरा में से कहीं से भी चुनाव करते हुए मनमाना प्रयोग जिसकी ओर हमारा ध्यान सामान्यतः नहीं जा पाता।  

परंतु  इसका अगला पक्ष है संदर्भ को लगातार बदलते रहना और इस तरह लौकिक को पारलौकिक, भौतिक का आधिभौतिक बनाते हुए एक नई चुनौती पेश करना।  इसे हम उस सूक्त को  जिसे लंबे समय तक मैं नहीं समझ पाया इसका संबंध भाषा की उत्पत्ति से है. उसकी व्याप्ति से है, उसकी महिमा से है और उससे जुड़े हुए विचारों और सूक्ष्म संकेतों  से है।  आज तो  इस  सूक्त को  मूल में और  कतिपय शब्दों के  सायण द्वारा किए गए भाष्य (जिन्हें लघुकोष्ठकों में दिया गया है) और ग्रिफिथ के अनुवाद के साथ देना ही  पर्याप्त समझते हैं।  इन दोनों से हमारी असहमति किन बातों को लेकर है, इस पर हम कल विचार करेंगे :
8 वागम्भृणी । आत्मा । त्रिष्टुप्, जगती ।

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चराम्यहमादित्यैरुत विश्वदेवैः ।
अहं मित्रावरुणोभा बिभर्म्यहमिन्द्राग्नी अहमश्विनोभा ।। 10.125.1
अहं रुद्रेभिः वसुभिः चरामि अहं आदित्यैः उत विश्वेदेवैः ।
अहं मित्रावरुणा उभा बिभर्मि अहं इन्द्राग्नी अहं अश्विना उभा ।। 10.125.1
I TRAVEL with the Rudras and the Vasus, with the Adityas and All-Gods I wander.
I hold aloft both Varuna and Mitra, Indra and Agni, and the Pair of Asvins.
 
अहं सोममाहनसं बिभर्मि अहं त्वष्टारमुतपूषणं भगम् ।
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते ।। 10.125.2
अहं सोमं आहनसं (आहन्तव्यमभिषोतव्यं) बिभर्मि अहं त्वष्टारं उत पूषणं भगम् । 
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये (शोभनं हविर्देवानां प्रापयित्रे तर्पयित्रे) यजमानाय सुन्वते ।। 10.125.2
I cherish and sustain high-swelling Soma, and Tvastar I support, Pusan, and Bhaga.
I load with wealth the zealous sdcrificer who pours the juice and offers his oblation
 
अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम् ।
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां भूर्यावेशयन्तीम् ।। 10.125.3
अहं राष्ट्री (सर्वस्य जगत ईश्वरी) सङ्गमनी (संगमयित्री) वसूनां चिकितुषी (स्वात्मतया ब्रह्म साक्षात्कृतवती)  प्रथमा यज्ञियानाम् । 
तां मा देवा व्यदधुः पुरुत्रा भूरिस्थात्रां (बहुभावेन अवतिष्ठमाना) भूरि आवेशयन्तीं (जीवभावेनात्मानं) प्रवेशयन्तीं  ।। 10.125.3 
I am the Queen, the gatherer-up of treasures, most thoughtful, first of those who merit worship.
Thus Gods have stablished me in many places with many homes to enter and abide in.
 
मया सो अन्नमत्ति यो विपश्यति यः प्राणिति य ईं षृणोत्युक्तम् ।
अमन्तवो मां त उप क्षियन्ति श्रुधि श्रुत श्रद्धिवं ते वदामि ।। 10.125.4
मया सः अन्नं अत्ति यः विपश्यति यः प्राणिति (श्वासोच्छ्वासरूपं व्यापारं करोति)  य ईं शृणोति उक्तम् । 
अमन्तवः (अमन्यमाना अजानन्तः) मां त उपक्षियन्ति (उपक्षीणा संसारेण हीना भवन्ति) श्रुधि श्रुत (विश्रुत सखे) श्रद्धिवं (श्रद्धा यत्नेन लभ्यं) ते वदामि ।। 10.125.4
Through me alone all eat the food that feeds them,-each man who sees, brewhes, hears the word outspoken
They know it not, but yet they dwell beside me. Hear, one and all, the truth as I declare it.

अहमेव स्वयमिदं वदामि जुष्टं देवेभिरुत मानुषेभिः ।
यं कामये तंतमुग्रं कृणोमि तं ब्रह्माणं तमृषिं तं सुमेधाम् ।। 10.125.5
अहं एव स्वयं इदं वदामि जुष्टं सेवितं देवेभिः उत मानुषेभिः ।
यं कामये तं तं उग्रं (सर्वेभ्यो अधिकं) कृणोमि तं तं एव ब्रह्माणं (स्रष्टारं ) करोमि तं ऋषिं (अतीन्द्रियदर्शिनं ) तं सुमेधां (शोभनप्रज्ञं) ।। 10.125.5
I, verily, myself announce and utter the word that Gods and men alike shall welcome.
I make the man I love exceeding mighty, make him a sage, a Rsi, and a Brahman.

अहं रुद्राय धनुरातनोमि ब्रह्मद्विषे  शरवे हन्तवा उ ।
अहं जनाय समदं कृणोम्यहं द्यावापृथिवी आ विवेष ।। 10.125.6
अहं रुद्रायरुद्रस्य (‘षर्ष्ट्थे चतुर्थी’, महादेवस्य चापं ) धनुः आ तनोमि (ज्या ततं करोमि) ब्रह्मद्विषे शरवे हन्तवै ऊँ ।
अहं जनाय समदं (‘समानं माद्यन्तस्मिन्निति समत् संग्रामः), कृणोमि अहं द्यावापृथिवी आविवेश (प्रविष्टवती) ।। 10.125.6
I bend the bow for Rudra that his arrow may strike and slay the hater of devotion.
I rouse and order battle for the people, and I have penetrated Earth and Heaven.

अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन् मम योनिरप्स्व 1न्तः समुद्रे ।
ततो वि तिष्ठे भुवनानु विश्वोतामूं द्यां वर्ष्मणाोप स्पृशामि ।। 10.125.7
अहं सुवे (प्रसुवे जनयामि ) पितरं दिवं अस्य मूर्धन् (मूर्धनि उपरि)  मम योनिः कारणभूते (अप्सुव्यापनशीलासु धीवृत्तिषु )अन्तः समुद्रे ।
ततो वितिष्ठे (विविधं व्याप्य तिष्ठामि ) भुवना (भूतजातानि)  अनुप्रविश्य विश्वे उत अमूं द्यां वर्ष्मणा (कारणभूतेन मायात्मकेन  मदीयेन देहेन)  उप स्पृशामि ।। 10.125.7
On the world's summit I bring forth the Father: my home is in the waters, in the ocean.
Thence I extend o'er all existing creatures, and touch even yonder heaven with my forehead.

अहमेव वात इव प्र वाम्यारभमाणा भुवनानि विश्वा ।
परो दिवा पर एना पृथिव्यैतावती महिना सं बभूव ।। 10.125.8 {12}(1416)
अहं एव वातइव (प्रवामिप्रवर्ते ) आरभमाणा (कारणरूपेण उत्पादयन्ती ) भुवनानि विश्वे ।
परः दिवा पर एना (अस्याः) पृथिव्याः एतावती महिना (महिम्ना)  सं बभूव ।। 10.125.8
I breathe a strong breath like the wind and tempest, the while I hold together all existence.
Beyond this wide earth and beyond the heavens I have become so mighty in my grandeur.

भगवान सिंह
(Bhagwan Singh)

ऋग्वेद की रहस्यमयता (9ख)
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