Monday 12 April 2021

ऋग्वेद की रहस्यमयता (9ख)

हम ऋग्वेद की जिस रहस्यमयता  की बात कर रहे हैं वह भाषा की  क्लिष्टता, या  शब्दों की प्रयोगबाह्यता  से संबंध नहीं रखती, क्योंकि अपने समय में वैदिक समाज के लिए ये  क्लिष्ट नही रहे होंगे,  और प्रचलन से बाहर तो हो ही नहीं सकते थे, भले वे किसी ऐसी बोली से आए हों जिसके बोलने वालों का वैदिक समाज में पहले प्रवेश न रहा हो। ऐसी शब्दावली का अर्थ-निर्धारण  करने का प्रयत्न आचार्यों ने  यथेष्ट  श्रम किया है।   बहुत कम  शब्द ऐसे होंगे  जिनके अर्थ में अनिश्चितता बनी रह गई हो। 

समस्या वहां पैदा होती है जहाँ कवि अपने समय के श्रोताओं और पाठकों को भी चकित करने का प्रयत्न करते थे जाने-समझे शब्दों का सर्वविदित अर्थ में तो प्रयोग करते ही,  ऐसे  अर्थों में भी प्रयोग करते हैं जिनको न तो हम जानते हैं, न वे कोश में मिलते है। उदाहरण के लिए अन्न  के जिस अर्थ से हम परिचित हैं,  वह किसी प्रकार का अनाज है। आप्टे के  कोश में इसका अर्थ आहार (food), और भात (boiled rice) है, साथ ही  ( food as representing the lowest form in which the Supreme Soul is manifested) है।  अंतिम अर्थ उपनिषद की देन है,  जिसमें एक प्राणी को दूसरे प्राणी का  अन्न (आहार) बताया गया है।  यदि किसी ऋचा में इसका प्रयोग घास के लिए हो,  या पानी के लिए हो, तो  हम उलझन में अवश्य पड़ जाएंगे। 

चमत्कार प्रदर्शन की यह प्रवृत्ति हमारे जातीय संस्कार का हिस्सा बन गई। इसका सबसे रोचक उदाहरण भारवि (किरातार्जुनीय) की वह एकाक्षरी पंक्ति - न नोननुन्नो नुन्नोनो नाना नानानना ननु। नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत् - है जिसे संस्कृतज्ञ बड़े गर्व से उद्धृत करते हैं, परन्तु ऋग्वेद में यह इतने भोंड़े रूप में नहीं दिखाई देता। 

वैदिक कवियों को भाषा की उत्पत्ति और विकास की बहुत अच्छी समझ थी। वे जानते थे कि मनुष्य ने की अपनी भाषा का विकास परिवेशीय नाद जगत से उच्चारण में सुकर, सार्थक ध्वनियों का प्रयोग उनके स्रोतों और क्रियाओं तथा उससे साधर्म्य और विरोध रखने वाली वस्तुओं, क्रियाओं और गुणों के लिए करते हुए किया है। इस ध्वनि जगत को वे सूनृता वाक् कहते थे। इसके साथ ही वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे ऐसी सर्वाधिक ध्वनियाँ जल के विविध परिमाणों, गतियों, और संपर्क में आने वाले या टकराने वाले उपादानों से उत्पन्न नाद  से प्राप्त हुई हैं। हम इस विषय में पूरी तरह सचेत नहीं थे, परन्तु अपने पहले ही शोधकार्य में जो निरर्थक प्रतीत होने वाले भारतीय स्थान नामों पर किया था, मैं अपनी आधार सामग्री  के विवेचन के माध्यम से इस निष्कर्ष पर पहुंचा था  ये नाम जिस अल्पतम बहुनिष्ठ ध्वनि से व्युत्पन्न प्रतीत होते हैं, उसका अर्थ जल है।  

यह पहेली तब मेरी समझ में नहीं आती थी। मैने अपने को समझाया कि पानी के बिना जीवन संभव नहीं, इसलिए बस्तियाँ पानी के किसी स्रोत के निकट बसाई जाती रही होंगी। परंतु यह दिलासा मेरी  आशंका के निवारण के लिए पर्याप्त न थी,  इसलिए उस काम को बीच में ही रोक देना पड़ा, यद्यपि उसकी दो किस्तें  नागरी प्रचारिणी पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी थीं।  

यह कहानी लंबी हो जाएगी यदि उस  लंबे ऊहापोह की चर्चा करूं। ऋग्वेद  का अध्ययन करते हुए  मुझे   फिर  समस्या से टकराना पड़ा।   जिन शब्दों के  केवल रूढ़ अर्थ से मैं परिचित था उनके सायण भाष्य में ‘जल’ अर्थ देख कर चकित भी होता रहा, और अपनी  पुरानी मान्यता पर विश्वास भी दृढ़ होता गया।  

अंत में मेरा ध्यान भाषा की उत्पत्ति के विषय में ऋग्वेद में उपलब्ध  मान्यता पर जा सका  जो  इस लंबी यात्रा के बिना संभव न था,   और दूसरे किसी से संभव नहीं हुआ था जिसमें सायणाचार्य भी आते हैं । समग्र भाषा की उत्पत्ति वस्तुजगत की ध्वनियों के अनुकरण अपनी वाचिक सीमा मे उच्चारण से हुई है, इसका कतिपय उदाहरणों के साथ प्रतिपादन मैं 1973 में प्रकाशित ‘आर्य द्रविड़ भाषाओं की मूलभूत  एकता’  में ही कर आया था। परंतु   इस ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया। इससे उत्पन्न  व्यर्थता बोध का परिणाम था कि एक दशक तक  मैं  उस  आघात से उबर कर कोई काम कर ही नहीं पाया।[1]

ऋग्वेद के मूल अर्थ तक पहुँचने मे भाषा की  उत्पत्ति और विकास की इस यात्रा को समझने में विद्वानों की असमर्थता सबसे अधिक रही है,  क्योंकि उनमें जो प्रबुद्ध रहे हैं इस यात्रा के  किसी किसी पड़ाव  पर रुक जाते रहे हैं।  उदाहरण के लिए ग्रिफिथ घृत का अर्थ ‘फैट’ करते है्ं, और मधु का अर्थ ‘हनी’।   कारण जो भी हो हम उसके मीमांसा में नहीं जाएंगे।  सायण  इनका अर्थ  जल करते हैं, परंतु  एक सीमा के बाद समस्या उनके लिए भी खड़ी होती है।  

इसका सबसे अच्छा उदाहरण गो और अश्व हैं।  हम इन दोनों शब्दों का अर्थ  इनकी  रूढ़  संज्ञाओं (cattle और horse) के माध्यम से जानते हैं।   इनकी कुछ उदार व्याख्या करते हुए, इनको गमनशील और तेज गति से चलने वाले जन्तु के रूप मे करते हैं, जहाँ वह  रासभ से अभिन्न हो जाता है।  वास्तविकता यह है हमारे पालतू टट्टू की तुलना में कच्छ का जंगली गधा अधिक ताकतवर और तेज था, इसलिए अश्व शब्द का प्रयोग गधे  के लिए भी प्रयोग में लाया जा सकता था और  लाया जाता रहा।  अश्विनी कुमार  जो आरंभिक चरण में गाड़ी में जोते जाने वाले गधों के प्रतिरूप थे, बाद में भी तेज गति के कारण बैलों की जगह इस्तेमाल में आते रहे,  इसलिए  इनके लिए  गर्दभीविपीत या  गधी का दूध पीकर पलने वाले, पद का प्रयोग किया गया है।  जिसे हम अपना देवशास्त्र कहते हैं,  उसमें शब्द-क्रीड़ा  की कितनी भूमिका है   इसका  अलग से अध्ययन हो तो उसके परिणाम से हम चकित रह जाएंगे।   रासभ, ऋषभ, वृषभ के बीच अंतराल इतना कम हो जाएगा हम जिस निष्कर्ष पर पहुंचें उसी के सामने हाथ जोड़ लें।  यदि पता चले  कि दधिक्रा का सिर जो भी रहा हो उसे काट कर उस पर नया सर लगाने वाले अश्विनी कुमार केवल उनका ही सर काट नहीं रहे थे,  अपितु अपना सिर काट कर उनके सिर पर लगा रहे थे और गधा ज्ञान, लोक हित और निस्पृहता के लिए सबसे आदर्श जीव था तो हमारा माथा फिर जाय। उपनिषद में रैक्व की कथा को छोड़ दें, लोक में यह विश्वास गधे की हैसियत लतखोर की रह जाने के बाद भी लोकसंस्कृति में गधे की प्राचीन महिमा बनी रही।  प्रसूता के कमरे में जिन पात्रों का उपयोग होता है वे दूषित मान लिए जाते हैं।  उन्हें फेंका जा नहीं सकता।  उनका शुद्धिकरण इस पर निर्भर करता है कि उसमें जव रख कर किसी गधे को खाने को दिया जाए जिससे खाते समय  उसके साँस के वह पात्र पवित्र हो जाए।  इस अनुभव से मुझे अपने बचपन में ही गुजरना पड़ा था।  मैंने जब अश्विनीकुमारों की बात उठाई तो इसका ध्यान न था। एम एन देशपांडे (भू.पू, महानिदेशक भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण) ने अनुमोदन में कहा, महाराष्ट्र में शिशु मेधावी हो, इसके लिए गधी का दूध पिलाया जाता है।  इंद्र को मधु विद्या का ज्ञान सीधे सोम से मिला होगा, परंतु हमें मधु विद्या का जो ज्ञान प्राप्त है वह तो गधे(अश्व) के मुंह से निकले हुए विचारों का ही संग्रह है। 
विषयान्तर हो ही गया। उन सवालों का जवाब तो रह ही गया जिनके विषय में आश्वस्त किया थी। अगली पोस्ट मे सही। 
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[1]  निष्प्राण समाज में क्षुद्रचेत लोग ढोल-दमामें के  बल  पर  अपने को स्थापित करने की प्रतिस्पर्धा में  इस तरह लगे रहते हैं कि वे अपनी संभावित क्षमता की पहचान पाते ही विश्वास कर जाते हैं कि उनकी भाषा में कोई युगान्तरकारी अनुसंधान हो सकता है। इतने ढोल-ढपले के बाद जो काम वे न कर सके उसे दूसरा कोई यदि कर भी सकता है तो उनका शरणागत हो कर ही।  हिंदी के छत्रपतियों  ने हिंदी का जितना अपमान और नुकसान किया है,  उसे गिनीज बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज होना चाहिए। यह प्रवृत्ति  मित्र बंधुओं से ही आरंभ हो गई थी और संभव है इसका इतिहास और बीपी से चला जाए।

भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )

ऋग्वेद की रहस्यमयता (9क)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/9.html
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