Sunday 31 October 2021

शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (31) ज्यों-ज्यों बूड़े श्याम रंग, त्यों-त्यों उज्ज्वल होय (कानपुर का इतिहास है मजेदार!)

श्याम रंग की विशेषता यह है कि यह जितना ही गहराएगा उतना ही चमकदार होता जाएगा और निखर कर सामने आएगा। यही हाल इतिहास का है जितना डूबो उतना ही नया। अब जब मैने कानपुर के इतिहास की गहराई में जाना शुरू किया तो एचआर नेविल की किताब से तमाम ऐसी जानकारियां मिलीं जो हिंदुस्तानी सामाजिक जीवन के के नए-नए रहस्य उजागर चलती हैं। तब पता चलता है कि इतिहास हमारे सामाजिक जीवन के लिए भी अपरिहार्य क्यों है। नेविल लिखते हैं कि 1891 में हिंदू और मुसलमानों में जाति व्यवस्था लगभग बराबर की थी। दोनों में साठ से ऊपर जातियां थीं और कोई जाति किसी की दबैल नहीं थी। हिंदुओं में ब्राह्मणों की संख्या अन्य जातियों की तुलना में अधिक थी। कानपुर जिले में ब्राह्मण करीब 15.4 प्रतिशत थे यानी तब की मर्दनशुमारी के हिसाब से 171569 लोग ऐसे थे जो स्वयं को ब्राह्मण बताते थे। कानपुर और शिवराजपुर तहसील में तो उनकी तूती बोलती थी। ज्यादातर धनी-मानी और बनियों की तरह लेनदेन का धंधा भी करते थे। ब्राह्मणों द्वारा महाजनी नई बात नहीं है। बड़े चौराहे के पास जिन महाराज प्रयागनारायण तिवारी का शिवाला है वे महाजनी करते थे और कलकत्ता से अपना बैंक लेकर कानपुर आए थे। चौक सर्राफे में आज भी ब्राह्मण महाजन व स्वर्णाभूषण बेचने वाले सबसे ज्यादा मिलेंगे। उसके बाद खत्री फिर बनिया। कानपुर में मारवाड़ी न आते तो बनिया यहां अत्यंत दीन अवस्था में थे। ब्राह्मणों में यहां असंख्य जातियां थीं। पहले नंबर पर कनौजिये फिर गौड़ों के गांव और इसके बाद सनाढ्य और तब सारस्वत एवं सरयूपारीण। इनके अलावा चौधरी ब्राह्मणों की आबादी भी खूब थी। औरय्या में दुबे चौधरी, तिर्वा में तिवारी चौधरी और बरौर के चौबे चौधरी कनौजियों में बड़े प्रख्यात हुए। ये सब बड़े जागीरदार थे और सिंह की उपाधि लगाते थे। इन ब्राह्मणों का जातीय बटवारा अकबर के समय किया गया था। अकबर के समय ही चौधरियों को सिंह टाइटिल लगाने की अनुमति दी गई थी। इसके अलावा रिंद के किनारे-किनारे जगरवंशी आबाद हैं। कहा जाता है कि कोड़ा जहानाबाद के मुस्लिम शासक के यहां जगनप्रसाद बड़े जागीरदार हुए। इसलिए शाहजहां ने इन्हें सिंह उपाधि दी। इन जगरवंशियों में कांग्रेस के एक बड़े नेता चौधरी बेनीसिंह अवस्थी हुए हैं। ये जगरवंशी खूब धनाढ्य हुआ करते थे पर समय के फेर में सब बरबाद हो गए। इन जगरवंशियों के यहां घूंघट प्रथा नहीं थी। हमारे कानपुर के घर में एक जगरवंशी चौधरी दिलीप सिंह अवस्थी किरायेदार थे और मैने कभी उनकी पत्नी को घूंघट करते नहीं देखा।

इसके बाद थे चमार। इनकी आबादी कोई 13.5 प्रतिशत थी और ये अधिकतर ब्राह्मणों और राजपूतों के यहां खेत मजदूरी करते थे। पर जब एलेन कूपर कंपनी ने यहां मिलें स्थापित कीं तो लाल इमली में सबसे पहले काम करने चमार ही आए। ये बाद में इतने संपन्न हो गए कि कई लोगों ने तो जमींदारी भी खरीदीं और इनमें चौधरी साँवलदास भगत मशहूर हुए हैं। कुछ चमारों ने लेनदेन का काम भी शुरू किया। स्वामी अछूतानंद ने इनके लिए बड़ा काम किया। तीसरे नंबर पर थे अहीर और इनकी आबादी कोई 10.73 थी। मनुष्य गणना के लिहाज से 122380 अहीर। किसानी और पशुपालन दोनों काम ये करते थे। इनकी जातीय विशेषताओं पर फिर कभी लिखूंगा। खैर अहीरों के बाद आबादी ठाकुरों की थी और उसमें भी नंबर एक पर थे गौर। जो शायद मेवों के समय यहां आए। कानपुर में कुल राजपूत आबादी 8.01 प्रतिशत थी। ये लोग अपना मूल स्थान राजस्थान नहीं बल्कि मालवा बताते हैं। इसके बाद नंबर गौतमों का था और फिर चौहानों का, परिहारों व कछवाहों तथा सेंगरों का।इनके अलावा मुस्लिम राजपूत भी खासी संख्या में थे। इनके बाद नंबर आता है कुर्मियों का जिनकी कानपुर में आबादी 4.76 परसेंट थी। और अधिकतर घाटमपुर व भोगनीपुर में आबाद थे। घाटमपुर में इनकी एक गढ़ी बीरपाल में थी जहां इनकी टाइटिल चौधरी थी। कुर्मियों की एक बड़ी आबादी झमैयों (झबैयों) की थी और कहा जाता है कि ये किसी शेख झामा के शिष्य थे। शेख मखदूम जहानिया जहानगश्त के असर में थे और इनके यहां हाल तक आधी रस्में मुसलमानी थीं। इनके बाद लोध थे और फिर काछी, कोरी, माली, धोबी आदि जातियां। तेलियों की आबादी भी पर्याप्त थी। करीब तीन प्रतिशत बनिये थे और इतने ही कायस्थ।

मुसलमानों में 56 जातियां थीं पर ज्यादातर सुन्नी करीब 97 प्रतिशत और तीन प्रतिशत शिया थे। मुस्लिम जातियों में शेख सबसे ज्यादा थे करीब 47.7 प्रतिशत। इनके अंदर सिद्दकी सबसे ज्यादा फिर कुरेशी। दूसरे नंबर पर पठान थे करीब 17 प्रतिशत। इनके बाद नंबर सैयदों का आता है जिनकी आबादी तब 7056 थी। इसके बाद अन्य जातियां। उस समय कानपुर में 2633 ईसाई थे। जिनमें 345 योरोपियन और बाकी के देसी।

( नोट- यह सारी सामाजिक संरचना एचआर नेविल, आईसीएस की पुस्तक से ली गई है )

© शंभूनाथ शुक्ल 

कोस कोस का पानी (30)
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प्रवीण झा - रूस का इतिहास - दो (16)



बुद्धिजीवियों की क्रांति तो अपनी जगह है ही, लेकिन लेनिन को कुछ बाज़ीगरी करने वाले युवाओं की भी ज़रूरत थी। ऐसे लोग जो रूसी ओख्रानो (गुप्तचर एजेंसी) को चकमा दे सकें, जो हत्या कर सकें, चोरी या लूट से क्रांति के लिए धन जुटाएँ। उसके बाद हुई अन्य देशों की क्रांतियों में भी यह मॉडल प्रयोग हुआ।

लेनिन को ऐसे लड़के कॉलेजों से नहीं, बल्कि फुटपाथ से उठाने थे। सड़क-छाप मवाली हो, स्कूल ड्रॉप-आउट हो, छुटभैया डकैत हो, बहुरूपिया हो।

जॉर्जिया के एक फुटपाथ पर ऐसे तीन लड़के मिल गए। एक था कामो, दूसरा सुरेन, तीसरा कोबा। तीनों ही स्कूल ड्रॉप-आउट। तीनों का बचपन बस्तियों में बीता। कोबा के पिता मोची थे। इनकी बचपन से ही कारस्तानियों की वजह से इन्हें एक सेमिनरी में भेजा गया कि धर्म-कर्म सीखें, पादरी बनें। लेकिन, तीनों ही वहाँ से निकाले गए। 

कामो को रूसी ठीक से नहीं आती थी। वह आर्मीनियाई-जॉर्जियन था। भेष बदलने का उस्ताद। एक बार क्रांतिकारियों को एक जनता हॉल में ज़ारशाही के ख़िलाफ़ पैम्फलेट बँटवाना था, मगर यह काम रिस्की था। कामो एक छोटा रिवॉल्वर लेकर अंदर गया, और ऊपर की गैलरी में पहुँच कर पैम्फ्लेट के पूरी गड्डी को हवा में बिखेर कर आ गया। जब तक उसे कोई पकड़ता, वह अपना भेष बदल कर भाग चुका था। यह हॉल में गैलरी से पैम्फ्लेट बिखेरना भारत में कुछ बड़े स्तर पर हुआ, जब 1929 में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त नामक युवकों ने एक बम विस्फोट कर असेंबली हॉल में पर्चे लहराए।

कोबा कुछ अधिक संभल कर कदम रखने वाला युवक था। उसने अपना नाम कोबा एक मशहूर उपन्यास के किरदार के नाम रखा था, जो रॉबिनहुड की तरह ज़ार के कोसैक रक्षकों को चकमा देकर क्रांति करता है। लेनिन की नज़र कोबा पर पहले से थी, और उन्होंने जब यह पर्चा लहराने वाला क़िस्सा सुना तो कामो को भी मिलाने की सोची। ये लड़के बचपन से साथ खेले थे, तो काम मुश्किल नहीं था। 

ये तीन तिलंगे छोटी-मोटी लूट करने लगे और पार्टी के लिए कुछ धन इकट्ठा करने लगे। इनको क्रांति से अधिक जाँबाज़ी का शौक था। इनके छुपने की जगह भी ऐसी थी, जहाँ किसी को शक नहीं होता। ये वेश्यालयों में छुपा करते! 

26 जून 1907 को जॉर्जिया की राजधानी तिबलिस में एक बड़ी लूट को अंजाम देना था। कोबा को खबर मिली थी कि एक बड़ी रकम एक बैंक से दूसरे बैंक एक बग्घी पर लेकर जाने वाले हैं। लेनिन ने यह योजना बनायी कि बम फेंक कर इसे लूट लिया जाए। तीनों लड़के तैयार किए गए, जो एक सोफा में बम भर कर ले आए। उस दौरान बम जाँचते हुए कामो घायल भी हो गया, लेकिन वह तो स्वयं को खतरों का खिलाड़ी ही समझता था।

सुबह 10.30 बजे जब बग्घी शहर के चौराहे से गुजरी, ये लड़के किसानों की भेष में वहाँ इंतजार कर रहे थे। सिर्फ़ कामो वहाँ घोड़ा-गाड़ी पर बैठा किसी फौजी की तरह आया था। बग्घी करीब आते ही इन लोगों ने बम फेंक कर सारा धन लूट लिया, जो लगभग तीन मिलियन डॉलर के करीब थे। यह सरकारी खजाने की पहली इतनी बड़ी लूट था। इस घटना का भी भारत की क्रांति में काकोरी लूट कांड से साम्य है। 

लेनिन के पास यह धन पहुँचा कर कोबा उनका ख़ास बन चुका था। कोबा इसके बाद कई दफ़े ओख्रानो द्वारा पकड़ा गया, और साइबेरिया भेजा गया। लेकिन, वह हर बार भाग आता। एक बार तो क्रांतिकारियों को यह शक हो गया कि कहीं यह ज़ार का जासूस ही तो नहीं? इसके कुछ प्रमाण भी थे। आखिर उसी साइबेरिया से बाकी क्रांतिकारी तो नहीं भाग पाते, फिर कोबा के पास ऐसी कौन सी जादुई छड़ी थी? 

एक बात तो तय है कि यह किरदार रहस्यमय था। इस बात को समकालीन दुनिया बेहतर जानती है। कोबा को लेनिन ने त्रोत्स्की के पास मार्क्सवाद सीखने वियना भेजा था। दशकों बाद ये दोनों एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए। कोबा तब तक अपना नाम आखिरी बार बदल चुका था। सड़क से उठ कर वह गद्दी तक पहुँच चुका था, और एक समय दुनिया का सबसे ताकतवर व्यक्ति कहा जाने लगा था। वह बन चुका था- स्तालिन! 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास - दो (15)
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Saturday 30 October 2021

कानून - पाकिस्तान की जीत पर जश्न मनाना, सेडिशन, देशद्रोह नहीं है - जस्टिस दीपक गुप्त./ विजय शंकर सिंह

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज जस्टिस दीपक गुप्ता ने एक इंटरव्यू में कहा है कि, क्रिकेट में पाकिस्तान की जीत पर जश्न मनाना, निश्चित रूप से देशद्रोह नहीं है। यह इंटरव्यू, वे, द वायर के लिए करण थापर को दे रहे थे। 


इंटरव्यू में जस्टिस गुप्ता ने कहा,
"यह निश्चित रूप से देशद्रोह नहीं है, लेकिन यह सोचना निश्चित रूप से हास्यास्पद है कि यह देशद्रोह के बराबर है ... इन लोगों पर सेडिशन के आरोप कभी भी अदालत में नहीं टिकेंगे। यह सार्वजनिक धन और समय की बर्बादी है। जश्न मनाने की कार्रवाई कुछ लोगों के लिए अपमानजनक लग सकती है, लेकिन यह कोई ऐसा अपराध नहीं है, कि इसपर देशद्रोह की धारा लगाई जाय ।"

वे आगे कहते हैं,
" एक चीज है कानूनन अपराध, और दूसरी चीज है अपमानजनक औऱ अनैतिक। सभी कानूनी कार्य जरूरी नहीं कि, वे समाज के मानदंडों के अनुरूप, अच्छे भी हों, और सभी अनैतिक या बुरे समझे जाने वाले कार्य, कानूनन दंडनीय अपराध भी हों। शुक्र है, हम कानून के शासन द्वारा शासित हैं और न कि, नैतिकता के नियमों से। अलग अलग समाज, अलग-अलग धर्म और अलग-अलग समय में नैतिकता के अलग-अलग अर्थ और मापदंड होते हैं..."

● आईपीसी की धारा 124ए के तहत देशद्रोह दंडनीय है।

जस्टिस गुप्ता ने बलवंत सिंह और एनआरवी के मामले का हवाला दिया। यह केस, पंजाब राज्य, से सम्बंधित है। इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि
"खालिस्तान जिंदाबाद" का नारा देशद्रोह नहीं है क्योंकि हिंसा या सार्वजनिक अव्यवस्था का कोई आह्वान इस नारे के अतिरिक्त नहीं है।"

इस पृष्ठभूमि में, उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री कार्यालय द्वारा पोस्ट किया गया ट्वीट कि
" आगरा में कश्मीरी छात्र, जिसने भारत पर पाकिस्तान की जीत का जश्न मनाया, पर देशद्रोह का आरोप लगाया जाएगा- "निश्चित रूप से देश के कानून के खिलाफ है" और "एक जिम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति को ऐसी बात नहीं कहनी चाहिए।"

वे आगे कहते हैं,
"अगर वे (मुख्यमंत्री कार्यालय) देशद्रोह पर अदालतों द्वारा, समय समय पर दिए गए विभिन्न फैसलों का अध्ययन करते, तो मुख्यमंत्री को इस तरह का बयान जारी न करने की सलाह दी जाती। मुझे नहीं पता कि क्या वे उस प्रसिद्ध मामले (बलवंत सिंह का मामला ) से अवगत हैं।"

पाकिस्तान की जीत पर मनाए जा रहे जश्न पर पूर्व न्यायाधीश ने कहा,
"मैं इस कार्रवाई का समर्थन नहीं कर सकता। लेकिन, खेल में आप दूसरे पक्ष का समर्थन क्यों नहीं कर सकते ... बहुत सारे ब्रिटेन के नागरिक या भारतीय मूल के ऑस्ट्रेलियाई नागरिक, जब एक मैच लॉर्ड्स (क्रिकेट के मैदान) में खेला जाता है, तो भारत की तरफ से खिलाड़ियों का हौसला बढ़ाते हैं और भारत की जीत पर जश्न मनाते हैं। पर क्या वहां की सरकारें, इस पर आपत्ति करती हैं ? क्या उन पर अपने-अपने देशों में राजद्रोह का आरोप लगाया जाता है?"
देशद्रोह के अपराध की आवश्यकता पर फिर से विचार करने की आवश्यकता

यह बताए जाने पर कि राजनेताओं और पुलिस द्वारा देशद्रोह के आरोप का दुरुपयोग जारी है, न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा,
"अब समय आ गया है, जब देशद्रोह की इस धारा की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी जा रही है, तो, सर्वोच्च न्यायालय को इस पर विचार कर कदम उठाना चाहिए और बिना किसी अनिश्चित शर्तों के यह तय करना चाहिए कि यह कानून संवैधानिकता रूप वैध है या नहीं।"

इससे पहले भी कई मौकों पर जस्टिस गुप्ता ने सभ्य लोकतंत्र में इस प्रावधान के अस्तित्व पर अपनी आपत्ति व्यक्त की है।  उनका दृढ़ मत है कि इस प्रावधान को समाप्त किया जाना चाहिए।
"प्रश्न का अधिकार, संवैधानिक लोकतंत्र का सार है, राजद्रोह कानून के बढ़ते दुरुपयोग पर विचार आवश्यक है।"

इस साल जुलाई में, भारत के वर्तमान मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने भी प्रावधान के उपयोग को जारी रखने पर आपत्ति व्यक्त करते हुए कहा था कि स्वतंत्रता आंदोलन को दबाने के लिए औपनिवेशिक युग के दौरान पेश किया गया कानून वर्तमान संदर्भ में आवश्यक नहीं हो सकता है।

बाद में, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश, जस्टिस रोहिंटन नरीमन ने यूएपीए के अन्य हिस्सों के अलावा, देशद्रोह के दंडात्मक प्रावधान को खत्म करने के लिए शीर्ष अदालत में सुनवाई की। इस कानून को चुनौती देने वाली कई याचिकाये सुप्रीम कोर्ट के समक्ष लंबित है। जस्टिस गुप्ता ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि सुप्रीम कोर्ट उनकी “जितनी जल्दी हो सकेगा, इस पर सुनवाई करेगा।"

आगरा में पाकिस्तान की जीत का जश्न मना रहे कश्मीरी छात्रों के खिलाफ आरोप प्रथम दृष्टया टिकाऊ नहीं हैं। पूर्व न्यायाधीश ने यह भी कहा कि प्रथम दृष्टया, यूपी में कश्मीरी छात्रों के खिलाफ लगाए गए अन्य आरोप अस्थिर प्रतीत होते हैं।

न्यायाधीश ने स्पष्ट किया कि वह पाकिस्तान की जीत के किसी भी उत्सव के बारे में बात नहीं कर रहे थे जो जम्मू-कश्मीर में हुआ हो। वे उत्तर प्रदेश  में, दर्ज मामलो पर अपनी बात कह रहे थे। उन्होंने कहा,
" उन पर आईपीसी की धारा 153 ए (धर्म के आधार पर दुश्मनी को बढ़ावा देना) और 505 (1) (बी) (ऐसे बयान देना जो दूसरों को राज्य या सार्वजनिक शांति के खिलाफ अपराध करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं) और धारा 66 एफ (साइबर-आतंकवाद) के तहत मामला दर्ज किया गया है।  आईटी अधिनियम के दर्ज हैं।"

"यह एक हास्यास्पद आरोप है ... क्या उन्होंने हिंदू धर्म के खिलाफ कुछ कहा है?"  
धारा 153ए के आरोप पर जस्टिस गुप्ता ने कहा। उन्होंने कहा कि, 
"इन छात्रों के खिलाफ आईपीसी की धारा 505 (1) (बी) लागू करना भी अनुचित है क्योंकि वे केवल जश्न मना रहे थे, किसी को उकसा नहीं रहे थे।"

साइबर-आतंकवाद के आरोप पर, न्यायाधीश ने कहा कि पाकिस्तान की जीत के जश्न में कोई ट्वीट या किसी इलेक्ट्रॉनिक माध्यम का उपयोग नहीं किया गया था। न्यायमूर्ति गुप्ता ने कहा, 
"मैं इस तरह की जीत का जश्न मनाने में उनके साथ सहमत नहीं हो सकता। भारत और पाकिस्तान के बीच संबंधों को देखते हुए, यह कोई बुद्धिमानी नहीं है। लेकिन यह कोई दंडनीय अपराध नहीं है।"

राजद्रोह पर औपनिवेशिक काल के विवादित दंडात्मक कानून के तहत 2014 से 2019 के बीच 326 मामले दर्ज किए गए। अब कुछ राज्यो के आंकड़े देखते हैं।
● असम में दर्ज किए गए 56 मामलों में से 26 में आरोपपत्र दाखिल किए गए और 25 मामलों में मुकदमे की सुनवाई पूरी हुई। हालांकि, राज्य में 2014 और 2019 के बीच एक भी मामले में किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया। 
● झारखंड में छह वर्षों के दौरान आईपीसी की धारा 124 (ए) के तहत 40 मामले दर्ज किए गए, जिनमें से 29 मामलों में आरोपपत्र दाखिल किए गए और 16 मामलों में सुनवाई पूरी हुई, जिनमें से एक व्यक्ति को ही दोषी ठहराया गया। 
● हरियाणा में राजद्रोह कानून के तहत 31 मामले दर्ज किए गए जिनमें से 19 मामलों में आरोपपत्र दाखिल किए गए और छह मामलों में सुनवाई पूरी हुई जिनमें महज एक व्यक्ति की दोषसिद्धि हुई। 
● बिहार, जम्मू-कश्मीर और केरल में 25-25 मामले दर्ज किए गए। बिहार और केरल में किसी भी मामले में आरोप पत्र दाखिल नहीं किए जा सके जबकि जम्मू-कश्मीर में तीन मामलों में आरोपपत्र दाखिल किए गए। हालांकि, तीनों राज्यों में 2014 से 2019 के बीच किसी भी मामले में किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया। 
● कर्नाटक में राजद्रोह के 22 मामले दर्ज किए गए जिनमें 17 मामलों में आरोपपत्र दाखिल किए गए लेकिन सिर्फ एक मामले में सुनवाई पूरी की जा सकी। हालांकि, इस अवधि में किसी भी मामले में किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया।
● उत्तर प्रदेश में 2014 और 2019 के बीच राजद्रोह के 17 मामले दर्ज किए गए और 8 मामलो में आरोपपत्र दिया गया। सज़ा किसी को नहीं मिली।
● पश्चिम बंगाल में आठ मामले दर्ज किए गए, पांच मामलों में आरोपपत्र दाखिल किए गए लेकिन किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया। 
● दिल्ली में 2014 और 2019 के बीच राजद्रोह के चार मामले दर्ज किए गए लेकिन किसी भी मामले में आरोपपत्र दाखिल नहीं किया गया। 
● मेघालय, मिजोरम, त्रिपुरा, सिक्किम, अंडमान और निकोबार, लक्षद्वीप, पुडुचेरी, चंडीगढ़, दमन और दीव, दादरा और नागर हवेली में छह वर्षों में राजद्रोह का कोई मामला दर्ज नहीं किया गया। 
● तीन राज्यों महाराष्ट्र, पंजाब और उत्तराखंड में राजद्रोह का एक-एक मामला दर्ज किया गया।

गृह मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, देश में 2019 में सबसे अधिक राजद्रोह के 93 मामले दर्ज किए गए। इसके बाद 2018 में 70, 2017 में 51, 2014 में 47, 2016 में 35 और 2015 में 30 मामले दर्ज किए गए। देश में 2019 में राजद्रोह कानून के तहत 40 आरोपपत्र दाखिल किए गए जबकि 2018 में 38, 2017 में 27, 2016 में 16, 2014 में 14 और 2015 में छह मामलों में आरोपपत्र दाखिल किए गए। जिन छह लोगों को दोषी ठहराया गया, उनमें से दो को 2018 में तथा एक-एक व्यक्ति को 2019, 2017, 2016 और 2014 में सजा सुनाई गई। साल 2015 में किसी को भी दोषी नहीं ठहराया गया।

दरअसल, इस प्राविधान का उद्देश्य ही है सत्ता को बरकरार रखने के लिये प्रतिरोध को कुंद करना। इसीलिए आइपीसी, भारतीय दंड संहिता में यह धारा मुख्य और वास्तविक अपराधों के पहले आती है। यह धारा तब बनाई गयी थी, जब देश गुलाम था औऱ ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बोलना भी, एक जुर्म था। पर जब देश आजाद हुआ, एक नए लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष संविधान को स्वीकार किया गया तो, संविधान की प्राथमिकता में मौलिक अधिकार सबसे पहले आये। इन्ही मौलिक अधिकारों में अभिव्यक्ति के अधिकार को प्राथमिकता दी गयीं और इसी के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ बनाम बिहार राज्य के एक महत्वपूर्ण मामले में यह व्यवस्था दी कि केवल बोलने या अपनी अभिव्यक्ति को मुखर करने से ही कोई व्यक्ति, धारा 124A सेडिशन या राजद्रोह का दोषी नहीं हो जाता है, जब तक कि वह ऐसी किसी कार्यवाही में लिप्त न हो जो, देश के खिलाफ युद्ध जैसी हो। सुप्रीम कोर्ट के इसी मूल व्यवस्था पर देशद्रोह यानी सेडिशन की धारा 124A की व्याख्या की जाती है। 

इधर 2014 के बाद, इस धारा का इस्तेमाल सरकार बिना सुप्रीम कोर्ट की उक्त रूलिंग की मंशा को समझे करनी लगी है। भीमा कोरेगांव का मामला हो, या नागरिकता संशोधन के विरोध में हुए आंदोलन या पाकिस्तान की जश्न पर दर्ज यह मुक़दमे, कभी भी अदालतों में टिक नहीं पाएंगे पर, यूएपीए के जटिल और सख्त प्राविधानों के कारण, इनमे जमानत का मिलना कठिन अवश्य हो जाता है। सरकार का इरादा भी यही है कि प्रतिरोध के स्वर को उठने नहीं दिया और उन्हें जितने दिन जेल में बंद रखा जा सकता है, बंद रखा जाय। आपराधिक कानून के प्राविधानों को यदि राजनीतिक दृष्टिकोण से लागू किया जाएगा, तो न केवल वह प्राविधान विवादित हो जाएगा, बल्कि जनता में कानून के प्रति सम्मान भी कम हो जाएगा। 

उच्चतम न्यायालय ने इस प्रवित्ति पर यह टिप्पणी भी की है  कि आईपीसी की धारा 124 (ए) (राजद्रोह के अपराध) का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया गया। उच्चतम न्यायालय ने केंद्र सरकार से यह भी पूछा है कि, वह अंग्रेजों द्वारा आजादी आंदोलन को दबाने और महात्मा गांधी जैसे लोगों को ‘‘चुप’’ कराने के लिए इस्तेमाल किए गए प्रावधानों को खत्म क्यों नहीं कर रही है।

( विजय शंकर सिंह )

प्रवीण झा - रूस का इतिहास - दो (15)

अगर मार्क्सवादी क्रांति की योजना बना रहे थे, तो पुलिस भी अपनी चालें चल रही थी। एक फूलप्रूफ तरकीब थी, जिसका प्रयोग दुनिया में आगे भी हुआ। अगर मजदूरों का संगठन सरकार ही बना कर दे दे? वहाँ अपना ही यूनियन लीडर बिठा दे?

एक पादरी फ़ादर गैपन को सेंट पीटर्सबर्ग के मजदूरों का लीडर बना दिया गया। वह मजदूरों में ज़ार और चर्च के प्रति श्रद्धा का इंजेक्शन देने लगे। अब अगर कोई मार्क्सवादी उन्हें भटकाने का प्रयास करता, तो फ़ादर गैपन उन्हें रास्ते पर ले आते। आखिर धर्मगुरु की वाक्पटुता और विश्वास का मुक़ाबला भला एक अंडरग्राउंड क्रांतिकारी क्या कर पाता? 

लेकिन, बाइबल हाथ में लेकर घूमने वाले धर्मगुरु आखिर अपनी आँखें कैसे बंद रखते? मजदूरों का शोषण तो स्पष्ट था, और स्थिति बद से बदतर हो रही थी। जनवरी, 1905 को एक पुतिलोव नामक फ़ैक्ट्री में हड़ताल हुई। मजदूर फ़ादर गैपन के पास मदद माँगने पहुँचे। 

उन्होंने समझाया, “हम अपनी अर्जी सीधे ज़ार के पास लेकर जाते हैं। वह हमारे साथ अवश्य न्याय करेंगे।”

फ़ादर को यह यकीन था कि ज़ार उन्हें देख कर उनका स्वागत करेंगे, और थोड़ा-बहुत आश्वासन देकर मामला सेटल कर देंगे। 9 जनवरी को रूस की उस बर्फ़ीली ठंड में मजदूरों का जत्था ‘विंटर पैलेस’ की ओर बढ़ने लगा। स्वयं फ़ादर आगे चलते हुए नेतृत्व कर रहे थे, और पीछे सैकड़ों मजदूर चले आ रहे थे। उनकी अर्जी थी-

“महामहिम ! हम मजदूर, हमारी पत्नियाँ, हमारे बच्चे, हमारे बूढ़े माता-पिता आपकी शरण में न्याय के लिए आए हैं। हम सभी गरीबी और शोषण से जूझ रहे हैं। हमें गुलाम बना कर हमारे साथ अमानवीय व्यवहार होता है। अब स्थिति यह है कि हम इस जिल्लत और भूखमरी की ज़िंदगी से बेहतर मर जाना पसंद करेंगे”

जैसे-जैसे मजदूर राजमहल की ओर बढ़ने लगे, महल के चारों ओर सुरक्षा-चक्र बनाया जाने लगा। रूस में एक वफ़ादार खानदानी योद्धा-वर्ग है- ‘कोसैक’। इसे भारत के राजपूत, सिख, गुरखा समुदायों या जापानी समुराई की तरह देखा जा सकता है। उन कोसैक को देख कर एक बार मजदूरों की भीड़ ठिठक गयी, लेकिन फ़ादर ने समझाया कि घबराने की बात नहीं। जैसे ही मजदूर महल से दो सौ गज दूर पहुँचे, अंधा-धुंध गोलियाँ चलनी शुरू हो गयी और लाशें गिरने लगी।

लेखक मैक्सिम गोर्की जो उस भीड़ में मौजूद थे, वह इस ‘ब्लडी सन्डे’ का हृदय-विदारक चित्रण करते हैं। सफ़ेद बर्फ की चादर रक्त से लाल हो गयी, और यह लाल रंग ही ज़ार के अंत का कारण बना। आखिर ज़ार या उनके मंत्री दो मिनट मजदूरों से बात कर लेते, तो क्या हो जाता?

उस दिन सौ से अधिक लाशें गिरी, और जनता में ज़ार के प्रति आक्रोश फैल गया। जापान से चल रहे युद्ध में एक रूसी जहाज पर विद्रोह हो गया। पोलैंड से साइबेरिया तक कारखानों में हड़ताल होने लगे। सेंट पीटर्सबर्ग में मज़दूरों के परिषद बनने लगे, जो कहलाए ‘सोवियत’। इन सोवियत का अध्यक्ष एक छब्बीस साल का नवयुवक लियोन त्रोत्स्की था, जिसके ओजस्वी भाषण पीटर्सबर्ग में गूँज रहे थे। 

जब ज़ार ने देखा कि पानी सर के ऊपर से जा रहा है, तो उन्होंने दो कदम उठाए। रूस में पहली बार संविधान का निर्माण हुआ और ड्यूमा (संसद) को ताकत दिए जाने का निर्णय किया गया। यह कहलाया- अक्तूबर मैनिफेस्टो। दूसरा कदम था त्रोत्सकी जैसे यहूदियों के ख़िलाफ़ जनता को भड़काना, और इस पूरे आंदोलन में एक सांप्रदायिक ऐंगल लाना।

ड्यूमा बनने का मतलब ही था कि राजनैतिक दल बनेंगे, जो अपनी पोलिटिक्स खेलेंगे। दक्षिणपंथी से उदारवादी तक अपने-अपने जाल फेंकेंगे, और मजदूर गटर में ही रह जाएँगे। अक्तूबर मैनिफ़ेस्टो के ठीक बाद घोर राष्ट्रवादियों का एक समूह बना ‘ब्लैक हंड्रेड्स’। वे ज़ार के समर्थन में ईसाई धर्म का झंडा उठाए घूमने लगे, और जनता को यहूदियों के खिलाफ़ भड़काने लगे। वे कहने लगे कि इन सभी आंदोलनों के पीछे पोलैंड और रूस के ये यहूदी बुद्धिजीवी हैं। वे देशद्रोही हैं! 

रूस में फिर एक बार शुरु हुआ यहूदी नरसंहार यानी ‘पोग्रोम’। ओडेसा शहर में सैकड़ों यहूदी मौत के घाट उतारे गए। यह रक्त-पिपासु जनता आंदोलन करना भूल गयी। अगले वर्ष तक ज़ार-विरोध की चिनगारियाँ बुझने लगी। आंदोलनकारी पकड़े गए, मारे गए या विदेश भाग गए।

कुछ वर्षों बाद वियना के एक कैफ़े में लिओन त्रोत्स्की एक नयी पत्रिका की प्रूफ़ देख रहे थे। पत्रिका का नाम था- प्रावदा (सत्य)। उनसे मिलने एक तगड़ी मूँछों वाले रूसी नवयुवक आए और कहा, “मेरा नाम जोसेफ़ है, लोग स्तालिन भी बुलाते हैं। मुझे लेनिन ने आपसे मिलने भेजा है।”

त्रोत्सकी खड़े होकर कहते हैं, “लेनिन ने? चलो! टहलते हुए बात करते हैं”

जब वे शॉनब्रून पार्क में टहलते हुए रूस का भविष्य टटोल रहे थे, वियना के उसी इलाके में एक बेघर नवयुवक एडॉल्फ हिटलर भी अपनी ठौर तलाश रहा था। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा 
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास - दो (14)
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Friday 29 October 2021

कानून - समीर बानखेड़े पर फर्जी जाति प्रमाणपत्र का आरोप और कानूनी स्थिति / विजय शंकर सिंह

राष्ट्रीय एससीएसटी आयोग ने महाराष्ट्र के मुख्य सचिव, डीजीपी और मुंबई के पुलिस कमिश्नर को, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो,के संयुक्त निदेशक, समीर वानखेड़े की शिकायत पर 7 दिनों में एक एक्शन टेकन रिपोर्ट देने के लिए कहा है। समीर ने आयोग को अपने विरुद्ध फर्जीवाड़े का आरोप लगा कर उत्पीड़न करने की शिकायत आयोग से की थी। उन्होंने इस उत्पीड़न के लिये महाराष्ट्र के मंत्री, नवाब मलिक को जिम्मेदार ठहराया है।

नवाब मलिक के आरोप कि समीर बानखेड़े ने अनुसूचित जनजाति का एक फर्जी सर्टिफिकेट बनवाया है, सच है या झूठ, यह तो जांच करने के बाद ही पता लगेगा। फिलहाल कानूनी स्थिति इस प्रकार है। 

भारतीय संविधान के अनुसूचित जाति, के संदर्भ में एक आदेश जो 1950 का है के पैरा तीन में कहा गया है, 
"कोई भी व्यक्ति जो हिंदू, सिख या बौद्ध धर्म से अलग धर्म को मानता है, उसे अनुसूचित जाति का सदस्य नहीं माना जाएगा।"  
प्रारंभ में, एससी का दर्जा केवल उन लोगों के लिए था जो हिंदू धर्म को मानते हैं। 1956 में सिखों को शामिल करने के लिए और 1990 में बौद्धों को शामिल करने के लिए इस आदेश में संशोधन किया गया था।

यह 10 अगस्त 1950 को भारत के राजपत्र में अधिसूचित एक कार्यकारी आदेश था। दिलचस्प बात यह है कि इसे संविधान को अपनाने के ठीक बाद पारित किया गया था, जो एससी श्रेणी का सदस्य होने के लिए कोई प्रतिबंध या धार्मिक शर्त नहीं रखता है।  

'अनुसूचित जाति' शब्द को संविधान के अनुच्छेद 366 (24) और अनुच्छेद 341 (1) में परिभाषित किया गया है।  
● अनुच्छेद 366 (24) कहता है, "अनुसूचित जातियों का अर्थ ऐसी जातियों, नस्लों या जनजातियों या ऐसी जातियों, नस्लों या जनजातियों के भागों या समूहों से है जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए अनुच्छेद 341 के तहत अनुसूचित जाति माना जाता है"।  

● इसके अलावा, अनुच्छेद 341 (1) कहता है, 
"राष्ट्रपति ... सार्वजनिक अधिसूचना द्वारा, जातियों, नस्लों या जनजातियों या जातियों, नस्लों या जनजातियों के समूहों या समूहों को निर्दिष्ट करते हैं, जिन्हें इस संविधान के प्रयोजनों के लिए अनुसूचित जाति माना जाएगा।  उस राज्य या केंद्र शासित प्रदेश के संबंध में, जैसा भी मामला हो।"

इसलिए, इसमें कोई संदेह नहीं है कि एससी की स्थिति पर धार्मिक प्रतिबंध लगाना एक सोच थी और वर्तमान विवाद 1950 के सरकारी आदेश से संबंधित है। इस आदेश के लागू रहने के साथ, यदि यह साबित हो जाता है कि वानखेड़े मुस्लिम हैं, तो उनका एससी  प्रमाणपत्र और सरकारी नौकरी पाने के लिए इसका उपयोग अवैध है।  ऐसे में उस पर जालसाजी का मुकदमा चलाया जा सकता है।

( विजय शंकर सिंह )

शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (30)

दिल्ली के पास का सबसे अच्छा शहर मुझे मेरठ प्रतीत होता है। खाने-पीने के लिहाज से स्वास्थ्यकर और अत्यधिक मिष्ठभोजी। चाय भी ऐसी बनेगी कि पूरा चम्मच गड़ जाए और लस्सी में कुछ ज्यादा ही प्रेम में आकर बर्फी का टुकड़ा डाल देंगे। मैं जब तक मेरठ रहा टोंड दूध के लिए तरस गया। दूध वहां फुल क्रीम ही मिलेगा। चिकनाई के नाम पर या तो सरसों का तेल अथवा शुद्घ देसी घी। बोली भी ऐसी कि न लगे लड़ रहे हैं या प्रेम जता रहे हैं। 'सर जी तुम्हारे दोस्त आए हैं' या 'सर जी तुमने ही तो कहा था'। लेकिन मेहमान नवाजी और दोस्ती ऐसी गजब की कि अगर उनके घर पहुंचे तो बिना खाना खिलाए या चाय की जगह पूरा एक जग दूध पिला कर ही मानेंगे। खूब हरियाली और हरी भरी नर्सरियों के लिए मशहूर है मेरठ। यहां के आम और अमरूद तो लखनऊ की दशहरी तथा इलाहाबाद के पेड़ों को मात देते हैं। पढ़ाई-लिखाई में भी अव्वल और व्यापार में भी। किसानी में तो यहां का कोई सानी नहीं। मेरठ में तमाम दर्शनीय स्थल भी हैं। आजादी की पहली लड़ाई यहीं के पलटनों ने लड़ी थी। उस समय का काली पलटन मंदिर आज भी सबसे अधिक प्रतिष्ठित है। आसपास आप किला परीक्षित गढ़ और हस्तिनापुर भी जा सकते हैं जहां पांडव काल के कहे जाने वाले मंदिर मिल जाएंगे। गुर्जर प्रतिहार क्षत्रियों की राजधानी रहा यह इलाका आज भी बहसूमा के गुर्जर राजवंश के लिए मशहूर है। दिल्ली से साठ किमी की दूरी पर स्थित मेरठ जाकर आप यूपी की राजनीति और अर्थनीति को ज्यादा बेहतर तरीके से समझ सकते हैं।

© शंभूनाथ शुक्ल 

कोस कोस का पानी (29)
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प्रवीण झा - रूस का इतिहास - दो (14)

        ( चित्र: स्तालिन, लेनिन, त्रोत्सकी )

जन-क्रांति की सबसे बड़ी समस्या है कि जितने लोग, उतनी बातें। उस समय ऐसा कोई मॉडल नहीं था कि क्रांति कैसे की जाए। अगर फ्रांसीसी क्रांति को मॉडल मानें, तो क्रांति के बाद फ़्रांस की दुर्गति हो गयी थी। आखिर, नेपोलियनी तानाशाही ने ही कुछ निजात दिलायी। 1848 में यूरोप में समाजवादी क्रांतियाँ बुरी तरह असफल रही। लोग क्रांति करें कैसे? एक सहमति कैसे बने?

अगर कोई कहता है कि लेनिन ने पूरे रूस को जागृत कर ज़ारशाही का अंत किया, तो यह मिथ्या है। बल्कि, मुझ से अगर खुल कर पूछा जाए तो इसे सर्वहारा आंदोलन भी नहीं कहूँगा। लेकिन, मुझसे पूछेगा कौन और बात मानेगा कौन? मैंने कभी इतिहास या समाजशास्त्र की पारंपरिक पढ़ाई तो की नहीं, दुनियावी समझ जो सबमें होती है, वही होगी। खैर, जब बात कह दी है तो तर्क भी रखने होंगे।

मैंने चर्चा की है कि लेनिन से पहले भी किसानों को एकजुट करने के प्रयास और क्रांतिकारी घटनाएँ हो रही थी। पोलैंड और रूस में विद्रोही घटनाएँ हो रही थी। यहाँ तक कि ज़ार पर भी हमले हुए और हत्या की गयी। उनकी अपेक्षा लेनिन की क्रांति तो अहिंसक ही कही जाएगी, भले ही उसकी वर्तमान छवि हिंसक बना दी गयी।

लेनिन का प्रथम लक्ष्य किसानों या सर्वहारा को एकजुट कर क्रांति करना था ही नहीं। यह उनके अनुसार एक असाध्य लक्ष्य था कि रूस के निरक्षर किसानों को भड़का कर कोई गुरिल्ला क्रांति की जाए। किसानों को वर्ग-संघर्ष समझाते-समझाते ज़िंदगी निकल जाती। उनका पहला लक्ष्य ज़ारशाही का अंत था, जिसके लिए किसान-क्रांति मुफ़ीद नहीं लग रही थी। वह दूसरे वर्ग में अधिक पोटेंशियल देखते थे, जो अधिक पढ़ी-लिखी थी, शहरों में बसती थी, और जिनके हाथ में अर्थव्यवस्था की चाभी थी। वे अगर एक-जुट हो जाते, तो ज़ार घुटनों पर आ सकते थे। नोट किया जाए, यह सर्वहारा वर्ग नहीं, बल्कि यह ‘मध्य वर्ग’ था। 

यह भी स्पष्ट कर दूँ कि असल ‘बुर्जुआ’ वर्ग यही था, और क्रांति सर्वहारा नहीं बल्कि बुर्जुआ की क्रांति थी। यह वर्ग शोषित था, लेकिन यह सबसे निचले पायदान पर नहीं था। आज की दुनिया में जो सोशल मीडिया पर बहुतायत में मिलते हैं, उनमें अधिकांश इसी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं। ‘शब्दों का सफर’ पुस्तक में अजित वडनेरकर इस ‘बुर्जुआ’ शब्द (फ्रेंच शब्द bourgeoisie) की उत्पत्ति ‘बुर्ज’ से जोड़ कर बताते हैं, जिसका अर्थ है मीनार। यह नगर में बसने वाले ‘नागरिकों’ का वर्ग था, गाँव में बसने वाले ग्रामीणों का नहीं। कालांतर में कुछ लोग बुर्जुआ का प्रयोग एक ऐसे अभिजात्य वर्ग के लिए भी करने लगे जो पूँजीवाद की समर्थक है अथवा आश्रित है। कालांतर में तो नागरिक शब्द भी ऐसे लोगों के लिए प्रयोग होने लगा जिसने कभी नगर का मुँह नहीं देखा होगा।

रूस में जो लोग वाकई सर्वहारा क्रांति चाहते थे और गाँवों में किसानों को जागृत कर रहे थे, वे कहलाए ‘सोशलिस्ट डेमोक्रैट’। उन्होंने नियमित हिंसक गतिविधियाँ की, ज़ारशाही के उच्च पदाधिकारियों की हत्यायें की। लेकिन, उनके लोग या तो पकड़ कर साइबेरिया भेजे जा रहे थे, या मारे जा रहे थे।

दूसरा समूह उदारवादी बुद्धिजीवियों का था, जो पढ़े-लिखे एलीट लोगों और प्रोफेसरानों का वर्ग था। वे कहलाए ‘लिबरल्स’। मीडिया में सबसे पॉपुलर वही थे, उनके मीटिंग  की खबर अखबारों में छपती। वे संवाद से एक लोकतांत्रिक हल ढूँढ रहे थे। उनकी तुलना ब्रिटिश भारत के इंडियन नैशनल कांग्रेस से की जा सकती है, हालाँकि वे भारत की तरह संगठित नहीं थे।

तीसरा समूह था मार्क्सवादियों का। लेकिन, इनमें भी एकजुटता नहीं थी। 30 जुलाई, 1903 को ब्रूसेल्स के एक आटा मिल में ये रूस के पहले मार्क्सवादी जॉर्ज प्लेखानोव की अध्यक्षता में एकत्रित हुए। वहाँ से ये लोग लंदन पहुँचे, और वहाँ बड़े ही बेतरतीब तरीके से साथ-साथ मछली मारते हुए इनकी वार्ताएँ हुई। वहाँ लेनिन के अलावा दो कद्दावर यहूदी मार्क्सवादी मौजूद थे- मार्तोव और त्रोत्सकी। 

ऐसा कोई हू-ब-हू ट्रांसक्रिप्ट तो नहीं, मगर चर्चा कुछ इस तरह हुई-

मार्तोव ने कहा, “हमें एक बड़ा संगठन बनाना होगा। पूरे देश से लोगों को जोड़ना होगा”

लेनिन ने कहा, “इसमें काफ़ी वक्त लगेगा, धन लगेगा और ख़्वाह-म-ख़्वाह कई लोग पकड़े जाएँगे। हमें प्रोफ़ेशनल लोग चाहिए, जो अंडरग्राउंड रह कर ऑपरेट करें। जैसा कहा जाए, वैसा करें।”

त्रोत्सकी ने बीच में टोक कर कहा, “जैसा बोला जाए, वैसा करें? कोई तानाशाही है क्या?”

“हमारे पास और कोई रास्ता नहीं है”

अक्तूबर में जेनेवा में ये लोग फिर से मिले, और इस बार इनकी सामूहिक पत्रिका ‘इस्क्रा’ को लेकर विवाद छिड़ गया। वहाँ वरिष्ठ नेता प्लेखानोव भी मौजूद थे। 

मार्तोव ने कहा, “लेनिन मुझ से कह रहा था कि अगर मैं और तुम मिल जाएँ, तो इस बुड्ढे प्लेखानोव को किनारे कर देंगे। वह कुछ नहीं कर पाएगा”

प्लेखानोव ने लेनिन की तरफ़ गुस्से से देखा। लेनिन डेस्क पर मुक्का मारते हुए खड़े हुए और बिना कुछ कहे कमरे से निकल गए। यह मार्क्सवादी समूह विभाजित हो गया। लेनिन अपने समूह को गरम दल, और दूसरे समूह को नरम दल मानते थे। इतिहास में मार्तोव-त्रोत्सकी का यह आरंभिक समूह कहलाया ‘मेन्शेविक’ यानी अल्पमत। लेनिन भले ही किसी बड़ी बहुमत में नहीं थे, लेकिन उनका समूह कहलाया ‘बोल्शेविक’ (बहुमत)। 

1905 में मेन्शेविक अपनी पहली क्रांति की तैयारी कर रहे थे। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा 
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास - दो (13)
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Thursday 28 October 2021

शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (29) मुठ्ठी भर खुशी!

सातवें दरजे में मेरे क्लासटीचर थे एसके दीक्षित उर्फ सूर्यकांत दीक्षित उर्फ नमकीन दीक्षित। वे अपने पैंट की जेबों में नमकीन (दालमोठ) भर कर लाते और मौका पाते ही मुठ्ठी भर फाँक लेते। वे एचएससीटी थे यानी हाईस्कूल सीटी। और ड्राइंग तथा भूगोल पढ़ाते थे। ब्लैकबोर्ड पर नक्शे तो ऐसे बना देते कि लगता बस ट्रांससाइबेरियन रेलवे के ट्रैक पर रेलगाड़ी अब अपनी नौ दिन की यात्रा पूरी करने के बाद ही रुकेगी। वे एक रूल भी अपने साथ रखते थे पर मेरी याद में वह रूल किसी लड़के पर इस्तेमाल नहीं किया। वे अक्सर कमजोर आर्थिक घरों से आए बच्चों की फीस स्वयं भर देते थे। क्लास में एक लड़का था शिवबचन, जिसकी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी और वजह यह थी कि उसके पिता सारी तनखा शराब में उड़ा देते। वह बेचारा अपनी फीस जो कि उस जमाने में बस सात रुपये थी, दे ही नहीं पाता। तब नमकीन मास्साब उसकी फीस अपनी जेब से भर देते ताकि उसका नाम नहीं कटे। नमकीन मास्साब एकदम अंग्रेजों की तरह भक गोरे और कद-काठी पुराने आर्यों के अनुरूप थी। अगर वे दाढ़ी रखा करते तो एकदम सूर्यकांत त्रिपाठी निराला लगते। पर लड़के उनकी मौज लिया करते। उन्हें नमकीन कह देते तो वे बुरा नहीं मानते बल्कि कहते कि नमकीन पूरे दिन की डाइट है बे! नमकीन न खाऊँ तो फिर वही करूंगा जो बाकी के मास्टर करते हैं यानी कि लौंडों का लंच छीन लिया करता। इन नमकीन दीक्षित मास्साब की मुझसे पता नहीं क्या दुश्मनी थी कि क्लास में घुसते ही हुक्म देते- अबे डेस्क पर खड़ा हो जा। एक दिन मैं उनके पास गया और रुआँसे स्वर में कहा कि आप मुझे ही डेस्क पर खड़ा होने का हुक्म क्यों देते हो? वे मुस्कराए और बोले अबे तेरा चेहरा हरदम मुस्कराता हुआ जो दिखता है। मुझे लगता है कि तूने ही मुझे अभी नमकीन कहा है। 

खैर, इतनी बड़ी भूमिका लिखने का मेरा आशय यह कि अक्सर लोग मेरा चेहरा देखकर अनुमान लगा लेते हैं कि मैं तो चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुआ हूं। मेरे पास कोई दुख नहीं है। मुझे क्या बस खुशियां तो मुझे पैदाइशी मिली हैं। यहां तक कि मेरे इम्प्लायर भी यही समझते रहे और इस वजह से मुझे वह सुविधाएं नहीं मिलीं जो कमेरे जैसा मुंह बनाए लोगों को मिल जाया करती थीं। जबकि हकीकत इसके एकदम उलट है। सच यह है कि इस उम्र में भी उन तमाम दुखों से ग्रसित रहना पड़ता है जो इस उम्र में लोगों के पास नहीं हुआ करतीं। मसलन मेरे पास आय के कोई निश्चित स्रोत नहीं है और खर्चे बहुत ज्यादा। मगर इन सारे दुखों को मैने झेला है। जो मुझे करीब से जानते हैं वे जरूर मुझसे सहानुभूति रखते हैं पर आज के जमाने में ईर्ष्या करने वाले और आपकी मुस्कराहट से चिढऩे वाले लोग अधिक होते हैं इसलिए जब भी मैं दुखी चेहरा सप्रयास बना लेता हूं तो तमाम लोग प्रसन्न होते हैं कि अब आया ऊँट साला पहाड़ के नीचे।

एक इतने निष्ठुर वक्त में भी ऐसे लोग हैं जो मेरी हकीकत समझते हैं पर वे नहीं चाहते कि मैं दुखी दिखूं क्योंकि इस तरह दुखी दिखने का अर्थ है कि मैने अपने दुखों को जी से लगा लिया है। मैने एक दिन फेसबुक पर अपनी एक ऐसी सेल्फी लोड की जिसमें मैं कुछ सीरियस दिख रहा था तो तत्काल मेरे जानने वालों और मेरे शुभचिंतकों ने मुझसे कहा कि सर यह फोटो हटा लीजिए। मेरे एक मित्र, वरिष्ठ पत्रकार श्री Ashok Madhup और उत्तर प्रदेश में एडीजी श्री Prem Prakash ने कहा कि हमें पता है कि दुख आपके ऊपर भी बहुत हैं पर आप दुखी दिखा न करें। हम आपको खुश देख कर खुश हो जाते हैं। और मैने वह फोटो हटा ली!
( जारी )

© शंभूनाथ शुक्ल 

कोस कोस का पानी (28)
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Wednesday 27 October 2021

प्रवीण झा - रूस का इतिहास - दो (13)


                    ( चित्र: रासपूतिन )
विश्व-युद्ध और रूस की क्रांति से पहले रूस में कुछ अजीबोग़रीब घट रहा था। ज़ार निकोलस और उनकी जर्मन पत्नी ज़ारीना अलेक्जेंड्रा संभवत: इस गद्दी के लिए बने ही नहीं थे। वे कहीं किसी सुदूर रोमांटिक स्थान पर अपना घर बसा कर रहते, तो अधिक सुखी रहते। वे यूरोप के पहले शाही जोड़े थे, जिनका एक कमरा था। यह बात वर्तमान काल में अटपटी लग सकती है, लेकिन शाही परिवारों या रईस कुलीनों में पति-पत्नी का भिन्न शयन-कक्ष भारत में भी रहा है। बेडरूम कंसेप्ट तो मध्य-वर्ग के उदय के साथ आया, और इसलिए ज़ार निकोलस के इस व्यवहार को इतिहास में दर्ज किया गया।

वे दोनों अव्वल दर्जे के अंधविश्वासी भी थे। उनकी गद्दी पर बैठने के कुछ ही वर्षों बाद एक फ्रेंच तांत्रिक फिलिप का साया उन पर पड़ा। वह किसी तंत्र-विद्या से उनके मृत पिता अलेक्सांद्र तृतीय को बुलाते थे, और वह ज़ार निकोलस को गाइड करते थे कि राज कैसे चलाना है। भला रूस जैसी महाशक्ति का शासक अगर इतना बेवकूफ़ हो, तो प्रजा क्रांति क्यों न करे? मैं यह बातें रूसी कम्युनिस्टों के लिखे ज़ार-विरोधी इतिहास से नहीं कह रहा, फिलिप पर दस्तावेज ही दस्तावेज हैं। ऐसा माना जाता था कि वही नेपथ्य से राज चला रहे थे, और कुछ उन्हें विदेशी एजेंट मानते थे। 

तांत्रिकों का शासकों का प्रभाव भारत में भी थोड़ा-बहुत रहा है। धीरेंद्र ब्रह्मचारी से चंद्रास्वामी तक उदाहरण रहे हैं। लेकिन, ज़ार निकोलस के समय एक के बाद एक तांत्रिक आते गए और कहीं न कहीं उनके पतन का कारण बने। जब  तांत्रिक फ़िलिप पर ज़ारीना से नाजायज संबंधों की खबरें चलने लगी, तो उन्हें महल छोड़ कर जाना पड़ा। उस समय तक ज़ार को बेटियाँ ही हुई थी, और उन्हें एक युवराज चाहिए था। 

फ़िलिप ने जाते हुए भविष्यवाणी की, “तुम संन्यासी संत सराफीम के शरण में जाओगे। वही तुम्हें बेटा दिलाएँगे।”

शायद यह बातें किसी मध्ययुगीन दंत-कथा की तरह लग रही होगी। ज़ार ने संत सराफ़ीम को उनके संन्यासी जीवन से निकाल कर राजधानी बुलाया। एक बड़ा उत्सव आयोजित किया जिसमें तीन लाख रूसी शामिल हुए। इससे पुन: सिद्ध होता है कि भांग सिर्फ ज़ार निकोलस ने नहीं पी थी, बल्कि पूरे कुएँ में ही भांग थी। रूसी पूरे श्रद्धा-भाव से उत्सव में पहुँचे थे कि संत उन्हें एक युवराज का वरदान देने वाले हैं। ज़ार और ज़ारीना संत के आदेशानुसार सरावो नदी में उतर कर पुत्र-कामना करने लगे। 

अंधविश्वास चरम पर था, किंतु भविष्यवाणी सत्य हुई। इस उत्सव के बाद ही 1904 में ज़ारीना गर्भवती हुई, और उन्होंने पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम अलेक्सी रखा गया, जो पैदा होते ही अगला ज़ार नियुक्त कर दिया गया। कुछ ही महीनों बाद उन्होंने देखा कि इस शिशु को एक विचित्र बीमारी है। कभी उसकी नाभि से रक्त बहने लगता, कभी हल्की सी चोट से ही खून जमा हो जाता। 

यह हीमोफिलिया बीमारी थी, जो महारानी विक्टोरिया के रास्ते उनके कई बेटे-पोतों तक पसरा, जिनमें अधिकतर जल्दी मर गए। इस आनुवंशिक बीमारी के चांस तब अधिक बढ़ते जाते हैं, जब विवाह निकट परिवार में हो। महारानी को यह बताया गया था कि आप अपनी बेटियों का विवाह शाही परिवार में न करें, लेकिन यह उनकी शान के ख़िलाफ़ था। हाल्डेन नामक वैज्ञानिक ने लिखा है, “शाही परिवार में पसरता हीमोफिलिया रोग उनके द्वारा विज्ञान को नकारने का ही परिणाम था”

इस रोग का इलाज उस समय चिकित्सा-शास्त्र में नहीं था। बालक अलेक्सी दर्द से कराह रहा होता। तभी किसी मंत्री ने ज़ार को बताया, “ग्रेगरी रासपूतिन नामक एक साइबेरिया का संत है, जो कज़ान से होते हुए अब यहाँ राजधानी आया है। सुना है, उसके पास जादुई शक्तियाँ है।”

जब पहली बार यह लंबे बालों और पथरीली आँखों वाला शख्स बालक एलेक्सी के पास आया तो उसने बस इतना कहा, “मैं तुम्हारे सभी दर्द हर रहा हूँ। अब तुम इस दर्द से मुक्त हो रहे हो।”

और जादू! बच्चा चुप हो गया। इस तरह के संस्मरण हैं कि फ़ोन पर रासपूतिन की आवाज़ सुन कर भी बच्चा दर्द से मुक्त हो जाता था। मेरे लिए तो ऐसी अवैज्ञानिक बातों को मान पाना कठिन है। मैं इन वू-डू और तंत्र-मंत्र से निकल कर अब जमीन पर आता हूँ। 

दुनिया में एक ऐसी शक्ति का उदय हो रहा था, जो दिखने में भले छोटी थी मगर घाव गंभीर करती थी। वह इकलौती एशियाई शक्ति थी, जिसने दोनों विश्व-युद्धों में पूरे दम-खम से भाग लिया। 1905 में ज़ार निकोलस की रूस को साइबेरिया तट पर उनसे कड़ी शिकस्त मिली। छोटे-छोटे द्वीपों से बना वह देश ‘जापान’ अब प्रशांत महासागर से चीन तक अपना झंडा गाड़ चुका था। 

अपनी हार के बाद पोर्ट्समाउथ में संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करते हुए ज़ार निकोलस शर्म से गड़ गए। जब वह राजधानी लौटे तो रूस में क्रांति की पहली चिनगारी भड़क उठी थी। 
(क्रमश:)

प्रवीण झा 
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास - दो (12)
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कानून - धारा 67 एनडीपीएस के अंतर्गत इकबालिया बयान अदालत में स्वीकार्य नहीं हैं / विजय शंकर सिंह

इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने हाल ही में 628 किलोग्राम गांजा की कथित बरामदगी से जुड़े एक मामले में नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट, 1985 (एनडीपीएस एक्ट) के तहत अभियुक्त बनाए गए एक व्यक्ति को जमानत दे दी है।

अदालत ने कहा कि अभियुक्त के खिलाफ मामला, केवल उसके सह-अभियुक्त द्वारा दिए गए बयान पर आधारित था और एनडीपीएस अधिनियम की धारा 67 के अंतर्गत, आरोपी द्वारा दिए गए बयान पर भी न्यायमूर्ति चंद्रधारी सिंह की खंडपीठ ने उसे जमानत दे दी थी। 

चूंकि एनसीबी ने एनडीपीएस अधिनियम की धारा 67 के अंतर्गत दिए गए उनके बयान पर भरोसा किया, इसलिए हाईकोर्ट ने तूफान सिंह बनाम तमिलनाडु राज्य के फैसले इस मामले में उल्लेख किया ।  तमिलनाडु राज्य, के इस मामले में, यह माना गया था कि, 
" एनडीपीएस अधिनियम के तहत नियुक्त केंद्रीय और राज्य एजेंसियों के अधिकारी पुलिस अधिकारी हैं, और इसलिए धारा 67 के तहत उनके द्वारा दर्ज किए गए 'इकबालिया' बयान स्वीकार्य नहीं हैं।" 

तूफान सिंह बनाम तमिलनाडु राज्य (2020) के मामले में, सुप्रीम कोर्ट के, फैसले के अनुसार, एनडीपीएस अधिनियम की धारा 67 के अंतर्गत, आरोपी द्वारा दिए गए बयान मुकदमे के दौरान सबूत के रूप में, अदालत में स्वीकार्य नहीं हैं, क्योंकि यह भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 25 के अनुसार, ऐडमिसिबिल नहीं है। 

● Sec 25 IEA.
Confession to police officer not to be proved.
No confession made to a police officer1, shall be proved as against a person accused of any offence.
No confession made to a police officer1, shall be proved as against a person accused of any offence.

● Sec 67 NDPS act,
67 of the NDPS Act have any evidentiary value and whether they can be relied upon to deny an application for bail. Whether statements recorded under S. 67 of the NDPS Act can be treated as confessional statements depends in turn on the question whether officers of NCB are 'police officers'?

एनडीपीएस एक्ट के आधीन कोई भी अधिकारी यदि बरामदगी करता है और उसके सामने कोई कन्फेशन, मुल्जिम करता है तो उक्त अधिकारी के समक्ष किया गया, ऐसा इकबालिया बयान, इंडियन एविडेंस एक्ट की धारा 25 के अनुसार अदालत में स्वीकार्य नहीं है। 

( विजय शंकर सिंह )

शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (28) इमली - शीशम - जामुन!

सुल्तानों और बादशाहों ने जो राजमार्ग बनवाए उनके किनारे-किनारे उन्होंने आम के पेड़ लगवाए थे। जब लश्कर चलता तो आम के पेड़ों की छाँव लुभाती मगर आम के पेड़ के नीचे एक तो पानी भरता है दूसरे उस पानी में पनिहल सांप आ जाते। जिससे बेगमें डर जातीं। इसके अलावा पतझड़ में रात के वक़्त आम के पत्ते ज़मीन में गिरते तो शोर बहुत करते थे। जिससे लश्कर में बेगमों और बादशाहों नींद खुल जाती। तब उन्होंने इमली के पेड़ लगवाए, खासकर अवध के नवाबों और बादशाहों ने।

इमली के पेड़ बेगमों को तो लुभाते पर इमली और उनकी छाल के बहुत प्रयोग से पूरे अवध में लोग कुबड़े पैदा होने लगे तथा चर्म रोग से परेशान रहने  लगे तब नीम के पेड़ों को लगाना शुरू किया गया। वैद्यों और हकीमों ने इमली के पेड़ हटवा कर नीम के पेड़ लगाने की सलाह दी थी। लेकिन बाद में कंपनी सरकार के अंग्रेजों ने नीम के पेड़ कटवा दिए और उनकी लकड़ी कंपनी बहादुर के बंगलों को सजाने में इस्तेमाल होने लगी। शीशम के पेड़ लगवाए पर शीशम के पेड़ चोरी-छिपे काटे जाने लगे और बाज़ार में शीशम के दाम खूब चढ़ गए। योरोप के फर्नीचर बाज़ार में शीशम की खूब मांग बढ़ गई तो अंग्रेजों ने शीशम के पेड़ कटवा कर बेच दिए। 

बीसवीं सदी की शुरुआत से ही राजमार्गों पर जामुन के पेड़ लगवाए जाने शुरू किए गए। पूरी नई दिल्ली का अंग्रेजों के इलाके की सडकों के किनारे जामुन लगाए गए। जामुन के पेड़ स्वतः उग जाते हैं और इसकी लकड़ी किसी काम की नहीं इसलिए इसके चोरी-छिपे काटे जाने का भी खतरा नहीं। इसलिए अंग्रेजों ने जामुन के पेड़ खूब लगाए। 

मगर जामुन बंदर बहुत खाता है इसलिए पूरे लुटियन्स जोन को बंदरों ने घेर लिया। पहले तो दिल्ली का लुटियन इलाका जंगल था इसलिए कोई दिक्कत नहीं हुई मगर आज़ादी के बाद लुटियन जोन में वीवीअईपी बसावट बढ़ी तब बंदरों को भगाने के लिए लंगूरों को लाया गया। पर आज़ादी के बाद की सरकारों की कोई वृक्ष-नीति नहीं रही इसलिए राजमार्ग नंगे कर दिए गए और नई दिल्ली के लुटियन जोन में लंगूर भर दिए गए। 
(ज़ारी)

© शंभूनाथ शुक्ल 

कोस कोस का पानी (27B)
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प्रवीण झा - रूस का इतिहास - दो (12)

     ( चित्र: ज़ार निकोलस और जॉर्ज पंचम )

बुद्धिजीवी समाज चाहे कुछ भी सोचे, जनता ज़ार में उस वक्त भी भगवान ही देखती थी। वे अपनी रूसी परंपरा, अपने ईसाई धर्म के प्रति निष्ठावान थे। रूसी बुद्धिजीवी वर्ग में भी धर्म का प्रबल प्रभाव था। रूसी लेखक दोस्तोवस्की पादरी परिवार से थे, और ऑर्थोडॉक्स ईसाईयत में उनकी अगाध श्रद्धा थी। उनकी रचनाओं को धर्म से अलग कर नहीं देखा जा सकता। वहीं लिओ तॉलस्तॉय ईसाई धर्म की एक अलग ही परिभाषा रच रहे थे, जहाँ संन्यास और मोक्ष जैसे कंसेप्ट ला रहे थे। मैक्सिम गोर्की को छोड़ दिया जाए, तो रूस के संपूर्ण इतिहास में दस पक्के मार्क्सवादी साहित्यकार गिनाने कठिन होंगे। इससे कहीं अधिक तो अमरीका या भारत में मिल जाएँगे।

जब ज़ार निकोलस की ताज़पोशी हो रही थी, उस समय कहीं किसी क्रांति की सुगबुगाहट नहीं थी। इस बात का अंदाज़ा उस उत्सव की भीड़ से लगाया जा सकता है। गाँव-गाँव से उठ कर लोग नए राजा-रानी को देखने आए थे। हमेशा की तरह जनता के लिए कुछ नाश्ता (ब्रेड और माँस रोल) और शराब के इंतजाम थे। यह सारा इंतज़ाम गवर्नर जनरल सर्गेई देख रहे थे, जो रिश्ते में ज़ार निकोलस के साढ़ू भाई भी थे। उनकी पत्नी ज़ारीना (महारानी) की सगी बड़ी बहन थी। 

सर्गेई के लिए यह जनता कीड़े-मकोड़ों जैसी थी, जिनको जूतों तले रौंदना वह अपना अधिकार समझते थे। लाखों की भीड़ पंक्तिबद्ध अपने-अपने ब्रेड रोल और बीयर का इंतज़ार कर रही थी, कि वहाँ अफ़वाह फैल गयी खाना कम पड़ गया है। वाकई सर्गेई ने खाना और शराब कम ही मंगवाए थे, तो कम पड़ना ही था। यहाँ रूस के सर्वहारा गरीबी का सत्य सामने दिखा, जब लोग एक अदना नाश्ते के पैकेट के लिए लड़ने लग गए। भगदड़ मच गयी, और एक हज़ार से अधिक लोग मर गए।

ज़ार निकोलस को जब खबर हुई, तो उन्होंने एक दफ़े सोचा कि कार्यक्रम स्थगित कर दिया जाए। लेकिन, सर्गेई ने समझाया कि ये मामूली घटना है, इसे अधिक तवज्जो न दें। ज़ार जब जनता के मध्य आए, तो उन लाशों को किनारे कर ढेर लगा दिया गया या छुपा दिया गया। कुछ हाथ जो ज़ार की बग्घी को सलाम कर रहे थे, उन्हें जब करीब से देखा तो वे मृत व्यक्तियों के हाथ थे।

उसी रात फ्रेंच दूतावास में पार्टी थी, और वहाँ ज़ार निकोलस शराब पीते हुए संगीत-नृत्य का आनंद ले रहे थे। यह उनके मंत्रियों और अन्य कुलीनों को भी अश्लील लग रहा था कि एक राजा अपनी प्रजा की मौत का अफ़सोस भी नहीं जता रहा। कम से कम बाहर उनसे मिल कर सहानुभूति तो व्यक्त कर सकते थे? वह अपनी सत्ता के नशे में इतने चूर आखिर कैसे हो सकते हैं? 

जब मंत्रियों की सभा आयोजित हुई, तो वहाँ कुछ उम्मीद थी कि ज़ार प्रजातंत्र का एक खाका बनाएँगे। लेकिन ज़ार निकोलस द्वितीय ने घोषणा की, “रूस एक महान देश है, जिसका कारण है यहाँ की राजशाही। मैं, ज़ार निकोलस द्वितीय, यह घोषणा करता हूँ कि सत्ता का पूर्ण नियंत्रण मेरे हाथ में रहेगा। मैं राष्ट्र और धर्म की नींव पर इस देश को विकास के पथ पर ले जाऊँगा।”

इसका अर्थ था कि निरंकुश ज़ारशाही कायम रहेगी। 

मैं ज़ार निकोलस की तस्वीर को ग़ौर से देख रहा था। वह ब्रिटिश राजा जॉर्ज पंचम के कुंभ के बिछड़े भाई लगते हैं। न सिर्फ चेहरा, बल्कि मूँछ-दाढ़ी भी एक जैसी। इसके पीछे एक स्पष्ट कारण है। जर्मनी के कैज़र (राजा) विल्हेल्म, इंग्लैंड के युवराज जॉर्ज पंचम और रूस के ज़ार निकोलस, तीनों ही आपस में मौसेरे-फुफेरे भाई थे। महारानियों के भी आपसी संबंध थे। 

अगर ये तीनों भाई मिल जाते तो वे अजेय हो जाते और संभवत: पूरे यूरोप पर राज करते। लेकिन, इन भाइयों के मध्य तो ऐसा भीषण युद्ध हुआ, जिसकी लपटों से सिर्फ़ एक भाई ही सही-सलामत बच पाए। 

आखिर वह कोई साधारण युद्ध नहीं था, वह पहला विश्व-युद्ध था! 
(क्रमशः)

प्रवीण झा 
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास - दो (11)
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फ़िल्म सरदार उधम का ऑस्कर नामांकन खारिज, ज्यूरी की मानें तो, फ़िल्म घृणा फैलाती है ! / विजय शंकर सिंह

हाल ही में रिलीज हुयी फ़िल्म, सरदार उधम को, ऑस्कर पुरस्कारों के लिये भारतीय ज्यूरी ने भारत की प्रविष्टि के रूप में खारिज कर दिया है। खारिज करने के जो तर्क दिए हैं वे हैं, यह फ़िल्म अंग्रेजों के प्रति घृणा को दर्शाती है।
जूरी के एक सदस्य ने इस पर टिप्पणी करते हुए कहा है कि, 
"वैश्वीकरण के इस युग में, इस नफरत को थामे रखना उचित नहीं है।" 
एक भारतीय ज्यूरी ने तो, सरदार उधम को ऑस्कर 2022 के लिए देश की आधिकारिक प्रविष्टि के रूप में फिल्म "ब्रिटिशों के प्रति घृणा को प्रोजेक्ट्स" के रूप में कहा।"

शूजीत सरकार द्वारा निर्देशित यह फिल्म एक क्रांतिकारी आंदोलन के नायक और स्वाधीनता संग्राम सेनानी सरदार उधम सिंह के जीवन पर आधारित है। उधम सिंह को, अमृतसर में 13 अप्रैल 1919 को हुए, जलियांवाला बाग नरसंहार का बदला लेने के लिए, लंदन में माइकल ओ'डायर की हत्या के लिए जाना जाता है। माइकल ओ'डायर 1913 और 1919 के बीच पंजाब, ब्रिटिश भारत के लेफ्टिनेंट गवर्नर थे।

ओ'डायर के कार्यकाल के दौरान ही जलियांवाला बाग नरसंहार हुआ था, जहां ब्रिटिश सैनिकों ने शांतिपूर्ण प्रदर्शनकारियों पर, अनायास और बिना किसी चेतावनी के, तब तक गोलियां चलाईं जब तक कि उनका गोला-बारूद समाप्त नहीं हो गया था। जलियाँवाला बाग़ नरसंहार को व्यापक रूप से भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में एक महत्वपूर्ण मोड़ के रूप में देखा जाता है, जिसने "अंग्रेजी राज" के क्रूर और दमनकारी चेहरे के असल रंग को उजागर कर दिया। इतिहासकारों का मानना है कि इस घटना के बाद भारत पर शासन करने के लिए अंग्रेजों के "नैतिक" दावे का अंत हो गया। इस घटना ने सीधे तौर पर भारतीयों को आज़ादी के लिए प्रेरित किया, जिसका परिणाम आगे जाकर स्वाधीनता संग्राम पर पड़ा। 

पंजाब को अंग्रेजी हुकूमत का गढ़ माना जाता था, जो इस बात पर गर्व करता था कि उसने राज्य में कॉलोनियों और रेलवे का विकास कर वहां समृद्धि लाई है। भारतीय सेना में यहां के लोगों का योगदान भी महत्वपूर्ण था। हालांकि इस विकास की आड़ में अंग्रेजी हुकूमत, उन सभी उठने वाली आवाज़ों को क्रूरता से कुचलना चाहती थी और यह 1857 के विद्रोह, 1870 के दशक के कूका आंदोलन और साथ ही 1914-15 के ग़दर आंदोन के दौरान देखने को मिला। 

आयरलैंड की जमींदार पृष्ठभूमि से आने वाले ओडायर ब्रितानी औपनिवेश के अधिकारी वर्ग से जुड़े शिक्षित, लोगों, व्यापारियों और साहूकारों के ख़िलाफ़ सोच रखते थे. और वो किसी भी राजनीतिक असंतोष को पहले ही अवसर में कुचल देते थे। जनरल ओ डायर को साल 1913 में पंजाब के लाला हरकिशन लाल के पीपुल्स बैंक की बर्बादी के लिए भी दोषी माना गया था। जिसके चलते लाहौर के व्यापारियों और ख़ासतौर पर शहरी इलाके में रहने वाले लोगों का सब कुछ लुट गया। साल 1917-1919 के दरम्यान क़ीमतो में भारी उछाल आया। प्रथम विश्वयुद्ध का असर देश की आर्थिक स्थिति पर पड़ने लगा था। मज़दूरी के मानकों में गिरावट आ गई थी। निचले पायदान पर खड़े मज़दूर और पीछे धकेल दिये गए और इसका परिणाम यह हुआ कि कामगार और कारीगर घोर तंगी में घिर गए। 

साल 1919 के फरवरी के अंत में जब रॉलेट बिल आया तो, उसका व्यापक विरोध हुआ और पंजाब में आर्थिक दुरवस्था जन्य असंतोष तथा आक्रोश के कारण, पंजाब इस विरोध में सबसे आगे था। रॉलेट एक्ट के ख़िलाफ़ हुआ आंदोलन भारत का पहला अख़िल भारतीय आंदोलन था, और इसी आंदोलन ने महात्मा गांधी को एक राष्ट्रीय नेता के रूप में, स्थापित कर दिया। इसके बाद ही महात्मा गांधी ने एक सत्याग्रह सभा का गठन किया और अपने असहयोग आंदोलन की तैयारी में, ख़ुद पूरे देश के दौरे पर निकल गए ताकि लोगों को वे एकजुट कर सकें। 

हालांकि गांधी कभी भी पंजाब का दौरा नहीं कर सके। वे पंजाब प्रांत में प्रवेश करने ही जा रहे थे कि, इसके ठीक पहले नौ अप्रैल को उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और दिल्ली वापस भेज दिया गया। वर्ष 1919 के फरवरी महीने की शुरुआत में भी अमृतसर और लाहौर शहरों में सरकार विरोधी सभाएं हुई थीं।  लेकिन ये सभाएं स्थानीय मुद्दों लेकर थीं। इनमें रॉलेट एक्ट के बारे में कोई विशेष चर्चा नहीं की गई थी। 

देश के अधिकांश शहरों में 30 मार्च और 6 अप्रैल को देशव्यापी हड़ताल का आह्वान किया गया था। हालांकि इस हड़ताल का सबसे ज़्यादा असर पंजाब के ही अमृतसर, लाहौर, गुजरांवाला और जालंधर शहर में देखने को मिला। 9 अप्रैल को राम नवमी के दिन लोगों ने एक मार्च निकाला। राम नवमी के मौक़े पर निकले इस मार्च में हिंदू तो थे ही, मुस्लिम भी शामिल हुए। मुस्लिमों ने तुर्की सैनिकों जैसे लिबास पहन रखे थे।  बड़ी संख्या में लोग तो जमा हुए ही थे, लेकिन जनरल डायर और उनके प्रशासन को सबसे अधिक चिंता हिंदू-मुस्लिम एकता देखकर हुई। 

किसी भी विरोध को कुचलने के लिए हमेशा आतुर रहने वाले पंजाब के गवर्नर डायर ने उसी दिन अमृतसर के लोकप्रिय नेताओं डॉ. सत्यपाल और सैफ़ुद्दीन को अमृतसर से निर्वासित करने का फ़ैसला किया और ठीक उसी दिन गांधी जी को भी पंजाब में घुसने नहीं दिया गया और  पलवल वापस भेज दिया गया। 

अपने नेताओं के निर्वासन की ख़बर ने अमृतसर के लोगों को गुस्से से भर दिया। क़रीब पचास हज़ार की संख्या में लोग जुटे और दस अप्रैल को अपने नेताओं की रिहाई की मांग करते हुए उन्होंने, सिविल लाइन्स तक मार्च निकाला। इस मार्च के दौरान सैनिकों से उनकी मुठभेड़ भी हुई. पथराव और गोलीबारी हुई जिसमें कई लोगों की मौत भी हो गई।  गुस्साई भीड़ शहर वापस तो आ गई लेकिन उनके अंदर हलचल मची हुई थी।  उन्होंने ब्रिटिश राज से संबद्ध प्रतीकों मसलन बैंक, रेलवे स्टेशन और चर्च में तोड़फोड़ शुरू कर दी। पांच गोरे जिनमें से तीन बैंक कर्मचारी थे और एक रेलवे गार्ड था, मारे भी गए। इस हिंसक आंदोलन का नेतृत्व मुख्य तौर पर हिंदू, सिख खत्री और कश्मीरी मुसलमान कर रहे थे। 

ठीक उसी दिन जालंधर के ब्रिगेडियर जनरल रेगिनाल्ड डायर को आदेश दिया गया कि वो इन हिंसक घटनाओं को संभालने के लिए फ़ौरन अमृतसर पहुंचें।  नागरिक प्रशासन ढह चुका था और ऐसे में संभवत: डायर को परिस्थितियों को नियंत्रित करने के लिए बुलाया गया था। 13 अप्रैल 1919, बैसाखी के दिन, लगभग शाम के साढ़े चार बज रहे थे। जलियांवाला बाग में सभा चल रही थी। जनरल डायर ने बाग में मौजूद क़रीब 25 से 30 हज़ार लोगों पर, बिना किसी चेतावनी या बिना वहां से निकलने का कोई मौका दिये, निहत्थी जनता पर, गोलियां बरसाने का आदेश दे दिया।  गोलीबारी क़रीब दस मिनट तक बिना रुके होती रही। जनरल डायर के आदेश के बाद सैनिकों ने क़रीब 1650 राउंड गोलियां चलाईं। सरकारी आंकड़ो में कुल मृत्यु, 379 बताई जाती है पर गैर सरकारी आंकड़ो के अनुसार, मरने वालों की संख्या हज़ार से अधिक बतायी जाती है। 

डायर का जन्म भारत में ही हुआ था और उनके पिता शराब बनाने का काम करते थे. डायर को उर्दू और हिंदुस्तानी दोनों ही भाषाएं बहुत अच्छे से आती थीं. डायर के वरिष्ठ अधिकारियों की नज़र में उसकी कोई बहुत अच्छी साख नहीं थी। इतिहास में डायर का नाम अमृतसर के कसाई के तौर पर है। द बुचर ऑफ अमृतसर नाम से, निचेल कोलेट ने उंसकी एक बायोग्राफी भी लिखी है, जो 2006 में प्रकाशित हुयी है। 

हंटर कमीशन, जो इस घटना की जांच के लिये गठित हुआ था, के सामने डायर ने माना था कि,
" उसने, लोगों पर मशीन गन का इस्तेमाल किया और जलियांवाला बाग़ के लिए एक संकरा सा रास्ता था और सैनिकों को आदेश दिया गया कि वो जिस ओर ज़्यादा संख्या में लोगों को देखें उधर फ़ायर करें। जब फ़ायरिंग बंद हो गई तो वहां न घायलों के लिए मेडिकल की व्यवस्था थी और न लाशों के अंतिम संस्कार की।" 
उसे, व्यापक रूप से "ब्रिटिश साम्राज्य के उद्धारकर्ता" के रूप में सम्मानित भी किया गया था।

भारत के स्वाधीनता संग्राम में, किसी ब्रिटिश अधिकारी द्वारा व्यक्तिगत तौर पर की गई यह निर्मम सामूहिक हत्या अपने आप में पहली घटना थी।  हिंसा, क्रूरता और राजनीतिक दमन ब्रिटिश राज में पहली बार नहीं हुआ था, और न ही यह अपवाद था, लेकिन यह अपने आप में एक अलग तरह की बीभत्स क्रूरता थी। 

'सरदार उधम' फिल्म का चयन, ऑस्कर के लिये क्यों नहीं किया गया, इस पर, भारतीय संगीतकार इंद्रदीप दासगुप्ता ने टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया, 
"सरदार उधम, फ़िल्म थोड़ी लंबी है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक गुमनाम नायक पर एक भव्य फिल्म बनाने का यह एक ईमानदार प्रयास है। लेकिन इस प्रक्रिया में, यह फ़िल्म, फिर से अंग्रेजों के प्रति हमारी नफरत को उभार सकता है।  वैश्वीकरण के इस युग में, इस नफरत को बनाये रखना उचित नहीं है।”

भारतीय प्रोडक्शन डिजाइनर सुमित बसु ने कहा, 
"कई लोगों ने सरदार उधम को कैमरावर्क, संपादन, ध्वनि डिजाइन और अवधि के चित्रण सहित सिनेमाई गुणवत्ता के लिए प्यार किया है। मैंने सोचा था कि फिल्म की लंबाई एक मुद्दा थी। साथ ही, यह फ़िल्म क्लाइमेक्स पर धीमी हो जाती है। जलियांवाला बाग हत्याकांड के शहीदों के लिए होने वाले स्वाभाविक दर्द और भाव को, दर्शक तक जिस जुनूनी शिद्दत से पहुंचाया जाना चाहिए था, उतनी शिद्दत से इसका फिल्मांकन नहीं किया गया है।"

फ़िल्म की तकनीक, फिल्मांकन, स्क्रिप्ट,   फ़ास्ट और स्लो के तर्क अपनी जगह हैं, पर यह तर्क कि यह फ़िल्म अंग्रेजों के प्रति घृणा को बढ़ाती है, अनुचित है। यह फिल्म साम्राज्यवाद के लिए भले ही नफरत दिखाती हो, लेकिन किसी नस्ल या देश विशेष के लिए कोई घृणाभाव उत्पन्न नहीं करती है। यह फिल्म आजादी के बारे में है। क्रांतिकारी आंदोलन के एक नायक के बारे में है। और यह आज़ादी पाने की ललक और जुनून को प्रदर्शित करती है। ऑस्कर नामांकन के लिए फिल्म को अस्वीकार करने के पीछे, घृणाभाव का तर्क आज भी साम्राज्यवादी मानसिकता से पीड़ित तर्क लगता है। 

ज्यूरी साहबान को, यह समझना चाहिए कि, सरदार उधम सिंह जैसे हुतात्मा और स्वतंत्रता सेनानी हमारे, वे प्रतीक हैं, जो साम्राज्यवाद के खिलाफ खड़े होने के लिये हमें युगों युगों तक प्रेरणा देंगे। उन्होंने इस देश के लिए अपना सब कुछ कुर्बान कर दिया। और आज ऑस्कर ज्यूरी, उन पर बनी फिल्म, इस विंदु पर खारिज कर दे रहे है कि, उन पर बनी 'सरदार उधम', फिल्म घृणा फैला रही है। यह अजीब दौर है, जब स्वाधीनता संग्राम के सारे नायक, स्वाधीनता संग्राम से जुड़ी महत्वपूर्ण जगहें, सब पर सवाल उठाए जा रहे हैं और उनका स्वरूप बिगाड़ा जा रहा है। हाल ही में जलियांवाला बाग के सुंदरीकरण के नाम पर अंग्रेजों के विद्र्प और क्रूर चेहरे को ढंकने की कोशिश की गयी है और अब नम्बर महात्मा गांधी के साबरमती आश्रम का है। यह षडयंत्र है, उनका, जिनकी स्वाधीनता संग्राम में शायद ही कोई भूमिका रही हो। 

( विजय शंकर सिंह )

Tuesday 26 October 2021

पेगासस जासुसी की जांच एक स्वतंत्र एक्सपर्ट कमेटी करेगी / विजय शंकर सिंह



सुप्रीम कोर्ट ने आज गुरुवार को पेगासस स्पाइवेयर का उपयोग कर राजनेताओं, पत्रकारों, कार्यकर्ताओं आदि की व्यापक और लक्षित निगरानी के आरोपों की जांच के लिए एक स्वतंत्र विशेषज्ञ समिति के गठन का आदेश दिया।

समिति के कामकाज की देखरेख सुप्रीम कोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति आरवी रवींद्रन करेंगे।  इस कार्य में पर्यवेक्षक न्यायाधीश की सहायता के जो टीम गठित है, उसमे हैं, 
● श्री आलोक जोशी, पूर्व आईपीएस अधिकारी (1976 बैच)
● डॉ. संदीप ओबेरॉय, अध्यक्ष, उप समिति (अंतर्राष्ट्रीय मानकीकरण संगठन/अंतर्राष्ट्रीय इलेक्ट्रो-तकनीकी आयोग/संयुक्त तकनीकी समिति)।

 तीन सदस्यीय एक तकनीकी समिति भी बनाई गई है। जिंसमे, शामिल होंगे,
● डॉ नवीन कुमार चौधरी, प्रोफेसर (साइबर सुरक्षा और डिजिटल फोरेंसिक) और डीन, राष्ट्रीय फोरेंसिक विज्ञान विश्वविद्यालय, गांधीनगर, गुजरात।
● डॉ. प्रभारन पी., प्रोफेसर (इंजीनियरिंग स्कूल), अमृता विश्व विद्यापीठम, अमृतापुरी, केरल।
 डॉ अश्विन अनिल गुमस्ते, इंस्टीट्यूट चेयर एसोसिएट प्रोफेसर (कंप्यूटर साइंस एंड इंजीनियरिंग), इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, बॉम्बे, महाराष्ट्र।
कोर्ट ने कमेटी से 8 हफ्ते बाद रिपोर्ट देने को कहा है।

सीजेआई जस्टिस, एनवी रमन्ना द्वारा सुनाए गए फैसले में कहा गया है कि, अदालत द्वारा जांच कमेटी का गठन निम्नलिखित "सम्मोहक परिस्थितियों" के कारण पारित करने के लिए किया गया है,
● निजता के अधिकार और बोलने की स्वतंत्रता पर कथित रूप से प्रभाव पड़ रहा है, जिसकी जांच की जानी चाहिए।
● संभावित निगरानी के प्रभाव के कारण इस तरह के आरोपों से सभी नागरिक प्रभावित हो सकते है।
● इस पीआईएल के प्रतिवादी, भारत सरकार द्वारा इस संबंध में, कोई स्पष्ट रुख नहीं अपनाया गया है।
● विदेशों द्वारा लगाए गए आरोपों और इस जासुसी मे उनकी संलिप्तता को गंभीरता से लिया गया है।
● इस बात की भी संभावना है कि, इस देश के नागरिकों को निगरानी में रखने में कोई विदेशी प्राधिकरण, एजेंसी या निजी संस्था भी शामिल है।
● आरोप है कि केंद्र या राज्य सरकारें नागरिकों के उनके मौलिक अधिकारों से, उन्हें वंचित करने की पक्षधर हैं।
● नागरिकों पर प्रौद्योगिकी के उपयोग का प्रश्न, जो कि अधिकार क्षेत्र का तथ्य है, विवादित है और इसके लिए और अधिक तथ्यात्मक जांच की आवश्यकता है।

सुप्रीम कोर्ट ने फैसले की शुरुआत में कहा कि, याचिकाएं निगरानी की "ऑरवेलियन चिंता" उठाती हैं।  कोर्ट ने कहा कि कुछ याचिकाकर्ता पेगासस जासूसी के सीधे शिकार होने का आरोप लगाते हैं और वे भारत सरकार की ओर से, इस पर, सरकार की निष्क्रियता का मुद्दा उठाते हैं।

"नागरिकों की अंधाधुंध जासूसी की अनुमति कानून के अनुसार छोड़कर नहीं दी जा सकती है," कोर्ट ने फैसले में कहा।  यह प्रेस की स्वतंत्रता के लिए भी एक महत्वपूर्ण चिंता का विषय है, जो लोकतंत्र का एक महत्वपूर्ण स्तंभ है।  अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर संभावित, विधि विरुद्ध निगरानी लोकतंत्र को प्रभावित करेगी। कोर्ट ने कहा कि वह सच्चाई का पता लगाने और मामले की तह तक जाने को मजबूर है। कोर्ट ने कहा कि अखबारों की खबरों के आधार पर दायर याचिकाओं को लेकर उसे शुरुआती आपत्ति थी।  हालाँकि, मामले की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए, भारत सरकार को सीमित नोटिस जारी की गयी थी।

इस अदालत ने 2019 के बाद से पेगासस हमले के संबंध में सभी सूचनाओं का खुलासा करने के लिए केंद्र को पर्याप्त समय दिया था। हालांकि केवल एक सीमित हलफनामा दायर किया गया था जिसमें सरकार ने कुछ भी स्पष्ट नहीं किया था। अगर प्रतिवादी यूनियन ऑफ इंडिया ने अपना रुख स्पष्ट कर दिया होता, तो इससे मदद मिलती।  हालांकि, प्रतिवादी यूनियन ऑफ इंडिया ने जानकारी देने से इनकार कर दिया।  संघ द्वारा आरोपों का केवल एक अस्पष्ट और सर्वव्यापी खंडन था।

23 सितंबर को, भारत के मुख्य न्यायाधीश ने कहा था कि अदालत इजरायली कंपनी एनएसओ द्वारा विकसित पेगासस स्पाइवेयर का उपयोग करके पत्रकारों, कार्यकर्ताओं, राजनेताओं आदि की जासूसी के आरोपों को देखने के लिए एक तकनीकी समिति गठित करने पर विचार कर रही है।  CJI ने कहा था कि तकनीकी समिति का हिस्सा बनने के इच्छुक व्यक्तियों की पहचान करने में कठिनाइयों के कारण आदेश में देरी हो रही है।

13 सितंबर को सीजेआई एनवी रमना, न्यायमूर्ति सूर्य कांत और न्यायमूर्ति हेमा कोहली की पीठ ने पेगासस मामले में अंतरिम आदेश सुरक्षित रखा था, जब केंद्र सरकार ने एक हलफनामा दायर करने की अनिच्छा व्यक्त की थी जिसमें अदालत से सरकार से यह स्पष्ट तौर पर पूछा था कि उसने पेगासस स्पाइवेयर का इस्तेमाल किया है या नहीं।

सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने पीठ को बताया कि यह मामला राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा है और इसलिए इसे न्यायिक बहस या सार्वजनिक चर्चा का विषय नहीं बनाया जा सकता।  उन्होंने कहा कि सरकार हलफनामे में यह नहीं बता सकती कि उसने सुरक्षा उद्देश्यों के लिए किसी विशेष सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया है या नहीं, क्योंकि इससे आतंकी समूह सतर्क हो सकते हैं। हालांकि, आरोपों की गंभीरता को ध्यान में रखते हुए, केंद्र ने इस मुद्दे की जांच के लिए एक तकनीकी समिति गठित करने पर सहमति व्यक्त की है, और उक्त समिति अदालत को एक रिपोर्ट सौंपेगी, एसजी ने कहा।

पीठ ने कहा था कि वह राष्ट्रीय सुरक्षा या रक्षा से संबंधित कोई विवरण नहीं चाहती थी, लेकिन केवल नागरिकों की जासूसी के आरोपों के संबंध में स्पष्टीकरण मांग रही थी। न्यायमूर्ति सूर्यकांत ने कहा, 
"हमें सुरक्षा या रक्षा से संबंधित मामलों को जानने में कोई दिलचस्पी नहीं है। हम केवल यह जानने के लिए चिंतित हैं कि क्या सरकार ने कानून के तहत स्वीकार्य के अलावा किसी अन्य तरीके का इस्तेमाल किया है।"

" हम फिर से दोहरा रहे हैं कि हमें सुरक्षा या रक्षा से संबंधित मामलों को जानने में कोई दिलचस्पी नहीं है। हम केवल चिंतित हैं, जैसा कि मेरे भाई ने कहा, हमारे सामने पत्रकार, कार्यकर्ता आदि हैं ... यह जानने के लिए कि क्या सरकार ने कानून के तहत स्वीकार्य के अलावा किसी अन्य तरीके का इस्तेमाल किया है या नहीं  , "
सीजेआई एनवी रमना ने कहा था।

याचिकाकर्ताओं के वकील, वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल, श्याम दीवान, मीनाक्षी अरोड़ा, राकेश द्विवेदी, दिनेश द्विवेदी, सीयू सिंह द्वारा प्रतिनिधित्व किया - ने कहा कि,
" केंद्र द्वारा गठित एक समिति से निष्पक्ष और निष्पक्ष तरीके से कार्य करने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। पेगासस विकसित करने वाली इजरायली फर्म एनएसओ, केवल सरकारों को अपनी सेवाएं बेचती है, और जब भारत सरकार संदेह के बादल में थी, तो निष्पक्ष जांच करने की उम्मीद नहीं की जा सकती।"

केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि 
" वह पेगासस मुद्दे में कोई अतिरिक्त हलफनामा दाखिल नहीं करना चाहती, क्योंकि इसमें राष्ट्रीय सुरक्षा के पहलू शामिल हैं। वह मुद्दों की जांच के लिए उसके द्वारा गठित की जाने वाली प्रस्तावित विशेषज्ञ समिति के समक्ष विवरण रखने को तैयार है।"

 पेगासस विवाद 18 जुलाई को द वायर और कई अन्य अंतरराष्ट्रीय प्रकाशनों द्वारा मोबाइल नंबरों के बारे में रिपोर्ट प्रकाशित करने के बाद शुरू हुआ, जो भारत सहित विभिन्न सरकारों को एनएसओ कंपनी द्वारा दी गई स्पाइवेयर सेवा के संभावित लक्ष्य थे।  द वायर के अनुसार, 40 भारतीय पत्रकार, राहुल गांधी जैसे राजनीतिक नेता, चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर, ईसीआई के पूर्व सदस्य अशोक लवासा आदि को लक्ष्य की सूची में बताया गया है।

इसके बाद मामले की स्वतंत्र जांच की मांग करते हुए शीर्ष न्यायालय के समक्ष कई याचिकाएं दायर की गईं, जिन पर नोटिस जारी किया जाना बाकी है।  हालांकि, शीर्ष अदालत ने कथित घटना पर चिंता व्यक्त करते हुए कहा है कि नि:संदेह आरोप गंभीर हैं, यदि रिपोर्ट्स सही हैं।  सीजेआई एनवी रमना ने कहा, "सच्चाई सामने आनी चाहिए, यह एक अलग कहानी है। हमें नहीं पता कि इसमें किसके नाम हैं।"

याचिकाएं अधिवक्ता एमएल शर्मा, पत्रकार एन राम और शशि कुमार, माकपा के राज्यसभा सांसद जॉन ब्रिटास, पांच पेगासस लक्ष्यों (परंजॉय गुहा ठाकुरता, एसएनएम आब्दी, प्रेम शंकर झा, रूपेश कुमार सिंह और इप्सा) सहित कई लोगों द्वारा दायर की गई हैं। इसके अतिरिक्त, शताक्सी, सामाजिक कार्यकर्ता जगदीप छोक्कर, नरेंद्र कुमार मिश्रा और एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने भी पीआईएल दायर की थी।
( साभार, लाइव लॉ, बार एंड बेंच और इंडिया टुडे )

( विजय शंकर सिंह )

जन्मदिन पर विशेष: गांधी ने चाही थी गणेश शंकर विद्यार्थी जैसी मौत / विजय शंकर सिंह


25 मार्च 1931 को कानपुर में एक अत्यंत दुःखद घटना हुयी थी। एक साम्प्रदायिक उन्माद से भरी भीड़ ने गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या कर दी थी। विद्यार्थी जी हिंदी पत्रकारिता के शलाका पुरुष रहे हैं। वे न केवल व्यावसायिक पत्रकार रहे हैं, बल्कि जन जागृति के इस लोक माध्यम को उन्होंने एक मिशन की तरह लिया। यह उनकी शहादत थी। 1931 का साम्प्रदायिक दंगा , कानपुर के इतिहास में बहुत व्यापक और बीभत्स था। विद्यार्थी जी इस उन्माद से पगलाई भीड़ को शांत करने के उद्देश्य से पुराने कानपुर की गलियों में निकले थे और उस उन्माद और पागलपन की आग ने उन्ही की जान ले ली, जिसे वे खुद बुझाने निकले थे। वह दुर्भाग्यपूर्ण दिन और तारीख आज ही की थी।

गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म 1890 के 26, अक्टूबर को, इलाहाबाद में हुआ था। हाइ स्कूल की परीक्षा वहाँ से उत्तीर्ण कर के वे वहाँ से निकलने वाले अखबार, हिंदी प्रदीप, स्वराज्य, कर्मयोगी और अभ्युदय से जुड़े। इन पत्रिकाओं में उनके लेख नियमित रूप से प्रकाशित होते रहते थे। विद्यार्थी जी हालांकि प्रदेश कांग्रेस के महत्वपूर्ण नेताओं में से थे पर वे देश में चल रहे क्रांतिकारी आंदोलन के साथ साथ भी जुड़े थे। उनके लेख, प्रेस की आज़ादी, दास प्रथा, क्रांतिकारी आंदोलन के उभार और यहाँ तक कि सशस्त्र संघर्ष के समर्थन में भी अपनी बात कहते थे।

1905 में ही तिलक और गोखले के वैचारिक मतभेद के कारण कांग्रेस गरम और नरम दलों में बंट चुकी थी। तिलक उस समय गोखले से अधिक लोकप्रिय हो गए थे । अँगरेज़, उन्हें फादर ऑफ़ इंडियन अनरेस्ट कहते ही थे। विचारधारा का यह टकराव , इलाहाबाद के छात्रों में भी बहुत व्यापक था । म्योर सेन्ट्रल कॉलेज जो इलाहाबाद विश्वविद्यालय का आज का विज्ञान संकाय है, में  वहाँ के छात्रों ने कांग्रेस के तत्कालीन नरम पंथी नेताओं सर सुन्दर लाल और महामना मदन मोहन मालवीय का प्रबल विरोध किया था । गणेश शंकर विद्यार्थी ने उस समय राजनीतिक पत्रकारिता को अपना मिशन के रूप में चुना । वे पहले इलाहाबाद के स्वराज्य भवन स्थित कांग्रेस कार्यालय में पत्रकारिता से जुड़े । उस समय वहाँ से उर्दू में एक अखबार निकलता था, जो 1908 में सरकार विरोधी लेख छापने के कारण प्रतिबंधित कर दिया गया था । उस पत्रिका के संपादक शांति नारायण भटनागर थे , जिन्हें साढ़े तीन साल के कारावास की सजा दी गयी थी । इसी समय ब्रिटिश राज द्वारा प्रेस का उत्पीड़न शुरू हुआ था, और होती लाल वर्मा, राम हरि, नन्द गोपाल और लढ़ राम आदि संपादकों को,  जो उस अखबार से जुड़े थे , राजद्रोह के आरोप में दस वर्ष के लिए जिला बदर कर दिया गया था। विद्यार्थी जी ऐसे ही वातावरण में स्वराज्य के साथ जुड़े। इलाहाबाद से ही निकलने वाले पत्र ,कर्मयोगी और अभ्युदय के वे नियमित स्तंभकार भी रहे । अपने लेखों और विचारों के कारण वे भी प्रेस क़ानून के चंगुल से बच नहीं सके और बाद में वे इलाहाबाद से कानपुर आ गए ।

कानपुर से  ' प्रताप ' पत्र का सम्पादन इन्होंने शुरू किया, और चंपारण के निलहे किसानों की व्यथा, प्रवासी भारतीय जो अंग्रेजों द्वारा देश के बाहर अन्य उपनिवेशों में ले जाए जा रहे थे के कष्टों एवं कानपुर के श्रमिकों के सन्दर्भ में  नियमित लिखना शुरू किया । उनका लेखन बहुत सधा हुआ था और विचार अत्यंत स्पष्ट थे । अपनी स्थापना के एक वर्ष बाद ही 1914 में प्रताप का प्रथम विशेषांक निकला।  इसे राष्ट्रीय अंक नाम दिया गया । साठ पृष्ठों के इस पत्र की कीमत चार आना रखी गयी थी । इस अंक के लेखकों में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी, मैथिलि शरण गुप्त , मुंशी प्रेम चंद, विद्यावती सेठ, सैयद हैदर हुसैन, बद्रीनाथ भट्ट, श्रीमती बाला जी, सत्यनारायण कविरत्न, और जनार्दन भट्ट जैसे लेखक थे । एक वर्ष में प्रताप और विद्यार्थी जी ने पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना एक विशिष्ट स्थान बना लिया था ।

प्रताप के अँगरेजी राज विरोधी लेखों और विचारों ने कानपुर के प्रशासन के कान खड़े कर दिए। एक रोचक प्रकरण प्रताप के कार्यालय पर पुलिस के छापे का इस प्रकार है । कानपुर के डी एस पी ने प्रताप कार्यालय पर छापा मारा। उनके साथ तत्कालीन कोतवाली कानपुर के इन चार्ज बाक़र अली थे। दोनों प्रताप कार्यालय पहुंचे और कार्यालय को पुलिस ने घेर लिया। प्रताप कार्यालय के संपादक के कक्ष में एक मेज़ और दो कुर्सी पडी रहती थी । एक कुर्सी संपादक के लिए और दूसरी आगंतुक के लिए। पर जब छापा पड़ा तो संपादक के कार्यालय में एक कुर्सी पर डी एस पी और दूसरी पर बाक़र अली बैठ गए। इस पर विद्यार्थी जी ने आपत्ति की और बाक़र अली को कुर्सी खाली करनी पडी। तब विद्यार्थी जी अपनी कुर्सी पर बैठे और छापे का सामना किया । हालांकि उस छापे में पुलिस को कुछ भी आपत्ति जनक नहीं मिला । प्रताप प्रेस और अखबार , विद्यार्थी जी के अतुलनीय बलिदान, श्रम और अदम्य साहस का प्रतिफल था । 1919 में उन्होंने इसे एक ट्रस्ट के रूप में बदल दिया।  इसके न्यासियों में मैथिलि शरण गुप्त, डॉ जवाहर लाल रोहतगी, फूल चंद और शिव नारायण मिश्र वैद्य और स्वयं विद्यार्थी जी थे । 

बनारसी दस चतुर्वेदी के शब्दों में , गणेश शंकर विद्यार्थी ने न केवल हिंदी पत्रकारिता में निर्भीक और सार्थक युग की शुरुआत की , बल्कि , उन्होंने निर्भीक पत्रकारों की एक बड़ी जमात भी खड़ी की। विद्यार्थी जी , मूलतः आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के शिष्य थे।  आचार्य उस समय की अत्यन्त प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका ' सरस्वती 'के सम्पादक थे। आचार्य द्विवेदी ने आधुनिक हिंदी साहित्य के साथ साथ हिंदी भाषा के खड़ी बोली के स्वरुप का निर्धारण किया। हिंदी साहित्य के इतिहास में उनका अप्रतिम योगदान है। उस समय जो अन्य प्रमुख लेखक पत्रकार , विद्यार्थी जी से जुड़े थे , उनमें से , बाल मुकुंद गुप्त , लक्ष्मी नारायण गर्दै , बाबूराव विष्णु पराड़कर , आदि थे।  साथ ही , उनके सहयोगियों में से बनारसी दास चतुर्वेदी , वृंदावन लाल वर्मा , कृष्ण दत्त पालीवाल , बाल कृष्ण शर्मा नवीन , दशरथ प्रसाद द्विवेदी , माखन लाल चतुर्वेदी आदि अन्य अन्य विभूतियाँ भी थीं।  

1931 का साल देश के इतिहास में अत्यन्त उथल पुथल भरा रहा। इसी साल 27 फरवरी को , इलाहबाद में चन्द्रशेखर आज़ाद शहीद हुए। आज़ाद हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के संस्थापकों में से थे। भगत सिंह भी इसी संगठन के थे। इस संगठन को विद्यार्थी जी और प्रताप का खुला समर्थन था। उनका घर और कार्यालय ,  क्रांतिकारियों के गोपनीय गतिविधियों का केंद्र भी हुआ करता था। इसी साल 1931 को , 23 मार्च को , भगत सिंह , राजगुरु , और सुखदेव को लाहौर सेन्ट्रल जेल में फांसी पर लटका दिया गया था। अगर आप स्वाधीनता संग्राम की इतिहास यात्रा का अध्ययन करेंगे तो एक हैरान करने वाला रोचक तथ्य यह मिलेगा कि , जैसे जैसे आज़ादी की जंग तेज़ होती गयी , वैसे वैसे ही हिन्दू मुस्लिम वैमनस्य बढ़ता गया। अँगरेज़ 1857 के विप्लव का  प्रमुख विन्दु , कि दोनों धार्मिक समुदायों की एकता का वह प्रतिफल था , भूले नहीं थे। देश का साम्प्रदायिक वातावरण बिगड़ रहा था। उसी समय इलाहबाद में दंगा भड़का और उसका असर कानपुर तक आया। उसी समय कानपुर के चौबेगोला क्षेत्र में दंगा भड़क गया। विद्यार्थी जी बहुत लोकप्रिय थे और वे दोनों ही समुदायों में सामान रूप से सम्मानित भी थे। वे इस दंगे के बीच बचाव के लिए चौबेगोला गए और वहीं आज ही के दिन 25 मार्च को उनकी हत्या हो गयी।  उनका युद्ध अंग्रेज़ों के खिलाफ था। वे हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रबल पक्षधर भी थे। पर वे उसी पागलपन और उन्माद  शिकार हुए जिसके विरोध में वे आजीवन खड़े रहे। उनका शव तत्काल।  उन्हें उस समय गुमशुदा घोषित किया गया था। पर बाद में उनका शव बरामद हुआ था। उस समय उनकी उम्र चालीस वर्ष थी।  यह एक सपने का अंत था । 

गांधी जी ने उनके मृत्यु पर अपने पत्र यंग इंडिया में उनके दुखद निधन के बारे में जो लिखा वह इस प्रकार है ,
 "I do not know if the sacrifice of Mr. Ganesh Shankar Vidyarthi has gone in vain. His spirit always inspired me. I envy his sacrifice. Is it not shocking that this country has not produced another Ganesh Shankar? None after him came to fill the gap. Ganesh Shankar's Ahimsa was perfect Ahimsa. My Ahimsa will also be perfect if I could die similarly peacefully with axe blows on my head. I have always been dreaming of such a death, and I wish to treasure this dream. How noble that death will be,—a daggar attack on me from one side; an axe blow from another; a lathi wound administered from yet another direction and kicks and abuses from all sides and if in the midst of these I could rise to the occasion and remain non-violent and peaceful and could ask others to act and behave likewise, and finally I could die with cheer on my face and smile on my lips, then and then alone my Ahimsa will be perfect and true. I am hankering after such an opportunity and also wish Congressmen to remain in search of such an opportunity."

कानपुर में उस स्थान पर एक स्मारक है जहाँ वह शहीद हुए थे। इसके अतिरिक्त कानपुर मेडिकल कॉलेज का नाम और यहाँ के  स्थल फूल बाग़ का नाम गणेश शंकर विद्यार्थी के नाम है। 1962 में भारत सरकार ने उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया था और 1989 में उनके नाम पर पत्रकारिता में योगदान के लिए पुरस्कार की व्यवस्था की गयी है।  आज जब कि कॉरपोरेटीकरण की आंधी में कभी मिशन के रूप में प्रचलित पत्रकारिता , जब क्रोनी जर्नलिज़्म या गिरोहबंद पत्रकारिता में तब्दील हो रही है तो ऐसे हुतात्मा की याद आना स्वाभाविक है।
गणेश शंकर विद्यार्थी को विनम्र स्मरण !!

( विजय शंकर सिंह )

प्रवीण झा - रूस का इतिहास - दो (11)


             ( चित्र: रासपूतिन परिवार )

यह कहानी शुरू साइबेरिया से की थी, लेकिन रूस की इतिहास-यात्रा करते हुए अब जाकर साइबेरिया लौट सका हूँ। गाहे-बगाहे यह ज़िक्र किया कि साइबेरिया कुछ राजनैतिक कैदी भेजे गए। रूस के इस सबसे बड़े हिस्से की यही अहमियत थी, तो मैं और क्या लिखता? यहाँ कोई भी कुलीन रूसी रहना नहीं चाहता, और यह कई मामलों में एक बोझ ही था। अलास्का को तो ज़ार अलेक्सांद्र  द्वितीय ने अमेरिका को महज सात मिलियन डॉलर में बेच दिया। अगर वर्तमान समय के हिसाब से मूल्य सवा सौ मिलियन डॉलर भी मानें तो उतने में आइपीएल की एक टीम आती है।

साइबेरिया एक गरीब इलाका था, जहाँ धीरे-धीरे कुछ किसान आकर बस गए थे। कई लोगों ने न मॉस्को देखा था, न सेंट पीटर्सबर्ग। वे रूस में चल रही हलचल से बेखबर थे। कौन ज़ार आया, कौन गया, उन्हें कोई मतलब नहीं। ज़ार अलेक्सांद्र तृतीय ने जब साइबेरिया में रेलवे-लाइन बिछानी शुरू की, तो उन्हें अहसास हुआ कि उनके देश में इस तरह की भारी-भरकम मशीनें भी हैं। या शायद यह अहसास हुआ कि ये उनका देश भी है।

वे मध्ययुगीन या उससे भी पुरानी दुनिया में थे। वे अब भी भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र और चमत्कारी बाबाओं में विश्वास करते थे। यह बात शायद अब अजीब लगे, लेकिन यूरोप में उन्नीसवीं सदी तक ऐसे लोग थे जो किसी पहाड़ पर बने जादुई मठ तक मीलों चल कर जाते थे। उस मठ का कोई बनावटी इतिहास होता। जैसे साइबेरिया के अबालक स्थान पर एक पहाड़ी थी, जहाँ वर्जिन मैरी की कोई अवतार रहा करती थी। वहाँ दूर-दूर से मत्था टेकने लोग आते, और मन्नत माँगते। कोई बेटे की गुजारिश करता, कोई कर्ज से उबरने की, कोई रोग से मुक्ति की। इसी तरह साइबेरिया से तीर्थयात्रा पर कोई रूस तो कोई इस्तांबुल तक भी चल कर जाता, और लौट कर कहानियाँ सुनाता। 

ग्रेगरी रासपूतिन अपनी आधे से अधिक ज़िंदगी क्या कर रहे थे, यह कोई पक्के तौर से नहीं जानता। उनके जीवनीकार डगलस स्मिथ पूरे साइबेरिया में झख मार कर कुछ ख़ास हासिल नहीं कर सके। कम्युनिस्ट रूस में रासपूतिन के बचपन के विषय में अजीबोग़रीब क़िस्से चले। वह किसी भी हद तक गए। जैसे एक क़िस्सा है कि जब रासपूतिन का जन्म हो रहा था, तो उनके अति-कामुक पिता उसी वक्त रति-क्रिया करना चाहते थे। हद तो यह कि इस बात की गवाही देने के लिए भी लोग आ गए कि हाँ! ऐसा होते हुए उन्होंने देखा था!

एक क़िस्सा है कि ग्रेगरी गाँव के एक शराबी और लड़कीबाज व्यक्ति थे, जिनके शरीर से इतनी दुर्गंध आती कि कोई पुरुष आस-पास भी नहीं फटकता। लेकिन, लड़कियाँ उनके फक्कड़पन से आकर्षित रहती। अबालक के मठ के आस-पास भटकते हुए एक दिन उन्हें प्रस्कोया नामक युवती मिली, जो उनकी जीवन-संगिनी बन गयी। यह हिस्सा कई स्रोतों से सत्यापित है कि वह एक ऐसी पत्नी बनी, जो उनके बच्चों को पालती रही, और ग्रेगरी उनसे संपर्क में रह कर खर्चा-पानी भेजते रहे।

सबसे लोकप्रिय क़िस्सा यह है कि उन्होंने गाँव में किसी का घोड़ा चुरा लिया। जब पकड़े गए, तो गाँव वाले उन्हें मारने आ गए। उन्होंने यह स्वीकारा कि परिवार के पोषण के लिए घोड़ा चुराना आवश्यक था। उन्होंने ग्राम के मुखिया से विनती की, “मुझे आप यह सजा दीजिए कि मैं गाँव छोड़ कर तीर्थयात्रा पर चला जाऊँ और ईश्वर से अपने पापों का प्रायश्चित माँगूँ।"

यह क़िस्सा सच हो या न हो, यह रासपूतिन के जीवन का थीम बना। इसके अनुसार मनुष्य के लिए मुक्ति का सर्वश्रेष्ठ मार्ग है- प्रायश्चित, और प्रायश्चित के लिए नियमित पाप करना आवश्यक है।

रासपूतिन जंगलों और पर्वतों से गुजरते हुए, एक मठ से दूसरे मठ भटकते रहे। उन्होंने इन मठों में बाइबल कंठस्थ किया, लेकिन वहाँ के अनुशासन उन्हें रास नहीं आए। अंतत: उनका एक तरह के नव-ईसाई तांत्रिक कल्ट से परिचय हुआ, जहाँ मदिरा, मैथुन, माँस के माध्यम से ईश्वर प्राप्ति का मार्ग था। ऐसी परंपराएँ स्कैंडिनेविया से साइबेरिया तक लोकप्रिय रही हैं। आइसलैंड में मुझे प्रत्यक्ष दस्तावेज और वर्णन मिले, जो मैंने ‘भूतों के देश में’ पुस्तक में लिखे हैं। यह भारत की पंच ‘म’ कार (मद्य, मांस, मुद्रा, मत्स्य, मैथुन) वाममार्गी एवम् कौलिक तांत्रिक परंपराओं और बौद्ध हीनयान तांत्रिक परंपराओं से भी साम्य रखती है।

जब रासपूतिन तंत्र-मंत्र की दुनिया में चक्कर लगाने निकले, उस दौरान 1894 में ज़ार अलेक्सांद्र तृतीय की मृत्यु हो गयी। युवराज निकोलस इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया की सबसे प्रिय नातिन अलेक्ज़ाड्रा से सगाई कर रूस लौटे थे। ज़ारीना अलेक्जांड्रा और ज़ार निकोलस को विवाह के तोहफ़े में जिस रूस की गद्दी मिली, वह बारूद का ढेर थी। उनके बाद कभी कोई ज़ार उस गद्दी पर नहीं बैठ सका। 
(क्रमशः)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास - दो (10)
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Monday 25 October 2021

शंभूनाथ शुक्ल - कोस कोस का पानी (27B) झाँसी से चल कर गाँव तक!

ट्रेन के झाँसी पहुँचते ही आउटर सिग्नल पर ब्लैक आउट हो गया। चारों तरफ़ घुप अँधेरा घिर गया। ट्रेन की हेड-लाइट बंद कर दी गई। मुझे टीटी ने कहा, यहीं उतर लो और चले जाओ। मैं सँभाल कर अपने डिब्बे से उतरा। लेकिन मैंने पाया कि तमाम और स्त्री-पुरुष तथा बच्चे उतरे। वे सब अपने गंतव्य की तरफ़ चल दिए। मैं भी उनके पीछे-पीछे चल दिया। काफ़ी दूर तक रेल लाइन के किनारे चलते रहे, फिर लोग एक दिशा की तरफ़ मुड़े। शुक्र था कि रात चाँदनी थी इसलिए नदी, नाले दिख रहे थे। अब हम शहर में थे। मेरे सामने समस्या थी, कि कहाँ जाऊँ? बस अड्डे पर आप बिना टिकट सफ़र कर नहीं सकते। सिर्फ़ ट्रेन ही मुफ़्त यात्रा करा सकती है। इसलिए मैंने स्टेशन का रास्ता पूछा और बतायी गई उस दिशा की तरफ़ बढ़ने लगा। 

ब्लैक आउट आधा घंटे का था और फिर रोशनी से शहर जगमगाने लगा। पौन घंटे में मैं स्टेशन पहुँच गया। कानपुर जाने वाली ट्रेन पता की। मालूम पड़ा कि रात 12 बजे एक फ़ास्ट पैसेंजर जाएगी। वह गाड़ी यहीं से बनती थी। इसलिए एक सन्नाटे वाले प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी भी थी। मैं जा कर उसमें बैठ गया। दो-तीन हमउम्र लड़के और बैठे थे। मैंने उनसे कहा, कि मेरे पास टिकट नहीं हैं और न पैसे हैं। मुझे कानपुर तक जाना है, कोई रास्ता बताओ। उन्होंने कहा, कि इस कोच में टीटी आएगा तो उतार देगा। तुम आगे एक डिब्बे में चले जाओ, वहाँ टीटी तथा अन्य स्टाफ़ के लोग होंगे। टीटी और रेलवे वालों के परिचित उसी में सफ़र करते हैं। उसमें कोई टिकट नहीं माँगता। कोई पूछे भी तो कोई भी नाम बता देना कि उनके भाई हैं, जैसे तिवारी जी के या सिंह साहब के अथवा श्रीवास्तव जी के। मैं उस बताए गए कोच में जा कर बैठ गया। बर्थ भी ख़ाली। एक अधेड़ सज्जन और बैठे थे। बातचीत होने लगी तो उन्होंने बताया कि वे कानपुर जा रहे हैं। मैंने कहाँ मैं भी। संयोग ऐसा कि वे गोविंद नगर सी ब्लॉक के थे मैं छह ब्लॉक का। रात साढ़े नौ के क़रीब उन्होंने अपने थैले से एक पोटली निकाली। इसमें भोजन था। देसी घी की पूरियाँ और उबले आलू की तली हुई सब्ज़ी। भोजन की महक मुझे भी विचलित करने लगी। लगा, जैसे सुगंध ही नहीं भोजन भी नाक में घुसा जा रहा है। एक बार इच्छा हुई कि काश वे मुझसे भी पूछें और उन्होंने जैसे मेरे मन की बात पढ़ ली। बोले, खाइए!

अब मध्यवर्गी ब्राह्मण संस्कार पहले तो मना किया लेकिन जैसे ही उन्होंने दोबारा कहा, मैं उनके दस्तरख़ान पर बैठ गया। अवस्थी जी अपने बिजिनेस के काम से झाँसी आए थे। टीकम गढ़ के पास उनकी बहन भी रहती थी। बहन के घर से ढेर सारी पूरियाँ बाँध दी गई थीं। वे पूरियाँ, आलू की सब्ज़ी और अचार इतना दिव्य लगा कि वर्णन नहीं किया जा सकता। इसके बाद वे ऊपर की सीट पर जा कर सो गए। गाड़ी चली किंतु मेरी आँखों में नींद कहाँ! घर जा कर क्या बताऊँगा? यह सवाल बार-बार परेशान कर रहा था। इसी चिंता-फ़िक्र में नींद आई और जब खुली तब ट्रेन झाँसी के बाद चिरगाँव, मोंठ, उरई, कालपी पार कर पुखरायाँ स्टेशन पर खड़ी थी। अब कानपुर अधिक दूर नहीं था। मुझे फ़ौरन कोई फ़ैसला करना था। मैंने तय किया कि मैं अपने गांव चला जाऊँ। वहाँ दादी से डाँट-डपट नहीं पड़ेगी। जैसे ही मलासा, लालगंज पार कर ट्रेन पामाँ रुकी। मैं उतर गया। यहाँ से गाँव क़रीब 15 किमी था। सुबह के साढ़े चार बज रहे थे। प्लेटफ़ॉर्म पर अकेली सवारी मैं। उतर कर चारों तरफ़ देखा। एक काला कोट मेरी तरफ़ बढ़ा आ रहा था। मैं समझ गया स्टेशन मास्टर होगा और रात की घटना याद हो आई। मैं विपरीत दिशा में तेज़ी से बढ़ा और रेलिंग फाँद कर उस तरफ़ हो गया। लेकिन काला कोट यहाँ भी पहुँच गया। मैं दूसरी तरफ़ मुँह कर पेशाब करने के बहाने खड़ा हो गया। दो-तीन मिनट बाद पलटा तो पाया कि वह मेरे पलटने का इंतज़ार कर रहा है। उसने टिकट माँगी, मैंने कहा नहीं है। वह अपने कमरे में ले आया। यहाँ तीन चार लोग बैठे थे। एक दरोग़ा जी बरामदे में बैठे अलाव ताप रहे थे। 

स्टेशन मास्टर ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी और मैंने जवाब भी मनगढ़ंत दिए। मसलन मैंने कहा कि मैं स्टूडेंट हूँ और पुखरायाँ में पढ़ता हूँ। पैसे ख़त्म हो गए, लेने जा रहा हूँ। अब स्टेशन मास्टर ने लेक्चर देना शुरू किया, कि आजकल के लौंडे पहले तो सिनेमा देखते हैं, फिर डब्लू-टी ट्रेन में चलेंगे। अचानक वह बोला, अच्छा आईडी कार्ड दिखाओ। अब मैं फँस गया। मैंने कहा, लाया नहीं। वह कुछ बोलता, उसके पहले ही दरोग़ा जी बोले- अरे श्रीवास्तव जी, काहे लड़के को परेशान किए हो? फिर उन्होंने मेरा घर, गाँव पूछा और मैं बताता गया। उन्होंने कहा, अलाव तापो, अभी रात को कहाँ जाओगे। दरोग़ा जी गजनेर थाने के एसओ थे और उनकी फटफटिया भी वहीं खड़ी थी। उन्होंने चाय पिलाई और जब उजाला फूटने लगा तो बोले, चलो मेरे साथ मैं गजनेर तक छोड़ दूँगा। मुझे तो जाना ही है। गजनेर से मेरा गाँव चार किमी था और सुबह नौ बजे तक मैं गांव पहुँच गया। दादी खूब खुश हुईं।

© शंभूनाथ शुक्ल

कोस कोस का पानी (27A)
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प्रवीण झा - रूस का इतिहास - दो (10)



लेनिन जितने क्रांतिकारी मिज़ाज के थे, उतने ही ठंडे दिमाग के भी थे। वह स्कूल के दिनों से ही शतरंज के उस्ताद खिलाड़ी थे। जब उनके भाई को फाँसी हुई, वह ज़ार को गोली मारने नहीं निकल पड़े, बल्कि अपनी परीक्षा पूरी की। टॉप कर गोल्ड-मेडल जीता। उन्होंने मार्क्स से प्लेखानोव तक को पढ़ा, कहीं किसी बम बनाने वाले संगठन से नहीं जुड़े। उन से ज़ार को कम से कम उस वक्त कोई खतरा नहीं था। लेकिन, इतिहास जानता है कि उन्होंने फ़िल्मी अंदाज़ में बदला लिया। ज़ारशाही का न सिर्फ़ अंत किया, बल्कि ज़ार परिवार की सामूहिक हत्या भी की गयी। यह बदला उन्होंने पूरे तीन दशक बाद लिया, एक-एक चाल दिमाग से चल कर। 

उनका मशहूर वाक्य है, “कुछ दशक ऐसे होते हैं, जिसमें कुछ नहीं होता; कुछ हफ्ते ऐसे होते हैं, जिनमें वह हो जाता है जो दशकों में नहीं हुआ होता”

लेनिन एक कल्ट बने। अच्छे रूप में भी, बुरे रूप में भी। जहाँ एक तरफ़ भारतीय क्रांतिकारी भगत सिंह अपनी फाँसी के समय उनकी किताब पढ़ रहे थे, लेनिन-वादियों के विकृत हिंसक रूप भी समकालीन इतिहास ने देखे हैं।

क्या आज रूस लेनिन को भुला चुका है? क्या भुलाना मुमकिन है? आज भी मास्को के रेड स्क्वायर पर लेनिन की कब्र पर सैकड़ों की भीड़ उमड़ती है। स्तालिन की निंदा होती है, उनकी मूर्तियों को इज्जत नहीं मिलती, लेकिन लेनिन की ‘जीनियस’ छवि उनके निंदकों में भी है। यह ‘टॉप टू बॉटम’ तक है। मसलन वर्तमान राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन के दादा सिरीदोन क्रांति के दिनों में लेनिन के रसोइए थे। मुमकिन है कि पूतिन अपने चलने के अंदाज़ से लेकर अपनी नीतियों में लेनिन की ‘कोल्ड-ब्लडेड’ चालें अपनाते हों।

अपने अनुयायियों की तरह लेनिन ने कभी किसी फौजी जनरल की वेश-भूषा नहीं अपनायी। वह एक सौम्य व्यक्तित्व थे, लेकिन उनके दिमाग में जो पूरी प्लानिंग चल रही होती, वह सौम्य नहीं होती। वह प्रैक्टिकल रास्ता चुनने वाले व्यक्ति थे, जिसमें साम-दाम-दंड-भेद सभी शामिल थे। कार्ल मार्क्स के सिद्धांतों के विषय में भी उन्होंने कहा, “किसी भी क्रांति के लिए सिद्धांतों का होना ज़रूरी है, लेकिन यह ध्यान रहे कि वे सिर्फ सिद्धांत हैं, ईश्वर का लिखा पत्र नहीं होता है।”

मैं लेनिन के व्यक्तित्व को समझने के लिए एक बार उनके प्रकृति पर लिखे नोट्स पढ़ रहा था। मुझे यकीन नहीं हुआ कि एक हिंसक क्रांतिकारी छवि का यह व्यक्ति सैकड़ों पौधों के नाम जानता है। पहाड़ों और वादियों में घूमते हुए रुक कर एक-एक फूल को करीब से देखता है। कुछ पीछे लौटने पर दिखता है कि लगभग एक ही साथ लेनिन के पिता की मृत्यु और भाई को फाँसी हुई थी। कुछ ही दिन बाद विश्वविद्यालय से उन्हें गिरफ़्तार किया गया कि वह एक विरोध प्रदर्शन में शामिल थे, लेकिन वहाँ भी वह कोई नेता नहीं थे। वह सिर्फ़ उस भीड़ में मौजूद थे, और क्रांतिकारी के भाई होने की वजह से पकड़ लिए गए।

उन्होंने पुन: विश्वविद्यालय में अर्जी दी कि वह आगे पढ़ना चाहते हैं, लेकिन गृह मंत्रालय उन्हें एक खतरनाक आदमी मानती थी। उनकी माँ चाहती थी कि लेनिन क्रांति की दुनिया से दूर रहें और लेनिन भी उनकी बातें मान रहे थे। एक बार वह तनाव के दिनों में लगातार सिगरेट पीए जा रहे थे, तो उनकी माँ ने डाँट कर कहा, “तुम कुछ कमा तो रहे नहीं, ये सभी सिगरेट मेरे पैसों की उड़ा रहे हो।”

लेनिन ने वह सिगरेट बुझाया, और जीवन में कभी सिगरेट न पीने का निर्णय लिया। बल्कि, उन्होंने यह नियम बना लिया कि उनका कोई भी साथी कभी उनके सामने सिगरेट नहीं पीएगा।

उन्हीं की उम्र के एक और व्यक्ति उनके ठीक विपरीत थे। उनकी नाक से हमेशा धुआँ निकलता रहता और वह शराब में धुत्त रहते। जिस समय लेनिन अपने फार्म में उपन्यास ‘क्या करना चाहिए’ पढ़ रहे थे, उस समय वह व्यक्ति ऐसी हरकतें कर रहे थे जो क़तई नहीं करनी चाहिए। अगर लेनिन कल्ट फ़िगर बने, तो वह भी उतने ही कल्ट बने। रूस की कहानी अगर व्लादिमीर लेनिन के बिना पूरी नहीं हो सकती, तो ग्रिगरी रासपूतिन के बिना भी पूरी नहीं हो सकती।
(क्रमशः)

#rasputin #russia #history

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

रूस का इतिहास - दो (9)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/10/9_22.html 
#vss 

दिन पर दिन विवादित होता आर्यन खान ड्रग मामला / विजय शंकर सिंह


अब इस हाई प्रोफाइल मामले में जांच कर रहे नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो  के अधिकारी समीर वानखेड़े ने खुद के लिए कानूनी सुरक्षा की मांग की है। उन्होंने मुंबई पुलिस को 'Don't-Arrest-Me' का खत लिखा है। अपने को फंसाए जाने का डर जाहिर करते हुए उन्होंने कानूनी कार्रवाई से सुरक्षा मांगी है। इसके साथ ही, इस मामले में, एनसीबी की इस कार्यवाही पर शुरू से ही सन्देह जताने वाले, महाराष्ट्र सरकार के मंत्री, नवाब मलिक ने आज समीर वानखेड़े के जन्म प्रमाणपत्र को  ट्वीट किया है। एनडीटीवी की खबर के अनुसार,
"इसे लेकर समीर वानखेड़े ने कहा कि मुझे अपने जन्म प्रमाण पत्र को लेकर नवाब मलिक के एक ताजा ट्वीट के बारे में पता चला है. यह उन सभी चीजों को लाने का एक घटिया प्रयास है, जो इस सब से असंबंधित है। मेरी मां मुस्लिम थी तो क्या वह मेरी मृत मां को इस सब में लाना चाहते हैं? मेरी जाति और पृष्ठभूमि को सत्यापित करने के लिए वह, आप या कोई भी मेरे मूल स्थान पर जा सकता है और मेरे परदादा से मेरे वंश का सत्यापन कर सकता है, परन्तु उसे यह गंदगी इस तरह नहीं फैलानी चाहिए.  मैं यह सब कानूनी रूप से लड़ूंगा और अदालत के बाहर इस पर ज्यादा टिप्पणी नहीं करना चाहता।"

हुआ यह कि, आर्यन ड्रग केस में 24 अक्टूबर की शाम को एनसीबी के संयुक्त निदेशक समीर बानखेड़े ने मुंबई के पुलिस कमिश्नर को एक पत्र लिख कर कोई भी कानूनी कार्यवाही शुरू न करने का अनुरोध किया है। उन्होंने अपने पत्र में यह भी लिखा है कि, कुछ असरदार लोग उन्हें जेल भिजवाने की धमकी दे रहे हैं। उन्होंने किसी का नाम तो नही लिया है, पर उनका इशारा महाराष्ट्र सरकार के मंत्री और एनसीबी नेता नवाब मलिक की ओर है, जो इस मामले में शुरू से ही दिलचस्पी दिखाते रहे हैं और समीर बानखेड़े के ऊपर बॉलीवुड से वसूली का आरोप लगाते रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि समीर ने मालदीव और दुबई की यात्रा इसी उद्देश्य से की। हालांकि समीर बानखेड़े ने दुबई की किसी भी यात्रा से इनकार किया है और मालदीव की यात्रा को परिवार सहित छुट्टी मनाने की यात्रा बताया है। पर फिलहाल तो यह सब आरोप और सफाई है। जब तक इन सब मामलों की जांच न हो जाय तब तक कुछ भी कहना अटकलबाजी ही होगी। 

अचानक 24 अक्टूबर को दोपहर में टाइम्स नाउ पर आर्यन ड्रग मामले में एक खबर चलने लगी और उस खबर में ड्रग बरामदगी के सर्च मेमो के एक गवाह प्रभाकर सैल के एक हलफनामे का उल्लेख होने लगा। वह हलफनामा, आर्यन ड्रग केस की जांच को और भी संदेहास्पद बना देता है। प्रभाकर ने ही एनसीबी के जेडी समीर वानखेड़े पर, इस पूरे मामले में, वसूली के आरोप लगाए हैं। हलफनामा पूरे सोशल और नियमित मीडिया पर छाया रहा। क्रूज लाइनर ड्रग मामले में पंचनामे, जिसे, फर्द बरामदगी या सर्च मेमो कहते हैं, के एक गवाह प्रभाकर सेल ने केपी गोसावी (एनसीबी छापेमारी में एक निजी व्यक्ति जिसकी आर्यन खान के साथ तस्वीर वायरल हुई थी), जांच अधिकारी और एनसीबी मुंबई के जोनल डाइरेक्टर, के ऊपर, जबरन वसूली के चौंकाने वाले आरोप लगाए हैं। यह आरोप, एक नहलफनामे में संयुक्त निदेशक समीर वानखेड़े और अन्य के खिलाफ लगाए गए हैं। 

प्रभाकर ने यह भी कहा है कि वे, केपी गोसावी के निजी अंगरक्षक भी रहे हैं। प्रभाकर ने आरोप लगाया है कि, उन्हें एनसीबी कार्यालय में बुलाया गया था और समीर वानखेंडे ने इस ड्रग बरामदगी के मामले के पंचनामे यानी सर्च मेमो में, गवाह के रूप में हस्ताक्षर करने के लिए कहा था और उनसे, 10 कोरे कागजों पर हस्ताक्षर करा लिए गए। केपी गोसावी और प्रभाकर सेल, शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान के दोस्त अरबाज मर्चेंट से, हुयी ड्रग बरामदगी के दो फर्द बरामदगी के गवाह हैं।

प्रभाकर सेल ने अपने, हलफनामे में कहा है कि, 
" उसने गोसावी को सैम डिसूजा से, यह कहते हुए सुना कि "आप 25 करोड़ रुपये का बम लगाते हैं, 18 करोड़ रुपये में समझौता करते हैं क्योंकि हमें समीर वानखेड़े को 8 करोड़ देना है।"  यह घटना 2 और 3 अक्टूबर की दरम्यानी रात को गोसावी के एनसीबी कार्यालय छोड़ने के बाद हुयी बताई गयी है। 

प्रभकर सेल का कहना है कि 
" कुछ मिनट बाद उसने पूजा ददलानी (शाहरुख खान के मैनेजर) को केपी गोसावी से बात करते देखा।  उनका कहना है कि बाद में गोसावी ने उन्हें 50 लाख रुपये नकद लेने के लिए एक स्थान पर जाने के लिए कहा। वह कहता है कि उसने नकदी के दो बैग एकत्र किए और उसे गोसावी को सौंप दिया।"
आगे वह कहता है, 
"जब तक हम लोअर परेल पहुंचे (एनसीबी कार्यालय से) केपी गोसावी सैम से फोन पर बात कर रहे थे और कहा कि आपने 25 करोड़ का बम लगाया और 18 फाइनल में मिल गए क्योंकि हमें समीर वानखेड़े को 8 करोड़ देना है ...।  .कुछ मिनटों के बाद एक नीले रंग की मर्सिडीज मौके पर आई और मैंने देखा कि पूजा ददजानी (शाहरुख की मैनेजर) कार में आई थी। सैम, केपी गोसावी और पूजा ददलानी मर्सिडीज में बैठकर बात करने लगे। फिर हम सभी 15 मिनट के बाद चले गए ...  "
आगे हलफनामे में कहा गया है कि,
 "....हम वाशी पहुंचे और तुरंत केपी ने मुझे इनोवा कार लेने और इंडियाना होटल के पास तारदेव सिग्नल पर जाने और 50 लाख नकद लेने के लिए कहा।  मैं सुबह करीब 9:45 बजे उक्त स्थान पर पहुंचा, जहां एक सफेद रंग की कार नंबर 5102 आई और मुझे कैश से भरे 2 बैग दिए।  जिसे मैं वाशी को उनके घर ले गया और किरण गोसावी को दे दिया।"

प्रभकर ने आगे कहा कि 
" जब सैम ने गिना तो बैग में केवल 38 लाख रुपये थे।  सेल का कहना है कि गोसावी अब गायब है और "एनसीबी अधिकारी मुझे मार सकते हैं या गोसावी की तरह मेरा अपहरण कर सकते हैं ... जैसा कि बड़े मामलों में देखा जाता है, गवाहों को अक्सर मार दिया जाता है या ले जाया जाता है और इसलिए सच बताना चाहते हैं"।

हलफनामे में हुए सनसनीखेज खुलासे पर, एनसीबी के उप महानिदेशक ने एक प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से सूचित किया कि सेल के हलफनामे को "आगे की आवश्यक कार्रवाई" के लिए एनसीबी के महानिदेशक को भेज दिया गया है। जो प्रेस विज्ञप्ति जारी की गयी है, वह इस प्रकार है, 

" एनसीबी की मुंबई जोनल यूनिट के अपराध संख्या 94/2021 के गवाह श्री प्रभाकर सेल का एक हलफनामा सोशल मीडिया के माध्यम से मेरे संज्ञान में आया है।  उक्त हलफनामे में, श्री प्रभाकर ने 2 अक्टूबर 2021 को अपनी गतिविधियों के बारे में विवरण दिया है,  जिस दिन कि, उपरोक्त अपराध दर्ज किया गया था।

चूंकि वह मामले में गवाह है और जैसा कि मामला माननीय अदालत में है और विचाराधीन है, उन्हे सोशल मीडिया के बजाय माननीय अदालत में अपनी बात प्रस्तुत करने की आवश्यकता थी, अगर उसे कुछ कहना भी है तो।  इसके अलावा, हलफनामे में कुछ व्यक्तियों के खिलाफ सतर्कता संबंधी कुछ आरोप भी हैं जो श्री प्रभाकर द्वारा सुनी सुनाई बातों पर आधारित हैं।

हमारे जोनल डायरेक्टर, मुंबई जोनल यूनिट, श्री समीर वानखेड़े ने इन आरोपों का स्पष्ट रूप से खंडन किया है।  चूंकि हलफनामे की कुछ सामग्री सतर्कता मामलों से संबंधित है, इसलिए मैं शपथ पत्र महानिदेशक को भेज रहा हूं।  नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो और उनसे आगे की आवश्यक कार्रवाई के लिए अनुरोध किया गया है।"

घटना की पृष्ठभूमि इस प्रकार है। आर्यन खान को क्रूज ड्रग मामले में 3 अक्टूबर को गिरफ्तार किया गया था। पिछले बुधवार को मुंबई की एक सत्र अदालत ने उनकी जमानत अर्जी खारिज कर दी थी। हालांकि आर्यन से किसी ड्रग बरामदगी नहीं हुई थी और न ही उसके द्वारा ड्रग सेवन का कोई सबूत ही उपलब्ध था। अदालत ने पाया कि, 
" आर्यन खान को अपने दोस्त के साथ 6 ग्राम चरस की मौजूदगी के बारे में जानकारी थी कि वह प्रतिबंधित पदार्थ के "सचेत कब्जे" के बराबर है।"  
कोर्ट ने आगे कहा कि,
"उसके व्हाट्सएप चैट से प्रथम दृष्टया ड्रग्स की खरीद के लिए अवैध गतिविधियों में उसकी संलिप्तता का पता चलता है।" 
सत्र न्यायालय द्वारा जमानत खारिज किए जाने के बाद खान ने बंबई उच्च न्यायालय का में अपील की है, जहां 26 अक्टूबर को जमानत अर्जी पर सुनवाई होगी। 

यदि इस पूरे मामले की प्रोफेशनल छानबीन करें तो NCB के इस ऑपरेशन में कई ऐसी गलतियां हुयी हैं, जो या तो अनायास हुयी हैं या फिर जानबूझकर सायास की गयी हैं, यह तो, जांच के बाद ही पता चल सकेगा। अब कुछ विंदु देखें,
● हर बरामदगी में दो स्वतंत्र गवाह होते हैं। इस केस में भी हैं।
● इन दो गवाहों में,  एक केपी गोसावी है, जो एक निजी जासूस है और प्रभाकर सैल जो उक्त निजी जासूस का अंगरक्षक बताया जाता है। 
● गिरफ्तारी में आर्यन खान के पास से ड्रग की कोई बरामदगी नहीं है, जैसा की बताया जा रहा है, पर उसके मोबाइल के व्हाट्सएप चैट से एनसीबी को यह पता लगता है कि वह, इस ड्रग रैकेट में शामिल है।
● गिरफ्तारी के तुरंत बाद ही, आर्यन खान की एक तस्वीर, सोशल मीडिया पर वायरल होती है, जिंसमे केपी बसावी, आर्यन के साथ सेल्फी लेते हुए दिख रहा है। 
यहीं यह सवाल उठता है कि कस्टडी में वह गवाह इतना खुलकर सेल्फी कैसे ले रहा है और उसे सोशल मीडिया पर वायरल भी कर रहा है ? उसे इसकी अनुमति किसने दी?
● सर्च मेमो के गवाह का काम, बस यह तस्दीक करना होता है कि, जब बरामदगी या यह ऑपरेशन हो रहा था तो, वह मौके पर मौजूद था और जो भी वहां हुआ है वह उसका एक स्वतंत्र साक्षी है, और यही उसे अदालत में बताना है। पकड़े गए किसी मुल्जिम से पूछताछ करना और जांच की अन्य किसी भी कार्यवाही में भाग लेना, उसका काम नहीं है। 
एनसीबी को, उसे, ऐसा, नहीं करने देना चाहिए था।
● इसी प्रकार एक वीडियो भी वायरल है, जिसमें, वह आर्यन खान से किसी की बात एक मोबाइल फोन से करा रहा है। इसका मतलब यह है कि वह आर्यन की कस्टडी में, वहीं, बराबर बना रहा और गोसावी, आर्यन खान की पूछताछ के समय भी, न केवल मौजूद रहा, बल्कि उसने, पूछताछ में भी सक्रिय सहयोग दिया। गवाह को इतनी लिबर्टी क्यों दी गयी ? यहीं उस गवाह की स्वतंत्रता पर भी सवाल खड़ा होता है कि, कहीं वह एनसीबी का पेशेवर गवाह तो नहीं है ?
● इसी मामले में एक भाजपा नेता प्रदीप भानुशाली का भी नाम आ रहा है। प्रदीप भानुशाली को समीर वानखेड़े का करीबी भी बताया जा रहा है। ऐसा व्यक्ति, जो किसी पार्टी विशेष से जुड़ा हो, वह जब भी, किसी मामले में स्वतंत्र रूप से भी, दिखेगा तो, विवाद खड़ा होगा ही। क्या एनसीबी को इसका अंदाज़ा नहीं था ?
● अब इसी मामले का गवाह केपी गोसावी, गायब हो गया है और एक अन्य गवाह, प्रभाकर ने हलफनामा देकर कह दिया है कि उसने ₹25 करोड़ की वसूली की बात सुनी है और कुछ पैसे शाहरुख खान के सेक्रेटरी से, लिए भी गए हैं, और इसमे ₹8 करोड़ समीर बानखेड़े को मिलने है तो, हंगामा तो मचना ही था।

यह रेड किसी सामान्य पेशेवर क्रिमिनल को पकड़ने के लिये नही की जा रही थी कि, लोग उस पर कोई सवाल भी नहीं उठाते। यह रेड शाहरुख खान के बेटे और कुछ बड़े अमीरपुत्रो की क्रूज पार्टी पर, ड्रग की तलाश में की जा रही थी। अतः ऐसी महत्वपूर्ण रेड की चर्चा तो होनी ही थी। यदि एनसीबी ऐसे हंगामे का अंदाज़ नही लगा पायी थी तो, यह उंसकी कमी है। अब एक गवाह के गायब हो जाने, एक गवाह द्वारा, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के संयुक्त निदेशक पद के अधिकारी पर वसूली का आरोप लगाने, एक गवाह का एक राजनीतिक दल से जुड़े होने, आर्यन खान के पास से कोई ड्रग बरामद न होने से, अब इस पर एनसीबी खुद ही विवादों के घेरे में आ गयी है। ब्यूरो को, रेड के समय, गवाह का चयन करते समय और मुल्ज़िम से, पूछताछ के वक़्त, जो सतर्कता बरतनी चाहिए थी, वह नही बरती गयी।

( विजय शंकर सिंह )