“बंगाली बहुत ही सांस्कृतिक और मधुर वाणी बोलने वाले लोग हैं। वह उन मधुमक्खियों की तरह हैं जो दुनिया को शहद की मिठास देते हैं। लेकिन उनके इस शांत छत्ते को अगर छेड़ा जाए, तो बिना अपनी जान की परवाह किए एक साथ दुश्मन पर टूट पड़ते हैं।”
- मेजर जनरल हकीम अहमद कुरैशी, पाकिस्तान सेना
पाकिस्तान का इतिहास लिखते हुए समस्या यह भी है कि जब सब्जी बैगन की बन रही हो, तो उसमें आलू डॉमिनेट न कर जाए, अन्यथा वह आलू-बैगन की सब्जी कहलाएगी। मुझे भारत या अन्य देशों को केंद्र से बाहर रखना होगा। उनकी भूमिका उतनी ही होगी जितनी भारत के इतिहास में अन्य देशों की होती है।
नेताजी सुभाष चंद्र बोस की नातिन शर्मिला बोस ने 1971 के युद्ध पर एक विवादित लेकिन तथ्यपरक किताब लिखी है, जिसमें उन्होंने शेख मुजीब और याह्या ख़ान को पूर्वी पाकिस्तान के नरसंहार में लगभग बराबर का भागी बनाया है। वहीं श्रीनाथ राघवन ने अपनी किताब में इसे एक वैश्विक (ग्लोबल) घटना और शीत-युद्ध का हिस्सा बताया है।
सनद रहे कि दोनों में भारत की भूमिका इंदिरा गांधी के ‘माँ दुर्गा’ प्रोपोगैंडा से भिन्न है, जो अधिकांश भारतीय स्कूली किताबों से लेकर भारतीय इतिहास किताबों में पढ़ते रहे हैं। भारत एक सूत्रधार तो है ही, पर इसका मुख्य कारक भारत की आंतरिक सुरक्षा थी, शक्ति-प्रदर्शन कर पाकिस्तान को हराना या जमीन हड़पना नहीं। हालाँकि, आंतरिक सुरक्षा की समस्या पूरी तरह हल नहीं हुई (बल्कि बढ़ ही गयी), इंदिरा गांधी को ज़रूर स्थायी गद्दी मिल गयी। इस नोट के साथ पाकिस्तान पर लौटता हूँ।
शेख मुजीब को जब याह्या ख़ान ने पाकिस्तान आकर बातचीत करने कहा, तो उन्होंने जवाब दिया, “अगर मुझसे बात करनी है तो ढाका आइए”
भुट्टो और याह्या ख़ान ढाका आए। वहाँ शेख मुजीब और भुट्टो एक-दूसरे से मुँह फेर कर तिरछे बैठ गए।
याह्या ख़ान ने कुछ डाँट कर कहा, “आप तो नयी-नयी निकाह वाले मियाँ-बीवी जैसे बैठ गए हैं। दोनों बात कर मामला सुलझाएँ। मैं तख्त से हट कर ज़म्हूरियत बहाल करना चाहता हूँ।”
शेख मुजीब ने कहा, “हमें अपनी आज़ादी चाहिए। मुझे पाकिस्तान के वजीर-ए-आज़म बनने का कोई शौक नहीं।”
उसके बाद उन्होंने ढाका में वह भाषण दिया, जिसे अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने गांधीवादी आंदोलन कहा। हालांकि वह भाषण और उसके बाद की घटनाएँ कहीं से गांधीवादी नहीं थी।
शेख़ मुजीब बुलंद आवाज में कहते हैं, “प्रत्येक घरे घरे दुर्गा गोरे तोलो। तोमादार जेइ आछे, ताइ दियेर शत्रुर मुकाबला कोरते होबे।”
(हर घर में दुर्गा हो, और तुम्हारे पास जो हो, उसी से शत्रु का मुकाबला करो)
शत्रु यानी उनका देश? पाकिस्तान का झंडा और जिन्ना के पुतले सामूहिक रूप से जलाए गए। वहाँ का नारा था, ‘बीर बंगाली अस्त्र धरो, बांग्लादेश स्वाधीन करो’।
हज़ारों लोग लाठियाँ लेकर सड़क पर निकल चुके थे, और तोड़-फोड़ कर रहे थे। पाकिस्तान की सरकारी व्यवस्था ठप्प पड़ गयी, और उन पर शेख मुजीब के लोगों का क़ब्ज़ा हो गया। एक वाकया है कि चित्तगोंग से ढाका की तरफ ट्रेन तब तक नहीं चली, जब तक शेख मुजीब की तरफ से चलाने को नहीं कहा गया।
इस बंगाली राष्ट्रवाद में सबसे बुरा हाल उन बिहार- उत्तर प्रदेश से आए मुसलमानों का था, जो विभाजन के वक्त अपना घर-बार छोड़ कर पाकिस्तान आ गए थे। अब यह पाकिस्तान रहा ही नहीं, और वे सभी गद्दार कहे जाने लगे। जबकि पारिभाषिक रूप से देश के ख़िलाफ़ विद्रोह तो बंगाल के लोग कर रहे थे।
पाकिस्तान के पास ताक़त नहीं थी कि वह कुछ कर सके। उसकी अपनी सेना में विद्रोह हो चुका था, और जिया-उर-रहमान के नेतृत्व में बंगाली फ़ौजियों ने अपनी सेना बना ली थी।
उस वक्त जब अमरीकी दूतावास पर बम फेंका गया तो हेनरी किसिंगर को रिचर्ड निक्सन ने पूछा, “वहाँ कोई शासन नहीं बचा क्या?” (Can anybody run the god-damn place?)
किसिंगर ने कहा, “इन बंगालियों का इतिहास ही है कि इन पर शासन करना कठिन है” (Bengalis have been difficult to run through out history)
निक्सन ने कहा, “भारतीय भी नहीं कर पा रहे” (Indians can’t govern them either)
अमरीका के ग्रीन सिग्नल पर दमन करने बलूचिस्तान के कसाई (Butcher of Baluch) कहे जाने वाले टिक्का ख़ान को ढाका भेजा गया। उसके बाद जो हुआ, वह अकल्पनीय था।
(क्रमशः)
प्रवीण झा
( Praveen Jha )
पाकिस्तान का इतिहास - अध्याय - 15.
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/15_29.html
#vss
No comments:
Post a Comment