ऋग्वेद की रहस्यमयता का प्रधान कारण है इसकी भाषा। इस भाषा को समझने के लिए हमारे प्राचीन वैयाकरण 1000 साल तक प्रयत्न करते रहे, परंतुर इसके मर्म को नहीं समझ पाए। आधुनिक काल में, तुलनात्मक भाषा विज्ञान, भाषा के इतिहास को समझने में बहुत सहायक हुआ, पर तुलनात्मक विज्ञानियों को भी यह भाषा इसलिए समझ में नहीं आई क्योंकि हमारे प्राचीन आचार्यों की तरह वे भी मानते थे, कि भारत की आर्य भाषाएँ जिनमें संस्कृत भी शामिल है, वैदिक भाषा से निकली हैं, कोढ़ में खाज यह कि वे यह भी मानते या मनवाना चाहते थे कि वैदिक भाषा अपने को आर्य कहने वाले लोगों के साथ भारत में बाहर से आई थी। अपने दुराग्रह के कारण लगभग ढाई सौ साल के बाद भी वे न तो क्लासिकी भाषाओं से पीछे की विकास रेखा को समझ सके, न ही यह समझने को तैयार हुए कि वैदिक का विकास भारत की बोलियों में से किसी से, दूसरी बोलियों के साथ मेल मिलाप करते हुए हुआ हो सकता है।
कुछ विलंब से यह बात समझ में आई भी कि वैदिक में तथाकथित द्रविड़ तथा मुंडारी भाषा के भी तत्व पाए जाते हैं, तो भी वे इसे भाषाई उपस्तर का चमत्कार मानते रहे। उनकी व्याख्या भाषा के विवेचन की अपेक्षा राजनीतिक सरोकारों से अधिक परिचालित थी, इसलिए वे उनकी नियामक भूमिका का सही आकलन करने में भी असमर्थ थे।
पाणिनि ऋग्वेद की भाषा को आर्ष या ऋषियों की भाषा कहते हैं। लोग पाणिनीय भाषा को लौकिक संस्कृत कहते हैं। कभी-कभी वैदिक और संस्कृत के लिए देववाणी का प्रयोग किया जाता है। भाषा के विषय में नासमझी का इससे अच्छा उदाहरण नहीं हो सकता।
वास्तविकता यह है कि वैदिक भाषा ऋषियों की भाषा नहीं थी। यह लौकिक भाषा थी। लौकिक संस्कृत लोक की भाषा कभी न रही, यह ब्राह्मणों की, और ब्राहमणों के उपयोग और अधिकारक्षेत्र के लिए, और जनसामान्य को इसकी पहुँच से दूर रखने के लिए, कठोर नियमों में कस कर, बनाई गई, और इस दृष्टि से, अलौकिक (भूसुरों) या केवल ब्राह्मणों के उपयोग की विशिष्ट भाषा (जीर्गन) है। यह सामान्य भाषा है ही नहीं। इसे बहुत श्रम से अर्जित करना होता है और उसके बाद भी बहुत कम लोग होते हैं जो इसे आपसी बोलचाल में प्रयोग में ला सकें।
इसके विपरीत वैदिक भाषा बोलचाल की भाषा थी। यह कृषि के आरंभ और विकास के क्रम में विकसित और आगे चलकर भू संपदा से लेकर संपदा के दूसरे रूपों पर एकाधिकार करने वालों की भाषा थी, इसलिए आर्थिक गतिविधियों की भाषा थी और इन गतिविधियों से जुड़ने वाले, दूसरी भाषाओं की पृष्ठभूमि से आने वाले, शिल्पियों और श्रमिकों के द्वारा प्रयत्न पूर्वक सीखी और बोली जाने वाली भाषा थी। भाषा के अधूरे ज्ञान के कारण उनके द्वारा किए जाने वाले अटपटे प्रयोगों के कारण और स्वामिवर्ग की उन पर निर्भरता के कारण उनकी अपनी भाषा के शब्दों और रूपों के प्रवेश के कारण, इसमें उस तरह की विविधता थी जो बोलचाल की भाषाओं में पाई जाती है। कहना होगा, यह स्वामी वर्ग और उसकी सेवा में लगे हुए शिल्पियों और श्रमिकों के पारस्परिक व्यवहार की भाषा थी और व्यापारिक गतिविधियों के विस्तार की आकांक्षाओं और अपनी सभ्यता के प्रसार की लगन के क्रम में इसी बोलचाल की भाषा का यूरोप पर्यंत समूचे क्षेत्र में विस्तार हुआ था। यदि यह बोलचाल की भाषा न होती तो यह विस्तार भी संभव न था।
जहां तक देव वाणी का प्रश्न है, ऋग्वेद में देववाणी शब्द नहीं मिलता। हम पीछे अनेक रूपों में यह रेखांकित कर आए हैं कि देव शब्द का प्रयोग उस जमात के लिए आरंभ हुआ था [1] जो कृषि उत्पादन की दिशा में आगे बढ़ा था। उसके आरंभिक चरण की भाषा बहुत विकसित न हो सकती थी, न ही थी। देववाणी का प्रयोग उसी बोली के लिए हुआ करता था, और देवयुग का प्रयोग उन्नत साधनों के प्रयोग के साथ की जाने वाली खेती से पहले के युग के लिए ही समीचीन है। उन्नत कृषि और गो-पालन के साथ मानव युग आरंभ होता है।
एक विचित्र बात यह है कि असाधारण विद्वत्ता के लोग जिसे अपनी व्याख्या के क्रम में जानते हैं उसे भी, अपने आग्रहों के कारण, मानते नहीं। पाणिनि को यह पता था कि बोलियां वैदिक भाषा से भी पुरानी हैं । वह वैदिक भाषा को बहुल, या बहुमिश्र मानते हैं, और इनमें से एक है विभाषा अर्थात बोली, और कुछ बोलियों से भी इतर, अर्थात् दूसरी या अपरिचित भाषाओं से लिया हुआ। इसकी व्याख्या भले हेमचंद्र में मिलती हो प्रयोग तो पाणिनि का है:
क्वचित् प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः क्वचिद् विभाषा क्वचिदन्यदेव । विधेर्विधानं बहुधा समीक्ष्य चतुर्विधं बाहुलकं वदन्ति ।[2]
इसे पश्चिम के आधुनिक विद्वानों ने भी पढ़ा और समझा होगा, भले उनका अनुगमन करने वाले भारतीय भाषाशास्त्रियों ने यह कष्ट न किया हो। इसके बाद भी यह समझने में क्विपर (kuiper) को लंबा समय लगा कि वैदिक की निर्मिति में अन्य (अन्यत एव) भारतीय भाषाओं का योगदान है, परंतु उनकी समझ में भी यह बात नहीं आई कि इसमें उन बोलियों (विभाषा) का भी योगदान है जिनको संस्कृत के विघटन या ह्रास से उत्पन्न सिद्ध किया जाता रहा है।
परंतु ये सभी तो वैदिक की दुरूहता से जुड़े प्रश्न हैं, हम वैदिक भाषा की जिस रहस्यमयता की बात कर रहे हैं, उस पर तो आज विचार करना संभव ही नहीं है, क्योंकि भूमिका में इतना समय लग गया कि विषय पर आ ही नहीं सकते या आएँ तो समय-सीमा, पाठकों की धैर्य-सीमा, और लेखक की थकान-सीमा को देखते हुए विषय के साथ न्याय नहीं किया जा सकता। आज भूमिका पक्ष ही सही।
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[1] सेदु होता सत्यतरो यजाति यथा देवानां जनिमानि वेद ।। 7.2.10
[2] हेमचन्द्र- कृतशब्दानुशासनवृत्तौ अष्टमाध्यायस्य चतुर्थः पादः ॥ (यथा च प्राकृतचन्द्रिकायाम् ।
भगवान सिंह
( Bhagwan Singh )
ऋग्वेद की रहस्यमयता (8)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/8.html
#vss
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