Friday 30 July 2021

अशोक पांडेय - अद्भुत जिजीविषा के प्रतीक मानुएल अल्बा ओलीवारेस.

आठ भाई-बहनों में उसका नम्बर तीसरा था. बचपन के शुरू से उसकी आंखों को मायोपिया का रोग लग गया. 1986 के मार्च-अप्रैल की बात है. वह 11 साल का था जब एक स्कूल पिकनिक में स्विमिंग पूल में तैरते हुए उसकी आँखों में क्लोरीन का पानी घुस गया और आंखों की हालत अचानक बिगड़ना शुरू हुई. एक के बाद एक सर्जरी करनी पड़ीं. इलाज के खर्च के लिए पिता को अपनी जायदाद तक बेचनी पड़ी लेकिन कुछ बना नहीं और उसी साल गर्मियों का अंत आते न आते वह पूरी तरह अंधा हो गया.

फुटबॉल के दीवाने, कोलम्बिया के एक छोटे से नगर में रहने वाले इस लड़के मानुएल अल्बा ओलीवारेस की इस त्रासद कथा में इकलौती चमकदार चीज यह थी कि वह उस साल मेक्सिको में हुए फुटबॉल वर्ल्ड कप के सारे मैच रेडियो पर सुन पाया. उरुग्वे के मशहूर कमेंटेटर-पत्रकार विक्टर मोरालेस की लरजती आवाज़ में इंग्लैण्ड-अर्जेंटीना के उस क्वार्टर फाइनल की वह कमेंट्री की याद उसे हमेशा रह जानी थी जब मारादोना ने गोल ऑफ द सेंचुरी किया था – 

“गेंद मारादोना के पास है, दो खिलाड़ी उसे मार्क किये हुए हैं. दाईं तरफ से मारादोना ने गेंद अपने कब्जे में ले ली है. विश्व फुटबॉल का यह जीनियस अब तीसरे खिलाड़ी को पार कर बुरुचागा को पास देने वाला है. मारादोना! हमेशा मारादोना! जीनियस! जीनियस! टा...टा...टा...टा...टा...टा ... गोल! गोssssssssल! हे ईश्वर, मैं रोना चाहता हूँ. फुटबॉल जिंदाबाद! गोssssssssल! दिएगो! दिएगो मारादोना! माफ़ करें ... मैं इस गोल के लिए रो रहा हूं. तुम कौन से ग्रह से आये हो आये हो मारादोना जो इतने सारे अंग्रेज खिलाड़ियों को सड़क पर छोड़ आए? दिएगो! दिएगो मारादोना! दिएगो आर्मान्दो मारादोना! शुक्रिया भगवान फुटबॉल के लिए! शुक्रिया दिएगो मारादोना और इन आंसुओं के लिए! अर्जेन्टीना 2-इंग्लैण्ड 1.”

इसके तीन माह बाद उसके पिता कहीं से अपने बीमार बेटे के लिए दिएगो मारादोना के उस जादुई गोल का वीडियो कैसेट लेकर आए. छह खिलाड़ियों को अकेले छका कर किया गया मारादोना का वह असंभव गोल तीन चार बार रिवाइंड करके देखा जा चुका था जब मानुएल की आंखों में भयंकर दर्द उठा. डाक्टर के पास ले जा कर भी कोई फायदा न हुआ. टीवी पर देखे गए मारादोना के गोल ऑफ द सेंचुरी के विजुअल्स उसके द्वारा इस संसार में देखी गई अंतिम छवियां बन कर रह गए. उसके बाद उसके सामने सब कुछ काला पड़ चुका था.

शुरू के कुछ हफ्ते सदमे और असहायता के थे. फिर मानुएल के दोस्तों ने प्रस्ताव दिया कि वे एक फुटबॉल टीम बनाएंगे जिसका कप्तान मानुएल होगा. पहले की तरह उसे गोलकीपर का काम दिया गया. तीन साल बाद इन लड़कों ने मानुएल के नाम पर अपना फुटबॉल क्लब बनाया – एल नासियोनाल दे मानुआलीतो. 

अपनी स्मृति में मानुएल ने मारादोना के उस गोल को लाखों बार जिया है और जब वे उनके उस गोल की कमेंट्री सुनाते हैं तो एक बार को विक्टर मोरालेस भी उन्नीस लगने लगते हैं. विख्यात लातिन लेखक एदुआर्दो गालेआनो ने उनकी दास्तान को अपनी कल्ट किताब ‘चिल्ड्रेन ऑफ़ डेज़’ में जगह दी और दुनिया भर के बड़े अखबारों ने उनके इन्टरव्यू किये.

1989 में एल नासियोनाल दे मानुआलीतो की स्थापना से लेकर आज तक मानुएल अल्बा ओलीवारेस अपने क्लब के कोच और मैनेजर हैं और रेडियो पर कमेंट्री करते हैं. 

फुटबॉल और मारादोना की बातों से समय बचता है तो वे कोर्ट-कचहरी में न्यायाधीशों के आगे बहस किया करते हैं. अपने शहर के अच्छे वकीलों में उनकी गिनती है. उनका अपना म्यूजिक बैंड भी है जिसमें वे खुद कई तरह के साज बजा लेते हैं.

मानुएल की दास्तान निराशा, बीमारी और मृत्यु के ऊपर जिजीविषा और मित्रता की विजय की दास्तान है.

अशोक पांडेय
© Ashok pandey
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प्रवीण झा - स्कूली इतिहास (19)

“हमने एक किताब में पढ़ा कि आर्यों के आक्रमण से हड़प्पा  -मोहनजोदड़ो की सभ्यता खत्म हुई?”

“पता नहीं, उस किताब ने यह बात कहाँ से पढ़ी। जब हड़प्पा का लिखा कोई पढ़ नहीं पाया, जब आर्यों का कोई आनुवंशिक (जेनेटिक) प्रमाण स्पष्ट नहीं है, जब ऐसे किसी युद्ध के प्रमाण नहीं मिले, तो यह बात नहीं कही जा सकती”

“मैंने पढ़ा है कि ऐसा ऋग्वेद में लिखा है”

“शायद आपने यह पढ़ा होगा कि ऋग्वेद में जिन युद्धों का जिक्र है, वह हड़प्पा से जुड़ी हो सकती है। ऐसे कयास इतिहासकार अवश्य लगाते रहे हैं, मगर आज के समय वैज्ञानिक इतिहास लिखा जाता है। पहले तो यही सिद्ध करना होगा कि ऋग्वेद कब लिखा गया, उसकी पहली प्रति कहाँ है, और उसमें लिखी घटनाओं की वैज्ञानिक मैपिंग करनी होगी।”

“मगर वह तो लिखी ही नहीं गयी। वह तो बोल कर आगे बढ़ाई गयी”

“यह भी एक बात है जो भारत और चीन की सभ्यता में मिलती है। कई कथाएँ सिर्फ सुन कर पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ी है। जैसे चीन में भी सभ्यता विकसित हो रही थी, मगर तांग वंश से पहले के जमीनी प्रमाण ढूँढने कठिन है। वहाँ भी श्रुति परंपरा (बोल-सुन कर) से ही बात आगे बढ़ी।”

“यानी अगर वे बेबीलोन या मिस्र की तरह लिख देते, और उसकी डेटिंग हो जाती, तो हम मान लेते”

“हाँ। लिखना एक पक्ष है। लेकिन, मैंने पहले कहा है कि संभव है पत्थर पर नहीं कागज या भोजपत्र पर लिखा गया हो जो गुम हो गया हो। चीन में भी कागज बना लिए गए थे। भारत में जब हड़प्पा जैसी सभ्यता थी, तो यह मानना कठिन है कि सिर्फ बोल-सुन कर ही कार्य होता हो।”

“आपने लिखा कि हड़प्पा में धान के खेत थे, जबकि चावल की खोज तो चीन में हुई”

“मैंने पहले लिखा है कि जंगली चावल मनुष्य के पहले से थे। मनुष्य ने इसे खोज कर खेती करनी शुरू की। इसके प्रमाण हड़प्पा में तो मिले ही, उड़ीसा के जंगलों में भी मिले। अब क्रेडिट भले ही चीन ले ले क्योंकि उनके पास बृहत रूप से इस खेती के प्रमाण हैं।”

“क्या हड़प्पा में देवी-देवता थे? वे किस धर्म के थे?”

“धर्म का कंसेप्ट तो शायद न आया हो, सभ्यताओं ने कुछ देवता अवश्य बना लिए होंगे। हड़प्पा में मिली आकृतियों से लोग अपने-अपने अनुमान लगाते रहे हैं कि वह किसकी पूजा करते थे या आज के किस देवता से आकृति मिलती है। अन्य सभ्यताओं की तरह वहाँ भी ऐसी मान्यताएँ अवश्य थी।”

“इस सभ्यता को क्या कहा जाए? मैंने सिंधु-सरस्वती सभ्यता भी पढ़ा है”

“यह सच है कि इसका विस्तार आज के पाकिस्तान से लेकर भारतीय पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात तक था। इस हिसाब से सिंधु की शाखाओं के अतिरिक्त आज की घग्गर-हकर नदियों के किनारे भी अच्छी-खासी जनसंख्या थी। यह अनुमान लगते हैं कि यहीं सरस्वती नदी थी, और इस कारण सिंधु और सरस्वती नाम जोड़ दिए जाते हैं।”

“तो हड़प्पा के बाद आर्य आए। वे कब आए, कहाँ से आए?आए भी या नहीं?”

“आपकी टेक्स्टबुक क्या कहती है? पढ़ते समय यह ध्यान रखें कि जब तक कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं मिल जाता, तब तक हर कयास को कयास ही मानें। किसी बात को मानने या सिद्ध करने की यह वजह न हो कि आप ऐसा चाहते हैं। पहले इस प्रश्न पर ही बात करेंगे- ‘आए भी या नहीं? आर्य थे भी या नहीं?’। 

धन्यवाद ! 
( प्रथम सीरीज समाप्त )

(Yesterday’s answer: C. Dancing girl)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

स्कूली इतिहास (18)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/07/18.html 
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प्रवीण झा - स्कूली इतिहास (18)


इतिहास का असली आनंद तभी है जब आप ‘टाइम मशीन’ से उस समय में लौट जाएँ। हमने एक किताब पढ़ी थी ‘मुर्दों का टीला’, जो आप भी पढ़ सकते हैं। मैं वह कहानी यहाँ नहीं कह रहा। यूँ ही कुछ सुनाता हूँ, जो वहाँ खुदाई में मिली चीजों पर आधारित है। आज से चार हज़ार वर्ष पूर्व के एक परिवार की कल्पना कीजिए।

मान लीजिए कि एक लड़का था विनोद। वह हड़प्पा की एक कॉलोनी में रहता था। उसकी कॉलोनी एक बड़े कैम्पस में थी, जिसमें एक ही डिज़ाइन और एक ही रंग के पक्के ईंट के बने कई घर थे। हर घर में अटैच्ड टॉयलेट था, एक ठीक-ठाक साइज का हॉल, रसोई में चूल्हा और तंदूर। कॉलोनी के मध्य एक क्रीड़ांगन, एक सामुदायिक हॉल और एक विशाल सीढ़ीदार स्विमिंग पूल था। घरों की कतारों के बीच से एक पक्की सड़क निकल कर मुख्य सड़क में मिल जाती थी। सड़क के किनारे ढकी हुई नालियाँ थी, जो नदी में जाकर गिरती थी। 

विनोद के पिता व्यापारी थे। अक्सर टूर पर रहते। वह दक्षिण में लोथल से एक नाव पकड़ते और बेबीलोन निकल जाते। वहाँ जाकर टेराकोटा की मूर्तियाँ और सीपियाँ बेच कर आते। उनकी धौलावीर के बाज़ार में एक अपनी दुकान भी थी, जो कई पंक्तिबद्ध दुकानों के मध्य थी। उस बाज़ार में ताँबे के बर्तन, टेराकोटा के खिलौने, सीपियों के हार, खेती-बाड़ी के औजार हर तरह की चीजें मिलती। कुछ दूर एक किला था, और एक बाँध था, जहाँ पानी इकट्ठा किया जाता था। 

विनोद का स्कूल? शायद वह वहीं हड़प्पा में रहा हो। मगर वहाँ किस भाषा में पढ़ाई होती थी, यह किसी को ठीक-ठीक मालूम नहीं। वह कुछ चित्र बना कर लिखते थे। जैसे मछली बना दी, त्रिशूल बना दिया, कोई रेखा खींच दी। उस भाषा को आज तक कोई ढंग से पढ़ नहीं पाया।

उनके परिवार के कुछ लोग पास के शहर मोहनजोदड़ो में रहते थे, जहाँ दोमंजिले मकान थे। वहाँ जब वे एक बैलगाड़ी में बैठ कर जाते, तो रास्ते में कई गाँव दिखते जहाँ मिट्टी के बने झोपड़ों में किसान परिवार के लोग रहते। उन गाँवों में कई खेत और बागान नज़र आते। चावल, गेंहू, कपास और जौ के खेत। किसान बैल से खेत जोत रहे होते, और समृद्ध किसानों के दलान पर एक हाथी भी बंधा होता। खेतों के बीच एक नहर घग्गर नदी से निकल कर आती। 

मोहनजोदड़ो एक महानगर था, जहाँ के माहौल कुछ रंगीन थे। वहाँ संगीत के ऑडिटोरियम थे, जहाँ नर्तकियाँ नृत्य करती। वे अपनी पूरी बाँह में चूड़ियाँ पहनती, और खूब शृंगार करती। उनके गले में भाँति-भाँति के हार होते। वहीं शायद एक राज-दरबार भी था, जहाँ एक दाढ़ी वाले राजा या पुरोहित रहते थे। शहर के मध्य एक ऊँचा मिट्टी का टीला था, जो उस शहर के सौंदर्य में चार चाँद लगा देता। उस टीले पर चढ़ कर विनोद पूरे शहर पर एक विहंग-दृष्टि (बर्ड्स आइ-व्यू) डालता। मगर न जाने क्या हुआ कि यह पूरा शहर और इसके साथ अन्य सभी शहर तबाह हो गए। सभी लोग किसी युद्ध या आपदा में मारे गए, भाग गए या कहीं खो गए। यह उस समय कई मामलों में दुनिया की सबसे विकसित सभ्यता थी, जिसके विषय में आज की दुनिया सबसे कम जान सकी।

इस शहर का नाम उस समय मोहनजोदड़ो नहीं था। यह नाम तो उनके बाद के लोगों ने दिया। मोहनजोदड़ो नाम का अर्थ है- मुर्दों का टीला।
( क्रमशः)

John Marshall was one of the first to discover Harappa and Mohanja-Daro sites of Indus Valley civilization. He found a bronze statue of a lady. What did he name her?

A. Yakshini
B. The nautch girl
C. The dancing girl
D. Lady with bangles

(Yesterday’s answer: B. Bearded man’s bust was found in Mohanja-Daro)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

स्कूली इतिहास (17)
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Thursday 29 July 2021

सुधीर कुमार पांडेय - इजराइल और फिलिस्तान के संघर्ष का इतिहास जो कई सदियों को समेटे हुए है ।

एक गलती जो श्राप बन गई और 2 हजार सालों से यहूदियों के कत्लेआम की वजह बनी रही... अगर आज इजराइल और फिलिस्तीन के बीच जारी संघर्ष को समझना है तो इतिहास की उन गलियों से गुजरना होगा जहां पत्थर कम और लाशें ज्यादा हैं । मानव इतिहास के सबसे घिनौने नरसंहारों
को जानना पड़ेगा और तब जाकर जमीन के लिए यहूदियों की भूख को पहचाना जा सकेगा । 

इजराइल और फिलिस्तीन के संघर्ष को समझने के लिए यीशू के जन्म से हजार साल पहले का सफर करना पड़ेगा ....उस वक्त दुनिया में धर्म के दो केंद्र थे... पहला हिंदुस्तान का वो हरा-भरा इलाका जहां सनातन धर्म की जड़ें मजबूत हो चुकी थीं...और दूसरा मिडिल ईस्ट का वो रेगिस्तानी इलाका जहां हजरत इब्राहीम उन तीन धर्मों के पैगंबर कहलाने की ओर अग्रेसर थे जिनका पूरी दुनिया में फैलना निश्चित था ।  

हजरत इब्राहीम को यहूदी, ईसाई और इस्लाम में शुरुआती पैगंबर होने का दर्जा हासिल है... साधारण भाषा में समझें तो इन्हीं इब्राहीम की धार्मिक थ्योरी को मूसा (यहूदी के पैगंबर), ईसा (ईसाई के पैंगबर) और मोहम्मद (इस्लाम के पैगंबर) ने अपने-अपने कालखंड में अपने दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ाया और सभी ने इब्राहीम को सम्मान दिया ।तीनों धर्मों के मुख्य पूर्वज इब्राहीम बने जिनका जिक्र धार्मिक पुस्तकों में मिलता है । इब्राहीम के वंश में  इजराइल का जन्म हुआ जो उनके पोते थे... इजराइल ने 12 कबीलों को मिलाकर इजराइल का गठन किया ... जिसे आज हम इजराइल देश के नाम से जानते हैं ... इजराइल के एक बेटे का नाम जूदा या यहूदा था जिनकी वजह से 
इस धर्म को jew या यहूदी नाम मिला । 

इब्राहिम, इजराइल और जूदा के बाद जो नाम यहूदियों से जुड़ा वो है हजरत मूसा का ... यहूदियों के पैगंबर हुए मूसा इनका उल्लेख कुरान और बाइबल में भी मिलता है । यूं तो यहूदियों के कई पैगंबर हुए लेकिन मूसा प्रमुख हैं... इन्होंने ही वो नियम तय किए जिपर यहूदी आगे बढ़े ।  यहूदियों की धार्मिक किताब तौराह है जो दुनिया के निर्माण से शुरू होती है ,जिसे खुदा ने 6 दिन में बनाया और समाप्त होती है मूसा की मृत्यु पर.... मान्यता है कि हजरत मूसा ने ही इजराइल के वंशजों को मिस्त्र की सैकड़ों साल पुरानी गुलामी से आजाद कराया था और एक आजाद जिंदगी दी थी । 

अब अगर पैगंबरों से नीचे उतरें और यहूदियों के इतिहास पर नजर डालें तो इसका सही सटीक इतिहास ईसा से करीब 1 हजार साल पूर्व किंग डेविड के समय से मिलता है... डेविड को इस्लाम में दाउद के नाम से संबोधित किया गया है । किंग डेविड ने यूनाइडेट इजराइल पर शासन किया ।  डेविड के बेटे हुए किंग सोलोमन...जो इस्लाम में सुलैमान हुए....इनका कालखंड ईसा से करीब 900 साल पहले का है । किंग सोलोमन ने यहूदियों का पहला टैंपल यरुशलम में बनवाया जहां भगवान यहोवा की पूजा होती थी...  ये यहूदियों का गोल्डन टाइम था... किंग सोलोमन के पास अकूत दौलत थी... उनकी 300 रानियां थीं और इस बात का भी उल्लेख मिलता है की किंग सोलोमन के समय में कई देशों की तरह ही दक्षिण भारत से भी इजराइल का व्यापार होता था । 

किंग सोलोमन की मौत के बाद यहूदी बिखर गए और फिर सदियों तक एक छत नसीब नहीं हुई । ईसा पूर्व 931 में यूनाइडट इजराइल में सिविल वॉर होता है और ये इलाका उत्तर में इजराइल किंगडम और दक्षिण में जूदा किंगडम में बंट जाता है । यहीं से इजराइल के पतन की कहानी शुरू होती है लेकिन वो सबसे बड़ी गलती होनी बाकी है जिसने आने वाले 2 हजार साल तक यहूदियों का पीछा नहीं छोड़ा ।  इजराइल के बंटवारे के बाद वहां बेबीलोन साम्राज्य का कब्जा हुआ जो इराक के राजा थे । ईसा पूर्व 587 में बेबीलोन ने यरुशलम में किंग सोलोमन के बनाए यहूदियों के पहले मंदिर को गिरा दिया । फिर कुछ समय बीता और 516 ईसा पूर्व में इसे फिर बनाया गया जिसे यहूदी सेकंड टैंपल या दूसरा मंदिर कहते हैं । उस दौर में यहूदी कुछ संभले और इनकी आबादी भी लाखों में पहुंच चुकी थी । यहूदियों ने शिक्षा और व्यापार के जरिए खुद को मजबूत बनाए रखा । 

ईसा पूर्व  साल 332 में इजराइल की धरती पर सिकंदर ने कदम रखें और उसकी मौत तक वो  राजा रहा । सिकंदर के बाद कुछ विशेष नहीं हुआ लेकिन तभी ईसा पूर्व 63 में इजराइल में रोमन की एंट्री होती है और यहूदियों का जमकर कत्लेआम शुरू होता है ।  और इसी दौर में यरुशलम की उसी जमीन पर जहां आज अल अक्सा मस्जिद है और जो विवाद का केंद्र बना हुआ है वहां ईसा मसीह का जन्म होता है । ईसा एक यहूदी थे लेकिन वो अपनी विचारधारा लेकर आए... उन्होंने अपने धर्म का प्रचार किया जो रोमन और यहूदी दोनो को पसंद ना आया । ईसा ने खुद को परमेश्वर का पुत्र कहा और चमत्कार किए कई यहूदी उनके शिष्य बनने लगे और ईसाई धर्म की नींव पड़ी और बस यहीं पर यहूदियों से वो गलती हो गई जिसकी भरपाई अगले 2000 साल तक करनी पड़ी ।

ऐसा आरोप है कि यहूदियों ने ही रोमन गवर्नर पिलातुस को भड़काया और ईशु की शिकायत कर दी...  पिलातुस ने यहूदियों को खुश करने के लिए ईसा को सलीब पर चढ़ाकर मारने का आदेश दिया तब ईशू की उम्र 30-33 साल बताई जाती है । ईशु की मौत में जिम्मेदार होने का कलंक यहूदियों के साथ चस्पा हो गया कि ये श्राप बन गया इसके बाद तो कई सदियों तक यहूदियों का नरसंहार हुआ है ....हालांकि पोप बेनेडिक्ट 16वें ने ईसा मसीह को सूली पर चढ़ाने के आरोप से यहूदियों को मुक्त करार दे दिया है लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी । इतिहास में इस एक घटना के कारण इतना रक्त बहा जिसकी कोई दूसरी मिसाल नहीं मिलती । यहूदी धर्म के आलोचकों के मुताबिक यहूदी धर्म को 
धार्मिक श्राप मिला है और उसका एक बहुत बड़ा कारण ईसा की मृत्यु में रोमन का साथ देना है । ईशु के बाद दुनिया में जहां भी ईसाई साम्राज्य स्थापित हुए वहां यहूदियों के रक्त से होली खेली गई लेकिन इन दो धर्मों की लड़ाई में इस्लाम की एंट्री कब और कैसे हुई ये जानना भी दिलचस्प है । 

यहूदियों को मिले धार्मिक श्राप का पहला नजारा ईसा की मौत के करीब 37 साल बाद देखने को मिला जब यहूदियों ने इजराइल पर राज कर रहे रोमन साम्राज्य के खिलाफ बगावत की दी और बदले में रोमन सेनाओं ने यरुशलम को रौंद डाला । ऐसा कत्लेआम इतिहास में नहीं देखा गया था कहा जाता है कि एक ही दिन में
करीब 1 लाख से ज्यादा यहूदियों को कत्ल कर दिया गया और सेकंड टैंपल भी नेस्तनाबूद कर दिया । यहूदियों की बहुत सी धार्मिक किताबें और धार्मिक चिन्ह और महत्व की चीजें भी तबाह हो गई और यहीं से शुरू होता है यहूदी डायसपोरा.... जो साल 1917 तक जारी रहा करीब 1900 साल का कत्लेआम । 

यहूदी डायसपोरा का अर्थ है यहूदियों का इजराइल से भागना और दुनिया के दूसरे मुल्कों में शरण लेना । वो यूरोप, अफ्रीका, अरब और एशिया तक में फैल गए पर कत्लेआम नहीं रुका... रोमन को लगता था कि ईसाई और यहूदी एक ही हैं और वो दोनों का दुश्मन रहा जबकि यहूदी और ईसाई एक-दूसरे कि खिलाफ लड़ रहे थे । वर्चस्व का त्रिकोणीय मुकाबला अगले 300 साल तक जारी रहा और अरब में लाशों के पहाड़ खड़े कर दिए गए  । ईसा 300 में बहुत बड़ा टर्निंग प्वाइंट आया कांस्टैंटिन द ग्रेट जो कि एक रोमन राजा था उसने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया वो पहला रोमन बादशाह हुआ जिसने ईसाई धर्म को चुना और यहां से यहूदियों की मुश्किलें कई गुना बढ़ गईं क्योंकि अब रोमन और ईसाई एक हो चुके थे जबकि यहूदी बिल्कुल अकेले पड़ गए । अब तो क्या रोमन और क्या ईसाई.. सभी ने मिलकर यहूदियों को कहीं का नहीं छोड़ा ।  ऐसे दौर भी आए जब यहूदियों पर कई तरह के प्रतिबंध लगाए गए । वो गुलाम नहीं रख सकते थे .... बाहर शादी नहीं कर सकते थे , अपने धार्मिक स्थल नहीं बना सकते । 

अगले 500 साल तक ईसाई ही यहूदियों के दुश्मन रहे लेकिन ईस्वी 570 आ चुकी थी और यहूदी डायसपोरा को करीब 500 साल पूरे हो चुके थे । इसी साल मक्का में हजरत मोहम्मद का जन्म हुआ... ईस्वी 622 में वो मक्का से मदीना गए जिसे इस्लाम में हिजरी कहा जाता है । मदीना में तब अरबी कबीलों के आलावा ज्यादा आबादी यहूदियों की थी और तीन मुख्य कबीले यहूदियों के पास थे । यहां पर इस्लाम और यहूदियों के बीच संधि हुई कि जब मक्के से हमला होगा तो मुसलमान और यहूदी मिलकर उनका मुकाबला करेंगे और यहां से यहूदियों के जीवन में पहली बार इस्लाम की एंट्री हुई । इस्लाम के जानकर आरोप लगाते हैं कि यहूदियों ने पैगंबर मोहम्मद के साथ धोखा ही किया और कई बार उनके दुश्मनों का साथ दिया और यहीं से यहूदियों और इस्लाम के बीच अविश्वास और दुश्मनी की नींव पड़ी जो आज भी बदस्तूर जारी है । 

इतिहास में मुसलमान और यहूदी हमेशा एक दूसरे के दुश्मन नहीं रहे दोनो धर्म साथ-साथ भी रहे हैं... खलीफा उमर के दौर में भी ऐसा ही हुआ । जब मुसलमानों ने सातवीं शताब्दी में स्पेन को फतह किया तो दोनो ने वहां अच्छा दौर भी देखा लेकिन साल 1099 में यूरोप के ईसाई भी संगठित हो चुके थे और क्रूसेडर का क्रूर कालखंड आरंभ हुआ । अब यूरोप से लेकर अरब के मैदान में 
दो नहीं बल्कि तीन धर्म एक दूसरे  से वर्चस्व की लड़ाई लड़ रहे थे । ईसाइियों , इस्लाम और यहूदियों के बीच जमकर तलवारें चलीं ।   साल 1271 तक यूरोप के ईसाइयों ने धार्मिक युद्ध छेड़ दिया वो पवित्र भूमि फिलिस्तीन और उसकी राजधानी जेरूसलम जहां ईसा का जन्म हुआ था उसे मुसलमानों से छीनने 
के लिए युद्ध करने लगे ।  स्पेन से धीरे धीरे मुसलमान और यहूदियों को बाहर निकलना पड़ा और यहूदी या तो दुनिया के अलग हिस्सों में फैले या फिर हजारों की संख्या में अपने पूर्वजों की घरती इजराइल लौटे और बस्तियां बसानी शुरू कर दी ।  

भारी संख्या में यहूदी फिर से इजराइल लौटते हैं और 12वीं सदी मामलूक पीरियड और फिर उस्मानिया साम्राज्य के तहत रहते हैं । इस दौरान यहूदियों पर बहुत सी पाबंदियां लगाई गईं लेकिन मरता क्या ना करता उनको सबकुछ सहना पड़ा और पिछली कई सदियों से अपने घर के लिए भटक रहे यहूदियों का सब्र जवाब दे गया उनको लगा कि अब कुछ करना होगा नहीं तो आने वाली 
पीढ़ियों को क्या मुंह दिखाएंगे... कब तक इस तरह भटकते रहेंगे... इसी विचार को केंद्रबिंदू रख 17वीं शाताब्दी में हशकला मूवमेंट ने जोर पकड़ा  । यहूदी राष्ट्रवाद की कल्पना ने पहली बार जन्म लिया... अब यहूदी अपने लिए एक जमीन का टुकड़ा चाहते थे जहां वो अपनी नस्ल को पाल सकें । यहूदियों ने अपने धर्म को फिर से पुर्नजीवित किया और तय किया कि एक देश तो उनके हिस्से होना ही चाहिए । 

उस्मानिया साम्राज्य में भी यहूदियों की हालत अच्छी नहीं थी जिसके कारण इन्होंने रूस में भी शरण लेने की कोशिश की लेकिन वहां भी इनका नरसंहार हुआ और ईसा की मृत्यु के साथ चला आ रहा श्राप परछाई बनकर चलता रहा फिर यहूदियों को  पौलेंड और लिथुआनिया  में सुरक्षित ठिकाना मिला पर वो भी लंबे अरसे तक ना रहा क्योंकि ये भी तो किराए की ही जमीन थी ।
बहरहाल अगले संकट से बेखबर यहूदियों ने पौलेंड में खुद को फिर से संगठित किया । ऐसा लगने लगा कि अब यहूदियों को उनके अधिकार मिल जाएंगे क्योंकि नेपोलियन ने फ्रांस की क्रांति के बाद इन्हें फ्रांस  बुलाया लेकिन जल्द ही वहां भी इनके दुश्मन पैदा हो गए । यहूदियों ने ना तो कभी यीशू को और ना ही कभी हजरत मोहम्मद को पैगंबर का दर्जा दिया और यही कारण है कि इनको ईसाई और मुसलमानों ने कभी गले नहीं लगाया ... कुछ अरसे तक साथ रहा लेकिन लंबा ना चला । कहना गलत नहीं होगा कि मुठ्ठी भर यहूदियों को अपने धर्म पर टिके रहने की बड़ी कीमत चुकानी पड़ी है ।
 
अब तक पहले विश्वयुद्ध का बिगुल बज चुका था यहां से ब्रिटेन की एंट्री मिडिल ईस्ट में होती है । इजराइल की भूमि पर मुसलमान भी रह रहे थे और यहूदी भी ये इजराइल भी था और फिलिस्तीन भी और जिस तरह ब्रिटेन ने भारत और पाकिस्तान का बंटवारा कर कभी ना समाप्त होने वाली दुश्मनी पैदा कर दी ठीक उसी तरह उसी कालखंड में यहूदियों को उनका अधिकार दिलाने का झांसा दिया ... बदले में समर्थन लेते रहे और आखिरी में सब चौपट करके चले गए । पहले विश्वयुद्ध के साथ ही उस्मानिया साम्राज्य का अंत हो गया और इजराइल में बचे यहूदी और मुसलमान जो अपने अपने लिए मुल्क चाहते थे । पहले विश्वयुद्ध की समाप्ति के साथ ही इजराइल के हिस्से में यहूदी आबादी जमना शुरू हो गई... यहूदी समझ चुके थे कि अब नहीं तो कभी नहीं... उन्होंने फिलिस्तीन के इलाके में जो आज विवादित है जमीनें खरीदीं और अपनी आबादी को बढ़ाया... जिसका असर दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दिखा ।

फर्स्ट वर्ल्ड वॉर और सेकंड वर्ल्ड वॉर के बीच का समय यहूदी इतिहास का सबसे काला अध्याय साबित हुआ ... जर्मनी के जरिए हिटलर ने दुनिया को हिला दिया और शुरू होता है यहूदी होलोकॉस्ट का चैप्टर । कहा जाता है कि करीब 60 लाख यहूदियों को हिटलर ने गैस चैंबर में मरवा दिया  और जो बच गए उनकी हालात मुर्दे जैसी थी ।  इस दौरान जर्मनी समेत यूरोप के बहुत से हिस्सों से यहूदी अमेरिका और इजराइल पहुंचे... अमेरिका पहुंचने वालो यहूदियों में से एक थे दुनिया के सबसे बड़े वैज्ञानिकों में शुमार अल्बर्ट आइंस्टीन जो जर्मनी में पैदा हुए पर अमेरिका में जाकर शरण लेनी पड़ी ।  दूसरे विश्वयुद्ध में हिटलर की हार हुई और संयुक्त राष्ट की स्थापना हुई । 

संयुक्त राष्ट्र की आगुवाई में दुनिया ने तय किया कि अब यहूदियों को उनका एक देश दे देना चाहिए और इस तरह साल 1948 में उस भूमि का बंटवारा हो गया जहां सबसे पहले यहूदियों ने राज किया था किंग डेविड और किंग सोलोमन के समय ... हां बाद में वहां रोमन, सिकंदर, बेबलियोन, मुसलमान और ईसाइयों ने भी राज किया। साल 1948  के बाद का इतिहास तो सबको पता है एक हिस्सा अरब को गया और दूसरा हिस्सा यहूदियों को मिला मगर ये बंटवारा अरब देश को रास ना आया... कई बार इजराइल और अरब मुल्कों की जंग हुई और हर बाहर अरब मुल्कों को मुंह की खानी पड़ी । इस युद्ध का सबसे ज्यादा खामियाजा उन मुसलामानों को भी उठाना पड़ा जो अलग फिलिस्तीन की मांग कर रहे थे यासिर अराफात इन्हीं के नेता थे । 1967 में 6 दिन का युद्ध हुआ जिस में अरब देशों की हार हुई और इजराइल ने जेरूसलम के बड़े भाग पर कब्जा कर दिया और फिलिस्तीनी रिफ्यूजी हो गए ... तब से जो आग लगी है वो मिडिल ईस्ट को लगातार जला रही है । 

इतिहास को बारीकी और निष्पक्षता से देखेंगे तो कुछ तथ्य ज्ञात होंगे जैसे कि यहूदियों के ऊपर 2 हजार साल तक बेशुमार अत्याचार हुए हैं, यहूदियों की रंजिश मुसलामनों से ज्यादा रोमन और ईसाइयों से रही है, मुसलामनों और यहूदियों की दिक्कत तो मात्र 100 साल पुरानी है, रोमन ने यहूदियों का जैसा कत्लेआम किया वैसा इतिहास में कहीं और नहीं दिखता और कई जगहों पर यहूदी और मुसलमान साथ भी रहे हैं जैसे मदीना और स्पेन लेकिन उनके बीच विश्वास कभी पैदा ना हो सका । ईसाई और इस्लाम से भी प्राचीन होने के बावजूद यहूदियों के पास सदियों तक अपना कोई मुल्क नहीं रहा ....आज जो इजराइल है वो मणिपुर जितना होगा । यहूदी अपने पूर्वजों की भूमि इजराइल और खासतौर से जेरूसलम को लेकर बहुत इमोशनल हैं क्योंकि यहां पर कभी उनकी सल्तनत थी यहीं पर उनका पहला और दूसरा मंदिर था और यहूदियों को भरोसा है कि यहीं पर उनका तीसरा मंदिर बनेगा । 

यहूदी आज भी जेरुशलम को अपना सबसे पवित्र स्थान मानते हैं ... यहीं पर टेंपल माउंट भी है और अल अक्सा मस्जिद भी और यीशू का जन्म भी यहीं हुआ है... इसलिए जेरुशलम का ये परिसर अखाड़ा बन चुका है । जो आज आपको बताते हैं कि जर्मनी से भाग कर आए यहूदियों को फिलिस्तियों ने अपने दिल में जगह दी वो आपको ये नहीं बताते कि उस वक्त भी यहूदी वहां थे और अंग्रेजों का आधिपत्य था इसलिए मालिक अंग्रेज थे । वो नहीं बताते कि यहूदियों ने उस धरती पर 100-200 या 500 साल पहले नहीं बल्कि करीब 3000 साल पहले राज किया है...किंग डेविड और किंग सोलोमन का इतिहास छिपा लिया जाता है लेकिन ये गलती वर्तमान की नहीं इतिहास की है जिसकी सजा आज की पीढी भुगत रही है चाहे वो यहूदी हो या फिलिस्तीनी और ज्यादातर लोग बिना इतिहास जाने किसी का समर्थन या किसी का विरोध कर रहे हैं क्योंकि वो तथ्य नहीं भावनाओं से प्रेरित हैं।  

© सुधीर कुमार पाण्डेय 
#vss

प्रवीण झा - स्कूली इतिहास (17)


आपने यह पढ़ा कि नदियों के किनारे सभ्यताएँ बसती थी, मगर नदियाँ अपना रास्ता बदलती रहती थी। आज जैसी गंगा नदी है, वैसी हज़ारों वर्ष पूर्व नहीं होगी। आपको पता है रेगिस्तान (डेज़र्ट) कैसे बनते हैं? ख़ास कर रेतीले रेगिस्तान कैसे बनते हैं? इतना रेत आता कहाँ से है? 

हर रेगिस्तान की अपनी कहानी है। जब अफ़्रीका के मरुस्थल सहारा और भारत के मरुस्थल थार की खुदाई शुरू हुई, तो दोनों ही स्थान पर किसी पुराने जन-जीवन के सबूत मिले। फलों और जंगलों के निशान। जंगली जानवरों  के अवशेष। मछलियों और समुद्री जीवों के अवशेष। मनुष्य के बनाए औजार। उनकी बनाई पत्थर की मूर्तियाँ और चित्रकला। 

यह कोई परी-कथा नहीं है कि इन विशाल रेगिस्तानों में कभी फलते-फूलते जंगल और जल से लबा-लब झील हुआ करते थे। मनुष्य यहाँ न सिर्फ़ रहते थे, बल्कि यह उनका प्रिय इलाका था।

मगर जैसे-जैसे इन स्थानों की हरियाली घटती गयी, जल-स्तर घटता गया, नदियाँ सूखती गयी या रास्ता बदलती गयी, लोग भी यहाँ से बोरिया-बिस्तर बाँध कर कहीं और जाने लगे।

मेहरगढ़ की टाउनशिप में जब पानी की किल्लत होने लगी होगी, तो वहाँ से कुछ दूर एक नयी बस्ती तैयार हो रही होगी। एक बेहतर मॉडर्न टाउनशिप। उस जमाने के किसी बिल्डर ने इसे डिज़ाइन किया होगा। आज जैसे विज्ञापन छपते हैं, कुछ ऐसा ही- 

“आइए! आइए! शहर के बाहर एक स्मार्ट सिटी बन रही है। वहाँ सभी घरों में बढ़िया टॉयलेट होगा। पानी की सप्लाई होगी। ढकी हुई नालियाँ होगी। पब्लिक स्विमिंग पूल होगा। चमचमाती सड़कें होगी। लेक-व्यू फ्लैट होंगे। कम्युनिटी हॉल होगा। शहर का नाम होगा- हड़प्पा!”

एक दूसरे बिल्डर ने इश्तिहार दिया होगा कि हम एक और शहर बसा रहे हैं, जो हड़प्पा से भी अधिक आधुनिक होगा। वहाँ बढ़िया शॉपिंग सेंटर होंगे। दुनिया भर की चीजें मिलेगी। यहाँ आइए, व्यापार करिए। 

मेहरगढ़ के लोग अपनी-अपनी औकात के हिसाब से इन नए शहरों की ओर बढ़ गए होंगे। संभव है कि भारत के अन्य हिस्सों से भी लोग खिंचे चले आ रहे हों। किसी को कंट्रीसाइड हड़प्पा पसंद आया होगा, तो किसी को मेट्रो सिटी मुअन-जोदड़ो, और किसी को समंदर किनारे लोथल और धौलावीर। आज से साढ़े चार हज़ार वर्ष पूर्व दुनिया के सबसे आधुनिक नगर कुछ इस तरह तैयार हो रहे होंगे। 
( क्रमशः)

#historyforchildren #groundzero #basics

The bust of bearded man was found at which site?

A. Harappa
B. Mohenjo-Daro
C. Lothal
D. Kalibangan

(Last question was only for discussion)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

स्कूली इतिहास (16)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/07/16.html
#vss

Wednesday 28 July 2021

पुलिस सुधार, राजनीतिक हस्तक्षेप और दिल्ली पुलिस कमिश्नर की नियुक्ति / विजय शंकर सिंह

राकेश अस्थाना दिल्ली के नए पुलिस कमिश्नर नियुक्त हुए हैं। गुजरात कैडर के 1984 बैच के आईपीएस अफसर राकेश जी, प्रधानमंत्री नरेंद मोदी के बेहद नज़दीकी अफसर समझे जाते रहे हैं। जब ये सीबीआई में स्पेशल डायरेक्टर थे तो तत्कालीन सीबीआई प्रमुख आलोक वर्मा से इनका अच्छा खासा विवाद भी हुआ था। आलोक वर्मा को, राफेल मामले में पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और सुप्रीम कोर्ट के एडवोकेट प्रशांत भूषण से मुलाकात करने और राफेल मामले में जांच हेतु प्रार्थनापत्र लेने के कारण, उसी दिन, बिना नियुक्ति समिति की राय और सहमति के रात में ही हटा दिया गया और नागेश्वर राव को सीबीआई का अंतरिम प्रमुख बना दिया गया था। तब से सत्ता के गलियारों में यह चर्चा थी कि, राकेश अस्थाना ही अगले सीबीआई प्रमुख होंगे। लेकिन वर्तमान सीजेआई रमन्ना के रुख और एक आपत्ति के कारण ऐसा न हो सका। 

हुआ यह कि, सीबीआई डायरेक्टर का पद फ़रवरी 2021 से ख़ाली पड़ा था। इस पद पर कोई नियमित नियुक्ति नहीं हुई थी। इस बीच 'कॉमन कॉज़' नाम के एक एनजीओ ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर की, कि, सीबीआई डायरेक्टर पद पर जल्द कोई नियुक्ति की जाए।  मई महीने में इस पर काम शुरू हुआ। कुल 109 संभावित उम्मीदवारों के नाम चयन समिति को भेजे गए। सत्ता के गलियारों में एक फुसफुसाहट पहले से ही थी कि, 1984 बैच के वाईसी मोदी और राकेश अस्थाना सरकार के भरोसेमंद हैं और इन्हीं में से किसी एक को, सीबीआई डायरेक्टर बनाया जा सकता है। लेकिन, कमेटी में शामिल चीफ़ जस्टिस एनवी रमन्ना ने प्रधानमंत्री को ध्यान दिलाया कि 2019 के सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के अनुसार, जिन अफ़सरों के रिटायरमेंट में सिर्फ़ छह महीने से कम वक़्त बचा हो, उन्हें डीजीपी स्तर के पदों पर नियुक्त न किया जाए। राकेश अस्थाना अभी बीएसएफ के डीजी हैं, और वे 31 जुलाई को रिटायर हो रहे हैं। इस नियम की वजह से वे सीबीआई प्रमुख की नियुक्ति प्रक्रिया से बाहर हो गए। तब सीआईएसएफ के डीजी, सुबोध कुमार जायसवाल को सीबीआई प्रमुख नियुक्त किया गया। 

अब राकेश अस्थाना दिल्ली के पुलिस कमिश्नर होंगे। यह पद भी डीजी के समकक्ष है लेकिन दो साल की बाध्यता का नियम इस पद पर नहीं लागू है अतः 31 जुलाई को उनकी आसन्न सेवानिवृत्ति को देखते हुए सरकार ने उन्हें एक साल का सेवा विस्तार दिया है। सरकार किसी भी अखिल भारतीय सेवा के अफसर को सेवा विस्तार दे सकती है पर सेवा विस्तार के भी नियम हैं। सेवा विस्तार की सामान्य नियमों के अनुसार, 
● सेवानिवृत्ति की अधिकतम आयु 60 वर्ष से अधिक नहीं होगी। 
● चिकित्सा और वैज्ञानिक विशेषज्ञों के मामले में, उन्हें सेवा में विस्तार दिया जा सकता है लेकिन अधिकतम 62 वर्ष तक। 
● अन्य को, सेवानिवृत्ति की आयु से परे सेवा में विस्तार पर पूर्ण प्रतिबंध होगा। 

यह एक सामान्य नियम है। पर 'शो मी द फेस, आई विल शो यू द रूल' के अनुसार, जैसे सभी नियमों के अपवाद होते हैं, इस नियम का भी अपवाद है। यह व्यवस्था इसलिए भी बनाई गई है जिससे कि यदि कोई अधिकारी किसी ऐसे आवश्यक राजकीय कार्य मे लगाया गया हो और वह, उसी बीच अपनी अधिवर्षता की आयु पूरी कर के रिटायर हो रहा हो तो, उसे कुछ महीनों का सेवा विस्तार दे दिया जाता है। उद्देश्य उस राजकीय कार्य मे आ सकने वाले व्यवधान को बचाना है न कि उक्त अधिकारी को लाभ पहुंचाना और उपकृत करना है। एक साल का सेवा विस्तार एक ही बार मे कम ही दिया जाता है। सेवा विस्तार की अवधि तीन माह की होती है और फिर अधिकतम तीन माह का सेवा विस्तार औऱ दिया जा सकता है। पर इस मामले में यह सेवा विस्तार एक ही बार मे एक साल के लिये दिया जा रहा है। निश्चय ही इस पर कोई न कोई आपत्ति करेगा और यह मामला अदालत में भी जा सकता है। इसका एक कारण राकेश अस्थाना का राजनैतिक रूप से विवादित होना भी है। 

यूनियन टेरिटरी ( यूटी ) काडर के एसएन श्रीवास्तव 30 जून को दिल्ली के पुलिस कमिश्नर पद से रिटायर हुए थे। उनकी जगह बालाजी श्रीवास्तव को यह जिम्मेदारी दी गई थी। महत्वपूर्ण बात यह है कि दिल्ली में 19 साल बाद यूटी काडर से बाहर के किसी अधिकारी को सर्वोच्च पद पर बैठाया गया है। इससे पहले 1966 बैच के आईपीएस अधिकारी अजय राज शर्मा को यह अवसर मिला था। उत्तर प्रदेश काडर से होने के बावजूद अजय राज शर्मा को जुलाई 1999 में दिल्ली पुलिस का कमिश्नर बनाया गया था। वह जून 2002 तक इस पद पर रहे थे।

राकेश अस्‍थाना काफी तेज-तर्रार अफसर माने जाते हैं। चारा घोटाले से जुड़े मामले की जांच में राकेश अस्थाना की अहम भूमिका थी। सीबीआई एसपी रहते हुए चारा घोटाले की जांच उनकी अगुआई में की गई थी। अतिरिक्त प्रभार के रूप में वे नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के डीजी भी रहे हैं। उनकी निगरानी में ही सुशांत सिंह राजपूत की मौत से जुड़े ड्रग्स केस की जांच शुरू हुई थी। इसके अतिरिक्त, उन्होंने राजनीतिक रूप से संवेदनशील कई मामलों की भी जांच की है, जैसे- आगस्टा वेस्टलैंड स्कैम, INX मीडिया केस, विजय माल्या के खिलाफ किंगफिशर एयरलाइंस लोन फ्रॉड, राजस्थान का ऐंबुलेंस स्कैम, जिसमें अशोक गहलोत, सचिन पायलट और कार्ति चिदंबरम भी घिरे थे, गोधरा ट्रेन कांड में साजिश सहित कई मामले हैं। 

कुछ प्रमुख विवादित मामले यह भी है। 
● सीबीआई में नियुक्ति के दौरान तत्कालीन डायरेक्टर आलोक वर्मा और उनके बीच हुआ विवाद काफी सुर्खियों में रहा था। दोनों ने भ्रष्टाचार के एक मामले की जांच में एक दूसरे पर घूसघोरी और भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए थे।
● इशरत जहां केस में गुजरात काडर के एक और आईपीएस अफसर सतीश वर्मा ने गुजरात हाई कोर्ट में याचिका दाखिल कर कहा था कि, गुजरात सरकार के प्रभाव में कैसे अस्थाना ने साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ करने के लिए एक फोरेंसिक अधिकारी को मजबूर करने की कोशिश की थी। सतीश वर्मा अपने पेशेवराना छवि के लिए जाने जाते थे।
● जोधपुर पुलिस की ओर से, आसाराम बापू को गिरफ्तार करने के बाद चर्चा थी कि उनका बेटा नारायण साईं मानव तस्करी के रैकेट में शामिल है। गुजरात सरकार ने उसे गिरफ्तार करने का फैसला किया और वह अस्थाना थे, जिन्हें यह जिम्मेदारी सौंपी गई।

राष्ट्रीय पुलिस कमीशन यानी धर्मवीर पुलिस आयोग की चर्चा, जब भी पुलिस सुधार की बात उठती है तो अक्सर की जाती है, और जब जब पुलिस सुधार की बात की की जाती है तो, प्रकाश सिंह बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मुकदमे का भी उल्लेख होता है। देश में पुलिस-सुधार के प्रयासों की भी एक लंबी श्रृंखला है, जिसमें विधि आयोग, मलिमथ समिति, पद्मनाभैया समिति, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग, सोली सोराबजी समिति तथा सबसे महत्त्वपूर्ण प्रकाश सिंह बनाम भारत संघ-2006 मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए निर्देश हैं। इन सभी आयोगों में सर्वाधिक चर्चित रहा धर्मवीर आयोग, जिसने फरवरी 1979 और 1981 के बीच कुल आठ रिपोर्टें दी थीं। जब काफी लंबे समय तक धर्मवीर आयोग (राष्ट्रीय पुलिस आयोग) की सिफारिशों पर कोई ध्यान नहीं दिया गया तो इन्हें लागू करवाने के लिये प्रकाश सिंह ने सर्वोच्च न्यायालय में वर्ष 1996 में एक जनहित याचिका दायर की और 22 सितंबर, 2006 को आयोग की सिफारिशों की पड़ताल कर न्यायालय ने राज्यों और केंद्र के लिये कुछ दिशा-निर्देश जारी किये। लेकिन लगभग 15 वर्ष बीतने के बाद भी इनका पूर्णतः अनुपालन सुनिश्चित नहीं हो पाया है।

1980 में गठित पुलिस कमीशन के अनुसार, आज की परिस्थितियों में पुलिस सुधार क्यों आवश्यक है, इस पर नज़र डालते हैं। 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रकाश सिंह की याचिका पर यह फैसला दिया कि चरणों मे ही सही, पुलिस कमीशन की अनुशंसाएं लागू की जांय। कमीशन ने राजनीतिक हस्तक्षेप की बढ़ती प्रवित्ति को देखते हुए डीजीपी, जिले के एसएसपी और थानों के एसओ को 2 वर्ष का कार्यकाल निर्धारित करने की सिफारिश की थी। पुलिस सुधारों से संबंधित अपने आदेश में सुप्रीम कोर्ट ने कई अन्य महत्त्वपूर्ण बातों के अलावा यह भी कहा था कि राज्यों में डीजीपी को कम से कम 2 वर्षों का कार्यकाल दिया जाए। अदालत ने एसएसपी और एसओ के पद के लिये अभी कुछ भी नहीं कहा। 

लेकिन 2006 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर हाल ही में केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय में एक आवेदन पत्र दायर किया है, जिसमें कहा गया है कि न्यायालय को वर्ष 2006 के पुलिस सुधारों से संबंधित अपने आदेश पर पुनर्विचार करना चाहिये। सरकारें पुलिस सुधार के मामले में बेहद सुस्त हैं। यह मनोवृत्ति किसी एक दल के सरकार की नहीं है, बल्कि यह मानसिकता सभी दलों की सरकार की है। पुलिस सुधारों से संबंधित न्यायालय के अन्य निर्णयों को लागू करने में लगभग सभी राज्यों का रवैया ढुलमुल रहा है। डीजीपी के लिये 2 वर्षों के कार्यकाल वाले आदेश का तो जमकर दुरुपयोग भी किया जा रहा है। कई राज्य तो सेवानिवृत्त होने की उम्र में आ चुके अपने मनपसंद अधिकारियों को सेवानिवृत्ति से मात्र कुछ दिन पहले डीजीपी के पद पर नियुक्त कर दे रहे हैं। परिणामस्वरूप, पुलिस सुधार के निर्देश, लंबे समय से उपेक्षित रहे हैं और वे सरकारों के प्रशासनिक सुधार की प्राथमिकता में भी नहीं है। 

पुलिस कमीशन ने पुलिस की मुख्य ढांचागत कमियाँ इस प्रकार स्पष्ट की हैं।
● कार्यबल में कमी।
● फॉरेंसिक जाँच व प्रशिक्षण की निम्न गुणवत्ता।
● अत्याधुनिक हथियारों की कमी।
● वाहनों व संचार साधनों की कमी।
● पदोन्नति तथा कार्य के घंटों को लेकर भी कार्मिक समस्या बनी हुई है और ये अवसंरचनात्मक कमियाँ पुलिस की कार्यशैली को प्रभावित करती हैं।
● पुलिस भर्ती के नियमों में पारदर्शिता की कमी के कारण इसमें बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार होता है।
● पुलिस की छवि आज एक भ्रष्ट और गैर-ज़िम्मेदार विभाग की बन चुकी है। यह प्रवृत्ति देश की कानून-व्यवस्था के लिये खतरनाक है।

उपरोक्त विंदु प्रोफेशनल पुलिसिंग के हैं पर वह विंदु जिसके कारण पुलिस सदैव आलोचना के केंद्र में रहती है, वह है पुलिस बल में राजनैतिक हस्तक्षेप। इस पर आयोग का ऑब्जर्वेशन यह है कि, 
● लोगों में यह आमधारणा बन गई है कि पुलिस प्रशासन सत्ता पक्ष द्वारा नियंत्रित होता है।
● राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण आम जनता के प्रति पुलिस की जवाबदेही संदिग्ध हो गई है।

जनता तो राजनीतिक हस्तक्षेप की शिकायत करती ही है पर सबसे हास्यास्पद पक्ष यह है कि, सभी राजनैतिक दल भी इसी तरह की बात करते हैं। जबकि सरकार किसी भी दल की हो, वह चाहती है कि, पुलिस उसी के इशारे पर काम करे। अभी हाल ही में हुए दिल्ली दंगे की विवेचना में कई त्रुटियों और पक्षपात पर दिल्ली हाईकोर्ट और सेशन कोर्ट के कई फैसले दिल्ली पुलिस के खिलाफ आये हैं। दिल्ली पुलिस पर ₹  25000 का अर्थदंड भी अदालत ने लगाया है और उनकी विवेचना पर गम्भीर सवाल उठाए हैं। एनआईए जैसी बड़ी जांच एजेंसी की विवेचना में प्रोफेशनल कमियां मिली हैं। उनपर भी आरोप है कि राजनीतिक विचारधारा और मतवैभिन्यता के चलते उन्होंने मानवाधिकार कार्यकर्ताओ को फंसाया है। एनएसए यानी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून जैसे महत्वपूर्ण निरोधात्मक प्राविधान का इस्तेमाल, बेहद लापरवाही से सरकार विरोधी दृष्टिकोण रखने वाले नागरिकों, नेताओ और पत्रकारों के खिलाफ किया गया है। सीबीआई को तो खुली अदालत में पिंजड़े का तोता  बोला ही जा चुका है। यह वे महत्वपूर्ण जांच एजेंसियां हैं जो गम्भीर आरोपो के संवेदनशील अपराधों की विवेचना करती है और देश की प्रमुख जांच एजेंसियां हैं। 

अब अगर कानून व्यवस्था की बात करें तो यहां राजनीतिक हस्तक्षेप अक्सर, साफ तौर पर दिखता है। अभी यूपी के पंचायत चुनाव में कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए जिम्मेदार पुलिस बल, कदम कदम पर खुद ही कानून व्यवस्था की धज्जियाँ उड़ाता नज़र आया। सबको पुलिस का यह खुला पक्षपाती रवैया साफ साफ दिख रहा था, पर एसपी से लेकर डीजीपी तक किसी ने इस निर्लज्जता भरे हस्तक्षेप पर ज़ुबान तक नही खोली। सोशल मीडिया होने के काऱण कुछ मामले जब छुपाए न जा सके तो उन पर ज़रूर कार्यवाही की गई।  एक बचकाना तर्क भी दिया गया कि, पुलिस की यही भूमिका तो, सपा और बसपा के शासनकाल में भी रही है। यही काम बंगाल में टीएमसी की सरकार ने किया। यह तर्क तथ्यात्मक रूप से सच भी हो तो,  क्या एक सरकार द्वारा पुलिस बल का राजनीतिक हित के लिए किया जाने वाला दुरुपयोग, दूसरी सरकारों के लिये भी मानने योग्य नजीर बन सकती है ? फिर यही एक कानून क्यों नही  बना दिया जाना चाहिए कि पुलिस अपने राजकीय कार्यो के निष्पादन में सत्तारूढ़ दल को प्राथमिकता देगी और वह कानून के बजाय सत्तारूढ़ दल औऱ उसकी सरकार के ही दिशा निर्देशों पर काम करेगी ! 

राजनीतिक रूप से प्रतिबद्ध पुलिस बल का सबसे अधिक दुष्प्रभाव उन अधिकारियों के मनोबल पर पड़ता है जो बिना किसी राजनैतिक दलीय प्रतिबद्धता के एक प्रोफेशनल पुलिसकर्मी के रूप में अपने दायित्वों का निर्वहन करते हैं। जाति, क्षेत्र, और राजनीतिक दलीय प्रतिबद्धता के आधार पर विभाजित होते हुए, पुलिस बल में धर्म की छौंक अब औऱ लग गयी है। इस प्रवित्ति को रोकना होगा। ऐसा भी नहीं है कि यह रोग केवल पुलिस बल में ही है, बल्कि सरकार के अन्य विभाग भी इन्ही लाइनों पर कभी कभी विभाजित नज़र आते हैं, पर पुलिस जो मुख्य रूप से सबसे अधिक जनशक्ति और प्रत्यक्ष दिखने वाला सरकारी महकमा है, जिसका दायित्व और धर्म ही है कि, वह कानून के राज्य को लागू करे, उसका तरह तरह के कठघरों में बंट जाना और विभाजित दिखना, न केवल देश को अराजकता की ओर ले जाएगा बल्कि वह एक ऐसा विभाजनकारी समाज बना देगा कि हम सब एक दूसरे से अनावश्यक और अनजाने डर और आशंका की क़ैदगाहों में सिमट कर रह जाएंगे। इस जटिल समस्या का समाधान अदालतें नही हैं, हालांकि वे इसके समाधान हेतु किसी भी अन्य संस्था से अधिक प्रस्तुत हर सजग रहती हैं, पर इनका हल, पुलिस के उच्चाधिकारियों और राजनीतिक दलो को मिलकर ढूंढना होगा और सत्तारूढ़ दल का यह दायित्व है कि वह इस पहल का नेतृत्व करें। पर आज जैसी विभाजनकारी राजनीति और सभी राजनीतिक दलों में परस्पर शत्रुता भाव दिख रहा है, उसे देखते हुए क्या यह सम्भव हो पायेगा। फिलहाल तो इस पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है। 

© विजय शंकर सिंह 

प्रवीण झा - स्कूली इतिहास (16)


                      ( चित्र: मेहरगढ़ )

“आप यह कैसे कह सकते हैं कि मानवों की बस्तियाँ पूरी दुनिया में थी जबकि सभ्यता के चिह्न गिने-चुने जगह ही मिले?”

“इसके लिए पहले बताए गए मानव प्रवास पर नज़र डालिए। मानव तो हिम-युग से पहले ही पूरी दुनिया में पसर चुके थे। मानव के चिह्न भी हर क्षेत्र में मिले। यह सत्य है कि सभ्यता कहने के लिए हर स्थान उपयुक्त नहीं।”

“मतलब मनुष्य हर स्थान पर थे, मगर सभ्यता नहीं थी?”

“कुछ हद तक। जैसे अगर भारत के अभी हर स्थान ध्वस्त कर दिये जाए, तो हमें क्या मिलेगा? जहाँ फूस की या मिट्टी की झोपड़ियाँ होंगी, वहाँ शायद कुछ न मिले। शहर की बड़ी इमारतों की नींव शायद मिल जाए। इसका अर्थ यह नहीं कि सिर्फ शहर में सभ्यता थी।”

“लेकिन, सभ्यताओं में भी जितना लिखित हमें सुमेर में मिलता है, उतना मेहरगढ़ या मिस्र में नहीं मिलता।”

“इसकी वजह एक तो यह भी है कि बलूचिस्तान के राजनैतिक हालात ऐसे नहीं कि वहाँ तरीके से छान-बीन की जा सके। मगर हमें भिन्न-भिन्न कालखंडों के नगर भिन्न-भिन्न गहराइयों में मिले। जैसे एक नगर दब गया, उसके ऊपर दूसरा नगर बसा।”

“मिस्र में तो यह बात नहीं थी। वहाँ क्यों नहीं मिले?”

“इसका एक विचित्र कारण है। मिस्र एक कदम आगे बढ़ गया था। वहाँ पेपिरस (काग़ज़) पर लिखने की शुरुआत पहले हो गयी थी, जबकि सुमेर में गीली मिट्टी पर ही लिखा जा रहा था। काग़ज़ और वह भी हज़ारों वर्ष पुराना काग़ज जो कहीं दब-गल गया, उसका मिलना और उस पर लिखी स्याही का सही सलामत बचना असंभव है। फिर भी लगभग साढ़े चार हज़ार वर्ष पुरानी ‘मेरर की डायरी’ तो मिली ही।”

“ऐसा ही तालपत्रों और भोजपत्रों के साथ भी हुआ होगा?”

“संभव है। संभव तो यह भी है कि आज अगर दुनिया तबाह हो जाए, तो कंप्यूटर और क्लाउड के करोड़ों दस्तावेज स्वाहा हो जाएँगे, लेकिन मौर्यकालीन शिलालेख फिर भी बचे रह जाएँगे। इसका अर्थ यह तो नहीं कि मानव ने पढ़ना-लिखना छोड़ दिया था”

“लेकिन, यह कैसे कहा जा सकता है कि भारत में भिन्न-भिन्न स्थान पर मानव आगे बढ़ रहे थे?”

“हमें प्रगति के अन्य चिह्न मिलते रहे हैं। पाषाण युग से कांस्य युग और लौह युग की प्रगति के वैसे ही प्रमाण मिले हैं। भीमबेतका में भी कई कालखंडों के चित्र हैं, जिसका अर्थ है कि वहाँ हज़ारों वर्षों तक मनुष्य रहे। संगीत-रंगकर्म से जुड़े चित्र भी हैं। क्या इसे सभ्यता न कहा जाए?”

“तो क्या महाभारत और रामायण के कालखंडों को भी माना जाए?”

“यहाँ मैं सामाजिक मान्यता और विश्वास की बात नहीं कर रहा। कार्बन और यूरेनियम डेटिंग की चर्चा पहले की है। वैज्ञानिक रूप से काल-खंड उसी से निर्धारित होता है। चाहे सुमेर हो या मिस्र हो या भारत, अब काल-गणना उसी आधार पर होती है। यह बात ज़रूर है कि जिसकी डेटिंग नहीं हुई, या जो खोजा नहीं जा सका, उसके विषय में वैज्ञानिक रूप में कहना कठिन है। यह काम तो आप में से किसी एक को भविष्य में करना है।”
( क्रमशः)

Question for discussion: What did those humans do, who were not part of any civilization? 

A. Lived like hunter-gatherer
B. Did farming but didn’t read or write
C. Didn’t design cities, but lived in small groups. 
D. All of the above
E. None of the above (Explain) 

(Last Answer: B. Daojali hading is a neolithic site in Brahmaputra valley) 

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

स्कूली इतिहास (15)
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Monday 26 July 2021

प्रवीण झा - स्कूली इतिहास (15)

दो व्यापारी मेसोपोटामिया के किसी प्राचीन शहर में बैठ बातें कर रहे होंगे

“सुना है असीरिया में इस वर्ष बारिश नहीं हुई?”

“हाँ! क्यों न हम अपना गेंहू लेकर वहाँ चलें? अच्छे दाम मिलेंगे।”

“जा तो सकते हैं, मगर पिछली बार बैलगाड़ी के पहिए बीच रस्ते में टूट गए थे। याद नहीं?”

“इस बार मेरे पास दूसरा आइडिया है। हम एक नाव से चलते हैं”

भले ही रुपया-पैसा न आया हो, मगर आदमी व्यापारी बनने लगा था। रास्ते नहीं बने थे, मगर सफर करने लगा था। चूँकि पहियों में रबर नहीं लगे होते थे, बढ़िया हाइ-वे और ब्रिज नहीं थे, इसलिए बेहतर था कि नाव से यात्रा हो। यह एक और वजह थी कि नदी के पास ही बसा जाए। टिगरिस और यूफ्रेटस नदियाँ मध्य एशिया के बीचों-बीच गुजरती थी। इससे मेसोपोटामिया में कहीं भी जाया जा सकता था। जब पश्चिमी छोर पर पहुँच गए, वहाँ से मिस्र भी पास ही था। 

पूरब में क्या था? उन पहाड़ों के पीछे कैसे-कैसे लोग थे? यह मेसोपोटामिया के लोग भी सोचते थे। मगर वहाँ जाएँ कैसे? इतने बीहड़ को न बैलगाड़ी पार कर सकते हैं, न नाव।

एक दिन फ़ारस की खाड़ी में एक नाव आकर रुकी। वहाँ के लोगों को लगा कि समंदर में मछली मार कर आ रहे होंगे। मगर वे किसी दूर देश से आ रहे थे। उनको खुद नहीं पता था कि वे कहाँ आ गए हैं। वे पहाड़ के दूसरी तरफ के लोग थे। सिंधु नदी में नाव चलाते हुए समुद्र में आए, और वहाँ से फ़ारस की खाड़ी होते हुए टिगरिस (दजला) नदी में आ गए। हिमालय को बायपास कर गए!

भविष्य में ये पूरब के लोग भारतीय कहलाए। जब मिस्र और सुमेर में शहर बन रहे थे, राजा बन रहे थे, सेनाएँ बन रही थी, खेती-बाड़ी हो रही थी; उस समय भारत में भी यही हो रहा था। वहाँ लड़ाई के चांस कुछ कम थे, इसलिए  उनका फोकस अपनी नगर व्यवस्था पर अधिक था।

ऐसा अनुमान है कि आज से छह-सात हज़ार साल पहले के भारत में लोग नदियों के किनारे बसे हुए थे। बलूच के मैहरगढ़ में एक सुनियोजित नगर था, जहाँ अपार्टमेंट बना कर और कॉलनी बना कर लोग रहते थे। जैसे आज-कल दिल्ली-बंबई में रहते हैं। 

बेलन घाटी (आज का उत्तर प्रदेश) में गाँव-देहात था, यानी उस समय का ‘काउ बेल्ट’। विंध्य और सतपुड़ा के जंगलों में पुराने जंगली लोग रहते थे, जो बाद में आदिवासी कहलाए। सरस्वती नदी और कई झीलों के किनारे कुछ अधिक समृद्ध खेतिहर रहते थे, जो कटहल और अन्य फल उगाते थे। अब तो खैर राजस्थान का वह अधिकांश इलाका रेगिस्तान है। भीमबेटका (मध्य प्रदेश) की गुफाओं में कुछ बेहतर प्रबुद्ध शिकारी रहा करते थे। दक्षिण में कई मछुआरे और नाविक बसते थे, क्योंकि उनके पास समुद्र था। 

भारत ही नहीं, ऊपर चीन के ह्वांगहो (येलो रिवर) और याग्त्सौक्यांग (यांग्से) नदी के किनारे भी घनी बस्तियाँ थी। कुल मिला कर पूरब अपने डिज़ाइन में फल-फूल रहा था, और किसी से आगे या पीछे नहीं था। जब भारत की नाव मेसोपोटामिया में लगी तो कई द्वार और खुल गए। 
( क्रमशः)

#historyforchildren #groundzero #basics

Daojali Hading is an archaeologist site in India, where people lived some 3000 years back. Along which river, is this site?

A. Saraswati
B. Brahmaputra
C. Indus
D. Kaveri

(Yesterday’s question was only for discussion. No definite answers.)

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

स्कूली इतिहास (14)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/07/14.html
#vss

मनमीत - रंगभेद और विगो मार्टेसन

घटना अमेरिका के न्यूयार्क की है। एक शराबखाने में पार्टी चल रही है। पार्टी जब अपने सबाब पर होती है तो दो लोग नशे में झगडने लगते है। विवाद बाद में मारपीट मंे बदल जाता है। शराबखाने का बाउंसर विगो मार्टेंसन वहां पहुंचता है और दोनों को पीटते पीटते बाहर सडक पर फैंक देता है। देर रात पार्टी खत्म होती है तो लोग जाने लगते है। इधर, शराबखाने के बाहर विगो मार्टेंसन अपनी डयूटी में होता है। जब सब ग्राहक नशे में मदमस्त होकर चले जाते हैं तो शराबखाने का मालिक मार्टेंसन को अंतर बुलाता है और उसे बैठने को कहता है। वो उससे अफसोस जाहिर करते हुये कहता है कि विगो मार्टेंसन आज तुम्हारा आखिरी दिन है। साॅरी विगो मार्टेंसन, शराबखाना कल से नहीं खुलेगा। इसे अनिश्चितकाल के लिये बंद किया जा रहा है। सदमे में आया विगो मार्टेंसन घर आता है और पत्नी से बातें साझा करता है। उसकी पत्नी उसे दिलासा देती है। सुबह विगो मार्टेंसन उठता है तो उसे किचन से कुछ आवाजे सुनाई देती है। जब वो वहां पहुंचता है तो दो अश्वेत पलम्बर वहां वाॅशबेसिंग की मरम्मत कर रहते दिखते हैं। काम खत्म होने के बाद विगो मार्टेंसन की पत्नी उन्हें कांच के गिलाश में पानी पीने को देती है। जब वो चले जाते हैं तो विगो मार्टेंसन उनके गिलाश कूडेदान में फैंक देता है और पत्नी को डांटते हुये पूछता है कि आखिर तुमने उन काले लोगों को ग्लास में पानी क्यों दिया। 

ये घटना 1962 की है। जब अमेरिका में अश्वेतों का उत्पीडन अपने चरम पर था। उन्हें दोयम दर्जे का माना जाता था। उन्हें वोट देने का अधिकार भी नहीं था। ऐसे में श्वेत टोनी जैसा आम अमेरिकी अश्वेतों से छूआछूत करते थे। बहरहाल, बेरोजगार विगो मार्टेंसन को जल्द ही एक नई नौकरी चाहिये थी। उसे कुछ दिनों बाद एक काॅल आती है। जिसमें उसे दो माह के लिये डाइवर का आॅफर दिया गया था। उसे इस काम के लिये इतने डाॅलर का भुगतान करने की पेशकश हुई, जितना वो बाउंसर रहते हुये तीन माह में कमा पाता था। अगले दिन मार्टेंसन बताये पते पर पहुंचा तो दंग रह गया। उस आलिशान कोठी का मालिक एक अश्वेत आदमी था। चिढकर विगो मार्टेंसन ने मुंह बिछकाया और मन में बुदबुदाया, अब क्या ये दिन आ गये कि किसी काले इंसान की कार चलाउंगा। लेकिन, उसके सामाने और कोई रास्ता भी नहीं था। उस काले आदमी डा महेरशला अली ने उसे बताया कि वो एक म्यूजिशन है। उसे अमेरिका के कई शहरों में म्यूजिक प्रफाॅरमेंस देनी है। इस पूरे टूर में दो माह लगेंगे। डा महेरशला अली बहुत ही अदब और सज्जन आदमी था। वो शालीनता से विगो मार्टेंसन से पूछते हंै कि क्या वो दो माह के लिये उसका डाइवर और असिस्टेंट बनना पसंद करेगा। विगो मार्टेंसन साफ मना कर देता और कहता है कि वो किसी अश्वेत आदमी का डाइवर बनना अपनी तौहीन समझता है। अपमान होने के बावजूद डा महेरशला अली उसे कहते हैं कि एक बार वो उसे सुबह काॅल कर पूछ लेंगे। अगर तब तक उसका मूड बना तो वो बता सकता है।

घर पहुंचा विगो मार्टेंसन अपनी पत्नी को ये सब बताता है। उसकी पत्नी उसे समझाती है कि क्या फर्क पडता है उसे किसी अश्वेत का डाइवर बनने में, वो भी तब जब घर की आर्थिक हालात ठीक नहीं है और वो अश्वेत उसे बेहतर पैसे भी दे रहा है।
खैर, सुबह डा शार्ली का फोन विगो मार्टेंसन को आ जाता है और वो इस शर्त पर हामी भरता है कि वो केवल उसका डाइवर बनेगा, असिस्टेंट नहीं। कुछ शर्तें भी तय करता है। मसलन, रास्ते में वो उससे बात नहीं करेगा और उससे ज्यादा बकवास भी नहीं करनी है। ये ही शब्द थे मार्टेंसन के।  डा महेरशला अली मुस्कुरा कर हां बोल देते है।  तय समय पर दोनों निकल पडते है। इधर, विगो मार्टेंसन का इस बात की चिढ हो रही थी कि इस काले आदमी ने अपने नाम के आगे क्यों डाक्टर लगाया हुआ है। जबकि अमेरिका में काले लोगों को उच्च शिक्षा हासिल करना वैसे भी बहुत मुश्किल है। शाम को वो अपने गंतव्य पहुंच जाते है। उस समय पर जहां डा महेरशला अली को अपनी पहली प्रफाॅरमेंस देनी है। एक बडा सा आलिशान आॅडिटोरियम। जहां सभी श्वेत लोग दर्शकदीर्घा में शालीनता से बैठे हुये है। विगो मार्टेंसन बाहर पार्किंग में इंतजार कर रहा है। उसे डा महेरशला अली के म्यूजिक में कोई खास दिलचस्पी नहीं है। अंदर डा अली पियानो को एडजस्ट करते है। अगल बगल वायलन और बेस गिटार के साथ सहयोगी आर्टिस्ट खडे है। डा महेरशला अली पियानो बजाना शुरू करते है, उससे जो संगीत निकलता है, वो दर्शकों को मदहोश कर देता है। बाहर विगो मार्टेंसन के कानों में संगीत की धुन पडती है तो वो अंदर खींचा आता है। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद होस्ट डा महेरशला अली का परिचय देती है। तब विगो मार्टेंसन को पता चलता है कि उसने क्यों डाक्टर लगाया हुआ है। उस कलाकार के पास तीन डाक्टरेट की डिग्रियां थी। साहित्य में, म्यूजिक में और म्यूजिक के साहित्य में।

लेकिन, जब शो खत्म होता है तो डा महेरशला अली  को टायलेट जाना होता है। जहां उन्हें जाने से कार्यक्रम के आयोजक ही रोक देते हैं और उन्हें बाहर एक गंदा सा टायलेट में जाने को कहते हैं। उन्हें बताया जाता है कि ये टायलेट ही अश्वेत लोगों के लिये रखा गया है। अमेरिका में उस समय अश्वेत लोग उन होटलों में नहीं रूक सकते थे, जहां पर श्वेत लोग रूक सकते थे। इसी तरह उनके रेस्टोरेंट और शराबखाने भी अलग थे। कार्यक्रम स्थल से होटल जाते वक्त चार श्वेत लोग डा महेरशला अली की पिटाई कर देते हैं, क्योंकि उन्होंने कोट, पेंट और टाई लगाई हुई होती है।

एक माह बाद मार्टेंसन अपनी पत्नी को पत्र लिखता है। जिसमें वो उसे बेहूदा बाते लिखता है। जब डा महेरशला अली उससे पूछते हैं कि वो क्या लिख रहा है तो बता देता है कि अपनी पत्नी को पत्र लिख रहा है। वो ये भी बता देता है कि उसने क्या लिखा है। डा महेरशला उसे रोकते हैं और बताते हैं कि उसे इन शब्दों को उपयोग नहीं करना चाहिये। उसके बाद डा महेरशला उसे पत्र लिखवाते हैं। जब ये पत्र विगो मार्टेंसन की पत्नी को मिलतस है तो खुशी से झूम उठती है। ऐसा रोमांटिक और क्लासिकल पत्र उसके पति ने पहले कभी नहीं लिखा था। वो मार्टेंसन को पत्र भेजती है कि वो बेहद खुश है। 

ऐसे ही डेढ माह कट जाते हैं और विगो मार्टेंसन को डा महेरशला अली के म्यूजिक से प्यार हो जाता है। इधर, वो ये भी देखता है कि कितना शिक्षित, कलाकार और सज्जन इंसान को केवल इसलिये अपमानित किया जा रहा है। क्योंकि वो चमडी से काला है। विगो मार्टेंसन रोने लगता है और डा महेरशला अली से माफी मांगता है। वो पूरे अमेरिका की तरफ से डा शार्ली से माफी मांगता है। इन दो महीनों ने मार्टेंसन की सोच बदल कर रख दी। 
ये एक सच्ची घटना है।  इस सच्ची घटना पर आधारित एक फिल्म भी बन चुकी है। जिसका नाम है ग्रीन बुक। ग्रीन बुक इसलिये, क्योंकि अमेरिका में पहले अश्वेतों के लिये हर साल सरकार की तरफ से एक डायरेक्टरी प्रकाशित होती थी। जिसमें उनके लिये उन होटलों और रेस्टोरेंट की सूचि होती थी, जिसमें केवल काले नागरिक ही रूक सकते थे। इस फिल्म को कई अंतराष्टीय पुरस्कार मिल चुके है। अकेडमी पुरस्कार समेत बीस से ज्यादा अन्य बडे आवार्ड भी मिले है। 

मुझे पता है कि ये कहानी पढ़ने के बाद भी कई लोगों के जेहन वो बात नहीं आयेगी, जो आनी चाहिये। अमेरिका में आज भी अश्वेत वैसे ही लड रहे हैं, जैसे हमारे यहां दलित लड रहे है। दोनों ने हजारों साल भोगा है। अब हमारी जिम्मेदारी नहीं बनती की किसी डा महेरशला का ड्राइवर बना जाये।

मनमीत 
© Manmeet Manmeet
#vss

कारगिल युद्ध सेना के शौर्य का अनुपम उदाहरण है, पर यह हमारी खुफिया विफलता भी थी / विजय शंकर सिंह

आज विजय दिवस है। आज ही के दिन वर्ष 1999 में हमारी सेनाओं ने पाकिस्तान की सेना जो घुसपैठियों के रूप में घुस कर कारगिल की ऊंची पहाड़ियों पर कब्ज़ा जमा चुकी थी, को अत्यंत कठिन युद्ध मे पराजित कर खदेड़ दिया था। उस युद्ध के समय थल सेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक थे और प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी। यह युद्ध कई मामलों में भारत पाकिस्तान के बीच लड़े गए पिछले युद्धों से अलग था और उन सबसे अधिक चुनौतीपूर्ण भी। इस युद्ध को युद्ध घोषित भी नहीं किया गया था, पर युद्ध मे दिए जाने वाले शौर्यता और वीरता के पदक हमारे जवानों को उनकी युद्ध मे वीरोचित भूमिका के लिये दिए गए। इस युद्ध मे हमारी सेनाओं ने, लाइन ऑफ कंट्रोल एलओसी को पार नहीं किया। ऐसा सरकार की नीति के कारण था। भारत और पाक दोनो ही परमाणु शक्ति सम्पन्न देश बन चुके थे। एलओसी को पार करने से युद्ध का दायरा और बढ़ सकता था, और फिर दोनो देशों को अधिक नुकसान भी उठाना पड़ सकता। इसे देखते हुए, सरकार ने घुसपैठ कर चुके, पाकिस्तानी सेना और उनके उग्रवादी लड़को को ही अपनी सीमा से बाहर करने का निर्णय लिया। सैन्य जानकर यह बताते हैं कि, ऐसी स्थिति के कारण भारत को अधिक सैन्य नुकसान हुआ, जिसका कारण, पाकिस्तान की सेना का पहले से ही ऊंचाई पर आ कर अपना ठीहा बना लेना था। 1971 के बांग्लादेश के समय हुए भारत पाक युद्ध के बाद यह पहला प्रत्यक्ष युद्ध था, हालांकि पाकिस्तान के साथ एक प्रकार का छद्म युद्ध तो आज़ादी के बाद से ही चल रहा है। 

इस युद्ध की शुरुआत तब हुयी, जब, पाकिस्तान की सेना और पाक समर्थक, अलगाववादी गुटों ने भारत और पाकिस्तान के बीच की नियंत्रण रेखा को पार कर भारत की ज़मीन पर कब्ज़ा करने के इरादे से एक बड़ी घुसपैठ की। घुसपैठ करने वालों में, पाकिस्तान की सेना थी और यह सब पाकिस्तान ने योजनाबद्ध तऱीके से किया था, लेकिन पाकिस्तान ने दुनिया के सामने यही दावा किया कि लड़ने वाले सभी कश्मीरी उग्रवादी हैं, और उसका इसमे कोई हांथ नहीं है। लेकिन पाकिस्तान का यह झूठ टिक न सका। युद्ध में बरामद हुए दस्तावेज़ों और पाकिस्तानी नेताओं के बयानों ने ही यह प्रमाणित कर दिया कि, पाकिस्तान की सेना प्रत्यक्ष रूप में इस युद्ध में शामिल थी। इस युद्ध मे, लगभग 30,000 भारतीय सैनिक और करीब 5000 घुसपैठिए शामिल थे। भारतीय सेना और वायुसेना ने पाकिस्तान के कब्ज़े वाली जगहों पर ज़ोरदार हमला किया और पाकिस्तान को सीमा पार वापिस जाने को मजबूर कर दिया। इस युद्ध मे पाकिस्तान की पराजय ने, उनकी आंतरिक राजनीति को भी प्रभावित किया। पाकिस्तान में इस युद्ध के कारण राजनैतिक और आर्थिक अस्थिरता बढ़ गई और इसका परिणाम नवाज़ शरीफ़ की सरकार की रुखसती से हुआ और इस योजना को अंजाम देने वाले, जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ पाकिस्तान के राष्ट्रपति बन गए। 
लगभग, 18 हजार फीट की ऊँचाई पर लड़े गए इस युद्ध में देश ने लगभग 527 बहादुर जवानों को खोया वहीं 1300 से ज्यादा जवान घायल हुए। युद्ध में 2700  पाकिस्तानी सैनिक मारे गए और 250  पाकिस्तानी सैनिक पीठ दिखा कर भाग गए। पाकिस्तान ने तो इस युद्ध की शुरूआत 3 मई 1999 को ही कर दी थी जब उसने कारगिल की ऊँची पहाडि़यों पर 5,000 सैनिकों के साथ घुसपैठ कर कब्जा जमा लिया था। भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के खिलाफ मिग-27 और मिग-29 का भी इस्तेमाल इस युद्ध मे किया। इसके बाद जहाँ भी पाकिस्तान ने कब्जा किया था वहाँ बम गिराए गए। इसके अलावा मिग-29 की सहायता से पाकिस्तान के कई ठिकानों पर आर-77 मिसाइलों से हमला किया गया। इस युद्ध में बड़ी संख्या में रॉकेट और बमों का इस्तेमाल किया गया। इस दौरान करीब दो लाख पचास हजार गोले दागे गए। वहीं 5,000 बम फायर करने के लिए 300 से ज्यादा मोर्टार, तोपों और रॉकेटों का इस्तेमाल किया गया। युद्ध के 17 दिनों में हर रोज प्रति मिनट में एक राउंड फायर किया गया। बताया जाता है कि कम ही ऐसे युद्ध होंगे, जिसमें दुश्मन देश की सेना पर इतनी बड़ी संख्या में बमबारी की गई हो।

5 मई 1999 तक पाकिस्तान की सेना ने कारगिल की ऊंचाई पर अपना मोर्चा जमा लिया था और घुसपैठ तो उसके पहले से ही जारी थी, लेकिन तब तक,  उस घुसपैठ की हमारी खुफिया एजेंसियों को कोई जानकारी नहीं हो पायी थी। एलओसी औऱ जम्मूकश्मीर जैसे संवेदनशील इलाके में जहां पर खुफिया एजेंसियों जो अत्यंत सतर्क रहना चाहिये, वहां यह विफलता बेहद हैरान करने वाली सूचना है। इस युद्ध के घटनाक्रम पर एक निगाह डालते हैं।
● 3 मई 1999 : एक चरवाहे ने भारतीय सेना को कारगिल में पाकिस्तान सेना के घुसपैठ कर कब्जा जमा लेने की सूचना दी।
● 5 मई : भारतीय सेना की पेट्रोलिंग टीम जानकारी लेने कारगिल पहुँची तो पाकिस्तानी सेना ने उन्हें पकड़ लिया और उनमें से 5 की हत्या कर दी।
● 9 मई : पाकिस्तानियों की गोलाबारी से भारतीय सेना का कारगिल में मौजूद गोला बारूद का स्टोर नष्ट हो गया।
● 10 मई : पहली बार लदाख का प्रवेश द्वार यानी द्रास, काकसार और मुश्कोह सेक्टर में पाकिस्तानी घुसपैठियों को देखा गया।
● 26 मई : भारतीय वायुसेना को कार्यवाही के लिए आदेश दिया गया।
● 27 मई : कार्यवाही में भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के खिलाफ मिग-27 और मिग-29 का भी इस्तेमाल किया।
● 26 जुलाई : कारगिल युद्ध आधिकारिक तौर पर समाप्त हो गया । भारतीय सेना ने पाकिस्तानी घुसपैठियों के पूर्ण निष्कासन की घोषणा की।

हर युद्घ के बाद, उसकी उपलब्धियों और अपनी नाकामियों की समीक्षा होती है। यह समीक्षा सरकार तो करती ही है, साथ ही उस युद्ध मे भाग लेने या युद्ध का नेतृत्व करने वाले बड़े फौजी अफसर भी करते हैं। यह एक परंपरा है। लगभग हर फौजी जनरल अपना संस्मरण लिखता है और उसमे अपनी भूमिका का उल्लेख भी करता है। कभी कभी यह संस्मरण आत्मश्लाघा से भरे भी हो सकते हैं तो कभी कभी वे युद्धों का सटीक विवरण भी देते हैं। हालांकि ऐसे संस्मरणों के बारे में, एक तंजिया वाक्य अक्सर कहा जाता है कि शिकार और युद्ध के संस्मरण अक्सर डींग हांकने की शैली में होते हैं, और उनमे अतिश्योक्ति का भाव अधिक होता है। पर युद्ध की वास्तविकता का इतिहास जानने के लिये इन संस्मरणों का अध्ययन आवश्यक भी होता है। ये सैन्य इतिहास के महत्वपूर्ण स्रोत भी होते हैं। 

कारगिल युद्ध के समय देश के थलसेनाध्यक्ष जनरल वीपी मलिक थे। जब यह घुसपैठ हुयी तो वे विदेश के दौरे पर थे। दो साल पहले जनरल मलिक ने, पत्रकार पीयूष बबेले को दिए गए अपने इंटरव्यू में बताया था कि जब वे विदेश से वापस लौटे तो उन्होंने इस घुसपैठ के बारे में पूरी जानकारी ली तो उन्हें बताया गया कि घुसपैठ हुयी है और हमारे जवान उनसे निपट लेंगे। इसके बाद ही कारगिल युद्ध की शुरुआत हुई। एलओसी पार न करने का निर्णय, सरकार का था, हालांकि सेना एलओसी को थोड़ा बहुत रणनीतिक रूप से पार करना चाहती थी। लेकिन, 
" कैबिनेट ने फैसला लिया था कि हम लाइन ऑफ कंट्रोल पार नहीं करेंगे. एक तो उसकी वजह यह थी कि उस समय तक भारत और पाकिस्तान दोनों ही परमाणु शक्ति संपन्न देश बन गए थे। 
दूसरी बात यह थी कि लोगों को तब तक सही स्थिति पता नहीं थी। इंटेलिजेंस रिपोर्ट सही नहीं थी कि यह लोग मुजाहिदीन हैं या यह पाकिस्तानी आर्मी के लोग हैं, क्योंकि हमारे रूल्स ऑफ एंगेजमेंट अलग-अलग होते हैं। अगर पाक फौज से लड़ना है तो अलग नियम हैं और अगर मिलिटेंट से लड़ना है तो दूसरी स्थिति है। इस वजह से उन्होंने इजाजत नहीं दी थी, हमें एलओसी पार करने की।" 

जनरल मलिक खुफिया सूचनाओं की अस्पष्टता की बात कर रहे हैं, और इस दुविधा की भी चर्चा कर रहे हैं कि, उन्हें पाक सेना से लड़ना था या मिलिटेंट से। सेना किसी भी मिलिटेंट गुट की तुलना में अधिक समर्थ, प्रशिक्षित, अनुशासित और संसाधनों से समृद्ध होती है, जब कि मिलिटेंट गुट उग्रवादी लड़को का एक हथियबन्द समूह होता है जो युद्ध के लिये प्रशिक्षित नही  होते हैं बल्कि वे अपराध के लिये मोटिवेटेड और प्रशिक्षित होते हैं। जनरल मलिक इसी को ही स्पष्ट कर रहे हैं। 

एलओसी न पार करने के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के सार्वजनिक बयानों पर भी जनरल मलिक ने अपनी बात कही है। इस विषय पर वे कहते हैं, 
" लेकिन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने जब दो बार पब्लिकली यह बात कही कि उन्होंने फौजों से कहा है कि वे एलओसी पार ना करें तब मैंने उनसे यह बात की कि सर, आपको यह बात पब्लिक में कहना ठीक नहीं है। हम कोशिश करेंगे कि हम लाइन ऑफ कंट्रोल पार न करें, लेकिन अगर हमको जरूरत पड़े और मुझे लगा कि एक जगह लड़ाई से काम नहीं चलेगा, तो हमारे पास छूट होनी चाहिए। ऐसे में उस वक्त आप क्या बोलेंगे। उन्होंने मेरी बात समझी और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार ब्रजेश मिश्र ने उसी शाम एक चैनल के ऊपर इंटरव्यू दिया और कहा कि नियंत्रण रेखा पार ना करने की बात आज के लिए ठीक है. लेकिन कल क्या होगा इसके बारे में अभी हम कुछ कह नहीं सकते। " 

युद्ध मे अपनी भूमिका को याद करते हुए जनरल मलिक कहते हैं, 
" सबसे पहले तो मैं अपने सारे जवानों और ऑफिसर्स की प्रशंसा करता हूं कि उन्होंने पूरी दुनिया के लिए एक मिसाल कायम की है कि, बहादुरी क्या होती है, देशभक्ति क्या होती है. और जिस लगन से उन्होंने काम किया वह वाकई प्रशंसा लायक चीज थी। मैं युद्ध के मोर्चो पर उनसे मिलने के लिए हर 6 दिन में एक बार जाता था। मैं यह भी कह सकता हूं कि उन्होंने मेरा हौसला भी बढ़ाया क्योंकि मैंने जब भी पूछा कि क्यों क्या हालात हैं, कैसा लग रहा है तो उन्होंने यही कहा कि आप फिक्र मत करो सर हम सब ठीक कर देंगे. आप फिक्र मत करो।" 
वे आगे कहते हैं, 
" 13 जून को प्रधानमंत्री के साथ मैं कारगिल गया था और वहां के हेलीपैड पर हम खड़े हुए थे। बृजेश मिश्रा भी थे और शायद जॉर्ज फर्नांडिस भी थे, तभी पाकिस्तानियों ने कारगिल कस्बे के ऊपर बमबारी शुरू कर दी।  हम लोग हेलीपैड के ऊपर खड़े हुए थे, जहां से हम, यह सब देख रहे थे। सौभाग्य से वह हेलीपैड ऐसी जगह पर था, जहां मुझे यकीन था कि कोई गोला वहां तक नहीं आ सकता है। प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने मेरी तरफ देखा। वह बहुत शांत रहे और मुस्कुराते रहे. मुझसे इशारा करके कहने लगे यह क्या हो रहा है. मैंने कहा हां, ऐसा तो, लड़ाई में होता ही  रहता है सर।" 

कारगिल के युद्ध के पीछे किसकी असली भूमिका थी, जनरल परवेज मुशर्रफ की या, पाकिस्तान का राजनैतिक नेतृत्व की ?  इस पर अपनी किताब 'फ्रॉम सरप्राइस टू विक्ट्री' में उन्होंने यह लिखा है, कि इसके पीछे नवाज शरीफ का भी हाथ था। इस बात की पुष्टि, पाकिस्तान में भी छपी एक किताब 'फ्रॉम कारगिल टू कूप, में कहा गया है कि इस युद्ध के पीछे नवाज शरीफ का भी बराबर का हाथ था। इस विषय पर जनरल मलिक ने कहा कि, 
" जब हमें यकीन हो गया कि इसके पीछे पाकिस्तान मुजाहिदीन नहीं हैं, यह पाकिस्तानी फौज है। इसके अलावा परवेज मुशर्रफ और उनके कमांडर के बीच जो बातचीत हमने इंटरसेप्ट किया था, से मुझे पता चला था कि इस बारे में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री को कुछ ना कुछ मालूम तो जरूर है। हो सकता है, उन्हें पूरी बात मालूम न हो, लेकिन कुछ न कुछ बताया तो उन्हें जरूर गया है।  उसके बाद भी जो रिपोर्ट आती रही हैं, उससे यही अंदाजा लगा कि परवेज मुशर्रफ ने प्राइम मिनिस्टर से बातचीत की थी और उसको कुछ ब्रीफिंग भी दी है. नवाज शरीफ का यह कहना कि उन्हें कुछ मालूम नहीं था, यह बात सही नहीं है।" 

कारगिल रिव्यू कमेटी ने भी पर्याप्त, सटीक और कार्यवाही योग्य खुफिया सूचनाओं के न होने की बात भी मानी है। इस पर जनरल मलिक का कहना था कि, 
" अगर हमें पहले से अच्छी वार्निंग मिल जाती या यह खबर मिल जाती कि पाकिस्तान आर्मी वहां है और ऐसा हमला करने की तैयारी कर रही है तो निश्चित तौर पर हम वहां पहले से कुछ न कुछ तैयारी कर लेते। शायद बहुत ज्यादा कर लेते। हथियार भी वहां पर पहुंचा देते। क्योंकि उन हालात में हमने जल्दबाजी में जो रिएक्शन किया, इंटेलिजेंस सूचना होने पर वही काम हम पूरी तैयारी से आराम से करते। ऐसे हालात में हमारे कम सैनिक शहीद होते. लेकिन इस बात में कोई शक नहीं है कि यह इंटेलिजेंस का फेल्योर था. हम यह नहीं कह पाए कि पाकिस्तान आर्मी वहां पर तैयारी कर रही है अटैक करने की।"

सरकार ने कारगिल घुसपैठ के विभिन्न पहलुओं पर गौर करने के लिए के सुब्रह्मण्यम की अध्यक्षता में कारगिल रिव्यू कमेटी (KRV) गठित की थी. इस समिति के तीन अन्य सदस्य लेफ्टिनेंट जनरल (रिटायर्ड) के.के. हजारी, बीजी वर्गीज और सतीश चंद्र, सचिव, राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय थे। समिति ने अपनी रिपोर्ट में इस बात को बड़ी ही प्रमुखता से बल दिया कि, 
● देश की सुरक्षा प्रबंधन प्रणाली में गंभीर कमियों के कारण कारगिल संकट पैदा हुआ। 
● रिपोर्ट ने खुफिया तंत्र और संसाधनों और समन्वय की कमी को जिम्मेदार ठहराया। 
● इसने पाकिस्तानी सेना के गतिविधियों का पता लगाने में विफल रहने के लिए रॉ RAW को दोषी ठहराया। 

रिपोर्ट के पेश किए जाने के कुछ महीनों बाद राष्ट्रीय सुरक्षा पर मंत्रियों का समूह (GoM) का गठन किया गया जिसने खुफिया तंत्र को मजबूत करने की आवश्यकता पर सहमति जतायी थी।अब स्थिति पहले से काफी बेहतर है। ब्रिगेडियर (रिटायर्ड) कुशकल ठाकुर, जो 18 ग्रेनेडियर्स के कमांडिंग ऑफिसर थे. साथ ही जो टॉलोलिंग और टाइगर हिल पर कब्जा करने में शामिल थे, ने एक लेख में, कहा कि, 
" कारगिल में पाकिस्तानी घुसपैठ के पीछे खुफिया विफलता मुख्य कारण थी. लेकिन पिछले 20 वर्षों में, बहुत कुछ बदल गया है. हमारे पास अब बेहतर हथियार, टेक्नोलॉजी, खुफिया तंत्र हैं जिससे भविष्य में कारगिल-2 संभव नहीं है।" 
वर्ष 1999 में कारगिल में एलओसी पर एक बटालियन थी. आज हमारे पास वहां, एक डिवीजन हैं। 

आज हम सब कारगिल युद्ध को, विजय दिवस और शौर्य दिवस के रूप में मना रहे हैं और इस युद्घ में अपना सर्वोच्च बलिदान दे देने वाले अपने सैनिकों को याद कर रहे हैं। शौर्य, वीरता, शहादत यह सब बेहद पवित्र शब्द हैं पर यह एक दुःखद पल भी होता है। मृत्यु कितनी भी गौरवपूर्ण हो, वह रुलाती ही है और एक ऐसी रिक्तता छोड़ जाती है, जिसे कभी भरा नही जा सकता। हम गीता के उपदेशों औऱ अनेक दार्शनिक उद्धरणों से खुद को दिलासा देते हुए भी मृत्यु के इस दारुण कष्ट को भींगी आंखों से महसूस भी करते रहते है। महाभारत काल से ही, युद्ध, सदैव एक अंतिम विकल्प माना जाता रहा है। इसलिए दुनियाभर की सरकारें युद्ध रोकने की हर सम्भव कोशिश भी करती हैं, और यदि युद्ध अपरिहार्य हो भी जाता है तो, हर सेना की यह कोशिश होती है कि कम से कम सैनिकों की जीवन हानि हो। इसीलिए, खुफिया जानकारी, उन्नत अस्त्र शस्त्र की व्यवस्था सदैव समय के साथ साथ बनाये रखी जाती है। भारत की उत्तरी सीमा पर पाकिस्तान और चीन  दोनों ही अविश्वसनीय पड़ोसी हैं जिनसे देश को सदैव सतर्क रहना है। कारगिल के बाद सरकार ने कारगिल रिव्यू कमेटी की कई सिफारिश मानी है और संसाधनगत अनेक सुधार भी हुए हैं पर यह ध्यान रखना युद्ध लड़ने से अधिक महत्वपूर्ण है कि दुश्मन की खूफिया जानकारी, हमारी सेना के पास नितन्तर हो जिससे युद्ध मे होने वाले जन धन हानि दोनो से बचा जा सके। कारगिल के शहीदों को वीरोचित नमन और उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि। 

© विजय शंकर सिंह 

Sunday 25 July 2021

प्रवीण झा - स्कूली इतिहास (14)

राजा हम्मूराबी का राज कहलाता था बेबिलोन। वहाँ उनको किसी देवता की तरह माना जाता था। आज से लगभग चार हज़ार साल पहले उन्होंने कुछ कानून बनाए। 

उन्होंने कहा कि अगर किसी की एक दाँत कोई तोड़ता है, तो उसके बदले एक दाँत तोड़ दी जाएगी। अगर एक हड्डी तोड़ता है, तो उसकी भी एक हड्डी तोड़ दी जाएगी। अगर कोई किसी का पेड़ या किसी की बकरी चुरा लेता है, तो उसे उसकी दस गुणी कीमत चुकानी होगी। अगर कोई बेटा ग़लती करता है, तो उसे पहली बार पिता माफ करेंगे, मगर दूसरी बार घर से निकाल देंगे।

हम्मूराबी स्वयं सूर्य के उपासक थे। जैसे सूर्यवंशी राजा। उनके राज में आकाश के तारों और सूर्य को देख कर लोगों को लगा कि शायद यह धरती सूर्य के चक्कर लगा रही है। उन्होंने इस पूरे चक्कर को एक साल कहना शुरू किया। फिर उसके बारह महीने बनाए। चौबीस घंटे का दिन बनाया। साठ मिनट का एक घंटा बनाया। इस तरह दुनिया के पहले कैलेंडर बनने तैयार हुए।

बेबिलोन के उत्तर में एक नगर था असुर। वहाँ के राजा थे शम्सी-अदाद। वह कुछ तानाशाह मिजाज के राजा थे। वह वायु और तूफ़ान के भगवान की पूजा करते थे, और उनके मंदिर बनाने लगे। वह असुर-वासियों का पूरी दुनिया पर राज चाहते थे।

इस समय तक आदमी के पास लड़ने के लिए कुछ और भी चीज आ गयी थी। एक दिन जब कुछ लोग आग के किनारे बैठे थे, तो वहाँ देखा कि पत्थर पर गर्मी से कुछ पिघल कर चमकने लगा है। यह सख़्त भी है, और इसे पिघला कर आकार भी दिया जा सकता है। यह पत्थर में मौजूद तांबे और अन्य धातुओं से बना काँसा (ब्रोंज) था। इस से औजार और हथियार बनने लगे। युद्ध होने लगे। यह युग पाषाण-युग (स्टोन एज) के बजाय अब कांस्य-युग (ब्रोंज एज) कहलाने लगा। 

एक दिन राजा हम्मूरावी की सेना ने असुर राज पर चढ़ाई कर दी, और विजयी हुए। वही अब पूरे मेसोपोटामिया के राजा हुए। मगर इन असीरियनों (असुरवासी) और बेबिलोन वासियों के मध्य संघर्ष आगे भी चलता रहा।

इन दोनों ही राज्यों के कुछ कॉमन भगवान भी थे। जैसे एक थे गिलगमेश जो बहुत शक्तिशाली थे, और एक हाथ से पेड़ उखाड़ लेते थे। मगर जब वह जनता पर अत्याचार करने लगे, तो सभी लोग भगवान अनु के पास मदद माँगने गए। उन्होंने एक आधे पशु और आधे आदमी के रूप में एंकिडु का निर्माण किया। गिलगमेश और एंकिडु में युद्ध हुआ। गिलगमेश ने एंकिडु का मन भटकाने के लिए एक अप्सरा भेजी। लेकिन, अंत में गिलगमेश अपनी गलती मान कर मित्र बन गए। जब धरती पर प्रलय आया, गिलगमेश ने जीवों की रक्षा की। 

ऐसी गाथाएँ, ऐसे देव, ऐसे असुर, ऐसे युद्ध। ये सिर्फ बेबीलोन ही नहीं, हर सभ्यता में थे। एक समूह बना कर चर्चा करें कि ऐसा क्यों था? आपको क्या लगता है?

A. आदमी की सोच एक जैसी थी, चाहे वह दुनिया के किसी कोने में रहें
B. वे आपस में जब व्यापार करने लगे या यात्रा करने लगे तो एक-दूसरे को कथाएँ सुनाने लगे
C. वाकई ऐसे सूर्य, वायु, समुद्र के भगवान थे जो मनुष्यों से संपर्क में रहते थे
D. अन्य कारण (अपने विचार रखें)

Yesterday’s answer: C. Capital of King Sargon was Akkad

प्रवीण झा 
© Praveen Jha 

स्कूली इतिहास (13)
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प्रवीण झा - स्कूली इतिहास (13)

जब आदमी जंगल में शिकार करते घूमते थे, उस समय भी शायद कोई भगवान मानते हों। सूरज को, चाँद को, पेड़-पौधे को, या पशुओं को। यूरोप में नियंडरथल मिले, तो उनके शवों के साथ कुछ पशु दफनाए मिले। वे मानते थे कि आदमी के पास मरने के बाद भी खाने-पीने की व्यवस्था रहे। उसी तरह मध्य प्रदेश में एक आठ हज़ार वर्ष पुरानी त्रिकोणाकार आकृति मिली। हो सकता है उनके भगवान हों। 

जंगल में भगवान की उतनी जरूरत थी नहीं। जब खेती-बाड़ी शुरू हुई, फिर कभी बारिश होती, कभी सूखा पड़ता। उन्हें लगने लगा कि यह कोई भगवान कर रहे हैं। उन्होंने धरती, आकाश, बरसात, सूर्य को भगवान मान लिया। वे खुश रहेंगे तो खाना मिलेगा। इसी तरह अपने राजा को भी भगवान मानने लगे, और पत्थर पर उनकी तस्वीरें बनाने लगे। इस तरह आदमी ने लिखना शुरू किया, तस्वीरों से। यह मिस्र (इजिप्ट) में कहलाता है- हीरोग्लिफिक्स यानी चित्र बना-बना कर लिखना। 

वहाँ के सूर्य भगवान कहलाए ‘रा’। आकाश के भगवान कहलाए ‘होरस’। होरस के पिता ‘ओसिरिस’ मृत्यु का फैसला करते थे। उनकी पत्नी का नाम था ‘इसीस’। इसी तरह हर जगह अपने-अपने भगवान के सेट बनने शुरू हुए।

मिस्र के लोग पत्थर पर लिखते थे, जो बहुत भारी होते। सोचिए, अगर आपकी किताब के बदले दस बड़े पत्थर रख दिए जाएँ, और वही लेकर स्कूल जाना पड़े? मगर उस समय कागज तो था नहीं, क्या करते?

सुमेर के लोगों को एक बेहतर आइडिया आया। वह दो नदियों (टिगरिस और यूफ्रेटस) के पास रहते थे, तो उनके पास गीली मिट्टी बहुत थी। वह उसके स्लेट बनाने लगे। उस गीली मिट्टी पर वह एक पतली तीली लेकर आकृति बनाने लगे। जब वह मिट्टी सूख जाती, उसे जमा कर लेते। यह पत्थर के मुकाबले हल्की थी, और इसमें चित्रों में रेखाएँ खूब होती। यह कहलाई ‘क्यूनिफॉर्म’ लिपि।

जैसे मिस्र में राजा हुए नारमेर। सुमेर में राजा बने सारगोन। उन्होंने भी सब छोटे-मोटे सरदारों को हरा दिया, और बड़ा राज्य बना लिया। वे भी भगवान बन गए।

जब ये राजा भगवान बनने लगे, तो मनमानी करने लगे। कोई कानून तो था नहीं। फिर एक राजा को लगा कि कुछ कानून बनाना चाहिए। उनका नाम था हम्मूराबी। 
( क्रमशः)

#historyforchildren #groundzero #basics

What was the capital of King Sargon of Mesopotamia?
A. Babylon
B. Baghdad
C. Akkad
D. Mohenjodaro

प्रवीण झा
© Praveen Jha 

स्कूली इतिहास (12)
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#vss

प्रवीण झा - स्कूली इतिहास (12)

दुनिया का पहला राजा कैसा होगा? क्या वह मुकुट पहनता होगा? 

जब आदमी सभ्य होने लगे, तो जंगली लोगों से अधिक साफ-सुथरे रहने लगे। उनकी एक दिनचर्या (रूटीन) बन गयी, क्योंकि उन्हें अब भटकना नहीं था। एक ही जगह रहना था, जहाँ पानी भी था और मैदान भी। जब वे जंगल में रहते थे तो जानवरों से छुपने के लिए पत्तों या किसी जूट जैसी रस्सी का बना कपड़ा पहनते। मगर मैदान में आकर वे सफेद सूती कपड़े पहनने लगे। धोती या लुंगी की तरह। 

वे संजने-संवरने के लिए सीपियों या किसी शैल की माला भी पहनने लगे। बाल धोने और संवारने लगे। भले ही यह सब उन्हें पत्थर के बने कंघियों और खुरचनों से करना पड़ता। उनका सरदार, जिन्हें हम राजा कह सकते हैं, वे एक मुकुट पहनते जो कपड़ों और शैल के बीड्स से ही बने होते। यह आज से छह-सात हज़ार वर्ष पुरानी बात है। 

उस समय मिस्र में दो राजाओं के बीच लड़ाई हुआ करती। पत्थर के बने बरछी-भाले से, या कुश्ती से। ये ऊपरी और निचली मिस्र के राजा थे जो नील नदी के किनारे रहते थे। ऊपर-नीचे का मतलब मानचित्र का ऊपर-नीचे नहीं। मानचित्र तो तब था ही नहीं। 

दुनिया में एक विचित्र नदी है नील, जो दक्षिण से उत्तर बहती है। उत्तर में जाकर भूमध्य (मेडिटेरेनियन) सागर में जाकर गिरती है। इसलिए ऊपरी मिस्र यानी जहाँ से नील निकलती थी। निचली मिस्र यानी जहाँ जाकर यह समुद्र में गिरती थी। इसे समझने के लिए अफ़्रीका के मानचित्र को उल्टा कर देखिए। 

ऊपरी मिस्र वाले सूखे रेतीले इलाके में रहते थे। निचली मिस्र वाले नदी के दलदली डेल्टा इलाके में। इसलिए दोनों के पास अपने-अपने स्किल थे। हज़ार वर्ष तक वे आपस में लड़ते रहे।

आज से पाँच हज़ार साल पहले निचली मिस्र के राजा नारमेर अपनी सेना के साथ सफ़ेद मुकुट पहन कर लड़ने निकले। उनके सामने लाल मुकुट पहने ऊपरी मिस्र के राजा थे। इस युद्ध में सफेद मुकुट की जीत हुई, और राजा नारमेर ने लाल मुकुट छीन कर अपने सर पर डाल लिया। उस दिन मिस्र एक हुआ, और वहाँ के राजा सफ़ेद के ऊपर लाल मुकुट पहनने लगे।

यह राजा अब सिर्फ़ आदमी नहीं रहे, वे उनके भगवान बन गए। ऐसे कई राजा दूसरी जगहों पर भी बन रहे थे, जो भगवान बनते जा रहे थे। अब आदमी को भगवान की ज़रूरत महसूस होने लगी थी। चाहे वह कोई आदमी हो या कोई ऐसी शक्ति जो उनकी दुनिया चला रही है। 
( क्रमशः)

#historyforchildren #groundzero #basics

What does Pharaoh word literally mean?
A. A King
B. An educated man
C. A strong and brave man
D. A man from high house

(Yesterday’s Answer: C. Writing)

प्रवीण झा
© Praveen Jha

स्कूली इतिहास (11)
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#vss

पेगासस जासूसी, एक साइबर हमला है और इसकी नजरअंदाजी देश के लिये घातक होगी / विजय शंकर सिंह


पेगासस जासूसी प्रकरण के खुलासे ने दुनियाभर में तहलका मचा रखा है और यह खुलासा अभी भी जारी है । पेगासस स्पाइवेयर बनाने वाली इजराइली कम्पनी, एनएसओ कभी इन खुलासों का खंडन कर रही है तो, कभी खामोश है, पर एक बात तो तय है कि, इस स्पाइवेयर का दुरुपयोग दुनियाभर मे हुआ है। दुनिया के इतिहास में फोन टैपिंग या जासूसी काई नया काम नहीं है और न ही सरकारों के लिये वर्जित रहा है। निजी जासूसी संस्थाओं से लेकर सभी सरकारों के खुफिया विभाग इसे अंजाम देते रहते हैं, और वे अपने अपने टारगेट तय करके अपने उद्देश्य और जिज्ञासाओं के अनुसार, तरह तरह से निगरानी करते हैं। गुप्तचरी, शासन प्रबन्धन का एक अनिवार्य पक्ष है। रहा सवाल खुफिया उपकरणों का तो, जैसे जैसे वैज्ञानिक तरक़्क़ी होती जाती है, उसी के अनुपात में उन्नत खुफिया उपकरणो का प्रयोग होता जाता है। पर पेगासस स्पाइवेयर या सॉफ्टवेयर कोई सामान्य निगरानी डिवाइस नहीं है बल्कि यह बेहद उन्नत और सॉफिस्टिकेटेड साइबर निगरानी उपकरण है, जो कीमत में भी महंगा है और साथ ही इसे एक हथियार का दर्जा भी दिया गया है। 

इजराइल की कम्पनी एनएसओ ने इस सॉफ्टवेयर का अनुसंधान और विकास दुनियाभर में फैल रहे आतंकी संगठनों की जासूसी कर के उनके शमन के लिये किया है और इसे किसी निजी व्यक्ति को बेचने की भी मनाही है। इस सॉफ्टवेयर को सरकारी एजेंसी ही खरीद सकती है लेकिन, वह भी इसका इस्तेमाल आतंकी गतिविधियों के नियंत्रण में ही करेगी। पर जब द गार्जियन, वाशिंगटन पोस्ट, द वायर जैसे अनेक वेबसाइट और अखबारों ने, इसका खुलासा किया और यह दावा किया कि इस स्पाइवेयर का इस्तेमाल भारत मे विपक्षी नेताओं, पत्रकारों, जजों, आदि लोगों की निगरानी करने के लिये किया गया है तब इस पर देश भर से सवाल उठने शुरू हो गए हैं। यह क्रम अब भी जारी है। 

पेगासस खुलासे की पहली कड़ी में दावा किया गया है कि भारत सरकार पत्रकारों की जासूसी करा रही है। जिन नामो का खुलासा हुआ है, उनमें पत्रकार, कानूनविद और विपक्षी नेता शामिल हैं। खुलासे की अब तक की जारी रिपोर्ट के अनुसार पेगासस ने भारत के लगभग, 300 बुद्धिजीवियों, वकीलों, मानवाधिकार एक्टिविस्ट, पत्रकारों और विरोधी दल के नेताओ के मोबाइल फोन की जानकारी को हैक किया है। वर्ष 2019 में भी एक बार, इजराइल द्वारा तैयार किये गये स्पाईवेयर पेगासस का नाम सुर्खियों में आया था, जब व्हाट्सएप कम्पनी ने कहा था कि 
" वह इजराइल की इस कंपनी के खिलाफ केस करने जा  रहे हैं, क्योंकि इसी स्पाइवेयर के द्वारा, लगभग 1400 लोगों के व्हाट्सएप चैट और फोन आदि की जानकारी उनके फोन से हैक की गई थी।"
व्हाट्सएप, चूंकि अपने ग्राहकों को किसी अन्य के द्वारा न पढ़े और न सुने जा सकने वाले चैट और वार्तालाप की आश्वस्ति देता है, अतः यह उसके लिये बेहद गम्भीर बात थी कि उसके ग्राहकों की निजता में किसी अवांछित की सेंध पड़ रही है। 

अब एक नज़र भारत मे फोन टेपिंग के इतिहास पर डालते हैं। भारत में फोन टैपिंग की शुरूआत आज़ादी के बाद से ही हो गयी थी। कुछ उदाहरण देखें, 
● 1949 में, संचार मंत्री रफी अहमद किदवई ने अपनी फोन टैपिंग का आरोप लगाया था, जिसकी पुष्टि नहीं हो पायी थी।
● तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल केएस थिमाया ने 1959 में अपने और आर्मी ऑफिस के फोन टैप होने का आरोप लगाया था। 
● नेहरू सरकार के ही एक और मंत्री टीटी कृष्णामाचारी ने 1962 में फोन टैप होने का आरोप लगाया था। 
● 1988 में कर्नाटक के तत्कालीन मुख्यमंत्री रामकृष्ण हेगड़े के कार्यकाल में भी फोन टैपिंग का बड़ा मामला सामने आया था. विपक्ष का आरोप था कि हेगड़े ने विपक्षी नेताओं के फोन टेप के आदेश देकर उनकी निजता में सेंध लगाई है। रामकृष्ण हेगड़े को अपने पद से त्यागपत्र देना पड़ा था। 
● आज तक चैनल की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि जून 2004 से मार्च 2006 के बीच सरकार की एजेंसियों ने 40 हजार से ज्यादा फोन टैप किए थे.
● 2006 में अमर सिंह ने यूपीए सरकार पर अपनी फोन टैपिंग का आरोप लगाया था और यह दावा किया था कि इंटेलीजेंस ब्यूरो (IB) उनका फोन टैप कर रही है।  अमर सिंह ने केंद्र की यूपीए सरकार और सोनिया गांधी पर फोन टैपिंग का आरोप लगाया था. यह मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबे समय तक चला। 2011 में अमर सिंह ने केंद्र सरकार पर लगाए आरोपों को वापस ले लिया है।  बाद में सुप्रीम कोर्ट ने अमर सिंह के फोन टेप को मीडिया में दिखाने या छापने पर लगी रोक भी हटा ली थी। 
● अक्टूबर 2007 में यूपीए सरकार पर, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के फोन टेप करवाए जाने के आरोप लगे थे, जब नीतीश कुमार अपने एक सहयोगी से बात कर रहे थे कि कैसे बिहार के लिए केंद्र से ज्यादा पैसा मांगा जाए। 
● देश के बड़े उद्योगपतियों रतन टाटा और मुकेश अंबानी की कंपनियों के लिए पीआर का काम कर चुकी नीरा राडिया के फोन टैप का मामला सामने आने के बाद देश में राजनीतिक भूचाल आ गया था। नीरा राडिया की विभिन्न उद्योगपतियों, राजनीतिज्ञों, अधिकारियों और पत्रकारों से फोन पर हुई बातचीत के ब्यौरे मीडिया में प्रकाशित हुए थे।  'आउटलुक' मैग्जीन ने अपनी वेबसाइट पर प्रमुखता से प्रकाशित एक खबर में कहा था कि उसे नीरा राडिया की बातचीत के 800 नए टेप मिले हैं. इस बातचीत के बाद से ही 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले में नीरा राडिया की भूमिका पर सवाल उठने लगे थे। 
● आउटलुक पत्रिका ने अप्रैल 2010 में दावा किया था कि तत्कालीन यूपीए सरकार ने देश के कुछ शीर्ष नेताओं के फोन टैप करवाए हैं, जिनमें तत्कालीन कृषि मंत्री शरद पवार, कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह, बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और सीपीएम के पूर्व महासचिव प्रकाश करात का नाम सामने आया था। 
● फरवरी 2013 में अरुण जेटली राज्यसभा में विपक्ष के नेता थे. उस समय उनके फोन टैपिंग मामले में करीब दस लोगों को गिरफ्तार किया गया था।  यह मामला जनवरी में उस समय सामने आया था, जब विपक्ष ने सरकार पर जेटली का फोन टैप कराने का आरोप लगाया था। अरुण जेटली की जासूसी के आरोप में दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल ने सहायक उपनिरीक्षक गोपाल, हेड कांस्टेबल हरीश, जासूस आलोक गुप्ता, सैफी और पुनीत के अलावा एक अन्य कांस्टेबल को गिरफ्तार किया गया था। 
● कर्नाटक सांसद सुमनलता अंबरीश ने दावा किया कि 2018-19 में राज्य में कांग्रेस-जेडीएस (JDS) सरकार के कार्यकाल के दौरान उनका टेलीफोन टैप किया गया था। 
● महाराष्ट्र कांग्रेस अध्यक्ष नाना पटोले ने कुछ ही दिन पहले विधानसभा में आरोप लगाया था कि साल 2016-17 में जब वो बीजेपी के सांसद थे तब उनका फोन टैप किया जा रहा था। 
● राजस्थान में पिछले महीने फोन टैप का मामला गरमाया था. यहां आरोप है कि गहलोत सरकार विधायकों के फोन टैप करवा रही है.

पेगासस जासुसी के हाल का मामला, लीक हुए आंकड़ों के आधार पर की गई एक वैश्विक मीडिया संघ की जांच के बाद सामने आया है। विभिन्न अखबारों और मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार, जांच में, इस बात के सबूत मिले हैं कि इजराइल स्थित कंपनी 'एनएसओ ग्रुप के सैन्य दर्जे के मालवेयर का इस्तेमाल पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और राजनीतिक असंतुष्टों की जासूसी करने के लिए किया जा रहा है। द वायर के अनुसार, पत्रकारिता संबंधी पेरिस स्थित गैर-लाभकारी संस्था 'फॉरबिडन स्टोरीज एवं मानवाधिकार समूह 'एमनेस्टी इंटरनेशनल द्वारा हासिल की गई और 16 समाचार संगठनों के साथ साझा की गई 50,000 से अधिक सेलफोन नंबरों की सूची से पत्रकारों ने 50 देशों में 1,000 से अधिक ऐसे व्यक्तियों की पहचान की है, जिन्हें एनएसओ के ग्राहकों ने संभावित निगरानी के लिए कथित तौर पर चुना था। वैश्विक मीडिया संघ के सदस्य 'द वाशिंगटन पोस्ट के अनुसार, जिन लोगों को संभावित निगरानी के लिए चुना गया, उनमें 189 पत्रकार, 600 से अधिक नेता एवं सरकारी अधिकारी, कम से कम 65 व्यावसायिक अधिकारी, 85 मानवाधिकार कार्यकर्ता और कई राष्ट्राध्यक्ष शामिल हैं। ये पत्रकार 'द एसोसिएटेड प्रेस (एपी), 'रॉयटर, 'सीएनएन, 'द वॉल स्ट्रीट जर्नल, 'ले मांद और 'द फाइनेंशियल टाइम्स जैसे संगठनों के लिए काम करते हैं। एनएसओ ग्रुप के स्पाइवेयर को मुख्य रूप से पश्चिम एशिया और मैक्सिको में 
 तयशुदा टारगेट की निगरानी के लिए इस्तेमाल किए जाने के आरोप हैं। सऊदी अरब को एनएसओ के ग्राहकों में से एक बताया जाता है। इसके अलावा सूची में फ्रांस, हंगरी, भारत, अजरबैजान, कजाकिस्तान और पाकिस्तान सहित कई देशों के लोगों के भी फोन नम्बर हैं। वाशिंगटन पोस्ट के अनुसार, इस सूची में मैक्सिको के नागरिकों के सर्वाधिक फोन नंबर है, जिनकी संख्या 15,000 है।

अखबारों के अनुसार, भारत मे जिनके नाम इस जासूसी में आ रहे हैं, उनमे से, कांग्रेस नेता राहुल गांधी, भाजपा के मंत्रियों अश्विनी वैष्णव और प्रह्लाद सिंह पटेल, पूर्व निर्वाचन आयुक्त अशोक लवासा और चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर के नाम हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे तथा तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के सांसद अभिषेक बनर्जी और भारत के पूर्व प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई पर अप्रैल 2019 में यौन उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली उच्चतम न्यायालय की महिला कर्मचारी और उसके रिश्तेदारों से जुड़े 11 फोन नंबर हैकरों के निशाने पर थे। राहुल गांधी और केंद्रीय मंत्रियों वैष्णव और प्रहलाद सिंह पटेल के अलावा जिन लोगों के फोन नंबरों को निशाना बनाने के लिये सूचीबद्ध किया गया उनमें चुनाव पर नजर रखने वाली संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) के संस्थापक जगदीप छोकर और शीर्ष वायरोलॉजिस्ट गगनदीप कांग शामिल हैं। रिपोर्ट के अनुसार सूची में राजस्थान की मुख्यमंत्री रहते वसुंधरा राजे सिंधिया के निजी सचिव और संजय काचरू का नाम शामिल था, जो 2014 से 2019 के दौरान केन्द्रीय मंत्री के रूप में स्मृति ईरानी के पहले कार्यकाल के दौरान उनके विशेष कार्याधिकारी (ओएसडी) थे। इस सूची में भारतीय जनता पार्टी से जुड़े अन्य जूनियर नेताओं और विश्व हिंदू परिषद के नेता प्रवीण तोगड़िया का फोन नंबर भी शामिल था। 

‘द गार्डियन’ की ओर से जारी इस बहुस्तरीय जांच की पहली किस्त में दावा किया गया है कि 40 भारतीय पत्रकारों सहित दुनियाभर के 180 संवाददाताओं के फोन हैक किए गए। इनमें ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ और ‘मिंट’ के तीन पत्रकारों के अलावा ‘फाइनैंशियल टाइम्स’ की संपादक रौला खलाफ तथा इंडिया टुडे, नेटवर्क-18, द हिंदू, द इंडियन एक्सप्रेस, द वॉल स्ट्रीट जर्नल, सीएनएन, द न्यूयॉर्क टाइम्स व ले माँद के वरिष्ठ संवाददाताओं के फोन शामिल हैं। जांच में दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक पूर्व प्रोफेसर और जून 2018 से अक्तूबर 2020 के बीच एल्गार परिषद मामले में गिरफ्तार आठ मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के फोन हैक किए जाने का भी दावा किया गया है। यह जांच एमनेस्टी इंटरनेशनल और फॉरबिडेन स्टोरीज को प्राप्त लगभग 50 हजार नामों और नंबरों पर आधारित है। एमनेस्टी इंटरनेशनल ने इनमें से 67 फोन की फॉरेन्सिक जांच की है। इस दौरान 23 फोन हैक किये गए मिले, जबकि 14 अन्य में सेंधमारी की कोशिश करने की पुष्टि हुई। ‘द वायर’ ने खुलासा किया कि भारत में भी दस फोन की फॉरेन्सिक जांच करवाई गई। ये सभी या तो हैक हुए थे, या फिर इनकी हैकिंग का प्रयास किया गया था।

इधर नेशनल सिक्युरिटी काउंसिल के बजट में अप्रत्याशित बढोत्तरी पर भी  सवाल उठने लगे हैं। यह सवाल भाजपा सांसद डॉ सुब्रमण्यम स्वामी ने उठाया है। डॉ स्वामी से ट्वीट किया है कि, उन्होंने राज्य सभा के पुस्तकालय से नेशनल सिक्युरिटी काउंसिल ( NSS ) के बजट के विवरण के बारे में पूछा तो पता चला कि,  वर्ष 2015 - 16 में ₹ 44 करोड़ और वर्ष 2016 - 17 में ₹ 33 करोड़ था। यही बजट अप्रत्याशित रूप से बढ़ कर, 2017 - 18 में, ₹ 333 करोड़ का हो गया। यह बजट बढोत्तरी क्यों हुयी। अमूमन हर साल का बजट अपने पिछले साल के बजट की तुलना में कुछ न कुछ बढ़ता ही रहता है, इसका काऱण मुद्रास्फीति, बाजार की महंगाई का असर  आदि होता है। कभी कभी जब कोई नई योजनाएं आती हैं तब भी बजट में उल्लेखनीय वृद्धि हो जाती है। यहीं, यह सवाल स्वाभाविक रूप से उपजता है कि , ₹ 33 करोड़ की तुलना में ₹ 333 करोड़ की, की गयी अचानक वृद्धि किन खर्चो को पूरा करने के लिये की गई थी। स्वामी, एक आशंका यह भी जताते हैं कि कहीं बजट की  यह अप्रत्याशित बढोत्तरी पेगासस स्पाइवेयर के लिये आवश्यक संसाधन जुटाने, उसके लिये रिसर्च और डेवलपमेंट जैसे मूलभूत इंफ्रास्ट्रक्चर बनाने के लिये तो नही किया गया था। हालांकि सरकार इस मामले पर मौन है और पेगासस स्पाइवेयर खरीदे जाने या न खरीदे जाने के बारे में सरकार का अभी तक कोई अधिकृत वक्तव्य नहीं आया है। 

एनएसओ जिसने पेगासस स्पाइवेयर डेवलप किया है और बेचा है ने कहा है कि उसे निगरानी के लिये क्रेता के यहां एक इंस्टालेशन और सपोर्ट सिस्टम लगाना पड़ता है। बड़े पैमाने पर हुयी निगरानी की इस घटना को बिना देश मे कहीं एक बेस बनाये अंजाम नहीं दिया जा सकता है। इसका सीधा अर्थ यह है कि एनएसओ का दिल्ली या आसपास कहीं न कहीं कोई कार्यालय या उसके सपोर्ट सिस्टम का आधार होगा, जहां से यह निगरानी की जाती रही है। अगर सरकार ने यह निगरानी नहीं कराई है तो, फिर यह और अधिक गम्भीर बात है कि कोई देश मे घुस कर, अपना सर्विलांस सिस्टम इंस्टाल कर के देश के पत्रकारों, जजों, विपक्ष के नेताओ, उद्योगपतियों तक की लम्बे समय से निगरानी कर रहा है और सरकार को इसकी भनक तक नहीं लग सकी ! और आज जब यह सब मायाजाल खुला और सरकार से यह सवाल पूछा जाने लगा कि यह जासूसी कौन करा रहा था तो सरकार यह तो कह रही है कि, उसने यह सब कुछ नहीं किया, पर वह यह भी नहीं बता पा रही है कि, आखिर फिर यह सब किया किसने ?

यदि सरकार यह जासूसी कराती तो, इस पर जो सवाल उठते, वे निजता के अधिकार के उल्लंघन और सरकार द्वारा निहित स्वार्थपूर्ण ताकझांक के सम्बंध में ही उठते, और वह देश का आंतरिक मामला होता है। पर यदि यह जासूसी, सरकार की जानकारी के बिना, जैसा कि  फिलहाल सरकार का स्टैंड है, की गई है तो यह एक प्रकार का साइबर हमला है और इस साइबर हमले पर चीनी घुसपैठ की नीति कि, न तो कोई घुसा था, न घुसा है के अनुरूप आचरण करना देश की आंतरिक सुरक्षा के लिये घातक होगा। आज जब कोई भी आकर यह निगरानी कर ले जा रहा है तो, क्या वह देश के सेना प्रमुखों, पीएमओ या अन्य महत्वपूर्ण संस्थानों की निगरानी नहीं कर सकता है ? सरकार ने, निश्चित ही अपने संस्थानों की सुरक्षा के सभी जरूरी और आधुनिकतम बंदोबस्त कर रखे होंगे और वह सतर्क भी होगी, फिर भी किसी अन्य  के द्वारा घुसकर इस प्रकार के महंगे स्पाइवेयर से सीजेआई के ऊपर महिला उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली महिला अधिकारी तक की जासूसी कर जाय और सरकार इस पर जांच तक कराने को राजी नहीं हो रही है तो, या तो यह सरकार की अक्षमता है या उसकी संलिप्तता। दोनो ही स्थितियों में यह एक चिंताजनक स्थिति है। उधर ब्रिटेन ने पेगासस जासूसी मामले में आरोपो को गंभीरता से लेते हुए जांच के आदेश दे दिए हैं। मोरक्को और मैक्सिको में भी जांच का होना तय हो गया है। फ्रांस पहले से ही जांच करा रहा है। भारत में ही बस जांच से बचने की सारी कोशिशें, तर्क,षड्यंत्र, छापे आदि की कवायद की जा रही हैं।

© विजय शंकर सिंह )

Thursday 22 July 2021

यदि भारत मे लोकतंत्र है तो पेगासस जासूसी कांड की जांच अब अनिवार्य है.

विदेशी अखबार द गार्डियन और वाशिंगटन पोस्ट सहित भारतीय वेबसाइट, द वायर और 16 अन्य मीडिया संगठनों द्वारा एक 'स्नूप लिस्ट' जारी की गयी, जिसमें बताया गया कई मानवाधिकार कार्यकर्ता, राजनेता, पत्रकार, न्यायाधीश और कई अन्य लोग इजरायली फर्म एनएसओ ग्रुप के पेगासस सॉफ्टवेयर के माध्यम से साइबर-निगरानी के टारगेट थे। पिछले कुछ दिनों में, द वायर ने इस जासूसी के संबंध में लगातार कई रिपोर्टें प्रकाशित की हैं जो बताती हैं कि, पेगासस सॉफ्टवेयर, केवल सरकारों को बेचा जाता है, और इसका मकसद आतंकी संगठनों के संजाल को तोड़ने और उनकी निगरानी के लिए किया जाता है। पेगासस स्पाइवेयर को एक हथियार का दर्जा प्राप्त है और वह सरकारों को, उनकी सुरक्षा के लिये जरूरी जासूसी हेतु ही बेचा जाता है। पर अब जो खुलासे हो रहे हैं, उनसे यह निष्कर्ष निकल रहा है कि, सरकारों ने, इसका इस्तेमाल राजनीतिक रूप से असंतुष्टों  और पत्रकारों पर नजर रखने के लिए भी किया है। इसमे भी, विशेष रूप से, वे पत्रकार जो सरकार के खिलाफ खोजी पत्रकारिता करते हैं और जिनसे सरकार को अक्सर असहज होना पड़ता है।

दुनियाभर के देशों ने पेगासस जासूसी के खुलासे पर अपनी प्रतिक्रिया देनी शुरू कर दिया है, पर भारत इसे विपक्ष की साज़िश बता कर इस जासूसी के खिलाफ अभी कुछ नहीं कर रहा है। क्या इस जासूसी की जांच की आंच सरकार को झुलसा सकती है या सरकार एक बार फिर, शुतुरमुर्गी दांव आजमा रही है। अब कुछ देशों की खबरें देखें।
● फ़्रांस ने न्यूज़ वेबसाइट मीडियापार्ट की शिकायत के बाद पेगासस जासूसी की जाँच शुरू कर दिया है। यह जासूसी मोरक्को की सरकार ने कराई है।
● अमेरिका में बाइडेन प्रशासन ने पेगासस जासूसी की निंदा की है हालांकि उन्होंने अभी किसी जांच की घोषणा नहीं की है।
● व्हाट्सएप प्रमुख ने सरकारों व कंपनियों से आपराधिक कृत्य के लिए पेगासस निर्माता एनएसओ पर कार्रवाई की मांग की।
● आमेज़न ने एनएसओ से जुड़े इंफ्रास्ट्रक्चर और अकाउंट बंद किया।
● मैक्सिको ने कहा है कि, एनएसओ से किये गए पिछली सरकार के कॉन्ट्रैक्ट रद्द होंगे।
● भारत में इस पर सरकार अभी भ्रम में है और आईटी मंत्री किसी भी प्रकार की जासूसी से इनकार कर रहे हैं और इसे विपक्ष की साज़िश बता रहे हैं ! हैरानी की बात यह भी है कि नए आईटी मंत्री, अश्विनी वैष्णव का नाम खुद ही जासूसी के टारगेट में हैं।

फ्रांसीसी अखबार ला मोंड ने, भारत को इस स्पाइवेयर के इजराइल से प्राप्त होने के बारे में, लिखा है कि, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जब जुलाई 2017 में इजरायल गये थे, तब वहां के तत्कालीन राष्ट्रपति बेंजामिन नेतान्याहू से उनकी लंबी मुलाकात हुई थी। नेतन्याहू से हमारे प्रधानमंत्री जी के सम्बंध बहुत अच्छे रहे हैं। हालांकि अब नेतन्याहू पद पर नहीं हैं। 2017 की प्रधानमंत्री जी की यात्रा के बाद ही, पेगासस स्पाईवेयर का भारत में इस्तेमाल शुरू हुआ, जो आतंकवाद और अपराध से लड़ने के लिए 70 लाख डॉलर में खरीदा गया था। हालांकि ल मांड की इस खबर की पुष्टि हमारी सरकार ने नही की है। और यही सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न है भी, कि हमने उक्त स्पाइवेयर खरीदा भी है या नहीं। हालांकि इस विवाद पर, पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने यह कहा है कि दुनिया के 45 से ज़्यादा देशों में इसका इस्तेमाल होता है, फिर भारत पर ही निशाना क्यों ? पर खरीदने और न खरीदने के सवाल पर उन्होंने भी कुछ नहीं कहा।

जैसा खुलासा रोज रोज हो रहा है, उससे तो यही लगता है कि पेगासस स्पाइवेयर  का इस्तेमाल सिर्फ अपने ही लोगों की निगरानी पर नहीं, बल्कि चीन, नेपाल, पाकिस्तान, ब्रिटेन के उच्चायोगों और अमेरिका की सीडीसी के दो कर्मचारियों की जासूसी तक में किया गया है। द हिन्दू अखबार की रिपोर्ट के अनुसार, सरकार ने कई राजनयिकों और विदेश के एनजीओ के कर्मचारियों की भी जासूसी की है। पर सरकार का अभी इस  खुलासे पर, कोई अधिकृत बयान नहीं आया है अतः जो कुछ भी कहा जा रहा है, वह अखबारों और वेबसाइट की खबरों के ही रूप में है।

इस बीच भाजपा सांसद, डॉ सुब्रमण्यम स्वामी ने एक ट्वीट कर के सरकार से पूछा है कि, पेगासस एक व्यावसायिक कम्पनी है जो पेगासस स्पाइवेयर बना कर उसे सरकारों को बेचती है। इसकी कुछ शर्तें होती हैं और कुछ प्रतिबंध भी। जासूसी करने की यह तकनीक इतनी महंगी है कि इसे सरकारें ही खरीद सकती हैं। सरकार ने यदि यह स्पाइवेयर खरीदा है तो उसे इसका इस्तेमाल आतंकी संगठनों की गतिविधियों की निगरानी के लिये करना चाहिए था। पर इस खुलासे में निगरानी में रखे गए नाम, जो विपक्षी नेताओं, सुप्रीम कोर्ट के जजों, पत्रकारों, और अन्य लोगों के हैं उसे सरकार को स्पष्ट करना चाहिए। उन्होंने सरकार से सीधे सवाल किया है कि, क्या उसने यह स्पाइवेयर एनएसओ से खरीदा है या नहीं ?

अब अगर सरकार ने यह स्पाइवेयर नहीं खरीदा है और न ही उसने निगरानी की है तो, फिर इन लोगों की निगरानी किसने की है और किन उद्देश्य से की है, यह सवाल और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है। अगर किसी विदेशी एजेंसी ने यह निगरानी की है तो, यह मामला बेहद संवेदनशील और चिंतित करने वाला है। सरकार को यह स्पष्ट करना ही होगा कि,
● उसने पेगासस स्पाइवेयर खरीदा या नहीं खरीदा।
● यदि खरीदा है तो क्या इस स्पाइवेयर से विपक्षी नेताओं, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं, सुप्रीम कोर्ट के जजों और कर्मचारियों की निगरानी की गयी है ?
● यदि यह निगरानी की गयी है तो क्या सरकार के आईटी सर्विलांस नियमों के अंतर्गत की गयी है ?
● यदि निगरानी की गयी है तो क्या सरकार के पास उनके निगरानी के पर्याप्त काऱण थे ?
● यदि सरकार ने उनकी निगरानी नहीं की है तो फिर उनकी निगरानी किसने की है ?
● यदि यह खुलासे किसी षडयंत्र के अंतर्गत सरकार को अस्थिर करने के लिये, जैसा कि सरकार बार बार कह रही है, किये जा रहे हैं, तो सरकार को इसका मजबूती से प्रतिवाद करना चाहिए। सरकार की चुप्पी उसे और सन्देह के घेरे में लाएगी।

यह एक सार्वजनिक तथ्य है कि, पेगासस स्पाइवेयर का लाइसेंस अंतरराष्ट्रीय समझौते के तहत मिलता है और इसका  इस्तेमाल आतंकवाद से लड़ने के लिये आतंकी संगठन की खुफिया जानकारियों पर नज़र रख कर उनका संजाल तोड़ने के लिये किया जाता है। पर जासूसी में जो नाम आये हैं, उससे तो यही लगता है कि, सरकार ने नियमों के विरुद्ध जाकर, पत्रकारो, विपक्ष के नेताओ और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के खिलाफ अपने निहित राजनीतिक उद्देश्यों के लिये उनकी जासूसी और निगरानी की है। यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट के जजों की भी निगरानी की बात सामने आ रही है। नियम और शर्तों के उल्लंघन पर पेगासस की कंपनी एनएएसओ भारत सरकार से स्पाईवेयर का लाइसेंस रद्द भी कर सकती है। क्योंकि, राजनयिकों और उच्चायोगों की जासूसी अंतरराष्ट्रीय परम्पराओ का उल्लंघन है औऱ एक अपराध भी है । अब वैश्विक बिरादरी, इस खुलासे पर सरकारों के खिलाफ क्या कार्यवाही करती है, यह तो समय आने पर ही पता चलेगा।

सर्विलांस, निगरानी और खुफिया जानकारी जुटाना, यह सरकार के शासकीय नियमों के अंतर्गत आता है। सरकार फोन टेप करती हैं, उन्हें सुनती हैं, सर्विलांस पर भी रखती है, फिजिकली भी जासूसी कराती हैं, और यह सब सरकार के काम के अंग है जो उसकी जानकारी मे होते हैं और इनके नियम भी बने हैं। इसीलिए, ऐसी ही खुफिया सूचनाओं और काउंटर इंटेलिजेंस के लिये, इंटेलिजेंस ब्यूरो, रॉ, अभिसूचना विभाग जैसे खुफिया संगठन बनाये गए हैं और इनको इन सब कामो के लिये, अच्छा खासा बजट भी सीक्रेट मनी के नाम पर मिलता है। पर यह जासूसी, या अभिसूचना संकलन, किसी देशविरोधी या आपराधिक गतिविधियों की सूचना पर होती है और यह सरकार के ही बनाये नियमो के अंतर्गत होती है। राज्य हित के लिये की गयी निगरानी और सत्ता में बने रहने के लिये, किये गए निगरानी में अंतर है। इस अंतर के ही परिपेक्ष्य में सरकार को अपनी बात देश के सामने स्पष्टता से रखनी होगी।

जितनी गम्भीरता से आज, जजों, पत्रकारों, विपक्षी नेताओं, की निगरानी की खबरें आ रही हैं, उतनी ही गम्भीरता से यदि पठानकोट एयरबेस, पुलवामा, हाल ही में हुए ड्रोन मामले और जम्मूकश्मीर में सक्रिय पाक समर्थित आतंकी गतिविधियों की खबर रखी गयी होती तो हर घटना के बाद खुफिया विफलता का आरोप नहीं लगता और यह भी हो सकता था कि उन घटनाओं को समय रहते रोक लिया गया होता। अजीब तमाशा है, जहां की खबर रखनी चाहिए, वहां की खबर ही नही रखी गयी और रंजन गोगोई पर आरोप लगाने वाली महिला की निगरानी के लिए  पेगासस स्पाइवेयर की ज़रूरत पड़ रही है ! यह तो, सामान्य व्यक्ति भी जानता है कि,  पूर्व सीजेआई द्वारा यौन उत्पीड़न की शिकार, महिला की जासूसी करके आतंकवाद या चीनी घुसपैठ के बारे में कोई जानकारी प्राप्त नहीं की जा सकती है। 

पेगासस जासूसी यदि सरकार ने अपनी जानकारी में देशविरोधी गतिविधियों और आपराधिक कृत्यों के खुलासे के उद्देश्य से किया है तो, उसे यह बात सरकार को संसद में स्वीकार कर लेनी चाहिए। लेकिन, यदि यह जासूसी, खुद को सत्ता बनाये रखने, पत्रकारो, विपक्षी नेताओं और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं की ब्लैकमेलिंग और उन्हें डराने के उद्देश्य से की गयी है तो यह एक अपराध है। सरकार को संयुक्त संसदीय समिति गठित कर के इस प्रकरण की जांच करा लेनी चाहिए। जांच से भागने पर कदाचार का सन्देह और अधिक मजबूत ही होगा।

सबसे हैरानी की बात है सुप्रीम कोर्ट के जजों की निगरानी। इसका क्या उद्देश्य है , इसे राफेल और जज लोया से जुड़े मुकदमो के दौरान अदालत के फैसले के अध्ययन से समझा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट के जज और सीजेआई पर महिला उत्पीड़न का आरोप लगाने वाली सुप्रीम  की क्लर्क और उससे जुड़े कुछ लोगों की जासूसी पर सुप्रीम कोर्ट को स्वतः संज्ञान लेकर एक न्यायिक जांच अथवा सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में,  सीबीआई जांच करानी चाहिए।

व्यापक निगरानी" के आरोप, यदि सही हैं, तो यह, निशाने पर आये सभी लोगों की गरिमा, निजता, वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार पर अस्वीकार्य अतिक्रमण है। अगर भारत सरकार ने ऐसा कृत्य किया है, तो यह नागरिकों के साथ  विश्वासघात है।  अगर किसी अन्य विदेशी सरकार ने ऐसा किया है, तो यह भारत और उसके नागरिकों पर साइबर हमला है।  किसी भी तरह, सच्चाई तक पहुंचने और मौलिक अधिकारों के इस उल्लंघन के लिए जिम्मेदार लोगों को जवाबदेह ठहराने के लिए एक स्वतंत्र न्यायिक जांच होनी चाहिए। यह प्रवित्ति, लोकतंत्र के लिए घातक है  कि, राज्य की एजेंसियां ​​​​नागरिकों के जीवन और उनके मौलिक अधिकारों को रौंद सकती हैं। यह लोकतंत्र की मूल अवधारणा के ही विपरीत है। अब बात निकली है तो दूर तक जाएगी।  

© विजय शंकर सिंह )
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