Tuesday 30 October 2018

31 अक्तूबर सरदार पटेल का जन्मदिन और एकता दिवस - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

आज सरदार पटेल का जन्मदिन है। आज गुजरात मे उनकी एक विशालकाय प्रतिमा का अनावरण हो रहा है और देश मे एकता दिवस मनाया जा रहा है। कही रन फ़ॉर यूनिटी निकालीं जा रही है तो कहीं उन्हें किसी और तरह से याद किया जा रहा है। आज भारत का जो भौगोलिक स्वरूप हम नक्शे पर देख रहे हैं वह स्वरूप सरदार पटेल का ही दिया हुआ है। 600 से अधिक देसी रियासतों का एकीकरण करना कोई सामान्य प्रतिभा की बात नहीं थी। यह दमखम सरदार में ही था।

अक्सर एक भ्रम जानबूझकर कर फैलाया जाता है कि जवाहरलाल नेहरू और बल्लभभाई पटेल के बीच वैमनस्य था। जब हम दो बड़े राजनेताओं के मत वैभिन्यता की चर्चा करते हैं तो उनके विपरीत मत मतांतर को विवाद के रूप में देखने लगते है। नेहरू और पटेल दोनों ही कांग्रेस के शीर्षस्थ नेता थे। दोनों ही लोकतांत्रिक प्रक्रिया, गांधी के अहिंसा और सत्याग्रह के सिद्धांतों में विश्वास करने वाले थे। दोनों ही का मूल पेशा वकालत था। वकालत के मामले में पटेल नेहरू से बड़े वकील थे। वे उम्र में भी बड़े थे और नेहरू को उनके प्रथम नाम जवाहर से ही बुलाते थे। गांधी के दोनों ही प्रिय थे। लेकिन गांधी का अनुराग नेहरू के प्रति अधिक था। इसीलिए 1946 में जब कांग्रेस अध्यक्ष बनने की बात चली तो यह पद जवाहरलाल नेहरू को मिला जो बाद में प्रधानमंत्री के रूप में बदल गया। प्रधानमंत्री भले ही नेहरू रहे हों पर सरदार की बात कभी भी नहीं कटी। नियति ने उन्हें 1950 में उठा लिया पर उन्होंने 1947 से 1950 तक उन तीन साल के अवधि में जो किया वह उन्ही के बस की बात थी। उनकी दुर्दम्य लौह इच्छाशक्ति के कारण ही उन्हें देश का लौह पुरुष कहा गया।

आज़ादी के पहले जब मंत्रिमंडल बन रहा था तो सरदार पटेल को मंत्रिमंडल में शामिल करने हेतु जो अनुरोध पत्र नेहरू ने पटेल को भेजा था उसके कुछ अंश पढ़ें। नेहरू ने लिखा था,
''कुछ हद तक औपचारिकताएं निभाना जरूरी होने से मैं आपको मंत्रिमंडल में सम्मिलित होने का निमंत्रण देने के लिए लिख रहा हूं। इस पत्र का कोई महत्व नहीं है, क्योंकि आप तो मंत्रिमंडल के सुदृढ़ स्तंभ हैं।'
जब नेहरू को मंत्रिमंडल का गठन करने और उसके सदस्यों की सूची भेजने के लिए कहा गया तो उन्होंने अपनी प्रथम सूची में सरदार पटेल को कोई स्थान नहीं दिया था। बाद में जब सरदार पटेल को मंत्रिमंडल में उप प्रधानमंत्री के रूप में शामिल किया गया तो उन्होंने अपने एक कनिष्ठ सहकर्मी को सहयोग देना सहर्ष स्वीकार कर लिया। नेहरू ने स्वयं भी अहसास किया कि उनका प्रधानमंत्री बनना सरदार पटेल की उदारता के कारण ही संभव हो सका।

इस पत्र के जवाब में पटेल ने 3 अगस्त को नेहरू के पत्र के जवाब में लिखा-
" आपके 1 अगस्त के पत्र के लिए अनेक धन्यवाद। एक-दूसरे के प्रति हमारा जो अनुराग और प्रेम रहा है तथा लगभग 30 वर्ष की हमारी जो अखंड मित्रता है, उसे देखते हुए औपचारिकता के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता। आशा है कि मेरी सेवाएं बाकी के जीवन के लिए आपके अधीन रहेंगी। आपको उस ध्येय की सिद्धि के लिए मेरी शुद्ध और संपूर्ण वफादारी औऱ निष्ठा प्राप्त होगी, जिसके लिए आपके जैसा त्याग और बलिदान भारत के अन्य किसी पुरुष ने नहीं किया है। हमारा सम्मिलन और संयोजन अटूट और अखंड है और उसी में हमारी शक्ति निहित है। आपने अपने पत्र में मेरे लिए जो भावनाएं व्यक्त की हैं, उसके लिए मैं आपका कृतज्ञ हूं।"
यह दो महान नेताओं के आपसी सम्बंध से जुड़े पत्राचार के अंश हैं।
सरदार पटेल ने पत्र का जवाब किसी औपचारिकतावश नहीं लिखा था बल्कि यह उन दोनों के साझे संघर्ष की प्रगाढ़ता थी ।

अब पढिये सरदार पटेल ने अपनी मृत्यु के करीब डेढ़ महीने पहले 2 अक्टूबर 1950 में नेहरू के बारे में क्या कहा था,
"अब चूंकि महात्मा हमारे बीच नहीं हैं, नेहरू ही हमारे नेता हैं। बापू ने उन्हें अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया था और इसकी घोषणा भी की थी। अब यह बापू के सिपाहियों का कर्तव्य है कि वे उनके निर्देश का पालन करें और मैं एक गैरवफादार सिपाही नहीं हूं।"
(सरदार पटेल का पत्र व्यवहार, 1945-50, प्रकाशक नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद )

यह एक दुष्प्रचारित तथ्य है कि सरदार पटेल कांग्रेस के तीन दिग्गजों महात्मा गाँधी, नेहरु और सुभाष बाबू के खिलाफ थे। किंतु यह मात्र दुष्प्रचार ही है। हाँ, कुछ मामलों में-खासकर सामरिक नीति के मामलों में-उनके बीच कुछ मतभेद जरुर थे, पर ये मतभेद लोकतांत्रिक प्रक्रिया के एक अंग थे न कि किसी की खिलाफत थी। उन्होंने प्रधानमंत्री के रुप में पं. नेहरु के प्रति भी उपयुक्त सम्मान प्रदर्शित किया। उन्होंने ही भारत को ब्रिटिश राष्ट्रमण्डल में शामिल करने के लिए नेहरु को तैयार किया था; यद्यपि नेहरु पूरी तरह इसके पक्ष में नहीं थे। जहाँ सुभाष बाबू के साथ उनके संबंधों की बात है, वे सन् 1939 में दूसरी बार सुभाष बाबू को कांग्रेस का अध्यक्ष चुने जाने के खिलाफ थे। लेकिन इन सारे राजनैतिक मतभेदों के बावजूद भी सुभाषचंद्र बोस ने किस प्रकार सरदार पटेल के बड़े भाई विट्ठलभाई पटेल जिनका विएना में निधन हो गया था, के अंतिम संस्कार में मदद की थी, उससे दोनों के मध्य आपसी प्रेम और सम्मान की भावना का पता चलता है।

नेहरू पटेल के बीच मतभेदों को दुष्प्रचारित करते हुए यह अक्सर कहा जाता है कि सरदार पटेल के संतानों को नेहरू ने पटेल की मृत्यु के बाद कभी भी सम्मान नहीं दिया। लेकिन वे यह तथ्य भूल जाते हैं कि,  नेहरू के रहते ही, मणिबेन को काँग्रेस में पूरा मान-सम्मान मिला, और सरदार पटेल के बेटे डाह्याभाई पटेल को 1957 और 1962 में लोकसभा के लिए चुने गए और फिर 1973 में अपने देहांत तक राज्यसभा के सदस्य रहे. उस समय पटेल के पुत्र के विरोध में कौन था, भारतीय जनसंघ। एक समय ऐसा भी आया जब सरदार पटेल के बेटे और बेटी, दोनों ही एक साथ लोकसभा और फिर राज्यसभा में थे । जिस नेहरू को वंशवादी कह कर कोसा जाता है उनकी ही एकमात्र पुत्री इंदिरा गांधी को नेहरू के जीवित रहते तक लोकसभा और राज्यसभा का टिकट तक नहीं मिला। इंदिरा पहली बार राज्यसभा के लिये 1965 में जब लालबहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने थे तो चुनी गयी थी। जबकि 1950 में सरदार पटेल की मृत्यु के बाद नेहरू ने  मणिबेन 1952 के पहले ही आम चुनाव में काँग्रेस का टिकट दिलवाया. और वे दक्षिण कैरा लोकसभा क्षेत्र से सांसद बनीं. 1957 में वे आणंद लोकसभा क्षेत्र से चुनी गईं. 1964 में उन्हें काँग्रेस ने राज्यसभा भेजा. वे 1953 से 1956 के बीच गुजरात प्रदेश काँग्रेस कमेटी की सचिव और 1957 से 1964 के बीच उपाध्यक्ष रहीं।

गांधी और नेहरू संघ परिवार के सदैव निशाने पर रहे हैं और आज भी हैं। संघ परिवार के पटेल अनुराग का एक कारण यह भी है पटेल और नेहरू में कई  मामलों में वैचारिक मतभेद था। उन्ही लोकतांत्रिक मत मतांतर को संघ परिवार एक प्रतिद्वंद्विता के रूप में देखता है। ग़ांधी नेहरू के विरुद्ध प्राप्त हर तर्क और प्रसंग को यह लपक लेता है। संघ परिवार की मुख्य समस्या एक यह भी है कि उसे कांग्रेस की गाँधी-नेहरू विरासत की काट के लिए कुछ ऐसे नेता चाहिए जिनका उपयोग वह अपने हिन्दुत्व के एजेंडे के लिए कर सके। उसके अपने वैचारिक पुरखे इस काबिल नहीं हैं कि वे गाँधी-नेहरू की धर्मनिरपेक्ष विरासत का मुकाबला कर सकें, इसलिए संघ टोली ने सरदार पटेल, सुभाषचंद्र बोस से लेकर भगतसिंह तक को अपने पुरखों से जोड़ने की नाकाम कोशिश कई बार की, जबकि पटेल, सुभाष और भगतसिंह आदि का संघ परिवार से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं था।

नेहरू से कई मुद्दों पर मतभेद के बावजूद पटेल ने कभी नेहरू का साथ नहीं छोड़ा। यहाँ तक कि नेहरू-लियाकत समझौते के बढ़ते विरोध पर जवाहरलाल नेहरू ने प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने की पेशकश की तो पटेल ने ही उन्हें ऐसा न करने के लिए मनाया और कहा कि देश को आपके नेतृत्व की जरूरत है। 1947 में दिल्ली में दंगाई जब हजरत निजामुद्दीन की दरगाह तोड़ने के लिए बढ़ रहे थे, तब गृहमंत्री होते हुए पटेल खुद दरगाह में जाकर बैठ गए थे और सारे अधिकारियों को वहीं बुला लिया था। जहाँ तक संघ पर पाबंदी लगाने की बात है तो सरदार पटेल ने बतौर गृहमंत्री, न सिर्फ संघ पर पाबंदी लगाई बल्कि तत्कालीन सरसंघचालक गुरु गोलवलकर को गिरफ्तार करने में जब मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री रविशंकर शुक्ल ने कमजोरी दिखाई तो पटेल ने ही राज्य के उपमुख्यमंत्री और गृहमंत्री द्वारकाप्रसाद मिश्र को 48 घंटे के भीतर गोलवलकर को गिरफ्तार करने का आदेश दिया।

गांधी हत्याकांड में संघ की भूमिका पर सरदार पटेल के यह शब्द पठनीय हैं।
आरएसएस को हिंदुओं का संगठन कहना, उनकी सहायता करना एक प्रश्न है पर उनकी मुसीबतों का बदला निहत्थे व लाचार औरतों, बच्चों व आदमियों से लेना अलग प्रश्न है, उनके अतिरिक्त यह भी था कि उन्होंने (आरएसएस स्वयंसेवकों ने) कांग्रेस और समाज के एक खास वर्ग में विरोध करके बेचैनी पैदा कर दी थी। इनके सारे भाषण सांप्रदायिक द्वेष से भरे थे। हिन्दुओं में जोश पैदा करना व उनकी रक्षा के प्रबंध करने के लिए यह आवश्यक न था कि वह जहर फैले। उस जहर का फल अंत में यही हुआ कि गाँधीजी की कुर्बानी देश को सहनी पड़ी। इसके बाद जनता और देश की सहानभूति जरा भी आरएसएस के साथ न रही बल्कि उनके खिलाफ हो गई। महात्मा गाँधी की मृत्यु पर आरएसएस वालों ने हर्ष प्रकट किया व मिठाई बाँटी। इससे विरोध और भी बढ़ गया तथा सरकार को इस हालत में आरएसएस के खिलाफ कार्रवाई करना जरूरी थी।"

आज एकता दिवस है। पर एकता दिवस का संकल्प लेने के पूर्व हमे यह भी संकल्प लेना होगा कि हम हर उस विचार, संगठन, और व्यक्ति के विरुद्ध सरदार पटेल जैसी ऊंचाई और लौह इच्छाशक्ति के साथ खड़े हों जो देश, समाज और लोगों को किसी भी प्रकार के कठघरों में बांटने के लिये षडयंत्र और प्रयास कर रहे हैं। आज जब घृणा और विभाजनवाद एक स्थायी भाव बनता जा रहा है तो सरदार पटेल अचानक प्रासंगिक हो गए हैं।

© विजय शंकर सिंह

सीबीआई का आंतरिक विवाद संवैधानिक संस्थाओं के साख का सवाल है / विजय शंकर सिंह

सीबीआई में हाल के दिनों में जो घटनाएं घटी है, स्पेशल डायरेक्टर राकेश आस्थाना के खिलाफ दो करोड़ की रिश्वतखोरी का मुकदमा कायम होना, फिर उनका सीबीआई निदेशक पर बेईमानी का आरोप लगाना, सरकार का आधी रात को दोनों को छुट्टी पर भेज देना, निदेशक आलोक वर्मा सहित एक अन्य एनजीओ कॉमन कॉज का सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर करना, अचानक सरकार का यह कहना कि किसी को हटाया नहीं गया है, और जो कुछ भी किया गया है वह सीवीसी केंद्रीय सतर्कता आयुक्त की संस्तुति पर किया गया है, फिर सुप्रीम कोर्ट की सुनवायी के बाद यह निर्णय देना कि सीवीसी दस दिन में सीबीआई प्रमुख के विरूद्ध की जा रही जांच, समाप्त करें और यह जांच सुप्रीम कोर्ट के ही एक अवकाश प्राप्त जज एके पटनायक की निगरानी में हो, आदि आदि घटनाएं बड़ी तेज़ी से घटी हैं। ऐसा लगता है कि बरसों से राजनीतिक स्वार्थांधता से महत्वपूर्ण संस्थाओं में जो नियुक्तियां हो रही थी उनका परिणाम अचानक एक पके फोड़े की तरह बह आया है। अब इसे दुर्भाग्यपूर्ण कहें या जो भी कहें, भारत की सबसे महत्वपूर्ण अपराध अनुसंधान संस्थान की यह तस्वीर बेहद दुखद और ग़ैरपेशेवराना है।


अब जरा सीबीआई के बारे में भी जान लें।
1941 में स्पेशल पुलिस इस्टेबलिशमेंट के रूप में यह जांच एजेंसी ब्रिटिश काल मे द्वीतीय विश्वयुद्ध के समय घूसखोरी, बेईमानी और भ्रष्टाचार के सौंपे गए मामलों की जांच करने के लिये गठित की गयी क्योंकि युद्धकाल में ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ गयी थी । आज की सीबीआई को सारी विधिक शक्तियाँ 1946 में पारित दिल्ली स्पेशल पुलिस इस्टेबलिशमेंट एक्ट .जो से1946 में ब्रिटिश सरकार द्वारा पारित किया गया है से प्राप्त होती हैं। इसका उद्देश्य भ्रष्टाचार से जुड़े मामलों की जांच करना और भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्यवाही करना है।
1963 में भारत सरकार ने इसी अधिनियम के अंतर्गत सीबीआई को भ्रष्टाचार के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए सबसे प्रमुख एजेंसी के रूप में मान लिया और इसका नाम सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इन्वेस्टिगेशन केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो रखा। इस एजेंसी को देश के अंदर न केवल भ्रष्टाचार बल्कि अन्य जटिल अपराधों की विवेचना के लिये भी अधिकृत किया गया।
2013 के लोकपाल अधिनियम के पारित हो जाने के पहले सीबीआई निदेशक जो पुलिस के डायरेक्टर जनरल रैंक का होता है की नियुक्ति इसी एक्ट ( डीएसपीई ) के अनुसार होती थी। लोकपाल अधिनियम के पारित होने के बाद निदेशक की नियुक्ति प्रक्रिया बदल दी गयी। लोकपाल अधिनियम के पहले,  डीएसपीई एक्ट के अंतर्गत सीबीआई निदेशक की नियुक्ति एक पैनल की संस्तुति पर की जाती थी, जिसमे सेंट्रल विजिलेंस कमिश्नर, सीवीसी अध्यक्ष, अन्य सतर्कता आयुक्त, केंद्रीय गृह सचिव और सचिव ( कोऑर्डिनेशन तथा लोक शिकायत कैबिनेट सेक्रेटेरिएट ) सदस्य होते थे।
लोकपाल अधिनियम के पारित होने के बाद चयन प्रक्रिया बदल गयी। अब चयन प्रक्रिया के लिये एक सर्च कमेटी का गठन किया जाता है जिसका अध्यक्ष प्रधानमंत्री, और सदस्य सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश सीजेआई और नेता विरोधी दल सदस्य होते हैं।
सीबीआई निदेशक के चयन की प्रक्रिया भारत सरकार के गृह मंत्रालय में शुरू होती है। गृह मंत्रालय में ऐसे आईपीएस अफसरों की सूची बनायी जाती है जो वरिष्ठ हो और जिनको मुकदमों के तफटीशों के काम मे पर्याप्त अनुभव हो। यह सूची केंद्रीय गृह सचिव के पर्यवेक्षण में तैयार होती है। केंद्रीय गृह मंत्रालय इस सूची को कार्मिक विभाग में भेजता है जो प्रधानमंत्री के सीधे अधीन रहता है, जो अंतिम सूची तैयार करता है जिसका आधार, " वरिष्ठता, सत्यनिष्ठा और भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच में अनुभव " होता है।
वर्तमान सीबीआई निदेशक की नियुक्ति इसी प्रक्रिया के अंतर्गत की गयी है।

ऐसा बिल्कुल भी नहीं है कि सीबीआई में राजनीतिक दखल की यह पहली घटना है। 1993 में विनीत नारायण बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मुक़दमे में भी सीबीआई को स्वतंत्र और स्वायत्त बनाने की मांग की गयी थी। विनीत नारायण एक पत्रकार थे जिन्होंने हवाला फंडिंग के मामले में याचिका दायर की थी। अपने समय की यह बहुत महत्वपूर्ण घटना है। तब भी सीबीआई पर सरकार के दखल का आरोप लगा था। हालिया विवाद के संदर्भ में, विनीत नारायण के ही शब्दों में पढ़े,
" 25 साल बाद भी सीबीआई के क्रिया-कलाप में कोई परिवर्तन नहीं आया है और राजनीतिक पार्टियां इसे अपने मनमाफिक इस्तेमाल कर रही हैं. "
इसी मामले में फैसले के बाद सीबीआई डायरेक्टर का कार्यकाल दो साल किया गया था.।

यूपीए 2 के आखिरी तीन साल बहुत हंगामाखेज रहे। उस समय सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार के कई मामले, कुछ तो जनहित याचिकाओं के कारण तो कुछ सीएजी की रिपोर्ट में दर्ज आर्थिक अनियमितताओं के कारण कोयला आवंटन मामला, 2 जी मामला, कॉमनवेल्थ खेल घोटाला मामला, आदि रोज़ ही अखबारों की सुर्खियां बनते थे। इनकी रोज़ रोज़ सुनवायी होती थी और उसी समय अन्ना हज़ारे का भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन भी चल रहा था। तब कानून मंत्री को एक हलफनामे पर सरकार के रुख के अनुसार ड्राफ्ट करने के आरोप में अपना पद छोड़ना पड़ा था। उस समय एक स्वायत्त सीबीआई की मांग पर 2013 में दो वरिष्ठ आईपीएस अफसरों ने एक लेख लिखा था और यह कहा था कि सीबीआई को भी चुनाव आयोग और कंट्रोलर और ऑडिटर जनरल सीएजी की तरह, स्वायत्त और स्वतंत्र संस्था बनायी जाय। पर उस दृष्टिकोण का विरोध करते हुए एक अन्य वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी वप्पला रामचंद्रन ने कहा कि ईसी और सीएजी के पास पुलिस जैसी गिरफ्तारी, तलाशी और जब्ती जैसी शक्तियां नहीं है। यह तीन शक्तियां पुलिस को किसी भी विभाग से अधिक अधिकार सम्पन्न बनाती है। अतः सीबीआई को मिलने वाली स्वायत्तता और स्वतंत्रता उसे उच्छृंखल और स्वच्छंद भी बना सकती है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मांग पर यह कहा भी था कि, " सीबीआई को अबाध शक्तियां नहीं दी जा सकती हैं कि जिससे वह एक बेलगाम घोड़े की तरह हो जाय। "

सीबीआइ के स्पे. डायरेक्टर राकेश अस्थाना और डायरेक्टर आलोक वर्मा के बीच हुये विवाद पर अब कोई राय देना उचित नहीं होगा क्योंकि यह मामला अब अदालत के विचाराधीन है लेकिन सीबीआई के वरिष्ठतम अधिकारी का भ्रष्टाचार केे मामलों में फंसने का यह पहला मामला भी नहीं है। जिस मोईन कुरेशी के कारण राकेश अस्थाना पर रिश्वतखोरी का मुकदमा कायम है, उसी मोइन कुरेशी के चक्कर मे सीबीआई के पूर्व निदेशक एके सिंह और रंजीत कुमार सिन्हा भी विवादित हो चुके हैं। सरकार ने राकेश अस्थाना की नियुक्ति के मामले में भी निर्धारित मानदंडों का पालन नहीं किया । बल्कि जब सीबीआई के निदेशक अनिल सिन्हा 2 दिसंबर 2016 को अवकाश प्राप्त करने वाले थे तभी सभी नियमों के प्रतिकूल तत्कालीन विशेष निदेशक आरके दत्ता को गृह मंत्रालय में स्थानांतरित करके राकेश अस्थाना को कार्यवाहक निदेशक बनाये जाने का जुगाड़ कर लिया गया। यही नहीं सरकार द्वारा कोई स्थायी निदेशक सिर्फ इसलिए नहीं नियुक्त किया गया कि राकेश अस्थाना को सीबीआई का बॉस बनाये रखना था। और वे 3 दिसंबर 16 से जनवरी 2017 तक सीबीआई प्रमुख बने भी रहे। हालांकि 9 दिसंबर 16 को सुप्रीम कोर्ट ने आरके दत्त के स्थानांतरण पर अपनी अप्रसन्नता भी जाहिर की और पूछा कि अचानक उन्हें क्यों हटा दिया गया।  सरकार के पास कोई जवाब ही नहीं था।

आज जिस सीवीसी के ऊपर सारी जिम्मेदारी डालकर सरकार अलग हट जा रही है कि उसने जो कुछ भी किया है वह सीवीसी की अनुशंसा पर किया है, पर यही सीवीसी केवी चौधरी ने जब आरके दत्त को अचानक विशेष निदेशक के पद से हटाया गया था, तो, चुप्पी साध ली और जी जहाँपनाह के मोड में आ गए। 8 अक्टूबर 2018 के हिंदुस्तान टाइम्स में छपे विवरण के अनुसार, गृह मंत्रालय से आरके दत्त को हटाने का जो नोट गृह मंत्रालय द्वारा सीवीसी को भेजा गया था उसे जस का तस सीवीसी ने स्वीकार कर लिया है। जब कि यह एक स्वायत्त संस्थान है। सीवीसी ने अपने विवेक और स्वायत्तबोध का उपयोग ही नहीं किया। संस्थान भले ही स्वायत्त हो, पर जब उसके प्रमुख के पद पर बैठा व्यक्ति ही अगर अपनी स्वायत्तता का प्रयोग न करे तो, क्या किया जा सकता है।

आलोक वर्मा ने फरवरी 2017 में सीबीआई निदेशक का कार्यभार ग्रहण किया है। उनके और स्पे डायरेक्टर राकेश अस्थाना में पहला टकराव जुलाई 2018 में हुआ था। उस समय सीवीसी को यह सूचना दी गयी कि राकेश अस्थाना को निदेशक की अनुपस्थिति में सीबीआई निदेशक के अधिकार नहीं डेलीगेट किये गये हैं। राकेश अस्थाना दरअसल यह चाहते थे कि निदेशक की अनुपस्थिति में उन्हें ही निदेशक की सारी शक्तियां और अधिकार मिले। लेकिन आलोक वर्मा उन्हें नम्बर दो पर ही नहीं देखना चाहते थे। उनके अनुसार राकेश अस्थाना की सीबीआई में नियुक्ति ही त्रुटिपूर्ण है। क्योंकि जब उनकी नियुक्ति हुयी थी तभी उनके खिलाफ कई जांचे चल रही थी। लेकिन सरकार से नजदीकी उन्हें इस पद पर ले आयी। फिर यह विवाद बढ़ता गया। सीवीसी जो आज सीबीआई के अंदर व्याप्त विवाद को दूर करने के लिय बेहद तत्परता दिखा रहे हैं, के संज्ञान में यह विवाद जुलाई में ही आ गया था, पर उन्होंने इसे दूर करने का कोई प्रयास नहीं किया। आलोक वर्मा ने कैबिनेट सचिव को भी अस्थाना के बारे में प्रतिकूल पत्र भेजा था पर वहां भी चुप्पी रही। अगर तभी सरकार और सीवीसी सक्रिय हो जाते तो हो सकता है यह विवाद बढ़ा नहीं होता। सितंबर 18 में निदेशक के खिलाफ कई खबरें कुछ अखबारों और न्यूज़ चैनल में छपी जिसका खंडन सीबीआई ने किया। आलोक वर्मा को यह लगा कि इन सारी खबरों के पीछे राकेश अस्थाना हैं। जब अखबारों, न्यूज़ चैनल और वेबसाइटों पर यह खबरें छप रही हैं तो सीवीसी और सरकार की उदासीनता हैरान करती है।

आज सीबीआइ की जो दुर्गति आप देख रहे हैं न, वह एक दिन का करिश्मा नहीं है। यह प्रथा पुलिस की तफ्तीश को राजनीतिक हित और निज स्वार्थ लाभ के लिये नेताओ की मनमर्जी से बदलने की एक ज़िद और महत्वाकांक्षा का परिणाम है। पुलिस से मनमाफिक काम कराने और एवज में पुलिस अफसर को मनचाही पोस्टिंग देने के अवैध व्यापार का दुष्परिणाम है। बहुत से अफसर चाहे वे एसआई हों या आईपीएस जो, राजनेताओं के धुन पर नहीं नाचते हैं और बलिहाज़ सियासत, वे उनके उपयोग के नहीं होते हैं, वे फिर कहीं दाएं बाएं पड़े होते है। किसी भी सरकार ने चाहे वह किसी भी दल की हो, पुलिस के प्रोफेशनल सुधार की ओर कदम ही नहीं बढ़ाये। कभी गम्भीरता से राजनीतिक नेतृत्व ने इसे सोचा भी नहीं। पूर्व डीजीपी, प्रकाश सिंह की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार हेतु कई आदेश निर्देश दिए। फिर भी किसी सरकार ने इसे गम्भीरता से नहीं लिया। नेता कहते है कि जब पुलिस ही उनके अधिकार क्षेत्र में नहीं रहेगी तो वह किस प्रकार से खुद को सत्तारूढ़ समझेगे। जब यह मानसिकता है तो यह दुर्गति तो होनी ही है।

यह भी सत्तर सालों में पहली बार हो रहा है कि देश की प्रमुखतम जांच एजेंसी के स्पेशल डायरेक्टर पर घूसखोरी की एफएआईआर होती है और वह खुल कर अपने डायरेक्टर को ही आरोपित कर देते हैं कि हमने नहीं उन्होंने घूस खाया है। रिश्वत की लेनदेन का ऐसा सार्वजनिक तू तू मैं मैं तो हमने छोटे छोटे थाने के कर्मचारियों को भी सार्वजनिक रूप से करते नहीं देखा है। सीबीआई ही अंतिम आसरा हुआ करती है किसी भी जटिल मुक़दमे की जांच के लिये। पर अब इस जांच एजेंसी पर से लोगों का विश्वास दरक रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने तो पहले ही इसे तोता कह कर इसकी कार्यप्रणाली पर सवालिया निशान लगा दिया था। अब यह खुल कर जो आरोप स्पेशल डायरेक्टर अपने ऊपर दर्ज मुक़दमे के बाद लगा रहे हैं, यह पुलिस सेवा से जुड़े होने के कारण मेरे लिये अप्रत्याशित है। न आलोक वर्मा कल इस एजेंसी में रहेंगे और न राकेश अस्थाना। दोषी कौन है यह भी पता चल ही जायेगा। पर इस प्रमुख जांच एजेंसी का जो संस्थागत नुकसान हो रहा है वह हमारी सरकार का शासन न करने की कला का ही प्रदर्शन है। समस्या सरकार और राजनीति की जड़ में ही है। सरकार जब अपना अफसर - उसका अफसर बांट कर नौकरशाही को देखने लगती है तो समस्या वहीं से शुरू हो जाती है। अफसर जिन्हें कानून और संविधान के प्रति समर्पित होना चाहिये वे पहले सरकार औऱ फिर सरकार के ही एक व्यक्ति मुखिया के प्रति समर्पित होने लगते हैं। वे एक कानून लागू करने वाले विधि शक्ति सम्पन्न अफसर के बजाय सत्ता शीर्ष के निजी सेवक की भूमिका में उतर आते हैं। यह दोनों के लिये सुविधाजनक समझौता होता है। सभी अफसर ऐसे या ऐसी मानसिकता के नहीं होते हैं, पर जो अफसर ऐसे नहीं होते हैं, वे सत्ता के गलियारे से दूरस्थ कक्षा में कहीं टिमटिमाते पड़े रहते हैं। जब चहेते और सरकार या सरकारी दल या सत्ता शीर्ष के प्रति निजी रूप से वफादार अफसर किसी संस्थान पर हावी होते हैं तो,  फिर वह संस्थान एक कानून को कानूनी तरह से लागू करने वाला संस्थान नहीं बल्कि सरकार के मुखिया का एक गिरोह बन जाता है। सत्ता का मुखिया खुद चाहता है कि पुलिस और जांच एजेंसियां ऐसे आज्ञाकारी वफादार गिरोह में बदल जाँय जो कानून के प्राविधान के बजाय मुखिया की बातें सुनें, मुखिया जो कहे उसका येन केन प्रकारेण कानूनी एंगल खींच खांच कर, चूल से चूल मिलाकर मुखिया को यह यकीन दिला दें कि, आप ही परम सत्य है स्वामी ! 

विधि का विधि पूर्वक पालन करने वाली पुलिस किसी भी सरकार और राजनीतिक दल को रास नहीं आती है। सरकार तो जी जहाँपनाह या यस मिनिस्टर जैसे अफसर और पुलिस चाहिये, क्यों कि विधि के विधिपूर्वक पालन से सरकार का न तो राजनीतिक एजेंडा सधता है और न ही राजनीतिक दलों के उन नेताओं का स्वार्थ जो केवल अपने निजी हित स्वार्थ लाभ हेतु राजनीतिक दलों के झंडे बदल बदल के बलिहाज़ सियासी मौसम चोला बदलते रहते हैं। सीबीआई के वर्तमान विवाद पर सरकार को मूँदहुँ आंख कतहुँ कुछ नाहीं, की मिथ्या ध्यान मुद्रा से बाहर आना चाहिये। यह देश की प्रमुख जांच एजेंसी जो इंटरपोल की देश की तरफ से अधिकृत सदस्य है की न केवल देश मे बल्कि अंतराष्ट्रीय साख का सवाल है। आशा है सरकार और न्यायपालिका कुछ ऐसा सार्थक निर्णय लेंगे जिससे सीबीआई की साख बनी रहेगी।

© विजय शंकर सिंह