Thursday 8 April 2021

श्रीमंत पेशवा बाजीराव प्रथम का वंश - 2 - तीसरी पीढ़ी

श्रीमंत शमशेर बहादुर के पुत्र श्रीमंत अली बहादुर- बुंदेलखंड विजेता और बांदा रियासत के संस्थापक...

नियति किस ओर करवट लेगी,  यह कोई नहीं बता सकता । नाना साहब पेशवा की मृत्यु 1761 में पानीपत के ग़म में हो गई थी। सो उनके दूसरे बेटे माधवराव को पेशवा बना दिया गया, क्योंकि बड़े बेटे विश्वासराव पानीपत में शहीद हो गए थे। 1772 में माधवराव की भी मृत्यु हो गई। उनका कोई भी पुत्र नहीं हुआ था, सो छोटे भाई नारायणराव को पेशवा बना दिया गया। ३० अगस्त 1773 को नारायणराव पेशवा की हत्या उन्हीं के चाचा राघुनाथ राव ने पेशवाई हथियाने की ख़ातिर एक पिंडारी से करवा दी। फिर 30 जनवरी 1774 को उनकी विधवा गंगाबाई को मराठा साम्राज्य का पेशवा बना दिवा गया। यह अपने आप में बहुत ही अनोखी घटना थी । औरत और वो भी विधवा और मराठा साम्राज्य की पेशवा ? ये करामात थी नाना फडणीस की । नाना ने यह काम बहुत स्पष्ट रूप से किया । उसने गंगाबाई के नाम से वैसी द्वाही ( Public announcement ) लगायी कि अभी से गंगाबाई पेशवा है । (संदर्भ- अहिल्याबाई होळकर पृ १३४) अब वे बेचारी घरेलू औरत थीं, सो पेशवा बनते ही उनकी जान को ख़तरा महसूस होने लगा । उस समय वे गर्भवती भी थीं, तो पेशवा बनाने के बाद उन्हें पुणे के शनिवारवाड़ा से निकालकर सुरक्षा की दृष्टि से पुरंदर के किले में रख दीया गया । अब गंगाबाई के नाम से बाराभाई ( नाना फडणीस और 11 साथी ) मराठा साम्राज्य का कारोबार देखने लगे । इनमें महादजी शिन्दे भी थे। नाना फडणीस ने और एक योजना तैयार कर रखी थी- अगर गंगाबाई को बेटी हो गयी तो शमशेर बहादुर के पुत्र अली बहादूर को पेशवा की गद्दी पर बिठाने की, क्योंकि वे बाजीराव-मस्तानी के पोते थे और पेशवा के वंशज ही थे । ये 12 साथियों ने ही तय करके रखा था (पृ १३४)। जब ये बात राघुनाथराव(राघोबा) को मालूम चली, तो उन्होंने पुणे के शनिवारवाड़ा स्थित मस्तानी महल को आग लगा दी, जहां से अली बहादुर को महादजी शिन्दे के सेवक ने बचा कर निकाल दिया था। बाद में गंगाबाई को पुत्र हुआ  जिसको माधवराव नाम दिया गया और इतिहास में वो सवाई माधवराव के नाम से जाना जाता है । इस तरह ४० दिन के सवाई माधवराव को पेशवा बनाया गया । वो भी मराठा साम्राज्य का पेशवा ? सवाल ये है कि नाना फडणीस ने पेशवाई संभाल ली थी या उसका मज़ाक बनाया था ?

बहरहाल आज खास बात हो रही है, श्रीमंत अली बहादुर की, तो बता दूं कि शमशेर बहादुर की इस इकलौती संतान का जन्म 1758 में पुणे स्थित शनिवारवाड़ा के मस्तानी महल में ही हुआ था। ये शमशेर बहादुर की पहली पत्नी मेहरम बाई से जन्मी संतान थे। उनके पैदा होने की खुशी में ख़ुद पेशवा नाना साहेब ने पुणे में मिठाई बंटवाई थी। अली बहादुर जब सिर्फ 3 बरस के ही थे, तभी पानीपत में उनके पिता श्रीमंत शमशेर बहादुर भी वीरगति को प्राप्त हो गए थे। अली बहादुर की भी परवरिश शनिवारवाड़ा में ही हुई थी। इतिहास के जानकार बताते और लिखते हैं कि सूरत-शक्ल, क़द-कामद, बुद्धि और बल, श्रीमंत बाजीराव की ये सभी खूबियां अगर उनके किसी वंशज में आई थीं, तो वे श्रीमंत अली बहादुर ही थे। यही वजह रही कि राघुनाथ राव जैसा बहादुर शख़्स भी इस बात से ख़ौफ़ खाता था, कि कहीं इसे पेशवा ना बना दिया जाए। यही वजह रही कि 1787 में अली बहादुर ने पुणे छोड़ दिया।

नाना फड़णवीस ने उन्हें मराठों की उस सरज़मीन पर भेजा, जो पेशवा बाजीराव ने अपने पराक्रम के बल पर महाराजा छत्रसाल से हासिल की थी, यानी कि "बुंदेलखंड"। श्रीमंत अली बहादुर प्रथम को बुंदेलखंड का मराठा सरसूबेदार बना कर भेजा गया था, लेकिन इस वक़्त यहां मराठों के पास कुछ बचा ही नहीं था। हालांकि 1761 में पानीपत हारने के बाद अगले दस सालों में मल्हार राव होलकर और खास कर महादजी शिन्दे ने माधवराव पेशवा (प्रथम) के नेतृत्व में ज़्यादातर हारा हुआ हिस्सा फिर से जीत लिया था, लेकिन बुंदेलखंड पर फिर से बुंदेलों, चंदेलों और रोहिलों का क़ब्ज़ा हो गया था। 

1789 में श्रीमंत अली बहादुर ने बांदा के भूरागढ़ किले पर हमला कर बुंदेला राजा नोनी अर्जुन सिंह को हरा कर किले पर क़ब्ज़ा कर लिया। अली बहादुर ने बांदा को अपना मुख्यालय बनाया। उसके बाद शुरू हुआ श्रीमंत बाजीराव पेशवा के इस मराठा मुस्लिम वंशज के पराक्रम का सिलसिला। 1790 में अली बहादुर ने जब बुंदेलखंड के राज्यों पर हमले करने शुरू किए तो रीवा के राजा अजीत सिंह ने उन्हें बक़ायदा पत्र लिख कर आग्रह किया, कि आप हमारे राज्य पर आक्रमण ना करें, बल्कि बैठ कर तय कर लेते हैं, जो चौथ की रकम हम मुग़लों को दिया करते हैं, अब से आप को अदा करेंगे। इस तरह श्रीमंत अली बहादुर ने मजाराज अजीत सिंह से 12 लाख रुपये की चौथ वसूल की थी, जो उस समय, उस इलाके में अपने आप में एक रिकॉर्ड था।  1791 से 1795 के बीच अली बहादुर ने पन्ना, बिजावर, चरखारी, महोबा, हमीरपुर, अलीपुर, बरौधा, खड्डी, जैतपुर और अजयगढ़ राज्यों पर आक्रमण किया और उनसे भारी चौथ और सरदेशमुखी वुसूल किया।

1798 में अली बहादुर ने बैरी, जिगनी, जैतपुर, गौरिहार पर आक्रमण किये और यहां के राजाओं, जागीरदारों से चौथ की रक़म वसूल की। इतना ही नहीं यही एक ऐसे पराक्रमी राजा हुए, जिन्होंने उस वक़्त के दतिया और ओरछा के बूदेंले राजाओं को भी हरा कर उनसे भी चौथ वसूली की। अली बहादुर ने जालौन राज्य से भी चौथ वसूला। ये वही अली बहादुर थे जिन्हें महादजी शिन्दे के बढ़ते रसूख के चलते तुकोजीराव होलकर के साथ-साथ उत्तर दिशा में सूबेदार बना कर पेशवाओं द्वारा भेजा गया था कि ये दोनों महादजी पर न सिर्फ नज़र रखें बल्कि उन्हें क़ाबू में भी रखें। महादजी ने तुकोजीराव होलकर को तो एक युद्ध मे परास्त कर दिया, लेकिन अली बहादुर से लोहा नहीं लिया, बल्कि 1788 में महादजी सिंधिया ने अली बहादुर को साथ लेकर दिल्ली की एक मुहीम में भी हिस्सा लिया था और मेरठ से रोहिला सरदार ग़ुलाम क़ादिर को पकड़ कर शाह आलम द्वितीय के हवाले अली बहादुर ही ने किया था। ये वही ग़ुलाम क़ादिर था, जिसने मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय को अंधा कर दिया था। 

महादजी और अली बहादुर के इस पराक्रम से खुश हो कर शाह आलम द्वितीय ने महादजी शिन्दे को वज़ीर ए मुतलक़, यानी कि एक तरह से मुग़ल प्रधानमंत्री का ख़िताब दिया और अली बहादुर से अपनी भांजी का निकाह करवाया, ये उनकी दूसरी पत्नी हुईं (अली बहादुर का पहला निकाह पुणे में हुआ था)। हालांकि इस वक़्त तक मुग़ल सिर्फ नाम के ही बादशाह थे और पूरे हिंदुस्तान पर मराठे अपनी तलवार के ज़ोर पर हुकूमत कर रहे थे। इस वक़्त तक अली बहादुर को बुंदेलखंड विजेता कहा जाने लगा था। आगे चल कर महादजी भी अली बहादुर से परेशान हो गए थे और उनकी व तुकोजीराव होलकर की शिकायत लेकर 1794 में पुणे गए थे, जहां 64 साल की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई थी। 

सन 1800 ई. आते-आते  अली बहादुर का सिक्का पूरे उत्तर भारत मे चल रहा था। उन्होंने ही निज़ाम हैदराबाद के एक बेटे और इमाद उल मुल्क की बेटी के पुत्र को बावन गांव की जागीर दी, जिसे बाओनी राज्य कहा गया, जो अब भी एक शहर के रूप में जालौन जिले में स्थित है। इसी तरह बुंदेलों की ही एक शाखा के वंशज को आज़ाद राज्य का राजा भी अली बहादुर ने अपने प्रभाव से बनवाया, जिस की वजह से उस बुंदेला राजा ने अपनी रियासत का नाम ही अली बहादुर के सम्मान स्वरूप "अलीपुरा" रख दिया। हालांकि इतने पराक्रम के बावजूद भी अली बहादुर कालिंजर का पठार नहीं जीत सके और इसी को जीतने के जुनून में उनकी मृत्यु 1802 में कालिंजर में ही हुई। कालिंजर के अलावा अनेकों मुहिमों में अली बहादुर का साथ यशवंतराव भट और उनके वंशजों ने दिया था, जो पहले तो रघुनाथराव पेशवा के विश्वासपात्र थे, पर बाद में श्रीमंत अली बहादुर के सरदार के रूप में काम कर रहे थे। 1802 में अली बहादुर की मृत्यु के बाद उनके बड़े बेटे शमशेर बहादुर द्वितीय ने बांदा आकर नवाब की गद्दी सम्भाली जो उस वक़्त पुणे में अपनी मां के साथ शनिवारवाड़ा में ही रहते थे। इनके अलावा अली बहादुर की दूसरी पत्नी(शाह आलम की भांजी) से भी उन्हें एक पुत्र थे, जिनका नाम ज़ुल्फ़िक़ार बहादुर प्रथम था, जो बाद में अपने बड़े भाई के निर्वंश होने के चलते उनकी मृत्यु के बाद बांदा के नवाब बने। 

तो ये थी श्रीमंत पेशवा बाजीराव प्रथम के मराठा मुस्लिम पोते, पराक्रमी श्रीमंत अली बहादुर की कहानी। उनके दोनों पुत्रों के बारे में जानकारी अगले लेख में दी जाएगी। धन्यवाद।

नूह आलम
( Nooh Alam )

श्रीमंत बाजीराव पेशवा का वंश -1
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/1_5.html

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