Thursday, 15 April 2021

बॉबी गिब - पहली मेराथन धावक

बॉबी गिब ने चलना सीखते ही दौड़ना शुरू कर दिया था. उसकी बाकी सहेलियां भी दौड़ा करती थीं लेकिन तेरह-चौदह की आयु तक उन्होंने दौड़ना छोड़ दिया. बॉबी बीस की हुई तब भी दौड़ ही रही थी. जाहिर है उसे ऐसा करने में आनंद आता था. 

अमेरिका के एक छोटे से शहर की रहने वाली बॉबी को इस उम्र की होने तक समाज में स्त्री का दर्जा भी समझ में आना शुरू हो रहा था. उसे घर पर रह कर पति और परिवार का ख़याल रखने की उम्मीद की जाती थी. लेकिन बॉबी बाकी स्त्रियों से अलग थी. उसे जीवन में किसी गहरे अर्थ की तलाश थी. 1964 का साल था जब बाईस साल की उम्र में वह अपने पिता के साथ बोस्टन गयी. इत्तफाक से उसी दिन वहां हर साल आयोजित होने वाली विश्वविख्यात मैराथन चल रही थी. बॉबी ने उसे करीब से देखा. उसने जीवन में पहली बार इतने सारे आदमियों को एक साथ दौड़ता हुआ देखा था. मनुष्य की शारीरिक क्षमता को उसके चरम तक ले जाने काली इस रेस को देख कर वह मंत्रमुग्ध रह गयी. 

घर वापस लौटने के अगले ही दिन से उसने मैराथन दौड़ने की प्रैक्टिस करना शुरू कर दिया. दो साल की तैयारी के बाद उसने बोस्टन मैराथन में भाग लेने के लिए अप्लाई किया तो उसे बताया गया कि नियमों के अनुसार वह हिस्सा नहीं ले सकती. जाहिर है  दुनिया में चलने वाले बाकी नियम-कानूनों की तरह खेलों के भी सारे नियम पुरुषों ने ही बनाए थे. तब तक औरतों को डेढ़ मील से ज्यादा लम्बी रेस दौड़ने लायक नहीं समझा जाता था. यह मान लिया गया था कि अपनी नाजुक और कमजोर देह-रचना के चलते वे इससे अधिक दौड़ पाने लायक नहीं होतीं. छब्बीस मील की मैराथन दौड़ना तो असंभव था. यह अलग बात है कि बॉबी तब तक एक बार में चालीस मील तक दौड़ रही थी. अधिकारियों का यह बयान पढ़ कर उसे हंसी आई कि कोई औरत डेढ़ मील से ज्यादा नहीं भाग सकती क्योंकि उससे अधिक भागने की हालत में कोई भी बीमा कम्पनी उसके जीवन की गारंटी देने को तैयार न थी.

बॉबी की समझ में दो बातें आईं. पहली यह कि बोस्टन मैराथन के आयोजकों के सामान्य ज्ञान में थोड़ी वृद्धि की जानी चाहिए और दूसरी यह कि अगर वे उस दौड़ में हिस्सा ले सकीं तो अपने समय की महिलाओं के अधिकारों की लड़ाई में वह एक बड़ा कदम होगा. 

रेस में हिस्सा लेने के लिए वह तीन रात और चार दिन का बस का सफ़र तय कर कैलिफोर्निया से बोस्टन पहुँची. वहां से उसका घर नजदीक ही था. स्टेशन पर पहुँच कर उसने अपने माँ-बाप को फोन करके अपने इरादे के बारे में बताया. उसके पिता को लगा बेटी का दिमाग खराब हो गया है. शुरू में माँ ने भी ऐसा ही समझा लेकिन जब बॉबी ने उन्हें बताया कि उसकी दौड़ स्त्रियों के लिए बराबरी के हक़ की लड़ाई है तो वे रोने लगीं. माँ ने पूरी जिन्दगी में पहली बार अपनी बेटी का पक्ष लिया और प्रस्ताव दिया कि अगले दिन रेस के लिए वही उसे गाड़ी से छोड़ने जाएँगी. 

उसे पता था वह एक अवैध काम करने जा रही थी जिसके लिए उसे जेल भी भेजा जा सकता था. अगले दिन यानी 19 अप्रैल 1966 को अपने भाई की बरमूडा निक्कर और हुड वाली स्वेटशर्ट पहन कर बॉबी रेस के स्टार्ट पॉइंट पर पहुँची. उसने ऐसा इसलिए किया था कि लोग उसे पहचान न सकें. रेस शुरू होने तक वह झाड़ियों में छिपी बैठी रही. जब आधे लोग भाग चुके थे वह बाहर निकली और दौड़ने लगी. कुछ देर बाद उसके पीछे चल रहे कुछ धावकों ने उसे देखकर कयास लगाना शुरू किया कि वह औरत है. बॉबी ने हुड उतार कर उन्हें बताया कि हाँ वह औरत है और अपने अधिकार के लिए दौड़ रही है. उसने उन्हें यह भी बताया कि उसे डर है असलियत पता चलने पर उसे रेस से बाहर कर दिया जाएगा. साथी धावकों ने उसे यकीन दिलाया कि उनके रहते हुए ऐसा करने की हिम्मत किसी की नहीं होगी.

दौड़ने वालों और दर्शकों के बीच आग की तरह यह खबर फैल गई. जगह-जगह उसका स्वागत होने लगा. स्थानीय रेडियो पर उसकी दौड़ की रनिंग कमेंट्री शुरू हो गयी. रेस ख़तम होने पर मैसाचुसेट्स के गवर्नर खुद उसका हाथ मिलाने को वहां खड़े थे. इतिहास बन चुका था और अगली सुबह के अखबारों के पहले पन्नों पर उसकी तस्वीरें थीं.

बॉबी ने 3 घंटा 21 मिनट 40 सेकेण्ड में दौड़ पूरी की. हिस्सा ले रहे दो तिहाई से ज्यादा पुरुष उस से पीछे थे. इसके बावजूद स्त्रियों को आधिकारिक रूप से मैराथन दौड़ने का अधिकार 19 72 में मिला.

अशोक पांडेय 
(Ashok pandey)

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