Thursday 30 March 2017

असग़र वजाहत की एक कहानी - लकड़ी के अब्दुल शकूर की हंसी / विजय शंकर सिंह

(प्रस्तावना - हम तुम्हें मार रहे हैं लेकिन तुम हंस रहे हो।  देखो कितनी सच्ची, प्यारी और अनोखी हंसी है। ऐसी हंसी तो शायद तुम पहले कभी नहीं हंसे। या हंसे  होगे पर भूल गए। ये यह अच्छा है  कि तुम्हारी याददाश्त कमजोर है तुम  उन सबको भूल जाते हो जिन्होंने तुम्हें  हंसाया था ।
तुम दिल खोल कर हंस रहे हो।  अब देखो तुम बदल रहे हो। तुम्हारे आंसू नहीं हैं ये तो ओस की बूंदें हैं जो आकाश से तुम्हारे ऊपर टपक रही हैं। देखो तुम्हारा अल्लाह भी तुमसे ख़ुश है क्योंकि तुम  खुश हो। देखो तुम ज़िंदा हो। देखो तुम बोल सकते हो।आगे बढ़ रहे हो।तुम्हारी आने वाली पीढ़ियां तुम पर गर्व करेंगीं कि तुम कभी नहीं रोये। सिर्फ हंसते रहे, सिर्फ हंसते हो। हंसते रहो, हमारी यही कामना है।)

1.
अब्दुल शकूर वल्द अब्दुल वहीद वल्द करीम वल्द रहीम वल्द रमना वल्द चमना के अंदर एक बड़ी खूबी पैदा हो गई है। वैसे तो अब्दुल शकूर बढ़ई का काम करता है। उसकी सात पुश्तों से यही काम होता आया है।

आजकल अब्दुल शकूर बहुत खुश है। क्योंकि  उसके अंदर एक  खास ख़ूबी पैदा हो गई है। जो और किसी में नहीं है। मतलब यह कि अब्दुल शकूर जब पीटा जाता है तब वह हंसता है। खुश होता है। इस बात पर उसके घर वाले भी हसंते हैं ।तालियां बजाते हैं और पीटने वाला तो फूला  नहीं समता।

2.

-अब्दुल शकूर तुम्हें मार खाने में मज़ा आता है ?
- जी हां मुझे मार खाने में मज़ा आता है
- कितना मजा आता है
- यह तो नहीं बता सकता है। लेकिन समझ लीजिए बेहिसाब मज़ा आता है
-  कोई भी मारता है तो तुम्हें मज़ा आता है?
-  नहीं
-  फिर कौन मारता है जब तुम्हें मज़ा जाता है?
-  जब आप मारते हैं तो मुझे मज़ा आता है

3
- अब्दुल शकूर मैं मीडिया के सामने तुमसे एक सवाल पूछ रहा हूं
- जी पूछिए
- अब्दुल शकूर मैं जब तुम्हें मारता हूं तो तुम्हें चोट बिल्कुल नहीं लगती?
- नहीं मेरे को नहीं लगती
- तुम्हें बिल्कुल दर्द नहीं होता?
-  नहीं मुझे कोई दर्द नहीं आता
-  तुम्हारी तो खाल तक उधड़ जाती है तुम्हें बिल्कुल तकलीफ नहीं होती?
- जी नहीं मुझे बिल्कुल तकलीफ नहीं होती
-  क्यों अब्दुल शकूर?
-  इसलिए कि आप मुझे लकड़ी का जो समझते हैं

4
-अब्दुल शकूर मैं तुम्हें क्यों मरता हूं?
- इसलिए कि मैं देश से प्रेम नहीं करता
- यह तुम्हें कैसे पता चला कि तुम देश से प्रेम नहीं करते
- सर यह तो मुझे पता ही नहीं चलता है अगर.....
- अगर क्या?  बताओ बताओ ?
- अगर.....
- फिर तुम रुक गए...बताओ?
- अगर आपने न बताया होता तो....

5
- मेरा एक बहुत बड़ा दुश्मन है। उसके पास बहुत ताकत है। वह मुझे बर्बाद कर देना चाहता है। मैं उसका सामना करने के लिए हमेशा तैयार रहता हूं ।वह कभी छुपा हुआ वार करता है कभी सामने से हमला करता है। तुम जानते हो अब्दुल शकूर  वह कौन है ?
-हाँ मैं जानता हूं कौन है
-  बताओ वह कौन है?
-  मैं हूं मैं....

6

- अब्दुल शकूर क्या तुम सपने देखते हो?
- हां जी मैं सपने देखता हूं
-क्या सपना देखते हो?
- मैं सपना देखता हूं कि एक हरी घास का मैदान है और उस मैदान में एक घोड़ा घास चर रहा है
- वह घोड़ा कौन है
- वह  मैं हूं
-  फिर  क्या होता है ?
- हरी घास चर ही रहा हूं तभी मेरे मुंह में लगाम डाल दी जाती है और मैं घास भी नहीं चर पाता
- तब?
- तब मेरी पीठ पर कोई  बैठ जाता है
- तुम्हारी पीठ पर कौन बैठ जाता है?
-  मेरी पीठ पर आप ही बैठ जाते हैं और मुझे कोड़ा मारते हैं। मैं तेजी से भागता हूं।
- फिर?
- सामने से कोइ चला आ रहा है
- कौन चला आ रहा है?
- मैं ही चला आ रहा हूँ
- फिर ?
- और मैं अपने को रौंदता हुआ निकल जाता हूं

7

- तुम पढ़ क्यों नहीं पाए अब्दुल शकूर तमाम स्कूल कॉलेज खुले हुए हैं?
- हां गलती मेरी ही है
- तुम अपना इलाज क्यों नहीं करा पाए अब्दुल शकूर तमाम अस्पताल खुले हुए हैं?
- हां गलती मेरी ही है
-  तुम नौकरी क्यों नहीं पा पाये अब्दुल शकूर तमाम दफ्तर खुले हुए हैं ?
- हां गलती मेरी है
-  तुम कितनी गलतियां करोगे अब्दुल शकूर?
-  लकड़ी का आदमी ग़लती नही करेगा तो क्या करेगा साहब....

8

- अब्दुल शकूर तुम्हारे घर की दीवार गिर गई
- कोई बात नहीं गिर जाने दो
- अब्दुल शकूर तुम्हारे घर की छत गिर गई
-  गिर जाने दो कोई बात नहीं
-  अब्दुल शकूर तुम्हारे बीवी-बच्चे नीचे दब गये है
-  दब जाने दो कोई बात नहीं
-  तुम्हारी दुकान में आग लग गई है। तुम्हारे सारे औज़ार जल गए।  तुम्हारे पास खाने को कुछ नहीं है
- कुछ भी हो जाये, हो जाए
- क्यों अब्दुल शकूर?
- अच्छे दिन आएंगे
- ये तुमसे किसने कहा
- मुझे यकीन है
- कैसे
- आपने ही बताया है..

9

- अब्दुल शकूर तुमने खाना खाया?
- खा लिया
- लेकिन तुम्हारे घर में तो कुछ था नहीं
- तुमने पानी पिया?
- जी पी लिया
-  लेकिन तुम्हारे घर में पानी तो था नहीं।
- पर पी लिया
-  तुमने कपड़े पहने ?
- जी पहने
- लेकिन तुम तो नंगे हो।
- तुमने इलाज कराया?
- करा लिया
-  लेकिन तुम तो बीमार दिखाई दे रहे होअब्दुल शकूर
- आप भी कमाल करते हैं.... मैं बहुत खुश हूँ... लकड़ी का आदमी हूँ न....

10

(अब्दुल शकूर का जैसा अंत हुआ वैसा काश हम सब का हो।आमीन )

अब्दुल शकूर मस्जिद में नमाज पढ़ने गया। वह नमाज पढ़ने खड़ा होने ही वाला था कि मस्जिद की एक भारी मीनार टूट कर उसके ऊपर गिरी और अब्दुल शकूर उसके  नीचे कुचल कर मर गया।
मरने के बाद उसका पोस्टमार्टम किया गया है। रिपोर्ट यह आई कि मरने से पहले वह हंस रहा था।

Wednesday 29 March 2017

पंजाबी के क्रांतिकारी कवि अवतार सिंह पाश की एक कविता - सबसे खतरनाक / विजय शंकर सिंह

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती

बैठे-बिठाए पकड़े जाना - बुरा तो है
सहमी-सी चुप में जकड़े जाना - बुरा तो है
पर सबसे ख़तरनाक नहीं होता

कपट के शोर में
सही होते हुए भी दब जाना - बुरा तो है
जुगनुओं की लौ में पढ़ना -बुरा तो है
मुट्ठियां भींचकर बस वक्‍़त निकाल लेना - बुरा तो है
सबसे ख़तरनाक नहीं होता

सबसे ख़तरनाक होता है
मुर्दा शांति से भर जाना
तड़प का न होना सब सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर
और काम से लौटकर घर जाना
सबसे ख़तरनाक होता है
हमारे सपनों का मर जाना

सबसे ख़तरनाक वो घड़ी होती है
आपकी कलाई पर चलती हुई भी जो
आपकी नज़र में रुकी होती है

सबसे ख़तरनाक वो आंख होती है
जो सबकुछ देखती हुई जमी बर्फ होती है
जिसकी नज़र दुनिया को मोहब्‍बत से चूमना भूल जाती है
जो चीजों से उठती अंधेपन की भाप पर ढुलक जाती है
जो रोज़मर्रा के क्रम को पीती हुई
एक लक्ष्यहीन दुहराव के उलटफेर में खो जाती है

सबसे ख़तरनाक वो चांद होता है
जो हर हत्‍याकांड के बाद
वीरान हुए आंगन में चढ़ता है
लेकिन आपकी आंखों में मिर्चों की तरह नहीं गड़ता

सबसे ख़तरनाक वो गीत होता है
आपके कानो तक पहुँचने के लिए
जो मरसिए पढता है
आतंकित लोगों के दरवाज़ों पर
जो गुंडों की तरह अकड़ता है

सबसे खतरनाक वह रात होती है
जो ज़िंदा रूह के आसमानों पर ढलती है
जिसमे सिर्फ उल्लू बोलते और हुआँ हुआँ करते गीदड़
हमेशा के अँधेरे बंद दरवाजों-चौगाठों पर चिपक जाते है

सबसे ख़तरनाक वो दिशा होती है
जिसमें आत्‍मा का सूरज डूब जाए
और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा
आपके जिस्‍म के पूरब में चुभ जाए

मेहनत की लूट सबसे ख़तरनाक नहीं होती
पुलिस की मार सबसे ख़तरनाक नहीं होती
ग़द्दारी और लोभ की मुट्ठी सबसे ख़तरनाक नहीं होती ।
( अवतार सिंह पाश )

Friday 24 March 2017

एक कविता - अभाव / विजय शंकर सिंह

अक्सर सन्नाटे भरी रातों में, 
जब सब नींद में , मुब्तिला, 
ख्वाब दर ख्वाब, पार करते रहते हैं , 
तो मैं, आसमान की दूर तक पसरी, 
दूधिया आकाश गंगा की और, 
तेरे क़दमों की आहट की उम्मीद में, 
चुपचाप , देखता रहता हूँ. !

खुशनुमा मौसम, 
बादलों के बनते बिगड़ते अक़्स, 
चाँद का आवारगी भरा सफ़र, 
तेरी यादों के उमड़ते घुमड़ते हुज़ूम, 
शहर के क्षितिज पर, जगमगाती कंदीलें, 
सब कुछ है मेरे आस पास. 
पर तुम नहीं हो !

मन के अंदर से अक्सर एक आवाज़ , 
उभर आती है, 
तेरे बिन, कुछ कमी सी है !!!

© विजय शंकर सिंह

कानून एवम् व्यवस्था - एक चर्चा / विजय शंकर सिंह

एक फ़ोटो सोशल मिडिया पर देखी । बुखार की तरह फ़ैल रही है । वायरल का अनुवाद कर दिया मैंने । वह फ़ोटो पुलिस थाने की है । आगंतुक फरियादी को जूस ऑफर किया जा रहा है । कैप्शन लिखा था , कि अब जूस और पानी से स्वागत किया जा रहा है । हम पुलिस वाले वक़्त और मौसम की नज़ाक़त बहुत संजीदगी से समझते हैं । सरकार की मंशा हम बखूबी समझ जाते हैं । घोडा सवार पहचानता है । मैं खुश हुआ । अच्छा लगा थानों के स्टाफ की आदत बदल रही है । कुछ तहज़ीब भी उमग रहीं है । पता नहीं आप ने कभी एक सामान्य फरियादी बन के थाना देखा है या नहीं । मेरी शुभेच्छा है आप को जीवन में कभी थाना  , अदालत और अस्पताल किसी फरियादी और पीड़ित के रूप में न जाना पड़ा । पर कभी थाने ज़रूर जाइयेगा । वहाँ मौजूद पुलिस जन के इर्द गिर्द बह रही आब ओ हवा का जायज़ा लेने । आप के इलाके की रहबरी करते हैं वे लोग । कभी देखिएगा उनके बैठने का कमरा । टूटी कुर्सियां दिखे तो ज़रा गौर से देखिएगा । ये कुर्सियां संख्या में कम ही होती है । सुना था ब्रिटिश जमाने में तो और भी कम होती थी । अब अगर प्रभारी थानाध्यक्ष थोडा शौक़ीन और पढ़े लिखे ज़रा आधुनिक शैली बोली के हुए तो वे अच्छी कुर्सियां जुगाड़ से या इलाके के किसी मित्र की सदाशयता से मंगा कर अपने सौंदर्य बोध का परिचय दे देते हैं । अंदर घुसियेगा तो एक बड़ा और चूना पुता कमरा , ऊंचा मंच और उसी पर कुछ तरतीब तो कुछ बेतरतीब से रखे खूबसूरत जिल्दों में सजे पीले और मटमैले पन्नों वाले मोटे और भारी भरकम रजिस्टर जिन पर उनके नंबर लिखे रहते हैं , पड़े मिलेंगे ।  ज़िल्द तो हर मुआयने के पहले अमूमन बदल ही जाती है । और अगर यह मुआयना डीआईजी साहब का हुआ तो समझिये थाने के लोग उतनी ही मेहनत कर के इन जिल्दों और इन कमरों को सजाता है जैसे उनके घर कोई वैवाहिक आयोजन हो रहा हो। उस कमरे में बैठे तीन चार व्यक्ति भी मिलेंगे जो कार्यालय का काम देखते हैं । ज़रा कमरे का मौसम भी देखिएगा । फिर उनको भी ।  पर मौसम कोई भी हो काम तो करना ही है । लोग जब कहीं न कहीं और कभी न कभी लुटेंगे और पिटेंगे तो थाने ही आएंगे ।

थोडा विषयांतर हो गया । थाना थोडा नॉस्टैजिक असर देता है । जूस से स्वागत की बात चल रही थी । अगर यह परिवर्तन सच में है तो इसका स्वागत है । पर जूस से पहले थाने की मूलभूत समस्याओं का समाधान करना होगा । जवानों के आवास , उनके लिए बिजली, पानी , सफाई और आवास की मूल समस्याओं का निराकरण करना होगा । पुलिस आधुनिकीकरण की एक योजना है जिसमे वाहन और आवास का बजट आता है । इसका अच्छा परिणाम भी सामने आ रहा है । पर अभी भी कमियाँ है । सबसे बड़ी समस्या जन शक्ति की है । थानों का नियतन कम है । और जो नियुक्ति है वह तो अधूरी है । थाने अब केवल अपराधों के ही नियंत्रण के उद्देश्य से नहीं याद किये जाते पर इलाके के हर घटनाक्रम में थानों को व्यस्त रहना पड़ता है । परीक्षा में नकल से ले कर इलाके की हर शान्ति व्यवस्था का दबाव थानों पर रहता है । और इस दबाव का मनोवैज्ञानिक असर पुलिस जन के शारीरिक और मानसिक सेहत पर पड़ता है । एक अध्ययन के अनुसार 50 वर्ष से अधिक  की उम्र का 77 % बल मधुमेह और हायपरटेंशन से पीड़ित है । यह काम का दबाव है या कार्यशैली की अकुशलता या मानसिक तनाव या इन सबका मिला जुला प्रभाव ।

जब भी सरकार बनती है तब भी कानून व्यवस्था का ही मुद्दा उठता है और जब सरकार बिगड़ती है तब भी यही मुद्दा उठता है । निश्चित रुप से यह सर्वाधिक प्राथमिकता भरा मुद्दा है । कानून बना रहे यह तो आवश्यक है ही कानून है दिखे यह उस से भी महत्वपूर्ण है । सरकार को थानों को ही ईकाई मान कर उनकी मूलभूत सुविधाओं को बनाये रखने की क़वायद करनी पड़ेगी । मैं महानगरों के थानों की बात नहीं कर रहा हूँ । मैं गाँव के उन थानों की बात कर रहा हूँ जहां अभी भी आने जाने के साधनों का अभाव है । हम अक्सर उन आंकड़ों पर भरोसा करते हैं कि पिछली सालों से कम अपराध हुआ है । अपराध कम नहीं होता उसका स्वरूप बदल जाता है । आबादी बढ़ रही है, लोगों की आदतें बढ़ रही हैं , संचार के साधन बढ़ रहे हैं , अपराध के नये नये तरीके सामने आ रहे हैं और जब हमारे दीवान जी तेरह कॉलम वाला नक़्शा टेबल पर फैलाये धीरे और अदब से यह कहते थे कि सरकार तीन साला अपराध तो बराबर है पर पांच साला तो कम है तो हम भी थोडा इतमीनान से टेबल के नीचे टाँगे फैला कर रिलैक्स हो जाते थे और बगल में रखी चाय और कुछ प्लेटों में रखी काजू और अन्य नमकीन टूंगते हुए जाहिराना तौर पर थोडा रिलैक्स तो ज़रूर फील करते थे पर अचानक ग़ालिब का यह शेर भी याद आ जाता था, हमको मालूम है जन्नत की हकीकत लेकिन ।

पुलिस की मूलभूत समस्या उसको प्रदत्त सुविधाओं , जनशक्ति की आपूर्ति से जुडी तो है ही इसके अतिरिक्त अपराध रोकने की सारी जिम्मेदारी ओढ़े यह महकमा , आपराधिक न्याय तंत्र का सिर्फ एक हिस्सा है । पुलिस सुधार हेतु कई आयोग बने , उनकी संस्तुतियां भी मिली, मन रखने और कसम खाने के लिये कुछ संस्तुतियां सरकार ने लागू भी कीं पर बहुत सी संस्तुतियां अभी भी लागू नहीं हुयीं है । नवीनतम आयोग धर्मवीर का था । जिसकी संस्तुतियों को लागू करने के लिए पूर्व डीजी उत्तर प्रदेश और बीएसएफ प्रकाश सिंह सर सवोच्च न्यायालय तक गए । सवोच्च न्यायालय ने उन संस्तुतियों को लागू करने के लिए सरकार को निर्देश भी दिए पर किसी भी प्रदेश की सरकार ने उन पर गम्भीरता से अमल नहीं किया । आज पुलिस राजनैतिक निष्ठाओं के आधार पर इतनी बंट गयी है कि एक निष्पक्ष राजनीतिक नेतृत्व ही इस क्रैक को फिर समतल कर सकता है । एक संस्थान के साख नापने का कोई पैमाना होता तो शायद पुलिस बहुत ही नीचे ठहरती । पुलिस के जवान हों या अधिकारी , किसी भी आपात परिस्थिति में सबसे अधिक निष्ठा और परिश्रम से काम करते हैं । दंगों में बिना किसी धर्म या जाति के पूर्वाग्रहों के पूरा पुलिस बल शान्ति स्थापना के काम में लगा रहता है । लेकिन यह भी कुछ हद तक सही है कि राजनीतिक निष्ठा के आधार पर यह संस्था जातिगत खांचों में बंट रही है ।

© विजय शंकर सिंह

Wednesday 22 March 2017

सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज़ - भगत सिंह का एक लेख / विजय शंकर सिंह

( आज शहीद ए आज़म भगत सिंह शहीद हुए थे । आज ही के दिन 1931 ई में उन्हें लाहौर सेंट्रल जेल में फांसी दी गयी थी । उस समय उम्र केवल 23 वर्ष थी । भगत सिंह भारत की आज़ादी ही नहीं वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद का खात्मा चाहते थे । वे समय से बहुत आगे थे । भारत के आज़ाद होते ही यूरोपीय साम्राज्यवादी देशों के किले भरभरा कर टूटने लगे और अफ्रीका एशिया के अनेक देश जो अपनी आज़ादी के लिये लड़ रहे थे आज़ाद होने लगे । वे नास्तिक थे और मार्क्सवादी भी थे । साम्प्रदायिकता के जहर को वे समझ चुके थे और ब्रिटिश साम्राज्य कैसे इस जहर को फैला रहा है यह उनकी चिंतन प्रक्रिया से छुपा नहीं रह सका । उनका यह लेख उनके दृष्टिकोण को स्पष्ट करता है । आज पाकिस्तान में भी उनका शहीदी दिवस मनाया जाता है । कल 22 मार्च को ही पाकिस्तान की लाहौर हाई कोर्ट ने भगत सिंह से जुड़े शहीदी दिवस को मनाये जाने पर सरकार को पूरी सुरक्षा प्रदान करने का निर्देश दिया है । 
शहीद भगत सिंह को वीरोचित श्रद्धांजलि !!
1919 के जलियांवाला बाग़ के जघन्य नरसंहार के बाद ब्रिटिश सरकार ने हिन्दू मुस्लिम एकता क्तो तोड़ने के लिए चरणबद्ध तरीके से काम करना शुरू कर दिया । 1924 में कोहाट में भयंकर हिन्दू मुस्लिम दंगा हुआ और उसके पहले चौरीचौरा काण्ड के बाद जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया तो देश में हताशा का एक माहौल उत्पन्न हो गया । कोहाट के दंगे से हिन्दू मुस्लिम संबंधों पर बुरा असर पड़ा और उसी के बाद भगत सिंह ने यह लेख लिखा । )


साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज
(1919 के जलियाँवाला बाग़ हत्याकांड के बाद अँग्रेज़ी सरकार ने साम्प्रदायिक भावनाओं को जमकर उभारा। नतीजा यह हुआ कि 1924 में कोहाट में हिंदू-मुसलमान दंगा हुआ। असहयोग आन्दोलन स्थगित होने से उपजी हताशा के माहौल में इसने राष्ट्रीय चेतना पर बुरा असर डाला। भगत सिंह ने इस समस्या पर ‘साम्प्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ शीर्षक से यह लेख लिखा जो 1928 में ‘किरती’ में छपा। )
भारत वर्ष की दशा इस समय बड़ी दयनीय है। एक धर्म के अनुयायी दूसरे धर्म के अनुयायियों के जानी दुश्मन हैं। अब तो एक धर्म का होना ही दूसरे धर्म का कट्टर शत्रु होना है। यदि इस बात का अभी यक़ीन न हो तो लाहौर के ताज़ा दंगे ही देख लें। किस प्रकार मुसलमानों ने निर्दोष सिखों, हिन्दुओं को मारा है और किस प्रकार सिखों ने भी वश चलते कोई कसर नहीं छोड़ी है। यह मार-काट इसलिए नहीं की गयी कि फलाँ आदमी दोषी है, वरन् इसलिए कि फलाँ आदमी हिन्दू है  या सिख है या मुसलमान है। बस किसी आदमी का सिख या हिन्दू होना मुसलमानों दवारा मारे जाने के लिए काफ़ी था और इसी तरह किसी व्यक्ति का मुसलमान होना ही उसकी जान लेने के लिए पर्याप्त तर्क था। जब स्थिति ऐसी हो तो हिन्दुस्तान का ईश्वर ही मालिक है।
ऐसी स्थिति में हिन्दुस्तान का भविष्य बहुत अन्धकारमय नज़र आता है। इन ‘धर्मों’ ने हिन्दुस्तान का बेड़ा गर्क कर दिया है। और अभी पता नहीं कि यह धार्मिक दंगे भारतवर्ष का पीछा कब छोड़ेंगे। इन दंगों ने संसार की नज़रों में भारत को बदनाम कर दिया है। और हमने देखा है कि इस अन्धविश्वास के बहाव में सभी बह जाते हैं। कोई बिरला ही हिन्दू, मुसलमान या सिख होता है, जो अपना दिमाग़ ठण्डा रखता है, बाक़ी सब के सब धर्म के ये नामलेवा अपने नामलेवा धर्म के रोब को कायम रखने के लिए डण्डे-लाठियाँ, तलवारें, छुरे हाथ में पकड़ लेते हैं और आपस में सिर फोड़-फोड़कर मर जाते हैं। बाकी बचे कुछ तो फाँसी चढ़ जाते हैं और कुछ जेलों में फेंक दिये जाते हैं। इतना रक्तपात होने पर इन ‘धर्मजनों’ पर अंग्रेज़ी सरकार का डण्डा बरसता है और फिर इनके दिमाग़ का कीड़ा ठिकाने पर आ जाता है।
जहाँ तक देखा गया है, इन दंगों के पीछे साम्प्रदायिक नेताओं और अख़बारों का हाथ है। इस समय हिन्दुस्तान के नेताओं ने ऐसी लीद की है कि चुप ही भली। वही नेता जिन्होंने भारत को स्वतन्त्र कराने का बीड़ा उठाया था और जो ‘समान राष्ट्रीयता’ और ‘स्वराज-स्वराज’ दम गजे मारते नहीं थकते थे, वही या तो अपने सिर छिपाये चुपचाप बैठे हैं या इसी धर्मान्धता के बह चले हैं। सिर छिपा कर बैठने वालों की संख्या भी क्या कम है, और क्या साम्प्रदायिकता की ऐसी प्रबल बाढ़ आयी हुई है कि वे भी इसे रोक नहीं पा रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि भारत में नेतृत्व का दिवाला पिट गया है।
दूसरे सज्जन जो साम्प्रदायिक दंगों को भड़काने में विशेष हिस्सा लेते रहे हैं, वे अखबार वाले हैं। …पत्रकारिता का व्यवसाय जो किसी समय बहुत ऊँचा समझा जाता था, आज बहुत ही गन्दा हो गया है। यह लोग एक-दूसरे के विरुद्ध बड़े मोटे-मोटे शीर्षक देकर लोगों की भावनाएँ भड़काते हैं और परस्पर सिर-फुटौव्वल करवाते हैं। एक-दो जगह ही नहीं, कितनी ही जगहों पर इसलिए दंगे हुए कि स्थानीय अखबारों ने बड़े उत्तेजनापूर्ण लेख लिखे हैं। ऐसे लेखक जिनका दिल व दिमाग़ ऐसे दिनों में भी शान्त रहा हो, बहुत कम हैं।
अखबारों का असली कर्तव्य शिक्षा देना, लोगों से संकीर्णता निकालना, साम्प्रदायिक भावनाएँ हटाना, परस्पर मेल-मिलाप बढ़ाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता बनाना था; लेकिन इन्होंने अपना मुख्य कर्तव्य अज्ञान फैलाना, संकीर्णता का प्रचार करना, साम्प्रदायिक बनाना, लड़ाई.झगड़े करवाना और भारत की साझी राष्ट्रीयता को नष्ट करना बना लिया है। यही कारण है कि भारत वर्ष की वर्तमान दशा पर विचार कर आँखों से रक्त के आँसू बहने लगते हैं और दिल में सवाल उठता है कि ‘भारत का बनेगा क्या?’
जो लोग असहयोग के दिनों के जोश व उभार को जानते हैं, उन्हें यह स्थिति देख रोना आता है। कहाँ थे वे दिन कि स्वतन्त्रता की झलक सामने दिखायी देती थी और कहाँ आज यह दिन कि स्वराज्य एक सपना मात्र बन गया है। बस यही तीसरा लाभ है जो इन दंगों से अत्याचारियों को मिला है। वही नौकरशाही-जिसके अस्तित्व को ख़तरा पैदा हो गया था, कि आज गयी, कल गयी-आज अपनी जड़ें इतनी मज़बूत कर चुकी है कि उसे हिलाना कोई मामूली काम नहीं है।
यदि इन साम्प्रदायिक दंगों की जड़ खोजें तो हमें इसका कारण आर्थिक ही जान पड़ता है। असहयोग के दिनों में नेताओं व पत्रकारों ने ढेरों कुर्बानियाँ दीं। उनकी आर्थिक दशा बिगड़ गयी थी। असहयोग आन्दोलन के धीमा पड़ने पर नेताओं पर अविश्वास-सा हो गया, जिससे आजकल के बहुत-से साम्प्रदायिक नेताओं के धन्धे चौपट हो गये। विश्व में जो भी काम होता है, उसकी तह में पेट का सवाल ज़रूर होता है। कार्ल मार्क्स के तीन बड़े सिद्धान्तों में से यह एक मुख्य सिद्धान्त है। इसी सिद्धान्त के कारण ही तबलीग, तनकीम, शुद्धि आदि संगठन शुरू हुए और इसी कारण से आज हमारी ऐसी दुर्दशा हुई, जो अवर्णननीय है।
बस, सभी दंगों का इलाज यदि कोई हो सकता है तो वह भारत की आर्थिक दशा में सुधार से ही हो सकता है, क्योंकि भारत के आम लोगों की आर्थिक दशा इतनी ख़राब है कि एक व्यक्ति दूसरे को चवन्नी देकर किसी और को अपमानित करवा सकता है। भूख और दुख से आतुर होकर मनुष्य सभी सिद्धान्त ताक पर रख देता है। सच है, मरता क्या न करता।
लेकिन वर्तमान स्थिति में आर्थिक सुधार होना अत्यन्त कठिन है क्योंकि सरकार विदेशी है और यही लोगों की स्थिति को सुधरने नहीं देती। इसलिए लोगों को हाथ धोकर इसके पीछे पड़ जाना चाहिए और जब तक सरकार बदल न जाये, चैन की साँस न लेना चाहिए।
लोगों को परस्पर लड़ने से रोकने के लिए वर्ग चेतना की ज़रूरत है। ग़रीब मेहनतकश व किसानों को स्पष्ट समझा देना चाहिए कि तुम्हारे असली दुश्मन पूँजीपति हैं, इसलिए तुम्हें इनके हथकण्डों से बचकर रहना चाहिए और इनके हत्थे चढ़ कुछ न करना चाहिए। संसार के सभी ग़रीबों के, चाहे वे किसी भी जाति, रंग, धर्म या राष्ट्र के हों, अधिकार एक ही हैं। तुम्हारी भलाई इसी में है कि तुम धर्म, रंग, नस्ल और राष्ट्रीयता व देश के भेदभाव मिटाकर एकजुट हो जाओ और सरकार की ताक़त अपने हाथ में लेने का यत्न करो। इन यत्नों में तुम्हारा नुकसान कुछ नहीं होगा, इससे किसी दिन तुम्हारी ज़ंजीरें कट जाएँगी और तुम्हें आर्थिक स्वतन्त्रता मिलेगी।
जो लोग रूस का इतिहास जानते हैं, उन्हें मालूम है कि ज़ार की समय वहाँ भी ऐसी ही स्थितियाँ थीं, वहाँ भी कितने की समुदाय थे जो परस्पर जूत-पतांग करते रहते थे। लेकिन जिस दिन से वहाँ श्रमिक शासन हुआ है, वहाँ नक्शा ही बदल गया है। अब वहाँ कभी दंगे नहीं हुए। अब वहाँ सभी को ‘इंसान’ समझा जाता है, ‘धर्मजन’ नहीं। ज़ार के समय लोगों की आर्थिक दशा बहुत ही ख़राब थी, इसलिए सभी दंगे-फसाद होते थे। लेकिन अब रूसियों की आर्थिक दशा सुधर गयी है, और उनमें वर्ग चेतना आ गयी है, इसलिए अब वहाँ से कभी किसी दंगे की ख़बर नहीं आयी।
इन दंगों में वैसे तो बड़े निराशाजनक समाचार सुनने में आते हैं, लेकिन कलकत्ते के दंगों में एक बात बहुत खुशी की सुनने में आयी। वह यह कि वहाँ दंगों में ट्रेड यूनियनों के मज़दूरों ने हिस्सा नहीं लिया और न ही वे परस्पर गुत्थम-गुत्था ही हुए, वरन् सभी हिन्दू, मुसलमान बड़े प्रेम से कारखानों आदि में उठते-बैठते और दंगे रोकने के भी यत्न करते रहे। यह इसलिए कि उनमें वर्ग चेतना थी और वे अपने वर्ग हित को अच्छी तरह पहचानते थे। वर्ग चेतना का यही सुन्दर रास्ता है जो साम्प्रदायिक दंगे रोक सकता है।
यह खुशी का समाचार हमारे कानों को मिला है कि भारत के नवयुवक अब वैसे धर्मों से जो परस्पर लड़ाना व घृणा सिखाते हैं, तंग आकर हाथ धो रहे हैं और उनमें इतना खुलापन आ गया है कि वे भारत के लोगों को धर्म की नज़र से-हिन्दू, मुसलमान या सिख-रूप में नहीं, वरन् सभी को पहले इंसान समझते हैं, फिर भारतवासी। भारत के युवकों में इन विचारों के पैदा होने से पता चलता है कि भारत का भविष्य सुनहला है और भारतवासियों को इन दंगों आदि को देखकर घबराना नहीं चाहिए, बल्कि तैयार-बर-तैयार हो यत्न करना चाहिए कि ऐसा वातावरण ही न बने, ताकि दंगे हो ही नहीं।
1914-15 के शहीदों ने धर्म को राजनीति से अलग कर दिया था। वे समझते थे कि धर्म व्यक्ति का व्यक्तिगत मामला है, इसमें दूसरे का कोई दख़ल नहीं। न ही इसे राजनीति में ही घुसाना चाहिए क्योंकि यह सरबत को मिलकर एक जगह काम नहीं करने देता। इसलिए गदर पार्टी-जैसे आन्दोलन एकजुट व एकजान रहे, जिसमें सिख बढ़-चढ़कर फाँसियों पर चढ़े और हिन्दू-मुसलमान भी पीछे नहीं रहे।
इस समय कुछ भारतीय नेता भी मैदान में उतरे हैं, जो धर्म को राजनीति से अलग करना चाहते हैं। झगड़ा मिटाने का यह भी एक सुन्दर इलाज है और हम इसका समर्थन करते हैं।
यदि धर्म को अलग कर दिया जाय तो राजनीति पर हम सभी इकट्ठे हो सकते हैं। धर्मों में चाहें अलग-अलग ही रहें।
हमारा ख़याल है कि भारत के सच्चे हमदर्द हमारे बताये इलाज पर ज़रूर विचार करेंगे और भारत का इस समय जो आत्मघात हो रहा है, उससे हमें बचा लेंगे।
( भगत सिंह )

Tuesday 21 March 2017

Ghalib - Asal e shuhood o shaahid o mashahood ek hai / ग़ालिब - असल ए शुहूद ओ शाहिद ओ मशहूद एक है / विजय शंकर सिंह





ग़ालिब -22.
असल ए शुहूद ओ शाहिद ओ मशहूद एक है, 
हैराँ हूँ, फिर मुशाहिदा है किस हिसाब से !

शुहूद - दृश्य 
शाहिद - द्रष्टा, देखने वाला, 
मशहूद - दृष्टि, 
मुशाहिदा - जो दिख्ता है. 

Asal e shuhood o shaahid o mashahood ek hai, 
Hairaan hoon, fir mushaahidaa hai, kis hisaab se !!
-Ghalib. 

दृश्य , दृष्टा, और दृष्टि में आने वाले समस्त सृष्टि का मूल रूप जब एक ही है, तो, जो हमें दिखता है, वह क्या है. मैं इसमें क्या अंतर है, इसे सोच कर अचरज में हूँ. 

ग़ालिब का यह शेर उनके अद्वैत्वाती दर्शन को ही प्रमाणित करता है. जो दिखता है, जो देख रहा है, और जो दिख रहा है सब एक ही है. जीव और ब्रह्म को एक ही मानने वाला दर्शन इसका प्रेरणा श्रोत है. ग़ालिब के हर शेर को जब भी पढेंगे तो जैसा दिखता है वैसा आप नहीं आयेंगे. सब में कुछ न कुछ दर्शन के तत्व सिमटे मिलेंगे. इस्लाम एकेश्वरवाद को मानता है. लेकिन भारतीय दर्शन भी इस्लाम के जन्म से बहुत पहले से एकेश्वरवाद के दर्शन को मान्यता देती रहा है.

इस सिलसिले में कबीर का एक पद उद्धृत है. 

उपजे प्यंड, प्रान कहाँ थे आवें, 
मूवा जीव, जाई कहाँ समावे, 
कहो धौ सबद कहाँ से आवै, 
अरु फिरि कहाँ समावे. 

कबीर की यह जिज्ञासा है. वह जानना चाहते है, पिंड की उत्पत्ति कहाँ से हुयी है, किस वस्तु से पिंड उद्भूत हुआ है. प्राण, आता कहाँ से है, और फिर जाता कहाँ है. शब्द उपजता कहाँ से है और समा कहाँ जाता है. उत्तर इसका एक ही है. वही पिंड को उत्पन्न करता है, वही इसका लोप करता है. प्राण भी वहीं से निकलता है और वहीं समाप्त होता है. शब्द भी वहीं खो जाते हैं जहां से उद्भूत होते हैं. वह , अनादि अनंत, अचिन्त्य, है. परब्रह्म है. नाम चाहे उसे जो दें. 

ग़ालिब इसमें अंतर ढूँढने वालों की बुद्धि और विवेक पर हैरान है. सब एक ही परब्रह्म से उद्भूत हैं और सबका गम्य भी एक ही परब्रह्म की ओर है. जो इनमे भेद खोजते है, वे भ्रम में है. ग़ालिब को अचरज इसी पर है. 
( विजय शंकर सिंह )

Monday 20 March 2017

Ghalib -' Asadullah Khan ' tamaam huaa / ग़ालिब - ' असदुल्ला खाँ ' तमाम हुआ, / विजय शंकर सिंह



ग़ालिब - 20.
' असदुल्ला खाँ ' तमाम हुआ, 
ऐ दरेगा, वो रिन्द ए शाहिद'बाज़ !! 

असदुल्ला खाँ - ग़ालिब का असली नाम, 
शाहिद'बाज़ - सुन्दर स्त्रियों से प्रेम करने वाला. 

'Asadullaa khan ' tamaam huaa, 
Ai daregaa, wo, rind e shahid'baaz !! 
-Ghalib. 

असदुल्ला खाँ मर गया।  इस मृत्यु पर बहुत अफसोस है।  वह, सौंदर्य का आसक्त, सुन्दर स्त्रियों का शौकीन, और मद्यप था।  

ग़ालिब ने अपने मृत्यु की घोषणा इस प्रकार की।  ग़ालिब खुद को मद्यपी और शराबी घोषित करते हुए सुन्दर स्त्रियों का प्रेमी भी कहते है।  ग़ालिब का यह कथन उनके निंदकों पर व्यंग्य भी है।  वह अपने निंदकों को यह कहते हैं कि जब उनकी मृत्यु होगी तो उनके निंदक इसी प्रकार की शब्दावली उनके बारे में कहेंगे।  

ग़ालिब शराब पीते थे और खूब पीते थे।  एक बार उन्हें पेंशन मिली थी वे पूरी पेंशन की शराब खरीद लाये और जब उनकी इस हरकत पर उनकी पत्नी ने ऐतराज़ जताया और कहा कि " तुमने सारे पैसों की शराब खरीद ली, खाओगे क्या ? उन्होंने बड़े इतमीनान से कहा, कि खिलाने का वादा तो अल्लाह ने कर रखा है. उसकी मुझे फिक्र नहीं है।  लेकिन पीने का उसका कोई वादा नहीं सो पीने का इंतज़ाम मैं कर आया हूँ ! " अब इस पर क्या कोई कह सकता है।  

उर्दू शायरी में साक़ी , मयखाना , रिन्द , और प्याला , कहने का अर्थ यह कि सारे प्रतीक मदिरा के इर्द गिर्द ही हैं। जब कि इस्लाम में शराब पीना हराम है। सभी शायरों ने इन्ही प्रतीकों के माध्यम से अपनी बात कही है। इसी भाव पर आधारित मीर का यह शेर पढ़ें ,

लब ए मय गूँ पर जान देते हैं ,
हमें शौक़ इ शराब ने मारा !!
-
मीर 

माधुरी तर होंठों पर हम अपनी न्योछावर कर देते हैं , इस प्रकार माधुरी अर्थात शराब के शौक़ ने हमें समाप्त कर दिया !

ये दो उदाहरण देखें। रियाज़ खैराबादी का यह शेर पढ़ें। 

मर गए फिर भी त'अल्लुक़ है मयखाने से ,
मेरे हिस्से की छलक जाती है पैमाने में !!
रियाज़ खैराबादी ,

यह जनाब भी अपने मरने की चर्चा शराब के माध्यम से करते हैं। '' हम मर गए हैं फिर भी मधुशाला से सम्बन्ध बना हुआ है। अब भी मेरे हिस्से की शराब जाती है 

अख्तर मीरासी का यह शेर भी पढ़ें।

पिला दे जितनी चाहे , अब तो मेहमाँ है कोई दम के ,
जरस का शोर गूंजा , कारवाँ तैयार है साक़ी !!
-
अख्तर मीरासी 

अंतिम यात्रा की तैयारी है। कुछ साँसे तेज़ है। लोग ले चलने की तैयारी में जुटे हैं। बस अब कुछ घूँट की उम्मीद है साक़ी से। साक़ी यहां ईश्वर का और मदिरा उसकी कृपा का प्रतीक है। 


( विजय शंकर सिंह )