Wednesday 14 April 2021

ऋग्वेद की रहस्यमयता (11)

ऋग्वेद में सृष्टि के विषय में तीन प्रमुख सूक्त हैं  जिनमें से एक ब्रह्मांड की  सृष्टि से संबंधित है,  जिसकी चर्चा प्रायः की जाती है।  यह है नासदीय सूक्त और इस पर  विस्मित इसलिए होना पड़ता है कि  यह एक ओर तो  काव्य कौशल का अनन्य नमूना है और दूसरी ओर यह एक वैज्ञानिक स्थापना  का प्रमाण, उसकी संभावनाओं और   आशंकाओं  के साथ यथासंभव वस्तु परक  वर्णन है ।  आप कल्पना करें, उस आदि अणोरणीय (sub-atomic quantum) जिसे शून्येतर सत (non-zero reality) या  हिग्स बोसॉन (Higgs boson) कण की जिसे वैज्ञानिकों की आपत्ति के बाद भी उपहास में (मार्च 2013) गॉड पार्टिकल के रूप में प्रचारित  किया गया। पर इस  उपहास में भी एक सचाई थी कि कि सृष्टि किसी (सामी संकल्पना के) गॉड ने नहीं एक अणोरणीय ने की है। यदि इसे नासदीय कण की संज्ञा दी जाती तो किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती थी।  ऐसी वैज्ञानिक और राग-मुक्त भाषा जो आधुनिक वैज्ञानिकों की भाषा से भी अधिक सटीक है, ‘न सत आसीत न असत आसीत् तदानीम्’  हिग्स बोसोन  को बोधगम्य बनाने के लिए जो जो कुछ कहा गया है, उसे मिला कर देखिए तो जिस तरह का आश्चर्य मुझे होता है,  वैसा ही आप को भी हो सकता है। और  क्वांटम के विषय में अनेक विचारों में से एक यह:   
Last May, Henry Stapp and colleagues argued, in this forum, that the double-slit experiment and its modern variants provide evidence that “a conscious observer may be indispensable” to make sense of the quantum realm and that a transpersonal mind underlies the material world.[1] 

क्या आपको पता है कि फोटोन  का अस्तित्व क्या है और रश्मि बनने में उसकी गति क्या होती है?  मैं यह प्रश्न इसलिए नहीं कर रहा हूं कि मैं जानता हूं न ही  आशा करता हूं कि आप इसे जानते होंगे।  वैज्ञानिक भी नहीं जानते क्योंकि वे लगातार  इस ऊहापोह में लगे हुए हैं,
Detecting a Higgs boson is rare, with just one observed for every 1 trillion proton-proton collisions. As such, the LHC physicists say they need much more data to understand all of the ways in which the Higgs decays.

यही हाल  क्वांटम का है,  फोटोन का है। विस्मित  इस बात पर होना पड़ता है कि वे इसे प्रकाश कण  माने तो इसके तरंगों को जिसमें प्रकाश और अंधकार  दोनों एक दूसरे पर अधिस्थित (सुपरइम्पोज्ड) रहते है, किस रूप में समझ सकते हैं।  और जब सृष्टि के आदि में ‘तिरश्चीना वितता रश्मिः एषा’ को पढ़ते हैं तो यह मानने का कि यहाँ तिरश्चीन और  तरंग के लिए और  वितता - विविध रूपों में जुड़ कर प्रकाश रेखा की बात तो नहीं की जा रही, और फिर  अपने ही अनुमान को नकारने की बाध्यता पैदा होती है क्योंकि इतने पहले तो यह संभव न था।  आज  जैसा प्रयोग तो तब संभव ही न था। हम नहीं जानते कि वे कैसे इतने मिलते-जुलते निष्कर्षों पर पहुँचे थे कि दोनों में  समानता का भ्रम पैदा हो सके,  और इसलिए  हम इसे भी नकार देते हैं।  परंतु इतनी सुथरी सटीक  वैज्ञानिक भाषा का   निषेध तो नहीं कर सकते।
 
नासदीय सूक्त के  महत्त्व को  संस्कृत और वैदिक विद्वानों ने  मुझसे पहले भी समझा था और मैं उनकी गहराई तक पहुंचने का दावा नहीं कर सकता परंतु जो चीज मुझे विस्मित करती है वह है  भाषा की ऐसी स्वच्छता विचारों की ऐसी  समानता और  अपने निष्कर्ष के प्रति ऐसी दृढ़ता  जो आज के लिए चुनौती है।
और सब कुछ के बाद वह अनिश्चितता जो आज के अनुसंधान मिलती है, 
इयं विसृष्टिः यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ।। 10.129.7 

क्या आपने  उन नादानों की कहानियां सुनी हैं,  जो जाते थे कुछ खरीदने, और कुछ और ले कर लौट आते थे।  क्या  आपने  पंजाबी का वह भी लोकगीत सुना है,  ‘खट्टन वाला खटन गया सी खट के ले आंदा’ से आरंभ हो कर महिलाओं द्वारा पुरुषों की मूर्खता पर प्रमाण-दर-प्रमाण देते हुए उन्हीं  गीतों में पेश किए जाते हैं, और जिन्हे सुनकर वे नाचने लगते हैं, जिन्हे नादान बनाया जा रहा है। मेरी दशा उन नादानों जैसी है। कहा तो यह था कि कल  उस ऋचा का अपनी समझ में आया हुआ अर्थ  समझाएंगे,  और बीते कल समझा न पाए तो तुकबंदी अंतिम क्षणों में पेश कर दी।  और आज कुछ और दूर की ही छान बैठे। 

मैं  अपनी भर्त्सना करने वालों के साथ हूँ। विचार के क्षेत्र में ऐसी हेराफेरी तो  नहीं  चलनी चाहिए- कहो कुछ, करो कुछ। 

परंतु मैं लज्जित इसलिए नहीं होता,  कि मुझसे पहले,  त्रिलोचन शास्त्री जैसे व्यक्ति हिंदी साहित्य में पैदा हो चुके हैं  जो घर से आटा खरीदने के लिए निकलते थे  और  बीच में कोई ऐसा मिल गया की वह कवि सम्मेलन की ओर मुंड़ गए तो दो दिन बाद घर लौटे खाली हाथ, इस बात की चिंता किए बिना के इस बीच घर में रोटी कैसे पकी होगी। जो लोग समझते हैं  कि वह बहुत गैर जिम्मेदार व्यक्ति थे  वे यह नहीं समझ सकते नारी शक्ति के उद्धारक, नारी पर लगाए हुए लांछन- विश्वासो नैव कर्तव्यः स्त्रीषु - को बदल कर उन्हें दोषमुक्त करते हुए - न पुरुषाः विश्वसनीयाः - का चारित्रिक लेख लिखते हुए नागार्जुन और त्रिलोचन ने  समाज को बदलने में कोई छोटी  भूमिका निभाई।  वारिस  तो हम इन्हीं  के ठहरे।

परंतु हमारी समस्या और ही है। बंजर पड़ी हुई जमीन को  जोत  गोड़  कर समतल   समतल बनाए बिना,  पानी को रोककर रखने के लिए मेड़  बनाए बिना खेती  तो नहीं की जा सकती। आपके दिमाग के साथ में हमारी शिक्षा पद्धति के द्वारा उर्वर को बंजर में बनाने का जो काम किया गया है,  उससे  बाहर लाने के लिए यह  विषयांतर  जरूरी था।   जिन दो सृष्टियों की बात मैंने की  उनमें से एक का संबंध भाषा की उत्पत्ति से है जिसे सीधे पेश कर दिया जाए तो आप विश्वास नहीं कर पाएंगे यद्यपि खंडन भी नहीं कर पाएंगे । ऊसर भूमि में
बीज बिखेर कर बर्बाद करने से अच्छा है, भूमि को, वह मनोभूमि ही क्यों न हो ऊर्जस्वती, पयस्वती, सुषूमा बना लेना।
आज केवल यह याद  दिला सकते हैं कि दूसरी उत्पत्ति चिंता मनुष्य की भाषा से संबंध रखती है जिसने उसे अन्य प्राणियों से अलग किया, जिसका विवेचन हमारे विचारणीय सूक्त में है और तीसरा मानव चेतना, समाज व्यवस्था, अर्थतंत्र के विकास से संबंध रखता है जो पुरुषसूक्त में मिलता है। इनमें से पहले को समझने की ओर ध्यान ही न दिया गया, और दूसरे पर सबसे अधिक ध्यान दिया गया पर समझा केवल यह गया कि ब्राह्मण ही इतना ना समझ हो सकता है कि वह अपनी जन्मकुंडली तक न पढ़ पाए, और इसलिए अपने पालनहारों का ही अपमान करता रहे।

[1]What Does Quantum Theory Actually Tell Us about Reality? By Anil Ananthaswamy Scientific American  September 3, 2018

भगवान सिंह
(Bhagwan Singh)

ऋग्वेद की रहस्यमयता (10)
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2021/04/10.html
#vss 

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