Monday 19 April 2021

राजा ही काल का काऱण है.


कालो वा कारणं राज्ञो, राजा वा काल कारणम् ।इति ते संशयो मा भूद् राजा कालस्य कारणम् ।

काल राजा का कारण है अथवा राजा काल का कारण है, इसमें संशय नहीं करना चाहिए, वस्तुतः राजा ही काल का कारण है, क्योंकि राजा की उत्तम प्रशासन से ही प्रजा और राज्य सुखी हो सकते हैं और राजा के कुशासन से सब ओर दुख ही दुख फैल जाता है ।

Is time the cause of the king or the king is the cause of the time ? Sucj kind of doubt should not be there, as the king is the cause of the time because of the good or bad administration of the king.

महाभारत के इस श्लोक पर डॉ वासुदेवशरण अग्रवाल की यह व्याख्या पढिये,
संदर्भ
भारत सावित्री - वासुदेवशरण अग्रवाल
12. शान्ति पर्व अध्याय : 68-73
76. राजा का देवत्व विचार

अमात्यों और पुत्रों का व्यवहार जानने के लिए गुप्तचरों का व्यवहार आवश्यक है। पुर, जनपद और सामन्त राज्यों में उन्हें इस प्रकार नियुक्त करे कि वे एक दूसरे को न जानते हों। हाट-बाज़ारों में, भिक्षुओं के विहारों में और प्रमाद गोष्ठियों में भी गुप्तचरों की नियुक्ति होनी चाहिए। वेश, चत्वर, सभा, आराम और उद्यान में सर्वत्र गुप्तचर आवश्यक हैं। राजा को चाहिए कि बलवान के साथ और निर्बल के साथ भी मंत्रियों की सलाह से सन्धि करे। दण्डनीति और राजा का मेल आवश्यक है।” 

यहाँ भीष्म ने प्राचीन राजधर्म के बहुत बड़े सिद्धान्त का वर्णन किया हैः

कालौ वा कारणं राज्ञो राजा वा कालकारणम्।
इति ते संशयो मा भूद् राजा कालस्य कारणम्।।

“काल राजा को बनाता है या राजा काल को बनाता है, इस विषय में कभी सन्देह मत करना क्योंकि राजा ही काल को बनाने वाला है। सतयुग की पहचान यही है कि उसमें जगत में धर्म दिखाई देता है, अधर्म कहीं नहीं होता। लोग में जब सतयुग होता है तो ये-ये बातें नहीं होतीं। जब वैदिक धर्म किये जाते हैं तो लोक में अल्पायु और व्याधियां नहीं होतीं। लोग क्रूर नहीं होते। धरती बिना जोते-बोए धान्य देती है। ये सतयुग के चिह्न हैं। जब राजा दण्ड नीति के तीन अंशों का पालन करता है तो वह त्रेता युग है। जब दण्ड नीति के केवल दो अंश रह जाते हैं तो वह द्वापर युग कहलाता है। जब राजा दण्ड नीति को सर्वथा त्याग देता है तो वह कलियुग है। कलि में अधर्म बढ़ जाता है और सबका मन अधर्म की ओर ही झुक जाता है।” इस प्रकार चार युगों की नई परिभाषा करते हुए राजधर्म का दण्डनीति के साथ घनिष्ठ सम्बन्ध बतलाया गया है। जो राजा अपने राज में सतयुग की स्थापना करता है वह स्वर्ग में सुख भोगता है- ऋद्धं हि राज्यं पदमैन्द्रमाहुः। राजा का दण्डनीति युक्त होना यही प्रजा का परम धर्म है।

( विजय शंकर सिंह )

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