आरएसएस / बीजेपी के आईटी सेल ने 2014 के बाद गांधी जी के बारे में मनगढ़ंत प्रोपेगेंडा अभियान चलाया। बीसवीं सदी के महानतम नायको में से एक महात्मा गांधी के खिलाफ़ तरह तरह की बातें फैलाई गई। व्हाट्सएप और अन्य सोशल मीडिया के माध्यम से लोगो को भ्रमित किया गया। लोग भ्रमित भी हुए, लेकिन लोगों ने गांधी पर पढ़ना शुरू किया। उनकी हत्या का भी औचित्य इस संगठित प्रोपेगेंडा गिरोह ने फैलाया। गोया, उनका हत्यारा एक पुनीत कार्य कर गया था और गांधी की हत्या जरूरी थी। संभवतः यह दुनिया का अकेला संगठन होगा जो अपने स्वाधीनता संग्राम के एक स्थापित महानायक की हत्या का औचित्य ढूंढता है, उसे सही ठहराता है, हत्यारे का गांधी हत्या के दिन सम्मान करता है, मूर्ति और मंदिर बनाता है। आखिरकार, जब इतना दुष्प्रचार फैला तो, गांधी जी पर लेख, उन पर लिखी किताबें, ढूंढ ढूंढ कर पढी जाने लगीं। लोगों ने गांधी पर पुनर्पाठ तो किया ही, पुनर्लेखन भी शुरू हुआ। परिणामस्वरूप नई नई किताबें भी सामने आई। उनका अध्ययन शुरू हुआ और लोग, धीरे धीरे ही सही, खुद ही, सच से रूबरू होने लगे।
फिर उन्होंने जवाहारलाल नेहरू का सिजरा ढूंढा, उन्हे किसी गयासुद्दीन गाजी का वंशज बताया गया। नेहरु परिवार को अंग्रेजों का खैरख्वाह, बताया गया। नेहरू के अय्याशी के किस्से गढ़े गए और उनकी शाहखर्ची की बातें फैलाई गई। लोगों की दिलचस्पी नेहरू में जगी और तब लोगों ने नेहरू की लिखी और उनपर लिखी किताबें पढ़नी शुरू की और लोग, नेहरू की खूबियों और खामियों से अवगत होने लगे। धीरे धीरे, संघी मित्रों और आईटी सेल का गयासुद्दीन गाजी वाला बुखार उतर गया।
नेहरू और पटेल के सामान्य राजनैतिक और वैचारिक मतभेद को एक समय खूब हवा दी गई। यह तक कहा गया कि पटेल की अंत्येष्टि और अंतिम यात्रा में नेहरू शामिल नहीं हुए थे, पर जब नेहरू पटेल के आपसी पत्राचार सार्वजनिक हुए और लोगों ने उन्हें पढ़ा तो, पटेल ने जो बातें आरएसएस और सावरकर के लिए गांधी हत्या के बाद कही थीं, उससे यह झुठबोलवा गिरोह खुद ही शांत हो गया। इस गिरोह का उद्देश्य पटेल का महिमामंडन बिलकुल नहीं था, बल्कि वे हर वह मौका ढूंढते हैं कि नेहरू को नीचा और अप्रासंगिक दिखा सकें। पर यह दुष्प्रचार भी ज्यादा नहीं चला, ध्वस्त हो गया।
सुभाष बाबू से जुड़ी क्लासीफाइड फाइल्स को लेकर एक समय खूब शोर मचाया गया। नेताजी के एक प्रपौत्र को भी भाजपा सामने लाई। वे फाइलें सार्वजनिक हुईं पर सुभाष और नेहरू के वैचारिक मतभेदों के बाद भी दोनो महान नेताओं में कोई निजी विवाद नहीं था। नेहरू जब आजाद हिंद फौज की तरफ से बचाव पक्ष के रूप में, कांग्रेस द्वारा गठित वकीलों के पैनल के प्रमुख, भूलाभाई देसाई के साथ अदालत में खड़े होते हैं तो देश का वातावरण ही बदल जाता है। आईएनए के जाबांज बिना सजा पाए ही छूट जाते हैं, और वे गांधी जी से, इस अवसर पर उनसे मिलते हैं और सलामी देते हैं। नेताजी की बेटी अब भी जिंदा हैं और वे अपने पिता और नेहरू दोनो को ही महान बताती हैं। मीडिया चैनल आजतक की अंजना ओम कश्यप का नेताजी की बेटी अनिता के साथ हुई बातचीत यूट्यूब पर उपलब्ध है, उसे देखा जा सकता है। अब जरा यह भी खोज लीजिए, और संघी मित्रों से यह भी पूछिए कि सावरकर, गोलवलकर, डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी उस समय कहां थे? सावरकर तो बैरिस्टर भी थे, क्या उनका कोई बयान आईएनए के जाबांज लड़ाकों के पक्ष में उस समय आया था, या दिखा ?
झुठबोलवा गिरोह का अब निशाना है मध्यकालीन इतिहास और विशेषकर मुगल काल और उसमे भी औरंगजेब का शासनकाल। इतिहास का पुनर्पाठ हो रहा है और अब लोगों ने मध्यकालीन इतिहास से जुड़ी किताबें, लेख पढ़ना शुरू कर दिया। सर यदुनाथ सरकार पुनः प्रासंगिक हो गए। ताजमहल के बहाने मुगल स्थापत्य पर चर्चा होने लगी। इस गिरोह के पास केवल पीएन ओक के अतिरिक्त, कोई भी ऐसा संदर्भ नहीं है जिसे वे बहस में ले आएं, और ओक की सारी ऐतिहासिक धारणाएं अप्रमाणित हो चुकी हैं। तब उन्होंने दीया कुमारी जी जो, बीजेपी की सांसद और जयपुर राज घराने की हैं को आगे किया पर सोशल मीडिया पर आमेर और अन्य राजपूत राजघरानों के मुगलों से वैवाहिक संबंध जब चर्चा में आए तो वे भी असहज हुए बिना नहीं रह सकीं। अब उनके भी बयान नहीं दिखते हैं।
अब नायक की तलाश में बदहवास आईटी सेल और झुठबोलवा गिरोह सावरकर को धो पोंछ कर सामने लाया। सावरकर को वीर कहा जाता है, पर वीर उन्हें कहा किसने, यह वे आप को नहीं बताएंगे। सावरकर के जीवन के दो पहलू हैं एक अंडमान के पहले, दूसरा अंडमान के बाद। अंडमान के पहले वे प्रखर स्वाधीनता संग्राम सेनानी रहते हैं, इंडिया हाउस लंदन में श्याम जी कृष्ण वर्मा के साथ आजादी की अलख जगाते हैं, 1907 में 1857 के विप्लव की स्वर्ण जयंती इंडिया हाउस, लंदन में मनाते हैं और 1857 पर सबसे पहली पुस्तक लिखते है और उसे देश का प्रथम स्वाधीनता संग्राम कहते हैं। वह किताब अंग्रेज सरकार जब्त कर लेती है और उस समय सावरकर निश्चित रूप से एक सेनानी के रूप में उभरते हैं। 1909 में उनकी गांधी से लंदन में मुलाकात होती है। गांधी जी दक्षिण अफ्रीका सत्याग्रह के संबंध में लोगों को वहां के हालात बताने के लिए ब्रिटेन के दौरे पर थे। वह मुलाकात दो विपरीत सोच के लोगों की थी। गांधी, अपने मूल दर्शन अहिंसा के साथ थे तो, सावरकर, सशस्त्र संघर्ष की अभिलाषा रखते थे। यह दोनो की पहली मुलाकात थी। इस मुलाक़ात के बाद, दोनो में कोई बहुत संपर्क नहीं रहा। गांधी उस यात्रा में अंग्रेजी हुकूमत के रवैए से निराश हुए और उसी यात्रा की वापसी में उन्होंने हिंद स्वराज नामक एक पुस्तिका लिखी है। वह पुस्तिका प्रश्नोत्तर में है और वह उनके स्वाधीनता आंदोलन के भावी विचारों की एक रूपरेखा है।
लेकिन अंडमान के बाद जो सावरकर उभरते हैं वे अंडमान पूर्व सावरकर से बिलकुल अलग होते हैं। वे लंबे लंबे माफीनामे लिखते हैं, अग्रेजी राज के वफादार रहने की कसमें खाते हैं, अंग्रेजो की पेंशन कुबूल करते हैं, नस्ली राष्ट्रवाद की अवधारणा गढ़ते हैं, न तो भगत सिंह की फांसी पर वे जुबान खोलते हैं और न ही सुभाष के अनोखे एडवेंचरस आईएनए अभियान पर कुछ बोलते हैं, हिंदू राष्ट्रवाद और मुस्लिम राष्ट्रवाद की गलबहियां करते हुए, जिन्ना के हमराह और हम खयाल बनते हैं। उनकी नाराजगी यदि गांधी से थी तो वे अपने स्तर से भी तो आजादी का आंदोलन चला सकते थे ? उन्होंने ऐसा क्यों नहीं किया? यह सवाल एक जिज्ञासा है जो सावरकर में अंडमान बाद के बदलाव को देखते हुए स्वाभाविक रूप से हर जिज्ञासु मस्तिष्क में, उठता है।
यदि सावरकर की चर्चा और उनका अनावश्यक दुष्प्रचार पर आधारित महिमामंडन न किया जाता तो यह सारे सवाल बिलकुल नहीं उठते। सावरकर वैसे भी गांधी जी की हत्या के बाद लोगों के चित्त से उतर गए थे। बेहद एकांत में उनके अंतिम दिन गुजरे और उन्होंने जैन मत से संथारा करके अपने प्राण त्यागे। कहीं यह उनका पश्चाताप तो नहीं था? पर इधर फिर उनपर तरह तरह की बातें की जा रही हैं। स्वाधीनता आंदोलन का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र के रूप में उन्हे प्रस्तुत किया जा रहा है। अब जब बात निकली है तो वह दूर तलक जायेगी भी। अब उनके बारे में भी लोगों ने पढ़ना शुरू कर दिया है। अब यह भी ढूंढा जाएगा कि, उन्हे वीर कहा किसने था, और कब कहा था ? वे अंग्रेजो को दिए वादे निभाते रहे, जिसमे उन्होंने किसी भी राजनीतिक गतिविधियों में भाग न लेने का वादा किया था, तो फिर वे नस्ली राष्ट्रवाद जैसा विभाजनकारी एजेंडा लेकर क्यों सामने आए, जो ब्रिटिश और मुस्लिम लीग को सीधे सीधे लाभ पहुंचाता था ? उनका वैर गांधी से था, पर वे भगत सिंह की फांसी पर चुप्पी क्यों साधे रहे? जिन्ना और ब्रिटिश के प्रति उनके अनिशय लगाव के कारण उनके सिपहसलार डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी भी एक समय दूर हो गए थे। आखिर यह सब हुआ क्यों। मिथ्या और फरेबी महिमामंडन का एक अच्छा परिणाम यह हुआ है कि, लोग अब सावरकर पर नए सिरे से पढ़ने लगे हैं और इन सवालों के जवाब ढूंढने लगे हैं। दरअसल आरएसएस/बीजेपी के आईटी सेल की समस्या यह भी है कि, वह अपने विरोधियों को अनपढ़ और कुपढ़ समझता है और बिलकुल, ऐसा ही गोयबेल भी अपने समय में समझता था।
(विजय शंकर सिंह)
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