Sunday 29 May 2022

डायर्मेड मक्कलक / ईसाइयत का इतिहास - अ हिस्ट्री ऑफ़ क्रिश्चियनिटी (6)

अलेक्सेंड्रिआ भूमध्य क्षेत्र में यूनानी संस्कृति की बिगुल बजाती, सिकंदर की जीती जागती स्मृति थी. वहाँ बसे हुए यहूदी पूरी तरह यूनानोन्मुखी थे और वे चाहते थे कि यूनानी विद्वान उनके प्राचीन ग्रंथों को समझे और सराहें. पुराने लेखन में यूनानी विद्वानों की स्वाभाविक रुचि थी. जेहोवा, सर्वशक्तिमान ईश्वर, की यहूदी परिकल्पना से वे बहुत प्रभावित हुए थे किन्तु उन्हें यह विचित्र लगा था कि जो सर्वशक्तिमान है उसे ईडन की फूलवाड़ी में टहलने की जरूरत पड़ गयी थी या फिर वह लॉट और जोनाह जैसे नश्वर मनुष्यों से बातें करता चलता था.

यूनानियों के ऐसे प्रश्नों से कुछ यहूदी भी उलझन में पड़ गए और तब उन्हें यह विचार आया कि तनख मे संकलित प्राचीन प्रसंग मात्र कहानियाँ नहीं बल्कि गूढ़ अर्थ छुपाए रूपक हैं. यूनानी अपने विचार रूपकों के माध्यम से रखते आये थे. उनका अनुसरण करते हुए अलेक्सेंड्रिआ के यहूदी भी अपनी प्राचीन कथाओं, उपदेशों में रूपक देखने लगे. अलेक्सेंड्रिआ के एक तत्कालीन विद्वान (और इतिहासकार) फिलो ने इसे बहुत बढ़ावा दिया. जब बाद में ईसा की कहानियाँ प्रचलित हुईं और अलेक्सेंड्रिआ में यहूदियों के साथ साथ ईसाई समाज भी सुदृढ़ हुआ तब फिलो की इस तजवीज का ईसाइयों ने भी भरपूर उपयोग किया.

यहूदी धर्म ने यूनानी विचारधारा से दो और धारणाएं लीं. पहली शून्यता या अनस्तित्व का. इसके अनुसार, अब वे मानने लगे कि ईश्वर ने सृष्टि को विश्रृंखलता (केओस) से नहीं रचा - शून्य से रचा. इस धारणा का आगे चलकर ईसाई चिंतन में बहुत उपयोग हुआ. दूसरी धारणा मरणोत्तर जीवन से सम्बंधित थी. बेबीलोन निर्वासन के पहले तक यहूदी चिंतक मनुष्य के जीवन पर विचार करते थे, मरने के बाद क्या होता है इस पर वे कुछ ख़ास नहीं कहते या सोचते थे.

एन्टिओकस के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह के बाद इस सोच में बदलाव आया, विशेषकर उनके लिए जिन्होंने बहुत शौर्य के साथ लड़ते हुए युद्धभूमि पर अपनी जान दे दी थी. यह धारणा पुष्ट हुई कि ऐसे बलिदान को ईश्वर निश्चित ही पुरस्कृत करेंगे और पुरस्कार-स्वरुप मृत्योपरांत इन शूर वीरों को अपनी पुरानी देह वापस मिल जाएगी. इसके पहले मरणोत्तर जीवन पर यहूदियों के विचार उनकी प्रमुख चिंतन धाराओं में जगह नहीं पा सके थे. तनख में ऐसे विचारों के उल्लेख नहीं थे. विद्रोह के बाद, यहूदी दूसरे धर्मों, दूसरी दार्शनिक परम्पराओं से इन पर कुछ ग्रहण करने के लिए तैयार हो गए थे. 

यूनानियों में मरणोत्तर जीवन बहुत कुछ लिखा, कहा गया था. यहूदियों ने भी इस पर अपने यूनानोन्मुखी काल में लिखा - ई.पू. पहली सदी में. यह वह समय था जब तनख (ईसाइयों का ओल्ड टेस्टामेंट) पूरा होचुका था और न्यू टेस्टामेंट अभी शुरू नहीं हुआ था. इस काल के लेखन को भविष्य के ईसाई अध्येताओं ने 'इंटर टेस्टामेंटल राइटिंग' कहा. इसमें हमें 'विज़्डम ऑफ़ सोलोमन' जैसी रचनाएँ मिलतीं हैं. 

दानियाल की किताब (बुक ऑफ़ डेनियल), जो दूसरी सदी ई.पू. की है, भी ऐसी ही रहती लेकिन तनख में उसे जगह मिल गयी थी. इसमें यहूदियों के इतिहास में पहली बार यह कल्पना की गयी है कि मृत्यु के बाद आत्मा का पुनर्जन्म होता है और उसे उसकी देह वापस मिल जाती है - किन्तु यह सबों के साथ नहीं होता.

जैसा सोचा जा सकता है, तत्कालीन यहूदी चिंतकों में इन बातों को लेकर गहरे विवाद हुए थे. लेकिन इन विचारों के बीज पड़ चुके थे और जब आगे चलकर ईसाई चिंतक अपना धार्मिक साहित्य रचने लगे तो उन्हें यह सब बहुत स्वाभाविक लगा था.

यहूदियों के इन नए बौद्धिक रुझान के समय तक भूमध्य क्षेत्र में होते राजनैतिक परिवर्तनों के यहूदियों और आने वाले ईसाई धर्म पर बहुत गहरे प्रभाव पड़े. रोम की सैनिक शक्ति बढ़ने लगी थी. रोम और जूडेआ (जुडाह) के बीच सेल्युकिड साम्राज्य था. रोम से मित्रता सेल्युकिडों के विरुद्ध उनके हाथ मजबूत करेगी ऐसा सोच दूसरी सदी ई.पू. में जूडेआ के हास्मोनियन शासकों ने पहली बार रोम से सम्बन्ध स्थापित किये. करीब सौ वर्षों तक रोम और जेरूसलम के बीच अच्छे सम्बन्ध रहे. ई.पू. 63 में रोम ने यूनानमुखी साम्राज्यों को जीतने का अभियान शुरू किया - जल्द लेवांट के सेल्युकिड और मिश्र के टॉलेमिक साम्राज्य रोम के अधीन हो गए. 

पैलेस्टीन और मिश्र में रोम का शासन आने पर भारी संख्या में यहूदी रोम जा बसे. आज जहाँ सेंट पीटर का बसीलिका स्थित है वहाँ कभी यहूदियों की बस्ती होती थी. रोम का पहला ईसाई समाज शायद इन्हीं यहूदियों से बना था. इस बीच 37 ई.पू. में रोमनों ने हास्मोनियन प्रशासकों को हटा कर उनके एक सम्बन्धी के हाथों जूडेआ सौंप दिया. 

तीन दशकों से अधिक समय तक जूडेआ पर शासन करने वाले इस राजा के पूर्वज एडोम के रहने वाले थे. यही कठपुतली राजा हेरोड 'महान' कहलाया. जूडेआ के बाहर पैलेस्टीन में रोमनों ने हेरोड के परिवार के कुछ लोगों को स्थानीय प्रशासक बनाया साथ ही पैलेस्टीन क्षेत्र के लिए एक रोमन प्रशासक भी नियुक्त किया, पौंशस पाइलेट.

उस काल में जूडेआ के यहूदियों के चार मुख्य वर्ग थे: सैड्यूसी, फ़ैरसी, एसेन और ज़ीलट. ये खुलकर एक दूसरे से लड़ते तो नहीं थे किन्तु इनमे से प्रत्येक अपने आचार-व्यवहार को यहूदी धर्म और यहूदी परम्पराओं की सच्ची अभिव्यक्ति बताता था. पहला वर्ग सैड्यूसी संभ्रांत लोगों का वर्ग था.  मंदिर के अधिकारी इस वर्ग से आते थे. सैड्यूसियों ने सदा, यहूदी या गैर यहूदी शासकों के साथ अच्छे सम्बन्ध रखे. रोमनों के साथ भी उनके सम्बन्ध बहुत अच्छे बने रहे. एक स्तर तक वे अपरिवर्तनवादी थे और उन दिनों प्रचलित मरणोत्तर जीवन पर हो रहे चिंतन से वे अलग रहते थे. कहा जाता है, ईसा ने कभी इस बात पर सैड्यूसियों को छेड़ा भी था. 

दूसरा वर्ग फ़ैरसियों का था, जो यहूदी परम्पराओं का कुछ सख्ती के साथ पालन करने में विश्वास करते थे. रूढ़िवादी फ़ैरसी गैर यहूदियों से बिलकुल भिन्न दीखते थे.  ईसा और पॉल (सॉल) दोनों की पृष्ठभूमि किसी और वर्ग की अपेक्षा फ़ैरसियों के निकट थी. लेकिन ईसा शायद उतने यूनानोन्मुखी नहीं थे जितने पॉल अपने लेखन में दीखते हैं.

एसेन एकांतिकता में फ़ैरसियों से भी बहुत आगे बढे हुए थे. उनके अपने समुदाय होते थे, बाक़ी यहूदी बस्तियों से कुछ दूर, जहाँ वे अपने साहित्य रचते हुए यहूदियों के ऊपर दूसरों द्वारा किये गए अत्याचारों की स्मृति जीवित रखने में लगे रहते थे. कुछ लोगों के विचार से शुरुआती ईसाई इसी एसेन वर्ग से आये थे. लेकिन इसकी संभावना कम लगती है. एसेन धार्मिक सिद्धांतों को लेकर यहूदी मुख्यधारा से अलग हुए थे, ईसाईयत के अलग होने का कारण था पहली सदी ई. में उसका यहूदी समुदाय की मुख्यधारा न बन सकना.

ज़ीलट भी रूढ़िवादी थे, वे एसेन पृथकतावाद के एक आक्रामक रूप को अभिव्यक्त करते थे. उनके विचार से पैलेस्टीन पर रोम के शासन का बस एक जवाब था - सशस्त्र विद्रोह, जैसा जुडास मैकबिअस के नेतृत्व में कभी यहूदियों ने सेल्युकिड सम्राट एन्टिओकस चतुर्थ के विरुद्ध किया था. ज़ीलट बार बार विद्रोह का बिगुल फूँकते रहे और उन्हीं के चलते दूसरी सदी ई. जूडेआ का यहूदी जीवन तबाह हो गया जिससे यहूदी समाज में जन्मी एक धार्मिक धारा ईसाईयत के रूप में स्थापित हो सकी.

जब ईसाईयत, जो कभी एक यहूदी पंथ था, एक अलग धर्म बन गया तब ईसाई चिंतकों ने यहूदी धर्मग्रंथों को अपना कर नए पंथ को हजारो वर्ष पुराना इतिहास दे दिया. यह इतिहास तब विशेष उपयोगी सिद्ध हुआ जब ईसाई धर्म के राजघरानों से सम्बन्ध बनने लगे. नए बने ईसाई धर्म में राजाओं पर कुछ नहीं था, वहीँ  तनख की एक कताब बस राजाओं पर थी.
(क्रमशः) 

~ सचिदानंद सिंह Sachidanand Singh जी का लेख. 

ईसाइयत का इतिहास (5) 
http://vssraghuvanshi.blogspot.com/2022/05/5_28.html 
#vss

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