Friday 6 May 2022

भगवान सिंह / वाल्मीकि

वाल्मीकि का चरित्र राम के चरित्र से कम विचित्र नहीं है । इसका एक कारण ज्ञान के आढ़तियों द्वारा, हर तरह की सूचना को बिकाऊ माल बनाने की कोशिश  रही है।  इसके चलते घालमेल करने में में उनकी अधिक और सत्यान्वेषण में अल्पतम रुचि रही है। अपने कारोबारी उत्साह में वे अपनी ही कृतियों की आप्तता नष्ट करते रहे हैं।  वाल्मीकि के जीवन के विषय में जो कहानियां गढ़ी गईं उनके अनुसार उनका नाम रत्नाकर था और वह क्रूर स्वभाव के लुटेरे थे जो लोगों का मालताल ही नहीं लूटते थे, उनकी हत्या भी कर देते थे। फिर नारद से उनका पाला पड़ गया।  नारद जी क्या लेकर चलते थे जिसे कोई लूट सकता था, यह पता तो नहीं है, पर नारद जी ने जब पूछा कि ऐसा क्यों करते हैं तो उन्होंने बताया कि अपने परिवार के भरण पोषण के लिए।  गरज कि वह गृहस्थ डाकू थे। नारद ने बताया, यह तो पाप है, इसके लिए तुम्हें नरक जाना पड़ेगा, अपने परिवार के लोगों से पूछो, क्या वे भी तुम्हारे साथ नरक में जाएंगे।  रत्नाकर ने नारद को एक पेड़ से बांध दिया और परिजनों से पूछने गया तो सभी ने उसके साथ नरक जाने से इन्कार कर दिया। इसके बाद उसकी आंख खुली। वह लौटा और नारद जी का बंधन खोला और इस पाप का प्रायश्चित करने का उपाय पूछा ताो उन्होंने राम नाम का जाप करने को कह दिया।  वह इतना पक्का अपराधी हो चुका था कि उससे राम का उच्चारण ही न होता था। नारद ने सुझाया मारकाट करता रहा है, मरा मरा तो कह ही सकता है। सो वह मरा मरा जपता हुआ इतना लीन हो गया कि दीमकों ने उसके शरीर पर बांबी (वल्मीक) बना लिया। और इसी के कारण उसका नाम वाल्मीकि पड़ गया।  इस साधना के बल पर वह सिद्धावस्था को पहुंच गया और महामुनि हो गए।  उन्हें तीनों लोकों और तीनों कालों का ज्ञान हो गया। वह राम के जीवन काल में ही हुए थे और  राम उनका दर्शन भी करने गए थे। इसी बाल्मीकि ने रामायण की रचना की यह तो सर्वविदित है ही। 

वह महाभारत काल में भी कई मोकों पर उपस्थित हो जाते हैे। एक बार श्रीकृष्ण उनकी परिक्रमा करते हैं, दूसरा अवसर अश्वमेध का होता है जिसका शंखनाद ही नहीं हो पाता और कृ्ष्ण की सलाह पर उन्हें बुलाया जाता है और उनके पधारते ही शंख अपने आप बज उठता है।
 
यह रहा है हमारा इतिहास। इसे समझा नहीं जाता रहा है, अक्ल को घास चरने को रवाना करने के बाद लालसा से गढा जाता रहा है और वास्तविक इतिहास की तरह  आखों देखे सच की तरह दुहराया जाता रहा है। इसलिए तुलसीदास ने  भी  इस इतिहास को दुहरा  दिया,   “उल्टा नाम जपा जग जाना, बाल्मीकि भये ब्रह्म समाना।। इसमें ब्रह्म का मतलब ब्राह्मण है, क्योंकि केवल ब्राह्मण ही राम (अवतार) की कथा लिख सकता था। 
 
शूद्रों को साधना और आत्मिक उत्थान का अवसर देने के कारण ही ब्राह्मण बौद्ध मत का जी जान से विरोध कर रहे थे।  किसी अब्राह्मण के जप, योग, तप  से ब्राह्मणत्व प्राप्त करना उन्हें सहन न था। शंबूकवध की कहानी ही इसलिए रचनी पड़ी कि शूद्र यदि आत्मोत्थान के लिए तपस्या करता है तो ब्राह्मण की जीविका पर बन आएगी, इसलिए इस कथा में ब्राह्मण के बालक की मृत्यु हो जाती है जो दुबारा जीवित तो हो सकता है पर तभी जब राम उस साधक का वध करें। राम  को ऐसा करना भी पड़ता है, क्योंकि वर्तमान रामायण में वह कृषि के प्रवर्तक और कृषियज्ञ के प्रसारक नहीं गो-ब्राह्मण प्रतिपालक बना कर बौद्धमत के विरुद्ध हथियार के रूप में इस्तेमाल किए गए हैं। 

इसलिए रामायण का रचनाकार पहले सुशिक्षित ब्राह्मण था, कुसंगति के कारण डाकू हो गया था और नारद के उपदेश से उनमें भक्तिभाव पैदा हुआ और तपस्या करके मुनि हो गया।  तुलसीदास  इससे अवगत और सहमत लगते हैं, “जान आदि कवि नाम प्रतापू। भयउ सुद्ध करि उल्टा जापू।”  
 
ब्राह्मणवाद विचारधारा की लड़ाई नहीं लड़ता रहा,  वह  अपनी  एक चूक के कारण  निरंतर  जीविका के संग्राम का हिस्सा बना रहा है। एक दृष्टि से विचार करें तो  यह एक प्रगतिशील भूमिका थी।  जैसा हम पहले कह आए हैं यज्ञ विधान और देववाद  अध्यात्म से जुड़ा नहीं  अर्थतंत्र से जुड़ा अभियान रहा है और इसी के कारण मानव समाज ने पाशविक व्यवस्था से उठकर अपने पराक्रम से धरती पर स्वर्ग में उतारने का लक्ष्य प्राप्त किया।  इस दृष्टि से  बौद्ध धर्म  प्रगतिशील नहीं प्रतिगामी था,  क्योंकि उस में अहिंसा  का विस्तार जीव जंतु तक, कीट मकोड़ों तक कर दिया गया जिसमें कृषि  कर्म तक  अधर्म था।   जिन अनुभवों से खिन्न होकर बुद्ध के मन में वैराग्य पैदा हुआ था उनमें एक था  खेत की जुताई   से  धरती में दबे कीड़े मकोड़ों को  मरते  देखना। 

यह एक तरह से   कृषिपूर्व सतयुग का समर्थन था, आसुरी अवस्था की वापसी थी।  यह ध्यान देने की बात है कि  पूरे बौद्ध दर्शन में उत्पादन उद्योग और प्रगति के पक्ष में कुछ भी नहीं मिलता। वे  चीवर धारण करते हैं,  परंतु वस्त्र बनाना नहीं जानते। श्मशान  आदि में फेंके हुए कपड़ों को भी  गेरू में रंग कर  पहनने की व्यवस्था है।  पानी के बर्तन में कितनी दरार पड़ जाएगी उसके बाद उसे बदला जाएगा,  इस तरह का  कृपण  सुझाव उसमें हैं, जबकि ब्राह्मणवाद  शुचिता,  आरोग्य, कर्म,  उद्योग, और लाभ  को जो उन्नत और स्वस्थ जीवन की प्राथमिकताएं हैं उन पर जोर देता है।   यही अंतर काल भेद से कबीर और तुलसी में भी मिलता है। कबीर  एक कर्मठ समुदाय की  उपज हैं, परंतु   आर्थिक  विषमता और  पीड़ा  की ओर उनका ध्यान नहीं जाता।   देखि पराई चूपड़ी क्यों ललचावे जीव। तुलसी हैं जिनका ध्यान आर्थिक दुर्गति पर बार-बार जाता है,  उसमें  उनकी अपनी दुर्गति भी शामिल है,  जिसमें वह मानते हैं कि यदि योगियों,  संतो,  सिद्धों  के प्रति समाज का आकर्षण न बढ़ गया होता तो उनको ब्राह्मण होते हुए भी उस दुर्गति से नहीं गुजरना पड़ता,  जिसे उन्होंने  ‘बारे ते ललात बिललात द्वार द्वार दीन जानत हौं चारि फल चारिहू चनक को।’ में  व्यक्त किया है।
 
असन बसन हीन विषम विषाद लीन, देखि दीन दूहरो करैं  न हाय हाय को। जैसी पंक्तियां मध्यकाल ही नहीं आधुनिक काल से पहले का कोई कवि नहीं लिख सकता था। यही तुलसी की आधुनिकता है, यही उनकी प्रासंगिकता है। दृष्टि की यह प्रखरता कि कौई भी चीज ऐसी नहीे जिसमें केवल गुण होें कोई दोष न हो ,या केवल दोष हो. कोई गुण न हो - कहहिं बेद इतिहास पुराना। बिधि प्रपंचु गुन अवगुन साना। और इसलिए “संग्रह त्यागु न बिनु पहचाने” तुलसी को तत्कलीन और साथ ही हमारे समकालीन बनाता हैं। दुनिया के बहुत कम कवि हैं जो इस कसौटी पर खरे उतरते हैे, जो युगसत्य और जीवन सत्य दोनो कौ व्यक्त करते हैं। यही तुलसी के मूल्यांकन का मानदंड भी हो सकता है।   
                                          
हम बात तो  बाल्मीकि की कर रहे थे, फिर तुलसी पर क्यों अटक गए? इसलिए कि तुलसी से बड़ा युग दृष्टा और क्रांतद्रष्टा मेरी जानकारी में नहीं है।  वह जानते थे या कम से कम उन्हें इस बात का संदेह था कि आदि कवि ने जो कथा लिखी होगी,  जरूरी नहीं कि उसमें चरितनायक राम रहे हों। परंतु कथा का अंतःसूत्र अवश्य राममय रहा होगा। वही कह सकते थे कि यदि कथा में राम का कोई दूसरा रूप आया हो (दुसरा नाम भी आएगा ही) तो आश्चर्य मत करो, “नाना भांति राम अवतारा”. "भांति अनेक मुनीसन्ह गाए"।  ऐसी दशा में कथाभेद  भी हो सकता हैऔर चरितनायक भी बदल  सकता है। अतः आदि काव्य में राम बामनरूप में मिले तो आश्चर्य में नहीं पड़ना चाहिए। "राम अनंत अनंत गुन अमित कथा विस्तार। सुनि आचरज न मानिहहिं जाके विमल विचार।।"
 
मैने आदि काव्य के प्रसंग में वाल्मीकि को बाल्मीकि लिखा है। यह अशुद्ध है। सही नाम बिलमीक होना चाहिए। वाल्मीकि इसलिए नहीं कि यदि उनकी रचना भोजपुरी से मिलती जुलती भाषा में हुई थी और वह भी उसी क्षेत्र के थे तो भोजपुरी में 'व' की ध्वनि नहीं है। दूसरे इसमें असवर्ण व्यंजन संयोग नहीं होता।  अब तीन ही विकल्प रह जाते हैं ब‌लमीकि, बिलमीक या बालमीकि।
 
बाल्मीकि के प्रसंग में मैं केवल दो बातों पर आपका ध्यान केंद्रित करना चाहूंगा।  पहला यह  कि उनके  विषय में जो कहानियां कही गई है वे नाम के आधार पर गढ़ी गई हैं, परंतु जिस दौर में गड़ी गईं उस दौर में न तो सही नाम का ज्ञान था न ही राम के पूर्व रूप  विष्णु से उनके संबंध का ज्ञान था।   

यह भी याद दिला दें  कि कृषि की दिशा में पहल करने वाले  किसी  अलग नस्ल के नहीं थे।   पुरातात्विक प्रमाणों से पता चलता है के इस दिशा में बढ़ने वाले कोल, मग और  शक जन थै।  ऐसी स्थिति में उनकी भाषा की समस्या नए रूप में सामने आती है परंतु  मध्य पाषाण युग  के स्थाई आवास  और कृषि के जिन स्थलों की पहचान हुई है उनमें कोल्डिहवा,(कोल) महगरा अर्थात् मगहरा (मग). चौपानी मंडो (मुंडा) जैसे नाम जिस समस्या कौ सामने लाते हैं, उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। आगे चल कर इन्द्र के लिए शक्र(<शक) का प्रयोग, अवध के लिए साकेत (<सक), और साथ ही कोसल, कासी (<कस),  अवध (<ओड)  का प्रयोग हमें इस समस्या पर अधिक गहराई से विचार करने को बाध्य करता है कि जिन्हें कृषि की दिशा में पहल के कारण देव, सुर, ब्राह्मण, आर्य आदि कहा गया उनकी सामाजिकता कैसे निर्मित हुई थी।  

अब हम उस काल में लौट कर आदिकवि के नाम पर विचार करें तो आश्चर्य इस बात पर होता है कि युगों के पार उसका नाम याद कैसे रहा।  इसे हम लोकपरंपरा की शक्ति मान सकते हैं। 

पर जो संभावित रूप हमने तय किया है  उसमें बिल्मीकि काअर्थ हुआ तत्वद्रष्टा।  बिल ऋग्वेद में भी मिलता है (अपां बिलं अपिहितं यदासीत्) सो इसी को संस्कृत में विवर बना दिया गया।  'ब' का 'व' में परिवर्तन हुआ पर विल्मीकि का अर्थ समझ में न आने के कारण बांबी की वाहियात कल्पना करनी पडी।  बिल आज तक विवर के लिए प्रयोग में आता है, पर इसका प्रयोग जिस गर्त  या छेद (अक्ष) के आशय में किया जाता है उसका प्रयोग आंख के लिए भी किया  जाता है। 

इस दूसरे आशय में बिल का प्रयोग बहुत पहले से नहीं होता, पर बिलनी - आंख की पलक की फुंसी, निषेधार्थक बिलाइल - खो जाना, दिखाई न देना, अं.ब्लिंक और फा. बीन, बीनाई. और सं. बिंदुु में इसका आभास मिल सकता है।  इसी का संबंध बिल्हण से है जिसका औचित्य सिद्ध करने के लिए बिल्म/भिल्म धातु रूप कल्पित किए गए।
 
जहां तक उनके दस्यु रूप का प्रश्न है, ऐसा लगता है  पहले वह यज्ञ-विरोधी, कृषि विरोधी थे।  आसुरी/ राक्षसी मूल्यों में विस्वास करते थे। बाद में कृषि के लाभों से परिचित होने के बाद वह इसके घोर समर्थक हो गए थे और अपना गान लिखा था।  यह कृषि के क्रमिक प्रसार और सांस्कृतिक रूपांतरण की कहानी भी कहता हे।

भगवान सिंह
© Bhagwan Singh

No comments:

Post a Comment